परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथसै पै दा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)
परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथसै पै दा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)

परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथ सै पैदा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर) Pariksha-Guru Prakaran- Hadse pai da karne vale or potado ke aamir

परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथ सै पैदा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)

अमिल द्रव्‍यहू यत्‍नते मिलै सु अवसर पाय ।

संचित हू रक्षाबिना स्‍वत: नष्‍ट होजाय ।।

हितोपदेशे

मदनमोहन का पिता पुरानी चाल का आदमी था. वह अपना बूतादेखकर काम करता था और जो करता था वह कहता नहीं फ़िरता था. उस्नें केवल हिन्‍दी पढ़ी थी. वह बहुत सीधा सादा मनुष्‍य था परन्‍तु व्‍यापार मैं बड़ा निपुण था, साहूकारे मैं उस्‍की बड़ी साख थी. वह लोगों की देखा-देखी नहीं अपनी बुद्धि सै व्‍यापार करता था. उस्नें थोड़े व्‍यापार मैं अपनी सावधानी सै बहुत दौलत पैदा की थी. इस्‍समय जिस्‍तरह बहुधा मनुष्‍य तरह, तरह की बनावट और अन्‍याय सै औरों की जमा मारकर साहूकार बन बैठते हैं, सोनें चान्दी के जगमगाहट के नीचे अपनें घोर पापों को छिपाकर सज्‍जन बन्नें का दावा करते हैं, धनको अपनी पाप वासना पूरी करनें का एक साधन समझते हैं ऐसा उस्‍नें नहीं किया था. वह व्‍यापार मैं किसी को कसर नहीं देता था पर आप भी किसी सै कसर नहीं खाता था.

उन दिनों कुछ तो मार्ग की कठिनाई आदि के कारण हरेक धुनें जुलाहे को व्‍यापार करनें का साहस न होता था इसलिये व्‍यापार मैं अच्‍छा नफा था दूसरे वह वर्तमान दशा और होनहार बातों का प्रसंग समझकर अपनी सामर्थ्य मूजिब हरबार नए रोजगार पर दृष्टि पहुँचाया करता था इसलिये मक्‍खन उस्‍के हाथ लग जाता था, छाछ मैं और रह जाते थे. कहते हैं कि एकबार नई खानके पन्‍नेंकी खड़ बाजार मैं बिकनें आई परन्‍तु लोग उस्‍की असलियत को न पहचान सके और उस्‍सै खरीद कर नगीना बनवानें का किसी को हौसला न हुआ परन्‍तु उस्की निपुणाई सै उस्‍की ष्टि मैं यह माल जच गया था इसलिये उस्‍नें बहुत थोड़े दामों मैं खरीद लिया और उस्‍के नगीनें बनवाकर भली भांत लाभ उठाया. उसी समय सै उस्‍की जड़जमी और पीछै वह उसै और, और व्‍यापार मैं बढ़ाता गया. परन्‍तु वह आप क़भी बढ़कर न चला. वह कुछ तकलीफ सै नहीं रहता था परन्‍तु लोगों को झूंटी भड़क दिखानें लिये फिजूलखर्ची भी नहीं करता था उस्‍की सवारीमैं नागोरी बैलोंका एक सुशोभित तांगा था. और वह खासे मलमल सै बढ़कर क़भी वस्‍‍त्र नहीं पहनता था. वह अपनें स्‍थान को झाड़ पोंछकर स्‍वच्‍छ रखता था परन्तु झाड़फानूस आदि को फिज़ूलखर्ची मैं समझता था. उस्‍के हां मकान और दुकानपर बहुत थोड़े आदमी नोकर थे परन्तु हरेक मनुष्य का काम बटा रहता था इसलिये बड़ी सुगमता सै सब काम अपनें, अपनें समय होता चला जाता था, वह अपनें धर्म्म पर दृढ़ था. ईश्‍वर मैं बड़ी भक्ति रखता था.

