चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग
चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग

चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग – Chandrakanta Santati Atharhava Bhag

चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग

बयान – 1

कह सकते हैं कि तारासिंह के हाथ में नानक का मुकद्दमा दे ही दिया गया। राजा वीरेन्द्रसिंह ने तारासिंह को इस काम पर मुकर्रर किया था कि वह नानक के घर जाय और उसकी चाल-चलन तथा उसके घर के सच्चे-सच्चे हाल की तहकीकात करके लौट आवे मगर इसके पहिले कि तारासिंह नानक की चाल-चलन और उसकी नीयत का हाल जाने, उसने नानक के घर ही की तहकीकात शुरू कर दी और उसकी स्त्री का भेद जानने के लिए उद्योग किया। जब नानक की स्त्री सहज ही में तारासिंह के पास आ गई तो उसे उसकी बदचलनी का विश्वास हो गया और उसने चाहा कि किसी तरह नानक की स्त्री को टाल दे और इसके बाद नानक की नीयत का अन्दाजा करे मगर उसकी कार्रवाई में उस समय विघ्न पड़ गया जब नानक की स्त्री तारासिंह के सामने जा बैठी और उसी समय बाहर से किसी के चिल्लाने की आवाज आई।

हम कह चुके हैं कि नानक के यहां एक मजदूरनी थी। वह नानक के काम की चाहे न थी मगर उसकी स्त्री के लिए उपयुक्त पात्र थी और उसके द्वारा नानक की स्त्री का सब काम चलता था। मगर इस तारासिंह वाले मामले में नानक की स्त्री श्यामा की बातचीज हनुमान छोकरे की मारफत हुई थी इसलिए बीच वाले मुनाफे की रकम में उस मजदूरनी के हाथ झंझी कौड़ी भी न लगी थी जिसका उसे बहुत रंज हुआ और वह दोस्ती के बदले में दुश्मनी करने पर उतारू हो गई। इसलिए कि श्यामारानी को उससे किसी तरह का पर्दा तो था ही नहीं, उसने मजदूरनी से अपना भेद तो सब कह दिया मगर उसने हानि-लाभ पर ध्यान न दिया। इसलिए वह मजदूरनी चुपचाप सब कार्रवाई देखती-सुनती और समझती रही मगर जब श्यामारानी तारासिंह के यहां चली गई और कुछ देर बाद नानक घर में आया तो उसने अपना नाम प्रकट न करने का वादा कराके सब हाल नानक से कह दिया और तारासिंह का मकान दिखा देने के लिए भी तैयार हो गई क्योंकि उसे पता-ठिकाना तो मालूम हो ही चुका था।

नानक ने जब सुना कि उसकी स्त्री किसी परदेशी के घर गई है, तब उसे बड़ा ही क्रोध आया और उसने ऐयारी के सामान से लैस होकर अकेले ही अपनी स्त्री का पीछा किया।

नानक ने यद्यपि किसी कारण से लोकलाज को तिलांजलि दे दी थी मगर ऐयारी को नहीं। उसे अपनी ऐयारी पर बहुत भरोसा था और वह दस-पांच आदमियों में अकेला घुसकर लड़ने की हिम्मत भी रखता था। यही सबब था कि उसने किसी संगी-साथी का खयाल न करके अकेले ही श्यामारानी का पीछा किया, हां यदि उसे यह मालूम होता कि श्यामारानी का उपपति तारासिंह है तो कदापि अकेला न जाता।

नानक औरत के वेश में घर से बाहर निकला और जब उस मकान के पास पहुंचा जिसमें तारासिंह ने डेरा डाला था, तो कमन्द लगाकर मकान के ऊपर चढ़ गया और धीरे-धीरे उस कोठरी के पास जा पहुंचा जिसके अन्दर तारासिंह और श्यामारानी थी और बाहर तारासिंह का चेला और नानक का नौकर हनुमान हिफाजत कर रहा था। वहां पहुंचते ही उसने एक लात अपने नौकर की कमर में ऐसी जमाई कि वह तिलमिला गया और जब वह चिल्लाया तो उसे चिढ़ाने की नीयत से स्वयं नानक भी औरतों ही की तरह चिल्ला उठा।

यही वह चिल्लाने की आवाज थी जिसे कोठरी के अन्दर बैठे हुए तारासिंह और श्यामा ने सुना था। चिल्लाने की आवाज सुनते ही तारासिंह उठ खड़ा हुआ और हाथ में खंजर लिए कोठरी के बाहर निकला। वहां अपने चेले और हनुमान के अतिरिक्त एक औरत को खड़ा देख वह ताज्जुब करने लगा और उसने औरत अर्थात् नानक से पूछा, ”तू कौन है?’

नानक – पहिले तू ही बता कि तू कौन है जिसमें तुझे मार डालने के बाद यह तो मालूम रहे कि मैंने फलाने को मारा था।

तारा – तेरी ढिठाई पर मुझे ताज्जुब ही नहीं होता बल्कि यह तो मालूम होता है कि तू औरत नहीं कोई ऐयार है!

नानक – (गम्भीरता के साथ) बेशक मैं ऐयार हूं तभी तो अकेले तेरे घर में घुस आया हूं। शैतान, तू नहीं जानता कि बुरे कर्मों का फल क्योंकर मिलता है। और वह कितना बड़ा ऐयार है जिसकी स्त्री को तूने धोखा देकर बुला लिया है!

तारा – (जोर से हंसकर) अ ह ह ह! अब मुझे विश्वास हो गया कि बेहया नानक तू ही है और शायद अपनी पतिव्रता की आमदनी गिनने के लिए यहां आ पहुंचा है। अच्छा तो अब तुझे यह भी जान लेना चाहिए कि जिसका तू मुकाबला कर रहा है उसका नाम तारासिंह है और वह राजा वीरेन्द्रसिंह की आज्ञानुसार तेरी चाल-चलन की तहकीकात करने आया है।

तारासिंह और राजा वीरेन्द्रसिंह का नाम सुनते ही नानक सन्न हो गया। उधर उसकी स्त्री ने जब यह जाना की इस कोठरी के बाहर उसका पति खड़ा है तो वह नखरे से रोने-पीटने लगी तथा यह कहती हुई कोठरी के बाहर निकलकर नानक के पैरों में गिर पड़ी कि मुझे तुम्हारा नाम लेकर हनुमान यहां ले आया है।

नानक थोड़ी देर तक सन्नाटे में रहा, इसके बाद तारासिंह की तरफ देखके बोला –

नानक – क्यों ऐयारों का यही धर्म है कि दूसरों की औरतों को खराब करें और बदकारी का धब्बा अपने नाम के साथ लगावें।

तारा – नहीं-नहीं, ऐयारों का यह काम नहीं है, और ऐयारों को यह भी उचित नहीं है कि सब तरफ का खयाल छोड़ केवल औरतों की कमाई पर गुजारा करें। मैंने तेरी औरत को किसी बुरी नीयत से नहीं बुलाया बल्कि चाल-चलन का हाल जानने के लिए ऐसा किया है। जो बातें तेरे बारे में सुनी हैं और जो कुछ यहां आने पर मैंने मालूम कीं उनसे जाना जाता है कि तू बड़ा ही कमीना और नमकहराम है। नमकहराम इसलिए कि मालिक के काम की तुझे कुछ भी फिक्र नहीं है और इसका सबूत केवल मनोरमा ही बहुत है जिसके साथ तू शादी किया चाहता था और जिसने जूतियों से तेरी पूजा ही नहीं की बल्कि तिलिस्मी खंजर भी तुझसे ले लिया।

नानक – यह कोई आवश्यक नहीं है कि ऐयारों का काम सदैव पूरा ही उतरा करे, कभी धोखा खाने में न आवे! यदि मनोरमा की ऐयारी मुझ पर चल गई तो इसके बदले में कमीना और नमकहराम कहे जाने लायक मैं नहीं हो सकता। क्या तुमने और तुम्हारे बाप ने कभी धोखा नहीं खाया और मेरी स्त्री को जो तुम बदनाम कर रहे हो वह तुम्हारी भूल है। वह तो खुद कह रही है कि ‘मुझे तो तुम्हारा नाम लेकर हनुमान यहां ले आया है।’ मेरी स्त्री बदकार नहीं है बल्कि वह साध्वी और सती है, असल में बदमाश तू है जो इस तरह धोखा देकर पराई स्त्री को अपने घर में बुलाता है और मुझे यहां पर अकेला जानकर गालियां देता है, नहीं तो मैं तुझसे किसी बात में कम नहीं हूं।

तारा – नहीं-नहीं, तू बहुत बातों में मुझसे बढ़के है, और मैं भी अकेला समझके तुझे गालियां नहीं देता बल्कि दोषी जानकर गालियां देता हूं। तू अपनी स्त्री को साध्वी-सती छोड़के चाहे माता से भी बढ़कर समझ ले, मेरी कोई हानि नहीं है। मैं वास्तव में जिस काम के लिए आया था उसे कर चुका, अब यहां से जाकर मालिक से सब रह दूंगा और तेरे गम्भीर स्वभाव की प्रशंसा भी करूंगा, जिसे सुनकर तेरा बाप बहुत ही प्रसन्न होगा जो अपनी एक भूल के कारण हद से ज्यादे पछता रहा है और बदनामी का टीका मिटाने के लिए जी-जान से उद्योग कर रहा है मगर तुझ कपूत के मारे कुछ भी करने नहीं पाता। (हंसकर) ऐसी कुल्टा स्त्री को सती और साध्वी समझने वाला अपने को ऐयार कहे यही आश्चर्य है।

नानक – मेरे ऐयार होने में तुम्हें कुछ शक है!

तारा – कुछ! अजी बिल्कुल शक है!

नानक – यदि तुम ऐसा समझ भी लो तो इसमें मेरी कुछ हानि नहीं है, इससे ज्यादे तुम और कुछ भी नहीं कर सकते कि यहां से जाकर राजा वीरेन्द्रसिंह से मेरी झूठी शिकायतें करो मगर इस बात को भी समझ लो कि मैं किसी का ताबेदार नहीं हूं।

तारा – (क्रोध से) तू किसी का ताबेदार नहीं ह।

तारासिंह को क्रोधित देख नानक डर गया, केवल इसलिए कि इस जगह वह अकेला था और अकेले ही इस मकान में तारासिंह का मुकाबला करना अपनी ताकत से बाहर समझता था जिसके दो चेले भी यहां मौजूद थे, अस्तु समय पर ध्यान देकर वह चुप हो गया मगर दिल में वह तारासिंह का जानी दुश्मन हो गया। उसने मन में निश्चय कर लिया कि तारासिंह को किसी-न-किसी ढंग से अवश्य नीचा दिखाना बल्कि मार डालना चाहिए।

नानक ने और भी न मालूम क्या सोचकर अपनी जुबान को रोका और सिर नीचा करके चुपचाप खड़ा रह गया। तारासिंह ने कहा, ”बस अब तू जा और अपनी साध्वी तथा नौकर को भी अपने साथ लेता जा!”

नानक ने इस आज्ञा को गनीमत समझा और चुपचाप वहां से रवाना हो गया। उसकी स्त्री और नौकर भी उसके पीछे चल पड़े।

उसी समय तारासिंह ने भी अपना डेर कूच कर दिया और शहर के बाहर हो चुनार का रास्ता लिया, मगर दिल में सोच लिया कि कम्बख्त नानक अवश्य मेरा पीछा करेगा बल्कि ताज्जुब नहीं कि धोखा देकर जान लेने की फिक्र भी करे।

बयान – 2

संध्या हुआ ही चाहती है। पटने की बहुत बड़ी सराय के दरवाजे पर मुसाफिरों की भीड़ हो रही है। कई भठियारे भी मौजूद हैं जो तरह-तरह के आराम की लालच दे अपनी-अपनी तरफ मुसाफिरों को ले जाने का उद्योग कर रहे हैं, और मुसाफिर लोग भी अपनी-अपनी इच्छानुसार उनके साथ जाकर डेरा डाल रहे हैं। मुसाफिरों को भठियारी के सुपुर्द करके भठियारे पुनः सराय के फाटक पर लौट आते और नए मुसाफिरों को अपनी तरफ ले जाने का उद्योग करते हैं।

यह सराय बहुत बड़ी और इसका फाटक मजबूत तथा बड़ा था। फाटक के दोनों तरफ (मगर दरवाजे के अन्दर) बारह सिपाही और जमादार का डेरा था जो इस सराय में रहने वाले मुसाफिरों की हिफाजत के लिए राजा की तरफ से मुकर्रर थे। उनकी तनखाह सराय के भठियारों से वसूल की जाती थी। ये ही सिपाही बारी-बारी से घूमकर सराय के अन्दर पहरा दिया करते थे और जब मुसाफिरों को किसी तरह की तकलीफ होती तो सीधे राजदीवान के पास जाकर रपट किया करते थे।

थोड़ी देर बाद जब सब मुसाफिरों के टिकने का बन्दोबस्त हो गया और सराय के फाटक पर कुछ सन्नाटा हुआ तो उन सिपाहियों का जमादार अपनी जगह से उठकर सराय के अन्दर इसलिए घूमने लगा कि देखें सब मुसाफिरों का ठीक-ठीक बन्दोबस्त हो गया या नहीं। वह जमादार केवल घूमता ही न था बल्कि भठियारों से तरह-तरह के सवाल करके मुसाफिरों का हाल दरियाफ्त करता जाता था।

जमादार घूमता हुआ जब उत्तर तरफ वाले उस कमरे के पास पहुंचा जो इस सराय में सबसे अच्छा, ऊंचा, दो मंजिला और अमीरों के रहने लायक बना और सजा हुआ था तो कुछ देर के लिए अटक गया और उस कमरे तथा उसमें रहने वालों की तरफ ध्यान देकर देखने लगा, क्योंकि उसमें एक जवहरी का डेरा पड़ा हुआ था जो बहुत मालदार मालूम होता था। वह जवहरी भी जमादार को देखकर कमरे के बाहर निकल आया और इशारे से जमादार को अपने पास बुलाया।

पास पहुंचने पर जमादार ने उस जवहरी को एक रोआबदार और अमीर आदमी पाकर सलाम किया और सलाम का जवाब पाने के बाद बोला, ‘कहिए क्या है?’

जवहरी – मालूम होता है कि इस सराय की हिफाजत महाराज की तरफ से तुम्हारे सुपुर्द है और वे फाटक पर रहने वाले सिपाही सब तुम्हारे ही आधीन हैं।

जमादार – जी हां।

जवहरी – तो पहरे का इन्तजाम क्या है किस ढंग से पहरा दिया जाता है?

जमादार – मेरे पास बारह सिपाही हैं जिनके तीन हिस्से कर देता हूं, चार-चार आदमी एक-एक दफे घूमकर पहरा देते हैं।

जवहरी – एक साथ रहकर?

जमादार – जी नहीं, चारों अलग-अलग रहते हैं, घूमते समय थोड़ी-थोड़ी देर में मुलाकात हुआ करती है।

जवहरी – मगर ऐसा तो (कुछ रुककर) यों खड़े-खड़े बातें करना मुनासिब न होगा, आओ कमरे में जरा बैठ जाओ, हमें तुमसे कई जरूरी बातें करनी हैं।

इतना कहकर जवहरी कमरे के अन्दर चला गया और उसके पीछे-पीछे जमादार भी यह कहता हुआ चला गया कि ‘कुछ देर तक आपके पास ठहरने में हर्ज नहीं है मगर ज्यादे देर तक…।’

वह कमरा कुछ तो पहिले ही से दुरुस्त था और कुछ जवहरी साहब ने अपने सामान से उसे रौनक दे दिया था। फर्श के एक तरफ बड़ा-सा ऊनी गलीचा बिछा हुआ था। उसी पर जाकर जवहरी साहब बैठ गए और जमादार भी उन्हीं के पास जाकर गलीचे के नीचे बैठ गया। बैठने के साथ ही जवहरी साहब ने जेब में से पांच अशर्फियां निकालीं और जमादार की तरफ बढ़ाके कहा, ”अपने फायदे के लिए मैं तुम्हारा समय नष्ट कर रहा हूं और करूंगा अस्तु उसका हर्जाना पहिले ही देना उचित है।”

जमादार – नहीं-नहीं, इसकी क्या जरूरत है, इतने समय में मेरा कोई हर्ज न होगा!

जवहरी – समय का व्यर्थ नष्ट होना ही हर्ज कहलाता है, मैं जिस तरह अपने समय की प्रतिष्ठा करता हूं उसी तरह दूसरे के समय की भी।

जमादार – हां ठीक है मगर… मैं तो… आपका…।

जवहरी – नहीं-नहीं, इसे अवश्य लेना होगा।

यों तो जमादार ऊपर के मन से चाहे जो कहे मगर अशर्फी देखकर उसके मुंह में पानी भर आया। उसने सोचा कि यह जवहरी एक मामूली बात के लिए जब पांच अशर्फियां देता है तो अगर मैं इसका काम करूंगा तो बेशक बहुत बड़ी रकम मुझे देगा। ऐसा देने वाला तो आज तक मैंने देखा ही नहीं, अस्तु इस रकम को हाथ से न जाने देना चाहिए।

जमादार – (अशर्फियां लेकर) कहिए क्या आज्ञा होती है?

जवहरी – हां तो चार आदमी का पहरा बंधा है?

जमादार – जी हां।

जवहरी – तो तुम्हें तो न घूमना पड़ता होगा?

जमादार – जी नहीं, मैं अपने ठिकाने उसी फाटक में बैठा रहता हूं और बाकी के आठ आदमी भी मेरे पास ही सोए रहते हैं। जब पहरा बदलने का समय होता है तो घण्टे की आवाज से होशियार करके दूसरे चार को पहरे पर भेज देता हूं और उन चारों को बुलाकर आराम करने की आज्ञा देता हूं। आप अपना मतलब तो कहिए!

जवहरी – मेरा मतलब केवल इतना ही है कि मैं आज चार दिन का जागा हुआ हूं, सफर में आराम करने की नौबत नहीं आई, मगर आज सब दिन की कसर मिटाना अर्थात् अच्छी तरह सोना चाहता हूं।

जमादार – तो आप आराम से सोइए, कोई हर्ज नहीं।

जवहरी – मैं क्योंकर बेफिक्री के साथ सो सकता हूं! मेरे साथ बड़ी रकम है। (कमरे में रक्खे हुए सन्दूकों की तरफ इशारा करके) इन सभों में जवाहिरात की चीजें भरी हुई हैं। जब तक मेरे मन-माफिक इनकी हिफाजत का बन्दोबस्त न हो जायगा तब तक मुझे नींद नहीं आ सकती।

जमादार – आप इन्हें बहुत बड़ी हिफाजत के अन्दर समझिए क्योंकि इस सराय के अन्दर से कोई चोरी करके बाहर नहीं निकल सकता इसलिए कि फाटक बन्द करके ताली मैं अपने पास रखता हूं और सिवाय फाटक के दूसरे किसी तरफ से किसी के निकल जाने का रास्ता ही नहीं है।

जवहरी – ठीक है मगर आखिर बहुत सबेरे फाटक खुलता ही होगा। कौन ठिकाना, मैं कई दिनों का जागा हुआ गहरी नींद में सो जाऊं और मेरे आदमी भी मुझे बेफिक्र देख खुर्राटे लेने लगें और दिन चढ़े तक किसी की आंख ही न खुले, तो ऐसी हालत में कोई चोरी करेगा भी तो प्रातः समय फाटक खुलने पर उसका निकल जाना कोई बड़ी बात न होगी।

जमादार – ठीक है मगर मैं वादा करता हूं कि सुबह मैं आपसे पूछकर फाटक खोलूंगा।

जवहरी – हो सकता है परन्तु कदाचित चोरी हो ही जाय और चोर पकड़ा भी जाय तो मुझे राजा या किसी राजकर्मचारी के पास सबूत देने के लिए जाना पड़ेगा और ऐसा होने से मेरा बहुत बड़ा हर्ज होगा, ताज्जुब नहीं कि राजा साहब या राजकर्मचारी मुझे ठहरने की आज्ञा दें, मगर मैं एक दिन भी नहीं रुक सकता, इत्यादि बहुत-सी बातों को सोचकर मैं चाहता हूं कि चोरी होने का शक ही न रहे और मैं आराम के साथ टांगें फैलाकर सोऊं और यह बात यदि तुम चाहो तो सहज ही में हो सकती है, इसके बदले में मैं तुम्हें अच्छी तरह खुश कर दूंगा।

जमादार – कोई चिन्ता नहीं, मैं अपने सिपाहियों को हुक्म दे दूंगा कि चार में से एक आदमी सिर्फ आपके दरवाजे पर और तीन आदमी तमाम सराय में घूम-घूमकर पहरा दिया करें।

जवहरी – बस-बस, इतने ही से मैं बेफिक्र हो जाऊंगा। अपने सिपाहियों को यह भी ताकीद कर देना कि मेरे सिपाहियों को सोने न दें! यद्यपि मैं भी अपने आदमियों को जागने के लिए सख्त ताकीद कर दूंगा मगर वे कई दिन के जागे हुए हैं नींद आ जाय तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है। हां एक तर्कीब मुझे और मालूम है जो इससे भी सहज में हो सकती है अर्थात् तुम स्वयं अकेले भी यदि यहां अपने सोने का बन्दोबस्त रक्खोगे तो तमाम रात यहां अमन-चैन बना रहेगा। पहरा बदलने के समय…।

जमादार – मैं आपका मतलब समझ गया, मगर नहीं, ऐसा करने से मेरी बदनामी हो जायगी, मुझे हरदम फाटक पर मौजूद रहना चाहिए क्योंकि रात-भर में पचासों दफे लोग फाटक पर मेरे पास तरह-तरह की फरियाद करने आया करते हैं। खैर आप इस बारे में चिन्ता न कीजिए, मैं आपके माल-असबाब की निगहबानी का पूरा इन्तजाम कर दूंगा, अगर आपका कुछ नुकसान हो तो मेरा जिम्मा।

कुछ और बातचीत करने के बाद जमादार अपने स्थान पर चला गया और थोड़ी देर बाद प्रतिज्ञानुसार उसने पहरे का बन्दोबस्त कर दिया।

पाठक, यह सौदागर महाशय हमारे उपन्यास का कोई नवीन पात्र नहीं है बल्कि बहुत प्राचीन पात्र तारासिंह है जो नानक की चाल-चलन का पता लगाके चुनारगढ़ लौट जा रहा है। इसे इस बात का विश्वास हो गया है कि नानक मेरा पीछा करेगा और ऐयारी के कायदे को छप्पर पर रखके जहां तक हो सकेगा मुझे नुकसान पहुंचाने की कोशिश करेगा इसलिए वह इस ढंग से सफर कर रहा है। हकीकत में तारासिंह का खयाल बहुत ठीक था। नानक तारासिंह को नुकसान पहुंचाने, बल्कि जान से मार डालने की कसम खा चुका था। केवल इतना ही नहीं बल्कि वह अपने बाप का तथा राजा वीरेन्द्रसिंह का भी विपक्षी बन गया था क्योंकि अब उसे किसी तरफ से किसी तरह की उम्मीद न रही थी। अस्तु वह (नानक) भी अपने शागिर्दों को साथ लिये हुए तारासिंह के पीछे-पीछे सफर कर रहा है और आज उसका भी डेरा इसी सराय में पड़ा है। क्योंकि पहिले ही से पता लगाए रहने के कारण वह तारासिंह की पूरी खबर रखता है और जानता है कि तारासिंह सौदागर बनकर इसी सराय में उतरा हुआ है। नानक यद्यपि तारासिंह को फंसाने का उद्योग कर रहा है मगर उसे इस बात की खबर कुछ भी नहीं है कि तारासिंह भी मेरी तरफ से गाफिल नहीं है और उसे मेरा रत्ती-रत्ती हाल मालूम है। अस्तु देखना चाहिए अब किसकी चालाकी कहां तक चलती है।

रात आधी से ज्यादे जा चुकी है। सराय के अन्दर बिल्कुल सन्नाटा तो नहीं है मगर पहरा देने वालों के अतिरिक्त बहुत कम आदमी ऐसे हैं जिन्हें अपनी कोठरी के बाहर की खबर हो। सराय का बड़ा फाटक बन्द है, पहरे के सिपाहियों में से एक तो तारासिंह (सौदागर) के दरवाजे पर टहल रहा है और बाकी के तीन घूम-घूमकर इस बहुत बड़ी सराय के अन्दर पहरा दे रहे हैं।

