चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग
चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग

चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग – Chandrakanta Santati Gyarahava Bhag

चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग

बयान – 1

अब हम अपने पाठकों को पुनः कमलिनी के तिलिस्मी मकान की तरफ ले चलते हैं जहां बेचारी तारा को बदहवास और घबड़ाई हुई छोड़ आये हैं।

हम उस बयान में लिख चुके हैं कि छत के ऊपर जो पुतली थी उसे तेजी के साथ नाचते हुए देखकर तारा घबड़ा गई और बदहवास होकर कमलिनी को याद करने लगी, इसका सबब यह था कि यद्यपि बेचारी तारा उस तिलिस्मी मकान का पूरा-पूरा हाल नहीं जानती थी मगर फिर भी बहुत से भेद उसे मालूम थे और कमलिनी से सुन चुकी थी कि जब इस मकान पर कोई आफत आने वाली होगी तब वह पुतली (जिसके नाचने का हाल लिखा जा चुका है) तेजी के साथ घूमने लगेगी, उस समय समझना चाहिए कि इस मकान में रहने वालों की कुशल नहीं है। यही सबब था कि तारा बदहवास होकर इधर-उधर देखने लगी और उसकी अवस्था देखकर किशोरी और कामिनी को भी निश्चय हो गया कि बदकिस्मती ने अभी तक हम लोगों का पीछा नहीं छोड़ा और अब यहां भी कोई नया गुल खिलना चाहता है।

जिस समय तारा घबड़ाकर इधर-उधर देख रही थी, उसकी निगाह यकायक पूरब की तरफ जा पड़ी जिधर दूर तक साफ मैदान था। तारा ने देखा कि लगभग आध कोस की दूरी पर सैकड़ों आदमी दिखाई दे रहे हैं। इसी के साथ ही साथ तारा की तेज निगाह ने यह भी बता दिया कि वे लोग जिनकी गिनती चार सौ से कम न होगी, या तो फौजी सिपाही हैं या लड़ाई के फन में होशियार लुटेरों का कोई गिरोह है जो दुश्मनी के साथ थोड़ी ही देर में इस मकान को घेरकर उपद्रव मचाना चाहता है। इसके बाद तारा की निगाह तालाब पर पड़ी जिस पर उसे पूरा-पूरा भरोसा था और जानती थी कि इस जल को तैरकर कोई भी इस मकान में घुस आने का दावा नहीं कर सकता, मगर अफसोस इस समय तालाब की अवस्था भी बदली हुई थी अर्थात् उसमें का जल तेजी के साथ कम हो रहा था और लोहे की जालियां, जाल या फन्दे, जो जल के अन्दर छिपे हुए थे, अब जल कम होते जाने के कारण धीरे-धीरे उसके ऊपर निकलते चले आ रहे थे। इन्हीं जालियों और फन्दों के कारण कोई आदमी उस तालाब में घुसकर अपनी जान नहीं बचा सकता था और इनका खुलासा हाल हम पहले लिख चुके हैं।

तारा ने जब तालाब का जल घटते और जालों को जल के बाहर निकलते देखा तो उसकी बची – बचाई आशा भी जाती रही, मगर उसने अपने दिल को सम्हालकर इस आने वाली आफत से किशोरी और कामिनी को होशियार कर देना उचित जाना। उसने किशोरी और कामिनी की तरफ देखकर कहा – ”बहिन, अब मुझे एक आफत का हाल तो मालूम हो गया जो हम लोगों पर आना चाहती है। (उन फौजी आदमियों की तरफ इशारा करके, जो दूर से इसी तरफ आते हुए दिखाई दे रहे थे) वे लोग हमारे दुश्मन जान पड़ते हैं जो शीघ्र ही यहां आकर हम लोगों को गिरफ्तार कर लेंगे। मुझे पूरा-पूरा भरोसा था कि इस तालाब में तैरकर या घरनाई अथवा डोंगी के सहारे कोई इस मकान तक नहीं आ सकता क्योंकि जल के अन्दर लोहे के जाल इस ढंग से बिछे हुए हैं कि इसमें तैरने वाली चीज बिना फंसे और उलझे नहीं रह सकती, मगर वह बात भी जाती रही। देखो तालाब का जल कितनी तेजी के साथ घट रहा है, और जब सब जल निकल जायगा तो इस बीच वाले जाल को तोड़ या बिगाड़कर यहां तक चले आने में कुछ भी कठिनता न रहेगी। मालूम होता है कि दुश्मनों ने इसका बन्दोबस्त पहले ही से कर रक्खा था अर्थात् सुरंग खोदकर जल निकालने और तालाब सुखाने का बन्दोबस्त किया गया है और निःसन्देह वे अपने काम में कृतकार्य हुए। (कुछ सोचकर) बड़ी कठिनाई हुई। (आसमान की तरफ देख के) मां जगदम्बे, सिवाय तेरे हम अबलाओं की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं, और तेरी शरण आए हुए को दुःख देने वाला भी जगत में कोई नहीं। मैं इतना दुःख भोगकर आज तक केवल तेरे ही भरोसे जी रही हूं और जब इसकी प्रसन्नता हुई कि आज तक तेरा ध्यान धरके जान बचाये रहना वृथा न हुआ तो अब यह बात यह क्या क्यों किसके साथ क्या उसके साथ जो तुम पर भरोसा रक्खे नहीं-नहीं, इसमें भी अवश्य तेरी कुछ माया है!”

भगवती की प्रार्थना करते-करते तारा की आंखें बन्द हो गईं। मगर इसके बाद तुरत ही वह चौंकी तथा किशोरी और कामिनी की तरफ देख के बोली, ”निःसन्देह महामाया हम अबलाओं की रक्षा करेंगी। हमें हताश न होना चाहिए, उन्हीं की कृपा से इस समय जो कुछ करना चाहिए वह भी सूझ गया। शुक्र है कि इस समय दो-एक को छोड़कर बाकी सब आदमी मेरे घर के अन्दर ही हैं। अच्छा देखो तो सही कि मैं क्या करती हूं।” यह कहती हुई तारा छत के नीचे उतर गई।

हमारे पाठकों को याद होगा कि यह मकान किस ढंग का बना हुआ था। वे भूले न होंगे कि इस मकान के चारों तरफ जो छोटा-सा सहन है, उसके चारों कोनों में चार पुतलियां हाथों में तीर-कमान लिए इस ढंग से खड़ी हैं मानो अभी तीर छोड़ा ही चाहती हैं। इस समय बेचारी तारा छत पर से उतरकर उन्हीं पुतलियों में से एक पुतली के पास आई। उसने इस पुतली का सिर पकड़कर पीठ की तरफ झुकाया और पुतली बिना परिश्रम झुकती चली गई यहां तक कि जमीन के साथ लग गई। इस समय तालाब का जल करीब चौथाई के सूख चुका था, पुतली झुकने के साथ ही जल में खलबली पैदा हुई। उस समय तारा ने प्रसन्न हो पीछे की तरफ फिरकर देखा तो किशोरी और कामिनी पर निगाह पड़ी जो तारा के साथ ही साथ नीचे उतर आई थीं और उसके पीछे खड़ी यह कार्रवाई देख रही थीं। कई लौंडियां भी पीछे की तरफ नजर पड़ीं जो इत्तिफाक से इस समय मकान के अन्दर ही थीं। तारा ने कहा, ”कोई हर्ज नहीं दुश्मन हमारे पास नहीं आ सकते।”

किशोरी – मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया कि तुम क्या कर रही हो और इस पुतली के झुकाने से जल में खलबली क्यों पैदा हुई

तारा – ये पुतलियां इसी काम के लिए बनी हैं कि जब दुश्मन किसी तरकीब से इस तालाब को सुखा डाले और इस मकान में आने का इरादा करे तो इन चारों पुतलियों से काम लिया जाय। इस मकान की कुरसी गोल है और इसमें चार चक्र लगे हुए हैं जिनकी धार तलवार की तरह और चौड़ाई सात हाथ से कुछ ज्यादा होगी, हाथ भर की चौड़ाई तो मकान की दीवार में चारों तरफ घुसी हुई है जिसका सम्बन्ध किसी कल-पुर्जे से है और छह हाथ की चौड़ाई मकान की दीवार से बाहर की तरफ निकली हुई है। ये चारों चक्र जल के अन्छर छिपे हुए हैं और इस मकान को इस तरह घेरे हुए हैं जैसे छल्ला या सादी अंगूठी उंगली को। जब इन चारों पुतलियों में से एक पुतली झुकाकर जमीन के साथ सटा दी जायगी तो एक चक्रा तेजी के साथ घूमने लगेगा, इसी तरह दूसरी पुतली झुकने से दूसरा, तीसरी पुतली झुकने से तीसरा और चौथी पुतली झुकने से चौथा चक्र भी घूमने लगेगा। उस समय किसी की मजाल नहीं कि इस मकान के पास फटक जाय, जो आवेगा उसके चार टुकड़े हो जायेंगे। मैंने जो इस पुतली को झुका दिया है इस सबब से एक चक्र घूमने लगा है और उसी की तेजी से जल में खलबली पैदा हो गई है। पहले मुझे यह हाल मालूम न था, कमलिनी के बताने से मालूम हुआ है। विशेष कहने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम स्वयं देखती हो कि जल किस तेजी के साथ कम हो रहा है। हाथ भर जल कम होने दो फिर स्वयं देख लेना कि कैसा चक्र है और किस तेजी के साथ घूम रहा है।

किशोरी – (आश्चर्य से) मकान की पूरी हिफाजत के लिए अच्छी तरकीब निकाली है।

तारा – इन चक्रों के अतिरिक्त इस मकान की हिफाजत के लिए और भी कई चीजें हैं मगर उनका हाल मुझे मालूम नहीं है।

किशोरी ने गौर से जल की तरफ देखा जो चक्र के घूमने की तेजी से मकान के पास की तरफ खलबला रहा था और उसमें पैदा हुई लहरें किनारे तक जा-जाकर टक्कर खा रही थीं। जल बहुत ही साफ था इसलिए शीघ्र ही कोई चमकती हुई चीज भी दिखाई देने लगी। जैसे-जैसे जल कम होता जाता था, वह चक्र साफ-साफ दिखाई देता था। थोड़ी ही देर बाद जल विशेष घट जाने के कारण चक्र साफ निकल आया जो बहुत ही तेजी के साथ घूम रहा था। किशोरी ने ताज्जुब में आकर कहा, ”बेशक अगर इसके पास लोहे का आदमी भी आवेगा तो कटकर दो टुकड़े हो जायगा!” वह बड़े गौर से उस चक्र को देख रही थी कि आदमियों के शोरगुल की आवाजें आने लगीं। तारा समझ गई कि दुश्मन पास आ गये। उसने किशोरी और कामिनी की तरफ देखके कहा, ”बहिनो, अब तीन पुतलियां और रह गई हैं, हमें उन्हें भी झटपट झुका देना चाहिए क्योंकि दुश्मन आ पहुंचे। एक पुतली को तो मैं झुकाती हूं और दो पुतलियों को तुम दोनों झुका दो, फिर छत पर चलकर देखो तो सही ईश्वर क्या करता है और इन दुश्मनों की क्या अवस्था होती है।

तीनों पुतलियों का झुकाना थोड़ी देर का काम था जो किशोरी, कामिनी और तारा ने कर दिया और इसके बाद तीनों छत के ऊपर चढ़ गईं। तारा ने एक और काम किया अर्थात् कमान और बहुत से तीर भी अपने साथ छत के ऊपर लेती गई।

चारों पुतलियों के झुक जाने से जल में बहुत ज्यादा खलबली पैदा हुई, मालूम होता था कि जल तेजी के साथ मथा जा रहा है जिससे झाग और फेन पैदा हो रहा था।

अपने यहां की लौंडियों और नौकरों को कुछ समझाकर कामिनी तथा किशोरी को साथ लिए हुए तारा छत के ऊपर चढ़ गई और वहां से जब दुश्मनों की तरफ देखा तो मालूम हुआ कि वे लोग, जो गिनती में चार सौ से किसी तरह कम न होंगे, तालाब के पास पहुंच गये हैं और तालाब के खौलते हुए जल तथा उस एक चक्र को, जो इस समय जल के बाहर निकला हुआ तेजी के साथ घूम रहा था, हैरत की निगाह से देख रहे हैं।

तारा – किशोरी बहिन देखो, अगर इस समय उन चारों पुतलियों का हाल मालूम न होता तो हम लोगों की तबाही में कुछ बाकी न था!

किशोरी – बेशक इस समय तो उन चारों चक्रों ही ने हम लोगों की जान बचा ली। दुश्मन लोग इस समय उन चक्रों को आश्यर्च से ही देख रहे हैं और इस तरफ कदम बढ़ाने की हिम्मत नहीं करते।

कामिनी – मगर हम लोग कब तक इस अवस्था में रह सकते हैं क्या वे चारों चक्र इसी तरह बहुत दिनों तक घूमते रह सकते हैं?

तारा – हां, अगर हम लोग स्वयं न रोक दें तो एक महीने एक बराबर घूमते रहेंगे, इसके बाद इन चक्रों के घुमाने के लिए कोई दूसरी तरकीब करनी होगी जो मुझे मालूम नहीं।

किशोरी – अगर ऐसा है तो महीने भर तक हम लोग बेखौफ रह सकते हैं, और क्या इस बीच में हमारी मदद करने वाला कोई भी नहीं पहुंचेगा!

तारा – क्यों नहीं पहुंचेगा! मान लिया जाय कि हमारा साथी इस बीच में कोई न आवे तो भी रोहतासगढ़ से मदद जरूर आवेगी, क्योंकि यह जमीन रोहतासगढ़ की अमलदारी में है और रोहतासगढ़ यहां से बहुत दूर भी नहीं है, अस्तु ऐसा नहीं हो सकता कि राजा की अमलदारी में इतने आदमी मिलकर उपद्रव मचावें और राजा को कुछ खबर न हो।

कामिनी – ठीक है मगर यह तो कहो कि बहुत दिनों तक काम चलाने के लिए गल्ला इस मकान में है?

तारा – ओह, गल्ले की क्या कमी है, साल-भर से ज्यादा दिन तक काम चलाने के लिए गल्ला मौजूद है!

कामिनी – और जल के लिए क्या बन्दोबस्त होगा! क्योंकि जितनी तेजी के साथ इस तालाब का जल निकल रहा है उससे तो मालूम होता है कि पहर भर के अन्दर तालाब सूख जायगा।

कामिनी की इस बात ने तारा को चौंका दिया। उसके चेहरे से बेफिक्री की निशानियां जो चारों पुतलियों की करामात से पैदा हो गई थीं, जाती रहीं और उसके बदले में घबराहट और परेशानी ने अपना दखल जमा लिया। तारा की यह अवस्था देखकर किशोरी और कामिनी को विश्वास हो गया कि इस तालाब का जल सूख जाने पर बेशक हम लोगों को प्यासे रहकर जान देनी पड़ेगी, क्योंकि अगर ऐसा न होता तो तारा घबराकर चुप न हो जाती, जरूर कुछ जवाब देती। आखिर तारा को चिन्ता में डूबे हुए देखकर कामिनी ने पुनः कुछ कहना चाहा मगर मौका न मिला, क्योंकि तारा यकायक कुछ सोचकर उठ खड़ी हुई, और कामिनी तथा किशोरी को अपने पीछे-पीछे आने का इशारा करके छत के नीचे उतर कमरों में घूमती-फिरती उस कोठरी में पहुंची जिसमें नहाने के लिए छोटा-सा हौज बना हुआ था, जिसमें एक तरफ से तालाब का जल आता और दूसरी तरफ से निकल जाता था। इस समय तालाब में पानी कम हो जाने के कारण हौज का जल भी कुछ कम हो गया था। तारा ने वहां पहुंचने के साथ ही फुर्ती से उन दोनों रास्तों को बन्द कर दिया जिनसे हौज में जल आता और निकल जाता था। इसके बाद एक ऊंची सांस लेकर उसने कामिनी की तरफ देखा, और कहा –

तारा – ओफ, इस समय बड़ा ही गजब हो चला था! अगर तुम पानी के विषय में याद न दिलातीं तो इस हौज की तरफ से मैं बिल्कुल बेफिक्र थी। इसका ध्यान भी न था कि तालाब का जल कम हो जाने पर यह हौज भी सूख जायगा और तब हम लोगों को प्यासे रहकर जान देनी पड़ेगी।

किशोरी – तो इससे जाना जाता है कि तालाब सूख जाने पर, सिवाय इस छोटे से हौज के और कोई चीज ऐसी नहीं है जो हम लोगों की प्यास बुझा सके?

कामिनी – और यह हौज तीन-चार दिन से ज्यादा काम नहीं चला सकता, ऐसी अवस्था में उन चक्रों का महीने-भर तक घूमना ही वृथा है, क्योंकि हम लोग प्यास के मारे मौत के मेहमान हो जायंगे। अफसोस, जिस कारीगर ने इस मकान की हिफाजत के लिए ऐसी चीजें बनाईं, और जिसने यह सोचकर कि तालाब का जल सूख जाने पर भी इस मकान में रहने वालों पर मुसीबत न आवे, ये घूमते वाले चक्र बनाये उसने इतना न सोचा कि तालाब सूखने पर यहां के रहने वाले जल कहां से पीयेंगे। उसे इस मकान में एक कुआं भी बना देना था।

तारा – ठीक है, मगर जहां तक मैं खयाल करती हूं कि इस मकान के बनाने वाले कारीगर ने इतनी बड़ी भूल न की होगी। उसने कोई कुआं अवश्य बनाया होगा, लेकिन मुझे तो उसका पता मालूम ही नहीं। खैर, देखा जायगा, मैं उसका पता अवश्य लगाऊंगी।

कामिनी – मुझे एक बात का खतरा और भी है।

तारा – वह क्या?

