परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा
परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा

परीक्षा-गुरु प्रकरण – १८ क्षमा – Pariksha-Guru Prakaran-18 :Kshama

परीक्षा-गुरु प्रकरण – १८ क्षमा

नरको भूषण रूप है रूपहुको गुणजान।

गुणको भूषण ज्ञान है क्षमा ज्ञान को मान ।। १ ।।

सुभाषितरत्‍नाकरे.

“आप चाहे स्‍वार्थ समझैं चाहे पक्षपात समझैं हरकिशोर नें तो मुझे ऐसा चिढ़ाया है कि मैं उस्‍सै बदला लिये बिना क़भी नहीं रहूँगा” लाला मदनमोहन नें गुस्से सै कहा.

“उस्‍का कसूर क्‍या है ? हरेक मनुष्‍य सै तीन तरह की हानि हो सक्ती है. एक अपवाद करके दूसरे के यश मैं धब्‍बा लगाना, दूसरे शरीर की चोट, तीसरे माल का नुकसान करना. इन्मैं हरकिशोर नें आप की कौनसी हानि की ?” लाला ब्रजकिशोर नें कहा.

लाला मदनमोहन के मन मैं यह बात निश्‍चय समा रही थी कि हरकिशोर नें कोई बड़ा भारी अपराध किया है परन्‍तु ब्रजकिशोर नें तीन तरह के अपराध बताकर हरकिशोर का अपराध पूछा तब वह कुछ न बता सके क्‍योंकि मदनमोहन की वाकफ़ियत मैं ऐसा कोई अपराध हरकिशोर का न था. मदनमोहन को लोगों नें आस्‍मान पर चढ़ा रक्‍खा था इसलिये केवल हरकिशोर के जवाब देनें सै उस्‍के मन मैं इतना गुस्‍सा भर रहा था.

“उस्‍नें बड़ी ढिटाई की. वह अपनें रुपे तत्‍काल मांगनें लगा और रुपया लिये बिना जानें सै साफ इन्‍कार किया” लाला मदनमोहन नें बड़ी देर सोच बिचार कर कहा.

“बस उस्‍का यही अपराध है ? इस्‍मैं तो उस्‍नें आप की कुछ हानि नहीं की. मनुष्‍य को अपना सा जी सबका समझना चाहिये. आपका किसी पर रुपया लेना हो और आप को रुपे की ज़रूरत हो अथवा उस्‍की तरफ़ सै आप के जीमैं किसी तरहका शक आजाय अथवा आप के और उस्‍के दिल मैं किसी तरह का अन्‍तर आजाय तो क्‍या आप उस्‍सै ब्यवहार बन्‍द करनें के लिये अपनें रुपेका तकाजा न करेंगे ? जब ऐसी हालातों मैं आप को अपनें रुपे के लिये औरों पर तकाजा करनें का अधिकार है तो औरों को आप पर तकाजा करनें का अधिकार क्‍यों न होगा ? आप बेसबब जरा, जरासी बातों पर मुंह बनायं, वाजबी राह सै जरासी बात दुलख देनें पर उस्‍को अपना शत्रु समझनें लगें और दूसरे को वाजबी बात कहनें का भी अधिकार न हो !” लाला ब्रजकिशोर नें जोर देकर कहा.

“लाला साहब को उस्‍का स्‍वभाव पहचान्‍कर उस्‍सै व्‍यवहार डालना चाहिये था अथवा उस्‍का रुपया बाकी न रखना चाहिए था. जब उस्‍का रुपया बाकी है तो उस्‍को तकाज़ा करनें का निस्सन्देह अधिकार है और उस्‍नें कड़ा तकाज़ा करनें मैं कुछ अपराध भी किया हो तो उस्‍के पहले कामोंका सम्बन्ध मिलाना चाहिये” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे. प्रल्‍हादजीनें राजा बलिसै कहा है “पहलो उपकारी करै जो कहुँ अतिशय हान।। तोहू ताकों छोडि़ये पहले गुण अनुमान।। १।। “बिना समझे आश्रित करै सोऊ क्षमिये तात।। सब पुरुषनमैं सहज नहिं चतुराई की बात ।।२।।

यह सब सच है कि छोटे आदमी पहले उपकार करकै पीछे उस्‍का बदला बहुधा अनुचित रीतिसै लिया चाहतें हैं परन्तु यहां तो कुछ ऐसा भी नहीं हुआ.”

