परीक्षा-गुरु प्रकरण ४० सुधारनें की रीति
परीक्षा-गुरु प्रकरण ४० सुधारनें की रीति

Contents

परीक्षा-गुरु प्रकरण -४० सुधारनें की रीति Pariksha-Guru Prakaran-40 Sudharne ki Riti

परीक्षा-गुरु प्रकरण -४० सुधारनें की रीति

कठिन कलाहू आय है करत करत अभ्‍यास ।।

नट ज्‍यों चालतु बरत पर साधे बरस छमास ।।

वृन्‍द

लाला मदनमोहन बड़े आश्‍चर्य मैं थे कि क्‍या भेद है जगजीवनदास यहां इस्समय कहां सै आए ? और आए भी तो उन्‍के कहनें सै पुलिस कैसे मान गई ! क्‍या उन्‍होंनें मुझको हवालात से छुड़ानें के लिये कुछ उपाय किया ? नहीं उपाय करनें का समय अब कहां है ? और आते तो अब तक मुझसै मिले बिना कैसे रह जाते ?

इतनें मैं दूर सै एकाएक प्रकाश दिखाई दिया और लाला ब्रजकिशोर पास आ खड़े हुए.

“हैं ! आप इस्‍समय यहां कहां ! मैंनें तो समझा था कि आप अपनें मकान मैं आराम सै सोते होंगे” लाला मदनमोहन नें कहा.

“यह मेरा मन्‍द भाग्‍य है जो आप ऐसा समझते हैं. क्‍या मुझ को भी आपनें उन्‍हीं लोगों मैं गिन लिया ?” लाला ब्रजकिशोर बोले.

“नहीं, मैं आप को सच्‍चा मित्र समझता हूँ परन्‍तु समय आए बिना फल नहीं होता”

“यदि यह बात आपनें अपनें मन सै कही है तो मेरे लिये भी आप वैसाही धोका खाते हैं जैसा औरोंके लिये खाते थे. मित्र मालूम होता उस्के कामों सै. मालूम होता है फ़िर आपनें मुझको किस्तरह सच्‍चा मित्र समझ लिया ?” लाला ब्रजकिशारे पूछनें लगे. “मैंनें आपके मुकद्दमों मैं पैरवी की जिस्‍के बदले भर पेट महन्‍ताना ले लिया यदि आपके निकट उन्‍के मेरे चाल चलन मैं कुछ अन्‍तर हो तो इतना ही होसक्ता है कि वह कच्‍चे खिलाड़ी थे जरा सी हलचल होते ही भग निकले, मैं अपना फायदा समझ कर अब तक ठैरा रहा”

“जो लोग फायदा उठा कर इस्‍समय मेरा साथ दें उन्‍को भी मैं कुछ बुरा नहीं समझता क्‍योंकि जिन् पर मुझको बड़ा विश्‍वास था वह सब मुझे अधर धार मैं छोड़कर चले गए और ईश्‍वरनें मुझको किसी लायक न रक्‍खा” लाला मदनमोहन रो कर कहनें लगे.

“ईश्‍वर को सर्वथा दोष न दो वह जो कुछ करता है सदा अपनें हितही की बात करता है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे. श्रीमद्भागवत मैं राजा युधिष्ठिर सै श्रीकृष्‍णचन्द्र नें कहा है “जा नर पर हम हित न करें ताको धन हर लेहिं । धन दुख दुखिया को स्‍वत: सकल बन्धु तज देहिं।।”  सो निस्‍सन्‍देह सच है क्‍योंकि उद्योग की माता आवश्‍यकता है इसी तरह अनुभव सै उपदेश मिल्‍ता है सादी नें गुलिस्तां मैं लिखा है कि “एक बादशाह अपनें एक गुलाम को साथ लेकर नाव मैं बैठा. वह गुलाम क़भी नाव मैं नहीं बैठा था इसलिये भय सै रोनें लगा. धैर्य और उपदेशों की बातों सै उस्‍के चित्त का कुछ समाधान न हुआ. निदान बादशाह सै हुक्‍म लेकर एक बुद्धिमान नें (जो उसी नाव मैं बैठा था) उसै पानी मैं डाल दिया और दो, चार गोते खाए पीछै नाव पर ले लिया जिस्‍सै उस्‍के चित्तकी शान्ति हो गई. बादशाह नें पूछा इस्‍मैं क्‍या युक्ति थी ? बुद्धिमान नें जवाब दिया कि पहले यह डूबनें का दु:ख और नाव के सहारे बचनें का सुख नहीं जान्‍ता था. सुख की महिमा वही जान्‍ता है जिस्को दु:ख का अनुभव हो”

