परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)
परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी) Pariksha-Guru Prakaran-34 Hinprabha Badrobi

परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)

नीचन के मन नीति न आवै । प्रीति प्रयोजन हेतु लखावै ।।

कारज सिद्ध भयो जब जानैं । रंचकहू उर प्रीति न मानै ।।

प्रीति गए फलहू बिनसावै । प्रीति विषै सुख नैक न पावै ।।

जादिन हाथ कछू नहीं आवै । भाखि कुबात कलंक लगावै ।।

सोइ उपाय हिये अवधारै । जासु बुरो कछु होत निहारै ।।

रंचक भूल कहूँ लख पा वैं । भाँति अनेक बिरोध बढ़ावै ।।

विदुरप्रजागरे.

लाला मदनमोहन मकान पर पहुँचे उस्‍समय ब्रजकिशोर वहां मौजूद थे.

लाला ब्रजकिशोर नें अदालत का सब वृत्तान्त कहा. उस्‍मैं मदनमोहन, मोदी के मुकद्दमें का हाल सुन्‍कर बहुत प्रसन्‍न हुए. उस्‍समय चुन्‍नलीलाल नें संकेत मैं ब्रजकिशोर के महन्‍तानें की याद दिवाई जिस्‍पर लाला मदनमोहन नें अपनी अंगुली सै हीरे की एक बहुमूल्‍य अंगूठी उतार कर ब्रजकिशोर को दी और कहा “आपकी मेहनत के आगे तो यह महन्‍ताना कुछ नहीं है परन्‍तु अपना पुराना घर और मेरी इस दशा का बिचार करके क्षमा करिये”

य‍ह बात सुन्‍ते ही एक बार लाला ब्रजकिशोर का जी भर आया परन्तु फ़िर तत्‍काल सम्‍हल कर बोले “क्‍या आपनें मुझ को ऐसा नीच समझ रक्‍खा है कि मैं आपका काम महन्‍तानें के लालच सै करता हूँ ? सच तो यह है कि आप के वास्‍ते मेरी जान जाय तो भी कुछ चिन्‍ता नहीं परन्‍तु मेरी इतनी ही प्रार्थना है कि आपनें अँगूठी देकर मुझसै अपना मित्र भाव प्रगट किया सो मैं आपको बराबर का नहीं बना चाहता मैं आपको अपना मालिक समझता हूँ इसलिये आप मुझे अपना ‘हल्‍क:बगोश’ (सेवक) बनायं”

“यह क्‍या कहते हो ! तुम मेरे भाई हो क्‍योंकि तुमको पिता सदा मुझसै अधिक समझते थे. हां तुम्‍हैं बाली पहन्‍नें की इच्‍छा हो तो यह लो मेरी अपेक्षा तुम्‍हारे कान मैं यह बहुमूल्‍य मोती देखकर मुझको अधिक सुख होगा परन्‍तु ऐसे अनुचित बचन मुखसै न कहो” यह कहक़र लाला मदनमोहननें अपनें कानकी बाली ब्रजकिशोर को दे दी !

‘’कल हरकिशोर आदि के मुकद्दमे होंगे उन्‍की जवाबदिहि का बिचार करना है कागज तैयार करा कर उन्सै रहत (बदर) छांटनी है इसलिये अब आज्ञा हो” यह कह कर ब्रजकिशोर रुख़सत हुए और लाला मदनमोहन भोजन करनें गए.

लाला मदनमोहन भोजन करके आये उस्‍समय मुन्शी चुन्‍नीलालनें अपनें मतलब की बात छेड़ी.

“मुझको हर बार अर्ज करनेंमैं बड़ी लज्‍जा आती है परन्‍तु अर्ज किये बिना भी काम नहीं चल्‍ता” मुन्शी चुन्‍नीलाल कहनें लगा “ब्‍याह का काम छिड़ गया परन्‍तु अबतक रुपेका कुछ बन्‍दोबस्‍त नहीं हुआ. आपनें दो सौके नोट दिये थे वह जाते ही चटनी हो गए. इस्‍समय एक हजार रुपयेका भी बन्‍दोबस्‍त हो जाय तो खैर कुछ दिन काम चल सक्ता है, नहीं तो काम नहीं चल्‍ता.”

