परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह
परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह

परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह 28 Fut ka kala Muha

परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह

फूट गए हीरा की बिकानी कनी हाट, हाट ।।

काहू घाट मोल काहू बाढ़ मोल कों लयो ।।

टूट गई लंका फूट मिल्‍यो जो विभीषण है ।।

रावण समेत बंस आसमान को गयो ।।

कहे कविगंग दुर्योधन सो छत्रधारी ।।

तनक के फूटेते गुमान वाको नै गयो ।।

फूटेते नर्द उठ जात बाजी चौपर की ।। 
आपस के फूटे कहु कौन को भलो भयो ।।?।।

गंग.

थोड़ी देर पीछै मुन्शी चुन्‍नीलाल आ पहुँचा परन्‍तु उस्‍के चेहरे का रंग उड़ रहा था. लाला सै उस्‍की आंख ऊँची नहीं होती थी. प्रथम तो उस्‍की सलाह सै मदनमोहन का काम बिगड़ा दूसरे उस्‍की कृतघ्नता पर ब्रजकिशोर नें उस्‍के साथ ऐसा उपकार किया इसलिये वह संकोच के मारे धरती मैं समाया जाता था.

“तुम इतनें क्‍यों लजाते हो ? मैं तुम सै जरा भी अप्रसन्‍न नहीं हूँ बल्कि किसी, किसी बात मैं तो मुझको अपनी ही भूल मालूम होती है. मैं लाला मदनमोहनकी हरेक बात पर हदसै ज्‍यादा: जिद करनें लगता था. परन्‍तु मेरी वह जिद अनुचित थी. हरेक मनुष्‍य अपनें बिचार का आप धनी है. मैं चाहता हूँ कि आगे को ऐसी सूरत न हो और हम सब एक चित्‍त होकर रहैं. परन्‍तु मैंनें तुमको इस्समय इस सलाह के लिये नहीं बुलाया था. इस बिषय मैं तो जब तुम्‍हारी तरफ़ सै चाहना मालूम होगी देखा जायगा” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “इस्समय तो मुझको तुम सै हीरालाल की नौकरी बाबत सलाह करनी है. यह बहुत दिन सै खाली है. और मुझको अपनें यहां इस्‍समय एक मुहर्रिर की ज़रूरत मालूम होती है. तुम कहो तो इन्हैं रख लूं ?”

“इस्‍मैं मुझ सै क्‍या पूछते हैं ? इसके आप मालिक हैं” मुन्शी चुन्‍नीलाल कहनें लगा “मेरी तो इतनी ही प्रार्थना है कि आप मेरी मूर्खता पर दृष्टि न करैं अपनें बड़प्‍पन का बिचार रक्‍खें पहली बातों के याद करनें सै मुझको अत्‍यन्‍त लज्‍जा आती है. आपनें इस्‍समय लाला हीरालाल को नौकर रखकर मुझे मौत कर दिया.”