“परन्‍तु इस्‍समय इस अनुभव सै क्‍या लाभ होगा. ‘घोड़ा बिना चाबुक वृथा है’ लाला मदनमोहननें निराश होकर कहा.

“नहीं, नहीं ईश्‍वर की कृपा सै क़भी निराश न हो वह कोई बात युक्ति शून्‍य नहीं करता” लाला ब्रजकशोर कहनें लगे “मि. पारनेंलनें लिखा है कि “एक तपस्‍वी जन्‍म सै बन मैं रहक़र ईश्‍वराराधन करता था. एक बार धर्मात्‍माओं को दुखी और पापियों को सुखी देखकर उस्‍के चित्त मैं ईश्‍वर के इन्साफ़ विषै शंका उत्‍पन्‍न हुई और वह इस बात का निर्धार करनें के लिये बस्‍ती की तरफ़ चला. रस्‍ते मैं उस्‍को एक जवान आदमी मिला और यह दोनों साथ, साथ चलनें लगे. सन्‍ध्‍या समय इन्‍को एक ऊँचा महल दिखाई दिया और वहां पहुँचे जब उस्‍के मालिकनें इन दोनों का हद्द सै ज्‍याद: सत्‍कार किया. प्रात:काल जब ये चलनें लगे तो उस जवाननें एक सोनें का प्‍याला चुरा लिया. थोड़ी दूर आगे बढ़े. इतनें मैं घनघोर घटा चढ़ आई और मेह बरसनें लगा इस्‍सै यह दोनों एक पास की झोपड़ी मैं सहारा लेनें गए.

उस झोपड़ी का मालिक अत्‍यन्‍त डरपोक और निर्दय था इसलिये उसनें बड़ी कठिनाई सै इन्‍हें थोड़ी देर ठैरनें दिया, अनादर सै सूखी रोटी के थोड़े से टुकड़े खानें को दिये और बरसात कम होते ही चलनें का संकेत किया, चल्‍ती बार उस जबाननें अपनी बगल सै सोनें का प्‍याला निकालकर उसै दे दिया. जिस्‍पर तपस्‍वी को जवान की यह दोनों बातें बड़ी अनुचित मालूम हुईं. खैर आगे बढ़े सन्‍ध्‍या समय एक सद्गृहस्‍थ के यहां पहुँचे जो माध्‍यम भाव सै रहता था और बड़ाई का भी भूखा न था. उस्‍नें इन्‍का भलीभांति सत्‍कार किया और जब ये प्रात:काल चलनें लगे तो इन्‍को मार्ग दिखानें के लिये एक अगुआ इन्‍के साथ कर दिया. पर यह जवान सबकी दृष्टि बचाकर चल्‍ती बार उस सद्गृ‍हस्‍थ के छोटे से बालका का गला घोंट कर उसै मारता गया ! और एक पुल पर पहुँचकर उस अगुए को भी धक्‍का दे नदी मैं डाल दिया ! इन्‍बातों सै अब तो इस तपस्वी के धि:कार और क्रोध की कुछ हद न रही.

