चंद्रकांता संतति दूसरा भाग
चंद्रकांता संतति दूसरा भाग

चंद्रकांता संतति दूसरा भागChandrakanta Santati Dusra Bhag

चंद्रकांता संतति दूसरा भाग

बयान – 1

घंटा भर दिन बाकी है। किशोरी अपने उसी बाग में जिसका कुछ हाल पीछे लिख चुके हैं कमरे की छत पर सात-आठ सखियों के बीच में उदास तकिए के सहारे बैठी आसमान की तरफ देख रही है। सुगंधित हवा के झोंके उसे खुश किया चाहते हैं मगर वह अपनी धुन में ऐसी उलझी हुई है कि दीन-दुनिया की खबर नहीं है। आसमान पर पश्चिम की तरफ लालिमा छाई है। श्याम रंग के बादल ऊपर की तरफ उठ रहे हैं, जिनमें तरह-तरह की सूरतें बात की बात में पैदा होती और देखते-देखते बदलकर मिट जाती हैं। अभी यह बादल का टुकड़ा खंड पर्वत की तरह दिखाई देता था, अभी उसके ऊपर शेर की मूरत नजर आने लगी, लीजिए, शेर की गर्दन इतनी बढ़ी की साफ ऊंट की शक्ल बन गई और लमहे-भर में हाथी का रूप धर सूंड दिखाने लगी, उसी के पीछे हाथ में बंदूक लिए एक सिपाही की शक्ल नजर आई लेकिन वह बंदूक छोड़ने के पहले खुद ही धुआं होकर फैल गया।

बादलों की यह ऐयारी इस समय न मालूम कितने आदमी देख-देखकर खुश होते होंगे। मगर किशोरी के दिल की धड़कन इसे देख-देखकर बढ़ती ही जाती है। कभी तो उसका सिर पहाड़-सा भारी हो जाता है, कभी माधवी बाघिन की सूरत ध्यान में आती है, कभी बाकरअली शुतुरमुहार की बदमाशी याद आती है, कभी हाथ में बंदूक लिए हरदम जान लेने को तैयार बाप की याद तड़पा देती है।

कमला को गए कई दिन हुए, आज तक वह लौटकर नहीं आई। इस सोच ने किशोरी को और भी दुखी कर रखा है। धीरे-धीरे शाम हो गई, सखियां सब पास बैठी ही रहीं मगर सिवाय ठंडी-ठंडी सांस लेने के किशोरी ने किसी से बातचीत न की और वे सब भी दम न मार सकीं।

कुछ रात जाते-जाते बादल अच्छी तरह से घिर आये, आंधी भी चलने लगी। किशोरी छत पर से नीचे उतर आई और कमरे के अंदर मसहरी पर जा लेटी। थोड़ी ही देर बाद कमरे के सदर दरवाजे का पर्दा हटा और कमला अपनी असली सूरत में आती दिखाई पड़ी।

कमला के न आने से किशोरी उदास हो रही थी, उसे देखते ही पलंग पर से उठी, आगे बढ़कर कमला को गले लगा लिया और गद्दी पर अपने पास ला बैठाया, कुशल-मंगल पूछने के बाद बातचीत होने लगी –

किशोरी – कहो बहिन, तुमने इतने दिनों में क्या-क्या काम किया उनसे मुलाकात भी हुई या नहीं

कमला – मुलाकात क्यों न होती आखिर मैं गई थी किसलिए।

किशोरी – कुछ मेरा हालचाल भी पूछते थे।

कमला – तुम्हारे लिए तो जान देने को तैयार हैं क्या हाल-चाल भी न पूछेंगे बस दो ही एक दिन में तुमसे मुलाकात हुआ चाहती है।

किशोरी – (खुश होकर) हां! तुम्हें मेरी ही कसम, मुझसे झूठ न बोलना!

कमला – क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं तुमसे झूठ बोलूंगी

किशोरी – नहीं-नहीं, मैं ऐसा नहीं समझती हूं, लेकिन इस खयाल से कहती हूं कि कहीं दिल्लगी न सूझी हो।

कमला – ऐसा कभी मत सोचना।

किशोरी – खैर यह कहो, माधवी की कैद से उन्हें छुट्टी मिली या नहीं और अगर मिली तो क्योंकर!

कमला – इंद्रजीतसिंह को माधवी ने उसी पहाड़ी के बीच वाले मकान में रखा था जिसमें पारसाल मुझे और तुम्हें दोनों की आंखों में पट्टी बांधकर ले गई थी।

किशोरी – बड़े बेढब ठिकाने छिपा रखा था।

कमला – मगर वहां भी उनके ऐयार लोग पहुंच गये!

किशोरी – भला वे लोग क्यों न पहुंचेंगे, हां तब क्या हुआ

कमला – (किशोरी की सखियों और लौंडियों की तरफ देख के) तुम लोग जाओ, अपना काम करो।

किशोरी – हां, अभी काम नहीं है, फिर बुलावेंगे तो आना।

सखियों और लौंडियों के चले जाने पर कमला ने देर तक बातचीत करने के बाद कहा –

‘‘माधवी का और अग्निदत्त दीवान का हाल भी चालाकी से इंद्रजीतसिंह ने जान लिया, आजकल उनके कई ऐयार वहां पहुंचे हुए हैं, ताज्जुब नहीं कि दस-पांच दिन में वे लोग उस राज्य ही को गारत कर डालें।’’

किशोरी – मगर तुम तो कहती हो कि इंद्रजीतसिंह वहां से छूट गये!

कमला – हां, इंद्रजीतसिंह तो वहां से छूट गये मगर उनके ऐयारों ने अभी तक माधवी का पीछा नहीं छोड़ा, इंद्रजीतसिंह के छुड़ाने का बंदोबस्त तो उनके ऐयारों ही ने किया था मगर आखिर में मेरे ही हाथ से उन्हें छुट्टी मिली। मैं उन्हें चुनार पहुंचाकर तब यहां आई हूं और जो कुछ मेरी जुबानी उन्होंने तुम्हें कहला भेजा है उसे कहना तथा उनकी बात मानना ही मुनासिब समझती हूं।

किशोरी – उन्होंने क्या कहा है

कमला – यों तो वे मेरे सामने बहुत कुछ बक गये मगर असल मतलब उनका यही है कि तुम चुपचाप चुनार उनके पास बहुत जल्द पहुंच जाओ।

किशोरी – (देर तक सोचकर) मैं तो अभी चुनार जाने को तैयार हूं मगर इसमें बड़ी हंसाई होगी।

कमला – अगर तुम हंसाई का खयाल करोगी तो बस हो चुका, क्योंकि तुम्हारे मां-बाप इंद्रजीतसिंह के पूरे दुश्मन हो रहे हैं, जो तुम चाहती हो उसे वे खुशी से कभी मंजूर न करेंगे। आखिर जब तुम अपने मन की करोगी तभी लोग हंसेंगे, ऐसा ही है तो इंद्रजीतसिंह का ध्यान दिल से दूर करो या फिर बदनामी कबूल करो।

किशोरी – तुम सच कहती हो, एक-न-एक दिन बदनामी होनी ही है क्योंकि इंद्रजीतसिंह को मैं किसी तरह भूल नहीं सकती। आखिर तुम्हारी क्या राय है

कमला – सखी, मैं तो यही कहूंगी कि अगर तुम इंद्रजीतसिंह को नहीं भूल सकतीं तो उनसे मिलने के लिए इससे बढ़कर कोई दूसरा मौका तुम्हें न मिलेगा। चुनार में जाकर बैठ रहोगी तो कोई भी तुम्हारा कुछ बिगाड़ न सकेगा, आज कौन ऐसा है जो महाराज वीरेंद्रसिंह से मुकाबला करने का साहस रखता हो तुम्हारे पिता अगर ऐसा करते हैं तो यह उनकी भूल है। आज सुरेंद्रसिंह के खानदान का सितारा बड़ी तेजी से आसमान पर चमक रहा है और उनसे दुश्मनी का दावा करना अपने को मिट्टी में मिला देना है।

किशोरी – ठीक है, मगर इस तरह वहां चले जाने से इंद्रजीतसिंह के बड़े लोग कब खुश होंगे

कमला – नहीं, नहीं, ऐसा मत सोचो, क्योंकि तुम्हारी और इंद्रजीतसिंह की मुहब्बत का हाल वहां किसी से छिपा नहीं है। सभी लोग जानते हैं कि इंद्रजीतसिंह तुम्हारे बिना जी नहीं सकते, फिर उन लोगों को इंद्रजीतसिंह से कितनी मुहब्बत है यह तुम खुद जानती हो, अस्तु ऐसी दशा में वे लोग तुम्हारे जाने से कब नाखुश हो सकते हैं दूसरे, दुश्मन की लड़की अपने घर में आ जाने से वे लोग अपनी जीत समझेंगे। मुझे महारानी चंद्रकांता ने खुद कहा था कि जिस तरह बने तुम समझा-बुझाकर किशोरी को ले आओ, बल्कि उन्होंने अपनी खास सवारी का रथ और कई लौंडी गुलाम भी मेरे साथ भेजे हैं!

किशोरी – (चौंककर) क्या उन लोगों को अपने साथ लाई हो!

कमला – हां, जब महारानी चंद्रकांता की इतनी मुहब्बत तुम पर देखी तभी तो मैं भी वहां चलने के लिए राय देती हूं।

किशोरी – अगर ऐसा है तो मैं किसी तरह रुक नहीं सकती, अभी तुम्हारे साथ चली चलूंगी, मगर देखो सखी, तुम्हें बराबर मेरे साथ रहना पड़ेगा।

कमला – भला मैं कभी तुम्हारा साथ छोड़ सकती हूं!

किशोरी – अच्छा तो यहां किसी से कुछ कहना-सुनना तो है नहीं?

कमला – किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं। बल्कि तुम्हारी इन सखियों और लौंडियों को भी कुछ पता न लगना चाहिए जिनको मैंने इस समय यहां से हटा दिया है।

किशोरी – वह रथ कहां खड़ा है?

कमला – इसी बगल वाली आम की बारी में रथ और चुनार से आये हुए लौंडी-गुलाम सब मौजूद हैं।

किशोरी – खैर चलो, देखा जायगा, राम मालिक है।

किशोरी को साथ ले कमला चुपके से कमरे के बाहर निकली और पेड़ों में छिपती हुई बाग से निकलकर बहुत जल्द उस आम की बारी में जा पहुंची जिसमें रथ और लौंडी-गुलामों के मौजूद रहने का पता दिया था। वहां किशोरी ने कई लौंडी-गुलामों और उस रथ को भी मौजूद पाया जिसमें बहुत तेज चलने वाले ऊंचे काले रंग के नागौरी बैलों की जोड़ी जुती हुई थी। किशोरी और कमला दोनों सवार हुर्ईं और रथ तेजी के साथ रवाना हुआ।

इधर घण्टा भर बीत जाने पर भी जब किशोरी ने अपनी सखियों और लौंडियों को आवाज न दी तब वे लाचार होकर बिना बुलाये उस कमरे में पहुंचीं जिसमें कमला और किशोरी को छोड़ गयी थीं मगर वहां दोनों में से किसी को भी मौजूद न पाया। घबराकर इधर-उधर ढूंढ़ने लगीं, कहीं पता न चला। तमाम बाग छान डाला पर किसी की सूरत दिखाई न पड़ी। सभों में खलबली मच गई मगर क्या हो सकता था!

आधी रात तक कोलाहल मचा रहा। उस समय कमला भी वहां आ मौजूद हुई। सभों ने उसे चारों तरफ से घेर लिया और पूछा, ‘‘हमारी किशोरी कहां है?’

कमला – यह क्या मामला है जो तुम लोग इस तरह घबड़ा रही हो क्या किशोरी कहीं चली गईं?

एक – चली नहीं गई तो कहां हैं! तुम उन्हें कहां छोड़ आयीं?

कमला – क्या किशोरी को मैं अपने साथ ले गई थी जो मुझसे पूछती हो वह कब से गायब हैं?

एक – पहर भर से तो हम लोग ढूंढ़ रही हैं! तुम दोनों इसी कमरे में बातें कर रही थीं। हम लोगों को हट जाने के लिए कहा, फिर न मालूम क्या हुआ, कहां चली गयीं।

कमला – बस-बस, अब मैं समझ गयी, तुम लोगों ने धोखा खाया, मैं तो अभी चली ही आती हूं। हाय, यह क्या हुआ! बेशक दुश्मन अपना काम कर गए और हम लोगों को आफत में डाल गए। हाय, अब मैं क्या करूं, कहां जाऊं, किससे पूछूं कि मेरी प्यारी किशोरी को कौन ले गया।

बयान – 2

किशोरी खुशी-खुशी रथ पर सवार हुई और रथ तेजी से जाने लगा। वह कमला भी उसके साथ थी, इंद्रजीतसिंह के विषय में तरह-तरह की बातें कहकर उसका दिल बहलाती जाती थी। किशोरी भी बड़े प्रेम से उन बातों को सुनने में लीन हो रही थी। कभी सोचती कि जब इंद्रजीतसिंह के सामने जाऊंगी तो किस तरह खड़ी होऊंगी, क्या कहूंगी अगर वे पूछ बैठेंगे कि तुम्हें किसने बुलाया तो क्या जवाब दूंगी? नहीं-नहीं, वे ऐसा कभी न पूछेंगे क्योंकि मुझ पर प्रेम रखते हैं। मगर उनके घर की औरतें मुझे देखकर अपने दिल में क्या कहेंगी। वे जरूर समझेंगी कि किशोरी बड़ी बेहया औरत है। इसे अपनी इज्जत और प्रतिष्ठा का कुछ भी ध्यान नहीं है। हाय, उस समय तो मेरी बड़ी ही दुर्गति होगी, जिंदगी जंजाल हो जायगी, किसी को मुंह न दिखा सकूंगी!

ऐसी ही बातों को सोचती, कभी खुशी होती कभी इस तरह बेसमझे-बूझे चल पड़ने पर अफसोस करती थी। कृष्ण पक्ष की सप्तमी थी, अंधेरे ही में रथ के बैल बराबर दौड़े जा रहे थे। चारों तरफ से घेरकर चलने वाले सवारों के घोड़ों की टापों की बढ़ती हुई आवाज दूर-दूर तक फेल रही थी। किशोरी ने पूछा, ‘‘क्या कमला, क्या लौंडियां भी घोड़ों ही पर सवार होकर साथ-साथ चल रही हैं’ जिसके जवाब में कमला सिर्फ ‘‘जी हां,’’ कहकर चुप हो रही।

अब रास्ता खराब और पथरीला आने लगा, पहियों के नीचे पत्थर के छोटे-छोटे ढोकों के पड़ने से रथ उछलने लगा, जिसकी धमक से किशोरी के नाजुक बदन में दर्द पैदा हुआ।

किशोरी – ओफओह, अब तो बड़ी तकलीफ होने लगी।

कमला – थोड़ी दूर तक रास्ता खराब है, आगे हम अच्छी सड़क पर जा पहुंचेंगे।

किशोरी – मालूम होता है हम लोग सीधी और साफ सड़क छोड़ किसी दूसरी ही तरफ से जा रहे हैं।

कमला – जी नहीं।

किशोरी – नहीं क्या जरूर ऐसा ही है।

कमला – अगर ऐसा भी हो तो क्या बुरा हुआ हम लोगों की खोज में जो निकलें वे पा तो न सकेंगे।

किशोरी – (कुछ सोचकर) खैर जो किया अच्छा किया, मगर रथ का पर्दा तो उठा जरा हवा लगे और इधर-उधर की कैफियत देखने में आवे, रात का तो समय है।

लाचार होकर कमला ने रथ का पर्दा उठा दिया और किशोरी ताज्जुब भरी निगाहों से दोनों तरफ देखने लगी।

अब तक तो रात अंधेरी थी, मगर अब विधाता ने किशोरी को यह बताने के लिए कि देख तू किस बला में फंसी हुई है, तेरे रथ को चारों तरफ से घेरकर चलने वाले सवार कौन हैं, तू किस राह से जा रही है, यह पहाड़ी जंगल कैसा भयानक है-आसमान पर माहताबी जलाई। चंद्रमा निकल आया और धीरे-धीरे ऊंचा होने लगा जिसकी रोशनी में किशोरी ने कुल सामान देख लिए और एकदम चौंक उठी। चारों तरफ की भयानक पहाड़ी और जंगल ने उसका कलेजा दहला दिया। उसने उन सवारों की तरफ अच्छी तरह देखा जो रथ घेरे हुए साथ-साथ जा रहे थे। वह बखूबी समझ गई कि इन सवारों में, जैसा कि कहा गया था, कोई भी औरत नहीं सब मर्द हैं। उसे निश्चय हो गया कि वह आफत में फंस गई है और घबराहट में नीचे लिखे कई शब्द उसकी जुबान से निकल पड़े –

‘‘चुनार तो पूरब है, मैं दक्खिन तरफ क्यों जा रही हूं इन सवारों में तो एक भी लौंडी नजर नहीं आती। बेशक मुझे धोखा दिया गया। मैं निश्चय कह सकती हूं कि मेरी प्यारी कमला कोई दूसरी ही है, अफसोस!’’

रथ में बैठी हुई कमला किशोरी के मुंह से इन बातों को सुनकर होशियार हो गयी और झट रथ से नीचे कूद पड़ी, साथ ही रथवान ने भी बैलों को रोका और सवारों ने बहुत पास आकर रथ को घेर लिया।

कमला ने चिल्लाकर कुछ कहा जिसे किशोरी बिल्कुल न समझ सकी, हां एक सवार घोड़े से नीचे उतर पड़ा और कमला उसी घोड़े पर सवार हो तेजी के साथ पीछे की तरफ लौट गई।

अब किशोरी को अपने धोखा खाने और आफत में फंस जाने का पूरा विश्वास हो गया और वह एकदम चिल्लाकर बेहोश हो गई।

बयान – 3

सुबह का सुहावना समय भी बड़ा ही मजेदार होता है। जबर्दस्त भी परले सिरे का है। क्या मजाल कि इसकी अमलदारी में कोई धूम तो मचावे, इसके आने की खबर दो घंटे पहले ही से हो जाती है। वह देखिए आसमान के जगमगाते हुए तारे कितनी बेचैनी और उदासी के साथ हसरत भरी निगाहों से जमीन की तरफ देख रहे हैं जिनकी सूरत और चलाचली की बेचैनी देख बागों की सुंदर कलियों ने भी मुस्कराना शुरू कर दिया, अगर यही हालत रही तो सुबह होते तक जरूर खिलखिलाकर हंस पड़ेंगी।

लीजिए अब दूसरा ही रंग बदला। प्रकृति की न मालूम किस ताकत ने आसमान की स्याही को धो डाला और इसकी हुकूमत की रात बीतते देख उदास तारों को भी विदा होने का हुक्म सुना दिया। इधर बेचैन तारों की घबराहट देख अपने हुस्न और जमाल पर भूली हुई खिलखिलाकर हंसने वाली कलियों को सुबह की ठंडी-ठंडी हवा ने खूब ही आड़े हाथों लिया और मारे थपेड़ों के उनके उस बनाव को बिगाड़ना शुरू कर दिया जो दो ही घंटे पहले प्रकृति की किसी लौंडी ने दुरुस्त कर दिया था।

मोतियों से ज्यादे आबदार ओस की बूंदों को बिगड़ते और हंसती हुई कलियों का शृंगार मिटते देख उनकी तरफदार खुशबू से न रहा गया, झट फूलों से अलग हो सुबह की ठंडी हवा से उलझ पड़ी और इधर-उधर फैल धूम मचाना शुरू कर दिया। अपनी फरियाद सुनाने के लिए उन नौजवानों के दिमागों में घुस-घुसकर उन्हें उठाने की फिक्र करने लगी जो रातभर जाग-जागकर इस समय खूबसूरत पलंगड़ियों पर सुस्त पड़ रहे थे। जब उन्होंने कुछ न सुना और करवट बदलकर रह गए तो मालियों को जा घेरा। ये झट उठ बैठे और कमर कसकर उस जगह पहुंचे जहां फूलों और उमंग भरे हवा के झपेटों से कहा-सुनी हो रही थी। कम्बख्त छोटे लोगों का यह दिमाग कहां कि ऐसों का फैसला करें, बस फूलों को तोड़-तोड़कर चगेर भरने लगे। चलो छुट्टी हुई, न रहे बांस न बजे बांसुरी। क्या अच्छा झगड़ा मिटाया है! इसके बदले में वे बड़े-बड़े दरख्त खुश हो हवा की मदद से झुक-झुककर मालियों को सलाम करने लगे जिनकी टहनियों में एक भी फूल दिखाई नहीं देता था। ऐसा क्यों न करें उनमें था ही क्या जो दूसरों को महक देते, अपनी सूरत सभों को भाती है और अपना-सा होते देख सभी खुश होते हैं।

लीजिए उन परीजमालों ने भी पलंग का पीछा छोड़ा और उठते ही आईने के मुकाबिल हो बैठीं जिनके बनाव को चाहने वालों ने रात भर में बिथोरकर रख दिया था। झटपट अपनी सम्बुली जुल्फों को सुलझा, माहताबी चेहरों को गुलाबजल से साफ कर, अलबेली चाल से अठखेलियां करती, चम्पई दुपट्टा संभालती, रविशों पर घूमने और फूलों के मुकाबिले में रुक-रुककर पूछने लगीं कि ‘कहिये आप अच्छे या हम’ जब जवाब न पाया हाथ बढ़ा तोड़ लिया और बालियों में झुमकी की जगह रख आगे बढ़ीं। गुलाब की पटरी तक पहुंची थीं, कांटों ने आंचल पकड़ा और इशारे से कहा, ‘‘जरा ठहर जाइए, आपके इस तरह लापरवाह जाने से उलझन होती है, और नहीं तो चार आंखें ही करते और आंसू पोंछते जाइए!’’

जाने दीजिए ये सब घमंडी हैं। हमें तो कुछ उन लोगों की कुलबुलाहट भली मालूम होती है जो सुबह होने के दो घंटे पहले ही उठ, हाथ-मुंह धो, जरूरी कामों से छुट्टी पा बगल में धोती दबा गंगाजी की तरफ लपके जाते हैं और वहां पहुंच स्नान कर, भस्म या चंदन लगा, पटरों पर बैठ संध्या करते-करते सुबह के सुहावने समय का आनंद पतित-पावनी श्रीगंगाजी की पापनाशिनी तरंगों से ले रहे हैं। इधर गुप्ती में घुसी उंगलियों ने प्रेमानंद में मग्न मनराज की आज्ञा से गिरिजापति का नाम ले एक दाना पीछे हटाया और उधर तरनतारिनी भगवती जाह्नवी की लहरें तख्तों ही से छू-छूकर दस-बीस जन्म का पाप बहा ले गयीं। सुगंधित हवा के झपेटे कहते फिरते हैं – ‘‘जरा ठहर जाइए, अर्घा न उठाइये, अभी भगवान सूर्यदेव के दर्शन देर में होंगे, तब तक आप कमल के फूलों को खोलकर इस तरह पर श्रीगंगाजी को चढ़ाइये कि लड़ी टूटने न पावे, फिर देखिये देवता उसे खुद-ब-खुद मालाकार बना देते हैं या नहीं!!’’

ये सब तो सत्पुरुषों के काम हैं जो यहां भी आनंद ले रहे हैं और वहां भी मजा लूटेंगे। आप जरा मेरे साथ चलकर उन दो दिलजलों की सूरत देखिये जो रात भर जागते और इधर-उधर दौड़ते रहे हैं और सुबह के सुहावने समय में एक पहाड़ की चोटी पर चढ़ चारों तरफ देखते हुए सोच रहे हैं कि किधर जायं, क्या करें चाहे वे कितने ही बेचैन क्यों न हों मगर पहाड़ों से टक्कर खाते हुए सुबह की ठंडी-ठंडी हवा के झोंकों के डपटने और हिलाकर जताने से उन छोटे-छोटे जंगली फूलों के पौधों की तरफ नजर डाल ही देते हैं जो दूर तक कतार बांधे मस्ती से झूम रहे हैं, उन क्यारियों की तरफ ताक ही देते हैं जिनके फूल ओस के बोझ से तंग हो टहनियां छोड़ पत्थर के ढोकों का सहारा ले रहे हैं, उन साखू और शीशम के पत्तों की घनघनाहट सुन ही लेते हैं जो दक्खिन से आती हुई सुगंधित हवा को रोके, रहे-सहे जहर को चूस, गुणकारी बना उन तक आने का हुक्म देते हैं।

इन दो आदमियों में से एक तो लगभग बीस वर्ष की उम्र का बहादुर सिपाही है जो ढाल-तलवार के इलावे हाथ में तीर-कमान लिए बड़ी मुस्तैदी से खड़ा हे, मगर दूसरे के बारे में हम कुछ नहीं कह सकते कि वह कौन या किस दर्जे और इज्जत का आदमी है। उसकी उम्र चाहे पचास से ज्यादे क्यों न हो मगर अभी तक उसके चेहरे पर बल का नाम-निशान नहीं है, जवानों की तरह खूबसूरत चेहरा दमक रहा है, बेशकीमत पोशाक और हरबों की तरफ खयाल करने से तो यही कहने को जी चाहता है कि किसी फौज का सेनापति है, मगर नहीं, इसका रोआबदार और गंभीर चेहरा इशारा करता है कि यह कोई बहुत ही ऊंचे दर्जे का है जो कुछ देर से खड़ा एकटक वायुकोण की तरफ देख रहा है।

सूर्य की किरणों के साथ ही साथ लाल वर्दी के बेशुमार फौजी आदमी उत्तर से दक्खिन की तरफ जाते दिखाई पड़े जिससे इस बहादुर का चेहरा जोश में आकर और भी दमक उठा और यह धीरे से बोला, ‘‘लो हमारी फौज भी आ पहुंची!’’