कामिनी – वह यह है कि तालाब सूख जाने पर ताज्जुब नहीं कि यहां तक पहुंचने के लिए इस मकान के नीचे सुरंग खोदने और दीवार तोड़ने की कोशिश दुश्मन लोग करें।

तारा – ऐसा तो हो ही नहीं सकता, इस मकान की दीवार किसी जगह से किसी तरह टूट नहीं सकती।

इसी बीच तालाब के बाहर से विशेष कोलाहल की आवाज आने लगी, जिसे सुन तारा, किशोरी और कामिनी मकान के ऊपर चली गईं, और छिपकर दुश्मनों का हाल देखने लगीं। वे लोग इस मकान में पहुंचना कठिन जानकर शोरगुल मच रहे थे और कई आदमी हाथ में तीरकमान लिए इस वास्ते भी तैयार दिखाई दे रहे थे कि कोई आदमी इस मकान के बाहर निकले तो उस पर तीर चलावें। किशोरी ने बड़ी गौर से दुश्मनों की तरफ देखकर तारा से कहा, ”बहिन तारा, इन दुश्मनों में बहुत से लोग ऐसे हैं, जिनको मैं बखूबी पहचानती हूं, क्योंकि जब मैं अपने बाप के घर में थी, तो ये लोग मेरे बाप के नौकर थे।

तारा – ठीक है, मैं भी इन लोगों को पहचानती हूं, बेशक ये लोग तुम्हारे बाप के नौकर हैं और उन्हीं को छुड़ाने के लिए यहां आये हैं।

किशोरी – (चौंककर) तो क्या मेरे पिता इसी मकान में कैद हैं?

तारा – हां, वे भी इसी मकान में कैद हैं।

किशोरी को जब यह मालूम हुआ कि उसका बाप इस मकान में कैद है तो उसके दिल पर एक प्रकार की चोट-सी बैठी। यद्यपि उसने अपने बाप की बदौलत बहुत तकलीफें उठाई थीं। बल्कि यों कहना चाहिए कि अभी तक अपने बाप की बदौलत दुःख भोग रही है और दर-दर मारी-मारी फिरती है, मगर फिर भी किशोरी का दिल पाक साफ और शीघ्र ही पसीज जाने वाला था। वह अपने बाप का हाल सुनते ही कुछ देर के लिए वे सब बातें भूल गई जिनकी बदौलत आज तक दुर्दशा की छतरी उसके सिर पर से नहीं हटी थी। इसके साथ ही पल भर के लिए उसकी आंखों के सामने वह खंडहर वाला दृश्य भी घूम गया जहां उसके सगे भाई ने खंजर से उसकी जान लेने के लिए वीरता प्रकट की थी। मगर रामशिला वाले साधु के पहुंच जाने से कुछ न कर सका था। वह यह भी जानती थी कि उसका भाई भीमसेन पिता की आज्ञा पाकर मेरी जान लेने के लिए आया था और अब भी अगर पिता का बस चले तो मेरी जान लेने में विलम्ब न करे, मगर फिर भी कोमल-हृदया किशोरी के दिल में बाप को देखने की इच्छा प्रकट हुई, और उसने डबडबाई हुई आंखों से तारा की तरफ देखकर गद्गद् स्वर से कहा –

किशोरी – बहिन, तुम्हें आश्चर्य होगा कि यदि मैं पिता को देखने की इच्छा प्रकट करूं, मगर लाचार हूं, जी नहीं मानता।

तारा – हां, यदि कोई दूसरी बेकसूर लड़की ऐसे पिता से मिलने की इच्छा प्रकट करती तो अवश्य आश्चर्य की जगह थी, मगर तेरे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि मैं तेरे स्वभाव को अच्छी तरह जानती हूं, परन्तु बहिन किशोरी, मुझे निश्चय है कि तू अपने पिता को देखकर प्रसन्न न होगी, बल्कि तुझे दुःख होगा, वह तुझे देखते ही बेबस रहने पर भी हजारों गालियां देगा, और कच्चा ही खा जाने के लिए तैयार हो जायगा।

किशोरी – तुम्हारा कहना ठीक है, परन्तु मैं माता-पिता की गाली को आशीर्वाद समझती हूं, यदि वे कुछ कहेंगे तो कोई हर्ज नहीं, और मैं ज्यादा देर तक उनके पास ठहरूंगी भी नहीं, केवल एक नजर देखकर पिछले पैर लौट आऊंगी। मुझे विश्वास है कि दुश्मन लोग जो तालाब के बाहर खड़े हैं, इस समय मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते और यदि तुम्हारी कृपा होगी तो मैं ऐसे समय में भी बेफिक्री के साथ अपने पिता को एक नजर देख सकूंगी।

तारा – खैर, जब ऐसा कहती हो तो लाचार मैं तुम्हें कैदखाने में ले चलने के लिए तैयार हूं, चलकर अपने पिता को देख लो।

कामिनी – क्या मैं भी तुम लोगों के साथ चल सकती हूं?

तारा – हां-हां, कोई हर्ज नहीं, तू भी चलकर अपनी रानी माधवी को एक नजर देख ले।

लौंडियों को बुलाकर हौज के विषय में तथा और भी किसी विषय में समझा-बुझाकर किशोरी और कामिनी को साथ लिए हुए तारा वहां से रवाना हुई और एक कोठरी में से लालटेन तथा खंजर ले दूसरी कोठरी में गई जिसमें किसी तरह का सामान न था। इस कोठरी में मजबूत ताला लगा हुआ था जो खोला गया और तीनों कोठरी के अन्दर गईं। कोठरी बहुत छोटी थी और इस योग्य न थी कि वहां का कुछ हाल लिखा जाय। इस कोठरी के नीचे एक तहखाना था जिसमें जाने के लिए छोटा-सा मगर लोहे का खूब मजबूत दरवाजा जमीन में दिखाई दे रहा था। तारा ने लालटेन जमीन पर रखकर कमर में से ताली निकाली और तहखाने का दरवाजा खोला। नीचे बिल्कुल अंधकार था इसलिए तारा ने जब लालटेन उठाकर दिखाया तो छोटी-छोटी सीढ़ियां नजर पड़ीं। किशोरी, कामिनी को पीछे-पीछे आने का इशारा करके तारा तहखाने में उतर गई मगर जब नीचे पहुंची तो यकायक चौंककर ताज्जुब भरी निगाहों के साथ इस तरह चारों तरफ देखने लगी जैसे किसी की कोई अनमोल, अलभ्य और अनूठी चीज यकायक सामने से गुम हो जाय और वह आश्चर्य से चारों तरफ देखने लगे।

यह तहखाना दस हाथ चौड़ा और पन्द्रह हाथ लम्बा था। इसकी अवस्था कहे देती थी कि यह जगह केवल हथकड़ी-बेड़ी से सुशोभित कैदियों की खातिरदारी के लिए ही बनाई गई है। बिना चौखट-दरवाजे की छोटी-छोटी दस कोठरियां जो एक के साथ दूसरी लगी हुई थीं एक तरफ और उसी ढंग की उतनी ही कोठरियां उसके सामने दूसरी तरफ बनी हुई थीं। इतनी कम जमीन में बीस कोठरियों के ध्यान ही से आप समझ सकते हैं कि कैदियों का गुजारा किस तकलीफ से होता होगा।

दोनों तरफ तो कोठरियों की पंक्ति थी और बीच में थोड़ी-सी जगह इस योग्य बची हुई थी कि यदि कैदियों को रोटी-पानी पहुंचाने या देखने के लिए कोई जाय तो अपना काम बखूबी कर सके। इसी बची हुई जमीन के एक सिरे पर तहखाने में आने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं। जिस राह से इस समय तारा, किशोरी और कामिनी आई थीं उसी के सामने अर्थात् दूसरे सिरे पर लोहे का एक छोटा मजबूत दरवाजा था जो इस समय खुला था और एक बड़ा-सा खुला हुआ ताला उसके पास ही जमीन पर पड़ा हुआ था जो बेशक उसी दरवाजे में उस समय लगा होगा जब वह दरवाजा बन्द होगा। इसी दरवाजे को खुला हुआ और अपने कैदियों को न देखकर तारा चौंकी और घबराकर चारों तरफ देखने लगी थी।

तारा – बड़े आश्चर्य की बात है कि हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े हुए कैदी क्योंकर निकल गये और इस दरवाजे का ताला किसने खोला। निःसन्देह या तो हमारे नौकरों में से किसी ने कैदियों की मदद की या कैदियों का कोई मित्र इस जगह आ पहुंचा। मगर नहीं, इस दरवाजे को दूसरी तरफ से कोई खोल नहीं सकता, परन्तु…?

किशोरी – क्या यह किसी सुरंग का दरवाजा है?

तारा – समय पड़ने पर आने-जाने के लिए यह एक सुरंग है जो यहां से बहुत दूर जाकर निकली है। वर्षों हो गये इस सुरंग से कोई काम नहीं लिया गया, केवल उस दिन यह सुरंग खोली गई थी जिस दिन तुम्हारे पिता गिरफ्तार हुए थे क्योंकि वे इसी सुरंग की राह से यहां लाए गये थे।

कामिनी – मैं समझती हूं कि इस सुरंग के दरवाजे को बन्द करने में जल्दी करनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि इस राह से दुश्मन लोग आ पहुंचें और हमारा बनाबनाया खेल बिगड़ जाय।

किशोरी – मेरी तो यह राय है कि इस सुरंग के अन्दर चलकर देखना चाहिए, शायद कैदियों का कुछ…!

तारा – मेरी भी यही राय है, मगर इस तरह खाली हाथ सुरंग के अन्दर जाना उचित न होगा, शायद दुश्मनों का सामना हो जाय, अच्छा ठहरो मैं तिलिस्मी नेजा लेकर आती हूं।

इतना कहकर तारा तिलिस्मी नेजा लेने के लिए चली मगर अफसोस उसने बड़ी भारी भूल की कि सुरंग के दरवाजे को बिना बन्द किए ही चली आई और इसके लिए उसे बहुत रंज उठाना पड़ा अर्थात् जब वह तिलिस्मी नेजा लेकर लौटी और तहखाने में पहुंची तो वहां किशोरी और कामिनी को न पाया, निश्चय हो गया कि उसी सुरंग की राह से जिसका दरवाजा खुला हुआ था दुश्मन आये और किशोरी तथा कामिनी को पकड़ के ले गये।

बयान – 2

किशोरी और कामिनी के गायब हो जाने का तारा को बड़ा रंज हुआ, यहां तक कि उसने अपनी जान की कुछ भी परवाह न की और तिलिस्मी नेजा हाथ में लिए हुए बेधड़क उस सुरंग में घुस गई। यह वही तिलिस्मी नेजा था जो कमलिनी ने उसे दिया था और जिस पर तारा को बहुत भरोसा था।

आज के पहले तारा को इस सुरंग के अन्दर जाने का अवसर नहीं पड़ा था इसलिए वह नहीं जानती कि यह सुरंग कैसी है, अस्तु, उसने तिलिस्मी नेजे का कब्जा दबाया, उसमें से बिजली की तरह चमक पैदा हुई और उसी रोशनी में तारा ने दरवाजे के अन्दर कदम रक्खा। दो ही कदम जाने बाद नीचे उतरने के लिए कई सीढ़ियां दिखाई दीं और जब तारा नीचे उतर गई तो सीधी सुरंग मिली।

तारा बड़ी तेजी के साथ बल्कि यों कहना चाहिए कि दौड़ती हुई उस सुरंग में रवाना हुई और जब वह थोड़ी दूर चली गई तो उसे कई आदमी दिखाई पड़े जो आगे की तरफ जा रहे थे मगर अपने पीछे तिलिस्मी नेजे की अद्भुत चमक देखकर रुक गये थे और ताज्जुब भरी निगाहों से उस चमक को देख रहे थे जो पल भर में पास होकर उनकी आंखों में चकाचौंध पैदा कर रही थी।

ये लोग वे ही थे जो किशोरी और कामिनी को जबर्दस्ती पकड़ के ले गये थे। वे लोग बहुत दूर जाने न पाये थे जब तिलिस्मी नेजा लिए हुए तारा लौट आई थी, इसके अतिरिक्त किशोरी और कामिनी को जबर्दस्ती घसीटते लिए जा रहे थे इसलिए तेज भी नहीं चल सकते थे, यही सबब था कि तारा ने बहुत जल्द उन्हें जा पकड़ा। उन लोगों के साथ एक लालटेन थी मगर नेजे की चमक ने उसे बेकार कर दिया था। जब उन लोगों ने दूर से तारा को देखा तो एक दफे उनकी यह इच्छा हुई कि तारा को भी पकड़ लेना चाहिए परन्तु नेजे की अद्भुत करामात ने उनका दिल तोड़ दिया और चमक से उनकी आंखें ऐसी बेकार हुईं कि भागने का भी उद्योग न कर सके।

बात की बात में तारा उन लोगों के पास जा पहुंची जो गिनती में चार थे। यदि तारा के हाथ में तिलिस्मी नेजा न होता तो वे लोग उसे भी अवश्य पकड़ लेते मगर यहां तो मामला ही और था। नेजे की चमक से लाचार होकर वे स्वयं दोनों हाथों से अपनी-अपनी आंखें बन्द करके बैठ गये थे तथा किशोरी और कामिनी की भी यही अवस्था थी।

तारा ने फुर्ती से तिलिस्मी नेजा चारों आदमियों के बदन से लगा दिया जिससे वे लोग कांपकर बात की बात में बेहोश हो गये। अब तारा ने नेजे का मुट्ठा ढीला किया, उसकी चमक बन्द हो गई और उस समय किशोरी और कामिनी ने आंखें खोलकर तारा को देखा।

किशोरी और कामिनी का हाथ रस्सी से बंधा हुआ था जिसे तारा ने तुरत खोल दिया। किशोरी और कामिनी बड़ी मुहब्बत के साथ तारा से लिपट गईं और तीनों की आंखों से गर्म आंसू गिरने लगे। तारा ने किशोरी और कामिनी से कहा, ”बहिन, तुम जरा यहां ठहरो, मैं थोड़ी दूर तक आगे बढ़कर देखती हूं कि क्या हाल है, अगर कोई दुश्मन न मिला तो भी सुरंग के दूसरे किनारे पर पहुंचकर दरवाजा बन्द कर देना आवश्यक है। मुझे निश्चय है कि बाहरी दुश्मन इस दरवाजे को नहीं खोल सकते, मगर ताज्जुब है कि कैदियों ने क्योंकर ये दरवाजे खोले।”

किशोरी – ठीक है मगर मेरी राय नहीं है कि तुम आगे बढ़ो। कहीं ऐसा न हो कि दुश्मनों का सामना हो जाय। इससे यही उचित होगा कि यहां से लौट चलो और सुरंग तथा तहखाने का मजबूत दरवाजा बन्द करके चुपचाप बैठो फिर जो ईश्वर करेगा देखा जायगा।

तारा – (कुछ सोचकर) बेहतर होगा कि तुम दोनों चली जाओ और सुरंग तथा तहखाने का दरवाजा बन्द करके चुपचाप बैठो और मुझे इस सुरंग की राह में इसी समय निकल जाने दो क्योंकि कैदियों का भाग जाना मामूली बात नहीं है, निःसन्देह वे लोग भारी उपद्रव मचावेंगे और मुझे कमलिनी के आगे शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी। यह तो कहो ईश्वर ने बड़ी कृपा की कि तुम दोनों बहिन शीघ्र ही मिल गईं नहीं तो अनर्थ हो ही चुका था और मैं कमलिनी को मुंह दिखाने लायक नहीं रही थी। अब जब तक कैदियों का पता न लगा लूंगी मेरी जी ठिकाने न होगा।

कामिनी – बहिन, तुम यह क्या कह रही हो! जरा सोचो तो सही कि इतने दुश्मनों में तुम्हारा अकेले जाना उचित होगा और क्या इस बात को हम लोग मान लेंगे?