See also  पथ के दावेदार अध्याय 6

वह उस्‍को दुर्वचन कहा चाहता था इतनें मैं उस जवान का आकार एकाएक बदल गया उस्के मुखपर सूर्य का सा प्रकाश चमकनें लगा और सब लक्ष्ण देवताओं के से दिखाई दिये. वह बोला “मैं परमेश्‍वर का दूत हूँ और परमेश्‍वर तुम्‍हारी भक्ति सै प्रसन्‍न है इसलिये परमेश्‍वर की आज्ञा सै मैं तुम्‍हारा संशय दूर करनें आया हूँ. जिस काम मैं मनुष्‍य की बुद्धि नहीं पहुँचती उस्‍को वह युक्ति शून्‍य समझनें लगता है परन्‍तु यह उस्‍की केवल मूर्खता है. देखो यह सब काम तुमको उल्‍टे मालूम पड़ते होंगे परन्‍तु इन्हीं सै उस्‍के इन्साफ़ का बिचार करो. जिस मनुष्‍य का प्‍याला मैंनें चुराया वह नामवरी का लालच करके हद्द सै ज्‍याद: अतिथि सत्‍कार करता था और इस रीति सै थोड़े दिन मैं उस्‍के भिखारी हो जानें का भय था इस काम सै उस्‍की वह उमंग कुछ कम होकर मुनासिब हद्द आगई. जिस्‍को मैंनें प्‍याला दिया वह पहले अत्‍यन्‍त कठोर और निठुर था इस फ़ायदे सै उस्को अतिथि सत्कार की रुचि हुई. जिस सद्गृहस्‍थ का पुत्र मैंनें मारा उस्‍को मेरे मारनें का वृत्तान्त न मालूम होगा परन्‍तु वह इन दिनों सन्‍तान की प्रीति मैं फंसकर अपनें और कर्तव्य भूलनें लगा था इस्‍सै उस्‍की बुद्धि ठिकानें आगई. जिस मनुष्‍य को मैंनें अभी उठाकर नदीमैं डाल दिया वह आज रात को अपनें मालिक की चोरी करके उसै नाश किया चाहता था इसलिये परमेश्‍वर के सब कामों पर विश्‍वास रक्‍खो और अपना चित्त सर्वथा निराश न होनें दो.”

“मुझको इस्‍समय इस्‍बात सै अत्‍यन्‍त लज्‍जा आती है कि मैंनें आपके पहले हितकारी उपदेशों को वृथा समझ कर उन्‍पर कुछ ध्‍यान नहीं दिया” लाला मदनमोहननें मनसै पछतावा करके कहा.

“उन सब बातों का खुलासा इतना ही है कि सब पहलू बिचार कर हरेक काम करना चाहिये क्‍योंकि संसार मैं स्‍वार्थपर विशेष दिखाई देते हैं” लाला ब्रजकिशोरनें कहा.

“मैं आपके आगे इस्‍समय सच्‍चे मनसै प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अब क़भी स्‍वार्थपर मित्रों का मुख नहीं देखूंगा. झूंटी ठसक दिखानें का बिचार न करूंगा, झूंठे पक्षपात को अपनें पास न आनें दूंगा और अपनें सुख के लिये अनुचित मार्ग पर पांव न रखूंगा” लाला मदनमोहननें बड़ी दृढ़ता सै कहा.

“इस्‍समय आप यह बातें निस्सन्देह मनसै कहते हैं परन्‍तु इस तरह प्रतिज्ञा करनें वाले बहुत मनुष्‍य परीक्षाके समय दृढ़ नहीं निकलते मनुष्‍य का जातीय स्‍वभाव (आदत) बड़ा प्रबल है तुलसीदासजीनें भगवान सै यह प्रार्थना की है:-