“उपकार हो या न हो ऐसे आदमियोंको उन्‍की करनी का दंड तो अवश्‍य मिलना चाहिये” मास्‍टर शिंभूदयाल कहनें लगे. जो उन्‍को उन्‍की करनी का दंड न मिलेगा तो उन्‍की देखा देखी और लोग बिगड़ते चले जायंगे और भय बिना किसी बात का प्रबन्‍ध न रह सकेगा. सुधरे हुए लोगों का यह नियम है कि किसीको कोई नाहक़ न सतावै और सतावै तो दंड पावै. दंडका प्रयोजन किसी अपराधी सै बदला लेनें का नहीं है बल्कि आगेके लिये और अपराधों सै लोगों को बचानें का है”

“इस वास्‍तै मैं चाहता हूँ कि मेरा चाहै जितना नुकसान हो जाय परन्‍तु हरकिशोर के पल्‍ले फूटी कौड़ी न पड़नें पावै” लाला मदनमोहन दांत पीसकर कहनें लगे.

“अच्‍छा ! लाला साहबनें कहा, इस रीति सै क्‍या मास्‍टर साहब के कहनें का मतलब निकल आवैगा ?” लाला ब्रजकिशोर पूछनें लगे. आप जान्‍ते हैं कि दंड दो तरह का है एक तो उचित रीति सै अपराधी को दंड दिवाकर औरों के मनमैं अपराधकी अरुचि अथवा भय पैदा करना, दूसरे अपराधी सै अपना बैर लेना और अपनें जी का गुस्‍सा निकालना. जिस्‍नें झूठी निंदा करके मेरी इज्‍जत ली उस्‍को उचित रीति सै दंड करानेंमैं अपनें देशकी सेवा करता हूँ परन्‍तु मैं यह मार्ग छोड़कर केवल उस्की बरबादी का बिचार करूं अथवा उस्का बैर उस्‍के निर्दोष सम्‍बन्धियों सै लिया चाहूँ, आधीरात के समय चुपके सै उस्‍के घर मैं आग लगा दूं और लोगों को दिखानें के लिये हाथ मैं पानी लेकर आग बुझानें जाऊं तो मेरी बराबर नीच कौन होगा ? बिदुरजी नें कहा है “सिद्ध होत बिनहू जतन मिथ्‍या मिश्रित काज। अकर्तव्‍यते स्‍वप्‍नहू मन न धरो महाराज।।१” ऐसी कारवाई करनेंवाला अपनें मनमैं प्रसन्‍न होता है कि मैंनें अपनें बैरीको दुखी किया परन्‍तु वह आप महापापी बन्‍ता है और देश का पूरा नुकसान करता है. मनु महाराज नें कहा है “दुखित होय भाखै न तौ मर्म बिभेदक बैन।। द्रोह भाव राखै न चित करै न परहि अचैन।। २”

“जो अपराध केवल मन को सतानें वाले हों और प्रगट मैं साबित न हों सकैं तो उन्‍का बदला दूसरे सै कैसे लिया जाय ?” लाला मदनमोहन नें कहा.

“प्रथम तो ऐसा अपराध हो हीं नहीं सक्ता और थोड़ा बहुत हो भी तो वह ख़याल करनें लायक नहीं है क्‍योंकि संदेह का लाभ सदा अपराधी को मिल्‍ता है इस्के सिवाय जब कोई अपराधी सच्‍चे मन सै अपनें अपराध का पछताव कर ले तो वह भी क्षमा करनें योग्‍य हो जाता है और उस्‍सै भी दंड देनें के बराबर ही नतीजा निकल आता है:”

“पर एक अपराधी पर इतनी दया करनी क्‍या जरूरी है ?” लाला मदनमोहन नें ताज्‍जुब सै पूछा.

