परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा
परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा

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परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा Pariksha-Guru Prakaran-33 Mitrapariksha

परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा

धन न भयेहू मित्रकी सज्‍जन करत सहाय ।।

मित्र भाव जाचे बिना कैसे जान्‍यो जाय ।।

विदुरप्रजागरे

आज तो लाला ब्रजकिशोर की बातोंमैं लाला मदनमोहन की बात ही भूल गये थे !

लाला मदनमोहन के मकान पर वैसी ही सुस्ती छा रही है केवल मास्‍टर शिंभूदयाल और मुन्शी चुन्‍नीलाल आदि तीन, चार आदमी दिखाई देते हैं परन्‍तु उन्‍का भी होना न होना एकसा है वह भी अपनें निकासका रस्‍ता ढूंढ़ रहे हैं. हम अबतक लाला मदनमोहनके बाकी मुसाहबोंकी पहचान करानें के लिये अवकाश देख रहे थे इतनेंमैं उन्‍नें मदनमोहन का साथ छोड़ कर अपनी पहचान आप बतादी. हरगोबिन्‍द और पुरुषोत्तमदास नें भी कल सै सूरत नहीं दिखाई थी. बाबू बैजनाथ को बुलानें के लिये आदमी गया था परन्‍तु उन्‍हैं आनें का अवकाश न मिला. लाला हरदयाल साहब के नाम कुछ दिन के लिये थोड़े रुपे हाथ उधार देनें को लिखा गया था परन्‍तु उन्‍का भी जवाब नहीं आया. लाला मदनमोहन का ध्‍यान सबसै अधिक डाककी तरफ़ लग रहा था उन्को विश्वास था कि मित्रों के तरफ़सै अवश्‍य अवश्‍य सहायता मिलेगी बल्कि कोई, कोई तो तार की मार्फ़त रुपे भिजवायेंगे.

“क्‍या करें? बुद्धि काम नहीं करती” मास्‍टर शिंभूदयाल नें समय देखकर अपनें मतलब की बात छेड़ी “इन्‍हीं दिनोंमैं यहां काम है और इन्हीं दिनों मैं लड़कों का इमतहान है. कल मुझको वहां पहुँचनें मैं पाव घन्टे की देर हो गई थी इस्‍पर हेडमास्‍टर सिर हो गये. वहां न जायं तो रोजगार जाता है यहां न रहैं तो मन नहीं मानता (मदनमोहन सै) आप आज्ञा दें जैसा किया जाय ?”

“खैर ? यहां का तो होना होगा सो हो रहैगा तुम अपना रोज़गार न खोओ” लाला मदनमोहन नें रुखाई सै जवाब दिया.

“क्‍या करूं ? लाचार हूँ” मास्‍टर शिंभूदयाल बोले “यहां आए बिना तो मन नहीं मानेंगा परन्‍तु हां कुछ कम आना होगा आठ पहर की हाजरी न सध सकेगी. मेरी देह मदरसेमैं रहेगी परन्‍तु मेरा मन यहां लगा रहैगा”

“बस आपकी इतनी ही महरबानी बहुत है” लाला मदनमोहन नें जोर देकर कहा.

निदान मास्‍टर शिंभूदयाल मदरसे जानें का समय बताकर रूख़सत हुए.

“आज निहालचंद का मुकद्दमा है देखैं ब्रजकिशोर कैसी पैरवी करते हैं” मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा “कल आपके पाकटचेन देनेंसै उन्‍का मन बहुत बढ़गया परन्तु वह उसे अपनें महन्‍तानें मैं न समझैं. मेरे निकट अब उन्‍का महन्ताना तत्‍काल भेज देना चाहिए जिस्‍सै उन्‍को यह संदेह न रहै और मन लगाकर अपनें मुकद्दमों मैं अच्‍छी जवाब दि‍ही करैं मैं इन्के पास रहक़र देख चुका हूं कि यह अपनें मुखसै तो कुछ नहीं कहते परन्‍तु इन्‍के साथ जो जितना उपकार करता है यह उस्‍सै बढ़कर उसका काम कर देते हैं”

“अच्‍छा ! तो आज शाम को कोई कीमती चीज इन्‍के महन्‍तानेंमैं दे देंगे और काम अच्‍छा किया तो शुक्राना जुदा देंगे” लाला मदनमोहननें कहा.