तारा – (तिलिस्मी नेजे की तरफ इशारा करके) यह एक ऐसी चीज मेरे पास है कि मैं हजार दुश्मनों के बीच में अकेली जाकर फतह के साथ लौट आ सकती हूं। यद्यपि तुम दोनों ने इस समय इस नेजे की करामात देख ली मगर फिर भी मैं कहती हूं कि इस नेजे का असल हाल तुम्हें मालूम नहीं है इसी से मुझे रोकती हो।

किशोरी – बेशक इस नेजे की करामात मैं देख चुकी हूं और यह निःसन्देह एक अनूठी चीज है मगर फिर भी मैं तुमको अकेले न जाने दूंगी, अगर जिद करोगी तो हम दोनों भी तुम्हारे साथ चलेंगी।

तारा ने बहुत-कुछ समझाया और जोर मारा मगर किशोरी और कामिनी ने एक न मानी और तारा को मजबूर होकर उन दोनों की बात माननी पड़ी। अन्त में यह निश्चय हुआ कि सुरंग के किनारे पर चलकर उसका दरवाजा बन्द कर देना चाहिए और इन बदमाशों को भी घसीटकर ले चलना चाहिए और सुरंग के बाहर कर देना चाहिए, अपने आदमियों को कैद करने की आवश्यकता नहीं है – आखिर ऐसा ही किया गया।

किशोरी, कामिनी और तारा कैदियों को घसीटते हुए ले गईं और आधे घंटे में सुरंग के दूसरे मुहाने पर पहुंचीं। यह मुहाना पहाड़ी के एक खोह से सम्बन्ध रखता था और वहां लोहे का छोटा-सा दरवाजा लगा हुआ था जो इस समय खुला था। तारा ने कैदियों को बाहर फेंककर दरवाजा बन्द कर दिया और इसके बाद तीनों वहां से लौट पड़ीं। रास्ते में तारा ने तिलिस्मी नेजे और खंजर का पूरा-पूरा हाल किशोरी और कामिनी को समझाया।

तहखाने में पहुंचकर सुरंग का दूसरा दरवाजा बन्द किया गया और फिर ऊपर पहुंचकर तारा ने तहखाने का दरवाजा भी बन्द करके ताला लगा दिया।

इधर तालाब का जल तेजी के साथ सूख रहा था क्योंकि तालाब के ऊपरी हिस्से में लम्बाई-चौड़ाई ज्यादा होने के कारण जल भी ज्यादा अंटता है इसी तरह निचले हिस्से में लम्बाई-चौड़ाई कम होने के कारण जल कम रहता है, इसीलिए बनिस्बत ऊपरी हिस्से के तालाब के निचले हिस्से का जल क्रमश तेजी के साथ कम होता गया, यहां तक कि जब तारा सुरंग और तहखाने से निकलकर मकान की छत पर पहुंची तो उसने तालाब को सूखा हुआ पाया। मकान के चारों तरफ घूमने वाले लोहे के चक्र तेजी के साथ घूम रहे थे और दुश्मन लोग यह सोचकर कि उन चक्रों की बदौलत मकान तक पहुंचना बहुत कठिन बल्कि असम्भव है उन चक्रों को ताज्जुब के साथ देख और उनको रोकने की तरकीब सोच रहे थे। इधर किशोरी, कामिनी और तारा भी उनकी इस अवस्था को मकान की छत पर से दीवार के उन छेदों की राह देख रही थीं जो दुश्मनों पर तोप के गोले बरसाने के लिए बने हुए थे।

इस समय रात दो घण्टे से ज्यादा जा चुकी थी मगर पहर ही भर तक दर्शन देकर अस्त हो जाने वाले चन्द्रमा की रोशनी दुश्मनों की किसी कार्रवाई को अंधेरे के पर्दे में छिपी रहने नहीं देती थी।

दुश्मनों ने जब देखा कि चक्रों के सबब से मकान तक पहुंचना असम्भव है तो उन्होंने उद्योग का एक मजेदार ढंग निकाला जिसे देख तारा, किशोरी और कामिनी के दिल में खौफ पैदा हुआ, अर्थात् दुश्मनों ने तालाब को मिट्टी से पाटना शुरू किया। बेशक यह तरकीब बहुत ही अच्छी थी क्योंकि तालाब पट जाने पर उन चक्रों का घूमना न घूमना बराबर था और आश्चर्य नहीं कि मिट्टी के अन्दर दब जाने के कारण वे रुक भी जाते, मगर इस काम के लिए दुश्मनों को मामूली से बहुत ज्यादा समय नष्ट करना पड़ा क्योंकि उन लोगों के पास जमीन खोदने के लिए फावड़ा या कुदाली की किस्म का कोई औजार न था, खंजर, तलवार और नेजों ही से वे लोग जो कुछ कर सकते था, करने लगे।

दुश्मनों के इस उद्योग को देखकर तारा का कलेजा दहल गया और उसने अफसोस के साथ किशोरी की तरफ देख के कहा –

तारा – अहो अब इस उद्योग का क्या जवाब दिया जाय?

किशोरी – यद्यपि वे लोग एक दिन में तालाब नहीं पाट सकते मगर हम लोगों के बचाव के लिए अब कोई तरकीब सोचनी चाहिए क्योंकि तालाब पट जाने पर ये चारों चक्र जमीन के अन्दर हो जायेंगे और उस समय इस मकान में दुश्मनों का घुस आना कुछ कठिन न होगा।

कामिनी – उस सुरंग की राह भाग जाने के सिवाय हम लोग और कुछ भी नहीं कर सकेंगे।

तारा – क्या दुश्मन लोग सुरंग के उस मुहाने को सूना छोड़ देंगे जिसका पूरा-पूरा हाल उन लोगों को मालूम हो चुका है?

कामिनी – इसकी आशा भी नहीं हो सकती, बेशक भागना मुश्किल हो जायगा। खैर जो कुछ होगा देखा जायेगा। इस समय तो मैं यही मुनासिब समझती हूं कि तीर मारकर दुश्मनों की गिनती कम करनी चाहिए। वे लोग हम लोगों पर कोई हर्बा नहीं चला सकते।

तारा – हां, इस समय तो यही करना मुनासिब होगा इसके बाद जो राय होगी किया जायगा, मगर बहिन, मैं फिर भी कहती हूं कि तुम मुझे तिलिस्मी नेजा हाथ में लेकर सुरंग की राह से निकल जाने दो, फिर देखो तो सही कि मैं अकेली इतने दुश्मनों को क्योंकर बात की बात में मार गिराती हूं। तुम्हें इस नेजे का हाल पूरा-पूरा मालूम हो ही चुका है अतएव उस पर भरोसा करके तुम्हें उचित है कि मुझे न रोको, मैं नहीं चाहती कि यह तालाब पट जाय और फिर सफाई कराने के लिए तकलीफ उठानी पड़े।

कामिनी – तुम्हारा कहना ठीक है, इस नेजे की जहां तक तारीफ की जाय कम है, और तुम उन सभी को जहन्नुम में पहुंचा सकोगी जो दुश्मनी की नीयत से तुम्हारे पास आयेंगे, मगर उनका तुम क्या बिगाड़ सकोगी जो दूर ही से तुम्हें तीर का निशाना बनावेंगे।

तारा – (कुछ सोचकर) बेशक, यह एक ऐसी बात तुमने कही जिस पर विचार करना चाहिए… अच्छा, खूब याद आया। इस मकान में फौलाद का एक ऐसा कवच है, जो बदन पर ठीक आ सकता है, मैं उसे पहनकर जाऊंगी और तीर की चोट से बेफिक्र रहूंगी। यद्यपि इस पर भी तुम कह सकती हो कि आंख, नाक, कान, मुंह इत्यादि किस-किस जगह की तुम हिफाजत कर सकती हो मगर इसके साथ ही यह बात भी सोचना चाहिए कि अगर तालाब पाटकर दुश्मन यहां घुस आवेंगे और हम लोगों को पकड़ लेंगे तो क्या होगा अपनी बेइज्जती कराना और बेहुर्मती के साथ जान देना अच्छा होगा या बहादुरी के साथ सौ-पचास को मारकर लड़ाई के मैदान में मिट जाना उचित होगा?

किशोरी – जब ऐसा ही है और तुम प्राण देने के लिए मुस्तैद होकर जाती ही हो तो हम दोनों को क्यों छोड़े जाती हो क्या इसलिए कि तुम्हारे बाद हम लोगों की दुर्दशा और बेइज्जती हो?

इस विषय में किशोरी, कामिनी और तारा में देर तक हुज्जत और बहस होती रही, अन्त में यही निश्चय हुआ कि सूरत बदलने और कवच पहनने के बाद हाथ में तिलिस्मी नेजा लेकर तारा सुरंग की राह से जाय और दुश्मनों का मुकाबला करे, किशोरी और कामिनी दोनों में से एक या दोनों तारा के साथ सुरंग में जायें और जब तारा सुरंग के बाहर हो जाय तो हर एक दरवाजे को बन्द करती हुई लौट आवें। इसके बाद दुश्मनों के भाग जाने पर मकान में तारा का लौट आना कोई मुश्किल न होगा।

यह बात तै पाई गई और तीनों नौजवान औरतें जिनमें आपस में बहिनों से भी बढ़कर मुहब्बत हो गई थी, छत के नीचे उतर आईं और कोठरी में चली गयीं। तारा ने ऐयारी के मसाले से अपने को रंगा और अपनी ऐसी भयानक सूरत बनाई कि देखने वाला कैसी ही जीवट का क्यों न हो, मगर एक दफे तो अवश्य ही डर जाय। इसके बाद कवच पहना और तिलिस्मी नेजा लेकर सुरंग में रवाना हुई, हाथ में एक लालटेन लिए किशोरी और कामिनी भी साथ हुईं।

पहले तहखाने वाली कोठरी का दरवाजा खोला गया, फिर सुरंग का दरवाजा खोलकर तीनों मुंहबोली बहिनें सुरंग में दाखिल हो गयीं।

ये तीनों बीस-पच्चीस कदम से ज्यादा न गई होंगी कि पीछे की तरफ से यकायक दरवाजा बन्द कर लेने की आवाज आई, जिसे सुनते ही तीनों चौंक पड़ीं और खड़ी हो गयीं। तारा ने किशोरी और कामिनी की तरफ देखकर कहा – ”हैं, यह क्या बात है मालूम होता है कि हमारा दुश्मन हमारे घर ही में है!” यह कहती हुई किशोरी और कामिनी के साथ तारा पीछे की तरफ लौटी और जब सुरंग के दरवाजे के पास आई तो दरवाजा बन्द पाया। खटखटाया, धक्का दिया, जोर किया, मगर दरवाजा न खुला। इस समय उन तीनों अबलाओं के दिल की क्या हालत हुई होगी सो हमारे बुद्धिमान पाठक स्वयं सोच सकते हैं। कामिनी ने घबराकर तारा से कहा, ”तुम्हारा कहना ठीक है, बेशक हमारा दुश्मन हमारे घर ही में है।”

किशोरी – चाहे कोई हमारा नौकर हमारा दुश्मन हो या दुश्मन का कोई ऐयार हमारे नौकर की सूरत में यहां आकर टिका हो।

तारा – अब शक दूर हो गया और निश्चय हो गया कि कैदियों को इसी कम्बख्त ने निकाल दिया। मैं ताज्जुब में थी कि यह दरवाजा जो दूसरी तरफ से किसी तरह नहीं खुल सकता क्योंकर खुला और कैदी लोग क्योंकर निकल गये, मगर अब जो कुछ असल बात थी, जाहिर हो गई। अब उस शैतान ने (चाहे वह कोई भी हो) इसलिए यह दरवाजा बन्द कर दिया कि हम लोग पुनः लौटकर घर में न आ पावें। अफसोस बड़ा ही धोखा हुआ कि इतने पर भी हम लोग उससे बेफिक्र रहे और इस समय भी वह छिपकर हम लोगों के साथ ही साथ कैदखाने में उतरा, मगर कुछ मालूम न हुआ। (कुछ रुककर) हमारे नौकरों और लौंडियों को क्या मालूम हो सकता है कि इस समय हम लोगों के साथ किस दुष्ट ने कैसा बर्ताव किया!

कामिनी – क्या इस तरफ इस दरवाजे को खोलने की कोई तरकीब नहीं है?

तारा – कोई नहीं।

कामिनी – और अगर दुश्मनों ने सुरंग के मुहाने का दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया हो तो क्या होगा?

तारा – उस दरवाजे के दूसरी तरफ ऐसी चीज नहीं है जो दरवाजा बन्द करने के काम में आवे, मगर फिर भी दुश्मन होशियार हो तो हर तरह से वह मुहाना बन्द कर सकता है। उस दरवाजे के ऊपर मिट्टी, पत्थर या चूने का ढेर लगा सकता है, ईंट-पत्थर की जुड़ाई कर सकता है, या उस खोह भर को ईंट-पत्थर से बन्द कर सकता है।

किशोरी – हाय, अब हम लोग बेमौत मारे गये। ताज्जुब नहीं कि इस बात का बन्दोबस्त पहले ही से कर लिया गया हो।

कामिनी – बस, अब हम लोगों को यहां जरा भी न अटककर सुरंग के बाहर निकल चलना चाहिए शायद उधर का रास्ता अभी बन्द न हुआ हो।

तारा, किशोरी और कामिनी तेजी के साथ सुरंग के दूसरे मुहाने की तरफ रवाना हुईं और थोड़ी ही देर में वहां जा पहुंचीं। इस सुरंग में मकान की तरफ जिस तरह की सीढ़ियां बनी हुई थीं, उसी तरह की सीढ़ियां सुरंग के दूसरी तरफ भी थीं। जब तारा ने दरवाजे की कुण्डी खोली और उसे धक्का देकर खोलना चाहा तो दरवाजा न खुला, उस समय तारा हाय करके बैठ गई और बोली – ”बहिन, बस जो कुछ हम लोगों को शक था वही हुआ। इस समय दुश्मनों की बन पड़ी और हम लोग बेमौत मारे गये। यह दरवाजा भीतर की तरफ हटता होता तो खुल जाता और हमें मालूम हो जाता कि आगे रास्ता किस चीज से बन्द किया गया है, ईंट-पत्थर और चूने से या खाली मिट्टी से, और हम लोग इस तिलिस्मी नेजे से उसमें रास्ता बनाकर निकल जाने का उद्योग करते क्योंकि यह नेजा हर एक चीज में घुस जाने की ताकत रखता है, मगर अफसोस तो यह है कि यह लोहे का मजबूत दरवाजा खुलने के समय बाहर की तरफ खुलता है। यह भी कारीगर की भूल है। भूलों का मजा समय पड़ने पर ही मालूम होता है, अब मुझे मालूम हुआ कि मकान बनाने वाले को दरवाजे की अवस्था पर विशेष ध्यान देना चाहिए, कोई दरवाजा ऐसा न बनाना चाहिए जो खुलते समय बाहर की तरफ खुलता हो, जिसे बाहर वाला मामूली तौर पर मिट्टी का ढेर लगाकर भी बन्द कर सकता है। हाय, अब मैं क्या करूं मुझे अपने मरने का तो कुछ भी रंज नहीं है अगर रंज है तो केवल इतना ही कि तुम दोनों को कमलिनी ने हिफाजत से रखने के लिए मेरे पास भेजा और मेरी बदौलत तुम्हें यह दिन देखना नसीब हुआ!”

मामूली तौर पर जैसा कि अक्सर मौका पड़ने पर लोग कह दिया करते हैं, इस समय किशोरी और कामिनी यह बात तारा को कह सकती थीं कि ‘बहिन, हम लोग तो तुम्हें मना करते थे कि सुरंग की राह से बाहर मत जाओ, मगर तुमने न माना, अगर मान जातीं तो यह दुःख भोगना क्यों नसीब होता?

मगर नहीं, बेचारी किशोरी और कामिनी बड़ी ही नेकदिन थीं, वे जानती थीं कि जो होना था सो तो हो चुका, अब ऐसी बातें कहकर तारा का दिल दुखाना नादानी है और इससे कोई फायदा नहीं, तारा ने जो कुछ किया उसे भला ही समझ के किया। मगर जब ईश्वर की भी ऐसी मर्जी हो तो क्या किया जाय।

इस सुरंग के दोनों तरफ की दीवार बहुत ही मजबूत थी और उस पर फौलादी मोटी चादर चढ़ी हुई थी। यद्यपि तिलिस्मी नेता उस फौलादी मोटी चादर में भी घुस सकता था, मगर इसमें कोई फायदा न था। तिलिस्मी नेजा ऐसे स्थान से सुरंग खोदकर रास्ता बनाने का काम नहीं दे सकता था, तिस पर भी तारा ने उद्योग में कोई बात उठा न रखी, मगर नतीजा कुछ भी न निकला।

बयान – 3

इस तालाब के बीच वाले तिलिस्मी मकान में कमलिनी दस लौंडियों के साथ रहती थी। नौकर और सिपाही भी उसके साथ बहुत थे मगर उनके रहने के लिए स्थान इस मकान में नहीं था, वे लोग काम-काज किया करते थे और समय पड़ने पर जान देने के लिए इकट्ठे हो जाते थे, मगर कमलिनी और तारा को छोड़ के कोई यह भी नहीं जानता था कि वे लोग कहां रहते हैं और क्या करते हैं। उन सिपाहियों में से कई तो मायारानी के कैदी हो गये थे और जो दस-बारह बचे थे सो इधर-उधर घूम-फिरकर कमलिनी का काम कर रहे थे। उन्हीं बचे हुए सिपाहियों में से चार-पांच सिपाही इस समय मकान में मौजूद थे जो किसी काम के सम्बन्ध में तारा के पास आये थे और दुश्मनों का हंगामा देखकर बाहर न जा सके थे। कमलिनी की लौंडियां जितनी थीं, वे सब जमानिया से कमलिनी के साथ उस समय आई थीं जब मायारानी से लड़कर कमलिनी अलग हो गई थी। इन लौंडियों में एक लौंडी, जिसका नाम भगवानी था, बड़ी ही शैतान और दिल की खोटी थी। यद्यपि वह जाहिर में अपने को बहुत ही बनाये हुए रहती थी और बात-बात में खैरखाही जताती थी, मगर वास्तव में वह ऐसी काली नागिन थी जिसके काटे का कोई मन्त्र ही न था। उसे रुपये की लालच हद से ज्यादा थी। मगर इतने दोष रहने पर भी वह अपनी चालाकी से अपने मालिक तथा तारा को खुश रखती थी और उन दोनों के आगे अपने अवगुण जाहिर नहीं होने देती थी। यही लौंडी प्रायः कैदियों को खाना-पानी भी पहुंचाया करती थी।

कमलिनी के कैदखाने को पहले माधवी और शिवदत्त ने आबाद किया था और उसके बाद मनोरमा इस कैदखाने में आई थी। मायारानी की सखी होने के कारण मनोरमा भगवानी को बखूबी जानती थी और इसी तरह भगवानी भी उसे अच्छी तरह पहचानती थी। खाना-पानी पहुंचाने के लिए जब भगवानी कैदखाने में जाती थी तो मनोरमा उसे अपनी अच्छेदार बातों में घड़ियों उलझाकर भविष्य के लिए सब्जबाग दिखाती और तरह-तरह की उम्मीदों से ललचाया करती, यहां तक कि उसे तीन लाख रुपये की लालच दिखाकर उसने अपनी, माधवी और शिवदत्त की मदद पर राजी कर लिया। माधवी दवा-इलाज की बदौलत यहां आकर तन्दुरुस्त हो गई थी।