“मैं तुमको लज्जित करनें के लिये यह बात नहीं कहता. मैंनें अपनें मन का निज भाव तुमको इसलिये समझा दिया है कि तुम मुझे अपना शत्रु न समझो” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे. “हिन्‍दुस्तान के सत्‍यानाश की जड़ प्रारम्‍भ सै यही फूट है. इसी के कारण कौरव पांडवों का घोर युद्ध हुआ, इसी के कारण नन्‍द वंश की जड़ उखड़ी, पृथ्‍वीराज और जयचन्‍द की फूट सै हिन्‍दुस्‍थान मैं मुसल्‍मानों का राज आया और मुसल्‍मानों का राज भी अन्त मैं इसी फूट के कारण गया. सौ सवा सौ बरस सै लेकर अबतक हिन्‍दुस्‍थानमैं कुछ ऐसे अप्रबन्‍ध, फूट और स्‍वेच्‍छाचारकी हवा चली कि बहुधा लोग आपस मैं कट मरे. साहूजी नें ईस्‍ट इंडियन कम्‍पनी को देवी कोटे का किला और जिला देकर उस्‍के द्वारा अपनें भाई प्रताप सिंह सै तंजोर का राज छीन लिया. बंगाल के सूबेदार सिराजुद्दौला सै अधिकार छीन्‍नें के लिये उस्‍के बखशी मीर जाफर और दिवान राय दुल्‍लभ आदि नें कंपनी को दक्षिण काल्‍पी तक की जमीदारी, एक करोड़ रुपया नक़द और कलकत्ते के अंग्रेजों को पचास लाख, फौज को पचास लाख और और लोगों को चालीस लाख अनुमान देनें किये. जब मीर जाफर सूबेदार हुआ तब उस्‍सै अधिकार छीन्नें के लिये उस्‍के जँवाई कासम अलीखां नें कंपनी को बर्दवान, मेदनीपुर, चट गांव के जिले, पांच लाख रुपे नक़द और कौन्सिल वालों को बीस लाख रुपे देनें किये. जब कासम अलीखां सूबेदार हो गया और महसूल बाबत उसका कंपनी सै बिगाड़ हुआ तब मीर जाफर नें कंपनी को तीस लाख रुपे नक्‍द और बारह हजार सवार और बारह हजार पैदलों का खर्च देकर फ़िर अपना अधिकार जमा लिया. उधर अवध का सूबेदार शुजाउद्दौला कंपनी को चालीस लाख रुपे नक्‍द और लड़ाई का खर्च देना करके उस्‍की फौज रुहेलों पर चढ़ा ले गया. दखन मैं बालाजी राव पेशवा के मरते ही पेशवाओं के घरानें मैं फूट पड़ी. दो थोक हो गए. अब तक पंजाब बच रहा था.

रणजीतसिंह की उन्‍नति होती जाती थी परन्‍तु रणजीतसिंह के मरते ही वहां फूट नें ऐसे पांव फैलाए कि पहले सब झगड़ों को मात कर दिया. राजा ध्‍यानसिंह मन्त्री और उसके बेटे हीरा सिंह आदि की स्‍वार्थपरता, लहनासिंह और अजीतसिंह सिंधां वालों का छल अर्थात् कुंवर शेरसिंह और राजा ध्‍यानसिंह के जी मैं एक दूसरे की तरफ़ सै संदेह डालकर विरोध बढाना, और अन्‍त मैं दोनों के प्राण लेना, राजकुमार खड़गसिंह उसका बेटा नोनिहालसिंह, राजकुमार शेरसिंह उस्‍का बेटा प्रतापसिंह आदि की अन्‍समझी सै आपस मैं यह कटमकटा हुई कि पांच बरस के भीतर भीतर उस्‍के बंश मैं सिवाय दिलीपसिंह नामी एक बालक के कोई न रहा और उस्‍का राज भी कंपनी के राज मैं मिल गया. किसी नें सच कहा है, “अल्‍पसार हू बहुत मिल करैं बड़ो सो जोर ।। जों गज को बंधन करे तृणकी निर्मित डोर ।। इसलिये मैं आपस की फूट को सर्वथा अच्‍छा नहीं समझता. तुम मेरे पास सै गए थे इसलिये मुझको तुम्‍हारे कामों पर विशेष दृष्टि रखनी पड़ती थी परन्‍तु तुम अपनें जीमैं कुछ और ही समझते रहे. खैर ! अब इन बातों की चर्चा करनें सै क्‍या लाभ है.”

“आप यह क्‍या कहते हैं ? आप मेरे बड़े हैं. मैं आपका बरताव और तरह कैसे समझ सक्‍ता था ?” चुन्‍नी लाल कहनें लगा “आप नें बचपन मैं मेरा पालन किया, मुझको पढ़ा लिखा कर आदमी बनाया इस्‍सै बढ़ कर कोई क्‍या उपकार करेगा ? मैं अच्‍छी तरह जान्‍ता हूँ कि आप नें मुझ से जो कुछ भला बुरा कहा मेरी भलाई के लिये कहा. क्‍या मैं इतना भी नहीं जान्‍ता कि दंगा करनें से मां अपनें बालक को मारती है दूसरे से कुछ नहीं कहती यदि आपको हमारे प्रतिपालन की चिन्ता मन से न होती तो ऐसे कठिन समय मैं लाला हीरालाल को घर से बुलाकर क्‍यों नौकर रखते ?”