“तुम जान्‍ते हो कि मेरे पास इस्‍समय नगद कुछ नहीं है और गहना भी बहुतसा काममें आचुका है” लाला मदनमोहन बोले “हां मुझको अपनें मित्रों की तरफ़ सै सहायता मिल्नें का पूरा भरोसा है और जो उन्‍की तरफ़ सै कुछ भी सहायता मिली तो मैं प्रथम तुम्‍हारी लड़की के ब्‍याहका बन्‍दोबस्‍त कर दूंगा.”

“और जो मित्रों सै सहायता न मिली तो मेरा क्‍या हाल होगा ?” मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा “ब्‍याह का काम किसी तरह नहीं रुक सक्‍ता और बड़े आदमियों की नौकरी इसी वास्‍ते तन तोड़ कर की जाती है कि ब्‍याह शादी मैं सहायता मिले, बराबरवालोंमैं प्रतिष्‍ठा हो परन्‍तु मेरे मन्‍द भाग्‍य सै यहां इस्‍समय ऐसा मौका नहीं रहा इसलिये मैं आपको अधिक परिश्रम नहीं दिया चाहता. अब मेरी इतनी ही अर्ज है कि आप मुझको कुछ दिनकी रुख्सत देदें जिस्‍सै मैं इधर उधर जाकर अपना कुछ सुभीता करूं.”

“तुमको इस्‍समय रुख़सत का सवाल नहीं करना चाहिये मेरे सब कामों का आधार तुम पर है फ़िर तुम इस्‍समय धोका दे कर चले जाओगे तो काम कैसे चलेगा ?” लाला मदनमोहननें कहा.

“वाह ! महाराज वाह ! आपनें हमारी अच्छी कदर की !” मुन्शी चुन्‍नीलाल तेज होकर कहनें लगा “धोका आप देते हैं या हम देते हैं ? हम लोग दिन रात अपकी सेवा मैं रहैं तो ब्‍याह शादी का खर्च लेनें कहां जायं ? आपनें अपनें मुख सै इस ब्‍याह मैं भली भांति सहायता करनें के लिये कितनी ही बार आज्ञा की थी, परन्‍तु आज वह सब आस टूट गई तो भी हमनें आपको कुछ ओलंभा नहीं दिया. आप पर कुछ बोझ नहीं डाला केवल अपनें कार्य निर्वाह के लिये कुछ दिन की रुख्सत चाही तो आपके निकट बड़ा अधर्म हुआ. खैर ! जब आपके निकट हम धोखेबाज ही ठैरे तो अब हमारे यहां रहनें सै क्‍या फायदा है ? यह आप अपनी तालियां लें और अपना अस्‍बाब सम्भाल लें. पीछे घटे बड़ेगा तो मेरा जिम्‍मा नहीं है. मैं जाता हूँ.” यह कह कर तालियोंका झूमका लाला मदनमोहनके आगे फेंक दिया और मदनमोहन के ठंडा करते-करते क्रोध की सूरत बना कर तत्‍काल वहां सै चल खड़ा हुआ.

सच है नीच मनुष्‍य के जन्‍म भर पालन पोषण करनें पर भी एक बार थोड़ी कमी रहजानें सै जन्‍म भर का किया कराया मट्टी मैं मिल जाता है. लोग कहते हैं कि अपनें प्रयोजन मैं किसी तरह का अन्‍तर आनें सै क्रोध उत्‍पन्‍न होता है अपनें काम मैं सहायता करनें सै बिरानें हो जाते हैं और अपनें काम में बिघ्‍न करनें सै अपनें बिरानें समझे जाते हैं परन्‍तु नहीं क्रोध निर्बल पर विशेष आता है और नाउम्‍मेदी की हालात मैं उस्‍की कुछ हद नहीं रहती. मुन्शी चुन्‍नीलाल पर लाला मदनमोहन कितनी ही बार इस्‍सै बढ़, बढ़ कर क्रोधित हुए थे परन्‍तु चुन्‍नीलाल को आज तक क़भी गुस्‍सा नहीं आया ? और आज लाला मदनमोहन उस्‍को ठंडा करते रहे तो भी वह क्रोध करके चल दिया. वृन्‍दनें सच कहा है “बिन स्‍वारथ कैसे सहे कोऊ करुए बैन । लात खाय पुचकारिए होय दुधारू धेन ।।”