तारासिंह के साथ-साथ दो आदमी तो इसके शागिर्द ही हैं और दो नौकर ऐसे भी हैं जिन्हें तारासिंह ने रास्ते ही में तनख्वाह मुकर्रर करके रख लिया था, मगर ये दोनों नौकर तारासिंह के सच्चे हाल को कुछ भी नहीं जानते, इन्हें केवल इतना ही मालूम है कि तारासिंह एक अमीर सौदागर है। इस समय ये दोनों नौकर कमरे के बाहर दालान में पड़े खुर्राटे ले रहे हैं और तारासिंह तथा उसके शागिर्द कमरे के अन्दर बैठे आपस में कुछ बातचीत कर रहे हैं। कमरे का दरवाजा भिड़काया हुआ है।

तारासिंह का एक शागिर्द कमरे के बाहर निकला और उसने चारों तरफ निगाह दौड़ाने के बाद पहरे वाले सिपाही से कहा, ”तुम्हें सौदागर साहब बुला रहे हैं, जाओ सुन आओ, तब तक तुम्हारे बदले मैं पहरा देता हूं। अन्दर जाकर दरवाजा भिड़का देना, खुला मत रखना।”

हुक्म पाते ही लालची सिपाही, जिसे विश्वास था कि हमारे जमादार को कुछ मिल चुका है और मुझे भी अवश्य मिलेगा, कमरे के अन्दर घुस गया और बहुत देर तक तारासिंह का शागिर्द इधर-उधर टहलता रहा। इसी बीच में उसने देखा कि एक आदमी कई दफे इस तरफ आया मगर किसी को टहलता देखकर लौट गया।

बहुत देर के बाद कमरे के अन्दर से दो आदमी बाहर निकले, एक तो तारासिंह का दूसरा शागिर्द और दूसरा स्वयम् सौदागर भेषधारी तारासिंह। तारासिंह के हाथ में सिपाही का ओढ़ना मौजूद था जिसे अपने शागिर्द को जो पहरा दे रहा था देकर उसने कहा, ”इसे ओढ़कर तुम एक किनारे सो जाओ, अगर कोई तुम्हारे पास आकर बेहोशी की दवा भी सुंघावे तो बेखटके सूंघ लेना और मुझको अपने से दूर न समझना।”

तारासिंह के शागिर्द ने ओढ़ना ले लिया और कहा – ”जब से मैं टहल रहा हूं तब से दो-तीन दफे दुश्मन आया मगर मुझे होशियार देखकर लौट गया।”

तारा – हां, काम में कुछ देर तो जरूर हो गई है। मैं उस सिपाही को बेहोश करके अपनी जगह सुला आया हूं और चिराग गुल कर आया हूं। (हाथ से इशारा करके) अब तुम इस खम्भे के पास लेट जाओ (दूसरे शागिर्द से) और तुम उस दरवाजे के पास जा लेटो, मैं भी किसी ठिकाने छिपकर तमाशा देखूंगा।” तारासिंह की आज्ञानुसार उसके दोनों शागिर्द बताए हुए ठिकाने पर जाकर लेट गए और तारासिंह अपने दरवाजे से कुछ दूर जाकर एक दूसरे मुसाफिर की कोठरी के आगे लेट रहा मगर इस ढंग से कि अपने तरफ की सब कार्रवाई अच्छी तरह देख सके।

आधे घण्टे के बाद तारासिंह ने देखा कि दो आदमी उसके दरवाजे पर आकर खड़े हो गए हैं जिनकी सूरत अंधेरे के सबब दिखाई नहीं देती और यह भी नहीं जान पड़ता कि वे दोनों अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए हैं या नहीं। कुछ अटककर उन दोनों आदमियों ने तारासिंह के आदमियों को देखा-भाला, इसके बाद एक आदमी कमरे का दरवाजा खोलकर अन्दर घुस गया और आधी घड़ी के बाद जब वह कमरे के बाहर निकला तो उसकी पीठ पर एक बड़ी-सी गठरी भी दिखाई पड़ी। गठरी पीठ पर लादे हुए अपने साथी को लेकर वह आदमी सराय के दूसरे भाग की तरफ चला गया। जब वह दूर निकल गया तो तारासिंह अपने दरवाजे पर आया और शागिर्दों को चैतन्य पाने पर समझ गया कि दुश्मन ने उसके आदमी को बेहोशी की दवा नहीं सुंघाई। तारासिंह के दोनों शागिर्द उठे मगर तारासिंह उन्हें उसी तरह लेटे रहने की आज्ञा देकर अपने कमरे के अन्दर चला गया और भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया। रोशनी करने के बाद तारासिंह ने देखा कि दुश्मन ने उसकी कोई चीज नहीं चुराई है, वह केवल उस सिपाही को उठाकर ले गया है जिसे तारासिंह अपनी सूरत का सौदागर बनाकर अपनी जगह लिटा गया था। तारासिंह अपनी कार्रवाई पर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कमरे के बाहर निकलकर अपने शागिर्दों को उठाया और कहा, ”हमारा मतलब सिद्ध हो गया, अब इसमें कोई संदेह नहीं कि कम्बख्त नानक अपनी मुराद पूरी हो गई समझके इसी समय सराय का फाटक खुलवाकर निकल जायगा और मैं भी ऐसा ही चाहता हूं, अस्तु अब उचित है कि तुम दोनों में से एक आदमी तो यहां पहरा दे और एक आदमी सराय के फाटक की तरफ जाय और छिपकर मालूम करे कि नानक कब सराय के बाहर निकलता है। जिस समय वह सराय के बाहर हो उसी समय मुझे इतिला मिले।”

इतना कहकर तारासिंह कमरे के अन्दर चला गया और भीतर से दरवाजा बन्द कर लेने के बाद कमरे की छत पर चढ़ गया, इसलिए कि वह कमरे के ऊपर से अपने मतलब की बात बहुत कुछ देख सकता था।

इस समय नानक की खुशी का कोई ठिकाना न था। वह समझे हुए था कि हमने तारासिंह को गिरफ्तार कर लिया, अस्तु जहां तक जल्द हो सके सराय के बाहर निकल जाना चाहिए। इसी खयाल से उसने अपना डेरा कूच कर दिया और सराय के फाटक पर आकर जमादार को बहुत कुछ कह-सुनके या दे-दिलाकर दरवाजा खुलवाया और बाहर हो गया।

तारासिंह को जब मालूम हुआ कि नानक सराय के बाहर निकल गया तब उसने अपने यहां चोरी हो जाने की खबर मशहूर करने का बन्दोबस्त किया। उसके पास जो सन्दूक थे, जिनमें कीमती माल होने का लोगों या जमादार को गुमान था, उनका ताला तोड़कर खोल दिया क्योंकि वास्तव में सन्दूक बिल्कुल खाली केवल दिखाने के लिए थे। इसके बाद अपने नौकरों को होशियार किया और खूब रोशनी करके ‘चोर’ ‘चोर’ का हल्ला मचाया और जाहिर किया कि हमारी लाखों रुपये की चीज (जवाहिरात) चोरी हो गई।

चोरी की खबर सुन बेचारा जमादार दौड़ा हुआ तारासिंह के पास आया जिसे देखते ही तारासिंह ने रोनी सूरत बनाकर कहा, ”देखो जमादार, मैं पहिले ही कहता था कि मेरे असबाब की खूब हिफाजत होनी चाहिए! आखिर मेरे यहां चोरी हो ही गयी! मालूम होता है कि तुम्हारे सिपाही ने मिलकर चोरी करवा दी क्योंकि तुम्हारा सिपाही भी दिखाई नहीं देता। कहो, अब हम अपने लाखों रुपये के माल का दावा किस पर करें?’

तारासिंह की बात सुनते ही जमादार के तो होश उड़ गए। उसने टूटे हुए सन्दूकों को भी अपनी आंखों से देख लिया और खोज करने पर उस सिपाही को भी न पाया जिसका इस समय पहरे पर मौजूद रहना वाजिब था। यद्यपि जमादार ने उसी समय सिपाहियों को फाटक पर होशियार रहने का हुक्म दे दिया मगर इस बात का उसे बहुत रंज हुआ कि उसने थोड़ी ही देर पहिले एक आदमी को डेरा उठाकर सराय के बाहर चले जाने दिया था। उसने तुरन्त ही कई सिपाहियों को उसकी गिरफ्तारी के लिए रवाना किया और तारासिंह से कहा, ”मैं इसी समय इस मामले की इत्तिला करने राजदीवान के पास जाता हूं।”

तारा – तुम जहां चाहो वहां जाओ मगर हमारा तो नुकसान हो ही गया। अस्तु हम भी अपने मालिक के पास इस बात की इत्तिला करने जाते हैं।

जमादार – (ताज्जुब से) तो क्या आप स्वयं मालिक नहीं हैं?

तारा – नहीं, हम मालिक नहीं हैं बल्कि मालिक के गुमाश्ते हैं। हमें इस बात का बहुत रंज है कि तुमने हमसे पूछे बिना सराय का फाटक खोल दिया और चोर को सराय के बाहर जाने की इजाजत दे दी, यद्यपि तुम मुझसे कह चुके थे कि आपसे पूछे बिना सराय का फाटक न खोलेंगे और इसी हिफाजत के लिए हमने अपनी जेब की अशर्फियां तुम्हारी जेब में डाल दी थीं, मगर अफसोस, मुझे इस बात की बिल्कुल खबर न थी कि तुम हद से ज्यादे लालची हो, हमारा माल चोरी करवा दोगे और चोर से गहरी रकम रिश्वत लेकर उसे फाटक के बाहर निकल जाने की आज्ञा दे दोगे। और मैं यह भी नहीं जानता था कि इस सराय की हिफाजत करने वाले इस किस्म का रोजगार करते हैं, अगर जानता तो ऐसी सराय में कभी थूकने भी न आता।

तारासिंह ने धमकी के ढंग पर ऐसी-ऐसी बातें जमादार से कहीं कि वह डर गया और सोचने लगा कि नाहक मैंने इनसे पूछे बिना सराय का फाटक खोलकर किसी को जाने दिया, अगर किसी को जाने न देता तो बेशक इनका माल सराय के अन्दर ही से निकल आता, अब बेशक मैं दोषी ठहरता हूं, ताज्जुब नहीं कि सौदागर की बातों पर दीवान साहब को भी यह शक हो जाय कि जमादार ने रिश्वत ली है। अगर ऐसा हुआ तो मैं कहीं का भी न रहूंगा, मेरी बड़ी दुर्गति की जायगी। चोरी भी ऐसी नहीं है कि जिसे मैं अपने पल्ले से पूरी कर सकूं – इत्यादि बातें सोचता हुआ जमादार बहुत ही घबड़ा गया और बड़ी नर्मी और आजिजी के साथ तारासिंह से माफी मांगकर बोला ”निःसन्देह मुझसे बड़ी भूल हो गई। मगर मैं आपसे वादा करता हूं कि उस चोर को जो मुझे धोखा देकर और फाटक खुलवाकर चला गया है गिरफ्तार कर लूंगा, परन्तु मेरी जिन्दगी आपके हाथ में है, अगर आप मुझ पर दया कर फाटक खोल देने वाले मेरे कसूर को छिपावेंगे तो मेरी जान बच जायगी नहीं तो राजा साहब मेरा सिर कटवा डालेंगे और इससे आपका कुछ लाभ न होगा। मैं कसम खाकर कहता हूं कि मैंने उससे एक कौड़ी भी रिश्वत नहीं ली है! मुझे उस कम्बख्त ने पूरा धोखा दिया मगर मैं उसे निःसन्देह गिरफ्तार करूंगा और आपकी रकम जाने न दूंगा। यदि आपको मुझ पर शक हो और आप समझते हों कि मैंने रिश्वत ली है तो फाटक पर चलकर मेरी कोठरी की तलाशी ले लीजिए और जो कुछ निकले चाहे वह आपका दिया हो या मेरा खास हो, वह सब आप ले लीजिए मगर आप मेरी जान बचाइये!”

जमादार ने तारासिंह की हद्द से ज्यादे खुशामद की और यहां तक गिड़गिड़ाया कि तारासिंह का दिल हिल गया मगर अपना काम निकालना भी बहुत जरूरी था इसलिए चालबाजी के साथ उसने जमादार का कसूर माफ करके कहा, ”अच्छा मैं कसूर तो तुम्हारा माफ कर देता हूं मगर इस समय जो कुछ मैं तुमसे कहता हूं उसे बड़ी होशियारी के साथ करना होगा, अगर कसर करोगे तो तुम्हारे हक में अच्छा न होगा।”

जमा – नहीं-नहीं, मैं जरा भी कसर न करूंगा, जो कुछ आप हुक्म देंगे वही करूंगा, कहिये क्या आज्ञा होती है

तारा – एक तो मैं अपनी जुबान से झूठ कदापि न बोलूंगा।

जमा – (कांपकर) तब मेरी जान कैसे बचेगी?

तारा – तुम मेरी बात पूरी हो लेने दो – दूसरे मुझे यहां से तुरन्त चले जाने की जरूरत भी है, इसलिए मैं अपने इन (अपने शागिर्दों की तरफ इशारा करके) दोनों साथियों को यहां छोड़ जाता हूं, तुम जब चोर को गिरफ्तार करके अपने राजदीवान या राजा के पास जाना तो इन्हीं दोनों को ले जाना, ये दोनों आदमी अपने को मेरा नौकर कहकर चोरी गई हुई चीजों को बखूबी पहिचान लेंगे और ये चोरी के समय मेरा यहां मौजूद रहना तथा तुम्हारा कसूर कुछ भी जाहिर न करेंगे और तुम भी इस बात को जाहिर मत करना कि सौदागर का गुमाश्ता भी यहां मौजूद था। ये दोनों आदमी अपने काम को पूरी तरह से अंजाम दे लेंगे। हां एक बात कहना तो भूल गया, इस सराय के अन्दर जितने आदमी हैं उन सभों की भी तलाशी ले लेना।

जमा – (दिल में खुश होकर) जरूर उन सभों की तलाशी ले ली जायगी और जो कुछ आपने आज्ञा दी है वही किया जायगा। आप अपना हर्ज न कीजिए और जाइए, यहां मैं किसी तरह का नुकसान होने न दूंगा।

सौदागर (तारासिंह) चला जायगा यह जानकर जमादार अपने दिल में बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि इनके रहने से उसे अपना कसूर प्रकट हो जाने का डर भी था।

जमादार से और भी कुछ बातें करने के बाद तारासिंह अपने दोनों शागिर्दों को एकान्त में ले गया और हर तरह की बातें समझाने के बाद यह भी कहा, ”तुम लोग मेरे चले जाने के बाद किसी तरह घबड़ाना नहीं और मुझे हर वक्त अपने पास मौजूद समझना।”

इन सब बातों से छुट्टी पाकर तारासिंह अकेले ही वहां से रवाना हो गया।

बयान – 3

तारासिंह के चले जाने के बाद सराय में चोरी की खबर बड़ी तेजी के साथ फैल गई। जितने मुसाफिर उसमें उतरे हुए थे सब रोके गये। राजदीवान को भी खबर हो गई, वह भी बहुत से सिपाहियों को साथ लेकर सराय में आ मौजूद हुआ। खूब हो-हल्ला मचा, चारों तरफ तलाशी और तहकीकात की कार्रवाई होने लगी, मगर सभों को निश्चय इसी बात का था कि चोर सिवाय उसके और कोई नहीं है जो रात रहते ही फाटक खुलवाकर सराय के बाहर निकल गया है। पहरे वाले सिपाही के गायब हो जाने से और भी परेशानी हो रही थी। चोर की गिरफ्तारी में कई सिपाही तो जा ही चुके थे मगर दीवान साहब के हुक्म से और भी बहुत से सिपाही भेजे गये। आखिर नतीजा यह निकला कि दोपहर के पहिले ही हजरत नानकप्रसाद गिरफ्तार होकर सराय के अन्दर आ पहुंचे जो अपने खयाल में तारासिंह को गिरफ्तार कर ले गये थे और अभी तक सौदागर का चेहरा धोकर देखने भी न पाये थे, मगर उन कृपानिधान को ताज्जुब था तो इस बात का कि वे चोरी के कसूर में गिरफ्तार किए गये थे।

अभी तक दीवान साहब सराय के अन्दर मौजूद थे। नानक के आते ही चारों तरफ से मुसाफिरों की भीड़ आ जुटी और हर तरफ से नानक पर गालियों की बौछार होने लगी। जिस कमरे में तारासिंह उतरा हुआ था उसी के आगे वाले दालान में सुन्दर फर्श के ऊपर दीवान साहब विराज रहे थे और उनके पास ही तारासिंह के दोनों शागिर्द भी अपनी असली सूरत में बैठे हुए थे। सामने आते ही दीवान साहब ने क्रोध भरी आवाज में नानक से कहा, ”क्यों बे! तेरा इतना बड़ा हौसला हो गया कि तू हमारी सराय में आकर इतनी बड़ी चोरी करे!!”

नानक – (अपने को बेहद फंसा हुआ देख हाथ जोड़के) मुझ पर चोरी का इलजाम किसी तरह नहीं लग सकता, मुझे यह मालूम होना चाहिए कि यहां किसकी चोरी हुई है और मुझ पर चोरी का इलजाम कौन लगा रहा है?

दीवान – (तारासिंह के दोनों शागिर्दों की तरफ इशारा करके) इनका माल चोरी गया है और यहां के सभी आदमी तुझे चोर कहते हैं।

नानक – झूठ, बिल्कुल झूठ।

तारासिंह का एक शागिर्द – (दीवान से) यदि हर्ज न हो तो पहिले इसका चेहरा धुलवा दिया जाय।

दीवान – क्या तुम्हें कुछ दूसरे ढंग का भी शक है अच्छा (जमादार से) पानी मंगाकर इस चोर का चेहरा धुलवाओ।

जमादार – जो हुक्म।

नानक – चेहरा धुलवाके क्या कीजिएगा हम ऐयारों की सूरत हरदम बदली ही रहती है, खासकर सफर में।

दीवान – तू ऐयार है! ऐयार लोग भी कहीं चोरी करते हैं?

नानक – जी मैं कह चुका हूं कि चोरी का इलजाम मुझ पर नहीं लग सकता।

तारा का एक शागिर्द – चोरी तो अच्छी तरह साबित हो जायेगी, जरा अपने माल-असबाब की तलाशी तो होने दो! (दीवान से) लीजिए पानी भी आ गया, अब इसका चेहरा धुलवाइये।

जमादार – (पानी की गगरी नानक के सामने धरके) लो अब पहिले अपना चेहरा साफ कर डालो।

नानक – मैं अभी अपना चेहरा साफ कर डालता हूं, चेहरा धोने में मुझे कोई उज्र नहीं है क्योंकि मैं पहिले ही कह चुका हूं कि ऐयारों की सूरत प्रायः बदली रहती है और मैं भी एक ऐयार हूं।

इतना कहकर नानक ने अपना चेहरा साफ कर डाला और दीवान साहब से कहा, ”कहिए अब क्या हुक्म होता है?’

दीवान – अब तुम्हारी तलाशी ली जायगी।

नानक – तलाशी देने में मुझे कुछ उज्र न होगा, मगर मुझे पहिले उन चीजों की फिहरिस्त मिल जानी चाहिए जो चोरी गई हैं। कहीं ऐसा न हो कि मेरी कुछ चीजों को ये नकली सौदागर साहब अपनी ही चीज बतावें, उस समय ताज्जुब नहीं कि मैं अपनी ही चीजों का चोर बन जाऊं।

दीवान – चीजों की फिहरिस्त जमादार के पास मौजूद है, तुम्हारी चीजों का तुम्हें कोई चोर नहीं बना सकता। हां तुमने इन्हें नकली सौदागर क्यों कहा?

नानक – इसलिए कि ये दोनों भी मेरी तरह से ऐयार हैं और इनके मालिक तारासिंह को मैंने गिरफ्तार कर लिया है, दुश्मनी से नहीं बल्कि आपस की दिल्लगी से क्योंकि हम दोनों एक ही मालिक अर्थात् राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार हैं, धोखा देने की शर्त लग गई थी।

राजा वीरेन्द्रसिंह का नाम सुनते ही दीवान साहब के कान खड़े हो गए और वे ताज्जुब के साथ तारासिंह के दोनों शामिर्दो की तरफ देखने लगे। तारासिंह के एक शागिर्द ने कहा, ”इसने तो झूठ बोलने पर कमर बांध रक्खी है! यह चाहे राजा वीरेन्द्रसिंह का ऐयार हो मगर हम लोगों को उनसे कोई सरोकार नहीं है। हम लोग न तो ऐयार हैं और न हम लोगों का कोई मालिक ही हमारे साथ था जिसे इसने गिरफ्तार कर लिया हो। यह तो अपने को ऐयार बताता ही है फिर अगर झूठ बोलके आपको धोखा देने का उद्योग करे तो ताज्जुब ही क्या है इसकी झुठाई-सचाई का हाल तो इतने ही से खुल जायगा कि एक तो इसकी तलाशी ले ली जाय दूसरे ऐयारी की सनद मांगी जाय जो राजा वीरेन्द्रसिंह की तरफ से नियमानुसार इसे मिली होगी।”

दीवान – तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, ऐयारों के पास उनके मालिक की सनद जरूर हुआ करती है। अगर यह प्रतापी महाराज वीरेन्द्रसिंह का ऐयार होगा तो इसके पास सनद जरूर होगी और तलाशी लेने पर यह भी मालूम हो जायगा कि इसने जिसे गिरफ्तार किया है, वह कौन है। (नानक से) अगर तुम राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार हो तो उनकी सनद हमको दिखाओ। हां, और यह भी बताओ कि अगर तुम ऐयार हो तो इतनी जल्दी गिरफ्तार क्यों हो गये क्योंकि ऐयार लोग जहां कब्जे के बाहर हुए तहां उनका गिरफ्तार होना कठिन हो जाता है।

नानक – मैं गिरफ्तार कदापि न होता मगर अफसोस, मुझे यह बात बिल्कुल मालूम न थी कि तारासिंह को मेरी पूरी खबर है और वह मेरी तरफ से होशियार है तथा उसने पहिले ही से मुझे गिरफ्तार करा देने का बन्दोबस्त कर रक्खा है।

दीवान – खैर तुम ऐयारी की सनद दिखाओ।

नानक – (कुछ लाजवाब-सा होकर) सनद मुझे अभी नहीं मिली है।

तारासिंह का शागिर्द – (दीवान से) देखिए मैं कहता था न कि यह झूठा है।

दीवान – (क्रोध से) बेशक झूठा है और चोर भी है। (जमादार से) हां अब इसकी तलाशी ली जाय।

जमादार – जो आज्ञा।

नानक की तलाशी ली गई और दो ही तीन गठरियों बाद वह बड़ी गठरी खोली गई जिसमें सराय का सिपाही बेचारा बंधा हुआ था।

नानक ने उस बेहोश सिपाही की तरफ इशारा करके कहा, ”देखिए यही तारासिंह है जो सौदागर बना हुआ सफर कर रहा था।”

तारासिंह का शागिर्द – (दीवान से) यह बात भी इसकी झूठ निकलेगी, आप पहिले इस बेहोश का चेहरा धुलवाइए।

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दीवान – हां मेरा भी यही इरादा है। (जमादार से) इसका चेहरा तो धोकर साफ करो।

नानक – मैं खुद इसका चेहरा धोकर साफ किये देता हूं और तब आपको मालूम हो जाएगा कि मैं झूठा हूं या सच्चा।

नानक ने उस सिपाही का चेहरा धोकर साफ किया मगर अफसोस, नानक की मुराद पूरी न हुई और वह सिर से पैर तक झूठा साबित हो गया। अपने यहां के सिपाही को ऐसी अवस्था में देखकर जमादार और दीवान साहब को क्रोध चढ़ आया। जमादार ने किसी तरह का खयाल न करके एक लात नानक के कमर पर ऐसी जमाई कि वह लुढ़क गया। बहुत जल्द सम्हलकर जमादार को मारने के लिए तैयार हुआ। नानक का हर्बा पहिले ही ले लिया गया था और अगर इस समय उसके पास कोई हर्बा मौजूद होता तो बेशक वह जमादार की जान ले लेता मगर वह कुछ भी न कर सका उलटा उसे जोश में आया हुआ देख सभी को क्रोध चढ़ आया। सराय में उतरे हुए मुसाफिर भी उसकी तरफ से चिढ़े हुए थे क्योंकि वे बेचारे बेकसूर रोके गये थे और उन पर शक भी किया गया था, अतएव एकदम से बहुत से आदमी नानक पर टूट पड़े और मन-मानती पूजा करने के बाद उसे हर तरह से बेकार कर दिया। इसके बाद दीवान साहब की आज्ञानुसार उसकी और उसके साथियों की मुश्कें कस दी गईं।

दीवान साहब ने जमादार को आज्ञा दी कि यह शैतान (नानक) बेशक झूठा और चोर है, इसने बहुत ही बुरा किया कि सरकारी नौकर को गिरफ्तार कर लिया। तुम कह चुके हो कि उस समय यही सिपाही सौदागर के दरवाजे पर पहरा दे रहा था। बेशक चोरी करने के लिए ही इस सिपाही को इसने गिरफ्तार किया होगा। अब इसका मुकद्दमा थोड़ी देर में निपटने वाला नहीं है और इस समय बहुत देर भी हो गई है अस्तु तुम इसे और इसके साथियों को कैदखाने में भेज दो तथा इसका माल-असबाब इसी सराय की किसी कोठरी में बन्द करके ताली मुझे दे दो और सराय के सब मुसाफिरों को छोड़ दो। (तारासिंह के शागिर्दों की तरफ देखके) क्यों साहब, अब मुसाफिरों को रोकने की तो कोई जरूरत नहीं है!