थोड़ी ही देर में वह फौज इस पहाड़ी के नीचे आकर रुक गई जिस पर ये दोनों खड़े थे और एक आदमी पहाड़ के ऊपर चढ़ता हुआ दिखाई दिया जो बहुत जल्द इन दोनों के पास पहुंचकर खड़ा हो गया।

इस नये आये हुए आदमी की उम्र भी पचास से कम न होगी। इसके सिर और मूंछों के बाल चौथाई सफेद हो चुके थे। कद के साथ-साथ खूबसूरत चेहरा भी कुछ लंबा था। इसका रंग सिर्फ गोरा ही न था बल्कि अभी तक रगों में दौड़ती हुई सुर्खी इसके गालों पर अच्छी तरह उभड़ रही थी, बड़ी-बड़ी स्याह और जोश भरी आंखों में गुलाबी डोरियां बहुत भली मालूम होती थीं। इसकी पोशाक ज्यादे कीमत की या कामदार न थी, मगर कम दाम की भी न थी। उम्दे और मोटे स्याह मखमल की इतनी चुस्त थी कि उसके अंगों की सुडौल कपड़े के ऊपर से जाहिर हो रही थी। कमर में सिर्फ एक खंजर और लपेटा हुआ कमंद दिखाई देता था, बगल में सुर्ख मखमल का एक बटुआ भी लटक रहा था।

पाठकों को ज्यादे देर तक हेरानी में न डालकर साफ-साफ कह देना ही पसंद करते हैं कि यह तेजसिंह हैं और इनके पहले पहुंचे हुए दोनों आदमियों में एक राजा वीरेंद्रसिंह और दूसरे उनके लड़के कुंअर आनंदसिंह हैं, जिनके लिए हमें ऊपर बहुत कुछ फजूल बक जाना पड़ा।

राजा वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह कुछ देर तक सलाह करते रहे, इसके बाद तीनों बहादुर पहाड़ी के नीचे उतर अपनी फौज में मिल गये और दिल खुश करने के सिवाय बहादुरों को जोश में भर देने वाले बाजे की आवाज के तालों पर एक साथ कदम रखती हुई वह फौज दक्खिन की तरफ रवाना हुई।

बयान – 4

हम ऊपर लिख आये हैं कि माधवी के यहां तीन आदमी अर्थात दीवान अग्निदत्त, कुबेरसिंह सेनापति और धर्मसिंह कोतवाल मुखिया थे और तीनों मिलकर माधवी के राज्य का आनंद लेते थे।

इन तीनों में अग्निदत्त का दिन बहुत मजे से कटता था क्योंकि एक तो वह दीवान के मर्तबे पर था, दूसरे माधवी जैसी खूबसूरत औरत उसे मिली थी। कुबेरसिंह और धर्मसिंह इसके दिली दोस्त थे, मगर कभी जब उन दोनों को माधवी का ध्यान आ जाता तो चित्त की वृत्ति बदल जाती और जी में कहते कि ‘अफसोस, माधवी मुझे न मिली!’

पहले इन दोनों को यह खबर न थी कि माधवी कैसी है। बहुत कहने-सुनने से एक दिन दीवान साहब ने इन दोनों को माधवी को देखने का मौका दिया था। उसी दिन से इन दोनों ही के जी में माधवी की सूरत चुभ गई थी और उसके बारे में बहुत कुछ सोचा करते थे।

आज हम आधी रात के समय दीवान अग्निदत्त को अपने सुनसान कमरे में अकेले चारपाई पर लेटे किसी सोच में डूबे हुए देखते हैं। न मालूम वह क्या सोच रहा है या फिक्र में पड़ा है, हां एक दफे उसके मुंह से यह आवाज जरूर निकली – ‘‘कुछ समझ में नहीं आता! इसमें तो कोई संदेह नहीं कि उसने अपना दिल खुश करने का कोई सामान वहां पैदा कर लिया है। तो मैं बेफिक्र क्यों बैठा हूं खैर पहले अपने दोस्तों से तो सलाह ले लूं।’’ यह कहने के साथ ही वह चारपाई से उठ बैठा और कमरे में धीरे-धीरे टहलने लगा, आखिर उसने खूंटी से लटकती हुई अपनी तलवार उतार ली और मकान के नीचे उतर आया।

दरवाजे पर बहुत से सिपाही पहरा दे रहे थे। दीवान साहब को कहीं जाने के लिए तैयार देख ये लोग भी साथ चलने को तैयार हुए, मगर दीवान साहब के मना करने से उन लोगों को लाचार हो उसी जगह अपने काम पर मुस्तैद रहना पड़ा।

अकेले दीवान साहब वहां से रवाना हुए और बहुत जल्दी कुबेरसिंह सेनापति के मकान पर जा पहुंचे जो इनके यहां से थोड़ी ही दूर पर एक सुंदर सजे हुए मकान में बड़े ठाठ के साथ रहता था।

दीवान साहब को विश्वास था कि इस समय सेनापति अपने ऐशमहल में आनंद से सोता होगा, वहां से बुलवाना पड़ेगा, मगर नहीं दरवाजे पर पहुंचते ही पहरे वालों से पूछने पर मालूम हुआ कि सेनापति साहब अभी तक अपने कमरे में बैठे हैं, बल्कि कोतवाल साहब भी इस समय उन्हीं के पास हैं।

अग्निदत्त यह सोचता हुआ ऊपर चढ़ गया कि आधी रात के समय कोतवाल यहां क्यों आया है और ये दोनों इस समय क्या सलाह-विचार कर रहे हैं। कमरे में पहुंचते ही देखा कि सिर्फ वे ही दोनों एक गद्दी पर तकिये के सहारे लेटे हुए कुछ बात कर रहे हैं जो यकायक दीवान साहब को अंदर पैर रखते देख उठ खड़े हुए और सलाम करने के बाद सेनापति साहब ने ताज्जुब में आकर पूछा –

‘‘यह आधी रात के समय आप घर से क्यों निकले?’

दीवान – ऐसा ही मौका आ पड़ा, लाचार सलाह करने के लिए आप दोनों से मिलने की जरूरत हुई।

कोत – आइए बैठिए, कुशल तो है

दीवान – हां कुशल ही कुशल है, मगर कई खुटकों ने जी बेचैन कर रखा है।

सेनापति – सो क्या कुछ कहिए भी तो।

दीवान – हां कहता हूं, इसीलिए तो आया हूं, मगर पहले (कोतवाल की तरफ देखकर) आप तो कहिए इस समय यहां कैसे पहुंचे?

कोत – मैं तो यहां बहुत देर से हूं, सेनापति साहब की विचित्र कहानी ने ऐसा उलझा रखा था कि बस क्या कहूं, हां आप अपना हाल कहिए, जी बेचैन हो रहा है।

दीवान – मेरा कोई नया हाल नहीं है, केवल माधवी के विषय में कुछ सोचने-विचारने आया हूं।

सेनापति – माधवी के विषय में किस नये सोच ने आपको आ घेरा कुछ तकरार की नौबत तो नहीं आई!

दीवान – तकरार की नौबत आई तो नहीं मगर आना चाहती है।

सेनापति – सो क्यों?

दीवान – उसके रंग-ढंग आजकल बेढब नजर आते हैं, तभी तो देखिए इस समय मैं यहां हूं, नहीं तो पहर रात के बाद क्या कोई मेरी सूरत देख सकता था।

कोत – इधर तो कई दिन आप अपने मकान ही पर रहे हैं।

दीवान – हां, इन दिनों वह अपने महल में कम आती है, उसी गुप्त पहाड़ी में रहती है, कभी-कभी आधी रात के बाद आती है और मुझे उसकी राह देखनी पड़ती है।

कोत – वहां उसका जी कैसे लगता है?

दीवान – यही तो ताज्जुब है, मैं सोचता हूं कि कोई मर्द वहां जरूर है क्योंकि वह कभी अकेले रहने वाली नहीं।

कोत – पता लगाना चाहिए।

दीवान – पता लगाने के उद्योग में मैं कई दिन से लगा हूं मगर कुछ हो न सका। जिस दरवाजे को खोलकर वह आती-जाती है उसकी ताली भी इसलिए बनवाई कि धोखे में वहां तक जा पहुंचूं, मगर काम न चला, क्योंकि जाती समय अंदर से वह न मालूम ताले में क्या कर जाती है कि चाबी नहीं लगती है।

कोत – तो दरवाजा तोड़ के वहां पहुंचना चाहिए।

दीवान – ऐसा करने से बड़ा फसाद मचेगा।

कोत – फसाद करके कोई क्या कर लेगा! राज्य तो हम तीनों की मुट्ठी में है।

इतने ही में बाहर किसी आदमी के पैर की चाप मालूम हुई। तीनों देर तक उसी तरफ देखते रहे मगर कोई न आया। कोतवाल यह कहता हुआ कि ‘कहीं कोई छिप के बातें सुनता न हो’ उठा और कमरे के बाहर जाकर इधर-उधर देखने लगा, मगर किसी का पता न चला, लाचार फिर कमरे में चला आया और बोला, ‘‘कोई नहीं है, खाली धोखा हुआ।’’

इस जगह विस्तार से यह लिखने की कोई जरूरत नहीं कि इन तीनों में क्या-क्या बातचीत होती रही या इन लोगों ने कौन-सी सलाह पक्की की, हां इतना कहना जरूरी है कि बातों ही बातों में इन तीनों ने रात बिता दी और सबेरा होते ही अपने-अपने घर का रास्ता लिया।

दूसरे दिन पहर रात जाते-जाते कोतवाल साहब के घर में एक विचित्र बात हुई। वे अपने कमरे में बैठे कचहरी के कुछ जरूरी कागजों को देख रहे थे कि इतने ही में शोरगुल की आवाज उनके कानों में आई। गौर करने से मालूम हुआ कि बाहर दरवाजे पर लड़ाई हो रही है। कोतवाल साहब के सामने जो मोमी शमादान जल रहा था उसी के पास एक घंटी पड़ी हुई थी, उठाकर बजाते ही एक खिदमतगार दौड़ा-दौड़ा सामने आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। कोतवाल साहब ने कहा, ‘‘दरियाफ्त करो, बाहर कैसा कोलाहल मचा हुआ है’

खिदमतगार दौड़ा बाहर गया और तुरंत लौटकर बोला, ‘‘न मालूम कहां से दो आदमी आपस में लड़ते हुए आये हैं, फरियाद करने के लिए बेधड़क भीतर घुसे आते थे। पहरे वालों ने रोका तो उन्हीं से झगड़ा करने लगे।’’

कोत – उन दोनों की सूरत-शक्त कैसी है?

खिद – दोनों भले आदमी मालूम पड़ते हैं, अभी मूंछें नहीं निकली हैं, बड़े ही खूबसूरत हैं, मगर खून से तर-बतर हो रहे हैं।

कोत – अच्छा कहो, उन दोनों को हमारे सामने हाजिर करें।

हुक्म पाते ही खिदमतगार फिर बाहर गया और थोड़ी देर में कई सिपाही उन दोनों को लिए हुए कोतवाल के सामने हाजिर हुए। नौकर की बात बिल्कुल सच निकली। वे दोनों कम उम्र और बहुत खूबसूरत थे, बदन पर लिबास भी बेशकीमती था, कोई हरबा उनके पास न था मगर खून से उन दोनों का कपड़ा तर हो रहा था।

कोत – तुम लोग आपस में क्यों लड़ते हो और हमारे आदमियों से फसाद करने पर उतारू क्यों हुए?

एक – (सलाम करके) हम दोनों भले आदमी हैं, सरकारी सिपाहियों ने बदजुबानी की, लाचार गुस्सा तो चढ़ा ही हुआ था, बिगड़ गई।

कोत – अच्छा इसका फैसला पीछे होता रहेगा, पहले तुम यह कहो कि आपस में क्यों खूनखराबी कर बैठे और तुम दोनों का मकान कहां है?

दूसरा – हम दोनों आपकी रैयत हैं और गयाजी में रहते हैं, दोनों सगे भाई हैं, एक औरत के पीछे लड़ाई हो रही है जिसका फैसला आपसे चाहते हैं, बाकी हाल इतने आदमियों के सामने कहना हम लोग पसंद नहीं करते।

कोतवाल साहब ने सिर्फ उन दोनों को वहां रहने दिया बाकी सभों को वहां से हटा दिया, निराला होने पर फिर उन दोनों से लड़ाई का सबब पूछा।

एक – हम दोनों भाई सरकार से कोई मौजा ठीका लेने के लिए यहां आ रहे थे। यहां से तीन कोस पर पहाड़ी है, कुछ दिन रहते ही हम दोनों वहां पहुंचे और थोड़ा सुस्ताने की नीयत से उतर पड़े, घोड़ों को चरने के लिए छोड़ दिया और एक पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर बैठ बातचीत करने लगे…

दूसरा – (सिर हिलाकर) नहीं, कभी नहीं।

पहला – सरकार, इसे हुक्म दीजिये कि चुप रहे, मैं कह लूं तो जो कुछ इसके जी में आये कहे।

कोत – (दूसरे को डांटकर) बेशक ऐसा ही करना होगा!

दूसरा – बहुत अच्छा।

पहला – थोड़ी ही देर बैठे थे कि पास ही किसी औरत के रोने की बारीक आवाज आई जिसके सुनने से कलेजा पानी हो गया।

दूसरा – ठीक, बहुत ठीक।

कोत – (लाल आंखें करके) क्यों जी, तुम फिर बोलते हो

दूसरा – अच्छा अब न बोलूंगा!

पहला – हम दोनों उठकर उसके पास गए। आह, ऐसी खूबसूरत औरत जो आज तक किसी ने न देखी होगी, बल्कि मैं जोर देकर कहता हूं कि दुनिया में ऐसी खूबसूरत कोई दूसरी न होगी। वह अपने सामने एक तस्वीर को जो चौखटे में जड़ी हुई थी, रखे बैठी थी और उसे देख फूट-फूटकर रो रही थी।

कोत – वह तस्वीर किसकी थी, तुम पहचानते हो

पहला – जी हां पहचानता हूं, मेरी तस्वीर थी।

दूसरा – झूठ, झूठ, कभी नहीं, बेशक वह तस्वीर आपकी थी! मैं इस समय बैठा उस तस्वीर से आपकी सूरत मिलान कर गया, बिल्कुल आपसे मिलती है, इसमें कोई शक नहीं! आप इसके हाथ में गंगाजल देकर पूछिये किसकी तस्वीर थी?

कोत – (ताज्जुब में आकर) क्या मेरी तस्वीर थी?

दूसरा – बेशक आपकी तस्वीर थी, आप इससे कसम देकर पूछिये तो सही।

कोत – (पहले से) क्यों जी, तुम्हारा भाई क्या कहता है

पहला – जी ई ई…

कोत – (जोर से) कहो साफ-साफ, सोचते क्या हो?

पहला – जी बात तो यही ठीक है, आप ही की तस्वीर थी।

कोत – फिर झूठ क्यों बोले?

पहला – बस यही एक बात झूठ मुंह से निकल गई, अब कोई बात झूठ न कहूंगा, माफ कीजिये।

कोतवाल बेचारा ताज्जुब में आकर सोचने लगा कि उस औरत को मुझसे क्योंकर मुहब्बत हो गई जिसकी खूबसूरती की ये लोग इतनी तारीफ कर रहे हैं थोड़ी देर बाद फिर पूछा –

कोत – हां तो आगे क्या हुआ

पहला – (अपने भाई की तरफ इशारा करके) बस यह उस पर आशिक हो गया और उसे तंग करने लगा।

दूसरा – यह तो उस पर आशिक होकर उसे छेड़ने लगा।

पहला – जी नहीं, उसने मुझे कबूल कर लिया और मुझसे शादी करने पर राजी हो गई बल्कि उसने यह भी कहा कि मैं दो दिन तक यहां रहकर तुम्हारा आसरा देखूंगी, अगर तुम पालकी लेकर आओगे तो तुम्हारे साथ चली चलूंगी।

दूसरा – जी नहीं, यह बड़ा भारी झूठा है, जब यह उसकी खुशामद करने लगा तब उसने कहा कि मैं उसी के लिए जान देने को तैयार हूं जिसकी तस्वीर मेरे सामने है। जब इसने उसकी बात न सुनी तो उसने अपनी तलवार से इसे जख्मी किया और मुझसे बोली कि तुम जाकर मेरे दोस्त को जहां हो ढूंढ़ निकालो और कह दो कि मैं तुम्हारे लिए बर्बाद हो गई अब भी तो सुध लो, जब मैंने इसे मना किया तो यह मुझसे झगड़ पड़ा। असल में यही लड़ाई का सबब हुआ।

पहला – जी नहीं, यह संदेसा उसने मुझे दिया क्योंकि यही उसे दुःख दे रहा था।

दूसरा – नहीं, यह झूठ बोलता है।

पहला – नहीं, यह झूठा है, मैं ठीक-ठीक कहता हूं।

कोत – अच्छा, मुझे उस औरत के पास ले चलो, मैं खुद उससे पूछ लूंगा कि कौन झूठा और कौन सच्चा है।

पहला – क्या अभी तक वह उसी जगह होगी?

दूसरा – जरूर वहां होगी, यह बहाना करता है क्योंकि वहां जाने से यह झूठा साबित हो जाएगा।

पहला – (अपने भाई की तरफ देखकर) झूठा तू साबित होगा। अफसोस तो इतना ही है कि अब मुझे वहां का रास्ता भी याद नहीं।

दूसरा – (पहले की तरफ देखकर) आप रास्ता भूल गये तो क्या हुआ मुझे तो याद है, मैं जरूर आपको वहां ले चलकर झूठा साबित करूंगा! (कोतवाल साहब की तरफ देखकर) चलिए मैं आपको वहां ले चलता हूं।

कोत – चलो।

कोतवाल साहब तो खुद बेचैन हो रहे थे और चाहते थे कि जहां तक हो वहां जल्द पहुंचकर देखना चाहिए कि वह औरत कैसी है जो मुझ पर आशिक हो तस्वीर सामने रख याद किया करती है। एक पिस्तौल भरी-भराई कमर में रख उन दोनों भाइयों को साथ ले मकान के नीचे उतरे। उनको बाहर जाने के लिए मुस्तैद देख कई सिपाही साथ चलने को तैयार हुए। उन्होंने अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और उस पर सवार हो सिर्फ अर्दली के दो सिपाही साथ ले उन दोनों भाइयों के पीछे-पीछे रवाना हुए। दो घंटे बराबर चलते जाने के बाद एक छोटी-सी पहाड़ी के नीचे पहुंच वे दोनों भाई रुके और कोतवाल साहब को घोड़े से उतरने के लिए कहा।

कोत – क्या घोड़ा आगे नहीं जा सकता?

पहला – घोड़ा आगे जा सकता है मगर मैं दूसरी ही बात सोचकर आपको उतरने के लिए कहता हूं।

कोत – वह क्या?

पहला – जिस औरत के पास आप आये हैं वह इसी जगह है, दो ही कदम आगे बढ़ने से आप उसे बखूबी देख सकते हैं, मगर मैं चाहता हूं कि सिवाय आपके ये दोनों प्यादे उसे देखने न पाएं। इसके लिए मैं किसी तरह जोर नहीं दे सकता मगर इतना जरूर कहूंगा कि आप आगे बढ़ झांककर उसे देख लें फिर अगर जी चाहे तो इन दोनों को भी साथ ले जाएं, क्योंकि वह अपने को गया की रानी बताती है।

कोत – (ताज्जुब से) अपने को गया की रानी बताती है।

दूसरा – जी हां।

अब तो कोतवाल साहब के दिल में कोई दूसरा ही शक पैदा हुआ। वह तरह-तरह की बातें सोचने लगे। ‘‘गया की रानी तो हमारी माधवी है, यह दूसरी कहां से पैदा हुई क्या वह माधवी तो नहीं है नहीं, नहीं, वह भला यहां क्यों आने लगी! उससे मुझसे क्या संबंध वह तो दीवान साहब की हो रही है। मगर वह आई भी हो तो कोई ताज्जुब नहीं, क्योंकि एक दिन हम तीनों दोस्त एक साथ महल में बैठे थे और रानी माधवी वहां पहुंच गई थी, मुझे खूब याद है कि उस दिन उसने मेरी तरफ बेढब तरह से देखा था और दीवान साहब की आंखें बचा घड़ी-घड़ी देखती थी, शायद उसी दिन से मुझ पर आशिक हो गई हो! हाय वह अनोखी चितवन कभी न भूलेगी। अहा, अगर यहां वही हो, और मुझे विश्वास हो कि मुझसे प्रेम रखती है तो क्या बात है! मैं ही राजा हो जाऊं और दीवान साहब को तो बात की बात में खपा डालूंगा! मगर ऐसी किस्मत कहां खैर जो हो इनकी बात मान जरा झांककर देखना तो जरूर चाहिए, शायद ईश्वर ने दिन फेरा ही हो!’’ ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें सोचते-विचारते कोतवाल साहब घोड़े से उतर पड़े और उन दोनों भाइयों के कहे मुताबिक आगे बढ़े।

यहां से पहाड़ियों का सिलसिला बहुत दूर तक चला गया था। जिस जगह कोतवाल साहब खड़े थे वहां दो पहाड़ियां इस तरह आपस में मिली हुई थीं कि बीच में कोसों तक लंबी दरार मालूम पड़ती थी जिसके बीच में बहता हुअ पानी का चश्मा और दोनों तरफ छोटे-छोटे दरख्त बहुत भले मालूम पड़ते थे। इधर-उधर बहुत-सी कंदराओं पर निगाह पड़ने से यही विश्वास होता था कि ऋषियों और तपस्वियों के प्रेमी अगर यहां आवें तो अवश्य उनके दर्शन से अपना जन्म कृतार्थ कर सकेंगे।

दरार के कोने पर पहुंचकर दोनों भाइयों ने कोतवाल साहब को बाईं तरफ झांकने के लिए कहा। कोतवाल साहब ने झांककर देखा, साथ ही एकदम चौंक पड़े और मारे खुशी के भरे हुए गले से चिल्लाकर बोले, ‘‘अहा, मेरी किस्मत जागी! बेशक यह रानी माधवी ही तो है!’’

बयान – 5

कमला को विश्वास हो गया कि किशोरी को कोई धोखा देकर ले भागा। वह उस बाग में बहुत देर तक न ठहरी, ऐयारी के सामान से दुरुस्त थी ही, एक लालटेन हाथ में लेकर वहां से चल पड़ी और बाग से बाहर हो चारों तरफ घूम-घूमकर किसी ऐसे निशान को ढूंढ़ने लगी जिससे यह मालूम हो कि किशोरी किस सवारी पर यहां से गई है, मगर जब तक वह उस आम की बारी में न पहुंची तब तक सिवाय पैरों के चिह्न के और किसी तरह का कोई निशान जमीन पर दिखाई न पड़ा।

बरसात का दिन था और जमीन अच्छी तरह नम हो गई थी इसलिए आम की बारी में घूम-घूमकर कमला ने मालूम कर लिया कि किशोरी यहां से रथ पर सवार होकर गई है और उसके साथ में कई सवार भी हैं क्योंकि रथ के पहियों का दोहरा निशान और बैलों के खुर जमीन पर साफ मालूम पड़ते थे, इसी तरह घोड़ों के टापों के निशान भी अच्छी तरह दिखाई देते थे।

कमला कई कदम उस निशान की तरफ चली गई जिधर रथ गया था और बहुत जल्द मालूम कर लिया कि किशोरी को ले जाने वाले किस तरफ गये हैं। इसके बाद वह पीछे लौटी और सीधे अस्तबल में पहुंच एक तेज घोड़े पर बहुत जल्द चारजामा कसने का हुक्म दिया।

कमला का हुक्म ऐसा न था कि कोई उससे इंकार करता। घोड़ा बहुत जल्द कसकर तैयार किया गया और कमला उस पर सवार हो तेजी के साथ उस तरफ रवाना हुई जिधर रथ पर सवार होकर किशोरी के जाने का विश्वास हो गया था।

पांच कोस बराबर चले जाने के बाद कमला एक चौराहे पर पहुंची जहां से बाएं तरफ का रास्ता चुनार को गया था, दाहिने तरफ की सड़क रीवां होते हुए गयाजी तक पहुंची थी, तथा सामने का रास्ता एक भयानक जंगल में होता हुआ कई तरफ को फूट गया था।

इस चौमुहानी पर पहुंचकर कमला रुकी और सोचने लगी कि किधर जाऊं अगर चुनार वाले किशोरी को ले गये होंगे तो इसी बाईं तरफ से गये होंगे, और किशोरी की दुश्मन माधवी ने उसे फंसाया होगा तो रथ दाहिनी तरफ से गयाजी को गया होगा, सामने की सड़क से रथ ले जाने वाला तो कोई खयाल में नहीं आता क्योंकि यह जंगल का रास्ता बहुत ही खराब और पथरीला है।

चंद्रमा निकल आया था और रोशनी अच्छी तरह फैल चुकी थी। कमला घोड़े से नीचे उतर गयी और दाहिनी तरफ जमीन पर रथ के पहिये का दाग ढूंढ़ने लगी मगर कुछ मालूम न हुआ, लाचार घोड़े पर सवार हो सोचने लगी कि किधर जाऊं, क्या करूं।

हम पहले लिख आये हैं कि रथ पर जाते-जाते जब किशोरी ने जान लिया कि वह धोखे में डाली गई है तब उसके मुंह से कई शब्द ऐसे निकले जिन्हें सुन नकली कमला होशियार हो गई और रथ के नीचे कूद एक घोड़े पर सवार हो पीछे की तरफ लौट गई।

लौटी हुई नकली कमला ठीक उसी समय घोड़ा दौड़ाती हुई उस चौराहे पर पहुंची जिस समय असली कमला वहां पहुंचकर सोच रही थी कि किधर जाऊं, क्या करूं असली कमला ने सामने से तेजी के साथ आते हुए सवार को देख घोड़ा रोकने के लिए ललकारा मगर वह क्यों रुकने लगी थी, हां उसे असली कमला के दाहिनी तरफ वाली राह पर जाने के लिए घूमना था इसलिए अपने घोड़े की तेजी उसे कम करनी ही पड़ी।

जब असली कमला ने देखा कि सामने से आया हुआ सवार उसके ललकारने से भी किसी तरह नहीं रुकता और दाहिनी सड़क से निकल जाना चाहता है तो झट कमर से दुनाली पिस्तौल निकालकर उसने घोड़े पर वार किया। गोली लगते ही घोड़ा नकली कमला को लिए जमीन पर गिरा, मगर घोड़े के गिरते ही वह बहुत ही जल्द सम्हलकर उठ खड़ी हुई और उसने भी कमर से दुनाली पिस्तौल निकाल असली कमला पर गोली चलाई।

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असली कमला तो पहले ही सम्हली हुई थी, गोली की मार से बच गई, फिर दूसरी गोली आई पर वह भी न लगी। लाचार नकली कमला ने अपनी पिस्तौल फिर भरने का इरादा किया मगर असली कमला ने उसे वह मौका न दिया। दोनों गोली बेकार जाते देख वह समझ गयी कि उसकी पिस्तौल खाली हो गयी है, हाथ में पिस्तौल लिए वह झट उसके कल्ले पर पहुंच गई और ललकारकर बोली, ‘‘खबरदार जो पिस्तौल भरने का इरादा किया है, देख मेरी पिस्तौल में दूसरी गोली अभी मौजूद है!’’ नकली कमला भी यह सोचकर चुपचाप खड़ी रह गई कि अब वह अपने दुश्मन का कुछ नहीं बिगाड़ सकती क्योंकि पिस्तौल की दोनों गोलियां बर्बाद हो चुकी थीं और घोड़ा उसका मर चुका था।

पिस्तौल के अलावा दोनों की कमर में खंजर भी था मगर उसकी जरूरत न पड़ी। असली कमला ने ललकारकर पूछा, ‘‘सच बता तू कौन है?’