“मेरो मन हरिजू हठ न तजैं ।। निशदिन नाथ देउं सिख बहुबिध करय सुभाव निजै ।। ज्‍यों युवति अनुभवति प्रसव अति दारूण दुख उपजै ।। व्है अनुकूल बिसारि शूल शठ पुनि खल पतिहि भजै ।। लोलुप भ्रमत गृह पशू ज्‍यों जहं तहं पदत्राण बजैं ।। तदपि अधम बिचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़लजै ।। हों हायौं कर बिबिध विधि अतिशय प्रबल अजै ।। तुलसिदास बस होइ तबहि जब प्रेरक प्रभु बरजै ।।” आदतकी यह सामर्थ्‍य है कि वह मनुष्‍य की इच्‍छा न होनें पर भी अपनी इच्‍छानुसार काम करा लेती है, धोका दे, देकर मनपर अधिकार कर लेती है, जब जैसी बात करानी मंजूर होती है तब वैसी ही युक्ति बुद्धि को सुझाती है, अपनी घात पाकर बहुत काल पीछे राख मैं छिपीहुई अग्नि के समान सहसा चमक उठती है. मैं गई बीती बातों की याद दिवाकर आपको इस्‍समय दुखित नहीं किया चाहता परन्‍तु आपको याद होगी कि उस्‍समय मेरी ये सब बातें चिकनाई पर बूंद के समान कुछ असर नहीं करती थीं इसी तरह यह समय निकल जायगा तो मैं जान्‍ता हूँ कि यह सब बिचार भी वायु की तरह तत्‍काल पलट जायेंगे. हम लोगों का लखोटिया ज्ञान है वह आग के पास जानें सै पिघल जाता है परन्तु उस्सै अलग होते ही फ़िर कठोर हो जाता है इस दशा मैं जब इस्समय का दुख भूलकर हमारा मन अनुचित सुख भोगनें की इच्‍छा करे तब हमको अपनी प्रतिज्ञा के भय सै वह काम छिपकर करनें पड़ें, और उन्‍को छिपानें के लिये झूंटी ठसक दिखानी पड़े, झूंटी ठसक दिखानें के लिये उन्हीं स्‍वार्थपर मित्रों का जमघट करना पड़े, और उन स्‍वार्थपर मित्रों का जमघट करनें के लिये वही झूंटा पक्षपात करना पड़े तो क्‍या आश्‍चर्य है ?” लाला ब्रजकिशोर नें कहा.

“नहीं, नहीं यह क़भी नहीं हो सक्‍ता. मुझको उन लोगों सै इतनी अरुचि हो गई कि मैं वैसी साहूकारी सै ऐसी गरीबी को बहुत अच्‍छी समझता हूँ. क्‍या अपनी आदत कोई नहीं बदल सक्‍ता ?” लाला मदनमोहन नें जोर देकर पूछा.

“क्‍यों नहीं बदल सक्ता ? मनुष्‍य के चित्त सै बढ़कर कोई बस्‍तु कोमल और कठोर नहीं है वह अपनें चित्त को अभ्‍यास करके चाहै जितना कम ज्‍याद: कर सकता है कोमल सै कोमल चित्त का मनुष्‍य कठिन सै कठिन समय पड़नें पर उसे झेल लेता है और धीरै, धीरै उस्‍का अभ्‍यासी हो जाता है इसी तरह जब कोई मनुष्‍य अपनें मनमैं किसी बातकी पक्‍की ठान ले और उस्‍का हर वक्‍त ध्‍यान बना रक्‍खे उस्‍पर अन्त तक दृढ़ रहैं तो वह कठिन कामों को सहज मैं कर सकता है परन्तु पक्‍का बिचार किये बिना कुछ नहीं हो सकता” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे:-

“इटली का प्रसिद्ध कवि पीट्रार्क लोरा नामी एक परस्‍त्री पर मोहित हो गया इसलिये वह किसी न किसी बहानें सै उस्‍के सन्मुख जाता और अपनी प्रीतिभरी दृष्टि उस्पर डाल्ता परन्‍तु उस्‍के पतिब्रतापन सै उस्‍के आगे अपनी प्रीति प्रगट नहीं कर सकता था. लोरानें उस्‍के आकार सैं उस्‍का भाव समझकर उस्‍को अपनें पास सै दूर रहनें के लिये कहा और पीट्रार्क नें भी अपनें चित्त सै लोरा की याद भूलनेंके लिये दूर देशका सफ़र किया परन्‍तु लोरा का ध्‍यान क्षणभर के लिये उस्‍के चित्त सै अलग न हुआ. एक तपस्‍वी नें बहुत अच्‍छी तरह उस्‍को अपना चित्त अपनें बस मैं रखनें के लिये समझाया परन्‍तु लोरा को एक दृष्टि देखते ही पीट्रार्क के चित्त सै वह सब उपदेश हवामैं उड़ गए. लोरा की इच्‍छा ऐसी मालूम होती थी कि पीट्रार्क उस्‍सै प्रीति रक्‍खे परन्‍तु दूरकी प्रीति रक्‍खे. जब पीट्रार्क का मन कुछ बढ़नें लगता तो वह अत्‍यन्‍त कठोर हो जाती परन्‍तु जब उस्‍को उदास और निराश देखती तब कुछ कृपा दृष्टि करके उस्‍का चित्त बढ़ा देती. इस तरह अपनें पतिब्रत मैं किसी तरह का धब्‍बा लगाये बिना लोरानें बीस वर्ष निकाल दिये.

