परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्_वतन्त्रता
परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्_वतन्त्रता

परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता Pariksha-Guru Prakaran-19 : Swatantrata

परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता

“स्‍तुति निन्‍दा कोऊ करहि लक्ष्‍मी रहहि की जाय

मरै कि जियै न धीरजन ध रै कू मारग पाय ।।

प्रसंगरत्‍नावली.

“सच तो यह है कि आज लाला ब्रजकिशोर साहब नें बहुत अच्‍छी तरह भाईचारा निभाया. इन्‍की बातचीत मैं यह बड़ी तारीफ है कि जैसा काम किया चाहते हैं वैसा ही असर सब के चित्त पर पैदा कर देते हैं” मास्‍टर शिंभूदयाल नें मुस्‍करा कर कहा.

“हरगिज नहीं, हरगिज नहीं, मैं इन्साफ़ के मामले मैं भाई चारे को पास नहीं आनें देता जिस रीति सै बरतनें के लिये मैं और लोगों को सलाह देता हूँ उस रीति बरतना मैं अपनें ऊपर फर्ज समझता हूँ. कहना कुछ और, करना कुछ और नालायकों का काम है और सचाई की अमिट दलीलों को दलील करनेंवाले पर झूंटा दोषारोपण करके उड़ा देनें वाले और होते हैं” लाला ब्रजकिशोर नें शेर की तरह गरज कर कहा और क्रोध के मारे उन्‍की आंखें लाल होगईं.

लाला ब्रजकिशोर अभी मदनमोहन को क्षमा करनें के लिये सलाह देरहे थे इतनें मैं एका एक शिंभूदयाल की ज़रासी बात पर गुस्‍से मैं कैसे भर गए ? शिंभूदयाल नें तो कोई बात प्रगट मैं ब्रजकिशोर के अप्रसन्‍न होनें लायक नहीं कही थी ? निस्सन्देह प्रगट मैं नहीं कही परन्‍तु भीतर सै ब्रजकिशोर का ह्रदय विदीर्ण करनें के लिये यह साधारण बचन सबसै अधिक कठोर था. ब्रजकिशोर और सब बातों में निरभिमानी परन्‍तु अपनी ईमानदारी का अभिमान रखते थे इस लिये जब शिंभूदयाल नें उन्‍की ईमानदारी मैं बट्टा लगाया तब उन्को क्रोध आये बिना न रहा. ईमानदार मनुष्‍य को इतना खेद और किसी बात सै नहीं होता जितना उस्‍को बेईमान बतानें सै होता है.

“आप क्रोध न करें. आपको यहां की बातों मैं अपना कुछ स्‍वार्थ नहीं है तो आप हरेक बात पर इतना जोर क्‍यों देते हैं ? क्‍या आप की ये सब बातें किसी को याद रह सक्ती हैं ? और शुभचिन्‍तकी के बिचार सै हानि लाभ जतानें के लिये क्‍या एक इशारा काफ़ी नहीं है ?” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें मास्‍टर शिंभूदयाल की तरफ़दारी करके कहा.

“मैंनें अबतक लाला साहब सै जो स्‍वार्थ की बात की होगी वह लाला साहब और तुम लोग जान्‍ते होगे. जो इशारे मैं काम होसक्ता तो मुझको इतनें बढ़ा कर कहनें सै क्‍या लाभ था ? मैंनें कहीं हैं वह सब बातें निस्‍सन्‍देह याद नहीं रह सक्तीं परन्‍तु मन लगा कर सुन्‍नें सै बहुधा उन्का मतलब याद रह सक्ता है और उस्‍समय याद न भी रहै तो समय पर याद आ जाता है. मनुष्‍य के जन्‍म सै लेकर वर्तमान समय तक जिस, जिस हालत मैं वह रहता है उस सब का असर बिना जानें उस्‍की तबियत मैं बना रहता है इस वास्‍ते मैंनें ये बातें जुदे, जुदे अवसर पर यह समझ कर कह दीं थीं कि अब कुछ फायदा न होगा तो आगे चल कर किसी समय काम आवेंगी” लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया.

“अपनी बातोंको आप अपनें पास ही रहनें दीजिये क्‍योंकि यहां इन्‍का कोई ग्राहक़ नहीं है” लाला मदनमोहन कहनें लगे आपके कहनेंका आशय यह मालूम होता है कि आपके सिवाय सब लोग अनसमझ और स्‍वार्थपर हैं.”