नकली कमला को जान दे देना कबूल था मगर अपने मुंह से यह बताना मंजूर न था कि वह कौन है। असली कमला ने यह देख अपने घोड़े का ऐसा चपेटा दिया कि वह किसी तरह सम्हल न सकी और जमीन पर गिर पड़ी। जब तक वह होशियार होकर उठना चाहे तब तक असली कमला झट घोड़े से कूद उसकी छाती पर सवार दिखाई देने लगी।

असली कमला ने जबर्दस्ती उसकी नाक में बेहोशी की दवा ठूंस दी और जब वह बेहोश हो गयी तो उसकी छाती पर से उतरकर अलग खड़ी हो गई।

असली कमला जब उसकी छाती पर सवार हुई तो उसे अपनी ही सूरत का पाया, इसलिए समझ गई कि यह कोई ऐयार या ऐयारा है, सिवाय इसके किशोरी की सखियों की जुबानी उसने मालूम कर ही लिया था कि कोई उसी की सूरत बना किशोरी को ले गया है, अब उसे विश्वास हो गया कि किशोरी को इसी ने धोखा दिया है।

थोड़ी देर बाद कमला ने बटुए में से पानी भरी छोटी-सी बोतल निकाली और नकली कमला का मुंह धोकर साफ किया, इसके बाद चकमक से आग निकाल बत्ती जलाकर पहचानना चाहा कि वह कौन है मगर बिना ऐसा किए वह केवल चंद्रमा की मदद से पहचान ली गयी कि माधवी की सखी ललिता है, क्योंकि कमला उसे अच्छी तरह जानती थी और वर्षों से साथ रहने के सिवाय बराबर मिला-जुला भी करती थी।

कमला को विश्वास तो हो ही गया कि किशोरी को धोखा देकर ले जाने वाली यही ललिता है मगर इस बात का ताज्जुब बना ही रहा कि वह सामने से लौटकर आती हुई क्यों दिखाई पड़ी! कमला यह भी जानती थी कि चाहे जान चली जाय मगर ललिता असल भेद कभी न बतावेगी, इसलिए उसकी जुबानी पता लगाने का उद्योग करना उसने व्यर्थ समझा और अपने साथ ललिता को घोड़े पर लादकर घर की तरफ पलट पड़ी।

रात बिल्कुल बीत चुकी थी बल्कि कुछ दिन निकल आया था जब ललिता को लादे हुए कमला घर पहुंची। यहां किशोरी के गायब होने से बड़ा ही हाहाकार मचा हुआ था। उसकी खोज में कई आदमी चारों तरफ जा चुके थे। किशोरी का नाना रणधीरसिंह भारी जमींदार होने के सिवाय बड़ा ही दिमागदार और जबर्दस्त आदमी था। उसने यही समझ रखा था कि शिवदत्त के दुश्मन वीरेंद्रसिंह की तरफ से यह कार्रवाई की गई है। मगर जब ललिता को लिए हुए कमला पहुंची और उसकी जुबानी सब हाल मालूम हुआ तब माधवी की बदमाशी पर बहुत बिगड़ा। वह माधवी की चाल-चलन पर पहले ही से रंज था मगर कुछ जोर न चलने से लाचार था। आज गुस्से के मारे इस बात का बिल्कुल ध्यान न रहा कि माधवी एक भारी राज्य की मालिक है और जबर्दस्त फौज रखती है उसने कमला के मुंह से सब हाल सुनते ही तलवार हाथ में ले कसम खा ली कि ‘जिस तरह हो सकेगा अपने हाथ से माधवी का सिर काट कलेजा ठंडा करूंगा।’

ललिता एक अंधेरी कोठरी में कैद की गई और रणधीरसिंह की आज्ञा पा कमला अपने बड़े भाई हरनामसिंह को साथ ले किशोरी की मदद को पैदल ही रवाना हुई।

कमला आज भी उसी कल वाले रास्ते पर रवाना हुई और दोपहर होते – होते उसी चौराहे पर पहुंची जहां कल ललिता मिली थी। वे दोनों बेधड़क सामने वाली सड़क पर चले।

चौराहे के आगे लगभग तीन कोस चले जाने के बाद खराब और पथरीली राह मिली जिसे देख हरनामसिंह ने कहा, ‘‘इस राह से रथ ले जाने में जरूर तकलीफ हुई होगी।’’

कमला – बेशक ऐसा ही हुआ होगा, और मुझे तो अभी तक निश्चय ही नहीं हुआ कि किशोरी इसी राह से गई है।

हरनाम – मगर मैं तो यही समझता हूं कि रथ इसी राह से गया और किशोरी का साथ छोड़ कोई दूसरी कार्रवाई करने के लिए ललिता लौटी थी।

कमला – शायद ऐसा ही हो।

और थोड़ी दूर जाने के बाद पैर की एक पाजेब जमीन पर पड़ी हुई दिखाई दी। हरनामसिंह ने उसे देखते ही उठा लिया और कहा, ‘‘बेशक किशोरी इसी राह से गई है, इस पाजेब को मैं खूब पहचानता हूं।’’

कमला – अब तो मुझे भी निश्चय हो गया कि किशोरी इधर ही से गयी है।

हरनाम – हां, जब उसे मालूम हो गया कि उसने धोखा खाया और दुश्मनों के फंदे में पड़ गई तब उसने यह पाजेब चुपके से जमीन पर फेंक दी।

कमला – इसलिए कि वह जानती थी कि उसकी खोज में बहुत से आदमी निकलेंगे और इधर आकर इस पाजेब को देखेंगे तो जान जायेंगे कि किशोरी इधर ही गयी है।

हरनाम – मैं खयाल करता हूं कि आगे चलकर किशोरी की फेंकी हुई और भी कोई चीज हम लोग जरूर देखेंगे।

कमला – बेशक ऐसा ही होगा।

कुछ आगे जाकर दूसरी पाजेब और उससे थोड़ी दूर पर किशोरी के और कई गहने इन लोगों ने पाये। अब कमला को किशोरी के इसी राह से जाने का पूरा विश्वास हो गया और वे दोनों बेधड़क कदम बढ़ाते हुए राजगृह की तरफ रवाना हुए।

बयान – 6

कुंअर इंद्रजीतसिंह अभी तक उस रमणीक स्थान में विराज रहे हैं। जी कितना ही बेचैन क्यों न हो मगर उन्हें लाचार माधवी के साथ दिन काटना ही पड़ता है। खैर जो होगा देखा जायगा मगर इस समय दो पहर दिन बाकी रहने पर भी कुंअर इंद्रजीतसिंह कमरे के अंदर सुनहले पावों की चारपाई पर आराम कर रहे हैं और एक लौंडी धीरे-धीरे पंखा झल रही है। हम ठीक नहीं कह सकते कि उन्हें नींद दबाये हुए है या जान-बूझकर हठियाये पड़े हैं और अपनी बदकिस्मती के जाल को सुलझाने की तरकीब सोच रहे हैं। खैर इन्हें इसी तरह पड़े रहने दीजिए और आप जरा तिलोत्तमा के कमरे में चलकर देखिए कि वह माधवी के साथ किस तरह की बातचीत कर रही है। माधवी का हंसता हुआ चेहरा कहे देता है कि बनिस्बत और दिनों के आज वह खुश है, मगर तिलोत्तमा के चेहरे से किसी तरह की खुशी नहीं मालूम होती।

माधवी ने तिलोत्तमा का हाथ पकड़कर कहा, ‘‘सखी, आज तुझे उतना खुश नहीं पाती हूं जितना मैं खुद हूं।’’

तिलो – तुम्हारा खुश होना बहुत ठीक है।

माधवी – तो क्या तुम्हें इस बात की खुशी नहीं है कि किशोरी मेरे फंदे में फंस गई और एक कैदी की तरह मेरे यहां तहखाने में बंद है!

तिलो – इस बात की तो मुझे भी खुशी है।

माधवी – तो रंज किस बात का है हां समझ गई, अभी तक ललिता के लौटकर न आने का बेशक तुम्हें दुख होगा।

तिलो – ठीक है, मैं ललिता के बारे में भी बहुत कुछ सोच रही हूं। मुझे तो विश्वास हो गया है कि उसे कमला ने पकड़ लिया।

माधवी – तो उसे छुड़ाने की फिक्र करनी चाहिए।

तिलो – मुझे इतनी फुरसत नहीं है कि उसे छुड़ाने के लिए जाऊं क्योंकि मेरे हाथ-पैर किसी दूसरे ही तरद्दुद ने बेकार कर दिए हैं जिसकी तुम्हें जरा भी खबर नहीं, अगर खबर होती तो आज तुम्हें भी अपनी ही तरह उदास पाती।

तिलोत्तमा की इस बात ने माधवी को चौंका दिया और वह घबड़ाकर तिलोत्तमा का मुंह देखने लगी।

तिलो – मुंह क्या देखती है, मैं झूठ नहीं कहती। तू तो अपने ऐश-आराम में ऐसी मस्त हो रही है कि दीन दुनिया की खबर नहीं। तू जानती ही नहीं कि दो ही चार दिन में तुझ पर कैसी आफत आने वाली है। क्या तुझे विश्वास हो गया कि किशोरी तेरी कैद में रह जायगी, कुछ बाहर की भी खबर है कि क्या हो रहा है क्या बदनामी ही उठाने के लिए तू गया का राज्य कर रही है मैं पचास दफे तुझे समझा चुकी कि अपनी चाल-चलन को दुरुस्त कर मगर तूने एक न सुनी, लाचार तुझे तेरी मर्जी पर छोड़ दिया और प्रेम के सबब तेरा हुक्म मानती आई मगर अब मेरे सम्हाले नहीं सम्हलता।

माधवी – तिलोत्तमा, आज तुझे क्या हो गया है जो इतना कूद रही है! ऐसी कौन-सी आफत आ गई है जिसने तुझे बदहवास कर दिया है क्या तू नहीं जानती कि दीवान साहब इस राज्य का इंतजाम कैसी अच्छी तरह कर रहे हैं और सेनापति तथा कोतवाल अपने काम में कितने होशियार हैं क्या इन लोगों के रहते हमारे राज्य में कोई विघ्न डाल सकता है?

तिलो – यह जरूर ठीक है कि इन तीनों के रहते कोई इस राज्य में विघ्न नहीं डाल सकता, लेकिन तुझे तो इन्हीं तीनों की खबर नहीं! कोतवाल साहब जहन्नुम में चले ही गये, दीवान साहब और सेनापति साहब भी आजकल में जाया चाहते हैं बल्कि चले भी गए हों तो ताज्जुब नहीं।

माधवी – यह तू क्या कह रही है!

तिलो – जी हां, में बहुत ठीक कहती हूं। बिना परिश्रम ही यह राज्य वीरेन्द्रेसिंह का हुआ चाहता है। इसीलिए कहती थी कि इंद्रजीतसिंह को अपने यहां मत फंसा, उनके एक-एक ऐयार आफत के परकाले हैं। मैं कई दिनों से उन लोगों की कार्रवाई देख रही हूं। उन लोगों को छेड़ना ऐसा है जैसा आतिशबाजी की चरखी में आग लगा देना।

माधवी – क्या वीरेंद्रसिंह को पता लग गया कि उनका लड़का यहां कैद है?

तिलो – पता नहीं लगा तो इसी तरह उनके ऐयार सब यहां पहुंचकर ऊधम मचा रहे हैं?

माधवी – तो तूने मुझे खबर क्यों न की?

तिलो – क्या खबर करती, तुझे इस खबर को सुनने की छुट्टी भी है!

माधवी – तिलोत्तमा, ऐसी जली-कटी बातों का कहना छोड़ दे और मुझे ठीक-ठीक बता कि क्या हुआ और क्या हो रहा है सच पूछ तो मैं तेरे ही भरोसे कूद रही हूं। मैं खूब जानती हूं कि सिवाय तेरे मेरी रक्षा करने वाला कोई नहीं। मुझे विश्वास था कि इन चार पहाड़ियों के बीच में जब तक मैं हूं मुझ पर किसी तरह की आफत न आवेगी, मगर अब तेरी बातों से यह उम्मीद बिल्कुल जाती रही।

तिलो – ठीक है, तुझे अब ऐसा भरोसा न रखना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि मैं तेरे लिए जान देने को तैयार हूं, मगर तू ही बता कि वीरेंद्रसिंह के ऐयारों के सामने मैं क्या कर सकती हूं, एक बेचारी ललिता मेरी मददगार थी, सो वह भी किशोरी को फंसाने में आप पकड़ी गई, अब अकेली मैं क्या – क्या करूं।

माधवी – तू सब-कुछ कर सकती है हिम्मत मत हार, हां यह तो बता कि वीरेंद्रसिंह के ऐयार यहां क्योंकर आये और अब क्या कर रहे हैं।

तिलो – अच्छा सुन, मैं सब-कुछ कहती हूं, यह तो मैं नहीं जानती कि पहले-पहल यहां कौन आया, हां जब से चपला आई है तब से मैं थोड़ा-बहुत हाल जानती हूं।

माधवी – (चौंककर) क्या चपला यहां पहुंच गयी?

तिलो – हां पहुंच गयी, उसने यहां पहुंचकर उस सुरंग की दूसरी ताली भी तैयार कर ली जिस राह से तू आती-जाती है और जिसमें मैंने किशोरी को कैद कर रखा है। एक दिन रात को जब तू इंद्रजीतसिंह को सोता छोड़ दीवान साहब से मिलने के लिए गयी तो वह चपला भी इंद्रजीतसिंह को साथ ले, अपनी ताली से सुरंग का ताला खोल तेरे पीछे-पीछे चली गयी और छिपकर तेरी और दीवान साहब की कैफियत इन दोनों ने देख ली, यह न समझ कि इंद्रजीतसिंह बेचारे सीधे-सादे हैं और तेरा हाल नहीं जानते, वे सब-कुछ जान गये।

माधवी – (कुछ देर तक सोच में डूबी रहने के बाद) तूने चपला को कैसे देखा?

तिलो – मेरा बल्कि ललिता का भी कायदा है कि रात को तीन-चार दफे उठकर इधर-उधर घूमा करती हैं। उस समय मैं अपने दालान में खंभे की आड़ में खड़ी इधर-उधर देख रही थी जब चपला ओैर इंद्रजीतसिंह तेरा हाल देखकर सुरंग से लौटे थे। इसके बाद वे दोनों बहुत देर तक नहर के किनारे खड़े बातचीत करते रहे, बस उसी समय से मैं होशियार हो गई और अपनी कार्रवाई करने लगी।

माधवी – इसके बाद भी कुछ हुआ?

तिलो – हां बहुत कुछ हुआ, सुनो मैं कहती हूं। दूसरे दिन मैं ललिता को साथ ले उस तालाब पर पहुंची, देखा कि वीरेंद्रसिंह के कई ऐयार वहां बैठे बातचीत कर रहे हैं। मैंने छिपकर उनकी बातचीत सुनी। मालूम हुआ कि वे लोग दीवान साहब, सेनापति और कोतवाल साहब को गिरफ्तार किया चाहते हैं। मुझे उस समय एक दिल्लगी सूझी। जब वे लोग राय पक्की करके वहां से जाने लगे, मैंने वहां से कुछ दूर हटकर एक छींक मारी और दूर भाग गई।

माधवी – (मुस्कराकर) वे लोग घबड़ा गये होंगे!

तिलो – बेशक घबड़ाये होंगे, उसी समय गाली-गुफ्तार करने लगे, मगर हम दोनों ने वहां ठहरना पसंद नहीं किया।

माधवी – फिर क्या हुआ?

तिलो – मैंने तो सोचा था कि वे लोग मेरी छींक से डरकर अपनी कार्रवाई रोकेंगे मगर ऐसा न हुआ। दो ही दिन की मेहनत में उन लोगों ने कोतवाल को गिरफ्तार कर लिया, भैरोसिंह और तारासिंह ने उन्हें बुरा धोखा दिया।

इसके बाद तिलोत्तमा ने कोतवाल साहब के गिरफ्तार होने का पूरा हाल जैसा हम ऊपर लिख आये हैं माधवी से कहा, साथ ही उसने यह भी कह दिया कि दीवान साहब को भी गुमान हो गया कि तूने किसी मर्द को यहां लाकर रखा है और उसके साथ आनंद कर रही है।

तिलोत्तमा की जुबानी सब हाल सुनकर माधवी सोच-सागर में गोते लगाने लगी और आधे घंटे तक उसे तनोबदन की सुध न रही, इसके बाद उसने अपने को सम्हाला और फिर तिलोत्तमा से बातचीत करना आरंभ किया।

माधवी – खैर जो हुआ सो हुआ, यह बता कि अब क्या करना चाहिए।

तिलो – मुनासिब तो यही है कि इंद्रजीतसिंह और किशोरी को छोड़ दो, तब फिर तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ेगा।

माधवी – (तिलोत्तमा के पैरों पर गिरकर और रोकर) ऐसा न कहो, अगर मुझ पर तुम्हारा सच्चा प्रेम है तो ऐसा करने के लिए जिद न करो, अगर मेरा सिर चाहो तो काट लो मगर इंद्रजीतसिंह को छोड़ने के लिए मत कहो।

तिलो – अफसोस कि इन बातों की खबर दीवान साहब को भी नहीं कर सकती, बड़ी मुश्किल है, अच्छा मैं उद्योग करती हूं मगर निश्चय नहीं कह सकती कि क्या होगा।

माधवी – तुम चाहोगी तो सब काम हो जायेगा।

तिलो – पहले तो मुझे ललिता को छुड़ाना मुनासिब है।

माधवी – अवश्य।

तिलो – हां, एक काम इसके भी पहले करना चाहिए, नहीं तो किशोरी दो ही दिन में यहां से गायब हो जायेगी और ताज्जुब नहीं कि धड़धड़ाते हुए वीरेंद्रसिंह के कई ऐयार यहां पहुंच जाएं और मनमानी धूम मचावें।

माधवी – शायद तुम्हारा मतलब उस पानी वाली सुरंग को बंद कर देने से हो

तिलो – हां।

माधवी – मैं भी यही मुनासिब समझती हूं। मैं सोचती हूं कि जरूर कोई ऐयार उस रोज उस पानी वाली सुरंग की राह से यहां आया था जिसकी देखा-देखी इंद्रजीतसिंह उस सुरंग में घुसे थे, मगर बेचारे पानी में आगे न जा सके और लौट आये। तुम जरूर उस सुरंग को अच्छी तरह बंद करा दो जिससे कोई ऐयार उस राह से आने-जाने न पावे। तुम लोगों के लिए वह रास्ता है ही जिधर से मैं आती हूं। हां एक बात और है तुम अपने पिता को मेरी मदद के लिए क्यों नहीं ले आतीं, उनसे और मेरे पिता से बड़ी दोस्ती थी मगर अफसोस आजकल वे मुझसे बहुत रंज हैं।

तिलो – मैं कल उनके पास गई थी पर वे किसी तरह नहीं मानते, तुमसे बहुत ज्यादे रंज हैं, मुझ पर बहुत बिगड़ते थे, अगर मैं तुरंत न चली आती तो बेइज्जती के साथ निकलवा देते, मैं उनके पास कभी न जाऊंगी।

माधवी – खैर जो कुछ किस्मत में है भोगूंगी। अच्छा अब तो सभों की आमदरफ्त इसी सुरंग से होगी, तो किशोरी को वहां से निकाल किसी दूसरी जगह रखना चाहिए।

तिलो – उस सुरंग से बढ़कर कौन-सी ऐसी जगह है जहां उसे रखोगी, दीवान साहब का भी तो डर है!

थोड़ी देर तक इन दोनों में बातचीत होती रही इसके बाद इंद्रजीतसिंह के सोकर उठने की खबर आई। शाम भी हो चुकी थी, माधवी उठकर उनके पास गई और तिलोत्तमा पानी वाली सुरंग को बंद करने की फिक्र में लगी।

पाठक, इस जगह मामला बड़ा गोलमाल हो गया। तिलोत्तमा ने चालाकी से वीरेंद्रसिंह के ऐयारों की कार्रवाई देख ली। माधवी और तिलोत्तमा की बातचीत से आप यह भी जान गये होंगे कि बेचारी किशोरी उसी सुरंग में कैद की गई जिसकी ताली चपला ने बनाई थी या जिस सुरंग की राह चपला और कुंअर इंद्रजीतसिंह ने माधवी के पीछे जाकर यह मालूम कर लिया था कि वह कहां जाती है। उस सुरंग की दूसरी ताली तो मौजूद ही थी, किशोरी को छुड़ाना चपला के लिए कोई बड़ी बात न थी, अगर तिलोत्तमा होशियार होकर उस आने-जाने वाली राह अर्थात पानी वाली सुरंग को जिसमें इंद्रजीतसिंह गये थे और आगे जलमय देखकर लौट आये थे पत्थर के ढोकों से मजबूती के साथ बंद न कर देती। कुंअर इंद्रजीतसिंह को मालूम हो ही गया था कि हमारे ऐयार लोग इसी राह से आया-जाया करते हैं, अब उन्होंने अपनी आंखों से यह भी देख लिया कि यह सुरंग बखूबी बंद कर दी गई। उनकी नाउम्मीदी हर तरह से बढ़ने लगी, उन्होंने समझ लिया कि अब चपला से मुलाकात न होगी और बाहर हमारे छुड़ाने के लिए क्या – क्या तरकीब हो रही है इसका पता भी बिल्कुल न लगेगा। सुरंग की नई ताली जो चपला ने बनाई थी वह उसी के पास थी, तो भी इंद्रजीतसिंह ने हिम्मत न हारी। उन्होंने जी में ठान लिया कि अब जबर्दस्ती से काम लिया जायेगा, जितनी औरतें यहां मौजूद हैं सभों की मुश्कें बांध नहर के किनारे डाल देंगे और सुरंग की असली ताली माधवी के पास से लेकर सुरंग की राह माधवी के महल में पहुंचकर खून खराबी मचावेंगे। आखिर क्षत्रियों को इससे बढ़कर लड़ने-भिड़ने और जान देने का कौन-सा समय हाथ लगेगा। मगर ऐसा करने के लिए सबसे पहले सुरंग की ताली अपने कब्जे में कर लेना मुनासिब है, नहीं तो मुझे बिगड़ा हुआ देख जब तक मैं दो-चार औरतों की मुश्कें बांधूंगा सब सुरंग की राह भाग जायेंगी, फिर मेरा मतलब जैसा मैं चाहता हूं सिद्ध न होगा।

इंद्रजीतसिंह ने सुरंग की ताली लेने की बहुत कोशिश की मगर न ले सके क्योंकि अब वह ताली उस जगह से, जहां पहले रहती थी, हटाकर किसी दूसरी जगह रख दी गई थी।

बयान – 7

आपस में लड़ने वाले दोनों भाइयों के साथ जाकर सुबह की सफेदी निकलने के साथ ही कोतवाल ने माधवी की सूरत देखी और यह समझकर कि दीवान साहब को छोड़ महारानी अब मुझसे प्रेम रखा चाहती है बहुत खुश हुआ। कोतवाल साहब के गुमान में भी न था कि ऐयारों के फेर में पड़े हैं। उनको इंद्रजीतसिंह के कैद होने और वीरेंद्रसिंह के ऐयारों के यहां पहुंचने की खबर ही न थी। वह तो जिस तरह हमेशा रियाया लोगों के घर अकेले पहुंचकर तहकीकात किया करते थे उसी तरह आज भी सिर्फ दो अर्दली के सिपाहियों को साथ ले इन दोनों ऐयारों के फेर में पड़ घर से निकल पड़े थे।

कोतवाल साहब ने जब माधवी को पहचाना तो अपने सिपाहियों को उसके सामने ले जाना मुनासिब न समझा और अकेले ही माधवी के पास पहुंचे। देखा कि हकीकत में उन्हीं की तस्वीर सामने रखे माधवी उदास बैठी है।

कोतवाल साहब के देखते ही माधवी उठ खड़ी हुई और मुहब्बत भरी निगाहों से उनकी तरफ देखकर बोली –

‘‘देखो मैं तुम्हारे लिए कितनी बेचैन हो रही हूं पर तुम्हें जरा भी खबर नहीं!’’

कोत – अगर मुझे यकायक इस तरह अपनी किस्मत के जागने की खबर होती तो क्या मैं लापरवाह बैठा रहता कभी नहीं, मैं तो आप ही दिन – रात आपसे मिलने की उम्मीद में अपना खून सुखा रहा था।

माधवी – (हाथ का इशारा करके) देखो ये दोनों आदमी बड़े ही बदमाश हैं, इनको यहां से चले जाने के लिए कहो तो फिर हमसे – तुमसे बातें होंगी।

इतना सुनते ही कोतवाल साहब ने उन दोनों भाइयों की तरफ जो हकीकत में भैरोसिंह और तारासिंह थे कड़ी निगाह से देखा और कहा, ‘‘तुम दोनों अभी-अभी यहां से भाग जाओ नहीं तो बोटी-बोटी काटकर रख दूंगा।’’

भैरोसिंह और तारासिंह वहां से चलते बने। इधर चपला जो माधवी की सूरत बनी हुई थी कोतवाल को बातों में फंसाये हुए वहां से दूर एक गुफा के मुहाने पर ले गई और बैठकर बातचीत करने लगी।

चपला माधवी की सूरत तो बनी मगर उसकी और माधवी की उम्र में बहुत कुछ फर्क था। कोतवाल भी बड़ा धूर्त और चालाक था। सूर्य की चमक में जब उसने माधवी की सूरत अच्छी तरह देखी और बातों में भी कुछ फर्क पाया फौरन उसे खुटका पैदा हुआ और वह बड़े गौर से उसे सिर से पैर तक देख अपनी निगाह के तराजू में तोलने और जांचने लगा। चपला समझ गई कि अब कोतवाल को शक पैदा हो गया, देर करना मुनासिब न जान उसने जफील (सीटी) बजाई। उसी समय गुफा के अंदर से देवीसिंह निकल आये और कोतवाल साहब से तलवार रख देने के लिए कहा।

कोतवाल ने भी जो सिपाही और शेरदिल आदमी था बिना लड़े-भिड़े अपने को कैदी बना देना पसंद न किया और म्यान से तलवार निकाल देवीसिंह पर हमला किया। थोड़ी ही देर में देवीसिंह ने उसे अपने खंजर से जख्मी किया और जमीन पर पटक उसकी मुश्कें बांध डालीं।

कोतवाल साहब का हुक्म पा भैरोसिंह और तारासिंह जब उनके सामने से चले गये तो वहां पहुंचे जहां कोतवाल के साथी दोनों सिपाही खड़े अपने मालिक के लौट आने की राह देख रहे थे। इन दोनों ऐयारों ने उन सिपाहियों को अपनी मुश्कें बंधवाने के लिए कहा मगर उन्होंने इन दोनों को साधारण समझ मंजूर न किया और लड़ने-भिड़ने को तैयार हो गये। उन दोनों की मौत आ चुकी थी, आखिर भैरोसिंह और तारासिंह के हाथ से मारे गये, मगर उसी समय बारीक आवाज में किसी ने इन दोनों ऐयारों को पुकारकर कहा, ‘‘भैरोसिंह और तारासिंह, अगर मेरी जिंदगी है तो बिना इसका बदला लिए न छोड़ूंगी!’’