See also  परीक्षा-गुरु प्रकरण -२६ दिवाला: लाला श्रीनिवास दास

पीट्रार्क बेरोना शहर मैं था उस्‍समय एक दिन लोरा उसै स्‍वप्‍न में दिखाई दी और बड़े प्रेम सै बोली कि “आज मैंनें इस असार संसार को छोड़ दिया. एक निर्दोष मनुष्‍य को संसार छोड़ती बार सच्‍चा सुख मिल्‍ता है और मैं ईश्‍वर की कृपा सै उस सुख का अनुभव करती हूँ परन्‍तु मुझको केवल तेरे बियोग का दु:ख है”, “तो क्‍या तू मुझ सै प्रीति रखती थी ?” पीट्रार्क नें पूछा. “सच्‍चे मन सै” लोरानें जवाब दिया और उस्‍का उस दिन मरना सच निकला. अब देखिये कि एक कोमल चित्त स्‍त्री, अपनें प्‍यारे की इतनी अधीनता पर बीस वर्ष तक प्रीतिकी अग्नि को अपनें चित्त मैं दबा सकी और उसे सर्वथा प्रबल न होनें दिया. फ़िर क्‍या हम लोग पुरूष होकर भी अपनें मनकी छोटी, छोटी, कामनाओं के प्रबल होनें पर उन्हैं नहीं रोक सक्‍ते ?”

“यूनान के प्रसिद्ध वक्‍ता डिमास्टिनीज को पहलै पूरा सा बोलना नहीं आता था. उसकी ज़बान तोतली थी और ज़रासी बात कहनेंमैं उस्‍का दम भर जाता था परन्‍तु वह बड़े, बड़े उस्‍तादों की वक्‍तृता का ढंग देखकर उन्‍की नकल करनें लगा और दरियाके किनारे या ऊंची टेकड़ियों पर मुंह मैं कंकर भरकर बड़ी देर, देर तक लगातार छन्‍द बोलनें लगा जिस्‍सै उस्‍का तुतलाना और दम भरनाही नहीं बन्‍द हुआ बल्कि लोगों के हल्‍ले को दबाकर आवाज देनें का अभ्‍यास भी हो गया. वह वक्‍तृता करनें सै पहलै अपनें चेहरे का बनाव देखनें के लिये काचके सामनें खड़े होकर अभ्‍यास करता था और उस्‍को वक्‍तृता करती बार कंधेउचकांनें की आदत पड़ गई थी इस्‍सै वह अभ्‍यास के समय दो नोकदार हथियार अपनें कन्धों सै जरा ऊंचे लटकाए रखता था कि उन्‍के डरसै कन्धे न उचकनें पायें. उस्‍नें अपनी भाषा मैं प्रासिद्ध इतिहासकर्ता टयूसीडाइगस का सा रस लानेंके लिये उस्के लेख की आठ नकल अपनें हाथ सै की थीं.