“मैं सबके लिये कुछ नहीं कहता परन्‍तु आपके पास रहनें वालों मैं तो निस्‍सन्‍देह बहुत लोग नालायक और स्‍वार्थपर हैं” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “ये लोग दिनरात आपके पास बैठे रहते हैं, हरबात मैं आपकी बड़ाई किया करते हैं, हर काम मैं अपनी जान हथेली पर लिये फ़िरते हैं पर यह आपके नहीं; आप के रुपे के दोस्‍त हैं. परमेश्‍वर न करे जिस दिन आपके रुपे जाते रहेंगे इन्‍का कोसों पता न लगेगा. जो इज्‍जत, दौलत और अधिकार के कारण मिल्‍ती है वह उस मनुष्‍य की नहीं होती. जो लोग रुपेके कारण आपको झुक, झुक कर सलाम करते हैं वही अपनें घर बैठकर आपकी बुद्धिमानीका ठट्टा उड़ाते हैं ! कोई काम पूरा नहीं होता जबतक उस्‍मैं अनेक प्रकारके नुक्‍सान होनें की सम्‍भावना रहती है पूरे होनें की उम्‍मेद पर दस काम उठाये जाते हैं जिस्मैं मुश्किल सै दो पूरे पड़ते हैं परन्‍तु आपके पास वाले खाली उम्‍मेद पर बल्कि भीतरकी नाउम्मेदी पर भी आपको नफेका सब्ज बाग़ दिखा कर बहुतसा रुपया खर्च करा देते हैं ! मैं पहले कह चुका हूँ कि आदमी की पहचान जाहिरी बातों सै नहीं होती उस्के बरतावसै होती है. इस्‍मैं आपका सच्‍चा शुभचिंतक कौन है ? आपके हानि लाभका दर्सानें वाला कौन है ? आपके हानिलाभ का बिचार करनें वाला कौन है ? क्‍या आपकी हांमैं हां मिलानै सै सब होगया ? मुझको तो आपके मुसाहिबों मैं सिवाय मसख़रापनके और किसी बातकी लियाक़त नहीं मालूम होती. कोई फबतियां कहक़र इनाम पाता है, कोई छेड़ छाड़कर गालियें खाता है, कोई गानें बजानें का रंग जमाता है, कोई धोलधप्‍पे लड़ाकर हंसता हंसाता है पर ऐसे अदमियोंसै किसी तरह की उम्‍मेद नहीं हो सक्ती.”

“मेरी दिल्‍लगी की आदत है. मुझसै तो हंसी दिल्‍लगी बिना रोनी सूरत बनाकर दिनभर नहीं रहा जाता परन्‍तु इन बातोंसै काम की बातों मैं कुछ अन्‍तर आया हो बताईये” लाला मदनमोहननें पूछा.

“आपके पिताका परलोक हुआ जबसै आपकी पूंजीमैं क्‍या घटा-बढ़ी हुई ? कितनी रकम पैदा हुई ? कितनी अहंड (बर्बाद) हुई कितनी ग़लत हुई, कितनी खर्च हुई इन बातोंका किसीनें बिचार किया है ? आमदनीसै अधिक खर्च करनें का क्‍या परिणाम है ? कौन्‍सा ख़र्च वाजबी है, कौन्‍सा गैरवाजबी है, मामूली खर्चके बराबर बंधी आमदनी कैसे हो सक्‍ती है ? इन बातों पर कोई दृष्टि पहुँचाता है ? मामूली आमदनी पर किसीकी निगाह है ? आमदनी देखकर मामूली खर्चके वास्‍ते हरेक सीगेका अन्‍दाजा पहलेसै क़भी किया गया है, गैर मामूली खर्चोंके वास्‍ते मामूली तौरपर सीगेवार कुछ रक़म हरसाल अलग रक्‍खी जाती है ? बिनाजानें नुक्‍सान, खर्च और आमदनी कमहोनें के लिये कुछ रकम हरसाल बचाकर अलग रक्‍खी जाती है ? पैदावार बढ़ानें के लिये वर्तमान समयके अनुसार अपनें बराबर वालों की कारवाई देशदेशान्‍तर का बृतान्‍त और होनहार बातों पर निगाह पहुँचाकर अपनें रोज़गार धंदेकी बातोंमैं कुछ उन्‍नति की जाती है ? व्‍यापारके तत्‍व क्‍या हैं. थोड़े खर्च, थोड़ी महनत और थोड़े समयमैं चीज़ तैयार होनेंसै कितना फायदा होता है, इन बातोंपर किसीनें मन लगाया है ? उगाहीमैं कितनें रुपे लेनें हैं, पटनें की क्‍या सूरत है, देनदारों की कैसी दशा है. मियादके कितनें दिन बाकी हैं इन बातों पर कोई ध्‍यान देता है ? व्‍योपार सिगा के मालपर कितनी रकम लगती है, माल कितना मोजूद है किस्‍समय बेचनेंमें फायदा होगा इन बातों पर कोई निगाह दौड़ाता है ? ख़र्च सीगाके मालकी क़भी बिध मिलाई जाती है ? उस्‍की कमी बेशीके लिये कोई जिम्‍मेदार है ? नौकर कितनें हैं, तनख्‍वाह क्‍या पाते हैं, काम क्‍या करते हैं, उन्‍की लियाक़त कैसी है, नीयत कैसी है, कारवाई कैसी है, उन्‍की सेवाका आप पर क्‍या हक़ है, उन्‍के रखनें न रखनेंमैं आपका क्‍या नफ़ा नुक्‍सान है इनबातों को क़भी आपनें मन लगा कर सोचा है?”