भैरोसिंह ने उस तरफ देखा जिधर से आवाज आई थी। एक लड़का भागता हुआ दिखाई पड़ा। ये दोनों उसके पीछे दौड़े मगर पा न सके क्योंकि उस पहाड़ी की छोटी-छोटी कंदराओं और खोहों में न मालूम कहां छिप उसने इन दोनों के हाथ से अपने को बचा लिया।

पाठक समझ गये होंगे कि इन दोनों ऐयारों को पुकारकर चिताने वाली वही तिलोत्तमा है जिसने बात करते-करते माधवी से इन दोनों ऐयारों के हाथ कोतवाल के फंस जाने का समाचार कहा था।

बयान – 8

इस जगह उस तालाब का हाल लिखते हैं, जिसका जिक्र कई दफे ऊपर-पीछे आ चुका है, जिसमें एक औरत को गिरफ्तार करने के लिए योगिनी और वनचरी कूदी थीं, या जिसके किनारे बैठ हमारे ऐयारों ने माधवी के दीवान, कोतवाल और सेनापति को पकड़ने के लिए राय पक्की की थी।

यही तालाब उस रमणीक स्थान में पहुंचाने का रास्ता था जिसमें कुंअर इंद्रजीतसिंह कैद हैं। इसका दूसरा मुहाना वही पानी वाली सुरंग थी जिसमें कुंअर इंद्रजीतसिंह घुसे थे और कुछ दूर जाकर जलमयी देख लौट आये थे या जिसको तिलोत्तमा ने अब पत्थर के ढोकों से बंद कर दिया है।

जिस पहाड़ी के नीचे यह तालाब था उसी पहाड़ी की दूसरी तरफ वह गुप्त स्थान था जिसमें इंद्रजीतसिंह कैद थे। इस राह से हर एक का आना मुश्किल था, हां ऐयार लोग अलबत्ता आ सकते थे, जिसका दम खूब सधा हुआ था, और तैरना बखूबी जानते थे, पर इस तालाब की राह से वहां तक पहुंचने के लिए कारीगरों ने एक सुबीता भी किया था। उसी सुरंग से इस तालाब की जाट (लाट) तक भीतर-भीतर एक मजबूत जंजीर लगी हुई थी जिसे थामकर यहां तक पहुंचने में बड़ा ही सुबीता होता था।

कोतवाल साहब को गिरफ्तार करने के बाद कई दफे चपला ने चाहा कि इस तालाब की राह इंद्रजीतसिंह के पास पहुंचकर इधर के हाल-चाल की खबर करे मगर ऐसा न कर सकी क्योंकि तिलोत्तमा ने सुरंग का मुंह बंद कर दिया था। अब हमारे ऐयारों को निश्चय हो गया कि दुश्मन संभल बैठा और उसको हम लोगों की खबर हो गई। इधर कोतवाल साहब के गिरफ्तार होने से और उनके सिपाहियों की लाश मिलने पर शहर में हलचल मच रही थी। दीवान साहब वगैरह इस खोज से परेशान हो रहे थे कि हम लोगों का दुश्मन ऐसा कौन आ पहुंचा जिसने कोतवाल साहब को गायब कर दिया।

कई रोज के बाद एक दिन आधी रात के समय भैरोसिंह, तारासिंह, पंडित बद्रीनाथ, देवीसिंह और चपला इस तालाब पर बैठे आपस में सलाह कर रहे थे और सोच रहे थे कि अब कुंअर इंद्रजीतसिंह के पास किस तरह पहुंचना चाहिए और उनके छुड़ाने की क्या तरकीब करनी चाहिए।

चपला – अफसोस, मैंने जो ताली तैयार की थी वह अपने साथ लेती आई, नहीं तो इंद्रजीतसिंह उस ताली से जरूर कुछ-न-कुछ काम निकालते। अब हम लोगों का वहां तक पहुंचना बहुत मुश्किल हो गया।

बद्री – इस पहाड़ी के उस पार ही तो इंद्रजीतसिंह हैं! चाहे वह पहाड़ी कैसी ही बेढब क्यों न हो मगर हम लोग उस पार पहुंचने के लिए चढ़ने-उतरने की जगह बना ही सकते हैं।

भैरो – मगर यह काम कई दिनों का है।

तारा – सबसे पहले इस बात की निगरानी करनी चाहिए कि माधवी ने जहां इंद्रजीतसिंह को कैद कर रखा है वहां कोई ऐसा मर्द न पहुंचने पावे जो उन्हें सता सके, औरतें यदि पांच सौ भी होंगी तो कुछ कर न सकेंगी।

देवी – कुंअर इंद्रजीतसिंह ऐसे बोदे नहीं हैं कि यकायक किसी के फंदे में आ जावें, मगर फिर भी हम लोगों को होशियार रहना चाहिए, आजकल में उन तक पहुंचने का मौका न मिलेगा तो हम इस घर को उजाड़ कर डालेंगे और दीवान साहब वगैरह को जहन्नुम में मिला देंगे।

भैरोसिंह – अगर कुमार को यह मालूम हो गया कि हम लोगों के आने-जाने का रास्ता बंद कर दिया गया तो वे चुप बैठे न रहेंगे, कुछ-न-कुछ फसाद जरूर मचावेंगे।

तारा – बेशक।

इसी तरह की बहुत – सी बातें वे लोग कर रहे थे कि तालाब के उस पार जल में उतरता हुआ एक आदमी दिखाई पड़ा। ये लोग टकटकी बांध उसी तरफ देखने लगे। वह आदमी जल में कूदा और जाट के पास पहुंचकर गोता मार गया, जिसे देख भैरोसिंह ने कहा, ‘‘बेशक यह ऐसार है जो माधवी के पास जाना चाहता है।’’

चपला – मगर यह माधवी का ऐयार नहीं है, अगर माधवी की तरफ का होता तो रास्ता बंद होने का हाल इसे मालूम होता।

भैरो – ठीक है।

तारा – अगर माधवी की तरफ का नहीं तो हमारे कुमार का पक्षपाती होगा।

देवी – वह लौटे तो अपने पास बुलाना चाहिए।

थोड़ी ही देर बाद वह आदमी जाट के पास आकर निकला और जाट थाम जरा सुस्ताने लगा, कुछ देर बाद किनारे पर चला आया और तालाब के ऊपर वाले चौंतरे पर बैठ सोचने लगा।

भैरोसिंह अपने ठिकाने से उठे और धीरे-धीरे उस आदमी की तरफ चले। जब उसने अपने पास किसी को आते देखा तो उठ खड़ा हुआ, साथ ही भैरोसिंह ने आवाज दी, ‘‘डरो मत, जहां तक मैं समझता हूं तुम भी उसी की मदद किया चाहते हो जिसके छुड़ाने की फिक्र में हम लोग हैं।’’

भैरोसिंह के इतना कहते ही उस आदमी ने खुशी भरी आवाज से कहा, ‘‘वाह-वाह-वाह, आप भी यहां पहुंच गये! सच पूछो तो यह सब फसाद तुम्हारा ही खड़ा किया हुआ है!

भैरो – जिस तरह मेरी आवाज तूने पहचान ली उसी तरह तेरी मुहब्बत ने मुझे भी कह दिया कि तू कमला है।

कमला – बस-बस, रहने दीजिये, आप लोग बड़े मुहब्बती हैं, इसे मैं खूब जानती हूं।

भैरो – जानती ही हो तो ज्यादे क्या कहूं

कमला – कहने का मुंह भी तो हो

भैरो – कमला, मैं तो यही चाहता हूं कि तुम्हारे पास बैठा बातें ही करता रहूं मगर इस समय मौका नहीं है क्योंकि (हाथ का इशारा करके) पंडित बद्रीनाथ, देवीसिंह, तारासिंह और मेरी मां वहीं बैठी हुई हैं। तुमको तालाब में जाते और नाकाम लौटते हम लोगों ने देख लिया और इसी से हम लोगों ने मालूम कर लिया कि तुम माधवी की तरफदार नहीं हो, अगर होतीं तो सुरंग के बंद किए जाने का हाल तुम्हें जरूर मालूम होता।

कमला – क्या तुम्हें सुरंग बंद करने का मालूम है

भैरो – हां, हम जानते हैं।

कमला – फिर अब क्या करना चाहिए

भैरो – तुम वहां चली चलो जहां हम लोगों के संगी-साथी हैं, उसी जगह मिल-जुल के सलाह करेंगे।

भैरोसिंह कमला को लिए हुए अपनी मां चपला के पास पहुंचे और पुकारकर कहा, ‘‘मां, यह कमला है, इसका नाम तो तुमने सुना ही होगा।’’

‘‘हां-हां, मैं इसे बखूबी जानती हूं।’’ यह कह चपला ने उठाकर कमला को गले लगा लिया और कहा, ‘‘बेटी, अच्छी तरह तो है मैं तेरी बड़ाई बहुत दिनों से सुन रही हूं, भैरो ने तेरी बड़ी तारीफ की थी, मेरे पास बैठ और कह किशोरी कैसी है’

कमला – (बैठकर) किशोरी का हाल क्या पूछती हैं वह तो माधवी की कैद में पड़ी है, ललिता कुंअर इंद्रजीतसिंह के नाम का धोखा देकर उसे ले आई।

भैरो – (चौंककर) हैं, क्या यहां तक नौबत पहुंच गई

कमला – जी हां, मैं वहां मौजूद न थी नहीं तो ऐसा न होने पाता!

भैरो – खुलासा हाल कहो क्या हुआ

कमला ने सब हाल किशोरी के धोखा खाने और ललिता को पकड़ लेने का सुनाकर कहा, ‘‘यह बखेड़ा (भैरोसिंह की तरफ इशारा करके) इन्हीं का मचाया हुआ है, न ये इंद्रजीतसिंह बनकर शिवदत्तगढ़ जाते न बेचारी किशोरी की यह दशा होती।’’

चपला – हां मैं सुन चुकी हूं। इसी कसूर पर बेचारी को शिवदत्त ने अपने यहां से निकाल दिया। खैर तूने यह बड़ा काम किया कि ललिता को पकड़ लिया, अब हम लोग अपना काम सिद्ध कर लेंगे।

कमला – आप लोगों ने क्या किया और अब यहां क्या करने का इरादा है।

चपला ने भी अपना और इंद्रजीतसिंह का सब हाल कह सुनाया। थोड़ी देर तक बातचीत होती रही। सुबह की सफेदी निकलना ही चाहती थी कि ये लोग यहां से उठ खड़े हुए और एक पहाड़ी की तरफ चले गये।

बयान – 9

कुंअर इंद्रजीतसिंह अब जबर्दस्ती करने पर उतारू हुए और इस ताक में लगे कि माधवी सुरंग का ताला खोले और दीवान से मिलने के लिए महल में जाय तो मैं अपना रंग दिखाऊं। तिलोत्तमा के होशियार कर देने से माधवी भी चेत गई थी और दीवान साहब के पास आना-जाना उसने बिल्कुल बंद कर दिया था, मगर जब से पानी वाली सुरंग बंद की गई तब से तिलोत्तमा इसी दूसरी सुरंग की राह आने-जाने लगी और इस सुरंग की ताली जो माधवी के पास रहती थी अपने पास रखने लगी। पानी वाली सुरंग के बंद होते ही इंद्रजीतसिंह जान गये कि अब इन औरतों की आमदरफ्त इसी सुरंग से होगी, मगर माधवी ही की ताक में लगे रहने से कई दिनों तक उनका मतलब सिद्ध न हुआ।

अब कुंअर इंद्रजीतसिंह उस दालान में ज्यादे टहलने लगे जिसमें सुरंग के दरवाजे वाली कोठरी थी। एक दिन आधी रात के समय माधवी का पलंग खाली देख इंद्रजीतसिंह ने जाना कि वह बेशक दीवान से मिलने गई है। वह भी पलंग से उठ खड़े हुए और खूंटी से लटकती हुई एक तलवार उतारने के बाद जलते शमादान को बुझा उसी दालान में पहुंचे जहां उस समय बिल्कुल अंधेरा था और उसी सुरंग वाले दरवाजे के बगल में छिपकर बैठ रहे। जब पहर भर रात बाकी रही उस सुरंग का दरवाजा भीतर से खुला और एक औरत ने इस तरफ निकलकर फिर ताला बंद करना चाहा मगर इंद्रजीतसिंह ने फुर्ती से उसकी कलाई पकड़ ताली छीन ली और कोठरी के अंदर जा भीतर से ताला बंद कर लिया।

वह औरत माधवी थी जिसके हाथ से इंद्रजीतसिंह ने ताली छीनी थी। वह अंधेरे में इंद्रजीतसिंह को पहचान न सकी, हां उसके चिल्लाने से कुमार जान गए कि वह माधवी है।

इंद्रजीतसिंह एक दफे उस सुरंग में जा ही चुके थे, उसके रास्ते और सीढ़ियों को वे बखूबी जानते थे, इसलिए अंधेरे में उनको बहुत तकलीफ न हुई और वे अंदाज से टटोलते हुए तहखाने की सीढ़ियां उतर गये। नीचे पहुंच के जब उन्होंने दूसरा दरवाजा खोला तो उन्हें सुरंग के अंदर कुछ दूर पर रोशनी मालूम हुई जिसे देख उन्हें ताज्जुब हुआ और बहुत धीरे-धीरे बढ़ने लगे। जब उस रोशनी के पास पहुंचे, एक औरत पर नजर पड़ी जो हथकड़ी और बेड़ी के सबब उठने-बैठने से बिल्कुल लाचार थी। चिराग की रोशनी में इंद्रजीतसिंह ने उसको और उसने इनको अच्छी तरह देखा और दोनों ही चौंक पड़े।

ऊपर जिक्र आ जाने से पाठक समझ ही गये होंगे कि यह किशोरी ही है जो तकलीफ के सबब बहुत ही कमजोर और सुस्त हो रही थी। इंद्रजीतसिंह के दिल में उसकी तस्वीर मौजूद थी और इंद्रजीतसिंह उसकी आंखों में पुतली की तरह डेरा जमाये हुए थे। एक ने दूसरे को बखूबी पहचान लिया और ताज्जुब मिली हुई खुशी के सबब देर तक एक-दूसरे की सूरत देखते रहे। इसके बाद इंद्रजीतसिंह ने उसकी हथकड़ी और बेड़ी खोल डाली और बड़े प्रेम से हाथ पकड़कर कहा, ‘‘किशोरी! तू यहां कैसे आ गई!’’

किशोरी – (इंद्रजीतसिंह के पैरों पर गिरकर) अभी तक तो मैं यही सोचती थी कि मेरी बदकिस्मती मुझे यहां ले आई मगर नहीं अब मुझे कहना पड़ा कि मेरी खुशकिस्मती ने मुझे यहां पहुंचाया और ललिता ने मेरे साथ बड़ी नेकी की जो मुझे लेकर आई, नहीं तो न मालूम कब तक तुम्हारी सूरत…

इससे ज्यादे बेचारी किशोरी कुछ कह न सकी और जोर-जोर से रोने लगी। इंद्रजीतसिंह भी बराबर रो रहे थे। आखिर उन्होंने किशोरी को उठाया और दोनों हाथों से उसकी कलाई पकड़े हुए बोले –

‘‘हाय, मुझे कब उम्मीद थी कि मैं तुम्हें यहां देखूंगा। मेरी जिंदगी में आज की खुशी याद रखने लायक होगी। अफसोस, दुश्मन ने तुम्हें बड़ा ही कष्ट दिया!’’

किशोरी – बस अब मुझे किसी तरह की आरजू नहीं है। मैं ईश्वर से यही मांगती थी कि एक दिन तुम्हें अपने पास देख लूं सो मुराद आज पूरी हो गई, अब चाहे माधवी मुझे मार भी डाले तो मैं खुशी से मरने को तैयार हूं।

इंद्र – जब तक मेरे दम में दम है किसकी मजाल है जो तुम्हें दुख दे! अब तो किसी तरह इस सुरंग की ताली मेरे हाथ में लग गई जिससे हम दोनों को निश्चय समझना चाहिए कि इस कैद से छुट्टी मिल गई। अगर जिंदगी है तो मैं माधवी से समझ लूंगा, वह जाती कहां है!

इन दोनों को यकायक इस तरह के मिलाप से कितनी खुशी हुई यह ये ही जानते होंगे। दीन-दुनिया की सुध भूल गये। यह याद ही नहीं रहा कि हम कहां जाने वाले थे, कहां हैं, क्या कर रहे हैं और क्या करना चाहिए, मगर यह खुशी बहुत ही थोड़ी देर के लिए थी, क्योंकि इसी समय हाथ में मोमबत्ती लिए एक औरत उसी तरफ से आती हुई दिखाई दी जिधर इंद्रजीतसिंह जाने वाले थे और जिसको देख ये दोनों ही चौंक पड़े।

वह औरत इंद्रजीतसिंह के पास पहुंची और बदन का दाग दिखला बहुत जल्द सिद्ध कर दिया कि वह चपला है।

चपला – इंद्रजीत! हैं, तुम यहां कैसे आये!! (चारों तरफ देखकर) मालूम होता है बेचारी किशोरी को तुमने इसी जगह पाया।

इंद्र – हां इसी जगह कैद थी मगर मैं नहीं जानता था। मैं तो माधवी के हाथ से जबर्दस्ती ताली छीन इस सुरंग में चला आया और उसे चिल्लाता ही छोड़ आया।

चपला – माधवी तो अभी इसी सुरंग की राह से वहां गई थी।

इंद्र – हां और मैं दरवाजे के पास छिपा खड़ा था। जैसे ही वह ताला खोल अंदर पहुंची वैसे ही मैंने पकड़ लिया और ताली छीन इधर आ भीतर से ताला बंद कर दिया।

चपला – तुमने बहुत बुरा किया, इतनी जल्दी कर जाना मुनासिब न था। अब तुम दो रोज भी माधवी के पास नहीं गुजार सकते, क्योंकि वह बड़ी ही बदकार और चाण्डालिन की तरह बेदर्द है, अब वह तुम्हें पावे तो किसी-न-किसी तरह धोखा दे बिना जान लिए कभी न छोड़े।

इंद्र – आखिर मैं ऐसा न करता तो क्या करता उधर जिस राह से तुम आयी थीं अर्थात पानी वाली सुरंग का मुहाना मेरे देखते-देखते बिल्कुल बंद कर दिया गया जिससे मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारे आने-जाने की खबर उस शैतान की बच्ची को लग गई और तुम्हारे मिलने या किसी तरह की मदद पहुंचने की उम्मीद बिल्कुल जाती रही पर नामर्दों की तरह मैं अपने को कब तक बनाये रहता, और अब मुझे माधवी के पास लौट जाने की जरूरत ही क्या है

चपला – बेशक हम लोगों की खबर माधवी को लग गई, मगर तुम बिल्कुल नहीं जानते कि तिलोत्तमा ने कितना फसाद मचा रखा है और इस महल की तरफ कितनी मजबूती कर रखी है। तुम किसी तरह इधर से नहीं निकल सकते। अफसोस, अब हम लोग भारी खतरे में पड़ गये!

इंद्र – रात का तो समय है, लड़-भिड़कर निकल जायेंगे।

चपला – तुम दिलावर हो, तुम्हारा ऐसा खयाल करना बहुत मुनासिब है मगर (किशोरी की तरफ इशारा करके) इस बेचारी की क्या दशा होगी इसके सिवाय अब सबेरा हुआ ही चाहता है।

इंद्र – फिर क्या किया जाय

चपला – (कुछ सोचकर) क्या तुम जानते हो इस समय तिलोत्तमा कहां है

इंद्र – जहां तक मैं खयाल करता हूं इस खोह के बाहर है।

चपला – यह और मुश्किल है, वह बड़ी चालाक है, इस समय भी जरूर किसी धुन में लगी होगी, वह हम लोगों का ध्यान दम-भर के लिये भी नहीं भुलाती।

इंद्र – इस समय हमारी मदद के लिए इस महल में और भी कोई मौजूद है या अकेली तुम ही हो

चपला – देवीसिंह, भैरोसिंह और पंडित बद्रीनाथ तो महल के बाहर इधर-उधर लुके-छिपे मौजूद हैं, मगर सूरत बदले हुए कमला इस सुरंग के मुहाने पर अर्थात बाहर वाले कमरे में खड़ी है, मैं उसे अपनी हिफाजत के लिए वहां छोड़ आई हूं।

किशोरी – (चौंककर) कमला कौन

चपला – तुम्हारी सखी!

किशोरी – वह यहां कैसे आई

चपला – इसका हाल तो बहुत लंबा-चौड़ा है इस समय कहने का मौका नहीं, मुख्तसर यह है कि तुमको धोखा देने वाली ललिता को उसने पकड़ लिया और खुद तुमको छुड़ाने के लिए आई है, यहां हम लोगों से भी मुलाकात हो गई। (इंद्रजीतसिंह की तरफ देखकर) बस अब यहां ठहरकर अपने को इस सुरंग के अंदर ही फंसाकर मार डालना मुनासिब नहीं।

इंद्र – बेशक यहां ठहरना ठीक न होगा, चले चलो, जो होगा देखा जायेगा।

तीनों वहां से चल पड़े और सुरंग के दूसरे मुहाने अर्थात उस कमरे में पहुंचे जिसमें माधवी को दीवान साहब के साथ बैठे हुए इंद्रजीतसिंह ने देखा था। वहां इस समय सूरत बदले हुए कमला मौजूद थी और रोशनी बखूबी हो रही थी। इन तीनों को देखते ही कमला चौंक पड़ी और किशोरी को गले लगा लिया मगर तुरंत ही अलग होकर चपला से बोली, ‘‘सुबह की सफेदी निकल आई यह बहुत बुरा हुआ।’’

चपला – जो हो, अब कर ही क्या सकते हैं!