“इंग्लेण्डका बादशाह पांचवां हेनरी जब प्रिन्‍स आफ वेल्‍स (युवराज) था तब इतनी बदचलनी में फंस गया था और उस्‍की संगति के सब आदमी ऐसे नालायक थे कि उस्‍के बादशाह होनें पर बड़े जुल्‍म होनें का भय सब लोगों के चित्त मैं समा रहा था. जिस्‍समय इंग्लेण्ड के चीफ जस्टिस गासकोइननें उस्‍के अपराध पर उसै कैद किया तो खास उस्‍के पिता नें इस बात सै अपनी प्रसन्‍नता प्रगट की थी कि शायद इस रीति सै वह कुछ सुधरे. परन्तु जब वह शाहजादा बादशाह हुआ और राजका भार उस्‍के सिर आ पड़ा तो उस्‍नें अपनी सब रीति भांति एकाएक ऐसी बदल डाली कि इतिहास मैं वह एक बड़ा प्रामाणिक और बुद्धिमान बादशाह समझा गया. उस्‍नें राज पाते ही अपनी जवानी के सब मित्रोंको बुलाकर साफ कह दिया था कि मेरे सिर राजका बोझ आ पड़ा है इसलिये मैं अपना चाल-चलन सुधारा चाहता हूँ सो तुम भी अपना चालचलन सुधार लेना. आज पीछे तुम्‍हारी कोई बदचलनी मुझको मालूम होगी तो मैं तुम्हैं अपनें पास न फटकनें दूंगा. उस्‍सै पीछे हेनरी नें बड़े योग्‍य, धर्मात्‍मा, अनुभवी और बुद्धिमान आदमियोंकी एक काउन्सिल बनाई और इन्साफ़ की अदालतों मैं सै संदिग्‍ध मनुष्यों को दूर करके उन्‍की जगह बड़े ईमानदार आदमी नियत किये. खास कर अपनें कैद करनें वाले गासकोइनकी बड़ी प्रतिष्‍ठा करके उस्‍सै कहा कि “जिस्‍तरह तुमनें मुझको स्‍वतन्त्रता सै कैद किया था इसी तरह सदा स्‍वतन्त्रता सै इन्साफ़ करते रहना”

“मेरे चित्तपर आपके कहनें का इस्समय बड़ा असर होता है और मैं अपनें अपराधोंके लिये ईश्‍वर सै क्षमा चाहता हूँ मुझको उस अमीरीके बदले इस कैद मैं अपनी भूलका फल पानें सै अधिक संतोष मिल्‍ता है. मैं अपनें स्‍वेच्‍छाचार का मजा देख चुका अब मेरा इतना ही निवेदन है कि आप प्रेमबिवस होकर मेरे लिये किसी तरह का दुख न उठायं और अपना नीति मार्ग न छोड़ें” लाला मदनमोहन नें दृढ़ता से कहा.

“अब आपके बिचार सुधर गए इस लिये आपके कृतकार्य (कामयाब) होनें मैं मुझको कुछ भी संदेह नहीं रहा ईश्वर आपका अवश्‍य मंगल करेगा” यह कहक़र लाला ब्रजकिशोरनें मदनमोहन को छाती सै लगा लिया.

परीक्षा-गुरु – Pariksha Guru

परीक्षा गुरू हिन्दी का प्रथम उपन्यास था जिसकी रचना भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने 25 नवम्बर,1882 को की थी। 

परीक्षा गुरु पहला आधुनिक हिंदी उपन्यास था। इसने संपन्न परिवारों के युवकों को बुरी संगति के खतरनाक प्रभाव और इसके परिणामस्वरूप ढीली नैतिकता के प्रति आगाह किया। परीक्षा गुरु नए उभरते मध्यम वर्ग की आंतरिक और बाहरी दुनिया को दर्शाता है। पात्र अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए औपनिवेशिक समाज के अनुकूल होने की कठिनाई में फंस जाते हैं। हालांकि यह जाहिर तौर पर विशुद्ध रूप से ‘पढ़ने के आनंद’ के लिए लिखा गया था। औपनिवेशिक आधुनिकता की दुनिया भयावह और अप्रतिरोध्य दोनों लगती है।

Download PDF (परीक्षा-गुरु प्रकरण-४० सुधारनें की रीति)