इतनें मैं डाक आई उस्‍मैं एक रजिस्‍ट्री चिट्ठी मेरठसै एक मित्र की आई थी जिस्‍मैं दस हजार की दर्शनी हुंडी निकली और यह लिखा था कि “जितनें रुपे चाहियें और मंगा लेना. आपका घर है” लाला मदनमोहन यह चिट्ठी देखते ही उछल पड़े और अपनें मित्रों की बड़ाई करनें लगे. हुंडी तत्‍काल सकरानें को भेज दी परन्‍तु जिसके नाम हुंडी थी उस्‍नें यह कहक़र हुंडी सिकारनेंसै इन्‍कार किया कि जिस साहूकार के हां सै लाला मदनमोहन के पास हुंडी आई है उसीनें तार देकर मुझको हुंडी सिकारनें की मनाई की है इस्‍सै सब भेद खुल गया. असल बात यह थी कि जिस्‍समय मदनमोहन की चिट्ठी उस्‍के पास पहुँची उस्को मदनमोहनके बिगड़नें का जरा भी संदेह न था इसलिये मदनमोहन की चिट्ठी पहुँचते ही उस्‍नें सच्‍ची प्रीति दिखानेंके लिये दस हजार की हुंडी खामदी परन्‍तु पीछेसै और लोगोंकी जबानी मदनमोहन के बिगड़नें का हाल सुन्कर घबराया और तत्‍काल तार देकर हुंडी खड़ी रखवादी.

लाला मदनमोहन इस तरह अपनें एक मित्रके छलसै निराश होकर तीसरे पहर अपनें शहरके मित्रोंसै सहायता मांगनेंके लिये आप सवार हुए. पहलै रस्‍तै मैं जो लोग झुक-झुक कर सलाम करते थे वही आज इन्‍हें देखकर मुख फेरनें लगे बल्कि कोई, कोई तो आवाजें कसनें लगे. मदनमोहन को सबसै अधिक विश्‍वास लाला हरदयाल का था इसलिये वह पहलै उसीके मकान पर पहुँचे.

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हरदयाल को मदनमोहनके काम बिगड़नें का हाल पहले मालूम हो चुका था और इसी वास्‍तै उस्‍नें मदनमोहन की चिट्ठी का जवाब नहीं भेजा था. अब मदनमोहनके आनें का हाल सुन्‍ते ही वह जरासी देर मैं मदनमोहन के पास पहुँचा और बड़े सत्‍कार सै मदनमोहनको लिवा लेजाकर अपनी बैठकमैं बिठाया.

लाला मदनमोहननें कल सहायता मांगनेंके लिये चिट्ठी भेजी थी उस्‍को पहलै उस्‍नें हंसीकी बात ठैराई और जवाब न भेजनें का भी यही कारण बताया परन्‍तु जब मदनमोहननें वह बात सच्‍ची बताई और उस्‍के पीछे का सब वृत्तान्त कहा तो लाला हरदयाल अत्‍यन्‍त दुखित हुए और बड़ी उमंगसे अपनी सब दौलत लाला मदनमोहन पर न्‍योछावर करनें लगे. लाला हरदयाल की यह बातें केवल कहनें के लिये न थी वह दौड़कर अपनें गहनें का कलमदान उठा लाए और उस्मैंसै एक एक, रकम निकाल कर लाला मदनमोहन को देनें लगे. इतनें मैं एकाएक दरवाजा खुला हरदयाल का पिता भीतर पहुँचा और वह हरदयाल को जवाहरात की रकमें मदनमोहनके हाथमें देते देख कर क्रोध सै लाल हो गया.