कमला – खैर जो होगा देखा जायेगा, जल्दी नीचे उतरो।

इस खुशनुमा और आलीशान मकान के चारों तरफ बाग था जिसके चारों तरफ चहारदीवारियां बनी हुई थीं। बाग के पूरब तरफ बहुत बड़ा फाटक था जहां बारी-बारी से बीस आदमी नंगी तलवार लिए घूम-घूमकर पहरा देते थे। चपला और कमला कमंद के सहारे बाग की पिछली दीवार लांघकर यहां पहुंची थीं और इस समय भी ये चारों उसी तरह निकल जाना चाहते थे।

हम यह कहना भूल गये कि बाग के चारों कोनों में चार गुमटियां बनी हुई थीं जिनमें सौ सिपाहियों का डेरा था और आजकल तिलोत्तमा के हुक्म से वे सभी हरदम तैयार रहते थे। तिलोत्तमा ने उन लोगों को यह भी कह रखा था कि जिस समय मैं अपने बनाये हुए बम के गोले को जमीन पर पटकूं और उसकी भारी आवाज तुम लोग सुनो, फौरन हाथ में नंगी तलवारें लिए बाग के चारों तरफ फैल जाओ, जिस आदमी को आते-जाते देखो तुरंत गिरफ्तार कर लो।

चारों आदमी सुरंग का दरवाजा खुला छोड़ नीचे उतरे और कमरे के बाहर हो बाग की पिछली दीवार की तरफ जैसे ही चले कि तिलोत्तमा पर नजर पड़ी। चपला यह खयाल करके कि अब बहुत ही बुरा हुआ, तिलोत्तमा की तरफ लपकी और उसे पकड़ना चाहा मगर वह शैतान लोमड़ी की तरह चक्कर मार निकल ही गई और एक किनारे पहुंच मसाले से भरा हुआ एक गेंद जमीन पर पटका जिसकी भारी आवाज चारों तरफ गूंज गई और उसके कहे मुताबिक सिपाहियों ने होशियार होकर चारों तरफ से बाग को घेर लिया।

तिलोत्तमा के भागकर निकल जाते ही चारों आदमी जिनके आगे-आगे हाथ में नंगी तलवार लिए इंद्रजीतसिंह थे बाग की पिछली दीवार की तरफ न जाकर सदर फाटक की तरफ लपके मगर वहां पहुंचते ही पहरे वाले सिपाहियों से रोके गये और मार-काट शुरू हो गई। इंद्रजीतसिंह ने तलवार तथा चपला और कमला ने खंजर चलाने में अच्छी बहादुरी दिखाई।

हमारे ऐयार लोग भी बाग के बाहर चारों तरफ लुके-छिपे खड़े थे, तिलोत्तमा के चलाये हुए गोले की आवाज सुनकर और किसी भारी फसाद का होना खयाल कर फाटक पर आ जुटे और खंजर निकाल माधवी के सिपाहियों पर टूट पड़े। बात की बात में माधवी के बहुत से सिपाहियों की लाशें जमीन पर दिखाई देने लगीं और बहुत बहादुरी के साथ लड़ते-भिड़ते हमारे बहादुर लोग किशोरी को लिए निकल ही गये।

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ऐयार लोग तो दौड़ने-भागने में तेज होते ही हैं, इन लोगों का भाग जाना कोई आश्चर्य न था, मगर गोद में किशोरी को उठाये इंद्रजीतसिंह उन लोगों के बराबर में कब दौड़ सकते थे और ऐयार लोग भी ऐसी अवस्था में उनका साथ कैसे छोड़ सकते थे! लाचार जैसे बना उन दोनों को भी साथ लिए हुए मैदान का रास्ता लिया। इस समय पूरब की तरफ सूर्य की लालिमा अच्छी तरह फैल चुकी थी।

माधवी के दीवान अग्निदत्त का मकान इस बाग से बहुत दूर न था और वह बड़े सबेरे उठा करता था। तिलोत्तमा के चलाये हुए गोले की आवाज उसके कान में पहुंच ही चुकी थी, बाग के दरवाजे पर लड़ाई होने की खबर भी उसे उसी समय मिल गई। वह शैतान का बच्चा बहुत ही दिलेर और लड़ाका था, फौरन ढाल-तलवार ले मकान के नीचे उतर आया और अपने यहां रहने वाले कई सिपाहियों को साथ ले बाग के दरवाजे पर पहुंचा। देखा कि बहुत से सिपाहियों की लाशें जमीन पर पड़ी हुई हैं और दुश्मन का पता नहीं है।

बाग के चारों तरफ फैले हुए सिपाही भी फाटक पर जुटे थे और गिनती में एक सौ से ज्यादे थे। अग्निदत्त ने सभी को ललकारा और साथ ले इंद्रजीतसिंह का पीछा किया। थोड़ी ही दूर उन लोगों को पा लिया और चारों तरफ से घेर मार-काट शुरू कर दी।

अग्निदत्त की निगाह किशोरी पर जा पड़ी। अब क्या पूछना था सब तरफ का खयाल छोड़ इंद्रजीतसिंह के ऊपर टूट पड़ा। बहुत से आदमियों से लड़ते हुए इंद्रजीतसिंह किशोरी को सम्हाल न सके और उसे छोड़ तलवार चलाने लग,े अग्निदत्त को मौका मिला, इंद्रजीतसिंह के हाथ से जख्मी होने पर भी उसने दम न लिया और किशोरी को गोद में उठा ले भागा। यह देख इंद्रजीतसिंह की आंखों में खून उतर आया। इतनी भीड़ को काटकर उसका पीछा तो न कर सके मगर अपने ऐयारों को ललकारकर इस तरह की लड़ाई की कि उन सौ में से आधे बेदम होकर जमीन पर गिर पड़े और बाकी अपने सरदार को चला गया देख जान बचा भाग गये। इंद्रजीतसिंह भी बहुत से जख्मों के लगने से बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। चपला और भैरोसिंह वगैरह बहुत ही बेदम हो रहे थे तो भी वे लोग बेहोश इंद्रजीतसिंह को उठा वहां से निकल गये और फिर किसी की निगाह पर न चढ़े।

बयान – 10

जख्मी इंद्रजीतसिंह को लिए हुए उनके ऐयार लोग वहां से दूर निकल गये और बेचारी किशोरी को दुष्ट अग्निदत्त उठाकर अपने घर ले गया। यह सब हाल देख तिलोत्तमा वहां से चलती बनी और बाग के अंदर कमरे में पहुंची। देखा कि सुरंग का दरवाजा खुला हुआ है और ताली भी उसी जगह जमीन पर पड़ी है। उसने ताली उठा ली और सुरंग के अंदर जा किवाड़ बंद करती हुई माधवी के पास पहुंची। माधवी की अवस्था इस समय बहुत ही खराब हो रही थी। दीवान साहब पर बिलकुल भेद खुल गया होगा यह समझ मारे डर के वह घबड़ा गई और उसे निश्चय हो गया कि अब किसी तरह कुशल नहीं है क्योंकि बहुत दिनों की लापरवाही में दीवान साहब ने तमाम रियाया और फौज को अपने कब्जे में कर लिया था। तिलोत्तमा ने वहां पहुंचते ही माधवी से कहा –

तिलो – अब क्या सोच रही है और क्यों रोती है मैंने पहले ही कहा था कि इन बखेड़ों में मत फंस, इसका नतीजा अच्छा न होगा! वीरेंद्रसिंह के ऐयार लोग बला की तरह जिसके पीछे पड़ते हैं उसका सत्यानाश कर डालते हैं, परंतु तूने मेरी बात न मानी, अब यह दिन देखने की नौबत पहुंची।

माधवी – वीरेंद्रसिंह का कोई ऐयार यहां नहीं आया, इंद्रजीतसिंह जबर्दस्ती मेरे हाथ से ताली छीनकर चले गये, मैं कुछ न कर सकी।

तिलो – आखिर तू उनका कर ही क्या सकती थी

माधवी – अब उन लोगों का क्या हाल है

तिलो – वे लोग लड़ते-भिड़ते तुम्हारे सैकड़ों आदमियों को यमलोक पहुंचाते निकल गये। किशोरी को अपने दीवान साहब उठा ले गये। जब उनके हाथ किशोरी लग गई तब उन्हें लड़ने-भिड़ने की जरूरत ही क्या थी किशोरी की सूरत देखकर तो आसमान की चिड़िया भी नीचे उतर आती है फिर दीवान साहब क्या चीज हैं अब वह दुष्ट इस धुन में होगा कि तुम्हें मार पूरी तरह से राजा बन जाये और किशोरी को रानी बनाये, तुम उसका कर ही क्या सकती हो!

माधवी – हाय, मेरे बुरे कर्मों ने मुझे मिट्टी में मिला दिया! अब मेरी किस्मत में राज्य नहीं है, अब तो मालूम होता है कि मैं भिखमंगिनों की तरह मारी-मारी फिरूंगी।

तिलो – हां अगर किसी तरह यहां से जान बचाकर निकल जाओगी तो भीख मांगकर भी जान बचा लोगी नहीं तो बस यह भी उम्मीद नहीं है।

माधवी – क्या दीवान साहब मुझसे इस तरह की बेमुरव्वती करेंगे

तिलो – अगर तुझे उन पर भरोसा है तो रह और देख कि क्या होता है, पर मैं तो अब एक पल टिकने वाली नहीं।

माधवी – अगर किशोरी उसके हाथ न पड़ गई होती तो मुझे किसी तरह की उम्मीद होती और कोई बहाना भी कर सकती थी मगर अब तो…

इतना कहकर माधवी बेतरह रोने लगी, यहां तक कि हिचकी बंध गईं और वह तिलोत्तमा के पैरों पर गिरकर बोली –

‘‘तिलोत्तमा, मैं कसम खाती हूं कि आज से तेरे हुक्म के खिलाफ कोई काम न करूंगी।’’

तिलो – अगर ऐसा है तो मैं भी कसम खाकर कहती हूं कि तुझे फिर उसी दर्जे पर पहुंचाऊंगी और वीरेंद्रसिंह के ऐयारों और दीवान साहब से भी ऐसा बदला लूंगी कि वे भी याद करेंगे।

माधवी – बेशक मैं तुम्हारा हुक्म मानूंगी और जो कहोगी सो करूंगी।

तिलो – अच्छा तो आज रात को यहां से निकल चलना और जहां तक जमा पूंजी अपने साथ चलते बने ले लेना चाहिए!

माधवी – बहुत अच्छा, मैं तैयार हूं, जब चाहो चलो, मगर यह तो कहो कि मेरी इन सखी-सहेलियों की क्या दशा होगी

तिलो – बुरों की संगत करने से जो फल सब भोगते हैं सो ये भी भोगेंगी। मैं इनका कहां तक खयाल करूंगी जब अपने पर आ बनती है तो कोई किसी की खबर नहीं लेता।

दीवान अग्निदत्त किशोरी को लेकर भागे तो सीधे अपने घर में आ घुसे। ये किशोरी की सूरत पर ऐसे मोहित हुए कि तनोबदन की सुध जाती रही। सिपाहियों ने इंद्रजीतसिंह और उनके ऐयारों को गिरफ्तार किया या नहीं अथवा उनकी बदौलत सभों की क्या दशा हुई इसकी परवाह तो उन्हें जरा न रही, असल तो यह है कि इंद्रजीतसिंह को वे पहचानते भी न थे।

बेचारी किशोरी की क्या दशा थी और वह किस तरह रो-रोकर अपने सिर के बाल नोच रही थी इसके बारे में इतना ही कहना बहुत है कि अगर दो दिन तक उसकी यही दशा रही तो किसी तरह जीती न बचेगी और ‘हा इंद्रजीतसिंह, हा इंद्रजीतसिंह’ कहते प्राण छोड़ देगी।

दीवान साहब के घर में उनकी जोरू और किशोरी ही के बराबर की एक कुंआरी लड़की थी जिसका नाम कामिनी था और वह जितनी खूबसूरत थी उतनी ही स्वभाव की भी अच्छी थी। दीवान साहब की स्त्री का भी स्वभाव और चाल-चलन अच्छा था, मगर वह बेचारी अपने पति के दुष्ट स्वभाव बुरे व्यवहारों से बराबर दुखी रहा करती थी और डर के मारे कभी किसी बात में कुछ रोक-टोक न करती, तिस पर भी आठ-दस दिन पीछे वह अग्निदत्त के हाथ से जरूर मार खाया करती।

बेचारी किशोरी को अपनी जोरू और लड़की के हवाले कर हिफाजत करने के अतिरिक्त समझाने-बुझाने की भी ताकीद कर दीवान साहब बाहर चले आये और अपने दीवानखाने में बैठ सोचने लगे कि किशोरी को किस तरह राजी करना चाहिए। यह औरत कौन और किसकी लड़की है, जिन लोगों के साथ यह थी वे लोग कौन थे, और यहां आकर धूम-फसाद मचाने की उन्हें क्या जरूरत थी चाल-ढाल और पोशाक से तो वे ऐयार मालूम पड़ते थे मगर यहां उन लोगों के आने का क्या सबब था इसी सब सोच-विचार में अग्निदत्त को आज स्नान तक करने की नौबत न आई। दिन भर इधर-उधर घूमते तथा लाशों को ठिकाने पहुंचाते और तहकीकात करते बीत गया मगर किसी तरह इस बखेड़े का ठीक पता न लगा, हां महल के पहरे वालों ने इतना कहा कि दो-तीन दिन से तिलोत्तमा हम लोगों पर सख्त ताकीद रखती थी और हुक्म दे गई थी कि ‘जब मेरे चलाये बम के गोले की आवाज तुम लोग सुनो तो फौरन मुस्तैद हो जाओ और जिसको आते देखो गिरफ्तार कर लो।’

अब दीवान साहब का शक माधवी और तिलोत्तमा के ऊपर हुआ और देर तक सोचने-विचारने के बाद उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस बखेड़े का हाल बेशक ये दोनों पहले ही से जानती थीं मगर यह भेद मुझसे छिपाये रखने का कोई विशेष कारण अवश्य है।

चिराग जलने के बाद अग्निदत्त अपने घर पहुंचा। किशोरी के पास न जाकर निराले में अपनी स्त्री को बुलाकर उसने पूछा, ‘‘उस औरत की जुबानी कुछ हाल-चाल तुम्हें मालूम हुआ या नहीं’

अग्निदत्त की स्त्री ने कहा, ‘‘हां, उसका हाल मालूम हो गया। वह महाराज शिवदत्त की लड़की है और उसका नाम किशोरी रानी है। राजा वीरेंद्रसिंह के लड़के इंद्रजीतसिंह पर माधवी मोहित हो गई थी और उनको अपने यहां किसी तरह से फंसा लाकर खोह में रख छोड़ा था। इंद्रजीतसिंह का प्रेम किशोरी पर था इसलिए उसने ललिता को भेजकर धोखा दे किशोरी को भी अपने फंदे में फंसा लिया था। वह कई दिनों से यहां कैद थी और वीरेंद्रसिंह के ऐयार लोग भी कई दिनों से इसी शहर में टिके हुए थे। किसी तरह मौका मिलने पर इंद्रजीतसिंह किशोरी को ले खोह से बाहर निकल आये और यहां तक नौबत आ पहुंची।’’

राजा वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयारों का नाम सुन मारे डर के अग्निदत्त कांप उठा, बदन के रोंगटे खड़े हो गए, घबराया हुआ बाहर निकल आया और अपने दीवानखाने में पहुंच मसनद के ऊपर गिर भूखा-प्यासा आधी रात तक यही सोचता रह गया कि अब क्या करना चाहिए।

अग्निदत्त समझ गया कि कोतवाल साहब को जरूर वीरेंद्रसिंह के ऐयारों ने पकड़ लिया है और अब किशोरी को अपने यहां रखने से किसी तरह जान न बचेगी, तिस पर भी वह किशोरी को छोड़ना नहीं चाहता था और सोचते-विचारते जब उसका जी ठिकाने आता तब यही कहता कि ‘चाहे जो हो, किशोरी को कभी न छोड़ूंगा!’

किशोरी को अपने यहां रखकर सलामत रहने की सिवाय इसके उसे कोई तरकीब न सूझी कि वह माधवी को मार डाले और स्वयं राजा हो बैठे। आखिर इसी सलाह को उसने ठीक समझा और अपने घर से निकल माधवी से मिलने के लिए महल की तरफ रवाना हुआ, मगर वहां पहुंचकर बिल्कुल बातें मामूल के खिलाफ देख और भी ताज्जुब में हो गया। उसे उम्मीद थी कि खोह का दरवाजा बंद होगा मगर नहीं, खोह का दरवाजा खुला हुआ था और माधवी की कुल सखियां जो खोह के अंदर रहती थीं, महल में ऊपर-नीचे चारों तरफ फैली हुई थीं और रोती हुई इधर-उधर माधवी को खोज रही थीं।

रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी, बाकी रात भी दीवान साहब ने माधवी की सखियों का इजहार लेने में बिता दी और दिन-रात पूरा अखंड व्रत किये रहे। देखना चाहिए इसका फल उन्हें क्या मिलता है

शुरू से लेकर माधवी के भाग जाने तक का हाल उसकी सखियों ने दीवान साहब को कह सुनाया। आखिर में कहा, ‘‘सुरंग की ताली माधवी अपने पास रखती थी इसलिए हम लोग लाचार थीं, यह सब हाल आपसे कह न सकीं।’’

अग्निदत्त दांत पीसकर रह गया। आखिर यह निश्चय किया कि कल दशहरा (विजयदशमी) है, गद्दी पर खुद बैठ राजा बन और किशोरी को रानी बना नजरें लूंगा फिर जो होगा देखा जायगा। सुबह को वह जब अपने घर पहुंचा और जैसे ही पलंग पर जाकर लेटना चाहा वैसे ही तकिए के पास एक तह किये हुए कागज पर उसकी नजर पड़ी। खोलकर देखा तो उसी की तस्वीर मालूम पड़ी, छाती पर चढ़ा हुआ एक भयानक सूरत का आदमी उसके गले पर खंजर फेर रहा था। इसे देखते ही वह चौंक पड़ा। डर और चिंता ने उसे ऐसा पटका कि बुखार चढ़ आया मगर थोड़ी ही देर में चंगा हो घर के बाहर निकल फिर तहकीकात करने लगा।

बयान – 11

हम ऊपर के बयान में सुबह का दृश्य लिखकर कह आये हैं कि राजा वीरेंद्रसिंह, कुंअर आनंदसिंह और तेजसिंह सेना सहित किसी तरफ को जा रहे हैं। पाठक तो समझ ही गये होंगे कि इन्होंने जरूर किसी तरफ चढ़ाई की है और बेशक ऐसा ही है भी। राजा वीरेंद्रसिंह ने यकायक माधवी के गयाजी पर धावा कर दिया जिसका लेना इस समय उन्होंने बहुत ही सहज समझ रखा था, क्योंकि माधवी के चाल-चलन की खबर बखूबी लग गई थी। वे जानते थे कि राजकाज पर ध्यान न दे दिन-रात ऐश में डूबे रहने वाले राजा का राज्य कितना कमजोर हो जाता है। रैयत को ऐसे राजा से कितनी नफरत हो जाती है और किसी दूसरे नेक धर्मात्मा के आ पहुंचने के लिए वे लोग कितनी मन्नतें मानते रहते हैं।

वीरेंद्रसिंह का खयाल बहुत ही ठीक था। गया पर दखल करने में उनको जरा भी तकलीफ न हुई, किसी ने उनका मुकाबला न किया। एक तो उनका चढ़ा-बढ़ा प्रताप ही ऐसा था कि कोई मुकाबला करने का साहस भी नहीं कर सकता था, दूसरे बेदिल रियाया और फौज तो चाहती ही थी कि वीरेंद्रसिंह के ऐसा कोई यहां का भी राजा हो। चाहे दिन-रात ऐश में डूबे और शराब के नशे में चूर रहने वाले मालिकों को कुछ भी खबर न हो पर बड़े जमींदारों और राजकर्मचारियों को माधवी और कुंअर इंद्रजीतसिंह के खिंचाखिंची की खबर लग चुकी थी और उन्हें मालूम हो चुका था कि आजकल वीरेंद्रसिंह के ऐयार लोग राजगृह ही में विराज रहे हैं।

राजा वीरेंद्रसिंह ने बेरोक-टोक शहर में पहुंचकर अपना दखल जमा लिया और अपने नाम की मुनादी करवा दी। वहां के दो-एक कर्मचारी जो दीवान अग्निदत्त के दोस्त और खैरख्वाह थे रंग-कुरंग देखकर भाग गये, बाकी फौजी अफसरों और रैयतों ने उनकी अमलदारी खुशी से कबूल कर ली, जिसका हाल राजा वीरेंद्रसिंह को इसी से मालूम हो गया कि उन लोगों ने दरबार में बेखौफ और हंसते हुए पहुंचकर मुबारकबाद के साथ नजरें गुजारीं।

विजयदशमी के एक दिन पहले गया का राज्य राजा वीरेंद्रसिंह के कब्जे में आ गया और विजयदशमी को अर्थात दूसरे दिन प्रातःकाल उनके लड़के आनंदसिंह को यहां की गद्दी पर बैठे हुए लोगों ने देखा तथा नजरें दीं। अपने छोटे लड़के कुंअर आनंदसिंह को गया की गद्दी दे दूसरे ही दिन राजा वीरेंद्रसिंह चुनार लौट आने वाले थे मगर उनके रवाना होने के पहले ही ऐयार लोग जख्मी और बेहोश कुंअर इंद्रजीतसिंह को लिए हुए गयाजी पहुंच गये जिन्हें देख राजा वीरेंद्रसिंह को अपना इरादा छोड़ देना पड़ा और बहुत दिनों से बिछुड़े हुए प्यारे लड़के को आज इस अवस्था में पाकर अपने तन-बदन की सुध भुला देनी पड़ी।

राजा वीरेंद्रसिंह के मौजूद होने पर भी गयाजी का बड़ा भारी राजभवन सूना हो रहा था क्योंकि उसमें रहने वाले माधवी और दीवान अग्निदत्त के रिश्तेदार लोग भाग गये थे और हुक्म के मुताबिक किसी ने भी उनको भागते समय नहीं रोका था। इस समय राजा वीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों लड़कों और ऐयारों के सिवाय सिर्फ थोड़े से ही फौजी अफसरों का डेरा इस महल में पड़ा हुआ है। ऐयारों में सिर्फ भैरोसिंह और तारासिंह यहां मौजूद हैं, बाकी के कुल ऐयार चुनार लौटा दिये गये थे। शहर के इंतजाम में सबके पहले यह किया गया कि चीठी या अरजी डालने के लिए एक बगल छेद करके दो बड़े-बड़े संदूक राजभवन के फाटक के दोनों तरफ लटका दिये गये और मुनादी करवा दी गई कि जिसको अपना सुख-दुख अर्ज करना हो दरबार में हाजिर होकर अर्ज किया करें और जो किसी कारण से हाजिर न हो सके वह अर्जी लिखकर इन्हीं संदूकों में डाल दिया करें। हुक्म था कि बारी-बारी से ये संदूक दिन-रात में छह मर्तबे कुंअर आनंदसिंह के सामने खोले जाया करें। इस इंतजाम से गयाजी की रियाया बहुत प्रसन्न थी।

रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। एक सजे हुए कमरे में, जिसमें रोशनी अच्छी तरह हो रही है, छोटी-सी खूबसूरत मसहरी पर जख्मी कुंअर इंद्रजीतसिंह लेटे हुए हलकी दुलाई गर्दन तक ओढ़े हैं। आज कई दिनों पर उन्हें होश आया है, इससे अचंभे में आकर इस नये कमरे में चारों तरफ निगाह दौड़ाकर अच्छी तरह देख रहे हैं। बगल में बायें हाथ का ढासना पलंगड़ी पर दिए हुए उनके पिता राजा वीरेंद्रसिंह बैठे उनका मुंह देख रहे हैं और कुछ पायताने की तरफ हटकर पाटी पकड़े कुंअर आनंदसिंह बैठे बड़े भाई की तरफ देख रहे हैं। पायताने की तरफ पलंगड़ी के नीचे भैरोसिंह और तारासिंह धीरे-धीरे तलवा झंस रहे हैं। कुंअर आनंदसिंह के बगल में देवीसिंह बैठे हैं। उनके अलावा वैद्य, जर्राह और बहुत से सिपाही नंगी तलवार लिए पहरा दे रहे हैं।

थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा रहा, इसके बाद कुंअर इंद्रजीतसिंह ने अपने पिता की तरफ देखकर पूछा –

इंद्र – यह कौन-सी जगह है यह किसका मकान है

वीरेंद्र – यह चंद्रदत्त की राजधानी गयाजी है। ईश्वर की कृपा से आज यह हमारे कब्जे में आ गयी है। मकान भी चंद्रदत्त ही के रहने का है। हम लोग इस शहर में अपना दखल जमा चुके थे जब तुम यहां पहुंचाये गये।

यह सुन इंद्रजीतसिंह चुप हो रहे और कुछ सोचने लगे, साथ ही इसके राजगृह में दीवान अग्निदत्त के साथ होने वाली लड़ाई का समां उनकी आंखों के आगे घूम गया और किशोरी को याद कर अफसोस करने लगे। इनके बेहोश होने के बाद क्या हुआ और किशोरी पर क्या बीती इसको जानने के लिए दिल बेचैन था मगर पिता का लिहाज कर भैरोसिंह से कुछ पूछ न सके सिर्फ ऊंची सांस लेकर रह गये मगर देवीसिंह उनके जी का भाव समझ गये और बिना पूछे ही कुछ कहने का मौका समझकर बोले, ‘‘राजगृह में लड़ाई के समय जितने आदमी आपके साथ थे ईश्वर की कृपा से सब बच गये और अपने ठिकाने पर हैं, केवल आप ही को इतना कष्ट भोगना पड़ा।’’

देवीसिंह के इतना कहने से इंद्रजीतसिंह की बेचैनी बिल्कुल ही जाती तो नहीं रही मगर कुछ कम जरूर हो गयी। इतने में दिल बहलाने का कुछ ठिकाना समझकर देवीसिंह पुनः बोल उठे –

देवी – अर्जियों वाला संदूक हाजिर है, उसके देखने का समय भी हो गया है।

इंद्र – कैसा संदूक?

आनंद – यहां महल के फाटक पर दो संदूक इसलिये रख दिए गए हैं कि जो लोग दरबार में हाजिर होकर अपना दुख-सुख न कह सकें वे लोग अर्जी लिखकर इस संदूक में डाल दिया करें।

इंद्र – बहुत मुनासिब है, इससे रैयतों के दिल का हाल अच्छी तरह मालूम हो सकता है। इस तरह के कई संदूक शहर में इधर-उधर भी रखवा देना चाहिए क्योंकि बहुत से आदमी खौफ से फाटक तक आते भी हिचकेंगे।

आनंद – बहुत खूब, कल इसका इंतजाम हो जायगा।

वीरेंद्र – हमने यहां की गद्दी पर आनंदसिंह को बैठा दिया है।

इंद्र – बड़ी खुशी की बात है, यहां का इंतजाम ये बहुत ही अच्छी तरह कर सकेंगे क्योंकि यह तीर्थ का मुकाम है और इनका पुराणों से बड़ा प्रेम है और उन्हें अच्छी तरह समझते भी हैं। (देवीसिंह की तरफ देखकर) हां साहब, वह संदूक मंगवाइये जरा दिल तो बहले।

हाथ भर का चौखूटा संदूक हाजिर किया गया और उसे खोलकर बिल्कुल अर्जियां जिनसे वह संदूक भरा था बाहर निकाली गयीं। पढ़ने से मालूम हुआ कि यहां की रियाया नये राजा की अमलदारी से बहुत प्रसन्न है और मुबारकबाद दे रही है, हां एक अर्जी उसमें ऐसी भी निकली जिसके पढ़ने से सभों को तरद्दुद ने आ घेरा और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। पाठकों की दिलचस्पी के लिए हम उस अर्जी की नकल नीचे लिखे देते हैं – ‘‘हम लोग मुद्दत से मनाते थे कि यहां की गद्दी पर हुजूर को या हुजूर के खानदान में से किसी को बैठा देखें। ईश्वर ने आज हम लोगों की आरजू पूरी की और कम्बख्त माधवी और अग्निदत्त का बुरा साया हम लोगों के सिर से हटाया। चाहे उन दोनों दुष्टों का खौफ अभी हम लोगों को बना हो, मगर फिर भी हुजूर के भरोसे पर हम लोग बिना मुबारकबाद दिए और खुशी मनाये नहीं रह सकते। वह डर इस बात का नहीं है कि यहां फिर उन दुष्टों की अमलदारी होगी तो कष्ट भोगना पड़ेगा। राम-राम, ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता, हम लोगों को यह गुमान तो स्वप्न में भी नहीं हो सकता। वह डर बिल्कुल दूसरा ही है, जो हम लोग नीचे अर्ज करते हैं। आशा है कि बहुत जल्द उससे हम लोगों की रिहाई होगी, नहीं तो महीने भर में यहां की चौथाई रियाया यमलोक में पहुंच जायगी। मगर नहीं, हुजूर के नामी और अपनी आप नजीर रखने वाले ऐयारों के हाथ से वे बेईमान हरामजादे कब बच सकते हैं जिनके डर से हम लोगों को पूरी नींद सोना नसीब नहीं होता।

कुछ दिनों से दीवान अग्निदत्त की तरफ से थोड़े बदमाश इस काम के लिए मुकर्रर कर दिए हैं कि अगर कोई आदमी अग्निदत्त के खिलाफ नजर आवे तो बेधड़क उसका सिर चोरी से रात के समय काट डालें, या दीवान साहब को जब रुपये की जरूरत हो तो जिस अमीर या जमींदार के घर में चाहे डाका डाल दें या चोरी करके कंगाल बना दें। इसकी फरियाद कहीं सुनी नहीं जाती, इसी वजह से और भी बाहरी चोरों को अपना घर भरने और हम लोगों को सताने का मौका मिलता है। हम लोगों ने अभी उन दुष्टों की सूरत नहीं देखी और नहीं जानते कि वे लोग कौन हैं, या कहां रहते हैं जिनके खौफ से दिन-रात हम लोग कांपा करते हैं।’’

इस अर्जी के नीचे कई मशहूर और नामी रईसों और जमींदारों के दस्तखत थे। यह अर्जी उसी समय देवीसिंह के हवाले कर दी गई और देवीसिंह ने वादा किया कि एक महीने के अंदर इन दुष्टों को जिंदा या मरे हुए हुजूर में हाजिर करेंगे।

इसके बाद जर्राहों ने कुंअर इंद्रजीतसिंह के जख्मों को खोला और दूसरी पट्टी बदली, कविराज ने दवा खिलाई और हुक्म पाकर सब अपने-अपने ठिकाने चले गए। देवीसिंह उसी समय विदा हो न मालूम कहां चले गए और राजा वीरेंद्रसिंह भी वहां से हटकर अपने कमरे में चले गए।

इस कमरे के दोनों तरफ छोटी-छोटी दो कोठरियां थीं। एक में संध्या-पूजा का सामान दुरुस्त था। और दूसरी में खाली फर्श पर एक मसहरी बिछी हुई थी जो उस मसहरी से कुछ छोटी थी जिस पर कुंअर इंद्रजीतसिंह आराम कर रहे थे। कोठरी से वह मसहरी बाहर निकाली गई और कुंअर आनंदसिंह के सोने के लिए कुंअर इंद्रजीतसिंह की मसहरी के पास बिछाई गई। भैरोसिंह और तारासिंह ने भी दोनों मसहरियों के नीचे अपना बिस्तर जमाया। सिवाय इन चारों के उस कमरे में और कोई न रहा। इन लोगों ने रात-भर आराम से काटी और सबेरा होने पर आंख खुलते ही विचित्र तमाशा देखा।

सुबह के पहले ही दोनों ऐयारों की आंखें खुलीं और हैरतभरी निगाहों से चारों तरफ देखने लगे, इसके बाद कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह भी जागे और फूलों की खुशबू जो इस कमरे में बहुत देर पहले से ही भर रही थी लेने तथा दोनों ऐयारों की तरह ताज्जुब से चारों तरफ देखने लगे।

आनंद – खुशबूदार फूलों के गजरे और गुलदस्ते इस कमरे में किसने सजाए हैं

इंद्र – ताज्जुब है, हमारे आदमी बिना हुक्म पाए ऐसा कब कर सकते हैं

भैरो – हम दोनों आदमी घंटे भर के पहले से उठकर इस पर गौर कर रहे हैं मगर कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला है।

आनंद – गुलदस्ते भी बहुत खूबसूरत और बेशकीमती मालूम पड़ते हैं।

तारा – (एक गुलदस्ता उठाकर ओैर पास लाकर) देखिए इस सोने के गुलदस्ते पर क्या उम्दा मीने का काम किया हुआ है! बेशक किसी बहुत बड़े शौकीन का बनवाया हुआ है, इसी ढंग के सब गुलदस्ते हैं।

भेरो – हां एक बात ताज्जुब की और भी है जो मैंने अभी तक आपसे नहीं कही।

इंद्र – वह क्या?