“जब हम लोग सर्व शक्तिमान परमेश्‍वर के अत्यन्त अपराधी होकर उस्‍सै क्षमा करनें की आशा रखते हैं तो क्‍या हम को अपनें निज के कामों के लिये, अपनें अधिकार के कामों के लिये, आगे की राह दुरुस्‍त हुए पीछै, अपराधी के मन मैं शिक्षा के बराबर पछतावा हुए पीछै क्षमा करना अनुचित है ? यदि मनुष्‍य के मन मैं क्षमा और दया का लेश भी न हो तो उस्‍मैं और एक हिंसक जन्‍तु मैं क्‍या अन्‍तर है ? पोप कहता है “भूल करना मनुष्‍य का स्‍वभाव है परन्‍तु उस्‍को क्षमा करना ईश्‍वर का गुण है” एक अपराधी अपना कर्तव्य भूल जाय तो क्‍या उस्‍की देखा देखी हमको भी अपना कर्तव्य भूल जाना चाहिये. सादीनें कहा है “होत हुमे या‍ही लिये सब पक्षिन को राय।।अस्थिभक्ष रक्षे तनहि काहू कों न सताय।।” दूसरे का उपकार याद रखना वाजबी बात है परन्‍तु अपकार याद रखनें मैं या यों कहो कि अपनें कलेजे का घाव हरा रखनें मैं कौन-सी तारीफ है ? जो दैव योग सै किसी अपराधी को औरों के फ़ायदे के लिये दंड दिवानें की ज़रूरत हो तो भी अपनें मन मैं उस्की तरफ़ दया और करुणा ही रखनी चाहिये”

“ये सब बातें हँसी खुशी मैं याद आती हैं. क्रोध मैं बदला लिये बिना किसी तरह चित्त को सन्‍तोष नहीं होता” लाला मदनमोहन नें कहा.

“बदला लेनें का तो इस्‍सै अच्‍छा दूसरा रास्‍ता ही नहीं है कि वह अपकार करे और उस्‍के बदले आप उपकार करो” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “जब वह अपनें अपराधों के बदले आप की महेरबानी देखेगा तो आप लज्जित होगा और उस्‍का मन ही उस्‍को धि:कारनें लगेगा. बैरी के लिये इस्‍सै कठोर दंड दूसरा नहीं है परन्‍तु यह बात हर किसी सै नहीं हो सक्ती. तरह, तरह का दु:ख नुक्‍सान और निन्‍दा सहनें के लिये जितनें साहस, धैर्य और गम्‍भीरता की जरुरत है बैरी सै बैर लेनें के लिये उन्‍की कुछ भी जरुरत नहीं होती. यह काम बहुत थोड़े आदमियों सै बन पड़ता है पर जिनसै बन पड़ता है वही सच्‍चे धर्मात्‍मा हैं:-

“जिस्‍समय साइराक्‍यूजवालों नें एथेन्‍स को जीत लिया साइराक्‍यूज की कौन्सिल मैं एथीनियन्‍स को सजा देनें की बावत बिबाद होनें लगा. इतनें मैं निकोलास नामी एक प्रसिद्ध गृहस्‍थ बुढ़ापे के कारण नौकरों के कंधेपर बैठकर वहां आया और कौन्सिल को समझाकर कहनें लगा “भाइयों ! मेरी ओर दृष्टि करो मैं वह अभागा बाप हूँ जिस्की निस्‍बत ज्‍याद: नुक्‍सान इस लड़ाई मैं शायद ही किसी को हुआ होगा. मेरे दो जवान बेटे इस लड़ाई मैं देशोपकार के लिये मारे गए. उन्सै मानो मेरे सहारे की लकड़ी छिन गई मेरे हाथपांव टूट गए, जिन एथेन्‍सवालों नें यह लड़ाई की उन्‍को मैं अपनें पुत्रों के प्राणघातक समझ कर थोड़ा नहीं धिक्‍कारता तथापि मुझको अपनें निज के हानि लाभ के बदले अपनें देश की प्रतिष्‍ठा अधिक प्‍यारी है, बैरियों सै बदला लेनें के लिये जो कठोर सलाह इस्‍समय हुई है वह अपनें देश के यश को सदा सर्वदा के लिये कलंकित कर देगी, क्‍या अपनें बैरियों को परमेश्‍वर की ओर सै कठिन दण्ड नहीं मिला ? क्‍या उन्‍के युद्ध मैं इस तरह हारनैं सै अपना बदला नहीं भुगता ? क्‍या शत्रुओं नें अपनी प्राणरक्षा के भरोसे पर तुमको हथियार नहीं सोंपें ? और अब तुम उन्‍सै अपना वचन तोड़ोगे तो क्‍या तुम विश्बासघाती न होगे ? जीतनें से अविनाशी यश नहीं मिल सक्ता परन्‍तु जीते हुए शत्रुओं पर दया करनें सै सदा सर्वदा के लिये यश मिलता है” साइराक्‍यूज की कौन्सिल के चित्त पर निकोलास के कहनें का ऐसा असर हुआ कि सब एथीनियन्‍स तत्‍काल छोड़ दिये गए”

“आप जान्‍ते हैं कि शरीर के घाव औषधि सै रुज जाते हैं परन्‍तु दुखती बातों का घाव कलेजे पर सै किसी तरह नहीं मिटता” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा.