तारासिंह का शागिर्द – बेशक बेचारे मुमाफिरों को छोड़ देना चाहिए क्योंकि उनका कोई कसूर नहीं। मेरा माल इसी ने चुराया है। अगर इसके असबाब में से कुछ भी न निकलेगा तो भी हम यही समझेंगे कि सराय से बाहर दूर जाकर इसने किसी ठिकाने चोरी का माल गाड़ दिया है।

दीवान – बेशक ऐसा ही है! (जमादार से) अच्छा जो कुछ हुक्म दिया गया है उसे जल्द पूरा करो।

जमादार – जो आज्ञा।

बात-की-बात में वह सराय मुसाफिरों से खाली हो गई। नानक हवालात में भेज दिया गया और उसका असबाब एक कोठरी में रखकर ताली दीवान साहब को दे दी गई। उस समय तारासिंह के दोनों शागिर्दों ने दीवान साहब से कहा, ”इस शैतान का मामला दो-एक दिन में निपटता नजर नहीं आता इसलिए हम लोग भी चाहते हैं कि यहां से जाकर अपने मालिक को इस मामले की खबर दें और उन्हें भी सरकार के पास ले आवें, अगर ऐसा न करेंगे तो मालिक की तरफ से हम लोगों पर बड़ा दोष लगाया जायगा। यदि आप चाहें तो जमानत में हमारा माल-असबाब रख सकते हैं।”

दीवान – तुम्हारा कहना बहुत ठीक है। हम खुशी से इजाजत देते हैं कि तुम लोग जाओ और अपने मालिक को ले आओ, जमानत में तुम लोगों का माल-असबाब रखना हम मुनासिब नहीं समझते, इसे तुम लोग ले जाओ।

तारासिंह के दोनों शागिर्द – (दीवान साहब को सलाम करके) आपने बड़ी कृपा की जो हम लोगों को जाने की आज्ञा दे दी, हम लोग बहुत जल्द अपने मालिक को लेकर हाजिर होंगे।

तारासिंह के दोनों शागिर्दों ने भी डेरा कूच कर दिया और बेचारे नानक को खटाई में डाल गए। देखा चाहिए अब उस पर क्या गुजरती है। वह भी इन लोगों से बदला लिए बिना रहता नजर नहीं आता।

बयान – 4

बयान – 5

कुंअर इन्द्रजीतसिंह की बात सुनकर वह बुढ़िया चमक उठी और नाक-भौं चढ़ाकर बोली, ”बुड्ढी औरतों से दिल्लगी करते तुम्हें शर्म नहीं मालूम होती।”

इन्द्र – क्या मैं झूठ कहता हूं?

बुढ़िया – इससे बढ़कर झूठ और क्या हो सकता है लोग किसी के पीछे झूठ बोलते हैं मगर आप मुंह पर झूठ बोलके अपने को सच्चा बनाने का उद्योग करते हैं! भला इस तिलिस्म में दूसरा आ ही कौन सकता है और यह भैरोसिंह कौन है जिसका नाम आपने लिया?

इन्द्रजीत – बस-बस, मालूम हो गया। मैं अपने को तुम्हारी जबान से…।

बुड्ढा – (इन्द्रजीतसिंह को रोककर) अजी आप किससे बातें कर रहे हैं यह तो पागल है। इसकी बातों पर ध्यान देना आप ऐसे बुद्धिमानों का काम नहीं है। (बुढ़िया से) तुझे यहां किसने बुलाया जो चली आई तेरे ही दुःख से तो भागकर मैं यहां एकान्त में आ बैठा हूं मगर तू ऐसी शैतान की नानी है कि यहां भी आए बिना नहीं रहती। सबेरा हुआ नहीं और खाने की रट लग गई!

बुड्ढी – अजी तो क्या तुम कुछ खाओ-पीओगे नहीं?

बुड्ढा – जब मेरी इच्छा होगी तब खा लूंगा, तुम्हें इससे मतलब (दोनों कुमारों से) आप इस कम्बख्त का खयाल छोड़िए और मेरे साथ चले आइए। मैं आपको ऐसी जगह ले चलता हूं जहां इसकी आत्मा भी न जा सके। उसी जगह हम लोग बातचीत करेंगे, फिर आप जैसा मुनासिब समझिएगा आज्ञा दीजिएगा।

यह बात उस बुड्ढे ने ऐसे ढंग से कही और इस तरह पलटा खाकर चल पड़ा कि दोनों कुमारों को उसकी बातों का जवाब देने या उस पर शक करने का मौका न मिला और वे दोनों भी उसके पीछे-पीछे रवाना हो गए।

उस कमरे के बगल ही में एक कोठरी थी और उस कोठरी में ऊपर छत पर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं। वह बुड्ढा दोनों कुमारों को साथ-साथ लिये हुए उस कोठरी में और वहां से सीढ़ियों की राह चढ़कर उसके ऊपर वाली छत पर ले गया। उस मंजिल में भी छोटी-छोटी कई कोठरियां और कमरे थे। बुड्ढे के कहे मुताबिक दोनों कुमारों ने एक-एक कमरे की जालीदार खिड़की में से झांककर देखा तो इस इमारत के पिछले हिस्से में एक और छोटा-सा बाग दिखाई दिया जो बनिस्बत इस बाग के जिसमें कुमार एक दिन और रात रह चुके थे ज्यादे खूबसूरत और सरसब्ज नजर आता था। उसमें फूलों के पेड़ बहुतायत से थे और पानी का एक छोटा-सा साफ झरना भी बह रहा था जो इस मकान की दीवार से दूर और उस बाग के पिछले हिस्से की दीवार के पास था, और उसी चश्मे के किनारे पर कई औरतों को भी बैठे हुए दोनों कुमारों ने देखा।

पहिले तो कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को यही गुमान हुआ कि ये औरतें किशोरी, कामिनी अैर कमलिनी इत्यादि होंगी मगर जब उनकी सूरत पर गौर किया तो दूसरी ही औरतें मालूम हुईं जिन्हें आज के पहिले दोनों कुमारों ने कभी नहीं देखा था।

इन्द्रजीत – (बुड्ढे से) क्या ये वे ही औरतें हैं जिनका जिक्र तुमने किया था और जिनमें से एक औरत का नाम तुमने कमलिनी बताया था?

बुड्ढा – जी नहीं, उनकी तो मुझे कुछ भी खबर नहीं कि वे कहां गईं और क्या हुईं।

आनन्द – फिर ये सब कौन हैं?

बुड्ढा – इन सभों के बारे में इससे ज्यादे और मैं कुछ नहीं जानता कि ये सब राजा गोपालसिंह के रिश्तेदार हैं और किसी खास सबब से राजा गोपालसिंह ने इन लोगों को यहां रख छोड़ा है।

इन्द्रजीत – ये सब यहां कब से रहती हैं?

बुड्ढा – सात वर्ष से।

इन्द्रजीत – इनकी खबरगीरी कौन करता है और खाने-पीने तथा कपड़े-लत्ते का इन्तजाम क्योंकर होता है?

बुड्ढा – इसकी मुझे भी खबर नहीं। यदि मैं इन सभों से कुछ बातचीत करता या इनके पास जाता तो कदाचित् कुछ मालूम हो जाता मगर राजा साहब ने मुझे सख्त ताकीद कर दी है कि इन सभों से कुछ बातचीत न करूं बल्कि इनके पास भी न जाऊं।

इन्द्रजीत – खैर यह बताओ कि हम लोग इनके पास जा सकते हैं या नहीं?

बुड्ढा – इन सभों के पास जाना-न जाना आपकी इच्छा पर है, मैं किसी तरह की रुकावट नहीं डाल सकता और न कुछ राय ही दे सकता हूं।

इन्द्रजीत – अच्छा इस बाग में जाने का रास्ता तो बता सकते हो?

बुड्ढा – हां, मैं खुशी से आपको रास्ता बता सकता हूं मगर स्वयं आपके साथ वहां तक नहीं जा सकता, इसके अतिरिक्त यह कह देना भी उचित जान पड़ता है कि यहां से उस बाग में जाने का रास्ता बहुत पेचीदा और खराब है, इसलिये वहां जाने में कम-से-कम एक पहर तो जरूर लगेगा। इससे यही बेहतर होगा कि यदि आप उस बाग में या उन सभों के पास जाना चाहते हैं तो कमन्द लगाकर इस खिड़की की राह से नीचे उतर जायं। ऐसा आप किया चाहें तो आज्ञा दें, मैं एक कमन्द आपको ला दूं।

इन्द्रजीत – हां यह बात मुझे पसन्द है, यदि एक कमन्द ला दो तो हम दोनों भाई उसी के सहारे नीचे उतर जायं।

वह बुड्ढा दोनों कुमारों को उसी तरह, उसी जगह छोड़कर कहीं चला गया और थोड़ी ही देर में एक बहुत बड़ी कमन्द हाथ में लिये हुए आकर बोला, ”लीजिये यह कमन्द हाजिर है।”

इन्द्रजीत – (कमन्द लेकर) अच्छा तो अब हम दोनों इस कमन्द के सहारे उस बाग में उतर जाते हैं।

बुड्ढा – जाइये मगर यह बताते जाइये कि आप लोग वहां से लौटकर कब आवेंगे और मुझे आपको यहां की सैर कराने का मौका कब मिलेगा?

इन्द्रजीत – सो तो मैं ठीक नहीं कह सकता मगर तुम यह बता दो कि अगर हम लौटें तो यहां किस राह से आवें?

बुड्ढा – इसी कमन्द के जरिये इसी राह से आ जाइयेगा, मैं यह खिड़की आपके लिये खुली छोड़ दूंगा।

आनन्द – अच्छा यह बताओ कि भैरोसिंह की भी कुछ खबर है?

बुड्ढा – कुछ नहीं।

इसके बाद दोनों कुमारों ने उस बुड्ढे से कुछ भी न पूछा और खिड़की खोलने के बाद कमन्द लगाकर उसी के सहारे दोनों नीचे उतर गये।

दोनों कुमारों ने उद्यपि उन औरतों को ऊपर से बखूबी देख लिया था क्योंकि वह बहुत दूर नहीं पड़ती थीं मगर इस बात का गुमान न हुआ कि उन औरतों ने भी उन्हें उस समय या कमन्द के सहारे नीचे उतरते समय देखा या नहीं।

जब दोनों कुमार नीचे उतर गये तो कमन्द को भी खेंचकर साथ ले लिया और टहलते हुए उस तरफ रवाना हुए जिधर चश्मे के किनारे बैठी हुई वे औरतें कुमार ने देखी थीं। थोड़ी देर में कुमार उस चश्मे के पास जा पहुंचे और उन औरतों को उसी तरह बैठे हुए पाया। कुमार चश्मे के इस पार थे और वे सब औरतें जो गिनती में सात थीं चश्मे के उस पार सब्ज घास के ऊपर बैठी हुई थीं।

किसी गैर को अपनी तरफ आते देख वे सब औरतें चौकन्नी होकर उठ खड़ी हुईं और बड़े गौर के साथ मगर क्रोध भरी निगाहों से कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की तरफ देखने लगीं।

जिस जगह वे औरतें बैठी थीं उससे थोड़ी ही दूर पर दक्खिन तरफ बाग की दीवार के साथ ही एक छोटा-सा मकान भी बना हुआ था जो पेड़ों की आड़ में होने के कारण दोनों कुमारों को ऊपर से दिखाई नहीं दिया था मगर अब नहर के किनारे आ जाने पर बखूबी दिखाई दे रहा था।

वे औरतें जिन्हें नहर के किनारे कुमार ने देखा था, सबकी सब नौजवान और हसीन थीं। यद्यपि इस समय वे सब बनाव-शृंगार और जेवरों के ढकोसलों से खाली थीं मगर उनका कुदरती हुस्न ऐसा न था जो किसी तरह की खूबसूरती को अपने सामने ठहरने देता। यहां पर यदि ऐसी केवल एक औरत होती तो हम उसकी खूबसूरती के बारे में कुछ लिखते भी, मगर एकदम से सात ऐसी औरतों की तारीफ में कलम चलाना हमारी ताकत के बाहर है जिन्हें प्रकृति ने खूबसूरत बनाने के समय हर तरह पर अपनी उदारता का नमूना दिखाया हो।

कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने जब उन औरतों को अपनी तरफ क्रोध भरी निगाहों से देखते देखा तो एक औरत से मुलायम और गम्भीर शब्दों में कहा, ”हम लोग तुम्हारे पास किसी तरह की तकलीफ देने की नीयत से नहीं आए हैं बल्कि यह कहने के लिए आए हैं कि किस्मत ने हम लोगों को अकस्मात् यहां पहुंचाकर तुम लोगों का मेहमान बनाया है। हम लोग लाचार और राह भूले हुए मुसाफिर हैं और तुम लोग यहां की रहने वाली और दयावान हो, क्योंकि जिस ईश्वर ने तुम्हें इतना सुन्दर बनाकर अपनी कारीगरी का नमूना दिखाया है उसने तुम्हारे दिल को कठोर बनाकर अपनी भूल का परिचय कदापि न दिया होगा, अतएव उचित है कि तुम लोग ऐसे समय में हमारी सहायता करो और बताओ कि अब हम दोनों भाई क्या करें और कहां जायें?’

औरतें खुशामद-पसन्द तो होती ही हैं! कुंअर इन्द्रजीतसिंह की मीठी और खुशामद भरी बातें सुनकर उन सभों की चढ़ी हुई त्यौरियां उतर गईं और होंठों पर कुछ मुस्कुराहट दिखाई देने लगी। एक ने जो सबसे चतुर, चंचल और चालाक जान पड़ती थी, आगे बढ़ कुंअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, ”जब आप हमारे मेहमान बनते हैं और इस बात का विश्वास दिलाते हैं कि हमारे साथ दगा न करेंगे तो हम लोग भी निःसन्देह आपको अपना मेहमान स्वीकार करके जहां तक हो सकेगा आपकी सहायता करेंगी, अच्छा ठहरिए हम लोग जरा आपस में सलाह कर लें!”

इतना कहकर वह चुप हो गई। उन लोगों ने आपस में धीरे-धीरे कुछ बातें कीं और इसके बाद फिर उसी औरत ने इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर कहा –

औरत (हाथ का इशारा करके) उस तरफ एक छोटा-सा पुल बना हुआ है, उसी पर से होकर आप इस पार चले आइए।

इन्द्र – क्या इस नहर में पानी बहुत ज्यादा है?

औरत – पानी तो ज्यादा नहीं है मगर इसमें लोहे के तेज नोक वाले गोखरू बहुत पड़े हैं इसलिये इस राह से आपका आना असम्भव है।

इन्द्र – अच्छा तो हम पुल पर से होकर आवेंगे।

इतना कह कुमार उस तरफ रवाना हुए जिधर उस औरत ने हाथ के इशारे से पुल का होना बताया था। थोड़ी दूर जाने के बाद एक गुंजान और खुशनुमा झाड़ी के अन्दर वह छोटा-सा पुल दिखाई दिया। इस जगह नहर के दोनों तरफ पारिजात के कई पेड़ थे जिनकी डालियां ऊपर से मिली हुई थीं और उस पर खूबसूरत फूल-पत्तों वाली बेलें इस ढंग से चढ़ी हुई थीं कि उनकी सुन्दर छाया में छिपा हुआ वह छोटा-सा पुल बहुत खूबसूरत और स्थान बड़ा रमणीक मालूम होता था। इस जगह से न तो दोनों कुमार उन औरतों को देख सकते थे और न उन औरतों की निगाह इन पर पड़ सकती थी।

जब दोनों कुमार पुल की राह पार उतरकर और घूम-फिरकर उस जगह पहुंचे जहां उन औरतों को छोड़ आए थे तो केवल दो औरतों को मौजूद पाया जिनमें से एक तो वही थी जिससे कुंअर इन्द्रजीतसिंह से बातचीत हुई थी और दूसरी उससे उम्र में कुछ कम मगर खूबसूरती में कुछ ज्यादे थी। बाकी औरतों का पता न था कि क्या हुईं और कहां गयीं। कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने ताज्जुब में आकर उस औरत से जिसने पुल की राह इधर आने का उपदेश किया था पूछा, ”यहां तुम दोनों के सिवाय और कोई नहीं दिखाई देता, सब कहां चली गईं?’

औरत – आपको उन औरतों से क्या मतलब?

इन्द्रजीत – कुछ नहीं, यों ही पूछता हूं।

औरत – (मुस्कुराती हुई) वे सब आप दोनों भाइयों की मेहमानदारी का इन्तजाम करने चली गईं, अब आप मेरे साथ चलिये।

इन्द्रजीत – कहां ले चलोगी?

औरत – जहां मेरी इच्छा होगी, जब आपने मेरी मेहमानी कबूल ही कर ली तब…।

इन्द्रजीत – खैर अब इस किस्म की बातें न पूछूंगा और जहां ले चलोगी चला चलूंगा।

औरत – (मुस्कुराकर) अच्छा तो आइए।

दोनों कुमार उन दोनों औरतों के पीछे-पीछे रवाना हुए। हम कह चुके हैं कि जहां ये औरतें बैठी थीं वहां से थोड़ी ही दूर पर एक छोटा-सा मकान बना हुआ था। वे दोनों औरतें कुमारों को लिए उसी मकान के दरवाजे पर पहुंचीं जो इस समय बन्द था मगर कोई जंजीर-कुण्डा या ताला उसमें दिखाई नहीं देता था। कुमारों को यह भी मालूम न हुआ कि किस खटके को दबाकर या क्योंकर उसने वह दरवाजा खोला। दरवाजा खुलने पर उस औरत ने पहिले दोनों कुमारों को उसके अन्दर जाने के लिए कहा, जब दोनों कुमार उसके अन्दर चले गए तब उन दोनों ने भी दरवाजे के अन्दर पैर रक्खा और इसके बाद हलकी आवाज के साथ वह दरवाजा आप से आप बन्द हो गया। इस समय दोनों कुमारों ने अपने को एक सुरंग में पाया जिसमें अन्धकार के सिवाय और कुछ दिखाई नहीं देता था और जिसकी चौड़ाई तीन हाथ और ऊंचाई चार हाथ से किसी तरह ज्यादे न थी। इस जगह कुमार को इस बात का खयाल हुआ कि कहीं इन औरतों ने मुझे धोखा तो नहीं दिया मगर यह सोचकर चुप रह गये कि अब तो जो कुछ होना था हो ही गया और ये औरतें भी तो आखिर हमारे साथ ही हैं जिनके पास किसी तरह का हर्बा देखने में नहीं आया था।

दोनों कुमारों ने अपना हाथ पसारकर दीवाल को टटोला और मालूम किया कि यह सुरंग है, उसी समय पीछे से उस औरत की यह आवाज आई, ”आप दोनों भाई किसी तरह का अन्देशा न कीजिए और सीधे चले चलिये, इस सुरंग में बहुत दूर तक जाने की तकलीफ आप लोगों को न होगी!”

वास्तव में यह सुरंग बहुत बड़ी न थी, चालीस-पचास कदम से ज्यादे कुमार न गए होंगे कि सुरंग का दूसरा दरवाजा मिला और उसे लांघकर कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने अपने को एक दूसरे ही बाग में पाया जिसकी जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा मकान, कमरों, बारहदरियों तथा और इमारतों के काम में लगा हुआ था और थोड़े हिस्से में मामूली ढंग का एक छोटा-सा बाग था। हां उस बाग के बीचोंबीच में एक छोटी-सी खूबसूरत बावली जरूर थी जिसकी चार अंगुल ऊंची सीढ़ियां सफेद लहरदार पत्थरों से बनी हुई थीं। इसके चारों कोनों पर चार पेड़ कदम्ब के लगे हुए थे और एक पेड़ के नीचे एक चबूतरा संगमर्मर का इस लायक था कि उस पर बीस-पचीस आदमी खुले तौर पर बैठ सकें। इमारत का हिस्सा जो कुछ बाग में था वह सब बाहर से तो देखने में बहुत ही खूबसूरत था मगर अन्दर से वह कैसा और किस लायक था सो नहीं कह सकते।

बावली के पास पहुंचकर उस औरत ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, ”यद्यपि इस समय धूप बहुत तेज हो रही है मगर इस पेड़ (कदम्ब) की घनी छाया में इस संगमर्मर के चबूतरे पर थोड़ी देर तक बैठने में आपको किसी तरह की तकलीफ न होगी, मैं बहुत जल्द (सामने की तरफ इशारा करके) इस कमरे को खुलवाकर आपके आराम करने का इन्तजाम करूंगी, केवल आधी घड़ी के लिए आप मुझे बिदा करें।”

इन्द्र – खैर जाओ मगर इतना बताती जाओ कि तुम दोनों का नाम क्या है जिससे यदि कोई आवे और कुछ पूछे तो कह सकें कि हम लोग फलाने के मेहमान हैं।

औरत – (हंसकर) जरूर जानना चाहिए, केवल इसलिये नहीं बल्कि कई कामों के लिए हम दोनों बहिनों का नाम जान लेना आपके लिए आवश्यक है! मेरा नाम ‘इन्द्रानी’ (दूसरी की तरफ इशारा करके) और इसका नाम ‘आनन्दी’ है, यह मेरी सगी छोटी बहिन है।

इतना कहकर वे औरतें तेजी के साथ एक तरफ चली गयीं और इस बात का कुछ भी इन्तजार न किया कि कुमार कुछ जवाब देंगे या और कोई बात पूछेंगे। उन दोनों औरतों के चले जाने के बाद कुंअर आनन्दसिंह ने अपने भाई से कहा, ”इन दोनों औरतों के नाम पर आपने कुछ ध्यान दिया?’

इन्द्र – हां, यदि इनका यह नाम इनके बुजुर्गों का रक्खा हुआ और इनके शरीर का सबसे पहिला साथी नहीं है तो कह सकते हैं कि हम दोनों ने धोखा खाया।

आनन्द – जी मेरा भी यही खयाल है, मगर साथ ही इसके मैं यह भी खयाल करता हूं कि अब हम लोगों को चालाक बनना…।

इन्द्र – (जल्दी से) नहीं-नहीं, अब हम लोगों को जब तक छुटकारे की साफ सूरत दिखाई न दे जाय प्रकट में नादान बने रहना ही लाभदायक होगा।

आनन्द – निःसंदेह मगर इतना तो मेरा दिल अब भी कह रहा है कि ये सब हमारी जिन्दगी के धागे में किसी तरह का खिंचाव पैदा न करेंगी।

इन्द्र – मगर उसमें लंगर की तरह लटकने के लिए इतना बड़ा बोझ जरूर लाद देंगी कि जिसको सहन करना असम्भव नहीं तो असह्य अवश्य होगा।

आनन्द – हां, अब यदि हम लोगों को कुछ सोचना है तो इसी के विषय में…।

इन्द्रजीत – अफसोस, ऐसे समय में भैरोसिंह को भी इत्तिफाक ने हम लोगों से अलग कर दिया। ऐसे मौकों पर उसकी बुद्धि अनूठा काम किया करती है। (कुछ रुककर) देखो तो सामने से वह कौन आ रहा है!

