परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद
परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद

परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद Pariksha-Guru Prakaran-9 : Sabhasad

परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद

धर्मशास्‍त्र पढ़ , वेद पढ़ दुर्जन सुधरे नाहिं

गो पय मीठी प्रकृति ते, प्रकृति प्रबल सब माहिं 

हितोपदेश.

इस्‍समय मदनमोहनके बृत्तान्‍त लिखनें सै अवकाश पाकर हम थोड़ा सा हाल लाला मदनमोहन के सभासदोंका पाठक गण को विदित करते हैं, इन्‍मैं सब सै पहले मुन्शी चुन्‍नीलाल स्‍मर्ण योग्य हैं,

मुन्शी चुन्नीलालप्रथम ब्र‍जकिशोर के यहां दस रुपे महीनें का नौकर था. उन्‍होंनें इस्को कुछ, कुछ लिखना पढ़ना सिखाया था, उन्‍हींकी संगति मैं रहनें सै इसे कुछ सभाचातुरी आ गई थी, उन्‍हींके कारण मदनमोहन से इस्की जान पहचान हुई थी. परन्तु इस्‍के स्‍वभाव मैं चालाकी ठेठ सै थी इस्‍का मन लिखनें पढ़नें मैं कम लगता था पर इस्‍नें बड़ी, बड़ी पुस्‍तकों मैं सै कुछ, कुछ बातें ऐसी याद कर रक्‍खी थी कि नये आदमी के सामनें झड़ बांध देता था. स्‍वार्थ परता के सिवाय परोपकार की रुचि नाम को न थी पर जबानी जमा खर्च करनें और कागज के घोड़े दौड़ानें मैं यह बड़ा धुरंधर था. इस्‍की प्रीति अपना प्रयोजन निकालनें के लिये, और धर्म्म लोगों को ठगनें के लिये था. यह औरों सै बिवाद करनें मैं बड़ा चतुर था परन्तु इस्‍को अपना चाल चलन सुधारनें की इच्‍छा न थी. यह मनुष्‍यों का स्‍वभाव भली भांत पहचान्‍ता था, परन्तु दूर दृष्टि सै हरेक बात का परिणाम समझ लेनें की इस्‍को सामर्थ्‍य न थी. जोड़ तोड़ की बातों मैं यह इयागो (शेक्‍सपियर कृत ऑथेलो नाम का नाटक का खलनायक) का अवतार था.

कणिक की नीति पर इस्‍का पूरा विश्‍वास था. किसी बड़े काम का प्रबंध करनें की इस्को शक्ति न थी परन्तु बातों मैं धरती और आकाश को एक कर देता था. इस्‍के काम निकालनें के ढंग दुनियासै निराले थे. यह अपनें मतलब की बात बहुधा ऐसे समय करता था जब दूसरा किसी और काम मैं लग रहा हो जिस्‍सै इसकी बात का अच्छी तरह बिचार न कर सके अथवा यह काम की बात करती बार कुछ, कुछ साधारण बातों की ऐसी चर्चा छेड़ देता था जिस्सै दूसरे का मन बटा रहै अथवा कोई बात रुचि के बिपरीत अंगीकार करानी होती थी तो यह अपनी बातों मैं हर तरह का बोझ इस ढबसै डाल देता था कि दूसरा इन्कार न कर सके क़भी, क़भी यह अपनी बातों को इस युक्ति सै पुष्‍ट कर जाता कि सुन्‍नें वाले तत्‍काल इस्‍का कहना मान लेते, जो काम यह अपनें स्‍वार्थ के लिये करता उस्‍का प्रयोजन सब लोगों के आगे और ही बताता था और अपनी स्‍वार्थ परता छिपानें के लिये बड़ी आना कानी सै वह बात मंजूर करता था यह अपनें बैरी की ब्याजस्‍तुति इस ढब सै करता था कि लोग इस्‍का कहना इसकी दयालुता और शुभचिन्‍तकता सै समझनें लगते थे. जिस्‍बात के सहसा प्रगट करनें मैं कुछ खटका समझता उस्‍का प्रथम इशारा कर देता था और सुन्‍नें वाले के आग्रह पर रुक, रुक कर वह बात कहता था. जोखों की बात लोगों पर ढाल कर कहता था वह अथवा शिंभूदयाल वगेरे के मुख सै कहवा दिया करता था और आप साधनें को तैयार रहता था. तुच्‍छ बातों को बढ़ा कर, बड़ी बातों को घटा कर, अपनी तरफ़ सै नोन मिर्च लगाकर, क़भी प्रसन्‍न, क़भी उदास, क़भी क्रोधित, क़भी शांत होकर यह इस रीति सै बात कहता था कि जो कहता था उस्‍की मूर्ति बन जाता था, इस्‍के मन मैं संग्रह करनें की बृत्ति सब सै प्रबल थी.