मुन्शी चुन्‍नीलाल के जानें सै लाला मदनमोहन का जी टूट गया परन्‍तु आज उनको धैर्य देनें के लिये भी कोई उन्‍के पास न था. उन्‍के यहां सैकड़ों आदमियों का जमघट हर घड़ी बना रहता था सो आज चिड़िया तक न फटकी. लाला मदनमोहन इस सोच बिचार मैं रात के नौ बजे तक बैठे रहे परन्‍तु कोई न आया तब निराश होकर पलंग पर जा लेटे.

अब लाला मदनमोहन का भय नोकरोंपर बिल्‍कुल नहीं रहा था. सब लोग उन्‍के माल को मुफ्तका माल समझनें लगे थे. किसी नें घड़ी हथियाई, किसी नें दुशालेपर हाथ फैंका. चारों तरफ़ लूटसी होनें लगी. मोजे, गुलूबंद, रूमाल आदिकी तो पहलेही कुछ पूछ न थी. मदनमोहन को हर तरह की चीज खरीदनें की धत थी परन्‍तु खरीदे पीछे उस्‍को कुछ याद नहीं र‍हती थी और जहां सैकड़ों चीजें नित्‍य खरीदी जायँ वहां याद क्‍या धूल रहै ? चुन्‍नीलाल, शिंभूदयाल आदि कीमत मैं दुगनें चौगनें कराते थे परन्‍तु यहां असल चीजोंही का पता न था. बहुधा चीजें उधार आती थीं इस्‍सै उन्‍का जमा खर्च उस्‍समय नहीं होता था और छोटी, छोटी चीजों के दाम तत्‍काल खर्च मैं लिख दिये जाते थे. इस्‍सै उन्‍की किसी को याद नहीं रहती थी. सूची पत्र बनानें की वहां चाल न थी और चीज बस्‍त की झडती क़भी नहीं मिलाई जाती थी नित्‍य प्रति की तुच्‍छ बातोंपर क़भी, क़भी वहां हल्‍ला होता था परन्‍तु सब बातोंके समूह पर दृष्टि करके उचित रीतिसै प्रबन्‍ध करनें की युक्ति क़भी नहीं सोची जाती थी और दैवयोगेन किसी नालायक सै कोई काम निकल आता था तो वह अच्‍छा समझ लिया जाता था परन्‍तु काम करनें की प्रणाली पर किसी की दृष्टि न थी.

लाला साहब दो तीन वर्ष पहलै आगरे लखनऊ की सैर को गए थे वहां के रस्‍ते खर्च के हिसाब का जमा खर्च अबतक नहीं हुआ था और जब इस तरह कोई जमा खर्च हुए बिना बहुत दिन पड़ा रहता था तो अन्‍त मैं उस्‍का कुछ हिसाब किताब देखे बिना यों ही खर्च मैं रकम लिखकर खाता उठा दिया जाता था. कैसेही आवश्‍यक काम क्‍यों न हो लाला साहब की रुचि के बिपरीत होनें सै वह सब बेफ़ायदे समझे जाते थे और इस ढब की बाजबी बात कहना गुस्‍ताखी मैं गिना जाता था. निकम्‍मे आदमियों के हरवक्‍त घेरे बैठे रहनें सै काम के आदमियों को काम की बातें करनें का समय नहीं मिल्‍ता था. “जिस्की लाठी उस्की भैंस” हो रही थी. जो चीज जिस्‍के हाथ लगती थी वह उस्‍को खूर्दबुर्द कर जाता था. भाड़े और उघाई आदिकी भूली भुलाई रकमों को लोग ऊपर का ऊपर चट कर जाते थे आधे परदे पर कर्जदारों को उनकी दास्‍तावेज फेर दी जाती थी. देशकाल के अनुसार उचित प्रबन्‍ध करनें में लोक निंदाका भय था ! जो मनुष्‍य कृपापात्र थे उनका तन्‍तना तो बहुत ही बढ़ रहा था उन्‍के सब अपराधों सै जान बूझकर दृष्टि बचाई जाती थी. वह लोग सब कामों मैं अपना पांव अड़ाते थे और उन्‍के हुक्‍म की तामील सबको करनी पड़ती थी यदि कोई अनुचित समझकर किसी काम मैं उज्र करता तो उस्‍पर लाला साहब का कोप होता था और इस दुफसली कारवाई के कारण सब प्रबन्‍ध बिगड़ रहा था (बिहारी) “दुसह दुराज प्रजान को क्‍यों न बढ़ै दुंख दुंद ।। अधिक अंधेरो जग करै मिल मावस रबि चंद ।।” ऐसी दशा मैं मदनमोहन की स्‍त्री के पीछे चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल के छोड़ जानें पर सब माल मतेकी लूट होनें लगे, जो पदार्थ जिसके पास हो वह उस्‍का मालिक बन बैठे इस्‍मैं कौन आश्‍चर्य है ?