भगवानी इस बात पर राजी हो गई कि मौका मिलने पर कैदियों की मदद करे और जिस तरह हो कैदियों को तहखाने के बाहर निकाल दे। भगवानी ने माधवी, शिवदत्त और मनोरमा से कहा कि तुम लोगों को छुड़ाने के लिए मुझे बहुत कुछ उद्योग करना पड़ेगा और तुम्हारे नौकरों तथा सिपाहियों से मिलने और उनसे कुछ काम लेने की आवश्यकता पड़ेगी, इसलिए उचित होगा कि तुम लोग मुझे एक परवाना लिख दो जिससे तुम लोगों के आदमी मुझे तुम्हारा मददगार समझें और जो कुछ मैं कहूं करें और खर्च के लिए आवश्यकतानुसार मुझे दिया भी करें। आखिर तीनों कैदियों ने भगवानी की बात मंजूर कर ली। भगवानी मौका पाकर कलम-दवात और कागज छिपाकर तहखाने में ले गई और तीनों कैदियों से अपने मतलब की बातें लिखवा लीं।

कमलिनी के जाने के बाद केवल तारा की मौजूदगी में भगवानी को अपना काम करने का बहुत अच्छा मौका मिला। उसने गुप्त रीति से कई नौकर रखे और उनके जरिये से माधवी, मनोरमा और शिवदत्त के आदमियों को, जो छितिर-बितिर हो गये थे, इकट्ठा कराया, तथा इस बात से होशियार कर दिया कि तुम्हारे मालिक लोग यहां कैद हैं।

धीरे-धीरे बन्दोबस्त करके भगवानी ने सामान दुरुस्त कर लिया और एक दिन सुरंग की राह से तीनों कैदियों को निकाल बाहर किया। आज जो इतने दुश्मन इस मकान को घेरे हुए हैं या जो कुछ वे लोग कर रहे हैं सब भगवानी ही की करामात है। इस समय भगवानी ही ने किशोरी, कामिनी और तारा को सुरंग में बन्द कर दिया है। वह चाहती है कि दुश्मन लोग इस मकान में घुस आवें और मनमानी चीजें लूट ले जायें, मगर कीमती चीजें जवाहिर इत्यादि मैं पहले ही से बटोरकर अलग रख दूं, और जब दुश्मन लोग यहां घुस आवें तो उन्हें लेकर चल दूं। शिवदत्त, माधवी और मनोरमा के हाथ का लिखा हुआ परवाना मौजूद ही है अस्तु कमलिनी के दुश्मनों में मुझे कोई भी नहीं रोक सकता। यह भगवानी का थोड़ा-सा हाल इस जगह हमने इसलिए लिख दिया कि बीती बहुत-सी बातें समझने में हमारे पाठकों को कठिनाई न पड़े।

किशोरी, कामिनी और तारा को सुरंग में बन्द करके जब भगवानी कैदखाने के बाहर निकली तो कोठरी में ताला लगा दिया और ताली अपने कब्जे में रखी, इसके बाद हाथ में लालटेन लेकर मकान की छत पर चढ़ गई और लालटेन को घुमा-फिराकर दुश्मनों को इशारे में कुछ कहा। मालूम होता है कि पहले ही इस इशारे की बातचीत पक्की हो चुकी थी क्योंकि लालटेन का इशारा पाते ही दुश्मनों ने खुश होकर अपना काम तेजी से करना शुरू किया अर्थात् तालाब पाटने में बहुत फुर्ती दिखाने लगे। एक दफे तो भगवानी के दिल में यह बात पैदा हुई कि चारों पुतलियों को खड़ी करके घूमते हुए चारों चक्रों को रोक दे, जिससे दुश्मन लोग यहां शीघ्र ही आ जायें, मगर तुरन्त ही उसने अपना इरादा बदल दिया। उसे यह बात सूझ गयी कि यदि मैं घूमते हुए चारों चक्रों को रोक दूंगी तो कमलिनी के नौकरों को तुरंत मुझ पर शक हो जायगा और फिर बना-बनाया मामला बिगड़ जायगा।

अब कम्बख्त भगवनिया (भगवानी) इस फिक्र में लगी कि दुश्मनों के घर में आने के पहले ही यहां से अच्छी-अच्छी कीमती चीजें बटोर ली जायें और जब दुश्मन इस मकान में घुस आवें, तो ले-लपेट के चलती बनूं। शिवदत्त, माधवी और मनोरमा की चीठियों की बदौलत, जो मेरे पास हैं, मुझे कोई भी न रोकेगा।

कमलिनी की लौंडियों और नौकरों को इस बात का गुमान भी न था कि नमकहराम भगवानी यहां वालों को चौपट कर रही है या उसने किशोरी, कामिनी और तारा को सुरंग में बन्द कर दिया है। वे लोग यही जानते थे कि किशोरी और कामिनी को किसी खास काम के लिए तारा अपने साथ लेती गई है।

रात बीत गई, दूसरा दिन समाप्त हो गया, बल्कि दूसरे दिन की रात भी गुजर गई और तीसरा दिन आ पहुंचा। आज दुश्मनों का मनोरथ पूरा हुआ अर्थात् उन्होंने तालाब को दो तरफ से बखूबी भर दिया और उस मकान में आ पहुंचे।

लौंडियों और नौकरों की इतनी हिम्मत कहां कि सैकड़ों दुश्मनों का मुकाबला करते। वे लोग चुपचाप अलग हो गये और अपनी तथा अपने मालिक की बदकिस्मती पर विचार करते रहे, जिस पर भी कई बेचारे दुश्मनों के हाथों से मारे गये। दुश्मनों ने मनमानी लूट मचाई और जिसने जो पाया अपने बाप-दादे का माल समझ के हथिया लिया। कम कीमत की चीजें या ऐसी चीजें जो वे लोग अपने साथ ले जाना पसन्द नहीं करते थे तोड़-फोड़ बिगाड़ या जलाकर सत्यानाश कर दी गईं और घण्टे ही भर में ऐसी सफाई कर दी गई मानो उस मकान में कोई बसता ही न था या कोई चीज वहां थी ही नहीं। इस काम के बाद किशोरी, कामिनी और तारा की खोज शुरू हुई क्योंकि दुष्टों ने जब उस तीनों को वहां न पाया तो उन्हें आश्चर्य हुआ और वे इस फिक्र में हुए कि भगवानी से उन तीनों का हाल पूछना चाहिए मगर भगवानी वहां कहां, वह तो अपना काम करके निकल भागी और ऐसी गायब हुई कि किसी को कुछ गुमान तक न हुआ। हाय, बेचारी किशोरी, कामिनी और तारा का हाल किसी को भी मालूम नहीं, कोई भी नहीं जानता कि वे बेचारियां कहां और किस आफत में पड़ी हैं या कई दिनों तक दाना-पानी न मिलने के कारण जीती भी हैं या मर गईं। उनकी लौंडियों और नौकरों को भी इसका पता नहीं, इसी से वे लोग अपनी जान लेकर जिस तरफ भाग सके भाग गये और इस तिलिस्मी मकान पर दुश्मनों को पूरा-पूरा कब्जा करने दिया, क्योंकि इतने आदमियों का मुकाबला करके जान देना दूसरे उद्योग का भी रास्ता रोकना था।

बयान – 4

पाठक महाशय, अब आप यह जानना चाहते होंगे कि हरामजादी भगवनिया के मेल से जो दुश्मन लोग इस मकान पर चढ़ आये, वे लोग शिवदत्त, माधवी और मनोरमा को छुड़ाने की नीयत से आये थे या इन तीनों के छूटकर निकल जाने का हाल उन्हें मालूम हो चुका था और वे लोग इस समय केवल किशोरी, कामिनी और तारा को गिरफ्तार करने आये थे

नहीं, इस समय दुश्मन यह नहीं जानते थे कि इस मकान में कोई सुरंग है और भगवानी की मदद से उसी सुरंग की राह राजा शिवदत्त वगैरह बाहर हो गये। भगवानी ने जब उन लोगों को खबर पहुंचाई थी तो यही कहा था कि तुम्हारा मालिक इस मकान में कैद है, तुम जिस तरह बने उसे छुड़ा लो और इसके बाद जो कुछ उन लोगों ने किया वह बहुत बुद्धिमानी से किया। तालाब सुखाने के लिए सुरंग खोदने में उन्हें बहुत दिन मेहनत करनी पड़ी, इस बीच में भगवानी भी उन लोगों से मिलती रही मगर उसने यह नहीं कहा कि शिवदत्त को छुड़ाने के लिए मैं भी उद्योग कर रही हूं, यदि मौका मिला तो सुरंग की राह निकाल दूंगी, क्योंकि भगवानी को यह आशा न थी कि मैं स्वयं उद्योग करके कैदियों को बाहर कर सकूंगी, उसे कैदियों को छुड़ाने का मौका उस दिन दोपहर के लगभग मिला था जिस दिन संध्या के समय बलवाइयों ने आकर तालाब को घेर लिया था और उनकी बनाई हुई सुरंग की राह से तालाब का जल निकल जा रहा था।

रुपये की लालच ने कम्बख्त भगवानी को ऐसा अन्धा बना दिया था कि उसे भलाई का रास्ता कुछ भी न सूझा। वह इस बात को न सोच सकी कि अगर तारा कैदियों को न देखेगी तो बेशक मुझ पर शक करेगी, क्योंकि कैदखाने और सुरंग की ताली सिवाय मेरे और किसी के हाथ में तारा नहीं देती थी। उसने बेधड़क कैदियों को बाहर कर दिया मगर इसके दो ही घण्टे बाद उसके दिल में हौल पैदा हो गया और वह सोचने लगी कि यदि तारा मुझसे पूछेगी कि कैदखाने की ताली तो सिवाय तेरे मैं और किसी के हाथ में नहीं देती फिर कैदी क्योंकर निकल गये तो मैं क्या जवाब दूंगी इस विषय में उसने बहुत-कुछ सोच-विचार किया मगर सिवाय भाग जाने के और कोई बात न सूझी। उसने भाग जाने के लिए भी उद्योग किया मगर न हो सका क्योंकि तालाब के बाहर से किसी को इस मकान में लाने या इस मकान से किसी को बाहर करने के लिए रास्ता खोलना या बन्द करना केवल तारा के आधीन था। जब इस बात को दो पहर बीत गए और दुश्मनों ने तालाब को घेर लिया तब उसे यह सूझा कि दुश्मनों को इस बात की खबर न देनी चाहिए कि शिवदत्त को मैंने छुड़ा दिया। ऐसा करने से दुश्मन उद्योग करके इस मकान में जरूर आवेंगे और उस समय मुझे यहां से निकल भागने का अच्छा मौका मिलेगा। इस बीच में भगवानी को इस बात का भी मौका मिल गया कि उसने तारा, किशोरी और कामिनी को सुरंग में बंद कर दिया और तब उसके दिल में अपने भाग जाने की पूरी-पूरी आशा हुई। यही कारण हुआ कि दुश्मनों को शिवदत्त के निकल जाने का हाल मालूम न हुआ और उन्होंने उद्योग करके मकान को अपने दखल में कर लिया जिससे भगवानी को भागने का अच्छा मौका मिला।

अब यह प्रश्न हो सकता है कि क्या तारा इतनी बेवकूफ थी कि कैदखाने में कैदियों को न देखकर और सुरंग का दरवाजा खुला हुआ पाकर भी उसे किसी पर कुछ शक न हुआ, सो भी ऐसी अवस्था में जब कि कैदखाने की ताली सिवाय भगवानी के और किसी के हाथ में देती ही न थी इस सवाल का जवाब भी इसी जगह दे देना उचित जान पड़ता है।

तारा ने जब कैदियों को कैदखाने में न देखा तो सबके पहले उसके दिल में यही शक पैदा हुआ कि यह काम हमारे ही किसी आदमी का है। थोड़े ही सोच-विचार में उसने भगवानी को दोषी ठहरा लिया क्योंकि सिवाय उसके वह कैदखाने की ताली किसी दूसरे के हाथ में देती न थी, यह सब-कुछ था परन्तु भगवानी की जांच करने और उसे सजा देने के विषय में जल्दी करना तारा ने उचित न जाना और इस हो-हल्ले के समय इसका मौका भी न था, तथापि तारा ने इस शक को श्यामसुन्दरसिंह नामी अपने एक विश्वासी खैरख्वाह बहादुर से इस दौड़-धूप के समय ही जाहिर कर दिया और यह भी कह दिया कि मुझे इस मकान के बचाव की तरकीब के सिवाय और कोई काम करने की फुरसत नहीं मगर तुम इस विषय में जो कुछ उचित जान पड़े वह करो।

श्यामसुन्दरसिंह बहुत ही होशियार, चालाक, बुद्धिमान और बहादुर आदमी था। यह कमलिनी के कुल सिपाहियों का सरदार था और इसकी अच्छी चाल-चलन तथा बहादुरी की कदर कमलिनी दिल से करती थी तथा यह भी कमलिनी की भलाई के लिए जान तक दे देने को हरदम तैयार रहता था। यद्यपि काम-काज के सबब से श्यामसुन्दरसिंह यहां बराबर नहीं रहता था परन्तु जिस समय दुश्मनों ने इस मकान को घेरा था उस समय वह मौजूद था। जब उसने तारा की जुबानी कैदियों के निकल जाने का हाल सुना तो उसने भी अपनी राय वही कायम की जो तारा ने की थी।

श्यामसुन्दरसिंह भगवानी की तरफ से होशियार हो गया और उसके कार्यों को विशेष ध्यान से देखने लगा, मगर इस बात का तो उसको गुमान भी न हुआ कि भगवानी ने किशोरी, कामिनी और तारा को भी सुरंग में बन्द कर दिया है।

श्यामसुन्दरसिंह इस बात को भी तो समझ ही गया था कि अब यह मकान दुश्मनों के हमले से किसी तरह बच नहीं सकता तथापि उसे कुछ-कुछ आशा इस बात की थी कि जिस समय तिलिस्मी नेजा हाथ में लेकर तारा इस झुण्ड में पहुंचेगी तो ताज्जुब नहीं कि दुश्मनों का जी टूट जाय, परन्तु बहुत समय निकल जाने पर भी जब तारा वहां तक न पहुंची तो श्यामसुन्दरसिंह को आश्चर्य हुआ और वह तरह-तरह की बातें सोचने लगा।

बयान – 5

कीमती जवाहरात की चीजों की गठरी लादे हुए मालिक को चौपट करने वाली हरामजादी भगवानी जब भागी तो उसने फिरके देखा भी नहीं कि पीछे क्या हो रहा है या कौन आ रहा है।

रात पहर भर से कुछ ज्यादा जा चुकी थी और चांदनी खूब निखरी हुई थी जब हांफती और कांपती हुई भगवानी एक घने जंगल के अन्दर जिसमें चारों तरफ परले सिरे का सन्नाटा छाया हुआ था पहुंचकर एक पत्थर की चट्टान पर बैठी और फिर इस तरह से लेट गई जैसे कोई हताश होकर गिर पड़ता है। वह अपनी बिसात से ज्यादा चल और दौड़ चुकी थी और इसीलिए बहुत सुस्त हो गई थी। इस पत्थर की चट्टान पर पहुंचकर उसने सोचा था कि अब बहुत दूर निकल आये हैं कोई धरने-पकड़ने वाला है नहीं अतएव थोड़ी देर तक बैठकर आराम कर लेना चाहिए, मगर बैठने के साथ ही पहले जिस पर उसकी निगाह पड़ी वह श्यामसुन्दरसिंह था जिसे देखते ही उसका कलेजा धक से हो गया और चेहरे पर मुर्दनी छा गई। उसकी तेजी के साथ चलती सांस दो-चार पल के लिए रुक गयी और वह घबड़ाकर उसका मुंह देखने लगी।

श्यामसुन्दरसिंह – क्यों तूने तो समझा होगा कि बस अब मैं बचकर निकल आई और जवाहरात की गठरी नरम चारे की तरह हजम हो गई!

भगवानी – (कुछ सोचकर) नहीं-नहीं, मैं इसमें से तुम्हें आधा बांट देने के लिए तैयार हूं। आखिर दुश्मन लोग इसे भी लूटकर ले ही जाते, अगर मैं बचाकर ले आई तो क्या बुरा हुआ सो भी बांट देने के लिए तैयार हूं।

श्यामसुन्दरसिंह – ठीक है मगर मैं आधा बांटकर नहीं लिया चाहता बल्कि सब लिया चाहता हूं।

भगवानी – सो कैसे होगा जरा सोचो तो सही कि मैं दुश्मनों के हाथ से कितनी मेहनत करके इसे बचा लाई हूं, और सब तुम्हीं ले लोगे तो मुझे क्या फायदा होगा?

श्यामसुन्दरसिंह – तो क्या तू कुछ फायदा उठाना चाहती है अगर ऐसा ही है तो मालिक के साथ नमकहरामी या दगा करने और दुश्मनों को बचाकर कैदखाने के बाहर कर देने में जो उचित लाभ होना चाहिए वह तुझे होगा!

भगवानी – (चौंककर) आपने क्या कहा सो मैं न समझी! क्या आपको मुझ पर किसी तरह का शक है?

श्याम – नहीं, शक तो कुछ भी नहीं है या अगर है भी तो केवल दो बातों का-एक तो कैदियों को बचाकर निकाल देने का और दूसरे मालिक के साथ दगा करने का।

भगवानी – नहीं-नहीं, कैदी लोग किसी और ढंग से निकल गये होंगे, मुझे तो उनकी कुछ खबर नहीं और तारा के साथ दगा करने के विषय में जो कुछ आप कहते हैं सो वह काम मेरा न था, बल्कि एक दूसरी लौंडी का था जिसके सबब से बेचारी तारा मौत…।

इतना कहकर भगवानी रुक गई। उसके रंग-ढंग से मालूम होता था कि जल्दी में आकर वह कोई ऐसी बात मुंह से निकाल बैठी है जिसे वह बहुत छिपाती थी। श्यामसुन्दरसिंह को भी उसकी आखिरी बात से निश्चय हो गया कि हरामजादी भगवानी ने दुश्मनों से मिलकर बेचारी तारा को मौत के पंजे में फंसा दिया, अस्तु बिना असल भेद का पता लगाए इसे कदापि न छोड़ना चाहिए।

श्याम – हां-हां, कहती चल, रुकी क्यों?