मुन्शी चुन्‍नीलाल ब्रजकिशोर के यहां नोकर था. जब अपनी चालाकी सै बहुधा मुकद्दमें वालों को उलट-पुलट समझा कर अपना हक़ ठैरा लिया करता था. स्‍टांप, तल्‍बानें वगैरे के हिसाब मैं उन लोगों को धोका दे दिया करता था बल्कि क़भी, क़भी प्रतिपक्षी सै मिल्‍कर किसी मुकद्दमेंवाले का सबूत वगैरे भी गुप चुप उस्‍को दिया करता था. ब्रजकिशोर नें ये भेद जान्‍ते ही पहले उसै समझाया फ़िर धमकाया जब इस्‍पर भी राह मैं न आया तो घर का मार्ग दिखाया. इस्‍नें पहले ही सै ब्रजकिशोर का मन देख कर लाला मदनमोहन के पास अपनी मिसल लगा ली थी. हरकिशोर को अपना सहायक बना लिया था. लाला ब्रजकिशोर के पास सै अलग होते ही लाला मदनमोहन के पास रहनें लगा.

मुन्शी चुन्‍नीलाल नें लाला मदनमोहन के स्‍वभाव को अच्‍छी तरह पहचान लिया था. लाला मदनमोहन को हाकमों की प्रसन्‍नता, लोगों की वाह, वाह, अपनें शरीर का सुख, और थोड़े ख़र्च मैं बहुत पैदा करनें के लालच के सिवाय किसी और काम मैं रुपया ख़र्च करना अच्छा नही लगता था पर रुपया पैदा करनें अथवा अपनें पास की दौलत को बचा रखनें के ठीक रस्‍ते नहीं मालूम थे इसलिये मुन्शी चुन्‍नीलाल उन्‍को उन्‍की इच्‍छानुसार बातें बनाकर खूब लूटता था.

मास्‍टर शिंभूदयाल प्रथम लाला मदनमोहन को अंग्रेजी पढ़ानें के लिए नोकर रक्खा गया था पर मदनमोहन का मन बचपन सै पढ़नें लिखनें की अपेक्षा खेल कूद मैं अधिक लगता था. शिंभूदयाल नें लिखनें पढ़नें की ताकीद की तो मदनमोहन का मन बिगड़नें लगा. मास्‍टर शिंभूदयाल खानें, पहन्‍नें, देखनें, सुन्‍नें का रसिक था और लाला मदनमोहन के पिता अंग्रेजी नहीं पढ़े थे इसलिये मदनमोहन सै मेल करनें मैं इस्‍नें हर भांत अपना लाभ समझा. पढ़ानें लिखानें के बदले मदनमोहन बालक रहा जितनें अलिफ़लैलामैं सै सोते जागते का किस्‍सा, शेक्सपियर के नाटकों मैं सै कोमडी आफ़ एर्रज़, ट्वेलफ्थनाइट, मचएडू एबाउट नथिंग, बेनजान्‍सन का एव्‍रीमैन इनहिज ह्यूमर; स्विफ्टके ड्रपीअर्सलेटर्स, गुलिबर्सट्रैवल्‍स, टेल आफ़ ए टब आदि सुनाकर हँसाया करता और इस युक्ति सै उस्‍को टोपी, रूमाल, घड़ी, छड़ी आदि का बहुधा फायदा हो जाता था. जब मदनमोहन तरुण हुआ तो अलिफ़लैला मैं सै अबुल हसन, और शम्सुल्निहार का किस्सा, शेक्सपियर के नाटकों मैं सै रोमियों ऐन्‍ड जुलियट आदि सुनाकर आदि रस का रसिक बनानें लगा और आप भी उस्‍के साथ फूलके कीड़े की तरह चैन करनें लगा, परन्तु यह सब बातें मदनमोहन के पिता के भय सै गुप्‍त होती थीं इसी सै शिंभूदयाल आदि का बहुत फायदा था वह पहाड़ी आदमियों की तरह टेढ़ी राह मैं अच्छी तरह चल सक्ता था परन्तु समभूमि पर चलनेंकी उस्‍को आदत न थी जब चुन्‍नीलाल मदनमोहन के पास आया कुछ दिन इन दोनों की बड़ी खटपट रही परन्तु अन्त मैं दोनों अपना हानि लाभ समझ कर गरम लोहे की तरह आपस मैं मिल गए. शिंभूदयाल को मदनमोहन नें सिफ़ारस करके मदरसे मैं नोकर रख दिया था इस्‍कारण वह मदनमोहन की अहसानमंदी के बहानें सै हर वक्‍त वहां रहता था.