प्रतिदिन प्रात:- काल घन्टा डेढ़ घन्टा कथा सुन्‍ता था और दरिद्री, दुखिया, अपहाजों की सहायता करनें मैं बड़ी अभिरुचि रखता था परन्‍तु वह अपनी उदारता किसी को प्रगट नहीं होनें देता था. वह अपनें काम धंधे मैं लगा रहता था इसलिये हाकिमों और रहीसों सै मिलनें का उसे समय नहीं मिल सक्ता था परन्तु वह वाजबी राह सै चल्‍ता था इसलिये उसै बहुधा उन्सै मिलनें की कुछ अवश्‍यकता भी न थी क्‍योंकि देशोन्‍नतिका भार पुरानी रूढि़ के अनुसार केवल राजपुरुषों पर समझा जाता था. वह महनती था इसलिये तन्दुरुस्‍त था वह अपनें काम का बोझ हरगिज औरों के सिर नहीं डालता था; हां यथाशक्ति वाजबी बातों मैं औरों की सहायता करनें को तैयार रहता था.

परन्‍तु अब समय बदल गया इस्‍समय मदनमोहन के बिचार और ही होरहे हैं, जहां देखो; अमीरी ठाठ, अमीरी कारखानें, बाग की सजावट का कुछ हाल हम पहले लिख चुके हैं मकान मैं कुछ उस्‍सै अधिक चमत्‍कार दिखाई देता है, बैठक का मकान अंग्रेजी चाल का बनवाया गया है उस्‍मैं बहुमूल्‍य शीशे बरतन के सिवाय तरह, तरह का उम्‍दा सै उम्‍दा सामान मिसल सै लगा हुआ है. सहन इत्‍यादि मैं चीनी की ईंटों का सुशोभित फर्श कश्‍मीर के गलीचों को मात करता है. तबेलेमैं अच्‍छी सै अच्‍छी विलायती गाड़ियें और अरबी, केप, बेलर, आदिकी उम्‍दा उम्दा जोड़ियें अथवा जीनसवारी के घोड़े बहुतायत सै मौजूद हैं. साहब लोगों की चिट्ठियें नित्‍य आती जाती हैं. अंग्रेज़ी तथा देसी अखबार और मासिकपत्र बहुतसे लिये जाते हैं और उन्‍मैं सै खबरें अथवा आर्टिकलों को कोई देखे ना न देखे परन्‍तु सौदागरों के इश्‍तहार अवश्‍य देखे जाते हैं, नई फैशन की चीज़ें अवश्‍य मंगाई जाती हैं, मित्रोंका जलूसा सदैव बना रहता है और क़भी क़भी तो अंग्रेजों को भी बाल दिया जाता है, मित्रोंके सत्‍कार करनें मैं यहां किसी तरह की कसर नहीं रहती और जो लोग अधिक दुनियादार होते हैं उन्‍की तो पूजा बहुतही विश्‍वासपूर्वक की जाती है ! मदनमोहन की अवस्था पच्‍चीस, तीस बरस सै अधि‍क न होगी. वह प्रगट मैं बड़ा विवेकी और बिचारवान मालूम होता है. नए आदमियों सै बड़ी अच्‍छी तरह मिल्‍ता उस्‍के मुखपर अमीरी झलकती है. वह वस्त्र सादे परन्तु बहुमूल्य पहनता है. उस्के पिता को व्‍यापारी लोगों के सिवाय कोई नहीं जान्‍ता था परन्‍तु उस्‍की प्रशंसा अखबारों मैं बहुधा किसी न किसी बहानें छपती रहती है और वह लोग अपनी योग्‍यता सै प्रतिष्ठित होनें का मान उसे देते हैं.

अच्‍छा ! मदनमोहन नें उन्‍नति की अथवा अवनति की इस विषय मैं हम इस्‍समय विशेष कुछ नहीं कहा चाहते परन्‍तु मदनमोहन नें यह पदवी कैसे पाई ? पिता पुत्र के स्‍वभाव मैं इतना अन्‍तर कैसे होगया ? इसका कारण इस्समय दिखाया चाहते हैं.