भगवानी – यही कि मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे मालिक का नुकसान हो।

श्याम – अच्छा यह बता कि कैदियों को निकालने वाला और तारा को फंसाने वाला कौन है?

भगवानी – यह काम नमकहराम लालन लौंडी का है।

श्याम – यदि मैं इस समय के लिए तेरा ही नाम लालन रख दूं तो क्या हर्ज है क्योंकि मेरी समझ में बेचारी लालन निर्दोष है, जो कुछ किया तू ही ने किया, कैदियों ने तुझी को अपना विश्वासपात्र समझा, तुझी से काम लिया और तेरी ही मदद से निकल भागे, इतने दुश्मनों को भी तू ही बटोरकर लाई है और इतने पर भी संतोष न पाकर बेचारी तारा को भी तूने ही…।

भगवानी – (हाथ जोड़कर) नहीं-नहीं, ऐसे आप मुझे व्यर्थ दोषी न ठहरायें, भला ऐसे मालिक के साथ मैं विश्वासघात करूंगी जो मुझे दिल से चाहे।

श्याम – (कमर से एक चीठी निकालकर और भगवानी को दिखाकर) और यह क्या है क्या इसमें भी लालन का नाम लिखा है कोई हर्ज नहीं, अपने हाथ में लेकर अच्छी तरह देख ले क्योंकि यद्यपि यह रात का समय है, फिर भी चन्द्रदेव ने अपनी किरणों से दिन की तरह बना रक्खा है।

यह चीठी उन तीनों चीठियों में एक थी जो शिवदत्त, माधवी और मनोरमा ने लिखकर भगवानी को दी थीं। न मालूम श्यामसुन्दरसिंह के हाथ यह चीठी कैसे लगी। भगवनिया इस चीठी को देखते ही जर्द पड़ गई, कलेजा धकधक करने लगा, मौत की भयानक सूरत सामने दिखाई देने लगी, गला रुक गया, वह कुछ भी जवाब न दे सकी। अब श्यामसुन्दरसिंह बर्दाश्त न कर सका, उसने एक तमाचा भगवानी के मुंह पर जमाया और कहा – ”कम्बख्त! अब बोलती क्यों नहीं!”

जब भगवानी ने इस बात का भी जवाब न दिया तब श्यामसुन्दरसिंह ने म्यान से तलवार निकाल ली और हाथ ऊंचा करके कहा, ”अब भी अगर साफ-साफ भेद न बतावेगी तो मैं एक ही हाथ में दो टुकड़े कर दूंगा।”

भगवानी को निश्चय हो गया कि अब जान किसी तरह नहीं बच सकती, इसके अतिरिक्त डर के मारे उसकी अजब हालत हो गई, और कुछ तो न कर सकी, हां एकदम जोर से चिल्ला उठी और इसके साथ ही एक तरफ से आवाज आई – ”कौन है जो मर्द होकर एक स्त्री की जान लिया चाहता है’

श्यामसुन्दरसिंह ने फिरकर देखा तो दाहिनी तरफ थोड़ी ही दूर पर एक नौजवान को हाथ में खंजर लिए मौजूद पाया। उस नौजवान ने श्यामसुन्दरसिंह से पुनः कहा, ”यह काम मर्दों का नहीं है जो तुम किया चाहते हो!” जिसके जवाब में श्यामसुन्दरसिंह ने कहा, ”बेशक यह काम मर्दों का नहीं मगर लाचार हूं कि यह नमकहराम मेरी बातों का जवाब नहीं देती और मैं बिना जवाब पाये इसे किसी तरह नहीं छोड़ सकता।”

यह आदमी, जो श्यामसुन्दरसिंह के पास यकायक आ पहुंचा था, हमारा नामी ऐयार भैरोसिंह था जो कमलिनी के मकान के दुश्मनों से घिर जाने की खबर पाकर उसी तरफ जा रहा था और इत्तिफाक से यहां आ पहुंचा था, मगर वह श्यामसुन्दरसिंह और भगवनिया को नहीं पहचानता था और वे दोनों भी इसे सूरत बदले हुए और रात का समय होने के कारण न पहचान सके। भैरोसिंह ने पुनः कहा –

भैरोसिंह – यदि हर्ज न हो तो मुझे बताओ कि यह तुम्हारी किन बातों का जवाब नहीं देती?

श्याम – बता देने में हर्ज तो कोई नहीं अगर आप उन लोगों में से नहीं हैं जिन्हें हम लोग अपना दुश्मन समझते हैं, क्योंकि यह भेद की बात है और अपना भेद दुश्मनों के सामने प्रकट करना नीति के विरुद्ध है। उत्तम तो यह होगा कि हमारा भेद जानने के पहले आप अपना परिचय दें।

भैरो – तो तुम्हीं अपना परिचय क्यों नहीं देते?

श्याम – इसलिए कि ऐयार लोग भेद जानने के लिए समय पड़ने पर उसी पक्ष वाले बन जाते हैं जिससे अपना काम निकालना होता है।

भैरोसिंह – ठीक है, मगर बहादुर राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों में से कोई भी ऐसा कमहिम्मत नहीं है जो खुले मैदान में एक औरत और एक मर्द से अपने को छिपाने का उद्योग करे।

श्याम – (खुश होकर) अहा, अब मालूम हो गया कि आप राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों में से कोई हैं। ऐसी अवस्था में मैं भी यह कहने में विलम्ब न लगाऊंगा कि मैं श्यामसुन्दरसिंह नामी कमलिनीजी का सिपाही हूं और यह भगवानी नाम की उन्हीं की बेईमान लौंडी है जिसकी नमकहरामी और बेईमानी का यह नतीजा निकला कि दुश्मनों ने तालाब वाले तिलिस्मी मकान पर कब्जा कर लिया और किशोरी, कामिनी तथा तारा का कुछ पता नहीं लगता। अब तक जो मालूम हुआ है उससे जाना जाता है कि इसी कम्बख्त ने उन तीनों को भी किसी आफत में फंसा दिया है जिसका खुलासा भेद मैं इससे पूछ रहा था कि आपकी आवाज आई और आपसे बातचीत करने की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।

भैरोसिंह – (जोश के साथ) वाह, यह तो एक ऐसा भेद है जिसके जानने का सबसे पहला हकदार मैं हूं। मैं उन्हीं तीनों से मिलने के लिए जा रहा था जब रास्ते में मुझे यह मालूम हुआ कि उस तिलिस्मी मकान को दुश्मनों ने घेर लिया है इसलिए जल्द पहुंचने की इच्छा से जंगल ही जंगल दौड़ा जा रहा था कि यहां तुम लोगों से भेंट हो गई।

श्याम – यदि ऐसा है तो अब कृपा कर आप अपनी असली सूरत शीघ्र दिखाइये जिससे मैं आपको पहचानकर अपने दिल के बचे-बचाये खुटके को निकाल डालूं क्योंकि राजा वीरेन्द्रसिंह के कुल ऐयारों को मैं पहचानता हूं।

श्यामसुन्दरसिंह की बात सुनकर भैरोसिंह ने बटुए में से सामान निकालकर बत्ती जलाई और बनावटी बालों को अलग करके अपना चेहरा साफ दिखा दिया। श्यामसुन्दरसिंह यह कहकर कि ‘अहा, मैंने बखूबी पहचान लिया कि आप भैरोसिंहजी हैं’ भैरोसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और भैरोसिंह ने उसे उठाकर गले से लगा लिया। इसके बाद श्यामसुन्दरसिंह ने अपनी तरफ का पूरा-पूरा हाल इस समय तक का कह सुनाया।

भैरोसिंह – अफसोस, बात ही बात में यहां तक नौबत जा पहुंची। लोग सच कहते हैं कि घर का एक गुलाम बैरी बाहर के बादशाह बैरी से भी जबर्दस्त होता है जिसकी ताबेदारी में हजारों दिलावर पहलवान और ऐयार लोग रहा करते हैं। खैर जो होना था सो तो हो गया, अब इस (भगवनिया की तरफ इशारा करके) कम्बख्त से किशोरी, कामिनी और तारा का सच्चा-सच्चा हाल मैं बात की बात में पूछ लेता हूं। यह औरत है इसलिए मैं खंजर को तो म्यान में कर लेता हूं और हाथ में उस दुष्टदमन को लेता हूं जिसके भरोसे ऐसे जंगल में कांटों से निर्भय रहकर चलता रहा, चलता हूं और यदि इसकी खातिरदारी से यह बच गया तो चलूंगा! हां एक बात तो मैंने कही ही नहीं।

श्याम – वह क्या?

भैरोसिंह – वह यह कि मैं यहां अकेला नहीं हूं। बल्कि दो ऐयारों को साथ लिए हुए कमलिनी रानी अभी इसी जंगल में मौजूद हैं।

श्याम – आहा, यह तो आपने भारी खुशखबरी सुनाई, बताइये वे कहां हैं, मैं उनसे मिलना चाहता हूं।

कम्बख्त भगवनिया अब अपनी मौत अपनी आंखों के सामने देख रही थी। भैरोसिंह के पहुंचने से उसकी आधी जान तो जा ही चुकी थी, अब यह खबर सुनके कि कमलिनी भी यहां मौजूद है वह एकदम मुर्दा-सी हो गई। उसे निश्चय हो गया कि अब उसकी जान किसी तरह नहीं बच सकती। भैरोसिंह ने जोर से जफील बजाई और इसके साथ ही थोड़ी दूर में सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट के साथ ही घोड़ों की टापों की आवाज आने लगी और उस आवाज ने क्रमशः नजदीक होकर भूतनाथ तथा देवीसिंह और घोड़ों पर सवार कमलिनी रानी तथा लाडिली की सूरत पैदा कर दी।

बयान – 6

दुश्मन जब तालाब वाले तिलिस्मी मकान पर कब्जा कर चुके और लूटपाट से निश्चिन्त हुए तो शिवदत्त, माधवी और मनोरमा को छुड़ाने की फिक्र करने लगे। तमाम मकान छान डाला मगर उनका पता न लगा, तब थोड़े सिपाही जो अपने को होशियार और बुद्धिमान लगाते थे एक जगह जमा होकर सोच-विचार करने लगे। वे लोग इस बात का तो गुमान भी नहीं कर सकते थे कि हमारे मालिक लोग यहां कैद नहीं हैं या भगवनिया ने हम लोगों को धोखा दिया क्योंकि भगवनिया द्वारा वे लोग शिवदत्त, माधवी और मनोरमा के हाथ की लिखी चीठी देख चुके थे। अब अगर तरद्दुद था तो यही कि कैदी लोग कहां हैं और भगवनिया हम लोगों से बिना कुछ कहे चुपचाप भाग क्यों गई। केवल इतना ही नहीं किशोरी, कामिनी और तारा यकायक कहां गायब हो गईं जिनके इस मकान में होने का हम लोगों को पूरा विश्वास था बल्कि दौड़-धूप करते जिन्हें अपनी आंखों से देख चुके हैं।

जब तमाम मकान ढूंढ़ डाला और अपने मालिकों को तथा किशोरी, कामिनी या तारा को न पाया तो उन लोगों को निश्चय हो गया कि इस मकान में कोई तहखाना अवश्य है जहां हमारे मालिक लोग कैद हैं और जहां अपनी जान बचाने के लिए किशोरी, कामिनी और तारा भी छिपकर बैठ गई हैं।

इस लिखावट से हमारे पाठक अवश्य इस सोच में पड़ जायंगे कि यदि इन दुश्मनों को इस मकान में तहखाना और सुरंग होने का हाल मालूम न था, तो क्या वे लोग किसी दूसरे गिरोह के आदमी थे जिन्होंने तहखाने के अन्दर से किशोरी और कामिनी को गिरफ्तार कर लिया था या जिन्होंने सुरंग का दूसरा मुहाना बन्द कर दिया था जिसके सबब से बेचारी किशोरी, कामिनी और तारा को सुरंग के अन्दर बेबसी के साथ पड़ी रहकर अपनी ग्रहदशा का फल भोगना पड़ा

बेशक ऐसा ही है। जिस समय भगवानी की कृपा से माधवी, मनोरमा और शिवदत्त ने कैदखाने से छुट्टी पाई और सुरंग की राह से बाहर निकले, तो माधवी के कई आदमी वहां मौजूद मिले और वे लोग आज्ञानुसार माधवी के साथ वहां से चले गये, उनमें से किसी से भी उन लोगों की मुलाकात नहीं हुई जिन्होंने तालाब वाले मकान पर हमला किया था। ये ही लोग थे जिन्होंने तहखाने में से किशोरी और कामिनी को भी निकाल ले जाने का इरादा किया था परन्तु कृतकार्य न हुए थे और इन्हीं लोगों ने भागते-भागते सुरंग का दूसरा मुहाना ईंट-पत्थरों से बन्द कर दिया था।

उन दुश्मनों में जिन्होंने इस मकान को फतह किया था तीन सिपाही ऐसे थे जो उनमें सरदार गिने जाते थे और सब काम उन्हीं की राय पर होता था, वही तीनों खोज-ढूंढ़कर तहखाने का पता लगाने लगे।

बचा हुआ दिन और रात का बहुत बड़ा हिस्सा खोज-ढूंढ़ में बीत गया और सुबह हुआ ही चाहती थी जब हाथ में लालटेन लिए हुए तीनों सिपाही उस कोठरी के दरवाजे पर जा पहुंचे जिसमें से कैदखाने वाले तहखाने के अन्दर जाने का रास्ता था। ताला तोड़ा गया और वे तीनों उस कोठरी के अन्दर पहुंचे। तहखाने के अन्दर जाने वाला रास्ता दिखाई पड़ा जिसका दरवाजा जमीन के साथ सटा हुआ और ताला भी लगा हुआ था। उस जगह खड़े होकर तीनों सिपाही आपस में बातचीत करने लगे।

एक – बेशक इसी तहखाने में महाराज शिवदत्त कैद होंगे, बड़ी मुश्किल से इसका पता लगा।

दूसरा – मगर हम लोग जो यह सोचे हुए थे कि किशोरी, कामिनी और तारा भी इसी तहखाने में छिपकर बैठी होंगी यह बात अब दिल से जाती रही क्योंकि वे भी अगर इसी तहखाने में होतीं तो हम लोगों को ताला न तोड़ना पड़ता।

तीसरा – ठीक है मैं भी यही सोचता हूं कि वे लोग किसी दूसरे गुप्त स्थान में छिपकर बैठी होंगी, खैर पहले अपने मालिक को तो छुड़ाओ फिर उन तीनों को भी ढूंढ़ निकालेंगे, आखिर इस मकान के अन्दर ही तो होंगी।

दूसरा – हां जी, देखा जायगा, बस अब इस ताले को भी झटपट तोड़ डालो।

वह ताला भी तोड़ा गया और हाथ में लालटेन लेकर एक आदमी उसके अन्दर उतरा तथा दो उसके पीछे चले। चार-पांच सीढ़ियों से ज्यादा न उतरे होंगे कि कई आदमियों के टहलने और बातचीत करने की आहट मिली जिससे ये तीनों बड़े गौर से नीचे की तरफ देखने लगे मगर जो सिपाही सबसे आगे था उसके सिवाय और किसी को कुछ भी दिखाई न दिया। उसने तहखाने में तीन आदमियों को देखा जो इन सिपाहियों के आने की आहट पाकर और लालटेन की रोशनी देखकर ठिठके हुए ऊपर की तरफ देख रहे थे। इनमें एक मर्द और दो औरतें थीं। तीनों सिपाहियों को निश्चय हो गया कि बेशक यही तीनों माधवी, मनोरमा और शिवदत्त हैं। इन सिपाहियों ने छठी सीढ़ी पर पैर नहीं रखा था कि नीचे से आवाज आई, ”ठहरो, हम लोग खुद ऊपर आते हैं!”