“भाई ! अब तो तुमनें वही खुशामद की लच्‍छेदार बातैं छेड़ दीं” लाला ब्रजकिशोर नें हँस कर कहा.

“आपके जी मैं मेरी तरफ़ का संदेह हो रहा है इस्सै आप को ऐसा ही भ्‍यास्‍ता होगा. परन्‍तु इस्‍मैं सै कौन्‍सी बात आप को खुशामद की मालूम हुई ?”

मनुस्‍मृति मैं कहा है “आकृति, चेष्‍टा, भाव, गति, बचन, रीति, अनुमान ।।

नैन सैंन, मुखकांति लख मन की रुचि पहिचान ।।” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “तुम कहते हो कि आप नें जो कुछ भला बुरा कहा मेरी भलाई के लिये कहा” परन्‍तु उस्‍समय तुम यह सर्वथा नहीं समझते थे. तुम्‍हारे कामों सै यह स्‍पष्‍ट जाना जा‍ता था कि तुम मेरी बातों सै अप्रसन्‍न हो और तुम्‍हारा अप्रसन्‍न होना अनुचित न था क्‍योंकि मेरी बातों सै तुम्‍हारा नुक्सान होता था. मुझको इस्बात का पीछै बिचार आया. मुझको इस्समय इन बातों के जतानें की ज़रूरत न थी परन्‍तु मैंनें इसलिये जतादी कि मैं भी सच झूँट को पहचान्ता हूँ. सच्‍चाई बिना मुझ सै सफाई न होगी”

“आप की मेरी सफाई क्‍या ? सफाई और बिगाड़ बराबर वालों में हुआ करता है, आप तो मेरे प्रतिपालक हैं. आप की बराबरी मैं कैसे कर सकता हूँ ?” मुन्‍शी चुन्‍नी लाल नें गम्‍भीरता सै कहा.

“यह तो बहानें बाजी की बात हैं. सफ़ाई के ढंग और ही हुआ करते हैं. मुझको तुम्‍हारा सब भेद मालूम है परन्‍तु तुमनें अबतक कौन्‍सी बात खुल के कही ?” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मैं पूछता हूँ कि तुमनें मदनमोहन के यहां सै सिवाय तनख्‍वाह के और कुछ नहीं लिया तो तुम्‍हारे पास आठ दस हजार रुपे कहां सै आगए ? मिस्‍टर ब्राइट इत्‍यादि सै तुम जो कमीशन लेते हो उस्‍का हाल मैं उन्‍के मुख सै सुन चुका हूँ तुम्‍हारी और शिंभूदयाल की हिस्‍सा पत्ती का हाल मुझे अच्‍छी तरह मालूम है. हरकिशोर और निहालचंद गली, गली तुम्‍हारी धूल उड़ाते फ़िरते हैं. मैं नहीं जान्‍ता कि जब इस्‍की चर्चा अदालत तक पहुँचेगी तो तुम्‍हारे लिये क्‍या परिणाम होगा ? मैंनें केवल तुम सै सलाह करनें के लिये यह चर्चा छेड़ी थी परन्‍तु तुम इस्‍के छिपानें मैं अपनी सब अकलमन्‍दी खर्च करनें लगे तो मुझको पूछनें सै क्‍या प्रयोजन है ? जो कुछ होना होगा समय पर अपनें आप हो रहैगा”

“आप क्रोध न करैं मैंनें हर काम मैं आप को अपना मालिक और प्रतिपालक समझ रक्‍खा है. मेरी भूल क्षमा करैं और मुझको इस्‍समय सै अपना सच्‍चा सेवक समझते रहैं” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें कुछ, कुछ डरकर कहा “आप जान्‍ते हैं कि कुन्बे का बड़ा खर्च है इस्‍के वास्तै मनुष्‍य को हजार तरह के झूंट सच बोलनें पड़ते हैं (वृन्द) “उदर भरन के कारनें प्राणी करत इलाज ।। नाचे, बांचे, रणभिरे, राचे काज अकाज ।।“