“अभागे हटधर्मी ! मैंनें तुझको इतनी बार बरजा परन्‍तु तू अपना हठ नहीं छोड़ता आजकल के कपूत लड़के इतनी बातको सच्‍ची स्‍वतन्‍त्रता समझते हैं कि जहां तक हो सके बड़ों का निरादर और अपमान किया जाय, उन्‍को मूर्ख और अनसमझ बताया जाय, परन्‍तु मैं इन बातों को क़भी नहीं सहूँगा मेरे बैठे तुझको घर बरबाद करनें का क्‍या अधिकार है ? निकल यहांसै काला मुंहक़र तेरी इच्‍छा होय जहां चला जा मेरा तेरा कुछ सम्‍बन्‍ध नहीं रहा” यह कह कर एक तमाचा जड़ दिया और गहना सम्‍हाल, सम्हालकर संदूक मैं संदूक मैं रखनें लगा. थोड़ी देर पीछे लाला मदनमोहन की तरफ़ देखके कहा. “संसारके सब काम रुपै सै चल्‍ते हैं फ़िर जो लोग अपनी दौलत खोकर बैरागी बन बैठें और औरों की दौलत उड़ाकर उन्को भी अपनी तरह बैरागी बनाना चाहें वह मेरे निकट सर्वथा दया करनेंके योग्‍य नहीं हैं और जो लोग ऐसे अज्ञानियों की सहायता करते हैं वह मेरे निकट ईश्‍वर का नियम तोड़तेहैं और संसारी मनुष्‍यों के लिये बड़ी हानिका काम करते हैं मेरे निकट ऐसे आदमियों को उन्की मूर्खताका दण्‍ड अवश्‍य होना चाहिये जिस्‍सै और लोगों की आंखें खुलैं, क्‍या मित्रता का यही अर्थ है कि आप तो डूबें सो डूबें अपनें साथ औरों को भी ले डूबें ! नहीं, नहीं आप ऐसे बिचार छोड़ दीजिये और चुपचुपाते अपनें घर की राह लीजिये यह समय अपनें मित्रोंको देनें का है अथवा उल्टा उन्‍सै लेनें का है ?”

“बुरे वक्‍त मैं एक मित्रका जी दुखाना, और दयाके समय क्रूरता करनी, किसीकी दुखती चोट पर हँसना, एक गरीब को उस्‍की गरीबीके कारण तुच्‍छ समझना, अथवा उस्‍की गरीबी की याद दिवाकर उसै सताना, दूसरे का बदला भुगताती बार अपनें मतलब का खयाल करना, कैसा ओछापन और घोर पाप है. जहां सज्‍जन धनवानों की खुशामद सै दूर रहक़र गरीबोंका साथ देनें और सहायता करनें मैं सच्‍ची सज्‍जनता समझते हैं. कठोर वचन दो तरह से कहा जाता है. जो लोग अपनायत की रीति सै कहते हैं उन्‍कीकहनसै तो अपनें चित्तमैं वफादारी और आधीनता बढ़ती हैं पर जो अभिमान की राहसै दूसरे को तुच्‍छ बनाते हैं उन्‍की कहनसै चित्तमैं क्रोध और धि:कार बढ़ता जाता है. हर तरह का घाव ओषधि सै अच्‍छा हो सक्ता है परन्‍तु मर्म बेधी बात का नासूर किसी तरह नहीं रुझता. विदुरजीनें सच कहा है “नावक सर धनु तीर काढे कुढत शरीरते ।। कुबचन तीर गम्भीर कढत न क्‍यों हूँ उर गढे ।। १।।”

निदान लाला मदनमोहन को यह कहना अत्‍यन्‍त असह्य हुई. वह तत्‍काल उठकर वहांसै चल दिये परन्‍तु बैठक सै बाहर जाते, जातै उन्हैं पीछैसै हरदयाल का यह बचन सुनकर बड़ा आश्‍चर्य हुआ कि “चलो यह स्‍वांग (अभिनय) हो चुका अब अपना काम करो.”