उन सिपाहियों में से एक आदमी जिसका नाम रामचन्दर था शिवदत्त का पुराना खैरख्वाह मुलाजिम था और बाकी के दोनों सिपाही मनोरमा के नौकर थे। आवाज सुनकर तीनों सिपाही ऊपर चले आये और तहखाने के अन्दर वाले तीनों व्यक्ति भी, जिन्हें सिपाहियों ने अपना मालिक समझ रक्खा था, बाहर होकर क्रमशः उस कमरे में पहुंचे जिसमें कमलिनी रहा करती थी और जिसे एक तौर पर दीवानखाना भी कह सकते हैं। यद्यपि लूट-खसोट का दिन था मगर फिर भी वहां इस समय रोशनी बखूबी हो रही थी और उस रोशनी में सभी ने बखूबी पहचान लिया कि वे वास्तव में माधवी, मनोरमा और शिवदत्त हैं।

इस समय दुश्मनों की खुशी का अन्दाजा करना बड़ा ही कठिन है क्योंकि जिसे छुड़ाने के लिए उन लोगों ने उद्योग किया था, उसे अपने सामने मौजूद देखते हैं, लाखों रुपये का माल जो लूट में मिला था, अब पूरा-पूरा हलाल समझते हैं, इसके अतिरिक्त इनाम पाने की प्रबल अभिलाषा और भी प्रसन्न किये देती है। चारों तरफ से भीड़ उमड़ी पड़ती है और शिवदत्त के पैरों पर गिरने के लिए सभी उतावले हो रहे हैं। शिवदत्त ने सभी की तरफ देखा और नर्म आवाज में कहा, ”शाबाश मेरे बहादुर सिपाहियो, आज जो काम तुमने किया, वह मुझे जन्म भर याद रहेगा। निःसन्देह तुमने मेरी जान बचाई। देखा इस कैद की सख्ती ने मेरी क्या अवस्था कर दी है, मेरी आवाज कैसी कमजोर हो रही है, मेरा शरीर कैसा दुर्बल और बलहीन हो गया है, मगर खैर, कोई चिन्ता नहीं जान बची है तो ताकत भी हो रहेगी! यह मत समझो कि मैं इस समय हर तरह से लाचार हो रहा हूं, अतएव तुम्हारी आज की कार्रवाई के बदले में कुछ इनाम नहीं दे सकूंगा। नहीं-नहीं, ऐसा कदापि न सोचना। तुम लोग स्वयं देखोगे कि कल जितनी दौलत मैं इनाम में तुम लोगों को दूंगा, वह उस लूट के माल से सौगुना ज्यादा होगी, जो तुमने इस मकान में से पाई होगी। मैं मर्द हूं और तुम लोग खूब जानते हो कि मर्दों की हिम्मत कभी कम नहीं होती, जिसने हिम्मत तोड़ दी, वह मर्द नहीं औरत है। इसमें तुम इस बात पर भी विश्वास रखना कि मैं अपने पुराने दुश्मन वीरेन्द्रसिंह का पीछा कदापि न छोड़ूंगा, सो भी ऐसी अवस्था में कि जब तुम लोगों ऐसे मर्द दिलावर और नमकहलाल सिपाही मेरे साथी हैं। अच्छा यह सब बातें तो फिर होती रहेंगी, इस समय मैं मकान से बाहर निकलकर अपने वीरों को देखा और उनसे मिला चाहता हूं क्योंकि यह मकान इतना बड़ा नहीं है कि सब सिपाही इसमें समा जायें और मैं इसी जगह बैठा – बैठा सबसे मिल लूं। चलो, तुम लोग तालाब के पार चलो, मैं भी आता हूं।”

शिवदत्त की बातें सुनकर ये सिपाही लोग बहुत ही प्रसन्न हुए और जल्दी के साथ उस मकान से निकालकर तालाब के बाहर हो गये, जहां और सब सिपाही खड़े बेचैनी के साथ इन लोगों की राह देख रहे थे और यह जानने के लिए उत्सुक थे कि मकान के अन्दर क्या हो रहा है।

सिपाहियों के बाहर हो जाने के बाद शिवदत्त भी मकान से निकला और तालाब से बाहर हो गया। माधवी और मनोरमा उस मकान के अन्दर ही रह गईं।

अब सबेरा हो चुका था। पूरब तरफ आसमान पर भगवान सूर्यदेव का लाल पेशखेमा दिखाई देने लगा। शिवदत्त मैदान में खड़ा हो गया और खुशी के मारे उसकी जयजयकार करते उसके सिपाहियों ने चारों तरफ से उसे घेर लिया तथा यह सुनने के लिए उत्सुक होने लगे कि देखें अब हमारी तारीफ में हमारे राजा साहब क्या कहते हैं।

पर इसी समय पूरब की तरफ से बाजे की आवाज इन लोगों के कानों में पहुंची। सिपाहियों के साथ-साथ शिवदत्त भी चौकन्ना हो गया और गौर के साथ पूरब की तरफ देखता हुआ बोला, ”यह तो फौजी बाजे की आवाज है। वह देखो इसकी गत साफ कहे देती है कि राजा वीरेन्द्रसिंह की फौज आ रही है, क्योंकि वीरेन्द्रसिंह जब चुनार की गद्दी पर बैठे थे तो तेजसिंह ने अपने फौजी बाजे वालों के लिए यह खास गत तैयार की थी। तब से उनकी फौज में प्रायः यह गत बजाई जाती है। मैं इसे अच्छी तरह जानता हूं। देखो वह गर्द भी दिखाई देने लगी, अब क्या करना चाहिए जहां तक मैं समझता हूं, तुम्हारे हमले की खबर रोहतासगढ़ पहुंची है और यह फौज रोहतासगढ़ से आ रही है, मगर दो-तीन सौ से ज्यादा आदमी न होंगे।”

इसके बाद पश्चिम की तरफ से बाजे की आवाज आई और गौर करने पर मालूम हुआ कि पश्चिम तरफ से भी फौज आ रही है।

शिवदत्त के सिपाही बहुत मेहनत कर चुके थे, न भी मेहनत किये हों, तो क्या था, राजा वीरेन्द्रसिंह की फौज की खबर पाकर अपने कलेजे को मजबूत रखना ऐसे सिपाहियों का काम न था जो वर्षों बिना तनखाह के सिर्फ मालिक के नाम पर अपने सिपाहीपन को टेरे जाते हों। उन लोगों ने घबड़ाकर शिवदत्त की तरफ देखा। यद्यपि कैद की सख्ती ने शिवदत्त की सूरत-शक्ल और आवाज में भी फर्क डाल दिया था, मगर इस समय राजा वीरेन्द्रसिंह की फौज के आने से उसके चेहरे पर किसी तरह की घबड़ाहट या उदासी नहीं पाई गई। शिवदत्त ने अपने सिपाहियों की तरफ देखा और हिम्मत दिलाने वाले शब्दों में कहा, ”घबड़ाओ मत, हिम्मत न हारो, हौसले के साथ भिड़ जाओ और इन सभी का असबाब भी लूट लो, मगर इस बात का खूब ध्यान रखो कि भागकर इस मकान के अन्दर न घुस जाना, नहीं तो चारों तरफ से घेरकर सहज ही में मार डाले जाओगे। यदि मैदान में डटे रहोगे तो कठिन समय पड़ जाने पर भागने को भी जगह मिलेगी – ” इत्यादि।

क्या करें लड़ें या न लड़ें रुकें या भाग जायें इत्यादि सोच-विचार और सलाह में ही बहुत-सा अमूल्य समय निकल गया और धावा करते हुए राजा वीरेन्द्रसिंह के फौजी सिपाहियों ने पूरब और पश्चिम तरफ से आकर दुश्मनों को घेर लिया। यद्यपि शिवदत्त के सिपाही भागने के लिए तैयार थे, मगर शिवदत्त के हिम्मत दिलाने वाले शब्दों की बदौलत जिन्हें वह बार-बार अपने मुंह से निकाल रहा था, थोड़ी देर के लिए अड़ गये और राजा वीरेन्द्रसिंह की फौज से जो गिनती में दो सौ से ज्यादा न होगी, जी तोड़ के लड़ने लगे। उनके अटल रहने और जी तोड़कर लड़ने का एक यह भी सबब था कि उन लोगों ने राजा वीरेन्द्रसिंह के फौजी सिपाहियों को जो वास्तव में रोहतासगढ़ से आये थे, गिनती में अपने से बहुत कम पाया था।

यह थोड़ी-सी फौज जो रोहतासगढ़ से आई थी, चुन्नीलाल ऐयार के आधीन थी। चुन्नीलाल ने जासूसों को भेजकर इस बात का पता पहले ही लगा लिया था कि तालाब वाले तिलिस्मी मकान पर हमला करने वाले दुश्मन कितने और किस ढंग के हैं, इसके बाद उसने अपनी फौज को फैलाकर दुश्मनों को चारों तरफ से घेर लेने का उद्योग किया था और जो कुछ सोच रखा था वही हुआ।

चुन्नीलाल की मातहत फौज ने दुश्मनों को घेरकर बेतरह मारा। चुन्नीलाल स्वयं तलवार लेकर मैदान में अपनी बहादुरी दिखाता हुआ अपने सिपाहियों की हिम्मत बढ़ा रहा था और जिधर धंस जाता था उधर ही दस-पांच को खीरे-ककड़ी की तरह काट गिराता था। यह हाल देख दुश्मन बगलें झांकने लगे, मगर लड़ाई इस ढंग से हो रही थी कि यहां से बचकर निकल भागना भी मुश्किल था। दो घंटे की लड़ाई में आधे से भी ज्यादा दुश्मन मारे गये और बाकी भागकर अपनी जान बचा ले गये। वीरेन्द्रसिंह के केवल बीस बहादुर काम आये। इस घमासान लड़ाई के अन्त में इस बात का कुछ भी पता न लगा कि शिवदत्त बहादुरी के साथ लड़कर मारा गया या मौका मिलने पर निकल भागा।

जब दुश्मनों में से सिवाय उन सभी के जो मौत की गोद में सो चुके थे या जमीन पर पड़े सिसक रहे थे और कोई भी न रहा, सब भाग गये, तब केवल दस-बारह आदमियों को साथ लेकर चुन्नीलाल तिलिस्मी मकान की तरफ बढ़ा मगर मकान में पहुंचने के पहले ही सिपाही सूरत का एक आदमी जो उसी मकान में से निकलकर इनकी तरफ आ रहा था उसे मिला। उसके हाथ में लिफाफे के अन्दर बन्द एक चीठी थी जो उसने चुन्नीलाल के हाथ में दे दी और चुपचाप खड़ा हो गया। चुन्नीलाल ने भी उसी जगह अटककर लिफाफा खोला और बड़े ध्यान से चीठी पढ़ने लगा। समाप्त होने तक कई दफे चुन्नीलाल के चेहरे पर हंसी दिखाई दी और अन्त में वह बड़े गौर से उस आदमी की सूरत देखने लगा, जिसने चीठी दी थी तथा इसके बाद इशारे से सिर हिलाया मानो उस आदमी को यहां से बेफिक्री के साथ चले जाने के लिए कहा और वह आदमी भी बिना सलाम किये झूमता हुआ वहां से चला गया।

चुन्नीलाल कई आदमियों को साथ लेकर तिलिस्मी मकान के अन्दर गया, उसने वहां अच्छी तरह घूमकर देखा, मगर किसी को न पाया, तब बाहर निकला और अपने मातहत सिपाहियों को लेकर रोहतासगढ़ की तरफ लौट गया।

बयान – 7

ऊपर का बयान पढ़कर हमारे प्रेमी पाठक ताज्जुब करते होंगे कि यह क्या हुआ और क्या लिखा गया। और बातों को जाने दीजिये, मगर अन्त में यह क्या आश्चर्य की बात हो गई कि चुन्नीलाल तिलिस्मी मकान के अन्दर आया और मामूली तौर पर देख-भालकर चला गया, बेचारी किशोरी, कामिनी और तारा की कुछ सुध न ली। खैर सब्र कीजिये और जरा हमारे साथ फिर उस जगह चलिये, जहां श्यामसुन्दर, भगवनिया, भैरोसिंह, कमलिनी, लाडिली, देवीसिंह और भूतनाथ को छोड़ आये हैं।

जिस समय भगवनिया ने कमलिनी को अपने सामने देखा वह बदहवास हो गई, कलेजा कांपने लगा, सांस में रुकावट पैदा हुई और मौत की-सी तकलीफ मालूम होने लगी। उसने चाहा कि कमलिनी के पैरों पर गिरकर अपना कसूर माफ करावे, मगर डर के मारे उसके खून की हरकत बिल्कुल बंद हो गई थी इसलिए वह कुछ भी न कर सकी बल्कि क्रमशः बढ़ते ही जाने वाले खौफ के सबब बेदम होकर पीछे की तरफ जमीन पर गिर पड़ी।

भगवानी की यह अवस्था देखकर कमलिनी को आश्चर्य मालूम हुआ क्योंकि उसने अभी तक श्यामसुन्दरसिंह और भगवानी का हाल कुछ न जाना था। भैंरोसिंह ने भूतनाथ को रोशनी करने के लिए कहकर संक्षेप में वह सब हाल कमलिनी को कह सुनाया जो भगवानी के विषय में श्यामसुन्दरसिंह से सुना था। कमलिनी को हद से ज्यादा क्रोध चढ़ आया मगर वह बुद्धिमान थी और इस बात को खूब समझती थी कि ऐसे मौके पर क्रोध के ऊपर अधिकार न कर लेने से प्रायः तकलीफ और नुकसान हुआ करता है, कहीं ऐसा न हो कि डर के मारे या विशेष धमकाने से भगवानी का दम निकल जाये या वह जिसका दिल और दिमाग बहुत ही कमजोर है पागल हो जाय जैसा कि प्रायः हुआ करता है, तो बड़ी ही मुश्किल होगी और किशोरी, कामिनी तथा तारा का कुछ भी पता न लगेगा।

रोशनी हो जाने पर जब कमलिनी ने भगवानी की सूरत देखी तो मालूम हुआ कि उस पर हद से ज्यादा खौफ पड़ चुका है। आंखें बन्द हैं, चेहरे पर जर्दी छाई हुई है, और बदन कांप रहा है। कमलिनी ने कुछ ऊंची आवाज में कहा, ”होश में आ और मेरी बातें सुन, एकदम नाउम्मीद न हो, कदाचित तेरी जान बच जाय!”

इस आवाज ने बेशक अच्छा असर किया जैसा कि कमलिनी ने सोचा था, ‘कदाचित तेरी जान बच जाय’ यह सुनकर भगवानी ने आंखें खोल दीं! कमलिनी ने फिर कहा, ”यद्यपि तूने बहुत बड़ा कसूर किया है मगर मैं वादा करती हूं कि यदि तू झटपट सच्चा-सच्चा हाल कह देगी तो तेरी जान छोड़ दी जायगी।”

अब भगवानी उठ बैठी और अपने को संभालकर हाथ जोड़के कांपती हुई आवाज के साथ बोली, ”क्या मेरी जान छोड़ दी जायगी’

कमलिनी – हां, छोड़ दी जायगी यदि तू सच्चा हाल कहकर अपने दोष को स्वीकार कर लेगी और किशोरी, कामिनी तथा तारा का ठीक-ठीक पता बता देगी।

भगवानी – (कमलिनी के पैरों पर गिरकर और फिर खड़ी होकर) बेशक मैं कसूरवार हूं। जो कुछ मैंने किया है मैं साफ कह दूंगी। अफसोस लालच में पड़कर मैंने बहुत बुरा किया था। मुझे शिवदत्त ने धोखा दिया, बिना समझे-बूझे मैं…

कमलिनी – बस – बस, ज्यादा बात बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं, जो कुछ कहना है जल्दी से कह दे, विलम्ब होना तेरे लिए अच्छा नहीं है।

भगवानी ने सब हाल अर्थात् जो कुछ उसने कसूर किया था, सच-सच कह दिया और अन्त में फिर कमलिनी के पैरों पर गिरकर बोली, ”मैंने कोई बात नहीं छिपाई, अब अपनी प्रतिज्ञानुसार मुझे छोड़ दीजिए।”

”हां, छोड़ दूंगी।” कहकर कमलिनी ने भूतनाथ और श्यामसुन्दरसिंह की तरफ देखा और कहा, ”इसकी मुश्कें बांध लो और जहां उचित समझो ले जाकर अपनी हिफाजत में रक्खो। हम लोग मकान की तरफ न जाकर पहले किशोरी, कामिनी और तारा को छुड़ाने का उद्योग करते हैं और इसके बाद जैसा मौका होगा किया जायगा। कल इसी समय इसी जगह हम लोग या हम लोगों में से कोई आवेगा, तुम मौजूद रहना, अगर भगवानी की बात सच निकली तो ठीक है, नहीं तो एक बात भी झूठी निकलने पर कल इसी जगह इसका सिर उतार लिया जायगा। बस अब मैं एक पल भी नहीं रुक सकती।”

भूतनाथ और भगवानी को इसी जगह छोड़ भैरोसिंह, देवीसिंह और लाडिली को साथ लिए हुए कमलिनी वहां से रवाना हुई। इस समय उसके पास तिलिस्मी खंजर मौजूद था, वही तिलिस्मी खंजर जो भैरोसिंह का पत्र पाकर इन्द्रदेव ने उसे दे दिया था।

वहां से थोड़ी दूर पर एक पहाड़ी थी जिससे मिली-जुली छोटी-बड़ी पहाड़ियों का सिलसिला पीछे की तरफ दूर तक चला गया था। कमलिनी अपने साथियों को लिए हुए उसी तरफ रवाना हुई। कमलिनी को अपने मकान के बर्बाद होने और लूटे जाने का इतना रंज न था जितना किशोरी, कामिनी और तारा की अवस्था पर रंज था। वह साथियों से निम्नलिखित बातें करती हुई तेजी से उस पहाड़ी की तरफ जा रही थी।

कमलिनी – अफसोस, तारा ने बड़ा धोखा खाया! अब देखना चाहिए उन तीनों को मैं जीता पाती हूं या नहीं!

लाडिली – किशोरी और कामिनी बेचारी ने न मालूम विधाता का क्या बिगाड़ा है कि सिवा दुःख के सुख तो उन्हें…?

कमलिनी – दुःखों ने तो पहले ही उन्हें अधमरा कर दिया था, अब देखना चाहिए कि कई दिन की भूख-प्यास ने उन्हें जीता भी छोड़ा है या नहीं (रोकर) सच तो यह है कि यदि वे जीती-जागती आज मुझे न मिलीं तो मैं दोनों कुमारों को मुंह दिखाने लायक न रहूंगी और जब इस योग्य हो जाऊंगी तो फिर जीकर ही क्या करूंगी! (कुछ सोचकर) निःसन्देह अगर ऐसा हुआ तो आज मुझे भी उसी जगह मरकर रह जाना होगा। हे ईश्वर, तेरी सृष्टि में एक-से-एक बढ़कर खूबसूरत गुलबूटे मौजूद हैं, इन दोनों के लिए कमी नहीं है, क्या तू नहीं जानता कि उन कुमारों की जिन्दगी के लिए जिनकी प्रसन्नता पर हमारी प्रसन्नता निर्भर है केवल ये ही दोनों हैं अफसोस, यद्यपि कम्बख्त भगवानी से मैं खटकी रहती थी मगर यह आशा न थी, कि वह यहां तक कर गुजरेगी।

भैरोसिंह – क्या आप जानती थीं कि भगवानी दिल की खोटी है?