परीक्षा-गुरु प्रकरण-४० सुधारनें की रीति – Pariksha-Guru Prakaran-40 Sudharne ki Riti

Download PDF: Pariksha Guru Prakaran 40 Sudharne ki Riti in Hindi PDF

Further Reading:

  1. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१ सौदागरकी दुकान
  2. परीक्षा-गुरु प्रकरण- २ अकालमैं अधिकमास
  3. परीक्षा-गुरु प्रकरण- ३ संगतिका फल
  4. परीक्षा-गुरु प्रकरण-४ मित्रमिलाप
  5. परीक्षा-गुरु प्रकरण-५ विषयासक्‍त
  6. परीक्षा-गुरु प्रकरण-६ भले बुरे की पहचान
  7. परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)
  8. परीक्षा-गुरु प्रकरण-८ सबमैं हां
  9. परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद
  10. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१० प्रबन्‍ध (इन्‍तज़ाम)
  11. परीक्षा-गुरु प्रकरण-११ सज्जनता
  12. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१२ सुख दु:ख
  13. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१३ बिगाड़का मूल- बि वाद
  14. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१४ पत्रव्यवहा
  15. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१५ प्रिय अथवा पिय् ?
  16. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१६ सुरा (शराब)
  17. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१७ स्‍वतन्‍त्रता और स्‍वेच्‍छाचार.
  18. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा
  19. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता
  20. परीक्षा-गुरु प्रकरण – २० कृतज्ञता
  21. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२१ पति ब्रता
  22. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२२ संशय
  23. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२३ प्रामाणिकता
  24. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथसै पै दा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)
  25. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२५ साहसी पुरुष
  26. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२६ दिवाला
  27. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२७ लोक चर्चा (अफ़वाह).
  28. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह
  29. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२९ बात चीत.
  30. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३० नै राश्‍य (नाउम्‍मेदी).
  31. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक
  32. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत
  33. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा
  34. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)
  35. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद
  36. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी
  37. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य
  38. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति
  39. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय
  40. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४० सुधारनें की रीति
  41. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४१ सुखकी परमावधि
See also  नीलकंठी ब्रज भाग 11 | इंदिरा गोस्वामी

लाला श्रीनिवास दास का उपन्यास परीक्षा गुरु

परीक्षा-गुरु प्रकरण -४१ सुखकी परमावधि : लाला श्रीनिवास दास

परीक्षा-गुरु प्रकरण ४१ सुखकी परमावधि Pariksha-Guru Prakaran-41 Sukha ki Parmavadhi परीक्षा-गुरु प्रकरण ४१ सुखकी परमावधि जबलग मनके बीच कछु स्‍वारथको रस होय ।। सुद्ध सुधा कैसे पियै ? परै बी ज मैं तोय ।। सभाविलास “मैंनें सुना है कि लाला जगजीवनदास यहां आए हैं” लाला मदनमोहननें पूछा. “नहीं इस्‍समय तो नहीं आए आपको कुछ संदेह हुआ होगा” लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया.…

परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय: लाला श्रीनिवास दास

परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय Pariksha-Guru Prakaran-39 Pret Bhay परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय पियत रूधिर बेताल बाल निशिचरन सा थि पुनि ।। करत बमन बि कराल मत्त मन मुदित घोर धुनि ।। सा द्य मांस कर लि ये भयंकर रूप दिखावत ।। रु धिरासव मद मत्त पूतना नाचि डरावत ।। मांस भेद बस बिबस मन जोगन नाच हिं बिबिध गति ।। बीर जनन की…

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति : लाला श्रीनिवास दास

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति Pariksha-Guru Prakaran- 38 Sachi Priti परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति धीरज धर्म्‍म मित्र अरु नारी आपतिकाल परखिये चारी तुलसीकृत लाला ब्रजकिशोर बाहर पहुँचे तो उन्‍को कचहरी सै कुछ दूर भीड़ भाड़सै अलग वृक्षों की छाया मैं एक सेजगाड़ी दिखाई दी. चपरासी उन्‍हें वहां लिवा ले गया तो उस्‍मैं मदनमोहन की स्‍त्री बच्‍चों…