आनन्द – (खुशी भरी आवाज में ताज्जुब के साथ) यह तो भैरोसिंह ही है! अब कोई परवाह की बात नहीं है अगर यह वास्तव में भैरोसिंह ही है।

अपने से थोड़ी ही दूर पर दोनों कुमारों ने भैरोसिंह को देखा जो एक कोठरी के अन्दर से निकलकर इन्हीं की तरफ आ रहा था। दोनों कुमार उठ खड़े हुए और मिलने के लिए खुशी-खुशी भैरोसिंह की तरफ रवाना हुए। भैरोसिंह ने भी इन्हें दूर से देखा और तेजी के साथ चलकर इन दोनों भाइयों के पास आया। दोनों भाइयों ने खुशी-खुशी भैरोसिंह को गले लगाया और उसे साथ लिये हुए उसी चबूतरे पर चले आए जिस पर इन्द्रानी उनको बैठा गई थी।

इन्द्रजीत – (चबूतरे पर बैठकर) भैरो भाई, यह तिलिस्म का कारखाना है, यहां फूंक-फूंक के कदम रखना चाहिए, अस्तु यदि मैं तुम पर शक करके तुम्हें जांचने का उद्योग करूं तो तुम्हें खफा न होना चाहिए।

भैरो – नहीं नहीं नहीं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूं कि आप लोगों की चालाकी और बुद्धिमानी की बातों से खफा होऊं। तिलिस्म और दुश्मन के घर में दोस्तों की जांच बहुत जरूरी है। बगल वाला मसा और कमर का दाग दिखलाने के अतिरिक्त बहुत-सी बातें ऐसी हैं जिन्हें सिवाय मेरे और आपके दूसरा कोई भी नहीं जानता जैसे ‘लड़कपन वाला मजनूं।’

इन्द्रजीत – (हंसकर) बस-बस, मुझे जांच करने की कोई जरूरत नहीं रही, अब यह बताओ कि तुम्हारा बटुआ तुम्हें मिला या नहीं।

भैरो – (ऐयारी का बटुआ कुमार के आगे रखकर) आपके तिलिस्मी खंजर की बदौलत मेरा यह बटुआ मुझे मिल गया। शुक्र है कि इसमें की कोई चीज नुकसान नहीं गई, सब ज्यों-की-त्यों मौजूद हैं। (तिलिस्मी खंजर और उसके जोड़ की अंगूठी देकर) लीजिए अपना तिलिस्मी खंजर, अब मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं, मेरे लिए मेरा बटुआ काफी है।

इन्द्र – (अंगूठी और तिलिस्मी खंजर लेकर) अब यद्यपि तुम्हारा किस्सा सुनना बहुत जरूरी है क्योंकि हम लोगों ने एक आश्चर्यजनक घटना के अन्दर तुम्हें छोड़ा था, मगर इस सबके पहले अपना हाल तुम्हें सुना देना उचित जान पड़ता है क्योंकि एकान्त का समय बहुत कम है और उन दोनों औरतों के आ जाने में बहुत विलम्ब नहीं है जिनकी बदौलत हम लोग यहां आए हैं और जिनके फेर में अपने को पड़ा हुआ समझते हैं।

भैरो – क्या किसी औरत ने आप लोगों को धोखा दिया?

इन्द्रजीत – निश्चय तो नहीं कह सकता कि धोखा दिया मगर जो कुछ हाल है उसे सुन के राय दो कि हम लोग अपने को धोखे में फंसा हुआ समझें या नहीं।

इसके बाद कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने अपना कुल हाल भैरोसिंह से जुदा होने के बाद से इस समय तक का कह सुनाया। इसके जवाब में अभी भैरोसिंह ने कुछ कहा भी न था कि सामने वाले कमरे का दरवाजा खुला और उसमें से इन्द्रानी को निकलकर अपनी तरफ आते देखा।

इन्द्रजीत – (भैरो से) लो वह आ गई, एक तो यही औरत है, इसी का नाम इन्द्रानी है। मगर इस समय वह दूसरी औरत इसके साथ नहीं है जिसे यह अपनी सगी छोटी बहिन बताती है।

भैरो – (ताज्जुब से उस औरत की तरफ देखकर) इसे तो मैं पहिचानता हूं मगर यह नहीं जानता था कि इसका नाम ‘इन्द्रानी’ है।

इन्द्रजीत – तुमने इसे कब देखा?

भैरो – तिलिस्मी खंजर लेकर आपसे जुदा होने के बाद बटुआ पाने के सम्बन्ध में इसने मेरी बड़ी मदद की थी, जब मैं अपना हाल सुनाऊंगा तब आपको मालूम होगा कि यह कैसी नेक औरत है, मगर इसकी छोटी बहिन को मैं नहीं जानता, शायद उसे भी देखा हो।

इतने ही में इन्द्रानी वहां आ पहुंची जहां भैरोसिंह और दोनों कुमार बैठे बातचीत कर रहे थे। जिस तरह भैरोसिंह ने इन्द्रानी को देखते ही पहिचान लिया था उसी तरह इन्द्रानी ने भी भैरोसिंह को देखते ही पहिचान लिया और कहा, ”क्या आप भी यहां आ पहुंचे अच्छा हुआ, क्योंकि आपके आने से दोनों कुमारों का दिल बहलेगा, इसके अतिरिक्त मुझ पर भी किसी तरह का शक-शुबहा न रहेगा।”

भैरो – जी हां, मैं भी यहां आ पहुंचा और आपको दूर से देखते ही पहिचान लिया बल्कि कुमार से कह भी दिया कि इन्होंने मेरी बड़ी सहायता की थी।

इन्द्रानी – यह तो बताओ कि स्नान-सन्ध्या से छुट्टी पा चुके हो या नहीं?

भैरो – हां, मैं स्नान-सन्ध्या से छुट्टी पा चुका हूं और हर तरह से निश्चिन्त हूं।

इन्द्रानी – (दोनों कुमारों से) और आप लोग?

इन्द्र – हम दोनों भाई भी।

इन्द्रानी – अच्छा तो अब आप लोग कृपा करके उस कमरे में चलिए।

भैरो – बहुत अच्छी बात है, (दोनो कुमारों से) चलिए।

भैरोसिंह को लिये हुए कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह उस कमरे में आए जिसे इन्द्रानी ने इनके लिए खोला था। कुमार ने इस कमरे को देखकर बहुत पसन्द किया क्योंकि यह कमरा बहुत बड़ा और खूबसूरती के साथ सजाया हुआ था। इसकी छत बहुत ऊंची और रंगीन थी, तथा दीवारों पर भी मुसौवर ने अनोखा काम किया था। कुछ दीवारों पर जंगल, पहाड़, खोह, कंदरा, घाटी और शिकारगाह तथा बहते हुए चश्मे का अनोखा दृश्य ऐसे अच्छे ढंग से दिखाया गया था कि देखने वाला नित्य पहरों देखा करे और उसका चित्त न भरे। मौके-मौके से जंगली जानवरों की तस्वीरें भी ऐसी बनी थीं कि देखने वालों को उनके असल होने का धोखा होता था। दीवारों पर बनी हुई तस्वीरों के अतिरिक्त कागज और कपड़ों पर बनी हुई तथा सुन्दर चौखटों में जड़ी हुई तस्वीरों की भी इस कमरे में कमी न थी। ये तस्वीरें केवल हसीन और नौजवान औरतों की थीं जिनकी खूबसूरती और भाव को देखकर देखने वाला प्रेम से दीवाना हो सकता था। इन्हीं तस्वीरों में इन्द्रानी और आनन्दी की तस्वीरें भी थीं जिन्हें देखते ही कुंअर इन्द्रजीतसिंह हंस पड़े और भैरोसिंह की तरफ देखके बोले, ”देखो वह तस्वीर इन्द्रानी की और यह उनकी बहिन आनन्दी की हैं। उन्हें तुमने न देखा होगा!”

भैरो – जी इनकी छोटी बहिन को तो मैंने नहीं देखा।

इन्द्र – स्वयम् जैसी खूबसूरत है वैसी ही तस्वीर भी बनी है। (इन्द्रानी की तरफ देखकर) मगर अब हमें इस तस्वीर के देखने की कोई जरूरत नहीं।

इन्द्रानी – (हंसकर) बेशक, क्योंकि अब आप स्वतन्त्र और लड़के नहीं रहे।

इन्द्रानी का जवाब सुन भैरोसिह तो खिलखिलाकर हंस पड़ा मगर आनन्दसिंह ने मुश्किल से हंसी रोकी।

इस कमरे में रोशनी का सामान (दीवारगीर, डोल हांडी इत्यादि) भी बेशकीमत खूबसूरत और अच्छे ढंग से लगा हुआ था। सुन्दर बिछावन और फर्श के अतिरिक्त चांदी और सोने की कई कुर्सियां भी उस कमरे में मौजूद थीं जिन्हें देखकर कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने एक सोने की कुर्सी पर बैठने का इरादा किया मगर इन्द्रानी ने सभ्यता के साथ रोककर कहा – ”पहिले आप लोग भोजन कर लें क्योंकि भोजन का सब सामान तैयार है और ठंडा हो रहा है।”

इन्द्र – भोजन करने की तो इच्छा नहीं है।

इन्द्रानी – (चेहरा उदास बनाकर) तो फिर आप हमारे मेहमान ही क्यों बने थे क्या आप अपने को बेमुरौवत और झूठा बनाया चाहते हैं।

इन्द्रानी ने कुमार को हर तरह से कायल और मजबूर करके भोजन करने के लिए तैयार किया। इस कमरे में छोटा-सा एक दरवाजा दूसरे कमरे में जाने के लिए बना हुआ था, इसी राह से दोनों कुमार और भैरोसिंह को लिये हुए इन्द्रानी कमरे में पहुंची। यह कमरा बहुत ही छोटा और राजाओं के पूजा-पाठ तथा भोजन इत्यादि ही के योग्य बना हुआ था। कुमार ने देखा कि दोनों भाइयों के लिए उत्तम से उत्तम भोजन का सामान चांदी और सोने के बर्तनों में तैयार है और हाथ में सुन्दर पंखा लिए आनन्दी उसकी हिफाजत कर रही है। इन्द्रानी ने आनन्दी के हाथ से पंखा ले लिया और कहा, ”भैरोसिंह भी आ पहुंचे हैं, इनके वास्ते भी सामान बहुत जल्द ले आओ।”

आज्ञा पाते ही आनन्दी चली गई और थोड़ी देर में कई औरतों के साथ भोजन का सामान लिए लौट आई। करीने से सब सामान लगाने के बाद उसने उन औरतों को बिदा किया जिन्हें अपने साथ लाई थी।

दोनों कुमार और भैरोसिंह भोजन करने के लिए बैठे, उस समय इन्द्रजीतसिंह ने भेद-भरी निगाह से भैरोसिंह की तरफ देखा और भैरोसिंह ने भी इशारे में ही लापरवाही दिखा दी। इस बात को इन्द्रानी और आनन्दी ने भी ताड़ लिया कि कुमार को इस भोजन में बेहोशी की दवा का शक हुआ मगर कुछ बोलना मुनासिब न समझकर चुप रह गई। जब तक दोनों कुमार भोजन करते रहे तब तक आनन्दी पंखा हांकती रही। दोनों कुमार इन दोनों औरतों का बर्ताव देखकर बहुत खुश हुए और मन में कहने लगे कि ये औरतें जितनी खूबसूरत हैं उतनी ही नेक भी हैं। जिनके साथ ब्याही जायंगी उनके बड़भागी होने में कोई सन्देह नहीं (क्योंकि ये दोनों कुमारी मालूम होती थीं।)

भोजन समाप्त होने पर आनन्दी ने दोनों कुमारों और भैरोसिंह के हाथ धुलाये और इसके बाद फिर दोनों कुमार और भैरोसिंह इन्द्रानी और आनन्दी के साथ उसी पहिले वाले कमरे में आये। इन्द्रानी ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, ”अब थोड़ी देर आप लोग आराम करें और मुझे इजाजत दें तो…।”

इन्द्रजीत – मेरा जी तुम लोगों का हाल जानने के लिए बेचैन हो रहा है, इसलिए मैं नहीं चाहता कि तुम एक पल के लिए भी कहीं जाओ, जब तक कि मेरी बातों का पूरा-पूरा जवाब न दे लो। मगर यह तो बताओ कि तुम लोग भोजन कर चुकी हो या नहीं!

इन्द्रानी – जी अभी तो हम लोगों ने भोजन नहीं किया है, जैसी मर्जी हो…।

इन्द्रजीत – तब मैं इस समय नहीं रोक सकता, मगर इस बात का वादा जरूर ले लूंगा कि तुम घण्टे भर से ज्यादे न लगाओगी और मुझे अपने इन्तजार का दुःख न दोगी।

इन्द्रानी – जी मैं वादा करती हूं कि घण्टे भर के अन्दर ही आपकी सेवा में लौट आऊंगी।

इतना कहकर आनन्दी को साथ लिये हुए इन्द्रानी चली गई और दोनों कुमार तथा भैरोसिंह को बातचीत करने का मौका दे गई।

बयान – 6

इन्द्रानी और आनन्दी के चले जाने के बाद कुंअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह और भैरोसिंह में यों बातचीत होने लगी –

इन्द्रजीत – (भैरो से) असल बात जो कुछ इन्द्रानी से पूछा चाहता था उसका मौका तो अभी तक मिला ही नहीं।

भैरो – यही कि तुम कौन और कहां की रहने वाली हो इत्यादि…!

इन्द्र – हां, और किशोरी, कामिनी, कमलिनी इत्यादि कहां हैं तथा उनसे मुलाकात क्योंकर हो सकती है

आनन्द – (भैरो से) इस बात का कुछ पता तो शायद तुम भी दे सकोगे, क्योंकि हम लोगों के पहिले तुम इन्द्रानी को जान चुके हो और कई ऐसी जगहों में भी घूम चुके हो जहां हम लोग अभी तक नहीं गए हैं।

इन्द्र – हां पहिले तुम अपना हाल तो कहो!

भैरो – सुनिए – अपना बटुआ पाने की उम्मीद में जब मैं उस दरवाजे के अन्दर गया तो जाते ही मैंने उन दोनों को ललकारके कहा, ”मैं भैरोसिंह स्वयं आ पहुंचा।” इतने ही में वह दरवाजा जिस राह से मैं उस कमरे में गया था बन्द हो गया। यद्यपि उस समय मुझे एक प्रकार का भय मालूम हुआ परन्तु बटुए की लालच ने मुझे उस तरफ देर तक ध्यान न देने दिया और मैं सीधा उस नकाबपोश के पास चला गया जिसकी कमर में मेरा बटुआ लटक रहा था।

मैं समझे हुए था कि ‘पीला मकरन्द’ अर्थात् पीली पोशाक वाला नकाबपोश स्याह नकाबपोश का दुश्मन तो है ही अतएव स्याह नकाबपोश का मुकाबला करने में पीले मकरन्द से कुछ मदद अवश्य मिलेगी मगर मेरा खयाल गलत था। मेरा नाम सुनते ही वे दोनों नकाबपोश मेरे दुश्मन हो गए और यह कहकर मुझसे लड़ने लगे कि ‘यह ऐयारी का बटुआ अब तुम्हें नहीं मिल सकता, अब रहेगा तो हम दोनों में से किसी एक के पास ही रहेगा।’

परन्तु मैं इस बात से भी हताश न हुआ। मुझे उस बटुए की लालच ऐसी कम न थी कि उन दोनों के धमकाने से डर जाता और अपने बटुए के पाने से नाउम्मीद होकर अपने बचाव की सूरत देखता। इसके अतिरिक्त आपका तिलिस्मी खंजर भी मुझे हताश नहीं होने देता था अस्तु मैं उन दोनों के वारों का जवाब उन्हें देने और दिल खोलकर लड़ने लगा और थोड़ी ही देर में विश्वास करा दिया कि राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का मुकाबला करना हंसी-खेल नहीं है।

थोड़ी देर तक तो दोनों नकाबपोश मेरा वार बहुत अच्छी तरह बचाते चले गये मगर इसके बाद जब उन दोनों ने देखा कि अब उनमें वार बचाने की कुदरत नहीं रही और तिलिस्मी खंजर जिस जगह बैठ जायगा दो टुकड़े किए बिना न रहेगा, तब पीले मकरन्द ने ऊंची आवाज में कहा, ”भैरोसिह, ठहरो-ठहरो, जरा मेरी बात सुन लो तब लड़ना। ओर स्याह नकाब वाले क्यों अपनी जान का दुश्मन बन रहा है जरा ठहर जा और मुझे भैरोसिंह से दो-दो बातें कर लेने दे।”

पीले मकरन्द की बात सुनकर स्याह नकाबपोश ने और साथ ही मैंने भी लड़ाई से हाथ खेंच लिया मगर तिलिस्मी खंजर की रोशनी को कम होने न दिया। इसके बाद पीले मकरन्द ने मुझसे पूछा, ”तुम हम लोगों से क्यों लड़ रहे हो?’

मैं – (स्याह नकाबपोश की तरफ बताकर) इसके पास मेरा ऐयारी का बटुआ है जिसे मैं लिया चाहता हूं।

पीला मकरन्द – तो मुझसे क्यों लड़ रहे हो?

मैं – मैं तुमसे नहीं लड़ता बल्कि तुम खुद ही मुझसे लड़ रहे हो!

पीला मक – (स्याह नकाबपोश से) क्यों अब क्या इरादा है, इनका बटुआ खुशी से इन्हें दे दोगे या लड़कर अपनी जान दोगे?

स्याह नकाबपोश – जब बटुए का मालिक स्वयम् आ पहुंचा है तो बटुआ देने में मुझे क्योंकर इनकार हो सकता है हां यदि ये न आते तो मैं बटुआ कदापि न देता।

पीला मक – जब ये न आते तो मैं भी देख लेता कि तुम वह बटुआ मुझे कैसे नहीं देते, खैर अब इनका बटुआ इन्हें दे दो और पीछा छुड़ाओ!

स्याह नकाबपोश ने बटुआ खोलकर मेरे आगे रख दिया और कहा, ”अब तो मुझे छुट्टी मिली’ इसके जवाब में मैंने कहा, ”नहीं, पहिले मुझे देख लेने दो कि मेरी अनमोल चीजें इसमें हैं या नहीं।”

मैंने उस बटुए के बन्धन पर निगाह पड़ते ही पहिचान लिया कि मेरे हाथ की दी हुई गिरह ज्यों-की-त्यों मौजूद है तथापि होशियारी के तौर पर बटुआ खोलकर देख लिया और जब निश्चय हो गया कि मेरी सब चीजें इसमें मौजूद हैं तो खुश होकर बटुआ कमर में लगाकर स्याह नकाबपोश से बोला, ”अब मेरी तरफ से तुम्हें छुट्टी है, मगर यह तो बता दो कि कुमार के पास किस राह से जा सकता हूं’ इसका जवाब स्याह नकाबपोश ने यह दिया कि ”यह सब हाल मैं नहीं जानता, तुम्हें जो कुछ पूछना है पीले मकरन्द से पूछ लो।”

इतना कहकर स्याह नकाबपोश न मालूम किधर चला गया और मैं पीले मकरन्द का मुंह देखने लगा। पीले मकरन्द ने मुझसे पूछा, ”अब तुम क्या चाहते हो?’

मैं – अपने मालिक के पास जाना चाहता हूं!

पीला मक – तो जाते क्यों नहीं?

मैं – क्या उस दरवाजे की राह जा सकूंगा जिधर से आया था?

पीला मक – क्या तुम देखते नहीं कि वह दरवाजा बन्द हो गया है और अब तुम्हारे खोलने से नहीं खुल सकता!

मैं – तब मैं क्योंकर बाहर जा सकता हूं?

इसके जवाब में पीले मकरन्द ने कहा, ”तुम मेरी सहायता के बिना यहां से निकलकर बाहर नहीं जा सकते क्योंकि रास्ता बहुत कठिन है और चक्करदार है, खैर तुम मेरे पीछे-पीछे चले आओ, मैं तुम्हें यहां से बाहर कर दूंगा।”

पीले मकरन्द की बात सुनकर मैं उसके साथ-साथ जाने के लिए तैयार हो गया मगर फिर भी अपना दिल भरने के लिए मैंने एक दफे उस दरवाजे को खोलने का उद्योग किया जिधर से उस कमरे में गया था। जब वह दरवाजा न खुला तब लाचार होकर मैंने पीले मकरन्द का सहारा लिया मगर दिल में इस बात का खयाल जमा रहा कि कहीं वह मेरे साथ दगा न करे।

पीले मकरन्द ने चिराग उठा लिया और मुझे अपने पीछे-पीछे आने के लिए कहा तथा मैं तिलिस्मी खंजर हाथ में लिये हुए उसके साथ रवाना हुआ। पीले मकरन्द ने विचित्र ढंग से कई दरवाजे खोले और मुझे कई कोठरियों में घुमाता हुआ मकान के बाहर ले गया। मैं तो समझे हुए था कि अब आपके पास पहुंचा चाहता हूं मगर जब बाहर निकलने पर देखा तो अपने को किसी और ही मकान के दरवाजे पर पाया। चारों तरफ सुबह की सफेदी अच्छी तरह फैल चुकी थी और मैं ताज्जुब की निगाहों से चारों तरफ देख रहा था। उस समय पीले मकरन्द ने मुझे उस मकान के अन्दर चलने के लिए कहा मगर इस जगह वह स्वयं पीछे हो गया और मुझे आगे चलने के लिए बोला। उसकी बात से मुझे शक पैदा हुआ। मैंने उससे कहा कि ‘जिस तरह अभी तक तुम मेरे आगे-आगे चलते आये हो उसी तरह अब भी इस मकान के अन्दर क्यों नहीं चलते मैं तुम्हारे पीछे-पीछे चलूंगा।’ इसके जवाब में पीले मकरन्द ने सिर हिलाया और कुछ कहा ही चाहता था कि मेरे पीछे की तरफ से आवाज आई, ”ओ भैरोसिंह खबरदार! इस मकान के अन्दर पैर न रखना, और इस पीले मकरन्द को पकड़ रखना, भागने न पावे!”

मैं घूमकर पीछे की तरफ देखने लगा कि यह आवाज देने वाला कौन है। इतने ही में इस इन्द्रानी पर मेरी निगाह पड़ी जो तेजी के साथ चलकर मेरी तरफ आ रही थी। पलटकर मैंने पीले मकरन्द की तरफ देखा तो उसे मौजूद न पाया। न मालूम वह यकायक क्योंकर गायब हो गया। जब इन्द्रानी मेरे पास पहुंची तो उसने कहा, ”तुमने बड़ी भूल की जो उस शैतान मकरन्द को पकड़ न लिया। उसने तुम्हारे साथ धोखेबाजी की। बेशक वह तुम्हारे बटुए की लालच में तुम्हारी जान लिया चाहता था। ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि मुझे खबर लग गई और मैं दौड़ी हुई यहां तक चली आई। वह कम्बख्त मुझे देखते ही भाग गया।”

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इन्द्रानी की बात सुनकर मैं ताज्जुब में आ गया और उसका मुंह देखने लगा। सबसे ज्यादे ताज्जुब तो मुझे इस बात का था कि इन्द्रानी जैसी खूबसूरत और नाजुक औरत को देखते ही वह शैतान मकरन्द भाग क्यों गया। इसके अतिरिक्त देर तक तो मैं इन्द्रानी की खूबसूरती ही को देखते रह गया। (मुस्कराकर) माफ कीजिए, बुरा न मानियेगा, क्योंकि मैं सच कहता हूं कि इन्द्रानी को मैंने किशोरी से भी बढ़कर खूबसूरत पाया। सुबह के सुहावने समय में उसका चेहरा दिन की तरह दमक रहा था!