कमलिनी – मुझे इस बात का निश्चय तो न था कि वह खोटी है। मगर उसके बात-बात पर कसम खाने से मैं खटकी रहती थी, क्योंकि मैं खूब जानती हूं कि जो आदमी लापरवाही के साथ बात-बात पर कसमें खाया करता है, वह वास्तव में झूठा और खोटा होता है। मायारानी की सुहबत के सबब से यदि वह मेरे इस तिलिस्मी मकान के तहखाने के भेद से अनजान रहती तो मैं स्वयं उसे वह भेद कदापि न बताती। तिस पर भी खुटका बना रहने के कारण मैं स्वयं जब ताला खोलकर उस तहखाने और सुरंग में जाती थी तो ताले को जमीन पर नहीं रख देती थी बल्कि कुण्डी में लगाकर ताली अपने पास रख लेती थी जिससे तहखाने या सुरंग में जाने के बाद पीछे से कोई आदमी ताला बन्द करना तो दूर रहा, जंजीर भी न चढ़ा सके।

देवीसिंह – बेशक यह बड़ी चालाकी की बात है। जब खाली कुण्डी में ताला लगा रहेगा तो किसी तरह कोई जंजीर नहीं चढ़ा सकता।

कमलिनी – और यह बात तारा को मालूम थी मगर अफसोस, उसने इस पर कुछ ध्यान न दिया और धोखा खा गई। मैं बहुत दिनों से इस फिक्र में थी कि भगवानी को अच्छी तरह जांच कर खटका मिटा लिया जावे लेकिन इतनी फुरसत ही न मिली। दस दिन निश्चिन्त होकर घर में बैठने की कभी नौबत ही न आई। मगर आश्चर्य की बात है कि भगवानी ने इतनी खोटी होने पर भी हमारे यहां की कोई बात मायारानी के कान तक न पहुंचाई क्योंकि अभी तक कोई ऐसी बात पाई नहीं गई जिसमें मैं समझती कि मेरा फलां भेद मायारानी को मालूम हो गया है।

भैरोसिंह – यह बात कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मौका मिलने पर आदमी की तबीयत यकायक बदल जाय। एक पुरानी मसल चली आती है कि ‘आदमी का शैतान आदमी होता है।’ इसका मतलब यही है कि चालाक और धूर्त आदमी अपनी लच्छेदार बातों में फंसाकर किसी आदमी की तबीयत को बदल सकता है। मन बड़ा ही चंचल है, इसे स्वाधीन रखना कोई मामूली बात नहीं है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों का सैकड़ों वर्षों का उद्योग भी, जो केवल मन को स्वाधीन करने के विषय में किया गया था, बात-की-बात में वृथा हो चुका है। हां, नेक और बद आदमियों के मन में इतना भेद अवश्य होता है कि भाव बदल जाने या धोखे में पड़कर किसी बुराई के हो जाने पर नेक आदमी तुरत चौकन्ना हो जाता है और सोचता है कि ‘बेशक यह काम मुझसे बुरा हो गया’ मगर बुरे मनुष्य में जिसने अपने मन पर अधिकार जमाने के लिए कुछ उद्योग न किया हो, यह बात नहीं होती। जो आदमी इस बात को सोचता है कि मन क्या वस्तु है, इसकी चंचलता कैसी है, यह कितनी जल्दी बदल जाने की सामर्थ्य रखता है, या उसे अधिकार में न रखने से क्या-क्या खराबियां हो सकती हैं, उसके हृदय में एक ऐसी ताकत पैदा हो जाती है जिसकी उत्पत्ति तो विचारशक्ति से है मगर यह कहना बहुत कठिन है कि वह स्वयं क्या पदार्थ है। उसका काम यह है कि मन की चंचलता या शिथिलता के कारण यदि कोई बुराई होना चाहती है तो वह विचित्र ढंग से खुटका पैदा कर तुरंत खबर दे देता है कि यह काम बुरा है या तूने बुरा किया। यह विषय बड़ा गम्भीर है, ऐसे समय में अर्थात् राह चलते-चलते इस विषय को स्पष्ट रूप से मैं नहीं दिखा सकता मगर मेरे कहने का मतलब केवल यही है कि आदमी का शैतान आदमी होता है। आदमी अपने हमजिन्स की तबीयत को बेशक बदल सकता है, हां यह बात विचारशक्ति की दृढ़ता और स्थिरता पर निर्भर है कि किसका मन कितनी देर में बदल सकता है। भगवानी औरत की जात है जिनका मन बनिस्बत मर्दों के बहुत कमजोर होता है। ऐसे को यदि तीन धूर्तों की लच्छेदार बातों ने, जो आपके यहां कैद थे, मौका पाकर बदल दिया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं, इससे इस बात को निश्चित तौर पर कह नहीं सकते कि भगवानी अवश्य पहले से ही खोटी थी या पहले अच्छी थी, बीच में खोटी बना दी गई।

कमलिनी – (भैरोसिंह के विचारों से प्रसन्न होकर) बेशक तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है, मैं स्वीकार करती हूं।

देवीसिंह – (भैरोसिह की पीठ मुहब्बत से ठोंककर) शाबाश! मैं यह जानकर प्रसन्न हुआ कि तुम मन की अवस्था को अच्छी तरह से समझते हो, जिसका नतीजा भविष्य में बहुत अच्छा निकलेगा। ईश्वर हमारे उस मनोरथ को पूरा करे जिसके लिए इस समय तेजी और घबराहट के साथ हम लोग जा रहे हैं फिर किसी समय इस विषय पर बहुत-सी बातें मैं तुमसे कहूंगा।

इन लोगों को राह चलने या स्थान खोजने में किसी तरह की कठिनता न हो इसलिए विधाता ने आसमान पर कुदरती माहताबी जला दी थी और वह क्रमशः ऊंची होकर पृथ्वी के इस खण्ड की उन तमाम चीजों को, जो किसी आड़ में न थीं, साफ दिखाई देने में सहायता कर रही थी। यही सबब था कि इन लोगों को उन कठिन रास्तों पर चलने में विशेष कष्ट न हुआ जो बहुत ही पथरीला, खराब और चकाबू के नक्शे की तरह पेचीला था।

पहाड़ियों पर घूम-फिरकर चढ़ते-उतरते हुए ये लोग एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जिसके दोनों तरफ ऊंचे पहाड़ और बीच में एक बारीक पगडण्डी थी जिसके देखने से साफ मालूम होता था कि कारीगरों ने बड़े-बड़े ढोकों को काटकर यह रास्ता तैयार किया होगा। यहां पर कमलिनी और लाडिली घोड़ों पर से उतर पड़ीं, और उन्हें एक पेड़ से बांध आगे की तरफ रवाना हुईं। कमलिनी आगे-आगे जा रही थी, उसके पीछे लाडिली और फिर दोनों ऐयार आश्चर्य से चारों तरफ देखते और यह सोचते हुए जा रहे थे कि निःसन्देह अनजान आदमी जिसे इस रास्ते का हाल मालूम न हो, यहां कदापि नहीं आ सकता।

इस पगडंडी पर दो सौ कदम जाने के बाद साफ पानी से भरा हुआ एक पतला चश्मा मिला जो इन लोगों की राह काटता हुआ दाहिने से बाईं तरफ को बह रहा था। अब कमलिनी उसी नहर के किनारे-किनारे बाईं तरफ जाने लगी, मगर अपनी तेज निगाहें उन छोटे-छोटे जंगली पेड़ों पर बड़ी सावधानी से डालती जाती थी जो उस चश्मे के दोनों किनारे पर बड़ी खूबी और खूबसूरती के साथ खड़े इस समय की ठण्डी-ठण्डी हवा के नर्म झोंकों में नये शराबियों की तरह धीरे-धीरे झूम रहे थे।

यकायक कमलिनी की निगाह एक ऐसे पेड़ पर पड़ी जिसके दोनों तरफ पत्थरों के ढोके इस तौर पर पड़े हुए थे मानो किसी ने जान-बूझकर इकट्ठे किये हों। यहां पर कमलिनी रुकी और कुछ सोचने के बाद अपने साथियों को लिये चश्मे के पार उतर गई जिसके आगे थोड़ी ही दूर जाने के बाद कुछ ढलवां जमीन मिली मगर लाडिली और दोनों ऐयार कमलिनी के पीछे-पीछे चले ही गये। दो सौ कदम से ज्यादा न गये होंगे कि ये लोग एक गुफा के मुहाने पर पहुंचकर रुक गये। कमलिनी ने देवीसिंह से मोमबत्ती जलाने के लिए कहा और जब मोमबत्ती जल चुकी, तो सब उस खोह के अन्दर घुसे। खोह की अवस्था देखने से जाना जाता था कि वर्षों से इसकी जमीन ने किसी आदमी के पैर न चूमे होंगे बल्कि कह सकते हैं कि शायद किसी जंगली जानवर ने भी इसके अन्दर आने का साहस न किया होगा। थोड़ी ही दूर पर खोह का अन्त हुआ और इन लोगों ने अपने सामने लोहे का एक बन्द दरवाजा देखा। कमलिनी ने लाडिली पर एक भेदभरी निगाह डाली और कहा, ”इस दरवाजे का हाल राजा गोपालसिंह के सिवाय कोई भी नहीं जानता। मुझे तो खून से लिखी हुई किताब की बदौलत इसका हाल मालूम हुआ है, इसकी चाबी भी इसी जगह मौजूद है।” यह कहकर कमलिनी ने तिलिस्मी खंजर के कब्जे से दरवाजे के दाहिनी तरफ बीचोंबीच की जमीन ठोंकी जो वास्तव में किसी धातु की थी, मगर मुद्दत से काम में न आने के कारण उसका रंग पत्थर के रंग में मिल गया था।

ठोंकने के साथ ही बित्ते भर का एक पल्ला अलग हो गया और उसके अन्दर हाथ डालकर कमलिनी ने कोई पेंच दबाया और इसके साथ ही हल्की आवाज देता हुआ वह दरवाजा खुल गया। कमलिनी ने उस खिड़की को बन्द कर दिया जिसके अन्दर हाथ डालकर पेंच घुमाया था और इसके बाद सभी को लिए दरवाजे के अन्दर चली गई।

दरवाजा खोलने के लिए जिस तरह की चाबी इस तरफ रखी थी उसी तरह की दरवाजे के दूसरी तरफ भी थी अर्थात् दूसरी तरफ भी उसी तरह की ताली और पेंच मौजूद था जिसे घुमाकर कमलिनी ने दरवाजा बन्द किया और साथियों को साथ लिए हुए आगे की तरफ बढ़ी। इन सभी को घंटे भर तक तेजी के साथ जाना पड़ा और इसके बाद मालूम हुआ कि सुरंग के दूसरे मुहाने पर पहुंच गये क्योंकि यहां भी उसी रंग-ढंग का दरवाजा बना हुआ था। कमलिनी ने उस दरवाजे को भी खोला और सभी को साथ लिये हुए अन्दर चली गई। यहां पर रास्ता बंट गया था अर्थात् एक सुरंग बाईं तरफ गई हुई थी और दूसरी दाहिनी तरफ। कमलिनी ने भैरोसिंह और देवीसिंह की तरफ देख के कहा, ”मुझे मालूम है कि दाहिनी तरफ जाने से हम लोग उस कोठरी में पहुंचेंगे जिसमें कैदी लोग कैद थे या जो कैदखाने के नाम से पुकारी जाती है, और बाईं तरफ जाने से हम लोग उस सुरंग के बीचोंबीच में पहुंचेंगे जिसमें किशोरी, कामिनी और तारा को भगवनिया ने फंसा रक्खा है। आप लोगों की क्या राय है किधर चलना चाहिए?’

देवीसिंह – हम लोगों को पहले उस सुरंग ही में चलना चाहिए जिससे किशोरी, कामिनी और तारा को जल्द देखें।

इस बात को सभी ने पसन्द किया और कमलिनी ने बाईं तरफ का रास्ता लिया। दो-चार कदम जाने के बाद भैरोसिंह ने कहा, ”मैं समझता हूं कि अब बीस-पच्चीस कदम से ज्यादा न चलना होगा और उस ठिकाने पर पहुंच जायंगे, जहां शीघ्र पहुंचने की इच्छा है!”

कमलिनी – यह बात तुमको कैसे मालूम हुई?

भैरोसिंह – (छत और दोनों तरफ की दीवार की तरफ इशारा करके) देखिये छत औैर दीवार नम मालूम होती हैं, कहीं-कहीं पानी की बूंदें भी टपक रही हैं, इससे निश्चित होता है कि इस समय हम लोग तालाब के नीचे पहुंच गये हैं।

कमलिनी ने कहा, ”ठीक है, तुम्हारा सबूत ऐसा नहीं है कि कोई काट सके।”

थोड़ी ही दूर आगे जाने के बाद एक छोटी-सी खिड़की मिली। इसका दरवाजा भी उसी ढंग से खुलने वाला था जैसा कि पहला और दूसरा दरवाजा, जिनका हाल हम ऊपर लिख आये हैं। कमलिनी ने दरवाजा खोला।

इस समय इन चारों का कलेजा धक-धक कर रहा था, क्योंकि अब ये लोग किशोरी, कामिनी और तारा की किस्मतों का फैसला देखने वाले थे और उनके दिलों का यह खुटका क्रमशः बढ़ता ही जाता था कि देखें बेचारी किशोरी, कामिनी और तारा को हम लोग किस अवस्था में पाते हैं! कहीं ऐसा न हुआ हो कि वे तीनों भूख-प्यास के दुःख को न सहकर इस दुनिया से कूच कर गई हों और इस समय उनकी लाशें सामने पड़कर हम लोगों को भी दीन-दुनिया के लायक न रक्खें।

यहां पर एक मोमबत्ती और जला ली गई। दरवाजा खुला और ये चारों उसके अन्दर गये। आह, यहां यकायक जमीन पर सामने की तरफ तीन लाशें पड़ी हुई दिखाई दीं जिन पर नजर पड़ते ही कमलिनी के मुंह से एक चीख निकल पड़ी और वह ‘हाय’ करके उन लोगों के पास जा पहुंची।

ये तीनों लाशें किशोरी, कामिनी और तारा की थीं जो भूख और प्यास की सताई हुई इस अवस्था को पहुंच गई थीं। तारा के बगल में तिलिस्मी नेजा जमीन पर पड़ा हुआ था और उसके जोड़ की अंगूठी उसकी खूबसूरत उंगली में पड़ी हुई थी।

कमलिनी ने सबसे पहले किशोरी के कलेजे पर हाथ रक्खा। कलेजे की धड़कन बन्द थी और शरीर मुर्दे की तरह ठंडा था। कमलिनी की आंखों से आंसू की बूंदें गिरने लगीं, मगर जब उसने किशोरी की नब्ज पर हाथ रक्खा तो इसके साथ ही खुश होकर बोल उठी, ”अहा, अभी नब्ज चल रही है! आशा है कि ईश्वर मेरी मेहनत को सफल करेगा!”

कमलिनी ने तारा और कामिनी की भी जांच की। दोनों ऐयारों ने भी सभी को गौर से देखा। किशोरी, कामिनी और तारा तीनों की अवस्था खराब थी, होश-हवास कुछ भी न था, सांस बिल्कुल मालूम नहीं पड़ती थी, हां नब्ज का कुछ-कुछ पता लगता था जो बहुत ही बारीक और सुस्त चल रही थी। यद्यपि यह जानकर सभी को कुछ प्रसन्नता हुई कि ये तीनों अभी जीती हैं मगर फिर भी इन तीनों की अन्तिम अवस्था इस बात का निश्चय नहीं कर सकती थी कि इनकी जान निःसन्देह बच ही जायगी, और यही कारण था कि जिससे कमलिनी, लाडिली, देवीसिंह और भैरोसिंह का कलेजा कांप रहा था और आंखें डबडबाई हुई थीं।

देवीसिंह ने अपने बटुए में से एक शीशी निकाली जिसमें लाल रंग का कोई अर्क था। उसी में से थोड़ा-थोड़ा अर्क उन तीनों के मुंह में (जो पहले ही से खुला हुआ था) डाला और थोड़ी देर बाद फिर नब्ज पर हाथ रक्खा। नब्ज पहले से कुछ तेज मालूम हुई और सांस भी कुछ चलने लगी।

भैरोसिंह – इन तीनों को यहां से बाहर निकालकर मैदान में ले चलना चाहिए क्योंकि जब तक ठण्डी और ताजी हवा न मिलेगी इनकी अवस्था ठीक न होगी!

देवीसिंह – बेशक ऐसा ही है, इस सुरंग की बन्द हवा हमारे इलाज को सफल न होने देगी।

कमलिनी – तो पहले यही काम करना चाहिए।

इतना कहकर कमलिनी ने तारा की उंगली से तिलिस्मी नेजे के जोड़ की अंगूठी निकाल ली और भैरोसिंह को देकर कहा, ”इस अंगूठी को तुम पहन लो जिससे इस तिलिस्मी नेजे को अपने पास रख सको, क्योंकि इन तीनों को बाहर ले जाने के बाद लाडिली और देवीसिंह को साथ लेकर थोड़ी देर के लिए मैं तुमसे अलग हो जाऊंगी और किशोरी, कामिनी तथा तारा की हिफाजत के लिए तुम अकेले रह जाओगे।”

”मैं आपका मतलब समझ गया।” कहकर भैरोसिंह ने अंगूठी लेकर अपनी उंगली में पहन ली।

कमलिनी – मेरे इस कहने से तुमने क्या मतलब निकाला मेरा इरादा क्या समझे?