“मैं पहले ही जान्‍ता था कि आप हिर फ़िरकर मेरे पासके आदमियों पर चोट करेंगे परन्‍तु अब मुझको यह बात असह्य है. मैं अपना नफ़ा नुक्‍सान समझता हूँ आप इस विषय मैं अधिक परिश्रम न करै” लाला मदनमोहननें रोककर कहा.

“मैं क्‍या कहूँगा पहलेसै बुद्धिमान कहते चले आये हैं” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “विलियम कूपर कहता है:-

जिन नृपनको शिशुकालसै सेवहिं छली तनमन दिये।।

तिनकी दशा अबिलोक करुणाहोत अति मेरे हिये।।

आजन्मों अभिषेकलों मिथ्‍या प्रशंसा जानकरैं।।

बहु भांत अस्‍तुति गाय, गाय सराहि सिर स्‍हेरा धरैं।।

शिशुकालते सीखत सदा सजधज दिखावन लोक मैं।।

तिनको जगावत मृत्‍यु बहुतिक दिनगए इहलोक मैं।।

मिथ्‍या प्रशंसी बैठ घुटनन, जोड़ कर, मुस्‍कावहीं।।

छलकी सुहानी बातकहि पापहि परम दरसावहीं।।

छबिशालिनी, मृदुहासिनी अरु धनिक नितघेरैं रहैं।।

झूंटी झलक दरसाय मनहि लुभाय कुछ दिनमैं लहैं।।

जे हेम चित्रित रथन चढ़, चंचल तुरंग भजावहीं।।

सेना निरख अभिमानकर, यों ब्यर्थ दिवस गमावहीं।।

तिनकी दशा अबिलोक भाखत फरेहूँ मनदुख लिये।।

नृपकी अधमगति देख करुणा होत अति मेरे हिये।।

“लाला साहब अपनें सरल स्वभाव सै कुछ नहीं कहते इस वास्ते आप चाहे जो कहते चले जांय परन्तु कोई तेज़ स्वभाव का मनुष्य होता तो आप इस तरह हरगिज न कहनें पाते” मास्टर शिंभूदयाल नें अपनी जात दिखाई.

सच है ! बिदुरजी कहते हैं “दयावन्त लज्जा सहित मृदु अरु सरल सुभाई।। ता नर को असमर्थ गिन लेत कुबुद्धि दबाइ।। ” इस लिये इन गुणों के साथ सावधानी की बहुत ज़रूरत है. सादगी और सीधेपन सै रहनें में मनुष्य की सच्ची अशराफत मालूम होती है. मनुष्य की उन्नति का यह सीधा मार्ग है परन्तु चालाक आदमियोंकी चालाकी सै बचनें के लिये हर तरह की वाकंफ़ियत भी ज़रूर होनी चाहिये” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया.

“दोषदर्शी मनुष्यों के लिये सब बातों मैं दोष मिल सक्ते हैं क्योंकि लाला साहबके सरल स्वभाव की बड़ाई सब संसार मैं हो रही है परन्तु लाला ब्रजकिशोर को उस्मैं भी दोष ही दिखाई दिया !” पंडित पुरुषोत्तमदास बोले.