‘‘संसार की यही रीति है. प्रसंग रत्‍नावली मैं लिखा है “ज्ञान बृद्ध तपबृद्ध अरु बयके बृद्ध सुजान । धनवान के द्वार कों सेवैं भृत्‍य समान।।”  लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “तुमको मेरी एकाएक राय पलटनें का आश्‍चर्य होगा. परन्‍तु आश्‍चर्य न करो. जिस तरह शतरंज मैं एक चाल चलनें सै बाजी का नक्‍शा पलटता जाता है इसी तरह संसार मैं हरेक बात मैं काम काज की रीति भांति बदलती रहती है. अबतक यह समझता था कि मुझको मदनमोहन सै अवश्‍य इन्‍साफ़ मिलेगा परन्तु वह समय निकल गया. अब मैं फायदा उठाऊँ या न उठाऊँ मदनमोहन को फायदा पहुँचाना सहज नहीं. मेरा हाल तु‍म अच्‍छी तरह जान्‍ते हो. मैं केवल अपनी हिम्‍मत के सहारे सब तरह का दु:ख झेल रहा हूँ परन्‍तु मेरे कर्तव्य काम मुझको जरा भी नहीं उभरनें देते. कहते हैं कि अत्यन्त विपत्ति काल मैं महर्षि विश्‍वामित्र नें भी चंडाल के घर सै कुत्ते का मांस चुराया था ! फ़िर मैं क्‍या करूं ? क्‍या न करूं कुछ बुद्धि काम नहीं करती”

“समय बीते पीछै आप इन सब बातों की याद करते हैं अब तो जो होना था हो चुका यदि आप पहले इन बातों को बिचार करते तो केवल आप को ही नहीं आप के कारण हम लोगों को भी बहुत कुछ फ़ायदा हो जाता”

“तुम अपनें फ़ायदे के लिये तो बृथा खेद करते हो !” लाला ब्रजकिशोर नें हंस; कर जवाब दिया “अलबत्‍ता मैं मदनमोहन सै साफ जवाब पाए बिना कुछ नहीं कर सक्‍ता था क्‍योंकि मुझको प्रतिज्ञा भंग करना मंजूर न था. क्‍या तुम को मेरी तरफ़ सै अब तक कुछ संदेह है ?”

“जी नहीं, आप की तरफ़ का तो मुझ को कुछ संदेह नहीं है परन्तु इतना ही बिचार है कि खल मैं सै तेल आप किस तरह निकालैंगे !” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें जीमैं संदेह करके कहा.

“इस्‍की चिन्‍ता नहीं, ऐसे काम के लिये लोग यह समय बहुत अच्‍छा समझते हैं”

“बहुत अच्‍छा ? अब मैं जाता हूँ परन्‍तु——” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल कहते, कहते रुक गया.

“परन्‍तु क्‍या ? स्‍पष्‍ट कहो, मैं जान्‍ता हूँ कि तुम्‍हारे मन का संदेह अब तक नहीं गया. तुम्‍हारी हजार बार राजी हो तो तुम सफ़ाई करो, नहीं तो न करो. अभी कुछ नहीं बिगड़ा. मेरा कौन्‍सा काम अटक रहा है ? तुम अपना नफा नुक्‍सान आप समझ सक्ते हो”

“आप अप्रसन्‍न न हों, मुझको आपपर पूरा भरोसा है. मैं इस कठिन समय मैं केवल आप पर अपनें निस्‍तार का आधार समझता हूँ. मेरी लायकी–नालायकी मेरे कामों सै आप को मालूम हो जायगी. परन्‍तु मेरी इतनीही विनती है कि आप भी जरा नरम ही रहैं इन्की बातों मैं बढ़ावा देकर इन्‍सै सब तरह का काम ले सक्‍ते हैं परन्‍तु इन पर एतराज करनें सै यह चिढ़ जाते हैं. कल के झगड़े के कारण आजके तक़ाजे का संदेह इन्‍को आप पर हुआ है परन्‍तु अब मैं जाते ही मिटा दूंगा” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें बात पलटकर कहा और उठकर जानें लगा.