मदनमोहन का पिता आप तो हरेक बात को बहुत अच्‍छी तरह समझता था परन्‍तु अपनें विचारों को दूसरे के मन मैं (उस्‍का स्वभाव पहिचान कर) बैठादेनें की सामर्थ्‍य उसे न थी. उस्‍नें मदनमोहन को बचपन मैं हिन्‍दी, फारसी और अंग्रेजी भाषा सिखानें के लिये अच्‍छे, अच्‍छे उस्‍ताद नौकर रख दिये थे परन्‍तु वह क्‍या जान्‍ता था कि भाषा ज्ञान विद्या नहीं, विद्या का दरवाजा है. विद्या का लाभ तो साधारण रीति सै बु्द्धि के तीक्ष्‍ण होनें पर और मुख्‍य करके विचारों के सुधरनें पर मिल्‍ता है. जब उस्‍को यह भेद प्रगट हुआ उस्‍नें मदनमोहन को धमका कर राह पर लानें की युक्ति विचारी परन्‍तु वह नहीं जान्‍ता था कि आदमी धमकानें सै आंख और मुख बन्‍द कर सक्ता है, हाथ जोड़ सक्ता है, पैरों मैं पड़ सक्ता है, कहो जैसे कह सक्ता है, परन्‍तु चित्त पर असर हुए बिना चित्त नहीं बदलता और सत्‍संग बिना चित्त पर असर नहीं होता जब तक अपनें चित्त मैं अपनी हालत सुधारनें की अभिलाषा न हो औरों के उपदेश सै क्‍या लाभ हो सक्ता है ?

मदनमोहन का पिता मदनमोहन को धमका कर उस्‍के चित्तका असर देखनें के लिये कुछ दिन चुप हो जाता था परन्तु मदनमोहन के मन दुखनें के बिचार सै आप प्रबन्ध न करता था और इस देरदार का असर उल्‍टा होना था. हरकिशोर, शिंभूदयाल, चुन्‍नीलाल, वगैरे मदनमोहन की बाल्‍यावस्‍था को इसी झमेले मैं निकाला चाहते थे क्‍योंकि एक तो इस अवकाश मैं उन लोगों के संग का असर मदनमोहन के चित्त पर दृढ़ होता जाता था दूसरे मदनमोहन की अवस्‍था के संग उस्‍की स्‍वतन्त्रता बढ़ती जाती थी इसलिये मदनमोहन के सुधरनें का यह रस्‍ता न था. मदनमोहन के बिचार प्रतिदिन दृढ़ होते जाते थे परन्‍तु वह अपनें पिता के भय सै उन्‍हैं प्रगट न करता था. खुलासा यह है कि मदनमोहन के पितानें अपनी प्रीति अथवा मदनमोहन की प्रसन्‍नता के बिचार सै मदनमोहन के बचपन मैं अपनें रक्षक भाव पर अच्‍छी तरह बरताव नहीं किया अथवा यों कहो कि अपना कुछरती हक़ छोड़ दिया इस‍लिये इन्‍के स्‍वभाव मैं अन्‍तर पड़नें का मुख्‍य ये ही कारण हुआ.

ब्रजकिशोर ठेठ सै मदनमोहन के विरुद्ध समझा जाता था. ब्रजकिशोर को वह लोग कपटी, चुगलखोर, द्वेषी और अभिमानी बताते थे. उन्‍के निकट मदनमोहन के पिता का मन बिगाड़नें वाला वह था. चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल उस्‍की सावधानी सै डर कर मदनमोहन का मन उस्‍की तरफ़ सै बिगाड़ते रहते थे और मदनमोहन भी उस्‍पर पिता की कृपा देख कर भीतर सै जल्‍ता था. हरकिशोर जैसे मुंह फट तो कुछ, कुछ भरमा भरमी उस्‍को सुना भी दिया करते थे परन्‍तु वह उचित जवाब देकर चुप हो जाता था. और अपनी निर्दोष चाल के भरोसे निश्चिन्‍त रहता था. हां उस्‍को इन्‍की चाल अच्‍छी नहीं लगती थी और इन्‍के मन का पाप भी मालूम था इसलिये वह इन्‍सै अलग रहता था इन्‍का बृतान्‍त जान्‍नें सै जान बूझकर बेपरवाई करता था उस्‍नें मदनमोहन के पिता सै इस विषय मैं बात -चीत करना बिल्‍कुल बन्‍द कर दिया था मदनमोहन के पिता का परलोक हुए पीछै निस्‍सन्‍देह उस्‍को मदनमोहन के सुधारनें की चटपटी लगी. उस्‍नें मदनमोहन को राह पर लानें के लिये समझानें मैं कोई बात बाकी नहीं छोड़ी परन्‍तु उस्‍का सब श्रम व्‍यर्थ गया उस्‍के समझानें सै कुछ काम न निकला.