“द्रब्य के लालचियों की बड़ाई पर मैं क्या विश्वास करूं ? बिदुरजी कहते हैं कि “जाहि सराहत हैं सब ज्वारी। जाहि सराहत चंचल नारी।। जाहि सराहत भाट बृथा ही। मानहु सो नर जीवत नाही।।” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया.

“मैं अच्छा हूँ या बुरा हूँ आपका क्या लेता हूँ ? आप क्यों हात धोकर मेरे पीछे पड़े हैं ? आपको मेरी रीति भांति अच्छी नहीं लगती तो आप मेरे पास न आय” लाला मदनमोहन नें बिगड़ कर कहा.

“मैं आपका शत्रु नहीं; मित्र हूँ परन्तु आपको ऐसा ही जचता है तो अब मैं भी आपको अधिक परिश्रम नहीं दिया चाहता. मेरी इतनी ही लालसा है कि आपके बड़ों की बदौलत मैंनें जो कुछ पाया है वह मैं आपकी भेंट करता जाऊं” लाला ब्रजकिशोर लायकी सै कहनें लगे “मैंनें आपके बड़ों की कृपा सै विद्या धन पाया है जिस्का बड़ा हिस्सा मैं आपके सन्मुख रख चुका तथापि जो कुछ बाकी रहा है उस्को आप कृपा करके और अंगीकार कर लें. मैं चाहता हूँ कि मुझसै आप भले ही असप्रन्न रहें, मुझको हरगिज़ अपनें पास न रक्खें परन्तु आपका मंगल हो. यदि इस बिगाड़ सै आपका कुछ मंगल हो तो मैं इसै ईश्वर की कृपा समझूंगा. आप मेरे दोषोंकी ओर दृष्टि न दें. मेरी थोथी बातों मैं जो कुछ गुण निकलता हो उसे ग्रहण करें. हज़रत सादी कहते हैं “भींत लिख्यो तिख्यो उपदेशजू कोऊ ।। सादर ग्रहण कीजिये सोऊ।। ” इस लिये आप स्वपक्ष और विपक्ष का बिचार छोड़कर गुण संग्रह करनें पर दृष्टि रक्खैं. आपका बरताव अच्छा होगा तो मैं क्या हूँ ? बड़े-बड़े लायक आदमी आपको सहज मैं मिल जायंगे. परन्तु आपका बरताव अच्छा न हुआ तो जो होंगे वह भी जाते रहेंगे. एक छोटेसे पखेरू की क्या है ? जहां रात हो जाय वहीं उस्का रैन बसेरा हो सक्ता है परन्तु वह फलदार वृक्ष सदा हरा भरा रहना चाहिये जिस्के आश्रय से पक्षी जीते हों.”

बहुत कहनें सै क्या है ?आपको हमसै सम्बन्ध रखना हो तो हमारी मर्जी के मूजिब बरताब रक्खो, नहीं तो अपना रस्ता लो. हमसै अब आपके तानें नहीं सहे जाते” लाला मदनमोहन नें ब्रजकिशोर को नरम देख कर ज्याद: दबानें की तजबीज़ की.

“बहुत अच्छा ! मैं जाता हूँ. बहुत लोग जाहरी इज्जत बनानें के लिये भीतरी इज्जत खो बैठते हैं परन्तु मैं उन्मैं का नहीं हूँ. तुलसीकृतरामायण मैं रघुनाथजीनें कहा है “जो हम निदरहि बिप्रवद्ध सत्यसुनहु भृगुनाथ ।। तो अस को जग सुभटतिहिं भाय बस नावहिं मांथ ।।” सोई प्रसंग इस्समय मेरे लिये वर्तमान है. एथेन्समैं जिन दिनों तीस अन्याइयोंकी कौन्सिल का अधिकार था, एकबार कौन्सिलनें सेक्रिटीज़ को बुलाकर हुक्म दिया कि तुम लिओ नामी धनवान को पकड़ लाओ जिस्सै उस्का माल जब्त किया जाय.” सेक्रिटीज़ नें जवाब दिया कि “एक अनुचित काममैं मैं अपनी प्रसन्नतासै क़भी सहायता न करूंगा” कौन्सिल के प्रेसिन्डेन्टनें धमकी दी कि “तुम को आज्ञा उल्लंघन करनें के कारण कठोर दंड मिलेगा” सेक्रिटीज़नें कहा कि “यह तो मैं पहले हीसै जान्ता हूँ परन्तु मेरे निकट अनुचित काम करनें के बराबर कोई कठोर दंड नहीं है” लाला ब्रजकिशोर बोले.