लाला मदनमोहन वहां सै चलकर एक दूसरे मित्रके मकान पर पहुँचे और उस्‍सै अपनै आनेंकी खबर कराई वह उस्‍समय कमरेमैं मोजूद था परन्‍तु उस्‍नें लाला मदनमोहन को थोड़ी देर अपनें दरवाजे पर बाट दिखानेंमैं और अपनें कमरे को ज़रा मेज कुरसी, किताब, अखबार आदि सै सजाकर मिलनेंमैं अधिक शोभा समझी इसलिये कहला भेजा कि “आप ठैरें लाला साहब भोजन करनें गये हैं अभी आकर आप सै मिलेंगे.” देखिये आज-कलके सुधरे विचारोंका नमूना यह है ? थोड़ी देर पीछै वह लाला मदनमोहनको लिवानें आया और बड़े शिष्‍टाचारसै लिवा ले जाकर उन्‍हैं तकियेके सहारे बिठाया. लाला मदनमोहन को थोड़ी देर उस्‍की बाट देखनी पड़ी थी इस्‍की क्षमा चाही और इधर-उधर की दो चार बातें करके मानों कुछ चिट्ठियाँ अत्‍यन्‍त आवश्‍यकीय लिखनी बाकी रह गई हों. इस्‍तरह चिट्ठी लिखनें लगा परन्‍तु दो चार पल पीछे फ़िर कलम रोककर बोला “हां यह तो कहिये आपनें इस्‍समय किस्‍तरह परिश्रम किया ?”

“क्‍यों भाई ! आनें जानें का कुछ डर है ? क्‍या मैं पहले क़भी तुम्‍हारे यहां नहीं आया ? या तुम मेरे यहां नहीं गए ?” लाला मदनमोहननें कहा.

“आपनें यह तो बड़ी कृपा की परन्‍तु मेरे पूछनें का मतलब यह था कि कुछ ताबेदारी बताकर मुझे अधिक अनुग्रहीत कीजिये” उस मनुष्‍यनें अजानपनें मैं कहा.

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“हां कुछ काम भी है. मुझको इस्‍समय कुछ रुपे की ज़रूरत है मेरे पास बहुत कुछ माल अस्‍बाब मौजूद है परन्‍तु लोगोंनें बृथा तकाजा करके मुझको घबरा लिया” लाला मदनमोहन भोले भाव सै बोले.

“मुझको बड़ा खेद है कि मैंनें अपना रुपया अभी एक और काम मैं लगा दिया यदि मुझको पहलै सै सूचना होती तो मैं सर्वथा वह काम न करता” उस मनुष्‍य नें जवाब दिया.

“अच्‍छा ! कुछ चिन्‍ता नहीं आप मेरे लेनदारोंकी जमाखातर ज़रा अपनी तरफ़ सै कर दें.

“इस्‍सै हमारी स्‍वरूपहानि है हम ज़ामनी करें तो हमको रुपया उसी समय देना चाहिये” उस पुरुष नें जवाब दिया और लाला मदनमोहन वहां सै भी निराश होकर रवानें हुए.

रस्‍ते मैं एक और मित्र मिले वह दूरी ही सै अजानकी तरह दृष्टि बचाकर गली मैं जानें लगे परन्‍तु लाला मदनमोहन नें आवाज देकर उन्हें ठैराया और अपनी बग्‍गी खड़ी की इस्‍सै लाचार होकर उन्‍हें ठैरना पड़ा परन्‍तु उनके मनमैं पहली सी उमंग नाम को न थी.

“आप प्रसन्‍न हैं ? मुझको इस्‍समय एक बड़ा जरूरी काम था. माफ़ करें मैं किसी समय आपके पास हाजिर होऊँगा” यह कहक़र वह मनुष्‍य जानें लगा परन्‍तु मदनमोहननें उसै फ़िर रोका और कहा “हां भाई ? अब तुमको अपनें जरूरी कामों के आगे मुझसैं मिलनें का अवकाश क्‍यों मिलनें लगा था ? अच्‍छा ? जाओ हमारा भी परमेश्‍वर रक्षक है.”

इस तानें सै लाचार होकर उसै ठैरना पड़ा और उसके ठैरनें पर लाला मदनमोहन नें अपना वृत्तान्त कहा.