भैरो – (हाथ का इशारा करके) ये दोनों दरवाजे सिर्फ घुमाकर मैंने खुले छोड़ दिए थे मगर सुबह को और दरवाजों की तरह इन्हें भी बंद पाया।

तारा – (आनंदसिंह की तरफ देखकर) शायद रात को आप उठे हों

आनंद – नहीं।

इसी तरह देर तक ये लोग ताज्जुब भरी बातें करते रहे मगर अकल ने कुछ गवाही न दी कि क्या मामला है। राजा वीरेंद्रसिंह भी आ पहुंचे, उनके साथ और भी कई मुसाहिब लोग आ जमे। सभी इस आश्चर्य की बात को सुनकर सोचने और गौर करने लगे। कई बुजदिलों को भूत-प्रेत और पिशाच का ध्यान आया मगर महाराज और दोनों कुमारों के खौफ से कुछ बोल न सके, क्योंकि ये लोग ऐसे डरपोक और इस खयाल के आदमी न थे और न ऐसे आदमियों को अपने साथ रखना ही पसंद करते थे।

इन फूलों के गजरों और गुलदस्तों को किसी ने न छेड़ा और वे ज्यों-के-त्यों जहां के तहां लगे रह गये। रईसों की हाजिरी और शहर के इंतजाम में दिन बीत गया और रात को फिर कल ही की तरह दोनों भाई मसहरी पर सो रहे, दोनों ऐयार भी मसहरी के बगल में जमीन पर लेट गये, मगर आपस में मिल-जुलकर बारी-बारी से जागते रहने का विचार दोनों ने ही कर लिया था और अपने बीच में एक लंबी छड़ी इसलिए रख ली थी कि अगर रात को किसी समय कोई ऐयार कुछ देखे तो बिना मुंह से बोले लकड़ी के इशारे से दूसरे को जगा दे। इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह ने भी कह रखा था कि अगर घर में किसी को देखना तो चुपके से हमें जगा देना जिससे हम लोग भी देख लें कि कौन है और कहां से आता है।

आधी रात से कुछ ज्यादे जा चुकी है। कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह गहरी नींद में बेसुध पड़े हैं। पहरे के मुताबिक लेटे-लेटे तारासिंह दरवाजे की तरफ देख रहे हैं। यकायक पूरब तरफ वाली कोठरी में कुछ खटका हुआ। तारासिंह जरा-सा घूम गए और पड़े-पड़े ही उस कोठरी की तरफ देखने लगे। बारीक चादर पहले ही से दोनों ऐयारों के मुंह पर पड़ी हुई थी और रोशनी अच्छी तरह हो रही थी।

कोठरी का दरवाजा धीरे-धीरे खुलने लगा। तारासिंह ने लकड़ी के इशारे से भैरोसिंह को उठा दिया जो बड़ी होशियारी से घूमकर कोठरी की तरफ देखने लगे। कोठरी के दरवाजे का एक पल्ला अब अच्छी तरह खुल गया और एक निहायत हसीन और कमसिन औरत किवाड़ पर हाथ रखे खड़ी दोनों मसहरियों की तरफ देखती नजर पड़ी। भैरोसिंह और तारासिंह ने मसहरी के पांव पर हाथ का इशारा देकर दोनों भाइयों को भी जगा दिया।

इंद्रजीतसिंह का रुख तो पहले ही उस कोठरी की तरफ था मगर आनंदसिंह उस तरफ पीठ किए सो रहे थे। जब उनकी आंखें खुलीं तो अपने सामने की तरफ जहां तक देख सकते थे कुछ भी न देखा, लाचार धीरे से उनको करवट बदलनी पड़ी और तब मालूम हुआ कि इस कमरे में क्या आश्चर्य की बात दिखाई दे रही है।

अब कोठरी का दूसरा पल्ला भी खुल गया और वह हसीन औरत सिर से पैर तक अच्छी तरह इन चारों को दिखाई देने लगी क्योंकि उसके तमाम बदन पर बखूबी रोशनी पड़ रही थी। वह औरत नखशिख से ऐसी दुरुस्त थी कि उसकी तरफ चारों की टकटकी बंध गई। बेशकीमती सफेद साड़ी और जड़ाऊ जेवरों से वह बहुत ही भली मालूम हो रही थी। जेवरों में सिर्फ खुशरंग मानिक जड़ा हुआ था जिसकी सुर्खी उसके गोरे रंग पर पड़कर उसके हुस्न को हद्द से ज्यादा रौनक दे रही थी। उसकी पेशानी (माथे) पर एक दाग था जिसके देखने से विश्वास होता था कि बेशक इसने कभी तलवार या किसी हरबे की चोट खाई है। यह दो अंगुल का दाग भी उसकी खूबसूरती को बढ़ाने के लिए जेवर ही हो रहा था। उसे देख ये चारों आदमी यही सोचते होंगे कि इससे बढ़कर खूबसूरत रंभा और उर्वशी अप्सरा भी न होंगी। कुंअर इंद्रजीतसिंह तो किशोरी पर मोहित हो रहे थे, उसकी तस्वीर इनके दिल में खिंच रही थी, उन पर चाहे उसके हुस्न ने ज्यादा असर न किया हो मगर आनंदसिंह की क्या हालत हो गई यह वे ही जानते होंगे। बहुत बचाते रहने पर भी ठंडी सांसें उनसे न रुक सकीं जिससे हम भी कह सकते हैं कि उनके दिल ने उनकी ठंडी सांसों के साथ ही बाहर निकलकर कह दिया कि अब तुम्हारे कब्जे में नहीं है।

कुंअर आनंदसिंह अपने को संभाल न सके, उठ बैठे और उधर ही देखने लगे जिधर वह औरत किवाड़ का पल्ला थामे खड़ी थी। उनकी यह हालत देख तीनों आदमियों को विश्वास हो गया कि वह भाग जायगी, मगर नहीं, वह इनको उठकर बैठते देख जरा भी न हिचकी, ज्यों-की-त्यों खड़ी रही, बल्कि इनकी तरफ देख उसने जरा-सा हंस दिया, जिससे ये और भी बेचैन हो गए।

कुंअर आनंदसिंह यह सोचकर कि उस कोठरी में किसी दूसरी तरफ निकल जाने के लिए दूसरा दरवाजा नहीं है मसहरी पर से उठ खड़े हुए और उस औरत की तरफ चले। इनको अपनी तरफ आते देख वह औरत कोठरी में चली गई और फुर्ती से उसका दरवाजा भीतर से बंद कर लिया।

कुंअर इंद्रजीतसिंह की तबीयत चाहे दुरुस्त हो गई हो मगर कमजोरी अभी तक मौजूद है, बल्कि सब जख्म भी अभी तक कुछ गीले हैं, इसलिए अभी घूमने-फिरने लायक नहीं हुए। उस परीजमाल को भीतर से किवाड़ बंद कर लेते देख सब उठ खड़े हुए, कुंअर इंद्रजीतसिंह भी तकिए का सहारा लेकर बैठ गए और बोले, ‘‘इस कोठरी में किसी तरफ निकल जाने का रास्ता तो नहीं है।’’

भैरो – जी नहीं।

आनंद – (किवाड़ में धक्का देकर) इसे खोलना चाहिए।

तारा – मुश्किल तो कुछ नहीं, (इंद्रजीतसिंह की तरफ देखकर) क्या हुक्म होता है

इंद्र – जब इस कोठरी में दूसरी तरफ निकल जाने का रास्ता ही नहीं तो जल्दी क्यों करते हो

इंद्रजीतसिंह के इतना कहते ही आनंदसिंह वहां से हटे और अपने भाई के पास जाकर बैठ गए। भैरोसिंह और तारासिंह भी पास आकर बैठ गए और यों बातचीत होने लगी –

इंद्र – (भैरोसिंह और तारासिंह की तरफ देखकर) तुममें से कोई जागता भी रहा या दोनों सो गए थे

भैरो – नहीं, सो क्या जाएंगे हम लोग बारी-बारी से बराबर जागते और महीन चादर से मुंह ढांके दरवाजे की तरफ देखते रहे।

इंद्र – तो क्या इसी दरवाजे में से इस औरत को आते देखा था?

आनंद – बेशक इसी तरफ से आई होगी।

तारा – जी नहीं, यही तो ताज्जुब है कि कमरे के दरवाजे ज्यों-के-त्यों भिड़के रह गये और यकायक कोठरी का दरवाजा खुला और वह नजर आई।

इंद्र – यह तो अच्छी तरह मालूम है न कि उस कोठरी में और कोई दरवाजा नहीं है।

भेरो – जी हां, अच्छी तरह जानते हैं, और कोई दरवाजा नहीं है।

तारा – क्या कहें, कोई सुने तो यही कहे कि चुड़ैल थी!

आनंद – राम, राम! यह भी कोई बात है!

इंद्र – खैर जो हो, मेरी राय यही है कि पिताजी के आने तक कोठरी का दरवाजा न खोला जाय।

आनंद – जो हुक्म, मगर मैं तो यह चाहता था कि पिताजी के आने तक दरवाजा खोलकर सब कुछ दरियाफ्त कर लिया जाता।

इंद्र – खैर खोलो।

हुक्म पाते ही कुंअर आनंदसिंह उठ खड़े हुए, खूंटी से लटकती हुई एक भुजाली उतार ली और उस दरवाजे के पास जा एक-एक हाथ दोनों कुलाबों पर मारा जिससे कुलाबे कट गए। तारासिंह ने दोनों पल्ले उतार अलग रख दिए। भैरोसिंह ने एक बलता हुआ शमादान उठा लिया और चारों आदमी उस कोठरी के अंदर गए मगर वहां एक चूहे का बच्चा भी नजर न आया।

इस कोठरी में तीन तरफ मजबूत दीवारें थीं और एक तरफ वही दरवाजा था जिसका कुलाबा काट के ये लोग अंदर आए थे, हां, सामने की तरफ वाली अर्थात बिचली दीवार में काठ की एक अलमारी जड़ी हुई थी। इन लोगों का ध्यान उस अलमारी पर गया और सोचने लगे कि शायद यह अलमारी इस ढंग की हो जो दरवाजे का काम देती हो और इसी राह से वह औरत आई हो, मगर उन लोगों का यह खयाल भी तुरंत जाता रहा और विश्वास हो गया कि अलमारी किसी तरह दरवाजा नहीं हो सकती और न इस राह से वह औरत आई ही होगी, क्योंकि उस अलमारी में भैरोसिंह ने अपने हाथ से कुछ जरूरी असबाब रखकर ताला लगा दिया था जो अभी तक ज्यों का त्यों बंद था। यह कब हो सकता है कि कोई ताला खोलकर इस अलमारी के अंदर घुस गया हो और बाहर का ताला जैसा-का-तैसा दुरुस्त कर दिया हो! लेकिन तब फिर क्या हुआ यह औरत क्योंकर आई और किस राह से चली गई उन लोगों ने लाख सिर धुना और गौर किया मगर कुछ समझ में न आया।

ताज्जुब भरी बातों ही में रात बीत गई। सुबह को जब राजा वीरेंद्रसिंह अपने लड़के को देखने के लिए उस कमरे में आए तो जर्राह-वैद्य तथा और मुसाहिब लोग भी उनके साथ थे। वीरेंद्रसिंह ने इंद्रजीतसिंह से तबीयत का हाल पूछा। उन्होंने कहा, ‘‘अब तबीयत अच्छी है मगर एक जरूरी बात अर्ज किया चाहता हूं जिसके लिए तखलिया (एकांत) हो जाना बेहतर होगा।’’

वीरेंद्रसिंह ने भैरोसिंह की तरफ देखा। उसने तखलिया हो जाने में महाराज की रजामंदी जानकर सभी को हट जाने का इशारा किया। बात की बात में सन्नाटा हो गया और सिर्फ वही पांच आदमी उस कमरे में रह गए।

वीरेंद्र – कहो क्या बात है

इंद्र – आज रात एक अजीब बात देखने में आई।

वीरेंद्र – वह क्या?

इंद्र – (तारासिंह की तरफ देखकर) तारासिंह, तुम्हीं सब हाल कह जाओ क्योंकि उस समय तुम्हीं जागते थे, हम लोग तो पीछे जगाए गए थे।

तारा – बहुत खूब।

तारासिंह ने रात का पूरा-पूरा हाल राजा वीरेंद्रसिंह से कह सुनाया जिसे सुनकर उन्होंने बहुत ताज्जुब किया और घंटों तक गौर में डूबे रहने के बाद बोले, ‘‘खैर यह बात किसी और को न मालूम हो नहीं तो मुसाहिबों और अहलकारों में खलबली पैदा हो जायगी और सैकड़ों तरह की गप्पें उड़ने लगेंगी। देखो तो क्या होता है और कब तक पता नहीं लगता, आज हम भी इसी कमरे में सोएंगे।’’

एक दिन क्या कई दिनों तक राजा वीरेंद्रसिंह उस कमरे में सोए मगर कुछ मालूम न हुआ और न फिर कोई बात ही देखने में आई, आखिर उन्होंने हुक्म दिया कि उस कोठरी का दरवाजा नया कुलाबा लगाकर फिर उसी तरह बंद कर दिया जाय।

बयान – 12

आज पांच दिन के बाद देवीसिंह लौटकर आये हैं। जिस कमरे का हाल हम ऊपर लिख आए हैं उसी में राजा वीरेंद्रसिंह, उनके दोनों लड़के, भैरोसिंह, तारासिंह और कई सरदार लोग बैठे हैं। इंद्रजीतसिंह की तबीयत अब बहुत अच्छी है और वे चलने-फिरने लायक हो गये हैं। देवीसिंह को बहुत जल्द लौट आते देखकर सभों को विश्वास हो गया कि जिस काम पर मुस्तैद किए गए थे उसे कर चुके मगर ताज्जुब इस बात का था कि वे अकेले क्यों आये!

वीरेंद्र – कहो देवीसिंह, खुश तो हो

देवी – खुशी तो मेरी खरीदी हुई है! (और लोगों की तरफ देखकर) अच्छा अब आप लोग जाइये बहुत विलंब हो गया।

दरबारियों और खुशामदियों के चले जाने के बाद वीरेंद्रसिंह ने देवीसिंह से पूछा –

वीरेंद्र – कहो उस अर्जी में जो कुछ लिखा था सच था या झूठ?

देवी – उसमें जो कुछ लिखा था बहुत ठीक था। ईश्वर की कृपा से शीघ्र ही उन दुष्टों का पता लग गया, मगर क्या कहें ऐसी ताज्जुब की बातें देखने में आईं कि अभी तक बुद्धि चकरा रही है।

वीरेंद्र – (हंसकर) उधर तुम ताज्जुब की बातें देखो इधर हम लोग अद्भुत बातें देखें।

देवी – सो क्या?

वीरेंद्र – पहले तुम अपना हाल कह लो तो यहां का सुनो!

देवी – बहुत अच्छा, फिर सुनिए! रामशिला पहाड़ी के नीचे मैंने एक कागज अपने हाथ से लिखकर चिपका दिया जिसमें यह लिखा था –

‘‘हम खूब जानते हैं कि जो अग्निदत्त के विरुद्ध होता है उसका तुम लोग सिर काट लेते हो, जिसका घर चाहते हो लूट लेते हो। मैं डंके की चोट से कहता हूं कि अग्निदत्त का दुश्मन मुझसे बढ़कर कोई न होगा और गयाजी में मुझसे बढ़कर मालदार भी कोई नहीं है, तिस पर मजा यह है कि मैं अकेला हूं, अब देखना चाहिए तुम लोग क्या कर लेते हो’

आनंद – अच्छा तब क्या हुआ?

देवी – उन दुष्टों का पता लगाने के उपाय तो मैंने और भी कई किए थे मगर काम इसी से चला। उस राह से आने-जाने वाले सभी उस कागज को पढ़ते थे और चले जाते थे। मैं उस पहाड़ी के कुछ ऊपर जाकर पत्थर की चट्टान की आड़ में छिपा हुआ हरदम उसकी तरफ देखा करता था। एक दफे दो आदमी एक साथ वहां आये और उसे पढ़ मूंछों पर ताव देते शहर की तरफ चले गये। शाम को वे दोनों लौटे और फिर उस कागज को पढ़ सिर हिलाते बराबर की पहाड़ी की ओर चले गये। मैंने सोचा कि इनका पीछा जरूर करना चाहिए क्योंकि कागज के पढ़ने का असर सबसे ज्यादा इन्हीं दोनों पर हुआ। आखिर मैंने उनका पीछा किया और जो सोचा था वही ठीक निकला। वे लोग पंद्रह-बीस आदमी हैं और हट्टे-कट्टे और मुसण्डे हैं। उसी झुंड में मैंने एक औरत को भी देखा। अहा, ऐसी खूबसूरत औरत तो मैंने आज तक नहीं देखी। पहले मैंने सोचा कि वह इन लोगों में से किसी की लड़की होगी क्योंकि उसकी अवस्था बहुत कम थी, मगर नहीं, उनके हाव-भाव और उसकी हुकूमत भरी बातचीत से मालूम हुआ कि वह उन सभों की मालिक है, पर सच तो यह है कि मेरा जी इस बात पर भी नहीं जमता। उसकी चाल-ढाल, उसकी पोशाक और उसके जड़ाऊ कीमती गहनों पर जिसमें सिर्फ खुशरंग मानिक ही जड़े हुए थे ध्यान देने से दिल की कुछ विचित्र हालत हो जाती है।

मानिक के जड़ाऊ जेवरों का नाम सुनते ही कुंअर आनंदसिंह चौंक पड़े, इंद्रजीतसिंह और तारासिंह का भी चेहरा बदल गया और उस औरत का विशेष हाल जानने के लिए घबड़ाने लगे, क्योंकि उस रात को इन चारों ने इस कमरे में या यों कहिए कोठरी में जिस औरत की झलक देखी थी वह भी मानिक के जड़ाऊ जेवरों से ही अपने को सजाये हुए थी। आखिर आनंदसिंह से न रहा गया, देवीसिंह को बात कहते-कहते रोककर पूछा –

आनंद – उस औरत का नखशिख जरा अच्छी तरह कह जाइए।

देवी – सो क्या?

वीरेंद्र – (लड़कों की तरफ देखकर) तुम लोगों को ताज्जुब किस बात का है, तुम लोगों के चेहरे पर हैरानी क्यों छा गई है?

भैरो – जी, वह औरत भी जिसे हम लोगों ने देखा था ऐसे ही गहने पहने हुए थी जैसा चाचाजी कह रहे हैं।

वीरेंद्र – हैं

भैरो – जी हां।

देवी – तुम लोगों ने कैसी औरत देखी थी

वीरेंद्र – सो पीछे सुनना, पहले जो ये पूछते हैं उसका जवाब दे लो।

देवी – नखशिख सुन के क्या कीजियेगा, सबसे ज्यादा पक्का निशान तो यह है कि उसके ललाट में दो-ढाई अंगुल का एक आड़ा दाग है, मालूम होता है शायद उसने कभी तलवार की चोट खाई है!

आनंद – बस बस बस!

इंद्र – बेशक वही औरत है।

तारा – कोई शक नहीं कि वही है।

भैरो – अवश्य वही है!

वीरेंद्र – मगर आश्चर्य है, कहां उन दुष्टों का संग और कहां हम लोगों के साथ आपस का बर्ताव।

भैरो – हम लोग तो उसे दुश्मन नहीं समझते।

देवी – अब हम न बोलेंगे जब तक यहां का खुलासा हाल न सुन लेंगे, न मालूम आप लोग क्या कह रहे हैं

वीरेंद्र – खैर यही सही, अपने लड़के से पूछिए कि यहां क्या हुआ।

तारा – जी हां सुनिए मैं अर्ज करता हूं।

तारासिंह ने यहां का बिल्कुल हाल अच्छी तरह कहा। फूल तो फेंक दिए गए थे मगर गुलदस्ते अभी तक मौजूद थे, वे भी दिखाये। देवीसिंह हैरान थे कि यह क्या मामला है, देर तक सोचने के बाद बोले, ‘‘मुझे तो विश्वास नहीं होता कि यहां वही औरत आई होगी जिसे मैंने वहां देखा है!’’