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य: लाला श्रीनिवास दास

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य Pariksha-Guru Prakaran-37 Biptarma Dhairya परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य प्रिय बियोग को मूढ़जन गिन‍त गड़ी हिय भालि ।। ताही कों निकरी गिनत धीरपुरुष गुणशालि ।। लाला ब्रजकिशोर नें अदालत मैं पहुँचकर हरकिशोर के मुकद्दमे मैं बहुत अच्‍छी तरह बिबाद किया. निहालचंद आदि के छोटे, छोटे मामलों मैं राजीनामा होगया. जब ब्रजकिशोर को…

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी: लाला श्रीनिवास दास

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी Pariksha-Guru Prakaran-36 Dhoke ki Tatte परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी बिपत बराबर सुख नहीं जो थो रे दिन होय इष्‍ट मित्र बन्‍धू जिते जान परैं सब कोय ।। लोकोक्ति. लाला ब्रजकिशोर के गये पीछे मदनमोहन की फ़िर वही दशा हो गई. दिन पहाड़ सा मालूम होनें लगा. खास कर डाक की बड़ी तला मली लगरही थी.…

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद: लाला श्रीनिवास दास

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद Pariksha-Guru Prakaran-35 Stuti ninda ka Bhed परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद बिनसत बार न लागही ओछे जनकी प्रीति ।। अंबर डंबर सांझके अरु बारूकी भींति ।। सभाविलास. दूसरे दिन सवेरे लाला मदनमोहन नित्‍य कृत्‍य सै निबटकर अपनें कमरे मैं इकल्‍ले बैठे थे. मन मुर्झा रहा था किसी काम…

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी): लाला श्रीनिवास दास

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी) Pariksha-Guru Prakaran-34 Hinprabha Badrobi परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी) नीचन के मन नीति न आवै । प्रीति प्रयोजन हेतु लखावै ।। कारज सिद्ध भयो जब जानैं । रंचकहू उर प्रीति न मानै ।। प्रीति गए फलहू बिनसावै । प्रीति विषै सुख नैक न पावै ।। जादिन हाथ कछू नहीं आवै । भाखि…

परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा : लाला श्रीनिवास दास

परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा Pariksha-Guru Prakaran-33 Mitrapariksha परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा धन न भयेहू मित्रकी सज्‍जन करत सहाय ।। मित्र भाव जाचे बिना कैसे जान्‍यो जाय ।। विदुरप्रजागरे आज तो लाला ब्रजकिशोर की बातोंमैं लाला मदनमोहन की बात ही भूल गये थे ! लाला मदनमोहन के मकान पर वैसी ही सुस्ती छा रही है केवल मास्‍टर शिंभूदयाल…

परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत: लाला श्रीनिवास दास

परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत Pariksha-Guru Prakaran-32 Adalat परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत काम परेही जानि ये जो नर जैसो होय ।। बिन ताये खोटो खरो गहनों लखै न कोय ।। बृन्‍द. अदालत में हाकिम कुर्सीपर बैठे इज्‍लास कर रहे हैं. सब अ‍हलकार अपनी, अपनी जगह बैठे हैं निहालचंद मोदी का मुकद्दमा हो रहा है. उस्‍की तरफ़ सै लतीफ…

परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक: लाला श्रीनिवास दास

परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक Pariksha-Guru Prakaran-31 Chalakh ki Chuk परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक सुखदिखाय दुख दीजिये खलसों लरियेकाहि जो गुर दीयेही मरै क्यौं विष दीजै ताहि ? बृन्‍द. “लाला मदनमोहन का लेन देन किस्‍तरह पर है ?” ब्रजकिशोर नें मकान पर पहुँचते ही चुन्‍नीलाल सै पूछा. “विगत बार हाल तो कागज तैयार होनें पर…

Loading…

Something went wrong. Please refresh the page and/or try again.


Leave a comment

Leave a Reply