पंडित पुरूषोत्तमदास भी बचपन सै लाला मदनमोहन के पास आते जाते थे. इन्कों लाला मदनमोहन के यहां सै इन्के स्‍वरूपानुरूप अच्‍छा लाभ हो जाता था परन्तु इन्कें मन मैं औरों की डाह बड़ी प्रबल थी. लोगों को धनवान, प्रतापवान, विद्वान, बुद्धिमान, सुन्‍दर, तरुण, सुखी और कृतिकार्य देखकर इन्‍हैं बड़ा खेद होता था. वह यशवान मनुष्‍यों सै सदा शत्रुता रखते थे औरों को अपनें सुख लाभ का उद्योग करते देखकर कुढ़ जाते थे अपनें दुखिया चित्त को धैर्य देनें के लिये अच्‍छे, अच्छे मनुष्यों के छोटे, छोटे दोष ढूंढा करते थे किसी के यश मैं किसी तरह का कलंक लग जानें सै यह बड़े प्रसन्‍न होते थे. पापी दुर्योधन की तरह संसार के बिनाश होनें मैं इन्‍की प्रसन्‍नता थी और अपनी सर्वज्ञता बतानें के लिये जानें बिना जानें हर काम मैं पांव अड़ाते थे. मदनमोहन को प्रसन्‍न करनें के लिये अपनी चिड़ करेले की कर रक्‍खी थी. चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल आदि की कटती कहनें मैं कसर न रखते थे परन्तु अकल मोटी थी इस लिये उन्‍होंनें इन्‍हें खिलोना बना रक्‍खा था. और परकैच कबूतर की तरह वह इन्‍हें अपना बसबर्ती रखते थे.

हकीम अहमदहुसेन बड़ा कम हिम्‍मत मनुष्य था. इस्‍को चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल सै कुछ प्रीति न थी परन्तु उन्‍को कर्ता समझ कर अपनें नुक्‍सान के डर सै यह सदा उन्‍की खुशामद किया करता था उन्‍हीं को अपना सहायक बना रक्‍खा था उन्‍के पीछै बहुधा मदनमोहन के पास नहीं जाता आताथा और मदनमोहन की बड़ाई तथा चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल की बातों को पुष्‍ट करनें के सिवाय और कोई बात मदनमोहन के आगे मुखसै नहीं निकालता था. मदनमोहन के लिये ओषधि तक मदनमोहन के इच्‍छानुसार बताई जाती थी. मदनमोहन का कहना उचित हो, अथवा अनुचित हो यह उस्‍की हांमैं हां मिलानें को तैयार था मदनमोहन की राय के साथ इस्‍को अपनी राय बदलनें मैं भी कुछ उज्र न था ! “यह लालाजी का नोकर था कुछ बैंगनों का नोकर नहीं था” परन्तु इन लोगों की प्रसन्‍न्नता मैं कुछ अन्तर न आता हो तो यह ब्रजकिशोर की कहन मैं भी सम्‍मति करनें को तैयार रहता था. इस्को बड़े, बड़े कामों के करनें की हिम्‍मत तो कहांसै आती छोटे, छोटे कामों सै इस्का जी दहल जाता था, अजीर्ण के डर सै भोजन न करनें और नुक्‍सान के डर सै व्‍यापार न करनें; की कहावत यहां प्रत्‍यक्ष दिखाई देती थी. इसको सब कामों मैं पुरानी चाल पसंद थी.