परीक्षा-गुरु – Pariksha Guru

परीक्षा गुरू हिन्दी का प्रथम उपन्यास था जिसकी रचना भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने 25 नवम्बर,1882 को की थी। 

परीक्षा गुरु पहला आधुनिक हिंदी उपन्यास था। इसने संपन्न परिवारों के युवकों को बुरी संगति के खतरनाक प्रभाव और इसके परिणामस्वरूप ढीली नैतिकता के प्रति आगाह किया। परीक्षा गुरु नए उभरते मध्यम वर्ग की आंतरिक और बाहरी दुनिया को दर्शाता है। पात्र अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए औपनिवेशिक समाज के अनुकूल होने की कठिनाई में फंस जाते हैं। हालांकि यह जाहिर तौर पर विशुद्ध रूप से ‘पढ़ने के आनंद’ के लिए लिखा गया था। औपनिवेशिक आधुनिकता की दुनिया भयावह और अप्रतिरोध्य दोनों लगती है।

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परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा बदरोबी – Pariksha-Guru Prakaran-34 Hinprabha Badrobi

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Further Reading:

  1. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१ सौदागरकी दुकान
  2. परीक्षा-गुरु प्रकरण- २ अकालमैं अधिकमास
  3. परीक्षा-गुरु प्रकरण- ३ संगतिका फल
  4. परीक्षा-गुरु प्रकरण-४ मित्रमिलाप
  5. परीक्षा-गुरु प्रकरण-५ विषयासक्‍त
  6. परीक्षा-गुरु प्रकरण-६ भले बुरे की पहचान
  7. परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)
  8. परीक्षा-गुरु प्रकरण-८ सबमैं हां
  9. परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद
  10. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१० प्रबन्‍ध (इन्‍तज़ाम)
  11. परीक्षा-गुरु प्रकरण-११ सज्जनता
  12. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१२ सुख दु:ख
  13. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१३ बिगाड़का मूल- बि वाद
  14. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१४ पत्रव्यवहा
  15. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१५ प्रिय अथवा पिय् ?
  16. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१६ सुरा (शराब)
  17. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१७ स्‍वतन्‍त्रता और स्‍वेच्‍छाचार.
  18. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा
  19. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता
  20. परीक्षा-गुरु प्रकरण – २० कृतज्ञता
  21. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२१ पति ब्रता
  22. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२२ संशय
  23. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२३ प्रामाणिकता
  24. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथसै पै दा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)
  25. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२५ साहसी पुरुष
  26. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२६ दिवाला
  27. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२७ लोक चर्चा (अफ़वाह).
  28. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह
  29. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२९ बात चीत.
  30. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३० नै राश्‍य (नाउम्‍मेदी).
  31. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक
  32. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत
  33. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा
  34. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)
  35. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद
  36. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी
  37. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य
  38. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति
  39. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय
  40. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४० सुधारनें की रीति
  41. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४१ सुखकी परमावधि

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