इन्द्रजीत – यह तुम्हारी खुशनसीबी थी कि सुबह के वक्त ऐसी खूबसूरत औरत का मुंह देखा।

भैरो – उसी का यह फल मिला कि जान बच गई और आपसे मिल सका।

इन्द्रजीत – खैर तब क्या हुआ।

भैरो – मैंने धन्यवाद देकर इन्द्रानी से पूछा कि ‘तुम कौन हो और यह मकरन्द कौन था इसके जवाब में इन्द्रानी ने कहा कि ”यह तिलिस्म है, यहां के भेदों को जानने का उद्योग न करो, जो कुछ आप से आप मालूम होता जाय उसे सहेजते जाओ। इस तिलिस्म में तुम्हारे दोस्त और दुश्मन बहुत हैं, अभी तो आए हो, दो-चार दिन में बहुत-सी बातों का पता लग जाएगा, हां अपने बारे में मैं इतना जरूर कह दूंगी कि इस तिलिस्म की रानी हूं और तुम्हें तथा दोनों कुमारों को अच्छी तरह जानती हूं।”

इन्द्रानी इतना कहके चुप हो गई और पीछे की तरफ देखने लगी। उसी समय और भी चार-पांच औरतें वहां पर आ पहुंचीं जो खूबसूरत, कमसिन और अच्छे गहने-कपड़े पहिरे हुए थीं। मैंने किशोरी, कामिनी वगैरह का हाल इन्द्रानी से पूछना चाहा मगर उसने बात करने की मोहलत न दी और यह कहकर मुझे एक औरत के सुपुर्द कर दिया कि ‘यह तुम्हें कुंअर इन्द्रजीतसिंह के पास पहुंचा देगी।’ इतना कहकर बाकी औरतों को साथ लिये हुए इन्द्रानी चली गई और मुझे तरद्दुद में छोड़ गई। अन्त में उसी औरत की मदद से यहां तक पहुंचा।

इन्द्रजीत – आखिर उस औरत से भी तुमने कुछ पूछा या नहीं?

भैरो – पूछा तो बहुत कुछ मगर उसने जवाब एक बात का भी न दिया मानो वह कुछ सुनती ही न थी। हां, एक बात कहना तो मैं भूल ही गया।

इन्द्र – वह क्या?

भैरो – इन्द्रानी के चले जाने के बाद जब मैं उस औरत के साथ इधर आ रहा था तब रास्ते में एक लपेटा हुआ कागज मुझे मिला जो जमीन पर इस तरह पड़ा हुआ था जैसे किसी राह चलते की जेब से गिर गया हो। (कमर से कागज निकालकर और कुंअर इन्द्रजीतसिंह के हाथ में देकर) लीजिए पढ़िए, मैं तो इसे पढ़कर पागल-सा हो गया था।

भैरोसिंह के हाथ से कागज लेकर कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने पढ़ा और उसे अच्छी तरह देखकर भैरोसिंह से कहा, ”बड़े आश्चर्य की बात है, मगर यह हो नहीं सकता। क्योंकि हमारा दिल हमारे कब्जे में नहीं है और न हम किसी के आधीन हैं।”

आनन्द – भैया, जरा मैं भी देखूं यह कागज कैसा है और इसमें क्या लिखा है?

इन्द्रजीत – (वह कागज देकर) लो देखो।

आनन्द – (कागज पढ़कर और उसे अच्छी तरह देखकर) यह तो अच्छी जबर्दस्ती है, मानो हम लोग कोई चीज ही नहीं हैं। (भैरोसिंह से) जिस समय यह चीठी तुमने जमीन पर से उठाई थी उस समय उस औरत ने भी देखा या तुमसे कुछ कहा था कि नहीं जो तुम्हारे साथ थी?

भैरो – उसे उस बात की कुछ भी खबर न थी क्योंकि वह मेरे आगे-आगे चल रही थी। मैंने जमीन पर से चीठी उठाई भी और पढ़ी भी मगर उसे कुछ भी मालूम न हुआ। मुझे तो शक होता है कि वह गूंगी और बहरी अथवा हद से ज्यादे बेवकूफ थी।

आनन्द – इस पर मोहर इस ढंग की पड़ी हुई है जैसे किसी राजदरबार की हो।

भैरो – बेशक ऐसी ही मालूम पड़ती है। (हंसकर इन्द्रजीतसिंह से) चलिए आपके लिए तो पौ बारह है, किस्मत का तो धनी होना इसे कहते हैं!

इन्द्र – तुम्हारी ऐसी की तैसी।

पाठकों के सुभीते के लिए हम उस चीठी की नकल यहां लिख देते हैं जिसे पढ़ और देखकर दोनों कुमारों और भैरोसिंह को ताज्जुब मालूम हुआ था –

”पूज्यवर,

पत्र पाकर चित्त प्रसन्न हुआ। आपकी राय बहुत अच्छी है। उन दोनों के लिए कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ऐसा वर मिलना कठिन है, इसी तरह दोनों कुमारों को भी ऐसी स्त्री नहीं मिल सकतीं। बस अब इसमें सोच-विचार करने की जरूरत नहीं, आपकी आज्ञानुसार मैं आठ पहर के अन्दर ही सब सामान दुरुस्त कर दूंगा। बस परसों ब्याह हो जाना ही ठीक है। बड़े लोग इस तिलिस्म में जो कुछ दहेज की रकम रख गये हैं वह इन्हीं दोनों कुमारों के योग्य है। यद्यपि इन दोनों का दिल चुटोला हो चुका है परन्तु हमारा प्रताप भी तो कोई चीज है! जब तक दोनों कुमार आपकी आज्ञा न मानेंगे तब तक जा कहां सकते हैं अन्त को बहू होना आवश्यक है जो आप चाहते हैं।

मुहर द. – मु.मा.”

इस चीठी को कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने पुनः पढ़ा और ताज्जुब करते हुए अपने छोटे भाई की तरफ देखके कहा, ”ताज्जुब नहीं कि यह चीठी किसी ने दिल्लगी के तौर पर लिखकर भैरोसिंह के रास्ते में डाल दी हो और हम लोगों को तरद्दुद में डालकर तमाशा देखा चाहता हो!”

आनन्द – कदाचित ऐसा ही हो। अगर कमलिनी से मुलाकात हो गई होती तो…।

भैरो – तब क्या होता मैं यह पूछता हूं कि इस तिलिस्म के अन्दर आकर आप दोनों भाइयों ने क्या किया अगर इसी तरह से समय बिताया जायगा तो देखियेगा कि आगे चलकर क्या-क्या होता है।

इन्द्र – तो तुम्हारी क्या राय है, बिना समझे-बूझे तोड़-फोड़ मचाऊं?

भैरो – बिना समझे-बूझे तोड़-फोड़ मचाने की क्या जरूरत है तिलिस्मी किताब और तिलिस्मी बाजे से आपने क्या पाया और वह किस दिन काम आवेगा क्या इन बागों का हाल उसमें लिखा हुआ न था?

इन्द्र – लिखा हुआ तो था मगर साथ ही इसके यह भी अन्दाज मिलता था कि तिलिस्म के ये हिस्से टूटने वाले नहीं हैं।

भैरो – यह तो मैं भी बिना तिलिस्मी किताब पढ़े ही समझ सकता हूं कि तिलिस्म के ये हिस्से टूटने वाले नहीं हैं। अगर टूटने वाले होते तो किशोरी, कामिनी वगैरह को राजा गोपालसिंह हिफाजत के लिए यहां न पहुंचा देते, मगर यहां से निकल जाने का या तिलिस्म के उस हिस्से में पहुंचने का रास्ता तो जरूर होगा जिसे आप तोड़ सकते हैं।

आनन्द – हां, इसमें क्या शक है।

भैरो – अगर शक नहीं है तो उसे खोजना चाहिए।

इतने ही में इन्द्रानी और आनन्दी भी आ पहुंचीं जिन्हें देख दोनों कुमार बहुत प्रसन्न हुए और इन्द्रजीतसिंह ने इन्द्रानी से कहा – ”मैं बहुत देर से तुम्हारे आने का इन्तजार कर रहा था।”

इन्द्रानी – मेरे आने में वादे से ज्यादे देर तो नहीं हुई?

इन्द्र – न सही, मगर ऐसे आदमी के लिए जिसका दिल तरह-तरह के तरद्दुदों और उलझनों में पड़कर खराब हो रहा हो, इतना इन्तजार भी कम नहीं है।

इस समय इन्द्रानी और आनन्दी यद्यपि सादी पोशाक में थीं मगर किसी तरह की सजावट की मुहताज न रहने वाली उनकी खूबसूरती देखने वाले का दिल, चाहे वह परले सिरे का त्यागी क्यों न हो, अपनी तरफ खेंचे बिना नहीं रह सकती थी। नुकीले हर्बो से ज्यादे काम करने वाली उनकी बड़ी-बड़ी आंखों में मारने और जिलाने वाली दोनों तरह की शक्तियां मौजूद थीं। गालों पर इत्तिफाक से आ पड़ी हुई घुंघराली लटें शान्त बैठे हुए मन को भी चाबुक लगाकर अपनी तरफ मुतवज्जह कर रही थीं। सूधेपन और नेकचलनी का पता देने वाली सीधी और पतली नाक तो जादू का काम कर रही थी मगर उनके खूबसूरत पतले और लाल ओंठों को हिलते देखने और उनमें से तुले हुए तथा मन लुभाने वाले शब्दों के निकलने की लालसा से दोनों कुमारों को छुटकारा नहीं मिल सकता था और उनकी सुराहीदार गर्दनों पर गर्दन देने वालों की कमी नहीं हो सकती थी। केवल इतना ही नहीं, उनके सुन्दर, सुडौल और उचित आकार वाले अंगों की छटा बड़े-बड़े कवियों और चित्रकारों को भी चक्कर में डालकर लज्जित कर सकती थी।

कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के आग्रह से वे दोनों उनके सामने बैठ गईं मगर अदब का पल्ला लिए और सिर नीचा किये हुए।

इन्द्रानी – इस जल्दी और थोड़े समय में हम लोग आपकी खातिरदारी और मेहमानी का इन्तजाम कुछ भी न कर सकीं मगर मुझे आशा है कि कुछ देर के बाद इस कसूर की माफी का इन्तजाम अवश्य कर सकूंगी।

इन्द्रजीत – इतना क्या कम है कि मुझ जैसे नाचीज मुसाफिर के साथ यहां की रानी होकर तुमने ऐसा अच्छा बर्ताव किया। अब आशा है कि जिस तरह तुमने अपने बर्ताव से मुझे प्रसन्न किया है, उसी तरह मेरे सवालों का जवाब देकर मेरा सन्देह भी दूर करोगी।

इन्द्रानी – आप जो भी कुछ पूछना चाहते हों पूछें, मुझे जवाब देने में किसी तरह का उज्र न होगा।

इन्द्रजीत – किशोरी, कामिनी, कमलिनी और लाडिली वगैरह इस तिलिस्म के अन्दर आई हैं?

इन्द्रनी – जी हां, आई तो हैं?

इन्द्रजीत – क्या तुम जानती हो कि इस समय वे सब कहां हैं?

इन्द्रानी – जी हां, मैं अच्छी तरह जानती हूं। इस बाग के पीछे सटा हुआ एक और तिलिस्मी बाग है, सभों को लिए हुए कमलिनी उसी में चली गई हैं और उसी में रहती हैं!

इन्द्रजीत – क्या हम लोगों को तुम उनके पास पहुंचा सकती हो?

इन्द्रानी – जी नहीं।

इन्द्रजीत – क्यों?

इन्द्रानी – वह बाग एक दूसरी औरत के अधीन है जिससे बढ़कर मेरी दुश्मन इस दुनिया में कोई नहीं।

इन्द्र – तो क्या तुम उस बाग में कभी नहीं जातीं?

इन्द्रानी – जी नहीं, क्योंकि एक तो दुश्मनी के खयाल से मेरा जाना वहां नहीं होता, दूसरे उसने रास्ता भी बन्द कर दिया है, इसी तरह मैं उसके पक्षपातियों को अपने बाग में नहीं आने देती।

इन्द्र – तो हमारी-उनकी मुलाकात क्योंकर हो सकती है?

इन्द्रानी – यदि आप उन सभों से मिला चाहें तो तीन-चार दिन और सब्र करें क्योंकि अब ईश्वर की कृपा से ऐसा प्रबन्ध हो गया है कि तीन-चार दिन के अन्दर ही वह बाग मेरे कब्जे में आ जाय और उसका मालिक मेरा कैदी बने। मेरे दारोगा ने तो कमलिनी को उस बाग में जाने से मना किया था मगर अफसोस कि उसने दारोगा की बात न मानी और धोखे में पड़कर अपने को एक ऐसी जगह जा फंसाया जहां से हम लोगों का सम्बन्ध कुछ भी नहीं।

इन्द्र – तो क्या तुम लोग राजा गोपालसिंह के अधीन नहीं हो?

इन्द्रानी – हम लोग जरूर राजा गोपालसिंह के अधीन हैं, और मैं यह जानती हूं कि आप यहां के तिलिस्म को तोड़ने के लिए आए हैं, अस्तु इस बात को भी जानते होंगे कि यहां के बहुत-से ऐसे हिस्से हैं जिन्हें आप तोड़ नहीं सकेंगे।

इन्द्र – हां जानते हैं।

इन्द्रानी – उन्हीं हिस्सों में से जो टूटने वाले नहीं हैं कई दर्जे ऐसे हैं जो केवल सैर-तमाशे के लिए बनाये गए हैं और वहां जमानिया का राजा प्रायः अपने मेहमानों को भेजकर सैर-तमाशा दिखाया करता है, अस्तु इसलिए कि वह जगह हमेशा अच्छी हालत में बनी रहे हम लोगों के कब्जे में दे दी गई है और नाममात्र के लिए हम लोग तिलिस्म की रानी कहलाती हैं, मगर हां इतना तो जरूर है कि हम लोगों को सोना-चांदी और जवाहिरात की (यहां की बदौलत) कमी नहीं है।

इन्द्र – जिन दिनों राजा गोपालसिंह को मायारानी ने कैद कर लिया था उन दिनों यहां की क्या अवस्था थी मायारानी भी कभी यहां आती थी या नहीं?

इन्द्रानी – जी नहीं, मायारानी को इन सब बातों और जगहों की कुछ खबर ही न थी इसलिए वह अपने समय में यहां कभी नहीं आई और तब तक हम लोग स्वतन्त्र बने रहे। अब इधर जब से आपने राजा गोपालसिंह को कैद से छुड़ाकर हम लोगों को पुनः जीवनदान दिया है तब से केवल तीन दफे राजा गोपालसिंह यहां आए हैं और चौथी दफे परसों मेरी शादी में यहां आवेंगे!

इन्द्र – (चौंककर) क्या परसों तुम्हारी शादी होने वाली है?

इन्द्रानी – (कुछ शर्माकर) जी हां, मेरी और (आनन्दी की तरफ इशारा करके) मेरी इस छोटी बहिन की भी।

इन्द्र – किसके साथ?

इन्द्रानी – सो तो मुझे मालूम नहीं।

इन्द्र – शादी करने वाले कौन हैं तुम्हारे मां-बाप होंगे?

इन्द्रानी – जी मेरे मां-बाप नहीं हैं केवल गुरुजी महाराज हैं जिनकी आज्ञा मुझे मां-बाप की आज्ञा से भी बढ़कर माननी पड़ती है।

भैरो – (इन्द्रानी से) इस तिलिस्म के अन्दर कल-परसों में किसी और का ब्याह भी होने वाला है?

इन्द्रानी – नहीं।

भैरो – मगर हमने सुना है।

इन्द्रानी – कदापि नहीं, अगर ऐसा होता तो हम लोगों को पहिले खबर होती।

इन्द्रानी का जवाब सुनकर भैरोसिंह ने मुस्कुराते हुए कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की तरफ देखा और दोनों कुमारों ने भी उसका मतलब समझकर सिर नीचा कर लिया।

इन्द्र – (इन्द्रानी से) क्या तुम लोगों में पर्दे का कुछ खयाल नहीं रहता?

इन्द्रानी – पर्दे का खयाल बहुत ज्यादे रहता है मगर उस आदमी से पर्दे का बर्ताव करना पाप समझा जाता है जिसको ईश्वर ने तिलिस्म तोड़ने की शक्ति दी है, तिलिस्म तोड़ने वाले को हम ईश्वर समझें यही उचित है।

आनन्द – तो तुम राजा गोपालसिंह के पास जा सकती हो या हमारी चीठी उनके पास पहुंचा सकती हो?

इन्द्रानी – मैं स्वयं राजा गोपालसिंह के पास जा सकती हूं और अपना आदमी भी भेज सकती हूं मगर आजकल ऐसा करने का मौका नहीं है, क्योंकि आजकल मायारानी वगैरह खास बाग में आई हुई हैं और उनसे तथा राजा गोपालसिंह से बदाबदी हो रही है, शायद यह बात आपको भी मालूम होगी।

इन्द्र – हां मालूम है।

इन्द्रानी – ऐसी अवस्था में हम लोगों का या हमारे आदमियों का वहां जाना अनुचित ही नहीं बल्कि दुःखदाई भी हो सकता है।

इन्द्रजीत – हां सो तो जरूर है।

इन्द्रानी – मगर मैं आपका मतलब समझ गई। आप शायद उसके विषय में राजा गोपालसिंह को लिखा चाहते हैं जिसके हिस्से में किशोरी, कामिनी वगैरह पड़ी हुई हैं, मगर ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है, दो रोज सब्र कीजिए तब तक स्वयं राजा गोपालसिंह ही यहां आपसे मिलेंगे।

इन्द्रजीत – अच्छा यह बताओ कि हमारी चीठी किशोरी या कमलिनी के पास पहुंचवा सकती हो?

इन्द्रानी – जी हां बल्कि उसका जवाब भी मंगवा सकती हूं, मगर ताज्जुब की बात है कि कमलिनी ने आपके पास कोई पत्र क्यों नहीं भेजा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्हें आप लोगों का यहां आना मालूम है।

इन्द्रजीत – शायद कोई सबब होगा, अच्छा तो मैं कमलिनी के नाम से एक चीठी लिख दूं?

इन्द्रानी – हां, लिख दीजिए, मैं उसका जवाब मंगा दूंगी।

कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने भैरोसिंह की तरफ देखा। भैरोसिंह ने अपने बटुए में से कलम-दवात और कागज निकालकर कुमार के सामने रख दिया और कुमार ने कमलिनी के नाम से इस मजमून की चीठी लिखी और बन्द कर इन्द्रानी के हवाले कर दी।

”मेरी…कमलिनी,

यह तो मुझे मालूम ही है कि किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी और लाडिली वगैरह को साथ लेकर राजा गोपालसिंह की इच्छानुसार तुम यहां आई हो मगर मुझे अफसोस इस बात का है कि तुम्हारा दिल जो किसी समय मक्खन की तरह मुलायम था, अब फौलाद की तरह ठोस हो गया। इस बात का तो विश्वास हो ही नहीं सकता कि तुम इच्छा करके भी मुझसे मिलने में असमर्थ हो, परन्तु इस बात का रंज अवश्य हो सकता है कि किसी तरह का कसूर न होने पर भी तुमने मुझे दूध की मक्खी की तरह अपने दिल से निकालकर फेंक दिया। खैर तुम्हारे दिल की मजबूती और कठोरता का परिचय तो तुम्हारे अनूठे कामों ही से मिल चुका था परन्तु किशोरी के विषय में अभी तक मेरा दिल इस बात की गवाही नहीं देता कि वह भी मुझे तुम्हारी ही तरह अपने दिल से भुला देने की ताकत रखती है। मगर क्या किया जाय पराधीनता की बेड़ी उसके पैरों में है और लाचारी की मुहर उसके होंठों पर! अस्तु इन सब बातों का लिखना तो अब वृथा ही है, क्योंकि तुम अपनी आप मुख्तार हो, मुझसे मिलो चाहे न मिलो यह तुम्हारी इच्छा है, मगर अपना तथा अपने साथियों का कुशल-मंगल तो लिख भेजो, या यदि अब मुझे इस योग्य भी नहीं समझतीं तो जाने दो।

क्या कहें, किसका – इन्द्रजीत”

कुंअर आनन्दसिंह की भी इच्छा थी कि अपने दिल का कुछ हाल कामिनी और लाडिली को लिखें परन्तु कई बातों का खयाल कर रह गए। इन्द्रानी कुंअर इन्द्रजीतसिंह की लिखी हुई चीठी लेकर उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई अपनी बहिन को साथ लिए चली गई कि ‘अब मैं चिराग जले के बाद आप लोगों से मिलूंगी, तब तक आप लोग यदि इच्छा हो तो इस बाग की सैर करें मगर किसी मकान के अन्दर जाने का उद्योग न करें।’

बयान – 7

अब हम थोड़ा-सा हाल राजा गोपालसिंह का लिखते हैं। जब वह बरामदे पर से झांकने वाला आदमी मायारानी के चलाये हुए तिलिस्मी तमंचे की तासीर से बेहोश होकर नीचे आ गिरा और भीमसेन उसके चेहरे की नकाब हटाने और सूरत देखने पर चौंककर बोल उठा कि ”वाह-वाह, यह तो राजा गोपालसिंह हैं,” तब मायारानी बहुत ही प्रसन्न हुई और भीमसेन से बोली, ”बस अब विलम्ब करना उचित नहीं है, एक ही वार में सिर धड़ से अलग कर देना चाहिए।”

भीम – नहीं, इसे एकदम से मार डालना उचित न होगा बल्कि कैद करके तिलिस्म का कुछ हाल मालूम करना लाभदायक होगा।

माया – मैंने इसे कैद में रखकर हद से ज्यादे तकलीफें दीं तब तो इसने तिलिस्म का कुछ हाल कहा ही नहीं अब क्या कहेगा, बस इसे मार डालना ही मुनासिब है।

इसके जवाब में उसी बरामदे पर से जिस पर से वह आदमी लुढ़ककर नीचे आया था किसी ने कहा, ”तिलिस्म का हाल जानने का शौक अभी तक लगा ही हुआ है इस बात की खबर नहीं कि अब तुम लोगों के मरने में केवल सात घंटे की देर रह गई है।”

सभों ने चौंककर उधर की तरफ देखा और पुनः एक आदमी को उसी बरामदे में टहलता हुआ पाया मगर अबकी दफे इस आदमी का चेहरा नकाब से खाली था और एक जलती हुई मोमबत्ती बायें हाथ में मौजूद थी जिससे उसका रोबीला चेहरा साफ-साफ दिखाई दे रहा था। मायारानी और उसके साथियों को यह देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ कि यह दूसरा आदमी भी राजा गोपालसिंह ही मालूम होता था बल्कि बनिस्बत पहिले आदमी के ठीक राजा गोपालसिंह ही मालूम होता था। इस कैफियत ने मायारानी का कलेजा हिला दिया और वह डर से कांपती हुई उसको इस तरह देखने लगी जैसे कोई व्याध जंगल में अकस्मात् आ पड़े हुए शेर की तरफ देखता हो।

सभी को अपनी तरफ ताज्जुब के साथ देखते देख उस आदमी ने पुनः कहा, ”न तो वह राजा गोपालसिंह है और न उसकी जुबानी तिलिस्म का कोई भेद ही तुम लोगों को मालूम हो सकता है। अरे ओ कम्बख्त मायारानी, तू तो वर्षों मेरे साथ रह चुकी है, क्या तू भी मुझे नहीं पहिचानती। राजा गोपालसिंह मैं हूं या वह है तू उसके नाटे कद को नहीं देखती अगर वह गोपालसिंह होता तो क्या उस तिलिस्मी तमंचे की एक गोली खाकर गिर पड़ता। भला मुझ पर भी एक नहीं पचास गोली चला, देख क्या असर होता है।”

नये गोपालसिंह की इस बात ने मायारानी की रही-सही ताकत भी हवा कर दी और अब उसे अपने सामने मौत की सूरत दिखाई देने लगी। यद्यपि उसने इस गोपालसिंह पर भी तिलिस्मी तमंचा चलाने का इरादा किया था मगर अब उसके हाथों में इतनी ताकत न रही कि तमंचे में गोली डालकर चला सके। उसी की तरह उसके साथी भी घबड़ाकर इस नये राजा गोपालसिंह की तरफ देखने और अपने मन में सोचने लगे, ”व्यर्थ इस मायारानी के फेर में पड़कर यहां आये।”

इस नये गोपालसिंह ने पुनः पुकारकर मायारानी से कहा, ”हां-हां, सोचती क्या है, तिलिस्मी तमंचा चला और तमाशा देख या कह तो मैं स्वयं तेरे पास चला आऊं! और भीमसेन वगैरह, तुम लोग क्यों इसके फेर में पड़कर अपनी-अपनी जान दे रहे हो! क्या तुम समझ रहे हो कि यह तिलिस्म की रानी हो जाएगी और तुम्हें अपना हिस्सेदार बना लेगी! कदापि नहीं, अब इसकी जान किसी तरह नहीं बच सकती और मैं अभी नीचे आकर तुम सभों का काम तमाम करता हूं। हां, अगर तुम लोग अपनी जान बचाना चाहते हो तो मैं तुम्हें कहता हूं कि मायारानी का खयाल न करके उसे इसी जगह छोड़ दो और तुम लोग उस सफेद संगमर्मर के चबूतरे पर भागकर चले जाओ, खबरदार, दूसरी जगह मत खड़े होना और मेरे नीचे आने के पहिले ही यहां से हटकर उस चबूतरे पर चले जाना, नहीं तो पछताओगे!”