वीरेंद्र – यह शक भी मिटा ही डालना चाहिए।

देवी – उन लोगों का जमाव वहां रोज ही होता है जहां मैं देख आया हूं, आज तारा या भैरो को अपने साथ ले चलूंगा, ये खुद ही देख लें कि वही औरत है या दूसरी।

वीरेंद्र – ठीक है, आज ऐसा ही करना, हां अब तुम अपना हाल और आगे कहो।

देवी – मुझे यह भी मालूम हुआ कि उन दुष्टों ने हमेशे के लिए अपना डेरा उसी पहाड़ी में कायम किया है और बातचीत से यह भी जान गया कि लूट और चोरी का माल भी वे लोग उसी ठिकाने कहीं रखते हैं। मैंने अभी बहुत खोज उन लोगों की नहीं की, जो कुछ मालूम हुआ था आपसे कहने के लिए चला आया। अब उन लोगों को गिरफ्तार करना कुछ मुश्किल नहीं है, हुक्म हो तो थोड़े से आदमी अपने साथ ले जाऊं और आज ही उन लोगों को उस औरत के सहित गिरफ्तार कर लाऊं।

वीरेंद्र – आज तो तुम भैरो या तारा को अपने साथ ले जाओ, फिर कल उन लोगों की गिरफ्तारी की फिक्र की जायगी।

आखिर भैरोसिंह को अपने साथ लेकर देवीसिंह बराबर के पहाड़ पर गए जो गयाजी से तीन-चार कोस की दूरी पर होगा। घूमघुमौवा और पेचीली पगडंडियों को तै करते हुए पहर रात जाते-जाते ये दोनों उस खोह के पास पहुंचे जिसमें बदमाश डाकू लोग रहते थे। उस खोह के पास ही एक और छोटी-सी गुफा थी जिसमें मुश्किल से दो आदमी बैठ सकते थे। इस गुफा में एक बारीक दरार ऐसी पड़ी हुई थी जिससे ये दोनों ऐयार उस लंबी-चौड़ी गुफा का हाल बखूबी देख सकते थे जिसमें वे डाकू लोग रहते थे। इस समय वे सब के सब वहां मौजूद भी थे, बल्कि वह औरत भी सरदारी के तौर पर छोटी-सी गद्दी लगाए वहां मौजूद थी। ये दोनों ऐयार उस दरार से उन लोगों की बातचीत तो नहीं सुन सकते थे मगर सूरत-शक्ल, भाव और इशारे अच्छी तरह देख सकते थे।

इन लोगों ने इस समय वहां पंद्रह डाकुओं को बैठे हुए पाया और उस औरत को देखकर भैरोसिंह ने पहचान लिया कि वह वही औरत है जो कुंअर इंद्रजीतसिंह के कमरे में आई थी। आज वह वैसी पोशाक या जेवरों को पहिरे हुए न थी, तो भी सूरत-शक्ल में किसी तरह का फर्क न था।

See also  गोरा अध्याय 5 | रविंद्रनाथ टैगोर

इन दोनों ऐयारों के पहुंचने के बाद दो घंटे तक वे डाकू आपस में कुछ बातचीत करते रहे, इस बीच में कई डाकुओं ने दो-तीन दफे हाथ जोड़कर उस औरत से कुछ कहा जिसके जवाब में उसने सिर हिला दिया जिससे मालूम हुआ कि मंजूर नहीं किया। इतने ही में एक दूसरी हसीन कमसिन और फुर्तीली औरत लपकती हुई वहां आ मौजूद हुई। उसके हांफने और दम फूलने से मालूम होता था कि वह बहुत दूर से दौड़ती हुई आ रही है।

उस नई आई औरत ने न मालूम उस सरदार औरत के कान में झुककर क्या कहा जिसके सुनते ही उसकी हालत बदल गई। बड़ी-बड़ी आंखें सुर्ख हो गईं, खूबसूरत चेहरा तमतमा उठा और तुरंत उस नई औरत को साथ ले उस खोह के बाहर चली गई। वे डाकू उन दोनों औरतों का मुंह देखते ही रह गये मगर कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी।

जब दो घंटे तक दोनों औरतों में से कोई न लौटी तो डाकू लोग भी उठ खड़े हुए और खोह के बाहर निकल गये। उन लोगों के इशारे और आकृति से मालूम होता था कि वे दोनों औरतों के यकायक इस तरह चले जाने से ताज्जुब कर रहे हैं। यह हालत देखकर देवीसिंह भी वहां से चल पड़े और सुबह होते-होते राजमहल में आ पहुंचे।

बयान – 13

कुंअर इंद्रजीतसिंह तो किशोरी पर जी-जान से आशिक हो चुके थे। इस बीमारी की हालत में भी उसकी याद इन्हें सता रह थी और यह जानने के लिए बेचैन हो रहे थे कि उस पर क्या बीती, वह किस अवस्था में कहां है और अब उसकी सूरत कब किस तरह देखनी नसीब होगी। जब तक वे अच्छी तरह दुरुस्त नहीं हो जाते, न तो खुद कहीं जाने के लिए हुक्म ले सकते थे और न किसी बहाने से अपने प्रेमी साथी ऐयार भैरोसिंह को ही कहीं भेज सकते थे। इस बीमारी की हालत में समय पाकर उन्होंने भैरोसिंह से सब हाल मालूम कर लिया था। यह सुनकर कि किशोरी को दीवान अग्निदत्त उठा ले गया बहुत ही परेशान थे मगर यह खबर उन्हें कुछ-कुछ ढाढ़स देती थी कि चपला, चंपा और पंडित बद्रीनाथ उसके छुड़ाने की फिक्र में लगे हुए हैं और राजा वीरेंद्रसिंह को भी यह धुन जी से लगी हुई है कि जिस तरह बने शिवदत्त की लड़की किशोरी की शादी अपने लड़के के साथ करके शिवदत्त को नीचा दिखावें और शर्मिन्दा करें।

कुंअर आनंदसिंह ने भी अब इश्क के मैदान में पैर रखा, मगर इनकी हालत अजब गोमगो में पड़ी हुई है। जब उस औरत का ध्यान आता जी बेचैन हो जाता था मगर जब देवीसिंह की बात को याद करते कि वह डाकुओं के एक गिरोह की सरदार है तो कलेजे में अजीब तरह का दर्द पैदा होता था और थोड़ी देर के लिए चित्त का भाव बदल जाता था, लेकिन साथ ही इसके सोचने लगते थे कि नहीं, अगर वह हम लोगों की दुश्मन होती तो मेरी तरफ देखकर प्रेम भाव से कभी न हंसती और फूलों के गुलदस्ते और गजरे सजाने के लिए जब उस कमरे में आई थी तो हम लोगों को नींद में गाफिल पाकर जरूर मार डालती। पर फिर हम लोगों की दुश्मन अगर नहीं है तो उन डाकुओं का साथ कैसा!

ऐसे-ऐसे सोच-विचार ने उनकी अवस्था खराब कर रखी थी। कुंअर इंद्रजीतसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह को उनके जी का पता कुछ-कुछ लग चुका था मगर जब तक उसकी इज्जत-आबरू और जात-पांत की खबर के साथ-साथ यह भी मालूम न हो जाय कि वह दोस्त है या दुश्मन, तब तक कुछ कहना-सुनना या समझाना मुनासिब नहीं समझते थे।

राजा वीरेंद्रसिंह को अब यह चिंता हुई कि जिस तरह वह औरत इस घर में आ पहुंची कहीं डाकू लोग भी आकर लड़कों को दुख न दें और फसाद न मचावें। उन्होंने पहरे वगैरह का अच्छी तरह इंतजाम किया और यह सोच कि कुंअर इंद्रजीतसिंह अभी तंदुरुस्त नहीं हुए हैं कमजोरी बनी हुई है और किसी तरह लड़भिड़ नहीं सकते, इनको अकेले छोड़ना मुनासिब नहीं, अपने सोने का इंतजाम भी उसी कमरे में किया और साथ ही एक नया तथा विचित्र तमाशा देखा।

हम ऊपर लिख आये हैं कि इस कमरे के दोनों तरफ दो कोठरियां हैं, एक में संध्या-पूजा का सामान है और दूसरी वही विचित्र कोठरी है जिसमें से वह औरत पैदा हुई थी। संध्या-पूजा वाली कोठरी में बाहर से ताला बंद कर दिया गया और दूसरी कोठरी का कुलाबा वगैरह दुरुस्त करके बिना बाहर ताला लगाये उसी तरह छोड़ दिया गया जैसे पहले था, बल्कि राजा वीरेंद्रसिंह ने उसी दरवाजे पर अपना पलंग बिछवाया और सारी रात जागते रह गए।

आधी रात बीत गई मगर कुछ देखने में न आया, तब वीरेंद्रसिंह अपने बिस्तरे पर से उठे और कमरे में इधर-उधर घूमने लगे। घंटे भर बाद उस कोठरी में से कुछ खटके की आवाज आई, वीरेंद्रसिंह ने फौरन तलवार उठा ली और तारासिंह को उठाने के लिए चले मगर खटके की आवाज पर तारासिंह पहले ही से सचेत हो गये थे, अब हाथ में खंजर ले वीरेंद्रसिंह के साथ टहलने लगे।

आधी घड़ी के बाद जंजीर खटकने की आवाज इस तरह पर हुई जिससे साफ मालूम हो गया कि किसी ने इस कोठरी का दरवाजा भीतर से बंद कर लिया। थोड़ी ही देर के बाद पैर की धमाधमी की आवाज भीतर से आने लगी, मानो चार-पांच आदमी भीतर उछल-कूद रहे हैं। वीरेंद्रसिंह कोठरी के दरवाजे के पास गये और हाथ का धक्का देकर किवाड़ खोलना चाहा मगर भीतर से बंद रहने के कारण दरवाजा न खुला, लाचार उसी जगह खड़े हो भीतर की आहट पर गौर करने लगे।

अब पैरों की धमाधमी की आवाज बढ़ने लगी और धीरे-धीरे इतनी ज्यादा हुई कि कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह भी उठे और कोठरी के पास जाकर खड़े हो गये। फिर दरवाजा खोलने की कोशिश की गई पर न खुला। भीतर जल्द-जल्द पैर उठाने और पटकने की आवाज से सभों को निश्चय हो गया कि अंदर लड़ाई हो रही है। थोड़ी ही देर के बाद तलवारों की झनझनाहट भी सुनाई देने लगी। अब भीतर लड़ाई होने से किसी तरह का शक न रहा। आनंदसिंह ने चाहा कि दरवाजे का कुलाबा तोड़ा जाय मगर वीरेंद्रसिंह की मर्जी न पाकर सब चुपचाप खड़े आहट सुनते रहे।

यकायक धमधमाहट की आवाज बढ़ी और तब सन्नाटा हो गया। घड़ी भर तक ये लोग बाहर खड़े रहे मगर कुछ मालूम न हुआ और न फिर किसी तरह की आहट या आवाज ही सुनाई दी। रात सिर्फ दो घंटे बल्कि इससे भी कम बाकी रह गई थी। पहरे वाले टहलकर अच्छी तरह से पहरा दे रहे हैं या नहीं यह देखने के लिए तारासिंह बाहर गए और सभों को अपने काम पर मुस्तैद पाकर लौट आए। इतने ही में कमरे का दरवाजा खुला और भैरोसिंह को साथ लिए देवीसिंह आते दिखाई पड़े।

ये दोनों ऐयार सलाम करने के बाद वीरेंद्रसिंह के पास बैठ गये मगर यह देखकर कि यहां अभी तक ये लोग जाग रहे हैं ताज्जुब करने लगे।

देवी – आप लोग इस समय तक जाग रहे हैं।

वीरेंद्र – हां, यहां कुछ ऐसा ही मामला हुआ जिससे निश्चिंत हो सो न सके।

देवी – सो क्या?

वीरेंद्र – खैर तुम्हें यह भी मालूम हो जायगा, पहले अपना हाल तो कहो। (भैरोसिंह की तरफ देखकर) तुमने उस औरत को पहचाना?

भैरो – जी हां, बेशक वही औरत है जो यहां आई थी, बल्कि वहां एक और औरत दिखाई दी।

वीरेंद्र – यहां से जाकर तुमने क्या किया और क्या-क्या देखा सो खुलासा कह जाओ।

भैरोसिंह ने जो कुछ देखा था कहने के बाद यहां का हाल पूछा। वीरेंद्रसिंह ने भी यहां की कुल कैफियत कह सुनाई और बोले, ‘‘हम यही राह देख रहे थे कि सबेरा हो जाये और तुम लोग भी आ जाओ तो इस कोठरी को खोलें और देखें कि क्या है, कहीं से किसी के आने-जाने का पता लगता है या नहीं।’’

कोठरी खोली गई। एक हाथ में रोशनी दूसरे में नंगी तलवार लेकर पहले देवीसिंह कोठरी के अंदर घुसे और तुरंत ही बोल उठे – ‘‘वाह-वाह, यहां तो खून-खराबा मच चुका है!’’ अब राजा वीरेंद्रसिंह, दोनों कुमार और उनके दोनों ऐयार भी कोठरी के अंदर गये और ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखने लगे।

इस कोठरी में जो फर्श बिछा हुआ था वह इस तरह से सिमट गया था जैसे कई आदमियों के बेअख्तियार उछल-कूद करने या लड़ने से इकट्ठा हो गया हो, ऊपर से वह खून से तर भी हो रहा था। चारों तरफ दीवारों पर भी खून के छींटे और लड़ती समय हाथ बहककर बैठ जाने वाली तलवारों के निशान दिखाई दे रहे थे। बीच में एक लाश पड़ी हुई थी मगर बेसिर की, कुछ समझ में नहीं आता था कि यह लाश किसकी है। कपड़ों में सिर्फ एक लंगोटा उसकी कमर में था। तमाम बदन नंगा जिसमें अंदाज से ज्यादा तेल लगा हुआ था। दाहिने हाथ में तलवार थी मगर वह हाथ भी कटा हुआ सिर्फ जरा-सा चमड़ा लगा हुआ था, वह भी इतना कम कि अगर कोई खेंचे तो अलग हो जाय। सबसे ज्यादा परेशान और बेचैन करने वाली एक चीज और दिखाई दी।

दाहिने हाथ की कटी हुई एक कलाई जिसमें फौलादी कटार अभी तक मौजूद थी, दिखाई पड़ी। आनंदसिंह ने फौररन उस हाथ को उठा लिया और सभों की निगाह भी गौर के साथ उस पर पड़ने लगी। यह कलाई किसी नाजुक, हसीन और कमसिन औरत की थी। हाथ में हीरे का जड़ाऊ कड़ा और जमीन पर मानिक की दो-तीन बारीक जड़ाऊ चूड़ियां भी मौजदू थीं, शायद कलाई कटकर गिरते समय ये चूड़ियां हाथ से अलग हो जमीन पर फैल गई हों।

इस कलाई के देखने से सभों को रंज हुआ और झट उस औरत की तरफ खयाल दौड़ गया जिसे इस कोठरी में से निकलते सभों ने देखा था। चाहे उस औरत के सबब से ये कैसे ही हैरान क्यों न हों, मगर उसकी सूरत ने सभों को अपने ऊपर मेहरबान बना लिया था, खास करके कुंअर आनंदसिंह के दिल में तो वह उनके जान और माल की मालिक ही होकर बैठ गई थी, इसलिए सबसे ज्यादे दुख छोटे कुंअर साहब को हुआ। यह सोचकर कि बेशक यह उसी औरत की कलाई है कुंअर आनंदसिंह की आंखों में जल भर आया और कलेजे में एक किस्म का दर्द पैदा हुआ, मगर इस समय कुछ कहने या अपने दिल का हाल जाहिर करने का मौका न समझ उन्होंने बड़ी कोशिश से अपने को सम्हाला और चुपचाप सभों का मुंह देखने लगे।

पाठक, अभी इस औरत के बारे में बहुत कुछ लिखना है इसलिए जब तक यह मालूम न हो जाय कि यह औरत कौन है तब तक अपने और आपके सुबीते के लिए हम इसका नाम ‘किन्नरी’ रख देते हैं।

राजा वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयारों ने इन सब अद्भुत बातों को जो इधर कई दिनों में हो चुकी थीं छिपाने के लिए बहुत कोशिश की मगर हो न सका। कई तरह पर रंग बदलकर यह बात तमाम शहर में फैल गई। कोई कहता था ‘महाराज के मकान में देव और परियों ने डेरा डाला है!’ कोई कहता था ‘गयाजी के भूत-प्रेत इन्हें सता रहे हैं!’ कोई कहता था ‘दीवान अग्निदत्त के तरफदार बदमाश और डाकुओं ने यह फसाद मचाया है!’ इत्यादि बहुत तरह की बातें शहर वाले आपस में कहने लगे मगर उस समय बातों का ढंग ही बिल्कुल बदल गया जब राजा वीरेंद्रसिंह के हुक्म से देवीसिंह ने उस सिर कटी लाश को जो कोठरी में से निकली थी उठवाकर सदर चौक में रखवा दिया और उसके पास एक मुनादी वाले को यह कहकर पुकारने के लिए बैठा दिया कि – ‘‘अग्निदत्त के तरफदार डाकू लोग जो शहर के रईसों और अमीरों को सताया करते थे ऐयारों के हाथ गिरफ्तार होकर मारे जाने लगे, आज एक डाकू मारा गया है जिसकी लाश यह है।’’

बयान – 14

सूर्य भगवान के अस्त होने में अभी घंटे भर की देर है, फिर भी मौसम के मुताबिक बाग में टहलने वाले हमारे कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह को ठंडी हवा सिहरावनदार मालूम हो रही है। रंग-बिरंगे खूबसूरत फूल खिले हुए हैं जिनको देखने में हर एक की तबीयत उमंग पर आ सकती है मगर इन दोनों के दिल की कली किसी तरह भी खिलने में नहीं आती। बाग में जितनी चीजें दिल खुश करने वाली हैं वे सभी इस समय इन दोनों को बुरी मालूम होती हैं। बहुत देर से ये दोनों भाई बाग में टहल रहे हैं मगर ऐसी नौबत न आई कि एक दूसरे से बात करे या हंसे क्योंकि दोनों के दिल चुटीले हो रहे हैं, दोनों ही अपनी-अपनी धुन में डूबे हुए हें, दोनों ही को अपने-अपने माशूक की खोज है, दोनों ही सोच रहे हैं कि ‘हाय क्या ही आनंद होता अगर इस समय वह मौजूद होता जिसे जी प्यार करता है या जिसके बिना दुनिया की संपत्ति तुच्छ मालूम होती है!’ दिल बहलाने का बहुत कुछ उद्योग किया मगर न हो सका, लाचार दोनों भाई उस बारहदरी में पहुंचे जो बाग के दक्खिन तरफ महल के साथ सटी हुई है और जहां इस समय राजा वीरेंद्रसिंह अपने मुसाहिबों के साथ जी बहलाने की बातें कर रहे थे। देवीसिंह भी उनके पास बैठे हुए थे जो कभी-न-कभी लड़कपन की बातें याद दिलाने के साथ ही गुप्त दिल्लगी भी करते जाते थे और जवाब भी पाते थे। दोनों लड़के भी वहां जा पहुंचे मगर इनके बैठते ही मजलिस का रंग बदल गया और बातों ने पलटा खाकर दूसरा ही ढंग पकड़ा जैसा कि अक्सर हंसी-दिल्लगी करते हुए बड़ों के बीच में समझदार लड़कों के आ बैठने से हो जाता है।

वीरेंद्र – अब तो चुनार जाने को जी चाहता है मगर…

देवी – यहां आपकी जरूरत भी अब क्या है?

वीरेंद्र – ठीक है, यहां मेरी जरूरत नहीं, लेकिन यहां की अद्भुत बातें देखकर विचार होता है कि मेरे चले जाने से कोई बखेड़ा न मचे और लड़कों को तकलीफ न हो।

इंद्र – (हाथ जोड़कर) इसकी चिंता आप न करें, हम लोग जब इतनी छोटी-छोटी बातों से अपने को सम्हाल न सकेंगे तो आगे क्या करेंगे!

वीरेंद्र – तो क्या तुम्हारा इरादा भी यहां रहने का है?

इंद्र – यदि आज्ञा हो!

वीरेंद्र – (कुछ सोचकर) क्यों देवीसिंह!

देवी – क्या हर्ज है, रहने दीजिए।

वीरेंद्र – और तुम।

देवी – मैं आपके साथ चलूंगा, यहां भैरो और तारा रहेंगे, वे दोनों होशियार हैं, कुछ हर्ज नहीं है!

भैरो – (हाथ जोड़कर) यहां की अद्भुत बातें हम लोगों का कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं।

तारा – (हाथ जोड़कर) सरकार की मर्जी नहीं पाई, नहीं तो ऐसी-ऐसी लीलाओं की तो मैं एक ही दिन में काया पलट कर देने की हिम्मत रखता हूं।

भैरो – अगर मर्जी हो तो इन अद्भुत बातों का आज ही निपटारा कर दिया जाय।

वीरेंद्र – (मुस्कुराकर) नहीं ऐसी कोई जरूरत नहीं, हमें तुम लोगों के हौसले पर पूरा भरोसा है। (देवीसिंह की तरफ देखकर) खैर तो आज दिन भी अच्छा है।

देवी – बहुत खूब! (एक मुसाहिब की तरफ देखकर) आप जरा तकलीफ करें।

मुसा – बहुत अच्छा, मैं जाता हूं।

कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह यही चाहते थे किसी तरह वीरेंद्रसिंह चुनार जायं क्योंकि उनके रहते ये दोनों अपने मतलब की कार्रवाई नहीं कर सकते थे। इस बात को वीरेंद्रसिंह भी समझते थे मगर इसके सिवाय भी न मालूम क्या सोचकर वे इस समय चुनार जा रहे हैं या गयाजी की सरहद छोड़कर क्या मतलब निकाला चाहते हैं।

राजा वीरेंद्रसिंह का विचार कोई जान नहीं सकता था। वे किसी से यह नहीं कह सकते कि हम दो घंटे के बाद क्या करेंगे। कोई यह नहीं कह सकता था कि महाराज आज यहां तो हैं मगर कल कहां रहेंगे, या महाराज फलाना काम क्यों और किस इरादे से कर रहे हैं। पहले दिल ही दिल में अपना इरादा मजबूत कर लेते थे, जिसे कोई बदल नहीं सकता था, मगर अपने बाप की इज्जत बहुत करते थे और उनके मुकाबले में अपने दृढ़ विचार को भी हुक्म के मुताबिक बदल देने में बुरा नहीं समझते थे, बल्कि उसे कर्तव्य और धर्म मानते थे।

दो घड़ी रात जाते-जाते वीरेंद्रसिंह ने चुनार की तरफ कूच कर दिया और देवीसिंह को साथ लेते गए। अब कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह खुदमुख्तार हो गये, मगर साथ ही इसके राजा हो गए तो क्या अपनी खुदमुख्तारी के सामने आनंदसिंह अपने बड़े भाई के हुक्म की नाकदरी नहीं कर सकते थे और यहां तो दोनों ही के इरादे दूसरे हैं जिसमें एक दूसरे का बाधक नहीं हो सकता था।

कुंअर इंद्रजीतसिंह बीमार थे इसलिए दोनों भाई एक ही कमरे में रहा करते थे, मगर अब दोनों ने अपने-अपने लिए अलग-अलग दो कमरे मुकर्रर किए। जिस कमरे में वह विचित्र कोठरी थी और जिसका हाल ऊपर लिखा गया है आनंदसिंह ने अपने लिए रखा। उससे कुछ दूर पर इंद्रजीतसिंह का दूसरा कमरा था।

बयान – 15

आधी रात से ज्यादे जा चुकी है। गयाजी में हर मुहल्ले के चौकीदार ‘जागते रहियो, होशियार रहियो’ कह-कहकर इधर से उधर घूम रहे हैं।

रात अंधेरी है, चारों तरफ अंधेरा छाया हुआ है। यहां का मुख्य स्थान विष्णु-पादुका है, उसके चारों तरफ की आबादी बहुत घनी है मगर इस समय हम गुंजान आबादी में न जाकर उस मुख्तसर आबादी की तरफ चलते हैं जो शहर के उत्तर में रामशिला पहाड़ी के नीचे आबाद है और जहां के कुल मकान कच्चे और खपड़े की छावनी के हैं। इसी आबादी में से दो आदमी स्याह कम्बल ओढ़े बाहर निकले और फलगू नदी की तरफ रवाना हुए।

रामशिला पहाड़ी से पूरब फलगू नदी के बीचोंबीच में एक बड़ा भयानक ऊंचा टीला है। उस टीले पर किसी महात्मा की समाधि है और उसी जगह पत्थर की मजबूत बनी हुई कुटी में एक साधु भी रहते हैं। उस समाधि और कुटी के चारों तरफ बेर, मकोइचे, घो इत्यादि जंगली पेड़ों से बड़ा ही गुंजान हो रहा है और वहां जमीन पर पड़ी हुई हड्डियों की यह कैफियत है कि बिना उन पर पैर रखे कोई आदमी समाधि या उस कुटी तक जा ही नहीं सकता। छोटी-बड़ी, साबुत और टूटी सैकड़ों तरह की खोपड़ियां इधर से उधर लुढ़क रही हैं। न मालूम कब और क्योंकर इतनी हड्डियां चारों तरफ जमा हो गईं। इस आबादी से निकले हुए दोनों आदमी इसी टीले की तरफ जा रहे हैं।

कोई साधारण आदमी ऐसी अंधेरी रात में उस टीले की तरफ जाने का साहस कभी नहीं कर सकता, मगर ये दोनों बिना किसी तरह की रोशनी साथ लिए अंधेरे में ही हड्डियों पर पैर रखते और कंटीली झाड़ियों में घुसते चले जा रहे हैं। आखिर ये दोनों कुटी के पास जा पहुंचे और दरवाजे पर खड़े होकर एक ने ताली बजाई।

भीतर से – कौन है?

एक : किवाड़ खोलो।

भीतर से – क्यों किवाड़ खोलें?

एक – काम है।

भीतर से – तुम लोग हमें व्यर्थ तंग करते हो।

साधु ने उठकर किवाड़ खोला और वे दोनों अंदर जाकर एक तरफ बैठ गये। भीतर धूनी के जलने से कुटी अच्छी तरह गर्म हो रही थी इसलिए उन दोनों ने कंबल उतारकर रख दिया। अब मालूम हुआ कि ये दोनों औरतें हैं और साथ ही इसके यह भी देखने में आया कि एक औरत की दाहिनी कलाई कटी है जिस पर वह कपड़ा लपेटे हुए है। एक औरत तो चुपचाप बैठी रही मगर बाबाजी से वह दूसरी औरत जिसकी कलाई कटी हुई थी यों बातचीत करने लगी –

औरत – कहिये आपने कुछ सोचा?

बाबाजी – जो काम मेरे किए हो ही नहीं सकता उसके लिए मैं क्या सोचूं।

औरत – बेशक आपके किए वह काम हो सकता है, क्योंकि वह आपको गुरु के समान मानती है।

साधु – गुरु के समान मानती है तो क्या मेरे कहने से वह अपनी जान दे देगी तुम लोग भी क्या अंधेर करती हो!

औरत – इसमें जान देने की क्या जरूरत है!

साधु – तो तुम क्या चाहती हो?

औरत – बस इतना ही कि वह उस मकान को छोड़ दे।

साधु – उस बेचारी ने किसी को दुख तो दिया नहीं, फिर उसके पीछे क्यों पड़ी हो

औरत – क्या उसने मुझे और मेरे आदमियों को धोखा नहीं दिया?

साधु – तुम अपना राज्य दूसरे को देकर आप भाग गईं अब तो वही मालिक है, इसलिए वे लोग उसी के नौकर गिने जायेंगे।

औरत – मैं अपना राज्य फिर अपने कब्जे में किया चाहती हूं।

साधु – जो तुमसे हो सके करो पर मैं किसी तरह की मदद नहीं दे सकता। तुम लड़कपन से मुझे जानती हो, तुम्हारे पिता तुमको गोद में लेकर यहां आया करते थे, कभी मैं किसी के भले-बुरे का साथी नहीं हुआ।

औरत – जो हो मगर आपको वह काम करना ही पड़ेगा जो मैं कहती हूं और याद रखिये कि अगर आप इनकार करेंगे तो इसका नतीजा अच्छा न होगा, मैं साधु और महात्मा समझकर छोड़ न दूंगी।

साधु – (कुछ देर सोचने के बाद) अच्छा आज भर तुम मुझे और मोहलत दो, कल इसी समय यहां आना।

औरत – खैर एक दिन और सही।

ये दोनों औरतें वहां से उठकर रवाना हुईं। न मालूम कब से एक आदमी कुटी के पीछे छिपा हुआ था जो इस समय नजर बचाकर उन दोनों के पीछे-पीछे तब तक चलता ही गया जब तक वे दोनों आबादी में पहुंचकर अपने मकान के अंदर न घुस गईं। जब उन दोनों औरतों ने मकान के अंदर जाकर दरवाजा बंद कर लिया जो खुला छोड़ गई थीं, तब वह आदमी वहां से लौटा और फिर उसी कुटी में पहुंचा जिसका हाल ऊपर लिख चुके हैं। कुटी का दरवाजा खुला हुआ था और साधु बेचारे उसी तरह बैठे कुछ सोच रहे थे। वह आदमी कुटी के अंदर बेधड़क चला गया और दंडवत करके एक किनारे बैठ गया।

साधु – कहिए देवीसिंहजी, आप आ गए?

देवी – (हाथ जोड़कर) जी महाराज, मैं तभी से यहां हूं जब वे दोनों यहां आई भी न थीं, अब उन दोनों को उनके घर पहुंचाकर लौटा आ रहा हूं।

साधु – हां!