“तुम किया चाहोगे तो सफाई होनी कौन कठिन है? (बृन्द) प्रेरक ही ते होत है कारज सिद्ध निदान ।। चढ़े धनुष हू ना चले बिना चलाए बान ।।१ सुजन बीच पर दुहुनको हरत कलह रस पूर ।। करत देहरी दीप जों घर आंगन तम दूर ।।२” यह कहक़र लाला ब्रजकिशोर नें चुन्‍नीलाल को रुख़सत किया.

चुन्‍नीलाल के चित्त पर ब्रजकिशोर की कहन और हीरालाल की नौकरी सै बड़ा असर हुआ था परन्तु अबतक ब्रजकिशोर की तरफ़ सै उस्का मन पूरा साफ न था. यह बातें ब्रजकिशोर के स्‍वभाव सै इतनी उल्‍टी थीं कि ब्रजकिशोर के इतनें समझानें पर भी चुन्‍नीलाल का मन न भरा. वह संदेह के झूले मैं झोटे खा रहा था और बड़ा बिचार करके उस्‍नें यह युक्ति सोची थी कि “कुछ दिन दोनों को दम मैं रक्‍खूं, ब्रजकिशोर को मदनमोहन की सफाई की उम्‍मेद पर ललचाता रहूँ और इस काम की कठिनाई दिखा, दिखाकर अपना उपकार जताता रहूँ. मदनमोहन को अदालत के मुकदमों मैं ब्रजकिशोर सै मदद लेनें की पट्टी पढ़ाऊँ पर बेपरवाई जतानें के बहानें सै दोनों मैं परस्‍पर काम की बात खुल कर न होनें दूं जिस्‍मैं दोनों का मिलाप होता रहै. उन्‍के चित्त को धैर्य मिलनें के लिये सफाई के आसार, शिष्‍टाचार की बातें दिन, दिन बढ़ती जायं परन्‍तु चित्त की सफाई न होनें पाए, और दोनों की कुंजी मेरे हाथ रहै.”

ब्रजकिशोर चुन्‍नीलाल की मुखचर्या से उस्‍के मन की धुकड़ धुकड़ पहचान्‍ता था इसलिये उस्‍नें जाती बार हीरालाल के भेजनें की ताकीद कर दी थी. वह जान्ता था कि हीरालाल बेरोजगारी सै तंग है वह अपनें स्‍वार्थ सै चुन्‍नीलाल को सच्‍ची सफाई के लिये बिवस करेगा और उस्‍की जिद के आगे चुन्‍नीलाल की कुछ न चलेगी. निदान ऐसाही हुआ. हीरालाल नें ब्रजकिशोर की सावधानी दिखाकर चुन्‍नीलाल को बनावट के बिचार सै अलग रक्‍खा, ब्रजकिशोर की प्रामाणिकता दिखाकर उसै ब्रजकिशोर सै सफाई रखनें के वास्‍तै पक्‍का किया, मदनमोहन के काम बिगड़नें की सूरत बताकर आगे को ब्रजकिशोर का ठिकाना बनानें की सलाह दी और समझाकर कहा कि “एक ठिकानें पर बैठे हुए दस ठिकानें हाथ आ सक्‍ते हैं जैसे एक दिया जल्‍ता हो तो उस्से दस दिये जल सक्ते हैं परन्‍तु जब यह ठिकाना जाता रहैगा तो कहीं ठिकाना न लगेगा.” अदालत मैं मदनमोहन पर नालिश होनें से चुन्‍नीलालके भेद खुलनें का भय दिखाया और अन्‍त मैं ब्रजकिशोर से चुन्‍नीलाल नें सच्‍ची सफाई न की तो हीरालाल की चोरी साबित करनें की धमकी दी और इन बातौं से परवस होकर चुन्‍नीलाल को ब्रजकिशोर से मन की सफाई करनें के लिये दृढ़ प्रतिज्ञा करनी पड़ी.