बाबू बैजनाथ ईस्‍ट इन्डियन रेलवे कम्‍पनी मैं नौकर था अंग्रेजी अच्‍छी पढ़ा था. यूरुप के सुधरे हुए विचारों को जान्‍ता था परन्तु स्वार्थपरतानें इस्‍के सब गुण ढक रक्खे थे. विद्या थी पर उसके अनुसार व्‍यवहार न था “हाथी के दांत खानें के और दिखानें के और थे” इस्के निर्वाह लायक इस्समय बहुत अच्छा प्रबंध हो रहा था परन्तु एक संतोष बिना इस्के जीको जरा भी सुख न था. लाभ सै लोभ बढ़ता जाता था और समुद्र की तरह इस्‍की तृष्‍णा अपार थी. लोभसै धर्म्म का कुछ बिचार न रहता था. बचपन मैं इस्को इल्‍ममुसल्लिम, तहरीरउक्‍लेकदस और जब्रमुकाबले वगैरे के सीखनें मैं परीक्षा के भयसै बहुत परिश्रम करना पड़ा था परन्तु इस्‍के मनमैं धर्म्म प्रवृत्तिके उत्तेजित करनें के लिये धर्म्‍म नीति आदि के असरकारक उपदेश अथवा देशोन्‍नति के हेतु बाफ, (भाप) और बिजली आदि की शक्ति, नई, नई कलोंका भेद, और पृथ्वी की पैदावार बढ़ानें के हेतु खेती बाड़ी की बिद्या, अथवा स्‍वछंदतासै अपना निर्वाह करनें के लिये देश-दशा के अनुसार जीविका करनें की रीति और अर्थ बिद्या, तंदुरुस्‍ती के लिये देह रक्षाके तत्‍व, द्रव्‍यादिकी रक्षा और राजाज्ञा भंग के अपराधसै बचनें को राजाज्ञा का तात्‍पर्य, अथवा बड़े और बराबर वालोंसै यथायोग्‍य व्‍यवहार करनें के लिये शिष्‍टाचार का उपदेश बहुत ही कम मिला था, बल्कि नहीं मिलनें के बराबर था. इसके कई वर्ष, तो केवल, अंग्रेजी भाषा सीखनें मैं बिद्या के द्वार पर खड़े, खड़े बीत गये जो अंग्रेजों की तरह ये शिक्षा अपनी देश भाषा मैं होती अथवा काम, कामकी पुस्तकों का अपनी भाषा मैं अनुवाद हो गया होता तो कितना समय व्‍यर्थ नष्‍ट होनेंसै बचता ? और कितनें अधिक लोग उस्‍सैलाभ उठाते ?

परन्तु प्रचलित रीति के अनुसार इस्‍को सच्‍ची हितकारी शिक्षा नहीं हुई थी जिस्‍पर अभिमान इतना बढ़ गया था कि बड़े बूढ़े मूर्ख मालूम होनें लगे और उन्‍के कामसै ग्‍लानि हो गई. पर इस बिद्वत्ता मैं भी सिवाय नोकरी के और कहीं ठिकाना न था. भाग्‍यबल सै मदरसा छोड़ते ही रेलवे की नोकरी मिल गई पर बाबूसाहब को इतनें पर संतोष न हुआ वह और किसी बुर्दकी ताक झाँक मैं लगरहे थे, इतनें मैं लाला मदनमोहन सै मुलाकात हो गई. एक बार लाला मदनमोहन आगरे लखनऊकी सैर को गए. उस्समय इसनें उन्‍की स्‍टेशन पर बड़ी खातिर की थी. उसी समयसै इन्‍की जानपहचान हुई यह दूसरे तीसरे दिन लाला मदनमोहन के यहां जाता था और समा बाँध कर तरह, तरह की बातें सुनाया करता था. इस्‍की बातोंसै मदनमोहन के चित्त पर ऐसा असर हुआ कि वह इस्को सबसै अधिक चतुर और विश्‍वासी समझनें लगा, इस्‍नें अपनी युक्ति सै चुन्‍नीलाल वगैरे को भी अपना बना रक्‍खा था पर अपनें मतलब सै निश्चिन्‍त न था. यह सब बातें जानबूझ कर भी धृतराष्‍ट्रकी तरह लोभसै अपनें मन को नहीं रोक सक्ता था.