“जब आप हमको छोड़नें का ही पक्‍का बिचार कर चुके तो फ़िर इतना बादबिवाद करनेंसै क्‍या लाभ ? हमारे प्रारब्धमैं होगा वह हम भुगतलेंगे, आप अधिक परिश्रम न करैं” लाला मदनमोहननें त्‍योरीं बदलकर कहा.

“अब मैं जाता हूँ. ईश्‍वर आपका मंगल करे. बहुत दिन पास रहनें के कारण जानें बिना जानें अबतक जो अपराध हुए हों वह क्षमा करना” यह कह कर लाला ब्रजकिशोर तत्‍काल अपनें मकानको चले गए.

“लाला ब्रजकिशोर के गए पीछै मदनमोहनके जीमैं कुछ, कुछ पछतावा सा हुआ. वह समझे कि “मैं अपनें हठसै आज एक लायक आदमीको खो बैठा परन्‍तु अब क्‍या ? अब तो जो होना था हो चुका. इस्‍समय हार माननें सै सबके आगे लज़्जित होना पड़ेगा और इस्‍समय ब्रजकिशोरके बिना कुछ हर्ज भी नहीं, हां ब्रजकिशोरनें हरकिशोरको सहायता दी तो कैसी होगी ? क्‍या करैं ? हमको लज़्जित होना न पड़े और सफाई की कोई राह निकल आवे तो अच्‍छा हो” लाला मदनमोहन इसी सोच बिचार मैं बड़ी देर बैठे रहे मन की निर्बलता सै कोई बात निश्‍चय न कर सके.

परीक्षा-गुरु – Pariksha Guru

परीक्षा गुरू हिन्दी का प्रथम उपन्यास था जिसकी रचना भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने 25 नवम्बर,1882 को की थी। 

परीक्षा गुरु पहला आधुनिक हिंदी उपन्यास था। इसने संपन्न परिवारों के युवकों को बुरी संगति के खतरनाक प्रभाव और इसके परिणामस्वरूप ढीली नैतिकता के प्रति आगाह किया। परीक्षा गुरु नए उभरते मध्यम वर्ग की आंतरिक और बाहरी दुनिया को दर्शाता है। पात्र अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए औपनिवेशिक समाज के अनुकूल होने की कठिनाई में फंस जाते हैं। हालांकि यह जाहिर तौर पर विशुद्ध रूप से ‘पढ़ने के आनंद’ के लिए लिखा गया था। औपनिवेशिक आधुनिकता की दुनिया भयावह और अप्रतिरोध्य दोनों लगती है।

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परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता – Pariksha-Guru Prakaran-19 : Swatantrata

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Further Reading:

  1. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१ सौदागरकी दुकान
  2. परीक्षा-गुरु प्रकरण- २ अकालमैं अधिकमास
  3. परीक्षा-गुरु प्रकरण- ३ संगतिका फल
  4. परीक्षा-गुरु प्रकरण-४ मित्रमिलाप
  5. परीक्षा-गुरु प्रकरण-५ विषयासक्‍त
  6. परीक्षा-गुरु प्रकरण-६ भले बुरे की पहचान
  7. परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)
  8. परीक्षा-गुरु प्रकरण-८ सबमैं हां
  9. परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद
  10. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१० प्रबन्‍ध (इन्‍तज़ाम)
  11. परीक्षा-गुरु प्रकरण-११ सज्जनता
  12. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१२ सुख दु:ख
  13. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१३ बिगाड़का मूल- बि वाद
  14. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१४ पत्रव्यवहा
  15. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१५ प्रिय अथवा पिय् ?
  16. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१६ सुरा (शराब)
  17. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१७ स्‍वतन्‍त्रता और स्‍वेच्‍छाचार.
  18. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा
  19. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता
  20. परीक्षा-गुरु प्रकरण – २० कृतज्ञता
  21. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२१ पति ब्रता
  22. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२२ संशय
  23. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२३ प्रामाणिकता
  24. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथसै पै दा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)
  25. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२५ साहसी पुरुष
  26. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२६ दिवाला
  27. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२७ लोक चर्चा (अफ़वाह).
  28. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह
  29. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२९ बात चीत.
  30. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३० नै राश्‍य (नाउम्‍मेदी).
  31. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक
  32. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत
  33. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा
  34. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)
  35. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद
  36. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी
  37. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य
  38. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति
  39. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय
  40. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४० सुधारनें की रीति
  41. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४१ सुखकी परमावधि

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