इतना कहकर नए गोपालसिंह ने मोमबत्ती नीचे फेंक दी और पीछे की तरफ हटकर उन लोगों की नजरों से गायब हो गए।

अब भीमसेन और माधवी वगैरह को निश्चय हो गया कि मायारानी के किए कुछ न होगा और इसका साथ करके हम लोगों ने व्यर्थ ही अपने को आफत में ला फंसाया। इस तिलिस्मी बाग तथा राजा गोपालसिंह की माया का पता नहीं लगता, अस्तु अब मायारानी का साथ देना और गोपालसिंह की बात न मानना निःसन्देह अपना गला अपने हाथ से काटना है। इतना सोचते-सोचते ही वे लोग गोपालसिंह के कहे मुताबिक उस संगमर्मर के चबूतरे पर चले गए जो उनसे थोड़ी ही दूर पर उनके पीछे की तरफ पड़ता था।

होना तो ऐसा ही चाहिए था कि गोपालसिंह की बातों से डरकर मायारानी भी उन लोगों के साथ ही साथ उसी संगमर्मर वाले चबूतरे पर चली जाती मगर न मालूम क्या सोचकर उसने ऐसा न किया और वहां से भागकर उन फौजी सिपाहियों की भीड़ में जा छिपी जो इस बाग में खड़े हुए इसकी बातें सुन नहीं सकते थे मगर ताज्जुब के साथ सब-कुछ देख जरूर रहे थे।

वह संगमर्मर का चबूतरा जिस पर भीमसेन वगैरह चले गए थे उनके जाने के थोड़ी ही देर बाद इस तेजी के साथ जमीन के अन्दर धंस गया कि उन लोगों को कूदकर भागने की भी मोहलत न मिली। कुछ देर बाद उन सभों को न मालूम कहां उलटकर वह चबूतरा फिर ऊपर चला आया और ज्यों-का-त्यों अपने स्थान पर जम गया।

इस समय केवल सुबह की सफेदी ही ने चारों तरफ अपना दखल नहीं जमा लिया था बल्कि आसमान पर पूरब की तरफ सूर्य की लालिमा भी कुछ दूर तक फैल चुकी थी। इसलिए उस चबूतरे पर जाने वाले भीमसेन और माधवी वगैरह का जो हाल हुआ वह माधवी के फौजी सिपाहियों ने भी बखूबी देख लिया। अपने मालिक और उनके साथियों की यह दशा देख फौजी सिपाही घबड़ा गए और चाहने लगे कि यदि कहीं रास्ता मिल जाय तो हम लोग भी यहां से भागकर अपनी जान बचावें। उन्हें अपने झुण्ड में मायारानी का आ जाना बहुत ही बुरा मालूम हुआ और उन्होंने बड़ी बेमुरौवती के साथ मायारानी से कहा, ”तुम्हारी ही बदौलत हम लोगों की यह दशा हुई और हमारे मालिकों पर भी आफत आई, अस्तु अब तुम हमारी मण्डली में से चली जाओ नहीं तो हम लोग जूते से तुम्हारे सिर की खबर लेंगे, तुम्हारे चले जाने के बाद हम लोगों पर जो कुछ बीतेगी सह लेंगे।”

अफसोस, अपनी करतूतों के कारण आज मायारानी इस दशा को पहुंच गई कि अदने सिपाहियों की झिड़की सहे और जूतियां खाय। सिपाहियों की बात जब मायारानी ने न मानी तो कई सिपाहियों ने जूतियों से उसकी खबर ली, और उसी समय ऊपर से किसी के पुकारने की आवाज आई।

जिस जगह ये सिपाही लोग थे उससे थोड़ी ही दूर पर एक बुर्ज था। इस समय उसी बुर्ज पर चढ़े हुए राजा गोपालसिंह को उन सिपाहियों ने देखा और मालूम किया कि यह आवाज उन्हीं ने दी थी।

गोपालसिंह की कैफियत देखकर सिपाहियों का कलेजा पहिले ही दहल चुका था अस्तु अब इस बात का हौसला नहीं कर सकते थे कि उनका मुकाबला करें, उन्हें देखने के साथ ही उस फौज का अफसर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला, ”आज्ञा!”

गोपालसिंह ने कहा, ”हम खूब जानते हैं कि तुम लोग बेकसूर हो और जो कुछ कसूर है वह तुम्हारे मालिकों का है, सो तुमने देख ही लिया कि वे अपनी सजा को पहुंच गये, अब वे जीते नहीं हैं जो तुमसे आकर मिलेंगे, अस्तु अब तुम लोगों को हुक्म दिया जाता है कि तुम लोग अपनी जान बचाकर यहां से निकल जाओ। यदि तुम्हारी इच्छा हो तो तुम्हारे जाने के लिए दरवाजा खोल दिया जाय और तुम लोग बाग से बाहर होकर जहां इच्छा हो चले जाओ। यदि तुम लोग चाहोगे और नेकचलनी का वादा करोगे तो हमारी फौज में तुम लोगों को जगह भी मिल जायेगी।”

फौजी अफसर – (हाथ जोड़े हुए) आप स्वयं राजा हैं और जानते हैं कि सिपाही लोग तनख्वाह के वास्ते लड़ते हैं। जो राज्य या जमीन के वास्ते लड़े और सिपाहियों को तनख्वाह दे, कसूर उसी का समझा जाता है। हमारे मालिक नादान थे, आपके प्रताप का खयाल न करके मायारानी की बातों में आकर नष्ट हो गये, अब हम लोग आपके आधीन हैं और चाहते हैं कि हम लोगों को इस कैद से छुटकारा ही नहीं बल्कि आपके सरकार में नौकरी भी मिले। इस समय हम लोग अपने को आप ही का ताबेदार समझते हैं।

गोपाल – अच्छा तो जैसा चाहते हो वैसा ही होगा। इस समय से तुम्हें अपना नौकर समझकर हुक्म दिया जाता है कि मायारानी जो तुम लोगों के बीच में चली आई है, जूतियां लगाकर अलग कर दी जाय और तुम लोग (हाथ का इशारा करके) उस तरफ की दीवार के पास चले जाओ। वहां तुम्हें एक छोटा-सा दरवाजा खुला हुआ दिखाई देगा, बस उसी राह से तुम लोग बाहर चले जाना और किसी ठिकाने मैदान में डेरा जमाना। हमारा राजदीवान स्वयम् तुम्हारे पास पहुंचकर सब इन्तजाम कर देगा। मगर खबरदार, इस बात का खूब खयाल रखना कि मायारानी तुम लोगों के साथ बाहर न जाने पावे और तुम लोगों में से एक आदमी भी उसका साथ न दे।

फौजी अफसर – जो हुक्म।

मायारानी बेइज्जत हो ही चुकी थी मगर फिर भी दूर खड़ी यह सब कार्रवाई देख और बातें सुन रही थी। उसे इन सिपाहियों की नमकहरामी पर बड़ा क्रोध आया और वह वहां से भागकर पश्चिम की तरफ वाले दालान में चली गई तथा एक कोठरी के अन्दर घुसकर गायब हो गई। शायद इस कोटरी में कोई तहखाना या रास्ता था जिसका हाल उसे मालूम था। उसी राह से होकर वह मकान की दूसरी मंजिल पर चली गई और उसी जगह से छिपकर तिलिस्मी तमंचे की गोली उन फौजी सिपाहियों पर चलाने लगी जो राजा गोपालसिंह की आज्ञानुसार दरवाजे की तरफ जा रहे थे। इन गोलियों की तासीर का हाल हम पहिले कई जगह लिख आये हैं और बता आए हैं कि इन गोलियों में से निकला हुआ धुआं आला दर्जे की बेहोशी का असर बात की बात में पैदा करता था। अस्तु बेचारे सिपाहियों को दरवाजे तक पहुंचने की भी मोहलत न मिली और तीन ही चार गोलियों में से निकले धुएं ने उन सभों को बेहोश करके जमीन पर लिटा दिया।

अपनी इस कार्रवाई को देखकर मायारानी बहुत प्रसन्न हुई मगर उसकी प्रसन्नता ज्यादा देर तक कायम न रही क्योंकि उसी समय उसने राजा गोपालसिंह को उन सिपाहियों की तरफ जाते देखा। वह ताज्जुब में आकर उसी जगह खड़ी देखने लगी कि अब क्या होता है। उसने देखा कि राजा गोपालसिंह ने उस सिपाहियों के मध्य में पहुंचकर एक गोला जमीन पर पटका जो गिरते ही भारी आवाज के साथ फट गया और उसमें से इतना ज्यादा धुआं निकला कि उसने क्रमशः फैलकर हर तरफ से उन सिपाहियों को घेर लिया और फिर हलका होकर आसमान की तरफ उठ गया। उस धुएं की तासीर से सब सिपाहियों की बेहोशी जाती रही और वे लोग उठकर ताज्जुब के साथ एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। सिपाहियों के अफसर ने अपने पास राजा गोपालसिंह को मौजूद पाया और निगाह पड़ते ही हाथ जोड़कर बोला, ”आपने तो हम लोगों को बाहर चले जाने की आज्ञा दे दी थी, फिर हम लोग बेहोश क्यों कर दिए गये?’

इसके जवाब में गोपालसिंह ने कहा, ”तुम लोगों को हमने नहीं बल्कि कम्बख्त मायारानी ने बेहोश किया था, हमने यहां पहुंचकर तुम लोगों की बेहोशी दूर कर दी, अब तुम लोग एक सायत भी विलम्ब न करो और शीघ्र ही यहां से चले जाओ।”

उस अफसर ने झुककर सलाम किया और अपने साथियों को कुछ इशारा करके वहां से चल पड़ा। यह हाल देख मायारानी ने पुनः तिलिस्मी तमंचे की गोलियां उन लोगों पर चलाईं मगर इसका असर कुछ भी न हुआ और वे सब सिपाही राजा गोपालसिंह की बदौलत थोड़ी ही देर में इस तिलिस्मी बाग के बाहर हो गए। फिर मायारानी को यह भी मालूम न हुआ कि राजा गोपालसिंह कहां गए और क्या हुए।

बयान – 8

वास्तव में भूतनाथ का हाल बड़ा ही विचित्र है। अभी तक उसका असल भेद खुलने में नहीं आता। वह जहां जाता है वहां ही एक विचित्र घटना देखने में आती है, जिससे मिलता है उसी से एक नई बात पैदा होती है, और जब जो कुछ करता है उसी में एक अनूठापन मालूम होता है। इस समय वह बलभद्रसिंह के साथ चुनारगढ़ वाले तिलिस्म में मौजूद है और वहां पहुंचने के साथ ही वह सुन चुका है कि कल राजा वीरेन्द्रसिंह भी इस जगह आने वाले हैं। वीरेन्द्रसिंह को तो आए हुए आज कई दिन हो चुके होते मगर उन्होंने जान-बूझकर रास्ते में बहुत देर लगा दी। नकली किशोरी, कामिनी और कमला के क्रिया-कर्म का बखेड़ा (जिसका करना लोगों को धोखे में डालने के लिए आवश्यक था) चुनार में ले जाना उन्होंने पसन्द न किया बल्कि रास्ते ही में निपटा डालना उचित जाना, इसलिए पन्द्रह-बीस दिन की देर उन्हें रास्ते ही में हो गई और इसी से वहां पहुंच जाने पर भूतनाथ ने सुना कि राजा वीरेन्द्रसिंह कल आने वाले हैं।

उस खंडहर में पहुंचने पर रात के समय भूतनाथ ने जो कुछ तमाशा देखा था उसका विचित्र हाल तो हम ऊपर के किसी बयान में लिख ही चुके हैं, आज उसी के आगे का हाल लिखकर हम अपने पाठकों के चित्त में भूतनाथ की तरफ से पुनः एक तरह का खुटका पैदा किया चाहते हैं।

बलभद्रसिंह ने जब अपने सिरहाने वाला लिफाफा उठाकर शमादान के सामने खोला तो उसके अन्दर से एक अंगूठी निकली जिसे देखते ही वह चिल्ला उठा और तब बिना कुछ कहे अपनी चारपाई पर आकर बैठ गया। भूतनाथ ने उससे पूछा, ”क्यों यह अंगूठी कैसी है और इसे देखकर तुम घबड़ा क्यों गए?’

बलभद्र – इस अंगूठी ने मुझे कई ऐसी बातें याद दिला दीं जिन्हें स्वप्न की तरह कभी-कभी याद करके मैं चौंक पड़ता था, मगर आज नहीं फिर कभी मैं इसका खुलासा हाल तुमसे कहूंगा।

भूत – भला देखो तो सही उस लिफाफे के अन्दर कोई चीठी भी है या केवल यह अंगूठी ही थी।

बलभद्र – (लिफाफा भूतनाथ के हाथ में देकर) लो तुम्हीं देखो।

भूत – (शमादान के पास लिफाफा ले जाकर और उसे अच्छी तरह देखकर) हां-हां, इसमें चीठी भी तो है।

बलभद्र – (भूतनाथ के पास जाकर) देखें।

भूतनाथ ने वह चीठी बलभद्रसिंह के हाथ में दी और बलभद्रसिंह ने बड़े शौक से उसे पढ़ा, यह लिखा हुआ था –

”यह अंगूठी देकर तुम्हें विश्वास दिलाते हैं कि तुम हमारे हो और हम तुम्हारे हैं। भूतनाथ को अपना सच्चा सहायक समझो और जो कुछ वह कहे उसे करो। भूतनाथ यह नहीं जानता कि हम कौन हैं मगर हम कल उससे मिलकर अपना परिचय देंगे और जो कुछ कहना होगा कहेंगे।”

इसी चीठी को पढ़कर दोनों के जी में एक तरह का खुटका पैदा हो गया और बिना कुछ विशेष बातचीत किये दोनों अपनी-अपनी चारपाई पर जाकर लेट रहे मगर बची हुई रात दोनों ने अपनी आंखों में ही काटी, किसी को नींद न आई।

दूसरे दिन सबेरे ही पन्नालाल उन दोनों के पास पहुंचे और रात-भर का कुशल-मंगल पूछा। दोनों ही ने दुनियादारी के तौर पर कुशल-मंगल कहकर बातचीत की मगर रात के विचित्र हाल को अपने दिल के अन्दर ही छिपा रक्खा।

दिन भर इन दोनों का बड़े चैन और आराम से बीता। जीतसिंह से भी मुलाकात और कई तरह की बातें हुईं मगर जीतसिंह और उनकी आज्ञानुसार किसी ऐयार ने भी उन दोनों से मुकद्दमे की बात या किसी तरह का सवाल न किया क्योंकि यह बात पहिले से ही तय पा चुकी थी कि बिना राजा वीरेन्द्रसिंह के आये इस बारे में किसी तरह की बातचीत भूतनाथ से न की जायगी।

आज किसी समय राजा वीरेन्द्रसिंह के आने की खबर थी मगर वे न आये। संध्या के समय हरकारे ने आकर जीतसिंह को खबर दी कि राजा साहब कल संध्या के समय यहां आयेंगे, बलभद्रसिंह के आने की खबर उन्हें हो गई है।

संध्या होने के साथ ही भूतनाथ और बलभद्रसिंह के दिल में धुकधुकी पैदा हो गई कि देखा चाहिए कि आज की रात कैसी गुजरती है, तिलिस्मी चबूतरे के अन्दर से कौन निकलता है, और क्या कहता है।

रात आधी से ज्यादे जा चुकी है, कल की तरह आज भी इस लम्बे-चौड़े मकान के अन्दर सन्नाटा छाया हुआ है। भूतनाथ और बलभद्रसिंह अपनी-अपनी चारपाई पर लेटे हुए हैं मगर नींद किसी की आंखों में नहीं है और दोनों का ध्यान उसी तिलिस्मी चबूतरे की तरफ है। कल की तरह आज भी उस चबूतरे वाले दालान में कन्दील जल रही है जिसके सबब से वह पत्थर वाला चबूतरा साफ दिखाई दे रहा है।

भूतनाथ ने देखा कि कल की तरह आज भी इस पत्थर वाले चबूतरे का दरवाजा खुला और उसके अन्दर से एक आदमी स्याह लबादा ओढ़े हुए निकला। धीरे-धीरे घूमता-फिरता वह उस कमरे के दरवाजे पर पहुंचा जिसमें भूतनाथ और बलभद्रसिंह आराम कर रहे थे। कमरे का दरवाजा खुलने के साथ ही वे दोनों उठ बैठे और उस आदमी को कमरे के अन्दर पैर रखते हुए देखा।

उस आदमी ने हाथ के इशारे से बलभद्रसिंह को बैठने के लिए कहा और भूतनाथ को अपने पास बुलाया। भूतनाथ चारपाई के नीचे उतर पड़ा और अपना तिलिस्मी खंजर जो खूंटी के साथ लटक रहा था लेकर उस आदमी के पास गया। वह आदमी भूतनाथ को अपने साथ कमरे के बाहर वाले दालान में ले गया और वहां से सीढ़ी की राह नीचे उतरने के लिए कहा। भूतनाथ भी चुपचाप उसके साथ नीचे चला गया।

यहां भी एक कन्दील जल रही थी और चारों तरफ सन्नाटा था। उस आदमी ने अपना चेहरा खोल दिया और भूतनाथ को अपनी तरफ अच्छी तरह देखने के लिए कहा। भूतनाथ सूरत देखते ही चौंक पड़ा और बोला – ”हैं, यह मैं किसकी सूरत देख रहा हूं! क्या धोखा तो नहीं है!”

आदमी – नहीं-नहीं, कोई धोखा नहीं है, ‘मेमकुलचे’ कहने से शायद तुम्हारा शक जाता रहेगा।

भूतनाथ – हां अब मेरा शक जाता रहा, मगर आप यहां कहां? क्या मुझे किसी तरह का विचित्र हुक्म दिया जायगा या मुझे राजा साहब से माफी मांगने की मोहलत ही न मिलेगी?

आदमी – हां तुम्हें एक विचित्र हुक्म दिया जायगा, मगर यह बताओ कि राजा साहब के बारे में तुमने क्या सुना है! वे कब तक यहां आयेंगे?

भूत – राजा वीरेन्द्रसिंह कल यहां अवश्य आ जायेंगे। आज हरकारे ने आकर यह पक्की खबर जीतसिंह को दी है!

आदमी – (कुछ सोचकर) यह तो बड़ी मुश्किल हुई, हमारे लिए नहीं बल्कि तुम्हारे लिए।

भूत – (कांपकर) सो क्या! मैंने अब कौन-सा नया अपराध किया है?

आदमी – नया अपराध किया तो नहीं मगर करना पड़ेगा।

भूत – नहीं-नहीं, मैं अब कोई अपराध न करूंगा, जो कुछ कर चुका हूं उसी का कलंक मिटाना मुश्किल हो रहा है!

आदमी – मगर क्या किया जाय, लाचारी है, अपराध तो करना ही होगा और सो भी इसी समय।

भूत – (कुछ सोचकर) भला यह तो बताइए कि वह अपराध है क्या और मुझे क्या करना होगा!

आदमी – यह तो जानते ही हो कि बलभद्रसिंह हमारा है।

भूत – जी हां, मगर इस समय तो मेरी जान बचाने वाला है।

आदमी – बेशक।

भूत – तब आप क्या चाहते हैं?

आदमी – यही कि इस समय बलभद्रसिंह को बेहोश करके हमारे हवाले कर दो। हम तो उन्हें कल ही उठा ले गये होते मगर कल हमें निश्चय हो गया था कि तुम जाग रहे हो और लड़ने के लिए अवश्य तैयार हो जाओगे, इसलिए सोचा कि पहिले तुम्हें अपना परिचय दे लें तब यह काम करें जिसमें तुम्हारा दिल भी खुटके में न रहे।

भूत – मगर यह तो बड़ी मुश्किल होगी। अच्छा कल राजा वीरेन्द्रसिंह से उनकी मुलाकात करा लेने दीजिए।

आदमी – यह नहीं हो सकता। उन्हें हम आज ही ले जायेंगे नहीं तो हमारा बहुत हर्ज होगा और उस हर्ज में तुम्हारा भी नुकसान है।

भूत – हाय, नुकसान और दुःख भोगने के लिए तो मैं पैदा ही हुआ हूं! न जाने मेरी किस्मत में निश्चिन्त होना भी बदा है या नहीं! राजा वीरेन्द्रसिंह सुन चुके हैं कि भूतनाथ बलभद्रसिंह को छुड़ा लाया है, अब अगर इस समय आप उन्हें ले जायेंगे और कल राजा वीरेन्द्रसिंह उन्हें मुझसे मांगेंगे तो क्या जवाब दूंगा?

आदमी – कह देना कि मैं रात को सोया हुआ था न मालूम बलभद्रसिंह कहां चले गए। मुझे कुछ खबर नहीं, आप अपने पहरे वालों से पूछिए।

भूत – हां, यदि आप न मानेंगे तो ऐसा ही करना पड़ेगा।

आदमी – तो बस अब विलम्ब न करो, झटपट जाओ और उन्हें बेहोश करके हमारे पास ले आओ।

भूत – जिस समय मैंने बलभद्रसिंह को छुड़ाया था उस समय उन्हें विश्वास नहीं होता था कि मैं उनके साथ नेकी कर रहा हूं। बड़ी मुश्किल से तो उन्हें विश्वास दिलाया। इस समय आप जानते हैं कि वे भी जाग रहे हैं, आप खुद ही उन्हें बैठे रहने के लिए कह आए हैं। अब मैं उन्हें जबर्दस्ती बेहोश करूंगा तो उनके दिल में क्या आवेगा! क्या वे यह नहीं समझेंगे कि भूतनाथ ने नेकनीयती के साथ मेरी जान नहीं बचाई थी!

आदमी – अगर ऐसा समझेंगे तो समझें, तुम सोच क्या रहे हो! क्या मेरा हुक्म न मानोगे?

भूत – मेरी क्या मजाल जो आपका हुक्म न मानूं।

इतने ही में उसी तरह का स्याह लबादा ओढ़े और भी एक आदमी वहां आ पहुंचा। भूतनाथ समझ गया कि वह आदमी इसी का साथी है और कल भी यहां आया था। इस नए आए हुए आदमी ने पहिले आदमी से खास बोली (भाषा) में कुछ बातचीत की जिसे भूतनाथ कुछ भी न समझ सका, इसके बाद उसने परदा हटाकर अपनी सूरत भूतनाथ को दिखा दी।

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अब भूतनाथ के ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा और वह एकदम घबड़ा के बोला, ”नहीं-नहीं, मैं जागता नहीं हूं बल्कि जो कुछ देख रहा हूं सब स्वप्न है!”

दूसरा आदमी – भूतनाथ तुम पागल हो गए हो!