खेद है कि लाला ब्रजकिशोर और हरकिशोर आदि के वृत्तान्त लिखनें का अवकाश इस्‍समय नहीं रहा. अच्‍छा फ़िर किसी समय बिदित किया जाएगा. पाठकगण धैर्य रक्‍खें.

परीक्षा-गुरु – Pariksha Guru

परीक्षा गुरू हिन्दी का प्रथम उपन्यास था जिसकी रचना भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने 25 नवम्बर,1882 को की थी। 

परीक्षा गुरु पहला आधुनिक हिंदी उपन्यास था। इसने संपन्न परिवारों के युवकों को बुरी संगति के खतरनाक प्रभाव और इसके परिणामस्वरूप ढीली नैतिकता के प्रति आगाह किया। परीक्षा गुरु नए उभरते मध्यम वर्ग की आंतरिक और बाहरी दुनिया को दर्शाता है। पात्र अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए औपनिवेशिक समाज के अनुकूल होने की कठिनाई में फंस जाते हैं। हालांकि यह जाहिर तौर पर विशुद्ध रूप से ‘पढ़ने के आनंद’ के लिए लिखा गया था। औपनिवेशिक आधुनिकता की दुनिया भयावह और अप्रतिरोध्य दोनों लगती है।

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परीक्षा-गुरु प्रकरण -9 सभासद – Pariksha-Guru Prakaran-9 : Sabhasad

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Further Reading:

  1. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१ सौदागरकी दुकान
  2. परीक्षा-गुरु प्रकरण- २ अकालमैं अधिकमास
  3. परीक्षा-गुरु प्रकरण- ३ संगतिका फल
  4. परीक्षा-गुरु प्रकरण-४ मित्रमिलाप
  5. परीक्षा-गुरु प्रकरण-५ विषयासक्‍त
  6. परीक्षा-गुरु प्रकरण-६ भले बुरे की पहचान
  7. परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)
  8. परीक्षा-गुरु प्रकरण-८ सबमैं हां
  9. परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद
  10. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१० प्रबन्‍ध (इन्‍तज़ाम)
  11. परीक्षा-गुरु प्रकरण-११ सज्जनता
  12. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१२ सुख दु:ख
  13. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१३ बिगाड़का मूल- बि वाद
  14. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१४ पत्रव्यवहा
  15. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१५ प्रिय अथवा पिय् ?
  16. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१६ सुरा (शराब)
  17. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१७ स्‍वतन्‍त्रता और स्‍वेच्‍छाचार.
  18. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा
  19. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता
  20. परीक्षा-गुरु प्रकरण – २० कृतज्ञता
  21. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२१ पति ब्रता
  22. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२२ संशय
  23. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२३ प्रामाणिकता
  24. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथसै पै दा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)
  25. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२५ साहसी पुरुष
  26. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२६ दिवाला
  27. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२७ लोक चर्चा (अफ़वाह).
  28. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह
  29. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२९ बात चीत.
  30. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३० नै राश्‍य (नाउम्‍मेदी).
  31. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक
  32. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत
  33. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा
  34. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)
  35. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद
  36. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी
  37. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य
  38. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति
  39. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय
  40. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४० सुधारनें की रीति
  41. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४१ सुखकी परमावधि

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