देवी – जी हां, आपने बड़ी कृपा की जो उसका हाल मुझे बता दिया, कई दिनों से हम हैरान हो रहे थे। क्या कहूं आपकी आज्ञा न हुई, नहीं तो मैं इसी जगह से उन दोनों को अपने कब्जे में कर लेता।

साधु – नहीं भैया, ऐसा करने से यह हमारे गुरु की कुटिया बदनाम होती, अब तुमने उसका घर देख ही लिया है सब काम बना लोगे। वीरेंद्रसिंह बड़े प्रतापी और धर्मात्मा राजा हैं, ऐसे को कभी कोई सता नहीं सकता। देखा, इस दुष्टा माधवी ने अपने चाल-चलन को कैसा खराब किया और प्रजा को कितना दुख दिया, आखिर उसी की सजा भोग रही है! अच्छा अब ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें। वीरेंद्रसिंह से मेरा आशीर्वाद कहना। अहा, कैसा भक्त धर्मात्मा और नीति पर चलने वाला राजा है!

देवी – अच्छा तो मुझे आज्ञा है न!

साधु – हां जाओ, मगर देखो मैं तुम्हें पहले भी कह चुका हूं और अब भी कहता हूं कि माधवी को जान से मत मारना और बेचारी कामिनी पर दया करना। मैं उसे अपनी पुत्री ही मानता हूं। वीरेंद्रसिंह से कह देना कि वे कामिनी को अपनी लड़की समझें और आनंदसिंह के साथ उसका संबंध करने में कुछ सोच-विचार न करें, क्या हुआ अगर उसका बाप आपके सामने खड़ा होने लायक नहीं है।

देवी – (हाथ जोड़कर) बहुत अच्छा कह दूंगा, राजा वीरेंद्रसिंह कदापि आपकी आज्ञा न टालेंगे मगर फिर एक दफे मैं आपकी सेवा में आऊंगा।

साधु – नहीं अब मुझसे मुलाकात न होगी, मैं आज ही इस कुटी को छोड़ दूंगा। हां, ईश्वर चाहेगा तो मैं एक दिन स्वयं तुम लोगों से मिलूंगा ।

देवी – जैसी आज्ञा।

साधु – हां, बस अब जाओ, यहां मत अटको।

पाठक सोचते होंगे कि देवीसिंह तो वीरेंद्रसिंह के साथ चुनार चले गये थे, यहां कैसे आ पहुंचे! मगर नहीं, लोगों के जानने में वीरेंद्रसिंह, देवीसिंह को अपने साथ ले गये थे परंतु वास्तव में ऐसा न था। राजा वीरेंद्रसिंह की गुप्त नीति साधारण नहीं।

बयान – 16

राजा वीरेंद्रसिंह के चुनार चले जाने के बाद दोनों भाइयों को अपनी-अपनी फिक्र पैदा हुई। क्रुंअर आनंदसिंह किन्नरी की फिक्र में पड़े और कुंअर इंद्रजीतसिंह को राजगृही की फिक्र पैदा हुई। राजगृही को फतह कर लेना उनके लिए एक अदना काम था मगर इस विचार से कि किशोरी वहां फंसी हुई है, हमें सताने के लिए अग्निदत्त उसे तकलीफ न दे, धावा करने का जल्दी साहस नहीं कर सकते थे। जिस समय वह आजाद हुए अर्थात वीरेंद्रसिंह के मौजूद रहने का खयाल जाता रहा, उसी समय से किशोरी की मुहब्बत ने जोर बांधा और तरद्दुद के साथ मिली हुई बेचैनी बढ़ने लगी। आखिर अपने मित्र भैरोसिंह से बोले, ‘‘अब मैं बिना राजगृही गए नहीं रह सकता। जिस जगह हमारे देखते-देखते बेचारी किशोरी हम लोगों से छीन ली गई उस जगह अर्थात उस अमलदारी को बिना तहस-नहस किये और किशोरी को पाये मेरा जी ठिकाने न होगा और न मुझे दुनिया की कोई चीज भली मालूम होगी।

भैरो – आपका कहना ठीक है मगर आप अकेले वहां क्या करेंगे?

इंद्र – दुष्ट अग्निदत्त के लिये मैं अकेला ही बहुत हूं।

भैरो – दुष्ट अग्निदत्त के लिए आप अकेले बहुत हैं। मगर शहर भर के लिये नहीं।

इंद्र – शहर भर से मुझे कोई मतलब नहीं।

भैरो – आखिर शहर वाले उसकी तरफदारी करेंगे या नहीं!

इंद्र – इसका अंदाजा तो गयाजी पर कब्जा करने से ही तुम्हें मालूम हो गया होगा।

भैरो – ठीक है मगर अपनी तरफ से मजबूती रखना मुनासिब है।

इंद्र – अच्छा तो मैं आनंद को समझा दूंगा कि फलाने दिन एक सरदार को थोड़ी फौज देकर हमारी मदद के लिए भेज देना।

भैरो – यह हो सकता है, मगर उत्तम तो यही था कि दो-चार दिन और ठहर जाते तब तक मैं राजगृही से घूम आता।

इंद्र – नहीं अब इस किस्म की नसीहत सुनने लायक मैं नहीं रहा।

भैरो – (कुछ सोचकर) खैर जैसी आपकी मर्जी।

शाम के वक्त दोनों भाई घोड़ों पर सवार हो अपने दोनों ऐयारों और बहुत से मुसाहबों और सरदारों को साथ ले घूमने और हवा खाने के लिए महल के बाहर निकले। कायदे के मुताबिक सरदार और मुसाहब लोग अपने-अपने घोड़े उन दोनों भाइयों के घोड़ों से लगभग पच्चीस कदम पीछे लिए जाते थे, जब इंद्रजीतसिंह या आनंदसिंह घूमकर उनकी तरफ देखते तब ये लोग झट आगे बढ़ जाते और बात सुनकर पीछे हट जाते, हां दोनों ऐयार घोड़ों की रकाब थामे पैदल साथ जा रहे थे। जब ये दोनों भाई घूमने के लिए बाहर निकलते तब शहर के मर्द-औरत बल्कि छोटे-छोटे बच्चे भी इनको देखकर खुश होते थे। जिसके मुंह से सुनिये यही आवाज निकलती थी, ‘‘ईश्वर ने हम लोगों की सुन ली जो ऐसे राजकुमारों के चरण यहां आये और उस खुदगर्ज नमकहराम बेईमान का साया हमारे सिर से हटा।’’

जब घूमते हुए ये दोनों भाई शहर से बाहर हुए इंद्रजीतसिंह ने आनंदसिंह से कहा, ‘‘मैं किसी काम के लिए भैरोसिंह को साथ लेकर राजगृही जाता हूं, आज से ठीक आठवें दिन अर्थात रविवार को किसी सरदार के साथ थोड़ी-सी फौज हमारी मदद को भेज देना।’’

आनंद – (थोड़ी देर चुप रहने के बाद) जो हुक्म, मगर…

इंद्र – तुम किसी तरह की चिंता मत करो, मैं अपने को हर तरह से सम्भाले रहूंगा।

आनंद – ठीक है लेकिन…

इंद्र – गयाजी पहुंचने से ही तुम्हें मालूम हो गया होगा कि माधवी की रियाया हमारे खिलाफ न होगी।

आनंद – ईश्वर करे ऐसा ही हो, परंतु…

इंद्र – जब तक तुम्हारी फौज वहां न पहुंच जायगी हम लोगों को जो कुछ करना होगा छिपकर करेंगे।

आनंद – ऐसा करने पर भी…

इंद्र – खैर जो कुछ तुम्हें कहना हो साफ-साफ कहो!

आनंद – आपका अकेले जाना मुनासिब नहीं, दुश्मन के घर में जाकर अपने को सम्हाले रहना भी कठिन है, राजा की मौजूदगी में रियाया को हर तरह उसका डर बना ही रहता है, आप दुश्मन के घर में किसी तरह निश्चिंत नहीं रह सकते और आपके इस तरह चले जाने के बाद मेरा जी यहां कभी नहीं लग सकता।

राजगृही जाने पर कुंअर इंद्रजीतसिंह कैसे ही मुस्तैद क्यों न हों लेकिन छोटे भाई की आखिरी बात ने उन्हें हर तरह से मजबूर कर दिया। कुंअर इंद्रजीतसिंह बड़े ही समझदार और बुद्धिमान थे, मगर मुहब्बत का भूत जब किसी के सिर पर सवार होता है तो वह पहले उसकी बुद्धि की ही मिट्टी पलीद करता है।

छोटे भाई की बात सुन इंद्रजीतसिंह ने भैरोसिंह की तरफ देखा।

भैरो – मैं भी यही चाहता था कि आप दो-चार रोज यहीं और सब्र करें और तब तक मुझे राजगृही से घूम आने दें।

आनंद – (भैरोसिंह की तरफ देखकर) वादा कर जाओ कि तुम कब लौटोगे?

भैरो – चार दिन के अंदर ही मैं यहां पहुंच जाऊंगा।

आनंद – (भैरो की तरफ देखकर इंद्रजीतसिंह से) यदि आज्ञा हो जाय तो ये इधर ही से चले जायें, घर जाने की जरूरत ही क्या?

भैरो – मैं तैयार हूं।

इंद्र – घर जाकर अपना सामान तो इन्हें दुरुस्त करना ही होगा, हां, मुझसे चाहे इसी समय विदा हो जायें।

बयान – 17

भैरोसिंह को राजगृही गये आज तीसरा दिन है। यहां का हाल-चाल अभी तक कुछ मालूम नहीं हुआ, इसी सोच में आधी रात के समय अपने कमरे में पलंग पर लेटे हुए कुंअर इंद्रजीतसिंह को नींद नहीं आ रही है। किशोरी की खयाली तस्वीर उनकी आंखों के सामने आ-आकर गायब हो जाती है। इससे उन्हें और भी दुख होता है, घबराकर लंबी सांस ले उठ बैठते हैं। कभी भी जब बेचैनी बहुत बढ़ जाती है तो पलंग को छोड़ कमरे में टहलने लगते हैं।

इसी हालत में इंद्रजीतसिंह कमरे के अंदर टहल रहे थे, इतने में पहरे के एक सिपाही ने अंदर की तरफ झांककर देखा और इनको टहलते देख हट गया, थोड़ी देर बाद वह दरवाजे के पास इस उम्मीद में आकर खड़ा हो गया कि कुमार उसकी तरफ देखकर पूछें तो वह कुछ कहे मगर कुमार तो अपने ध्यान में डूबे हुए हैं, उन्हें खबर ही क्या है कि कोई उनकी तरफ झांक रहा है या इस उम्मीद में खड़ा है कि वे उसकी तरफ देखें और कुछ पूछें। आखिर उस सिपाही ने जान-बूझकर किवाड़ का एक पल्ला इस ढंग से खोला कि कुछ आवाज हुई, साथ ही कुमार ने घूमकर उसकी तरफ देखा और इशारे से पूछा कि क्या है।

राजा सुरेंद्रसिंह, वीरेंद्रसिंह, इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह का बराबर ये हुक्म था कि मौका न होने पर चाहे किसी की इत्तिला न की जाय मगर जब कोई ऐयार आवे और कहे कि मैं ऐयार हूं और इसी समय मिलना चाहता हूं तो चाहे कैसा ही बेमौका क्यों न हो हम तक उसकी इत्तिला जरूर पहुंचनी चाहिए। अपने घर के ऐयारों के लिए तो कोई रोक-टोक थी नहीं, चाहे वह कुसमय में भी महल में घुस जाय या जहां चाहे वहां पहुंचे, महल में उनकी खातिर और उनका लिहाज ठीक उतना ही किया जाता था, जितना पंद्रह वर्ष के लड़के का किया जाता और इसी का ठीक नमूना ऐयार लोग दिखलाते थे।

सिपाही ने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘एक ऐयार हाजिर हुआ है और इसी समय कुछ अर्ज किया चाहता है!’’ कुमार ने कहा, ‘‘रोशनी तेज कर दो और उसे अभी यहां लाओ।’’ थोड़ी देर बाद चुस्त स्याह मखमल की पोशाक पहिरे कमर में खंजर लटकाये, हाथ में कमंद लिए एक खूबसूरत लड़का कमरे में आ मौजूद हुआ।

इंद्रजीतसिंह ने गौर से उसकी ओर देखा, साथ ही उनके चेहरे की रंगत बदल गई, जो अभी उदास मालूम होता था खुशी से दमकता हुआ दिखाई देने लगा।

इंद्र – मैं तुम्हें पहचान गया।

लड़का – क्यों न पहचानेंगे जबकि आपके यहां एक से एक बढ़कर ऐयार हैं और दिन-रात उनका संग है, मगर इस समय मैंने भी अपनी सूरत अच्छी तरह नहीं बदली है।

इंद्र – कमला, पहले यह कहो कि किशोरी कहां और किस हालत में हैं, और उन्हें अग्निदत्त के हाथ से छुट्टी मिली या नहीं।

कमला – अग्निदत्त को अब उनकी कोई खबर नहीं है।

इंद्र – इधर आओ और हमारे पास बैठो, खुलासा कहो कि क्या हुआ, मैं तो इस लायक नहीं कि अपना मुंह उन्हें दिखाऊं क्योंकि मेरे किए कुछ भी न हो सका।

कमला – (बैठकर) आप ऐसा खयाल न करें, आपने बहुत कुछ किया, अपनी जान देने को तैयार हो गये और महीनों दुख झेला। अपने ऐयार लोग अभी तक राजगृही में इस मुस्तैदी से काम कर रहे हैं कि अगर उन्हें यह मालूम हो जाता कि किशोरी वहां नहीं है तो उस राज्य का नाम-निशान मिटा देते।

इंद्र – मैंने भी यही सोच के उस तरफ जोर नहीं दिया कि कहीं अग्निदत्त के हाथ पड़ी हुई बेचारी किशोरी पर कुछ आफत न आवे, हां तो अब किशोरी वहां नहीं है।

कमला – नहीं!

इंद्र – कहां हैं और किसके कब्जे में हैं?

कमला – इस समय वह खुदमुख्तार हैं, सिवाय लज्जा के उन्हें और किसी का डर नहीं।

इंद्र – जल्द बताओ वह कहां हैं मेरा जी घबड़ा रहा है।

कमला – वह इसी शहर में हैं मगर अभी आपसे मिलना नहीं चाहतीं।

इंद्र – (आंखों में आंसू भरकर) बस तो मुझे मालूम हो गया कि उन्हें मेरी तरफ से रंज है, मेरे किए कुछ न हो सका इसका उन्हें दुख है।

कमला – नहीं-नहीं, ऐसा भूल के भी न सोचिए।

इंद्र – तो फिर मैं उनसे क्यों नहीं मिल सकता?

कमला – (कुछ सोचकर) मिल क्यों नहीं सकते, मगर इस समय…

इंद्र – क्या तुमको मुझ पर दया नहीं आती! अफसोस, तुम बिल्कुल नहीं जानतीं कि तुम्हारी बातें सुनकर इस समय मेरी दशा कैसी हो रही है। जब तुम खुद कह रही हो कि वह स्वतंत्र हैं, किसी के दबाव में नहीं हैं और इसी शहर में हैं तो मुझसे न मिलने का कारण ही क्या है बस यही न कि मैं उस लायक नहीं समझा जाता।

कमला – फिर आप उसी खयाल को मजबूत करते हैं! खैर तो फिर चलिए मैं आपको ले चलती हूं, जो होगा देखा जायेगा, मगर अपने साथ किसी ऐयार को लेते चलिए। भैरोसिंह तो यहां हैं नहीं, आपने उन्हें राजगृही भेज दिया है।

इंद्र – क्या हर्ज है तारासिंह को साथ लिए चलता हूं, मगर भैरोसिंह के जाने की खबर तुम्हें क्योंकर मिली?

कमला – मैं बखूबी जानती हूं, बल्कि उनसे मिलकर मैंने कह भी दिया है कि किशोरी राजगृही में नहीं है तुम बेखौफ अपना काम करना।

इंद्र – अगर तुमने उससे ऐसा कह दिया है तो राजगृही में बड़ा ही बखेड़ा मचावेगा!

कमला – मचाना ही चाहिए।

कुंअर इंद्रजीतसिंह ने उसी समय तारासिंह को बुलाया और उन्हें साथ ले कपड़े पहन कमला के साथ किशोरी से मिलने की खुशी में लंबे-लंबे कदम बढ़ाते रवाना हुए।

शहर ही शहर बहुत-सी गलियों में घुमाती हुई इन दोनों को साथ लिए कमला बहुत दूर चली गई और विष्णु पादुका मंदिर के पास ही एक मकान के मोड़ पर पहुंचकर खड़ी हो गई।

इंद्र – क्यों क्या हुआ रुक क्यों गईं?

कमला – इस मकान के दरवाजे के सामने ही एक भारी जमींदार की बैठक है। वहां दिन-रात पहरा पड़ता है। इधर से आप लोगों का जाना और यह जाहिर करना कि आज इस मकान में दो आदमी नये घुसे हैं मुनासिब नहीं।

तारा – तो फिर क्या करना चाहिए।

कमला – मैं दरवाजे की राह से जाती हूं। आप लोग पीछे की तरफ जाइये और कमंद लगाकर मकान के अंदर पहुंचिये।

इंद्र – क्या हर्ज है, ऐसा ही होगा, तुम दरवाजे की राह से जाओ।

कमला – मगर एक बात और सुन लीजिए। जब मैं इस मकान में पहुंचकर छत पर से झांकू तभी आप कमंद फेंकिए, क्योंकि बिना मेरी मदद के कमंद अड़ न सकेगी।

बयान – 18

मकान के अंदर कमला, इंद्रजीतसिंह और तारासिंह के पहुंचने के पहले ही हम अपने पाठकों को इस मकान में ले चलकर यहां की कैफियत दिखाते हैं।

इस मकान के अंदर छोटी-छोटी न मालूम कितनी कोठरियां हैं पर हमें उनसे कोई मतलब नहीं, हम तो उस दालान के पास जाकर खड़े होते हैं जिसके दोनों तरफ दो कोठरियां और सामने लंबा-चौड़ा सहन है। इस दालान में किसी तरह की कोई सजावट नहीं, सिर्फ एक दरी बिछी हुई है और खूंटियों पर कुछ कपड़े लटक रहे हैं। आधी रात का समय होने पर भी दालान में चिराग की रोशनी नहीं है। यह दालान ऊपर के दर्जे में है, इसके ऊपर कोई इमारत नहीं। सामने का सहन बिल्कुल खुला हुआ है, चंद्रमा की फैली हुई सफेद चांदनी सहन से घुसती हुई धीरे-धीरे दालान में आ रही है, जिसकी रोशनी उस दालान की हर चीज को दिखलाने के लिए काफी है। एक तरफ की कोठरी तो बंद है मगर दूसरी बगल वाली कोठरी का दरवाजा खुला हुआ है। यह कोठरी बहुत बड़ी नहीं है और इसके भीतर सफेद फर्श पर दो औरतें बैठी हुई धीरे-धीरे कुछ बातें कर रही हैं।

हमारे पाठक इन दोनों को बखूबी पहचानते हैं इनमें से एक तो किशोरी और दूसरी वही किन्नरी है जिस पर कुंअर आनंदसिंह रीझे हुए हैं, जो कई दफे आनंदसिंह के कमरे में कोठरी के अंदर से निकल अपने चितवनों से उन्हें घायल कर चुकी है और साथ-साथ आप भी आशिक हो चुकी है।

किशोरी – बहिन, तुमने जो कुछ नेकी मेरे साथ की है उसे मैं किसी तरह भूल नहीं सकती। मुझसे यह कभी न होगा कि तुम्हें ऐसी हालत में छोड़ इंद्रजीतसिंह के पास चली जाऊं।

किन्नरी – फिर क्या किया जाय, किस तरह उम्मीद हो कि मुझे कोई पूछेगा।

किशोरी – कमला ने मुझसे कसम खाकर कहा है कि आनंदसिंह किन्नरी की चाह में डूबे हैं। इसे भी जाने दो, आखिर तुम्हारा अहसान कुछ उनके ऊपर है या नहीं इतने बदमाशों को जो वहां फसाद मचा रहे थे सिवाय तुम्हारे कौन मार सकता था!

किन्नरी – खैर जो होगा देखा जायेगा, अब तो यह सोचना चाहिए कि हम लोग कहां जायं और क्या करें?

किशोरी – कमला आ जाय तो उससे राय मिलाकर जो मुनासिब मालूम हो किया जाय। ओह, यहां बैठे-बैठे जी घबड़ा गया, चलो बाहर चलें, चांदनी खूब निकली हुई है।

दोनों औरतें कोठरी के बाहर निकलीं और सहन में आकर टहलने लगीं। मौसम के मुताबिक कुछ सर्दी पड़ रही थी इसलिए दोनों ज्यादे देर तक सहन में टहल न सकीं, दालान में आकर दरी पर बैठ गईं और बातचीत करने लगीं।

इस मकान के बगल में एक छोटा-सा नजरबाग था मगर उसकी हालत ऐसी खराब हो रही थी कि उसे नजरबाग की जगह खंडहर या जंगल ही कहना मुनासिब है। नजरबाग में जाने के लिए इस मकान में एक रास्ता था, बाकी चारों तरफ उसके ऊंची-ऊंची दीवारें थीं, इस मकान में बिना भीतर वाले की मदद के कोई कमंद लगाकर चढ़ नहीं सकता था क्योंकि इसकी ऊपर की दीवारें इस खूबी से बनी हुई थीं कि किसी तरह कमंद अड़ नहीं सकती थी। हां अगर कोई चाहे तो कमंद के जरिए उस नजरबाग में जरूर जा सकता था, मगर इस मकान में आने के लिए वहां से भी वही दिक्कत होती।

थोड़ी देर किन्नरी और किशोरी बातें करती रहीं, इसके बाद नीचे से किवाड़ खटखटाने की आवाज आई। किशोरी ने कहा, ‘‘लो बहिन कमला भी आ पहुंची।’’

किन्नरी – खटखटाने की आवाज से तो मालूम होता है कि कमला ही है, मगर तो भी खिड़की से झांककर मामूली सवाल कर लेना मुनासिब है।

किशोरी – ऐसा जरूर करना चाहिए क्योंकि हम लोगों को धोखा देने के लिए दुश्मन लोग पचासों रंग लाया करते हैं।

‘‘तुम ठहरो मैं कुछ पूछती हूं!’’ इतना कहकर किशोरी ने दरवाजे की तरफ वाली खिड़की में से झांककर पूछा, ‘‘गिनती पूरी हुई’ इसके जवाब में किसी ने कहा, ‘‘हां पचासी तक।’’

किशोरी – अच्छा मैं नीचे आकर दरवाजा खोलती हूं।

दरवाजा खोलने के लिए खुशी-खुशी किशोरी नीचे उतरी मगर चौखट के पास पहुंचने के पहले ही नीचे के अंधेरे दालान में एक मोटे और कद्दावर आदमी को खड़ा देख डर के मारे चिल्ला उठी तथा उस समय तो एक चीख मारकर बिल्कुल ही बेहोश हो गई जब वह शैतान इस बेचारी की तरफ झपटा और हाथ तथा कमर पकड़कर बेदर्दी के साथ एक तरफ खींच ले गया।

किशोरी के चिल्लाने की आवाज सुनते ही हाथ में नंगी तलवार लिए किन्नरी बड़बड़ाती हुई नीचे पहुंची मगर चारों तरफ घूम-घूमकर देखने पर भी उसने किसी को न पाया बल्कि किशोरी का भी पता न लगा।

किन्नरी दरवाजा तो खोलना भूल गई और किशोरी को न पाने से घबड़ाकर इधर-उधर ढूंढ़ने लगी। उस भयानक अंधेरे में दालान और कोठरियों में घूमती हुई किन्नरी को इस बात का जरा भी खौफ न मालूम हुआ कि किशोरी की तरह कहीं मुझ पर आफत न आ जाय।

बेचारी किशोरी चीख मारकर बेहोश हो गई मगर जब वह होश में आई तो उसने अपने को मौत के पंजे में गिरफ्तार पाया। उसने देखा कि झाड़ियों के बीच में जबर्दस्ती जमीन पर गिराई हुई है, एक आदमी नकाब से अपनी सूरत छिपाये उसकी छाती पर सवार है और खंजर उसके कलेजे के पार किया ही चाहता है।

(दूसरा भाग समाप्त)

चंद्रकांता संतति – Chandrakanta Santati

चंद्रकांता संतति लोक विश्रुत साहित्यकार बाबू देवकीनंदन खत्री का विश्वप्रसिद्ध ऐय्यारी उपन्यास है।

बाबू देवकीनंदन खत्री जी ने पहले चन्द्रकान्ता लिखा फिर उसकी लोकप्रियता और सफलता को देख कर उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाया और ‘चन्द्रकान्ता संतति’ की रचना की। हिन्दी के प्रचार प्रसार में यह उपन्यास मील का पत्थर है। कहते हैं कि लाखों लोगों ने चन्द्रकान्ता संतति को पढ़ने के लिए ही हिन्दी सीखी। घटना प्रधान, तिलिस्म, जादूगरी, रहस्यलोक, एय्यारी की पृष्ठभूमि वाला हिन्दी का यह उपन्यास आज भी लोकप्रियता के शीर्ष पर है।

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चंद्रकांता संतति दूसरा भाग – Chandrakanta Santati Dusra Bhag

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Further Reading:

  1. चंद्रकांता संतति पहला भाग
  2. चंद्रकांता संतति दूसरा भाग
  3. चंद्रकांता संतति तीसरा भाग
  4. चंद्रकांता संतति चौथा भाग
  5. चंद्रकांता संतति पाँचवाँ भाग
  6. चंद्रकांता संतति छठवां भाग
  7. चंद्रकांता संतति सातवाँ भाग
  8. चंद्रकांता संतति आठवाँ भाग
  9. चंद्रकांता संतति नौवां भाग
  10. चंद्रकांता संतति दसवां भाग
  11. चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग
  12. चंद्रकांता संतति बारहवां भाग
  13. चंद्रकांता संतति तेरहवां भाग
  14. चंद्रकांता संतति चौदहवां भाग
  15. चंद्रकांता संतति पन्द्रहवां भाग
  16. चंद्रकांता संतति सोलहवां भाग
  17. चंद्रकांता संतति सत्रहवां भाग
  18. चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग
  19. चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग
  20. चंद्रकांता संतति बीसवां भाग
  21. चंद्रकांता संतति इक्कीसवां भाग
  22. चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग
  23. चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग
  24. चंद्रकांता संतति चौबीसवां भाग

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