“क्षमाशील के कलेजे पर ऐसा घाव क्‍यों होनें लगा है ? वह अपनें मन मैं समझता है कि जो किसी नें मेरा सच्‍चा दोष कहा तो बुरे मान्‍नें की कौन्‍सी बात हुई ? और मेरे मतलब को बिना पहुँचे कहा तो नादान के कहनें सै बुरा मान्‍नें कि कौन्‍सी बात रही ? और जानबूझ कर मेरा जी दुखानें के वास्तै मेरी झूंटी निन्‍दा की तो मैं उचित रीति सै उस्‍को झूंटा डाल सक्ता हूँ ? सजा दिवा सक्ता हूँ फ़िर मन मैं द्वेष और प्रगट मैं गाली गलौज लड़नें की क्‍या ज़रूरत है ? आप बुरा हो और लोग अच्‍छा कहैं इस्‍की निस्‍बत आप अच्‍छा हो और लोग बुरा कहैं यह बहुत अच्‍छा है” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया.

परीक्षा-गुरु – Pariksha Guru

परीक्षा गुरू हिन्दी का प्रथम उपन्यास था जिसकी रचना भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने 25 नवम्बर,1882 को की थी। 

परीक्षा गुरु पहला आधुनिक हिंदी उपन्यास था। इसने संपन्न परिवारों के युवकों को बुरी संगति के खतरनाक प्रभाव और इसके परिणामस्वरूप ढीली नैतिकता के प्रति आगाह किया। परीक्षा गुरु नए उभरते मध्यम वर्ग की आंतरिक और बाहरी दुनिया को दर्शाता है। पात्र अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए औपनिवेशिक समाज के अनुकूल होने की कठिनाई में फंस जाते हैं। हालांकि यह जाहिर तौर पर विशुद्ध रूप से ‘पढ़ने के आनंद’ के लिए लिखा गया था। औपनिवेशिक आधुनिकता की दुनिया भयावह और अप्रतिरोध्य दोनों लगती है।

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Further Reading:

  1. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१ सौदागरकी दुकान
  2. परीक्षा-गुरु प्रकरण- २ अकालमैं अधिकमास
  3. परीक्षा-गुरु प्रकरण- ३ संगतिका फल
  4. परीक्षा-गुरु प्रकरण-४ मित्रमिलाप
  5. परीक्षा-गुरु प्रकरण-५ विषयासक्‍त
  6. परीक्षा-गुरु प्रकरण-६ भले बुरे की पहचान
  7. परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)
  8. परीक्षा-गुरु प्रकरण-८ सबमैं हां
  9. परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद
  10. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१० प्रबन्‍ध (इन्‍तज़ाम)
  11. परीक्षा-गुरु प्रकरण-११ सज्जनता
  12. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१२ सुख दु:ख
  13. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१३ बिगाड़का मूल- बि वाद
  14. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१४ पत्रव्यवहा
  15. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१५ प्रिय अथवा पिय् ?
  16. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१६ सुरा (शराब)
  17. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१७ स्‍वतन्‍त्रता और स्‍वेच्‍छाचार.
  18. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा
  19. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता
  20. परीक्षा-गुरु प्रकरण – २० कृतज्ञता
  21. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२१ पति ब्रता
  22. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२२ संशय
  23. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२३ प्रामाणिकता
  24. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथसै पै दा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)
  25. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२५ साहसी पुरुष
  26. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२६ दिवाला
  27. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२७ लोक चर्चा (अफ़वाह).
  28. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह
  29. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२९ बात चीत.
  30. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३० नै राश्‍य (नाउम्‍मेदी).
  31. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक
  32. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत
  33. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा
  34. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)
  35. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद
  36. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी
  37. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य
  38. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति
  39. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय
  40. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४० सुधारनें की रीति
  41. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४१ सुखकी परमावधि

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