भूत – बेशक यही बात है, या तो मैं स्वप्न देख रहा हूं या पागल हो गया हूं।

पहिला आदमी – न तो तुम स्वप्न देख रहे हो और न पागल ही हो गए हो, जो कुछ देख-सुन रहे हो सब ठीक है। अच्छा अब तुम हम लोगों के साथ आओ, किसी दूसरी जगह अंधेरे में खड़े होकर बातचीत करेंगे, यहां केवल इसलिए खड़े हो गये थे कि तुम्हें अपनी सूरत दिखा दें।

इतना कहकर वे दोनों आदमी भूतनाथ का हाथ पकड़े हुए दूसरे दालान में चले गए जहां बिलकुल अंधकार था और यहां बातचीत करने लगे। इस जगह उन तीनों में जो कुछ बातें हुईं वह ऐयारी भाषा में हुईं इसलिए लिख न सके मगर आगे चलकर इन बातों का जो कुछ नतीजा निकलेगा पाठकों को मालूम हो जायगा। हां, इतना कह देना जरूरी है कि डेढ़ घण्टे तक उन तीनों में खूब बातें होती रहीं, इस बीच में दो दफे भूतनाथ के बड़े जोर से हंसने की आवाज आई, ताज्जुब नहीं कि वह आवाज बलभद्रसिंह के कानों तक भी पहुंची हो। इसके बाद भूतनाथ वहां से रवाना होकर बलभद्रसिंह के पास आया, देखा कि अभी तक वह बैठे हुए हैं और भूतनाथ का इन्तजार कर रहे हैं।

भूतनाथ को देखते ही बलभद्रसिंह बोले, ”आओ-आओ भूतनाथ, मेरे पास बैठ जाओ और बताओ कि क्या हुआ! वह आदमी कौन था जो तुम्हें ले गया था?’

”मैं सब विचित्र हाल आपसे कहता हूं।” यह कहता हुआ भूतनाथ बलभद्रसिंह के पास बैठ गया, मगर इस तरह पर सटकर बैठा कि उसकी कमर में लगा तिलिस्मी खंजर बलभद्रसिंह के बदन के साथ छू गया और वह उसी समय कांपकर बेहोश हो गये।

बलभद्रसिंह के बेहोश हो जाने के बाद भूतनाथ ने उनकी गठरी बांधी और नीचे उतारकर दोनों विचित्र आदमियों के पास ले गया। उन दोनों ने उसे तिलिस्मी चबूतरे के पास पहुंचा देने के लिए कहा और भूतनाथ उसे तिलिस्मी चबूतरे के पास ले गया। तब वे दोनों आदमी बलभद्रसिंह को लेकर चबूतरे के अन्दर चले गये। चबूतरे का पल्ला बन्द हो गया और भूतनाथ कुछ सोचता-विचारता अपनी चारपाई पर आकर लेट रहा।

बयान – 9

सबेरा हो जाने पर जब भूतनाथ और बलभद्रसिंह से मिलने के लिए पन्नालाल तिलिस्मी खण्डहर के अन्दर नम्बर दो वाले कमरे में गये तो भूतनाथ को चारपाई पर सोये पाया और बलभद्रसिंह को वहां न देखा। पन्नालाल ने भूतनाथ को जगाकर पूछा, ”आज तुम इस समय तक खुर्राटे ले रहे हो, यह क्या मामला है!”

भूतनाथ – बलभद्रसिंहजी ने गप्प-शप्प में तीन पहर रात बैठे ही बैठे बिता दी इसलिए सोने में बहुत कम आया और अभी तक आंख नहीं खुली, आइये बैठिये।

पन्ना – बलभद्रसिंहजी कहां हैं?

भूतनाथ – मुझे क्या खबर, इसी जगह कहीं होंगे, मुझे तो अभी आपने सोते से जगाया है।

पन्ना – मगर मैंने तो उन्हें कहीं भी नहीं देखा!

भूतनाथ – किसी पहरे वाले से पूछिये, शायद हवा खाने के लिए कहीं बाहर चले गये हों।

बलभद्रसिंह को वहां न पाकर पन्नालाल को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और भूतनाथ भी घबड़ाया-सा दिखाई देने लगा। पहिले तो पन्नालाल और भूतनाथ दोनों ही ने उन्हें खण्डहर वाले मकान के अन्दर खोजा मगर जब कुछ पता न लगा तब फाटक पर आकर पहरे वालों से पूछा। पहरे वालों ने भी उन्हें देखने से इनकार करके कहा कि ‘हम लोगों ने बलभद्रसिंहजी को फाटक के बाहर निकलते नहीं देखा। अस्तु हम लोग उनके बारे में कुछ नहीं कह सकते।’

बलभद्रसिंह कहां चले गये आसमान पर उड़ गये, दीवार में घुस गये, या जमीन के अन्दर समा गये, क्या हुए इस बात ने सभों को तरद्दुद में डाल लिया। धीरे-धीरे जीतसिंह को भी इस बात की खबर हुई। जीतसिंह स्वयं उस खण्डहर वाले मकान में गये और तमाम कमरों, कोठरियों और तहखानों को देख डाला मगर बलभद्रसिंह का पता न लगा। भूतनाथ से भी तरह-तरह के सवाल किये गये मगर इससे भी कुछ फायदा न हुआ।

संध्या के समय राजा वीरेन्द्रसिंह की सवारी उस तिलिस्मी खण्डहर के पास आ पहुंची और राजा वीरेन्द्रसिंह तथा तेजसिंह वगैरह सब कोई उसी खण्डहर वाले मकान में उतरे। पहर-भर रात जाते तक तो इन्तजामी हो-हल्ला मचता रहा, इसके बाद लोगों को राजा साहब से मुलाकात करने की नौबत पहुंची, मगर राजा साहब ने वहां पहुंचने के साथ ही भूतनाथ और बलभद्रसिंह का हाल जीतसिंह से पूछा था और बलभद्रसिंह के बारे में जो कुछ हुआ था उसे उन्होंने राजा साहब से कह सुनाया था। पहर रात जाने के बाद जब भूतनाथ आशानुसार दरबार में हाजिर हुआ तब राजा वीरेन्द्रसिंह ने उससे पूछा, ”कहो भूतनाथ, अच्छे तो हो?’

भूतनाथ – (हाथ जोड़कर) महाराज के प्रताप से प्रसन्न हूं।

वीरेन्द्र – सफर में हमको जो कुछ रंज और गम हुआ तुमने सुना होगा?

भूतनाथ – ईश्वर न करे महाराज को कभी रंज और गम हो मगर हां, समयानुकूल जो कुछ होना था हो ही गया।

वीरेन्द्र – (ताज्जुब से) क्या तुम्हें इस बारे में कुछ मालूम हुआ है?

भूतनाथ – जी हां!

वीरेन्द्र – कैसे?

भूतनाथ – इसका जवाब देना तो कठिन है, क्योंकि भूतनाथ बनिस्बत जबान और कान के अन्दाज से ज्यादे काम लेता है।

वीरेन्द्र – (मुस्कुराकर) तुम्हारी होशियारी और चालाकी में तो कोई शक नहीं है मगर अफसोस इस बात का है कि तुम्हारे रहस्य तुम्हारी ही तरह द्विविधा में डालने वाले हैं। अभी कल की बात है कि हमको तुम्हारे बारे में इस बात की खुशखबरी मिली थी कि तुम बलभद्रसिंह को किसी भारी कैद से छुड़ाकर ले आये, मगर आज कुछ और ही बात सुनाई पड़ रही है।

भूतनाथ – जी हां, मैं तो हर तरह से अपनी किस्मत की गुत्थी सुलझाने का उद्योग करता हूं मगर विधाता ने उसमें ऐसी उलझनें डाल दी हैं कि मालूम पड़ता है कि अब इस शरीर को चुनारगढ़ के कैदखाने का आनन्द अवश्य भोगना ही पड़ेगा।

वीरेन्द्र – नहीं-नहीं, भूतनाथ, यद्यपि बलभद्रसिंह का यकायक गायब हो जाना तरह-तरह के खुटके पैदा करता है मगर हमें तुम्हारे ऊपर किसी तरह का सन्देह नहीं हो सकता। अगर तुम्हें ऐसा करना ही होता तो इतनी आफत उठाकर उन्हें क्यों छुड़ाते और क्यों यहां तक लाते! अस्तु तुम हमारी खफगी से तो बेफिक्र रहो मगर इस बात के जानने का उद्योग जरूर करो कि बलभद्रसिंह कहां गये और क्या हुए?

भूतनाथ – (सलाम करके) ईश्वर आपको सदैव प्रसन्न रक्खे, मैं आशा करता हूं कि एक सप्ताह के अन्दर ही बलभद्रसिंह का पता लगाकर उन्हें सरकार में उपस्थित करूंगा।

वीरेन्द्र – शाबाश, अच्छा अब तुम जाकर आराम करो।

आज्ञानुसार भूतनाथ वहां से उठकर अपने डेरे पर चला गया और बाकी लोग भी अपने ठिकाने कर दिये गये। जब राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह अकेले रह गए तब उन दोनों में यों बातचीत होने लगी –

वीरेन्द्र – कुछ समझ में नहीं आता है कि यह रहस्य कैसा है भूतनाथ की बातों से तो किसी तरह का खुटका नहीं होता!

तेज – जहां तक पता लगाया गया है उससे यही जाहिर होता है कि बलभद्रसिंह इस इमारत के बाहर नहीं गए, मगर इस बात पर भी विश्वास करना कठिन हो रहा है।

वीरेन्द्र – निःसन्देह ऐसा ही है!

तेज – अब देखा चाहिए, भूतनाथ एक सप्ताह के अन्दर क्या कर दिखाता है।

बीरेन्द्र – यद्यपि मैंने भूतनाथ की दिलजमई कर दी है परन्तु उसका जी शान्त नहीं हो सकता। खैर जो भी हो, मगर तुम उसे अपनी हिफाजत में समझो और पता लगाओ कि यह मामला कैसा है।

तेज – ऐसा ही होगा!

बयान – 10

मायारानी ने जब समझा कि वे फौजी सिपाही इस बाग के बाहर हो गये और गोपालसिंह को भी वहां न देखा तब हिम्मत करके अपने ठिकाने से निकली और पुनः बाग में आकर उस तरफ रवाना हुई जिधर उस गोपालसिंह को बेहोश छोड़ आई थी जो उसके चलाए हुए तिलिस्मी तमंचे की गोली के असर से बेहोश होकर बरामदे के नीचे आ रहा था, मगर वहां पहुंचने के पहिले ही उसने उस दूसरे कुएं के ऊपर एक गोपालसिंह को देखा जिसे फौजी सिपाहियों ने मिट्टी से पाट दिया था। मायारानी एक पेड़ की आड़ में खड़ी हो गई और उसी जगह से तिलिस्मी तमंचे वाली एक गोली इस गोपालसिंह पर चलाई, गोली लगाते ही गोपालसिंह लुढ़ककर जमीन पर आ रहा और मायारानी दौड़ती हुई उसके पास जा पहुंची। थोड़ी देर तक तो उसकी सूरत देखती रही, इसके बाद कमर से खंजर निकालकर गोपालसिंह का सिर काट डाला और तब खुशी-भरी निगाहों से चारों तरफ देखने लगी, यद्यपि उसे पूरा विश्वास न था कि मैंने असली गोपालसिंह को मार डाला है।

यद्यपि दिन बहुत चढ़ चुका था मगर अभी तक उसे जरूरी कामों से निपटने या कुछ खाने-पीने की परवाह न थी या यों कहिए कि उसे इन बातों की मोहलत ही नहीं मिल सकी थी। गोपालसिंह की लाश को उसी जगह छोड़कर वह बाग के तीसरे दर्जे में जाने की नीयत से अपने दीवानखाने में आई और उसी मालूमी राह से बाग के तीसरे दर्जे में चली गई जिस राह से एक दिन तेजसिंह वहां पहुंचाये गये थे।

वहां भी उसने दूर ही से नम्बर दो वाली कोठरी के दरवाजे पर एक गोपालसिंह को बैठे बल्कि कुछ करते हुए देखा। मायारानी ताज्जुब में आकर थोड़ी देर तक तो उस गोपालसिंह को देखती रही, इसके बाद उसे भी उसी तिलिस्मी तमंचे वाली गोली का निशाना बनाया। जब वह भी बेहोश होकर जमीन पर लेट गया तब मायारानी ने वहां पहुंचकर उसका भी सिर काट डाला और एक लम्बी सांस लेकर आप ही आप बोली, ”क्या अब भी असली गोपालसिंह न मरा होगा! मगर अफसोस, उस एक गोपालसिंह पर तो ऐसी गोली ने कुछ भी असर न किया था। कदाचित् असली गोपालसिंह वही हो!”

इसके जवाब में किसी ने कोठरी के अन्दर से कहा, ”हां, असली गोपालसिंह यह भी न था और असली गोपालसिंह अभी तक नहीं मरा!”

इस बात ने मायारानी का कलेजा दहला दिया और वह कांपती हुई ताज्जुब के साथ कोठरी के अन्दर देखने लगी।

अकस्मात् कोठरी के अन्दर से निकलते हुए नानक पर मायारानी की निगाह पड़ी। नानक को देखते ही मायारानी का पुराना क्रोध (जो नानक के बारे में था) पुनः उसके चेहरे पर दिखाई देने लगा। वह कुछ देर तक तो नानक को देखती रही और इसके बाद उसे तिलिस्मी गोली का निशाना बनाना चाहा मगर नानक मायारानी की अवस्था देखकर हंस पड़ा और बोला, ”क्या अब भी आप मुझे अपना पक्षपाती नहीं समझतीं?’

माया – क्यों तूने कौन-सा ऐसा काम किया है जिससे मैं तुझे अपना पक्षपाती समझूं?

नानक – क्या आपको इस बात की खबर न लगी होगी कि राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान तथा ऐयारों से मेरी गहरी दुश्मनी हो गई मेरा बाप गिरफ्तार करके दोषी ठहराया गया, वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने उसे बहुत तंग किया और इसी के साथ ही साथ मेरी भी बहुत बड़ी बेइज्जती की। मेरा बाप अपने बचाव की फिक्र कर रहा है और मैं उन सभों से बदला लेने का बन्दोबस्त कर रहा हूं। इस समय मैं इसलिए यहां आया हूं कि आप मेरी सहायता करें और मैं आपका साथ दूं।

माया – यदि तेरा कहना वास्तव में सच है तो बड़ी खुशी की बात है।

नानक – जो कुछ मैं कह रहा हूं उसके सच होने में किसी तरह का सन्देह न कीजिए। मैं उन लोगों की बुराई में जान तक खर्च करने का संकल्प कर चुका हूं।

माया – यदि तू पहिले ही मेरी बात मान चुका होता तो आज मुझे और तुझे दोनों ही को यह दिन देखना नसीब न होता। खैर आज भी अगर तू राह पर आ जाय तो हम लोग मिल-जुलकर बहुत कुछ कर सकते हैं।

नानक – उन दिनों मुझे हरी-हरी सूझती थी और उस दरबार से बहुत कुछ पाने की आशा थी मगर इस बात की खबर न थी कि उनके ऐयार अपनी मण्डली के सिवाय किसी नये या दूसरे ऐयार को अपने दरबार में देखना पसन्द नहीं करते। मुझे कमलिनी ने जितनी उम्मीदें दिलाई थीं उनका एक अंश भी पूरा न निकला, उल्टे मेरा बाप दोषी ठहराया गया।

माया – भूतनाथ पर जो कुछ इल्जाम लगाया गया है मुझे उसकी पूरी-पूरी खबर लग चुकी है। अब भूतनाथ बिना मेरी मदद के किसी तरह अपनी जान नहीं बचा सकता और न वह बलभद्रसिंह का ही पता लगा सकता है। सच तो यों है कि भूतनाथ ने मुझे भी बड़ा धोखा दिया।

नानक – उन दिनों जो कुछ उन्होंने किया सो किया क्योंकि कमलिनी की दिलाई हुई उम्मीदों ने उन्हें भी अन्धा कर दिया था, मगर अब तो उन्हें कमलिनी से भी दुश्मनी हो गयी है, और मैं भी यह सुनकर कि कमलिनी वगैरह को राजा गोपालसिंह ने इसी बाग में लाकर रक्खा है उससे बदला लेने का खयाल करके यहां आया हूं।

माया – यहां का रास्ता तुझे किसने बताया?

नानक – यहां के बहुत-से रास्तों का हाल कमलिनी ने ही मुझे बताया था, मैं एक दफे यहां पहिले भी आ चुका हूं।

माया – कब?

नानक – जब तेजसिंह को आपने कैद किया था और जब चंडूल ने आकर आप लोगों को छकाया था।

माया – (उन बातों की याद से कांपकर) तब तो तुम्हें मालूम होगा कि वह चण्डूल कौन था।

नानक – वह कमलिनी थी और मैं उसके साथ था।

माया – (कुछ सोचकर) हां… ठीक है। पर… तब तो तुम्हें… अच्छा… अच्छा तुम मेरे पास आओ। पहिले मैं निश्चय कर लूं कि तुम ईमानदारी से साथ देने के लिए तैयार हो या सब बातें धोखा देने के लिए कह रहे हो, इसके बाद अगर तुम सच्चे निकले तो हम दोनों आदमी मिलकर बहुत बड़ा काम कर सकेंगे और तुम्हें भी बहुत-सी… खैर तुम इधर आओ और मेरे साथ एकान्त में चलो।

नानक – (मायारानी के पास आकर) और यहां तीसरा कौन है जो हम लोगों की बातें सुनेगा!

माया – चाहे न हो मगर शक तो है।

मायारानी नानक को लिए दूसरी तरफ चली गई।

बयान – 11

संध्या होने में अभी दो घण्टे से कुछ ज्यादे देर थी जब कुंअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह और भैरोसिंह कमरे से बाहर निकलकर बाग के उस हिस्से में घूमने लगे जो तरह-तरह के खुशनुमा पेड़, फूल-पत्तों, गमलों और फैली हुई लताओं से सुन्दर और सुहावना मालूम पड़ता था क्योंकि इन तीनों को इन्द्रानी के मुंह से निकले हुए ये शब्द बखूबी याद थे कि ‘मगर आप लोग किसी मकान के अन्दर जाने का उद्योग न करें’।

भैरो – (घूमते हुए एक फूल तोड़कर) यहां एक तो बागीचे के लिए बहुत कम जमीन छोड़ी गई है दूसरे जो कुछ जमीन छोड़ी गई है उसमें भी काम खूबी और खूबसूरती के साथ नहीं लिया गया है, जहां पर जिस ढंग के पेड़ होने चाहिए वैसे नहीं लगाए गए हैं।

आनन्द – बाग के शौकीन लोग प्रायः बेला, चमेली, जुही और गुलाब इत्यादि खुशबूदार फूलों के पेड़ क्यारियों के बीच में लगाते हैं।

इन्द्रजीत – ऐसा न होना चाहिए, क्यारियों के अन्दर केवल पहाड़ी गुलबूटों के ही लगाने में मजा है, जूही, बेला, मोतिया इत्यादि देशी खुशबूदार फूलों को रविशों के दोनों तरफ लगाना चाहिए जिससे सैर करने वाला घूमता-फिरता जब चाहे एक-दो फूल तोड़के सूंघ सके।

आनन्द – बेशक, ऐसा न होना चाहिए कि खुशबूदार फूल तोड़ने की लालच में कहीं सैर करने वाला बुद्धि विसर्जन करके क्यारी के बीच में पैर रक्खे और जूते समेत फिल्ली तक जमीन के अन्दर जा रहे क्योंकि सिंचाव का पानी क्यारियों में जमा होकर कीचड़ करता है, इसलिए क्यारियों के बीच में उन्हीं पेड़-पौधों का होना आवश्यक है जिन्हें केवल देखने ही से तृप्ति हो जाय और जिनमें ज्यादे सर्दी और पानी को बर्दाश्त करने की ताकत हो।

भैरो – मेरी भी यही राय है, मगर साथ ही इसके यह भी कहूंगा कि गुलाब के पेड़ रविशों के दोनों तरफ न लगाने चाहिए जिसमें कांटों की बदौलत सैर करने वाले के (यदि वह भूल से कुछ किनारे की तरफ जा रहे तो) कपड़ों की दुर्गति हो जाय, उसके लिए क्यारी अलग ही होनी चाहिए जिसकी जमीन बहुत नम न हो।

इन्द्रजीत – ठीक है, इसी तरह चमेली के पेड़ों की कतार भी ऐसी जगह लगाना चाहिए जहां टट्टी बनाकर आड़ कर देने का इरादा हो।

भैरो – आड़ का काम तो मेंहदी की टट्टी से भी लिया जाता है।

इन्द्रजीत – हां लिया जाता है मगर जमीन के उस हिस्से में जो बीच वाली या खास जलसे वाली इमारत से कुछ दूर हो, क्योंकि मेंहदी जब फूलती है तो अपने सिवाय और फूलों की खुशबू का आनन्द लेने की इजाजत नहीं देती।

आनन्द – जैसे कि अब भैरोसिंह को हम लोग अपने साथ चलने की इजाजत न देंगे।

भैरो – (चौंककर) हैं! इसका क्या मतलब?

आनन्द – इसका मतलब यही है कि अब आप थोड़ी देर के लिए हम दोनों भाइयों का पिण्ड छोड़िये और कुछ दूर हटकर उधर की रविशों पर पैर थिरकाइए।

भैरो – (कुछ चिढ़कर) क्या अब मुझ ऐसे साथी और ऐयार से भी बात छिपाने की नौबत आ गई?

आनन्द – (इन्द्रजीतसिंह का इशारा पाकर) हां, और इसलिए कि बात छिपाने का कायदा तुम्हारी तरफ से जारी हो गया।

भैरो – सो कैसे?

आनन्द – अपने दिल से पूछो।

भैरो – क्या मैं वास्तव में भैरोसिंह नहीं हूं?

आनन्द – तुम्हारे भैरोसिंह होने में कोई शक नहीं है बल्कि तुम्हारी बातों की सचाई में शक है।

भैरो – यह शक कब से हुआ?

आनन्द – जब से तुमने स्वयम् कहा कि राजा गोपालसिंह ने तुम्हें इस तिलिस्म में पहुंचाते समय ताकीद कर दी थी कि सब काम कमलिनी की आज्ञानुसार करना, यहां तक कि यदि कमलिनी तुम्हें सामना हो जाने पर भी कुमार से मिलने के लिए मना करे तो तुम कदापि न मिलना।1

भैरो – (कुछ सोचकर) हां ठीक है, मगर आपको यह कैसे निश्चय हुआ कि मैंने राजा गोपालसिंह की बात मान ली?

इन्द्र – यह इसी से मालूम हो गया कि तुमने अपने बटुए का जिक्र करते समय तिलिस्मी खंजर का जिक्र छोड़ दिया।

भैरो – (कुछ सोचकर और शर्माकर) बेशक यह मुझसे भूल हुई।

आनन्द – कि उस तिलिस्मी खंजर के लिए भी कोई अनूठा किस्सा गढ़कर हम लोगों को सुना न दिया।

भैरो – (और भी शर्माकर) नहीं ऐसा नहीं है, उस समय मैं इतना कहना भूल गया कि ऐयारी के बटुए के साथ-साथ वह तिलिस्मी खंजर मुझे उस नकाबपोश या पीले मकरन्द से नहीं मिला, उन्होंने कसम खाकर कहा कि तुम्हारा खंजर हममें से किसी के पास नहीं है।

आनन्द – हां – और तुमने मान लिया!