अब आज हरकिशोर और ब्रजकिशोर दोनों इज्‍जत खोकर मदनमोहन के पास सै दूर हुए हैं. इन्‍मैं सै आगे चलकर देखैं कोन् कैसा बरताव करता है ?

परीक्षा-गुरु – Pariksha Guru

परीक्षा गुरू हिन्दी का प्रथम उपन्यास था जिसकी रचना भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने 25 नवम्बर,1882 को की थी। 

परीक्षा गुरु पहला आधुनिक हिंदी उपन्यास था। इसने संपन्न परिवारों के युवकों को बुरी संगति के खतरनाक प्रभाव और इसके परिणामस्वरूप ढीली नैतिकता के प्रति आगाह किया। परीक्षा गुरु नए उभरते मध्यम वर्ग की आंतरिक और बाहरी दुनिया को दर्शाता है। पात्र अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए औपनिवेशिक समाज के अनुकूल होने की कठिनाई में फंस जाते हैं। हालांकि यह जाहिर तौर पर विशुद्ध रूप से ‘पढ़ने के आनंद’ के लिए लिखा गया था। औपनिवेशिक आधुनिकता की दुनिया भयावह और अप्रतिरोध्य दोनों लगती है।

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परीक्षा-गुरु प्रकरण-2४ हाथ सै पैदा करनें वाले और पोतड़ों के अमीर – Pariksha-Guru Prakaran- Hadse pai da karne vale or potado ke aamir

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Further Reading:

  1. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१ सौदागरकी दुकान
  2. परीक्षा-गुरु प्रकरण- २ अकालमैं अधिकमास
  3. परीक्षा-गुरु प्रकरण- ३ संगतिका फल
  4. परीक्षा-गुरु प्रकरण-४ मित्रमिलाप
  5. परीक्षा-गुरु प्रकरण-५ विषयासक्‍त
  6. परीक्षा-गुरु प्रकरण-६ भले बुरे की पहचान
  7. परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)
  8. परीक्षा-गुरु प्रकरण-८ सबमैं हां
  9. परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद
  10. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१० प्रबन्‍ध (इन्‍तज़ाम)
  11. परीक्षा-गुरु प्रकरण-११ सज्जनता
  12. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१२ सुख दु:ख
  13. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१३ बिगाड़का मूल- बि वाद
  14. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१४ पत्रव्यवहा
  15. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१५ प्रिय अथवा पिय् ?
  16. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१६ सुरा (शराब)
  17. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१७ स्‍वतन्‍त्रता और स्‍वेच्‍छाचार.
  18. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा
  19. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता
  20. परीक्षा-गुरु प्रकरण – २० कृतज्ञता
  21. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२१ पति ब्रता
  22. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२२ संशय
  23. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२३ प्रामाणिकता
  24. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथसै पै दा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)
  25. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२५ साहसी पुरुष
  26. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२६ दिवाला
  27. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२७ लोक चर्चा (अफ़वाह).
  28. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह
  29. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२९ बात चीत.
  30. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३० नै राश्‍य (नाउम्‍मेदी).
  31. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक
  32. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत
  33. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा
  34. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)
  35. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद
  36. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी
  37. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य
  38. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति
  39. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय
  40. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४० सुधारनें की रीति
  41. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४१ सुखकी परमावधि

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