परन्‍तु आज ब्रजकिशोर की वह सफाई और सचाई कहां है ? हरकिशोर का कहना इस्‍समय क्‍या झूंट है ? इस्‍के आचरण सै इस्‍को धर्मात्‍मा कौन बता सक्ता है ? और जब ऐसे खर्तल मनुष्‍य का अन्‍तमैं यह भेद खुला तो संसार मैं धर्मात्‍मा किस्‍को कह सक्ते हैं ? काम, क्रोध, लोभ, मोह का बेग कौन रोक सक्ता है ? परन्‍तु ठैरो ! जिस मनुष्‍य के जाहिरी बरताब पर हम इतना धोखा खा गए कि सवेरे तक उस्‍को मदनमोहन का सच्‍चा मित्र समझते रहे हर जगह उस्‍की सावधानी, योग्‍यता, चित्त की सफाई और धर्मप्रवृति की बड़ाई करते रहे उस्के चित्त मैं और कितनी बातें गुप्‍त होगी यह बात सिवाय परमेश्‍वर के और कौन जान सक्ता है ? और निश्‍चय जानें बिना हमलोगों को पक्‍की राय लगानें का क्‍या अधिकार है ?

परीक्षा-गुरु – Pariksha Guru

परीक्षा गुरू हिन्दी का प्रथम उपन्यास था जिसकी रचना भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने 25 नवम्बर,1882 को की थी। 

परीक्षा गुरु पहला आधुनिक हिंदी उपन्यास था। इसने संपन्न परिवारों के युवकों को बुरी संगति के खतरनाक प्रभाव और इसके परिणामस्वरूप ढीली नैतिकता के प्रति आगाह किया। परीक्षा गुरु नए उभरते मध्यम वर्ग की आंतरिक और बाहरी दुनिया को दर्शाता है। पात्र अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए औपनिवेशिक समाज के अनुकूल होने की कठिनाई में फंस जाते हैं। हालांकि यह जाहिर तौर पर विशुद्ध रूप से ‘पढ़ने के आनंद’ के लिए लिखा गया था। औपनिवेशिक आधुनिकता की दुनिया भयावह और अप्रतिरोध्य दोनों लगती है।

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परीक्षा-गुरु प्रकरण-२८ फूट का काला मुंह – Pariksha-Guru Prakaran-28 Fut ka kala Muha

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Further Reading:

  1. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१ सौदागरकी दुकान
  2. परीक्षा-गुरु प्रकरण- २ अकालमैं अधिकमास
  3. परीक्षा-गुरु प्रकरण- ३ संगतिका फल
  4. परीक्षा-गुरु प्रकरण-४ मित्रमिलाप
  5. परीक्षा-गुरु प्रकरण-५ विषयासक्‍त
  6. परीक्षा-गुरु प्रकरण-६ भले बुरे की पहचान
  7. परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)
  8. परीक्षा-गुरु प्रकरण-८ सबमैं हां
  9. परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद
  10. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१० प्रबन्‍ध (इन्‍तज़ाम)
  11. परीक्षा-गुरु प्रकरण-११ सज्जनता
  12. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१२ सुख दु:ख
  13. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१३ बिगाड़का मूल- बि वाद
  14. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१४ पत्रव्यवहा
  15. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१५ प्रिय अथवा पिय् ?
  16. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१६ सुरा (शराब)
  17. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१७ स्‍वतन्‍त्रता और स्‍वेच्‍छाचार.
  18. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा
  19. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता
  20. परीक्षा-गुरु प्रकरण – २० कृतज्ञता
  21. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२१ पति ब्रता
  22. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२२ संशय
  23. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२३ प्रामाणिकता
  24. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथसै पै दा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)
  25. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२५ साहसी पुरुष
  26. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२६ दिवाला
  27. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२७ लोक चर्चा (अफ़वाह).
  28. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह
  29. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२९ बात चीत.
  30. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३० नै राश्‍य (नाउम्‍मेदी).
  31. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक
  32. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत
  33. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा
  34. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)
  35. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद
  36. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी
  37. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य
  38. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति
  39. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय
  40. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४० सुधारनें की रीति
  41. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४१ सुखकी परमावधि

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