भैरो – (हिचकता हुआ) इस जरा-सी भूल के हो जाने पर ऐसा न होना चाहिए कि आप लोग अपना विश्वास मुझ पर से उठा लें।

इन्द्रजीत – नहीं-नहीं, इससे हम लोगों का खयाल ऐसा नहीं हो सकता कि तुम भैरोसिंह नहीं हो या अगर हो भी तो हमारे दुश्मनों के साथी बनकर हमें नुकसान पहुंचाया चाहते हो! कदापि

1देखिए चंद्रकान्ता सन्तति, सत्रहवां भाग, चौदहवां बयान।

नहीं। हम लोग अब भी तुम्हारा उतना ही भरोसा रखते हैं जितना पहिले रखते थे, मगर कुछ देर के लिए जिस तरह तुम असली बातों को छिपाते हो उसी तरह हम भी छिपावेंगे।

अभी भैरोसिंह इस बात का जवाब सोच ही रहा था कि सामने से एक औरत आती हुई दिखाई पड़ी। तीनों का ध्यान उसी तरफ चला गया। कुछ पास आने और ध्यान देने पर दोनों कुमारों ने उसे पहिचान लिया कि इसे हम बाग में आने के पहिले इन्द्रानी और आनन्दी के साथ नहर के किनारे देख चुके हैं।

आनन्द – यह भी उन्हीं औरतों में से है जिन्हें हम लोग इन्द्रानी और आनन्दी के साथ पहिले बाग में नहर के किनारे देख चुके हैं!

इन्द्रजीत – बेशक, मगर सब की सब एक ही खानदान की मालूम पड़ती हैं यद्यपि उम्र में इन सभों के बहुत फर्क नहीं है।

आनन्द – देखा चाहिए यह क्या सन्देशा लाती है।

इतने में वह कुमार के और पास आ पहुंची और हाथ जोड़कर दोनों कुमारों की तरफ देखती हुई बोली, ”इन्द्रानी और आनन्दी ने हाथ जोड़कर आप दोनों से इस बात की माफी मांगी है कि अब वे दोनों आप लोगों के सामने हाजिर नहीं हो सकतीं।”

इन्द्रजीत – (ताज्जुब से) सो क्यों?

औरत – उन्हें इस बात का बहुत रंज है कि वे आप लोगों की खातिरदारी अच्छी तरह से न कर सकीं और उनके गुरु महाराज ने उन्हें आप लोगों का सामना करने से रोक दिया।

इन्द्रजीत – आखिर इसका कोई सबब भी है?

औरत – इसके सिवाय तो और कोई सबब नहीं जान पड़ता कि उन दोनों की शादी आप दोनों भाइयों के साथ होने वाली है।

इन्द्रजीत – (ताज्जुब के साथ) मुझसे और आनन्द से!

औरत – जी हां।

इन्द्रजीत – हमारे या हमारे बुजुर्गों की इच्छा के बिना ही?

औरत – जी हां।

इन्द्रजीत – चाहे हम लोग राजी हों या न हों?

औरत – जी हां।

इन्द्रजीत – तब तो यह खासी जबर्दस्ती है!

औरत – जी हां।

इन्द्रजीत – क्या उनके गुरु महाराज में इतनी सामर्थ्य है कि अपनी इच्छानुसार हम लोगों के साथ बर्ताव करें?

औरत – जी हां।

इन्द्रजीत (झुंझलाकर) कभी नहीं, कदापि नहीं!

आनन्द – ऐसा हो ही नहीं सकता! (औरत से, जो जाने के लिए अपना मुंह फेर चुकी थी) क्या तुम जाती हो?

औरत – जी हां।

इन्द्रजीत – क्या भेजने वालों ने तुम्हें कह दिया था कि ‘जी हां’ के सिवाय और कुछ मत बोलना?

औरत – जी हां।

इन्द्रजीतसिंह की झुंझलाहट देखकर उस औरत को भी हंसी आ गई और वह मुस्कुराती हुई जिधर से आई थी उधर ही चली गई तथा थोड़ी दूर जाकर नजरों से गायब हो गई। तब भैरोसिंह ने दिल्लगी के तौर पर कुमार से कहा, ”आप लोगों की खुशकिस्मती का कोई ठिकाना है! रम्भा और उर्वशी के समान औरतें जबर्दस्ती आप लोगों के गले मढ़ी जाती हैं, तिस पर मजा यह कि आप लोग नखरा करते हैं! ऐसा ही है तो मुझे कहिए मैं आपकी सूरत बनकर ब्याह कर लूं।”

इन्द्रजीत – तब कमला किसके नाम की हांडी चढ़ावेगी?

भैरो – अजी कमला से क्या जाने कब मुलाकात हो और क्या हो! यह तो परोसी हुई थाली ठहरी।

इन्द्रजीत – ठीक है मगर भैरोसिंह, जहां तक मेरा खयाल है मैं समझता हूं कि तुम्हें इस ब्याह-शादी वाले मामले की कुछ-न-कुछ खबर जरूर है।

भैरो – अगर खबर हो भी तो अब मैं कुछ कहने का साहस नहीं कर सकता।

आनन्द – सो क्यों?

भैरो – इसलिए कि आप लोग मुझे झूठा समझ चुके हैं।

इन्द्र – सो तो जरूर है।

भैरो – (चिढ़कर) अगर ऐसा ही खयाल है तो अब मैं आप लोगों के साथ रहना भी मुनासिब नहीं समझता।

इन्द्र – मेरी भी यही राय है।

भैरो – अच्छा तो (सलाम करता हुआ) जय माया की।

इन्द्र – जय माया की!

आनन्द – जय माया की, मगर यह तो मालूम हो कि आप जायेंगे कहां?

भैरो – इससे आपको कोई मतलब नहीं।

इन्द्र – हां साहब, इससे हम लोगों को मतलब नहीं, आप जाइए और जल्द जाइए।

इसके जवाब में भैरोसिंह ने कुछ भी न कहा और वहां से रवाना होकर पूरब तरफ वाली इमारत के नीचे वाली एक कोठरी में घुस गया, इसके बाद मालूम न हुआ कि भैरोसिंह का क्या हुआ या वह कहां गया। उसके जाने के बाद दोनों कुमार भी धीरे-धीरे उसी कोठरी में चले गए मगर वहां भैरोसिंह दिखाई न पड़ा और न उस कोठरी में से किसी तरफ जाने का रास्ता ही मालूम हुआ।

इन्द्र – (आनन्द से) क्यों हम लोगों का खयाल ठीक निकला न!

आनन्द – निःसन्देह वह झूठा था, अगर ऐसा न होता तो जानकारों की तरह इस कोठरी में घुसकर गायब न हो जाता।

इन्द्र – बात तो यह है कि तिलिस्म के इस भाग में बहुत समझ-बूझकर काम करना चाहिए जहां की आबोहवा अपनों को भी पराया कर देती है।

आनन्द – मामला तो कुछ ऐसा ही नजर आता है। मेरी राय में तो अब यहां चुपचाप बैठना भी व्यर्थ जान पड़ता है। यहां से किसी तरफ जाने का उद्योग करना चाहिए।

इन्द्र – अब आज की रात तो सब्र करके बिता दो, कल सबेरे कुछ-न-कुछ बन्दोबस्त जरूर करेंगे।

इसके बाद दोनों भाई वहां से हटे और टहलते हुए बावली के पास आकर संगमर्मर वाले चबूतरे पर बैठ गए। उसी समय उन्होंने एक आदमी को सामने वाली इमारत के अन्दर से निकलकर अपनी तरफ आते देखा।

यह शख्स वही बुड्ढा दारोगा था जिससे पहले बाग में मुलाकात हो चुकी थी, जिसने नानक को गिरफ्तार किया था और जिसके दिये हुए कमन्द के सहारे दोनों कुमार उस दूसरे बाग में उतरकर इन्द्रानी और आनन्दी से मिले थे।

जब वह कुमार के पास पहुंचा तो साहब-सलामत के बाद कुमारों ने उसे इज्जत के साथ अपने पास बैठाया और यों बातचीत होने लगी –

इन्द्रजीत – आज पुनः आपसे मुलाकात होने की आशा तो न थी?

दारोगा – बेशक मुझे भी इस बात का गुमान न था परन्तु एक आवश्यक कार्य के कारण मुझे आप लोगों की सेवा में उपस्थित होना पड़ा। क्षमा कीजिएगा जिस समय आप कमन्द के सहारे उस बाग में उतरे थे उस समय मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि उन औरतों में जिन्हें देखकर आप उस बाग में गए थे दो औरतें ऐसी हैं जिन्हें और बातों के अतिरिक्त यहां की रानी कहलाने की प्रतिष्ठा भी प्राप्त है। जिन्दगी का पिछला भाग इस बुढ़ौती के लिबास में काट रहा हूं इसलिए आंखों की रोशनी और ताकत ने भी एक तौर पर जवाब ही दे दिया है, इसीलिए मैं उन औरतों को भी पहिचान न सका।

इन्द्र – खैर तो यह बात ही क्या थी जिसके लिए आप माफी मांग रहे हैं और इससे मेरा हर्ज भी क्या हुआ आप उस काम की फिक्र कीजिए जिसके लिए आपको यहां आने की तकलीफ उठानी पड़ी।

दारोगा – इस समय वे ही दोनों अर्थात् इन्द्रानी और आनन्दी मेरे यहां आने का सबब हुई हैं। मैं आपके पास इस बात की इत्तिला करने के लिए भेजा गया हूं कि परसों उन दोनों औरतों की शादी आप दोनों भाइयों के साथ होने वाली है, आशा है कि आप दोनों भाई इसे स्वीकार करेंगे।

इन्द्र – मैं अफसोस के साथ यह जवाब देने पर मजबूर हूं कि हम लोग इस शादी को मंजूर नहीं कर सकते और इसके कई सबब हैं।

दारोगा – ठीक है, मुझे भी पहिले-पहिल यही जवाब सुनने की आशा थी, मगर मैं आपको अपनी तरफ से भी नेकनीयती के साथ यह राय दूंगा कि आप इस शादी से इनकार न करें और मुझे उन सब बातों के कहने का मौका न दें जिन्हें लाचारी की हालत में निवेदन करके समझाना पड़ेगा कि आप इस शादी से इनकार नहीं कर सकते, बाकी रही यह बात कि इनकार करने के कई सबब हैं, सो यद्यपि मैं उन कारणों के जानने का दावा तो नहीं कर सकता मगर इतना तो जरूर कह सकता हूं कि सबसे बड़ा सबब जो है वह केवल मुझी को नहीं बल्कि सभों को यहां तक कि इन्द्रानी और आनन्दी को भी मालूम है। परन्तु मैं आपको भरोसा दिलाता हूं कि किशोरी और कामिनी को भी इस शादी से किसी तरह का दुख न होगा क्योंकि उन्हें इस बात की पूरी-पूरी खबर है कि यह शादी ही आपकी और उनकी मुलाकात का सबब होगी, बिना इस शादी के हुए वे आपको और आप उन्हें देख भी नहीं सकते।

इन्द्र – मैं आपकी बातों पर विश्वास करने की कोशिश करूंगा परन्तु और सब बातों को किनारे रखकर मैं आपसे पूछता हूं कि यह शादी किस रीति के अनुसार हो रही है विवाह के आठ प्रकार शास्त्र में कहे हैं, यह उनमें से कौन-सा प्रकार है और ऐसी शादी का नतीजा क्या निकलेगा। यद्यपि इसमें मेरी कुछ हानि नहीं हो सकती परन्तु मेरी अनिच्छा के कारण जो कुछ हानि हो सकती है इसका विचार लड़की वाले के सिर है।

दारोगा – ठीक है, मगर जहां तक मैं सोचता हूं इन सब बातों पर अच्छी तरह विचार किया जा चुका है और ज्योतिषी ने भी निश्चय दिला दिया है कि इस शादी का नतीजा दोनों तरफ बहुत अच्छा निकलेगा। यद्यपि आप इस समय प्रसन्न नहीं होते परन्तु अन्त में बहुत ही प्रसन्न होंगे। अच्छा इस समय तो मैं जाता हूं क्योंकि मैं केवल इत्तिला करने के लिए आया था वादविवाद करने के लिए नहीं। परन्तु इसका जवाब पाने के लिए कल प्रातःकाल अवश्य आऊंगा।

इतना कहकर दारोगा उठ खड़ा हुआ और जवाब का इन्तजार कुछ भी न करके जिधर से आया था उधर ही चला गया। उसके जाने के बाद कुछ देर तक तो दोनों भाई उसी जगह बातचीत करते रहे और इसके बाद जरूरी कामों से छुट्टी पा और उसी बावली पर संध्या-वन्दन कर पुनः उस कमरे में चले आये जिसमें दोपहर तक बिता चुके थे। इस समय संध्या हो चुकी थी और कुमारों को यह देखकर ताज्जुब हो रहा था कि उस कमरे में रोशनी हो चुकी थी मगर किसी गैर की सूरत दिखाई नहीं पड़ती थी।

कुमार को उस कमरे में गए बहुत देर न हुई होगी कि इन्द्रानी और आनन्दी वहां आ पहुंचीं जिन्हें देख कुमार बहुत खुश हुए और इन्द्रजीतसिंह ने इन्द्रानी से कहा, ”तुमने तो कहला भेजा था कि अब मैं मुलाकात नहीं कर सकती!”

इन्द्रानी – बेशक ऐसा ही है मगर मैं छिपकर आपसे कुछ कहने के लिए आई हूं।

इन्द्रजीत – वह कौन-सी बात है जिसने तुम्हें छिपकर यहां आने के लिए मजबूर किया और वह कौन-सा कसूर है जिसने मुझे तुम्हारा मेहमान।

इन्द्रानी – (बात काटकर और मुस्कुराकर) मैं आपकी सब बातों का जवाब दूंगी, आप मेहरबानी करके जरा मेरे साथ इस दूसरे कमरे में आइए।

इन्द्रजीत – क्या मेरी चीठी का जवाब भी लाई हो?

इन्द्रानी – जी हां, जवाब की चीठी भी इसी समय आपको दूंगी। (इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को उठते देखकर आनन्दसिंह से) आप इसी जगह ठहरिये (आनन्दी से) तू भी इसी जगह ठहर, मैं अभी आती हूं।

इन्द्रजीतसिंह यद्यपि इन्द्रानी के साथ शादी करने से इनकार करते थे मगर इन्द्रानी और आनन्दी की खूबसूरती, बुद्धिमानी, सभ्यता और उनकी मीठी बातें इस योग्य न थीं कि कुमार के दिल पर गहरा असर न करतीं और सामना होने पर उसे अपनी तरफ न खेंचतीं। इन्द्रजीतसिंह इन्द्रानी की बात से इनकार न कर सके और खुशी-खुशी उसके साथ दूसरे कमरे में चले गए।

हम नहीं कह सकते कि इन्द्रजीतसिंह और इन्द्रानी में दो घण्टे तक क्या बातें हुईं और इधर आनन्दसिंह और आनन्दी में कैसी ठहरी, मगर इतना जरूर कहेंगे कि जब इन्द्रजीतसिंह और इन्द्रानी दोनों आदमी लौटकर कमरे में आये तो बहुत खुश थे और इसी तरह आनन्दी और आनन्दसिंह के चेहरे पर भी खुशी की निशानी पाई जाती थी। इन्द्रानी और आनन्दी के चले जाने के बाद कई औरतें खाने-पीने का सामान लेकर हाजिर हुईं और दोनों भाई भोजन करके सो रहे। सुबह को जब वह दारोगा अपनी बातों का जवाब लेने के लिए आया तो दोनों कुमार उससे खुशी-खुशी मिले और बोले कि हम दोनों भाइयों को इन्द्रानी और आनन्दी के साथ ब्याह करना स्वीकार है।

बयान – 12

कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने इन्द्रानी और आनन्दी से ब्याह करना स्वीकार कर लिया और इस सबब से उस छोटे-से बाग में ब्याह की तैयारी दिखाई देने लगी। इन दोनों कुमारों के ब्याह का बयान धूमधाम से लिखने के लिए हमारे पास कोई मसाला नहीं है। इस शादी में न तो बारात है न बाराती, न गाना है न बजाना, न धूम है न धड़क्का, न महफिल है न ज्याफत, अगर कुछ बयान किया भी जाय तो किसका! हां इसमें कोई शक नहीं कि ब्याह कराने वाले पण्डित अविद्वान् और लालची न थे, तथा शास्त्र की रीति से ब्याह कराने में किसी तरह की त्रुटि भी दिखाई नहीं देती थी। बावली के ऊपर संगमर्मर वाला चबूतरा ब्याह का मड़वा बनाया गया था और उसी पर दोनों शादियां एक साथ ही हुई थीं, अस्तु ये बातें भी इस योग्य नहीं कि जिनके बयान में तूल दिया जाय और दिलचस्प मालूम हों, हां इस शादी के सम्बन्ध में कुछ बातें ऐसी जरूर हुईं जो ताज्जुब और अफसोस की थीं। उनका बयान इस जगह कर देना हम आवश्यक समझते हैं।

इन्द्रानी के कहे मुताबित कुंअर इन्द्रजीतसिंह को आशा थी कि राजा गोपालसिंह से मुलाकात होगी मगर ऐसा न हुआ। ब्याह के समय पांच-सात औरतों के (जिन्हें कुमार देख चुके थे मगर पहिचानते न थे) अतिरिक्त केवल चार मर्द वहां मौजूद थे। एक वही बुड्ढा दारोगा, दूसरे ब्याह कराने वाले पण्डितजी, तीसरे एक आदमी और जो पूजा इत्यादि की सामग्री इधर से उधर समयानुकूल रखता था और चौथा आदमी वह था जिसने कन्यादान (दोनों का) किया था। चाहे वह इन्द्रानी और आनन्दी का बाप हो या गुरु हो या चाचा इत्यादि जो कोई भी हो, मगर उसकी सूरत देख कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। यद्यपि उसकी उम्र पचास से ज्यादे न थी मगर वह साठ वर्ष से भी ज्यादे उम्र का बुड्ढा मालूम होता था। उसके खूबसूरत चेहरे पर जर्दी छाई थी, बदन में हड्डी ही हड्डी दिखाई देती थीं, और मालूम होता था कि इसकी उम्र का सबसे बड़ा हिस्सा रंज-गम और मुसीबत ही में बीता है। इसमें कोई शक नहीं कि यह किसी जमाने में खूबसूरत, दिलेर और बहादुर रहा होगा, मगर अब तो अपनी सूरत-शक्ल से देखने वालों के दिल में दुःख ही पैदा करता था। दोनों कुमार ताज्जुब की निगाहों से उसे देखते रहे और उसका असल हाल जानने की उत्कण्ठा उन्हें बेचैन कर रही थी।

कन्यादान हो जाने के बाद दोनों कुमारों ने अपनी-अपनी अंगुली से अंगूठी उतारकर अपनी-अपनी स्त्री को (निशानी या तोहफे के तौर पर) दी और इसके बाद सभों की इच्छानुसार दोनों भाई उठ उसी कमरे में चले गये जो एक तौर पर उनके बैठने का स्थान हो चुका था। इस समय रात घण्टे-भर से कुछ कम बाकी थी।

दोनों कुमारों को उस कमरे में बैठे पहर-भर से ज्यादे बीत गया मगर किसी ने आकर खबर न ली कि वे दोनों क्या कर रहे हैं और उन्हें किसी चीज की जरूरत है या नहीं। आखिर राह देखते-देखते लाचार होकर दोनों कुमार कमरे के बाहर निकले और इस समय बाग में चारों तरफ सन्नाटा देखकर उन्हें बड़ा ही ताज्जुब हुआ। इस समय न तो उस बाग में कोई आदमी था और न ब्याह-शादी के सामान में से ही कुछ दिखाई देता था, यहां तक कि उस संगमर्मर के चबूतरे पर भी (जिस पर ब्याह का मड़वा था) हर तरह से सफाई थी और यह नहीं मालूम होता था कि आज रात को इस पर कुछ हुआ था।

बेशक यह बात ताज्जुब की थी बल्कि इससे भी बढ़कर यह बात ताज्जुब की थी कि दिन भर बीत जाने पर भी किसी ने उनकी खबर न ली। जरूरी कामों से छुट्टी पाकर दोनों कुमारों ने बावली में स्नान किया और दो-चार फल जो कुछ उस बागीचे में मिल सके खाकर उसी पर सन्तोष किया।

दोनों भाइयों ने तरह-तरह के सोच-विचार में दिन ज्यों-त्यों करके बिता दिया मगर संध्या होते-होते जो कुछ वहां पर उन्होंने देखा उसके बर्दाश्त करने की ताकत उन दोनों के कोमल कलेजों में न थी। संध्या होने में थोड़ी ही देर थी जब उन दोनों ने उस बुड्ढे दारोगा को तेजी के साथ अपनी तरफ आते हुए देखा। उसकी सूरत पर हवाई उड़ रही थीं और वह घबड़ाया हुआ-सा मालूम पड़ रहा था। आने के साथ ही उसने कुंअर इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर कहा, ”बड़ा अन्धेर हो गया! आज का दिन हम लोगों के लिए प्रलय का दिन था इसलिए आपकी सेवा में उपस्थित न हो सका!”

इन्द्रजीत (घबड़ाहट और ताज्जुब के साथ) क्या हुआ?

दारोगा – आश्चर्य है कि इसी बाग में दो-दो खून हो गए और आपको कुछ मालूम न हुआ!!

इन्द्रजीत – (चौंककर) कहां और कौन मारा गया?

दारोगा – (हाथ का इशारा करके) उस पेड़ के नीचे चलकर देखने से आपको मालूम होगा कि एक दुष्ट ने इन्द्रानी और आनन्दी को इस दुनिया से उठा दिया, लेकिन बड़ी कारीगरी से मैंने खूनी को गिरफ्तार कर लिया है।

यह एक ऐसी बात थी जिसने इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के होश उड़ा दिए। दोनों घबड़ाए हुए उस बुड्ढे दारोगा के साथ पूरब तरफ चले गये और एक पेड़ के नीचे इन्द्रानी और आनन्दी की लाश देखी। उनके बदन में कपड़े और गहने सब वही थे जो आज रात को ब्याह के समय कुमार ने देखे थे, और पास ही एक पेड़ के साथ बंधा हुआ नानक भी उसी जगह मौजूद था। उन दोनों को देखने के साथ ही इन्द्रजीतसिंह ने नानक से पूछा, ”क्या इन दोनों को तूने मारा है’

इसके जवाब में नानक ने कहा, ”हां, इन दोनों को मैंने मारा है और इनाम पाने का काम किया है, ये दोनों बड़ी ही शैतान थीं!”

(अठारहवां भाग समाप्त)

चंद्रकांता संतति – Chandrakanta Santati

चंद्रकांता संतति लोक विश्रुत साहित्यकार बाबू देवकीनंदन खत्री का विश्वप्रसिद्ध ऐय्यारी उपन्यास है।

बाबू देवकीनंदन खत्री जी ने पहले चन्द्रकान्ता लिखा फिर उसकी लोकप्रियता और सफलता को देख कर उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाया और ‘चन्द्रकान्ता संतति’ की रचना की। हिन्दी के प्रचार प्रसार में यह उपन्यास मील का पत्थर है। कहते हैं कि लाखों लोगों ने चन्द्रकान्ता संतति को पढ़ने के लिए ही हिन्दी सीखी। घटना प्रधान, तिलिस्म, जादूगरी, रहस्यलोक, एय्यारी की पृष्ठभूमि वाला हिन्दी का यह उपन्यास आज भी लोकप्रियता के शीर्ष पर है।

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चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग – Chandrakanta Santati Atharhava Bhag

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Further Reading:

  1. चंद्रकांता संतति पहला भाग
  2. चंद्रकांता संतति दूसरा भाग
  3. चंद्रकांता संतति तीसरा भाग
  4. चंद्रकांता संतति चौथा भाग
  5. चंद्रकांता संतति पाँचवाँ भाग
  6. चंद्रकांता संतति छठवां भाग
  7. चंद्रकांता संतति सातवाँ भाग
  8. चंद्रकांता संतति आठवाँ भाग
  9. चंद्रकांता संतति नौवां भाग
  10. चंद्रकांता संतति दसवां भाग
  11. चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग
  12. चंद्रकांता संतति बारहवां भाग
  13. चंद्रकांता संतति तेरहवां भाग
  14. चंद्रकांता संतति चौदहवां भाग
  15. चंद्रकांता संतति पन्द्रहवां भाग
  16. चंद्रकांता संतति सोलहवां भाग
  17. चंद्रकांता संतति सत्रहवां भाग
  18. चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग
  19. चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग
  20. चंद्रकांता संतति बीसवां भाग
  21. चंद्रकांता संतति इक्कीसवां भाग
  22. चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग
  23. चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग
  24. चंद्रकांता संतति चौबीसवां भाग

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