“यह हाल सुन्‍कर मुझको अत्यन्त खेद हुआ. परमेश्‍वर आप पर कृपा करें. वह सर्वशक्तिमान दीनदयाल सर्वं का दु:ख दूर करता है. उस्‍पर विश्‍वास रखनें सै आपके सब दु:ख दूर हो जायंगे आप धैर्य रक्‍खें. मुझको इस्‍समय सचमुच बहुत जरूरी काम है इस लिये मैं अधिक नहीं ठैर सक्ता परन्‍तु मैं आजकल मैं आपके पास हाजिर होऊंगा और सलाह करके जो बात मुनासिब मालूम होगी उस्‍के अनुसार बरताव किया जायगा” यह कह कर वह मनुष्‍य तत्‍काल वहां सै चल दिया.

लाला मदनमोहन और एक मित्रके मकान पर पहुँचे. बाहर खबर मिली कि “वह मकान के भीतर हैं” भीतर सै जवाब आया कि “बाहर गए” लाचार मदनमोहन को वहां सै भी खाली हाथ फ़िरना पड़ा. और अब और मित्रों के यहां जानें का समय नहीं रहा इसलिये निराश होकर सीधे अपनें मकान को चले गए.

परीक्षा-गुरु – Pariksha Guru

परीक्षा गुरू हिन्दी का प्रथम उपन्यास था जिसकी रचना भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने 25 नवम्बर,1882 को की थी। 

परीक्षा गुरु पहला आधुनिक हिंदी उपन्यास था। इसने संपन्न परिवारों के युवकों को बुरी संगति के खतरनाक प्रभाव और इसके परिणामस्वरूप ढीली नैतिकता के प्रति आगाह किया। परीक्षा गुरु नए उभरते मध्यम वर्ग की आंतरिक और बाहरी दुनिया को दर्शाता है। पात्र अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए औपनिवेशिक समाज के अनुकूल होने की कठिनाई में फंस जाते हैं। हालांकि यह जाहिर तौर पर विशुद्ध रूप से ‘पढ़ने के आनंद’ के लिए लिखा गया था। औपनिवेशिक आधुनिकता की दुनिया भयावह और अप्रतिरोध्य दोनों लगती है।

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Further Reading:

  1. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१ सौदागरकी दुकान
  2. परीक्षा-गुरु प्रकरण- २ अकालमैं अधिकमास
  3. परीक्षा-गुरु प्रकरण- ३ संगतिका फल
  4. परीक्षा-गुरु प्रकरण-४ मित्रमिलाप
  5. परीक्षा-गुरु प्रकरण-५ विषयासक्‍त
  6. परीक्षा-गुरु प्रकरण-६ भले बुरे की पहचान
  7. परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)
  8. परीक्षा-गुरु प्रकरण-८ सबमैं हां
  9. परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद
  10. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१० प्रबन्‍ध (इन्‍तज़ाम)
  11. परीक्षा-गुरु प्रकरण-११ सज्जनता
  12. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१२ सुख दु:ख
  13. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१३ बिगाड़का मूल- बि वाद
  14. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१४ पत्रव्यवहा
  15. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१५ प्रिय अथवा पिय् ?
  16. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१६ सुरा (शराब)
  17. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१७ स्‍वतन्‍त्रता और स्‍वेच्‍छाचार.
  18. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा
  19. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता
  20. परीक्षा-गुरु प्रकरण – २० कृतज्ञता
  21. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२१ पति ब्रता
  22. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२२ संशय
  23. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२३ प्रामाणिकता
  24. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथसै पै दा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)
  25. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२५ साहसी पुरुष
  26. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२६ दिवाला
  27. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२७ लोक चर्चा (अफ़वाह).
  28. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह
  29. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२९ बात चीत.
  30. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३० नै राश्‍य (नाउम्‍मेदी).
  31. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक
  32. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत
  33. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा
  34. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)
  35. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद
  36. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी
  37. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य
  38. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति
  39. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय
  40. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४० सुधारनें की रीति
  41. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४१ सुखकी परमावधि

लाला श्रीनिवास दास का उपन्यास परीक्षा गुरु

परीक्षा-गुरु प्रकरण -४१ सुखकी परमावधि : लाला श्रीनिवास दास

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