भैरोसिंह – यही कि आप लोग माधवी, मनोरमा और शिवदत्त की शक्लें बनाकर उन दुश्मनों को धोखा देना चाहते हैं क्योंकि वे लोग अभी तक बेहद उथल-पुथल मचाने पर भी आपके मकान के बाहर न हुए होंगे।

कमलिनी – शाबाश! तुम्हारी बुद्धि बड़ी तेज है, बेशक मेरा यही इरादा है।

दो दफा करके हिफाजत के साथ चारों आदमियों ने किशोरी, कामिनी और तारा को सुरंग के बाहर निकाला और देवीसिंह तथा भैरोसिंह बड़ी मुस्तैदी से किशोरी, कामिनी और तारा का इलाज करने लगे। जब कमलिनी को इस बात का निश्चय हो गया कि अब इन तीनों की जान का खौफ नहीं है, तब वह देवीसिंह और लाडिली को साथ लेकर फिर उसी सुरंग से घुसी। अबकी दफा वह कैदखाने वाली कोठरी में गई और वहां कार्रवाई का पूरा मौका पाकर इन तीनों ने माधवी, मनोरमा और शिवदत्त बनकर जो कुछ किया उसका हाल हम ऊपर के बयान में लिख चुके हैं।

पाठक महाशय, अब आप यह तो समझ ही गये होंगे कि दुश्मनों ने खोज-ढूंढ़कर तहखाने में से जिन कैदियों को निकाला, वे वास्तव में माधवी, मनोरमा और शिवदत्त न थे, बल्कि कमलिनी, लाडिली और देवीसिंह थे। खैर, अब इस तरफ आइये और किशोरी, कामिनी तथा तारा का हाल देखिये, जिनकी हिफाजत के लिए केवल भैरोसिंह रह गये थे।

ताकत पहुंचाने वाली दवाओं की बरकत से किशोरी, कामिनी और तारा ने उस समय आंखें खोलीं जब आसमान पर सुबह की सफेदी फैल चुकी थी। पूरब से निकलकर क्रमशः फैल जाने वाली लालिमा रात भर तेजी के साथ चमकने वाले सितारों और उनके सरदार चन्द्रदेव को सूर्यदेव की अवाई की सूचना दे रही थी, और इसी सबब से तारों समेत तारापति भी नौ-दो-ग्यारह होने के उद्योग में लगे हुए थे, तथा भैरोसिंह आसमान की तरफ मुंह किये बड़ी दिलचस्पी के साथ इस शोभा को देख-देखकर सोच रहा था कि ”वाह, ईश्वर की भी क्या विचित्र गति है करोड़ों आदमी ऐसे होंगे जो चन्द्रदेव की यह अवस्था देख सूर्यदेव ही के ऊपर इनसे वैर रखने का कलंक लगाते होंगे जिनकी बदौलत चन्द्रमा में रोशनी है और वह खूबसूरती तथा उद्दीपन का मसाला गिना जाता है।”

इस समय भैरोसिंह को यह देखकर कि किशोरी, कामिनी और तारा ने आंखें खोल दी हैं, बड़ी खुशी हुई और उसने समझा कि अब मेरी मेहनत ठिकाने लगी। मगर अफसोस, उसे इस बात की कुछ खबर न थी कि बदकिस्मती ने अभी तक उन लोगों का पीछा नहीं छोड़ा या विधाता अभी भी उन लोगों के अनुकूल नहीं हुआ।

बयान – 8

भगवानी को भूतनाथ के हवाले करके जब कमलिनी चली गयी तो भूतनाथ एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर सोचने लगा। श्यामसुन्दरसिंह किसी काम के लिए चला गया और भगवानी उसके सामने दूसरी चट्टान पर सिर पकड़े बैठी हुई थी। उसके हाथ-पैर खुले थे, मगर भूतनाथ के सामने से भाग जाने की हिम्मत उसे न थी। भूतनाथ क्या सोच रहा था या किस विचार में डूबा हुआ था, इसका पता अभी न लगता था, मगर उसके ढंग से इतना जरूर मालूम होता था कि वह किसी गम्भीर चिन्ता में डूबा हुआ है, जिसमें कुछ-कुछ लाचारी और बेबसी की झलक भी मालूम होती थी। वह घण्टों तक न जाने क्या-क्या सोचता और बहुत देर बाद लम्बी सांस लेकर धीरे से बोला, ‘बेशक, वही था और अगर वही था तो उसने मुझे अपनी आंखों की ओट होने न दिया होगा…’

यह बात भूतनाथ ने इस ढंग से कही मानो वह स्वयं अपने दिल को सुना रहा और आगे भी कुछ कहना चाहता है, मगर पास ही से किसी ने उसकी अधूरी बात का यह जवाब दे दिया – ”हां, आंखों की ओट नहीं होने दिया!”

भूतनाथ चौंक पड़ा और मुड़कर पीछे की तरफ देखने लगा। उसी समय एक आदमी भूतनाथ की तरफ बढ़ता हुआ दिखाई दिया जो तुरन्त भूतनाथ के सामने आकर खड़ा हो गया। चन्द्रदेव जिनको उदय हुए अभी आधी घड़ी भी नहीं हुई थी, इस नये आये हुए मऩुष्य की सूरत-शक्ल को अच्छी तरह नहीं तो भी बहुत-कुछ दिखा रहे थे। इसका कद नाटा, बदन गठीला और मजबूत था, रंग यद्यपि काला तो न था, मगर गोरा भी न था। चेहरा कुछ लम्बा, सिर पर बड़े-बड़े घुंघराले बाल इतने चमकदार और खूबसूरत थे कि ऐयारों को उन पर नकली या बनावटी होने का गुमान हो सकता था। चुस्त पायजामा और घुटने तक का चपकन जिसमें बहुत से जेब थे, पहने और उस पर रेशमी कमरबन्द बांधे हुए था, केवल कमरबन्द ही नहीं, बल्कि कमरबन्द के ऊपर बेशकीमत कमन्द इस खूबसूरती के ढंग से लपेटे हुए था कि देखने से औरों को तो नहीं, मगर ऐयारों को बहुत ही खूबसूरत जंचती होगी। कमर में बाईं तरफ लटकने वाली तलवार की म्यान साफ कह रही थी कि मैं एक हल्की-पतली तथा नाजुक तलवार की हिफाजत कर रही हूं, पीठ पर गैंडे की एक छोटी-सी ढाल भी लटक रही थी, और हाथ में कोई चीज थी, जो कपड़े के अन्दर लपेटी हुई थी। यह सब-कुछ था, मगर उसके सिर पर टोपी, पगड़ी या मुंड़ासा इत्यादि कुछ भी न था अर्थात् सिर से वह नंगा था। यह आदमी जिस ढंग और चाल से घूमकर भूतनाथ के सामने आ खड़ा हुआ, उससे मालूम होता था कि इसके बदन में फुर्ती और चालाकी कूट-कूटकर भरी हुई है।

कई सायत तक भूतनाथ चुपचाप गौर से उसकी तरफ देखता रहा और वह भी काठ की तरह खड़ा रहा। आखिर भूतनाथ ने कहा, ”क्या तुम बहुत देर से हमारे साथ हो?’

आदमी – बहुत देर से ही नहीं, बल्कि बहुत दूर से भी।

भूतनाथ – ठीक है, मैंने रास्ते में तुम्हें एक झलक देखा भी था।

आदमी – मगर कुछ बोले नहीं और मैं भी यह सोचकर छिप गया कि कमलिनी के सामने कहीं तुम्हारी बेइज्जती न हो।

भूतनाथ – और ताज्जुब नहीं कि यह भी सोच लिया हो कि इस समय भूतनाथ अकेला नहीं है।

आदमी – शायद यह भी हो! (हंसकर) मगर सच कहना, क्या तुम्हें विश्वास था कि कभी मुझे फिर अपने सामने देखोगे?

भूतनाथ – नहीं, कभी नहीं, स्वप्न में भी नहीं।

आदमी – ”अच्छा, तो फिर आज का दिन बहुत मुबारक समझना चाहिए।” यह कहकर वह बड़े जोर से हंसा।

भूतनाथ – आज का दिन शायद तुम्हारे लिए मुबारक हो, मगर मेरे लिए तो बड़ा ही मनहूस है।

आदमी – इसलिए कि तुम मुझे मरा हुआ समझते थे?

भूतनाथ – केवल मरा ही हुआ नहीं, बल्कि पंचतत्व में मिल गया हुआ!

आदमी – और इसी से तुम निश्चिन्त थे तथा समझते थे कि तुम्हारे सच्चे दोषों को जानने वाला दुनिया में कोई नहीं रहा!

भूतनाथ – अब मुझे अपने दोषों के प्रकट होने का डर नहीं है। क्योंकि राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके लड़कों तथा ऐयारों की तरफ से मुझे माफी मिल गई है।

आदमी – किसकी बदौलत?

भूतनाथ – कमलिनी की बदौलत।

आदमी – ठीक है, मगर उस सोहागिन की तरफ से तुम्हें माफी न मिली होगी जिसने अपना नाम तारा रखा हुआ है, बल्कि उसे इस बात की खबर भी न होगी कि तुम उसके…।

भूतनाथ – ठहरो-ठहरो, तुम्हें इसका खयाल रख के कोई नाजुक बात कहनी चाहिए कि मेरे सिवाय कोई और सुनने वाला तो नहीं है।

आदमी – कोई जरूरत नहीं कि मैं इस बात का ध्यान रखूं। मैं अन्धा नहीं हूं इसलिए तुम्हें इतना तो विश्वास होना ही चाहिए कि भगवानी मेरी आंखों की आड़ में न होगी!

भूतनाथ – खैर, तो भगवानी के सामने जरा सम्हल के बातें करो।

आदमी – सो कैसे हो सकता है मैं बिना बातें किये टल नहीं सकता और तुम कमलिनी के डर से भगवानी को बिदा नहीं कर सकते। अच्छा देखो, मैं तुम्हारी इज्जत का खयाल करके भगवानी को बिदा कर देता हूं! (भगवानी से) जा री! तू यहां से चली जा! जहां तेरा जी चाहे वहां चली जा!

भूतनाथ – (कांपकर) नहीं-नहीं, ऐसा न करो!

आदमी – मैं तो ऐसा ही करूंगा! (भगवानी से) जा री! तू जाती क्यों नहीं क्या मौत के पंजे से बचना तुझे अच्छा नहीं लगता!

भूतनाथ – मैं हाथ जोड़ता हूं, माफ करो, जरा सोचो तो सही।

आदमी – तुमने उस वक्त क्या सोचा था कि मैं सोचूं?

भूतनाथ – अच्छा, तब एक काम करो, इसके हाथ-पैर बांधकर अलग कर दो, फिर हम बातें कर लेंगे।

आदमी (भगवानी से) क्यों री, हाथ-पैर बंधवा के जान देना मंजूर है या भाग जाना पसन्द करती है?

इस आदमी और भूतनाथ की बातें सुन भगवानी को बड़ा आश्चर्य हो रहा था। वह सोच रही थी कि क्या सबब है जो यह अद्भुत मनुष्य बात-बात में भूतनाथ को दबाये जाता है इसके विपरीत भूतनाथ के मुंह से निकले हुए शब्द उसकी बेबसी, लाचारी और कमजोरी की सूचना देते हैं। साफ-साफ जान पड़ता है कि भूतनाथ इससे दबता है और इसका इस समय यहां आना भूतनाथ को बहुत बुरा मालूम हुआ है। निःसन्देह इसमें और भूतनाथ में कोई गुप्त भेद की बात है जिसे भूतनाथ प्रकट नहीं करना चाहता। जो हो, पर मुझे इन बातों से क्या मतलब सच तो यह है कि इस समय इसका यहां आना मेरे लिए बहुत मुबारक है। साफ देख रही हूं कि वह मुझे चले जाने का हुक्म दे रहा है और भूतनाथ जोर करके उसका हुक्म टाल नहीं सकता, अतएव विलम्ब करना नादानी है, जहां तक हो सके, यहां से जल्द भाग जाना चाहिए। यद्यपि कमलिनी ने वादा किया है कि किशोरी, कामिनी और तारा के मिल जाने पर तेरी जान छोड़ दी जायगी – फिर भी पराधीन और खतरे में तो पड़ी ही रहूंगी। कौन ठिकाना तारा, कामिनी और किशोरी भूख-प्यास की तकलीफ से मर गई हों और इस सबब से कमलिनी क्रोध में आकर मेरा सिर उतार ले। नहीं-नहीं, ऐसा न होना चाहिए। इस समय ईश्वर ने ही मेरी मदद की है, जो इस आदमी को यहां भेज दिया है। अस्तु, जहां तक हो सके, जल्दी भाग जाना ही उचित है।

इन बातों को सोचकर भगवानी उठ खड़ी हुई और घने जंगल की तरफ रवाना हो गयी। फिर-फिरकर देखती जाती थी कि कहीं भूतनाथ मेरे पीछे तो नहीं आता, मगर ऐसा न था और इसलिए वह खुशी-खुशी कदम बढ़ाने लगी। उसने यह भी सोच लिया था कि माधवी, मनोरमा और शिवदत्त मेरी बदौलत छूट गये हैं। इसलिए उन तीनों में से चाहे जिसके पास मैं चली जाऊंगी, मेरी कदर होगी और मुझे किसी बात की परवाह न रहेगी। भगवानी स्वयं तो चली गयी, मगर घबड़ाहट में उसने वह कीमती जेवरों और जवाहरात की चीजों की गठरी उसी जगह छोड़ दी जो कमलिनी के घर से लूटकर लाई थी। यह गठरी अभी तक उसी जगह एक पत्थर के ढोंके पर पड़ी हुई थी और इस पर किशोरी, कामिनी तथा तारा को छुड़ाने की जल्दी में कमलिनी ने भी विशेष ध्यान न दिया था, तो भी एक तौर पर यह गठरी भी भूतनाथ के ही सुपुर्द थी।

भगवानी को इस तरह चले जाते देख भूतनाथ की आंखों में खून उतर आया और क्रोध के मारे उसका बदन कांपने लगा। उसने जोर से जफील (सीटी) बजाई और इसके बाद उस आदमी की तरफ देख के बोला –

भूतनाथ – बेशक, तुमने बहुत बुरा किया कि भगवानी को यहां से बिदा कर दिया, मैं तुम्हारी इतनी जबर्दस्ती किसी तरह बरदाश्त नहीं कर सकता!

आदमी – (जोश के साथ) तो क्या तुम मेरा मुकाबला करोगे कह दो, कह दो – हां, कह दो!

भूतनाथ – आखिर तुममें क्या सुरखाब का पर लगा हुआ है जो तुम इतना बढ़े चले जाते हो मैं भी तो मर्द हूं!

आदमी – (बहुत जोर से हंसकर – जिससे मालूम होता था कि बनावट की हंसी है) हां-हां, मैं जानता हूं, तुम मर्द हो और इस समय मेरा मुकाबला करना चाहते हो!

यह कहकर उसने पीछे तरफ देखा, क्योंकि पत्तों की खड़खड़ाहट तेजी के साथ किसी के आने की सूचना देने लगी थी।

पाठकों को याद होगा कि कमलिनी यहां पर अकेले भूतनाथ को नहीं छोड़ गई थी, बल्कि श्यामसुन्दरसिंह को भी छोड़ गई थी। कमलिनी के चले जाने के बाद श्यामसुन्दरसिंह, भूतनाथ की आज्ञानुसार यह देखने के लिए वहां से चला गया था कि जंगल में थोड़ी दूर पर कहीं कोई ऐसी जगह है जहां हम लोग आराम से एक दिन रह सकें और किसी आने-जाने वाले मुसाफिर को मालूम न हो। यही सबब था कि इस समय श्यामसुन्दरसिंह मौजूद था और भूतनाथ ने उसी को बुलाने के लिए जफील दी थी, जिसके आने की आहट इन लोगों को मिली।

आदमी – (भूतनाथ से) मैं तो पहले ही समझ चुका था कि तुम श्यामसुन्दरसिंह को बुला रहे हो। मगर तुम विश्वास करो कि उसके आने से मैं डरता नहीं हूं, बल्कि तुम्हारी बेवकूफी पर अफसोस करता हूं। मर्दे-आदमी, तुमने इतना न सोचा कि जब भगवानी के सामने तुम मेरी बातों को नहीं सुन सकते थे तो श्यामसुन्दरसिंह के सामने कैसे सुनोगे खैर मुझे इन बातों से क्या मतलब, तुम्हें अख्तियार है, चाहे दो सौ आदमी इकट्ठे कर लो!

भूतनाथ – (घबड़ाहट की आवाज से) तुम तो इस तरह बातें कर रहे हो जैसे अपने साथ एक फौज लेकर आये हो!

आदमी – बेशक, ऐसा ही है। (दो कदम आगे बढ़कर और अपने हाथ की वह गठरी दिखाकर जिसमें कोई चीज लपेटी हुई थी) इसके अन्दर ऐसी चीज है, जिसका होना मेरे साथ वैसा ही है जैसा तुम्हारे साथ एक हजार बहादुर सिपाहियों का होना। क्या तुम नहीं जानते कि इसके अन्दर क्या चीज है नहीं-नहीं, तुम बेशक समझ गये होगे कि इस कपड़े के अन्दर… (कुछ रुककर) हां, ठीक है। पहला नाम चाहे कुछ भी हो, मगर अब हमको उसे ‘तारा’ ही कहकर बुलाना चाहिए – अच्छा तो हम क्या कह रहे थे हां, याद आया, इस कपड़े के अन्दर तारा की किस्मत बन्द है। क्या तुम इसे खोलने के लिए हुक्म देते हो मगर याद रखो कि खुलने के साथ ही इसमें से इतनी कड़ी आंच पैदा होगी कि जिसे देखते ही तुम भस्म हो जाओगे, चाहे वह आंच मेरे दिल को कितना ही ठण्डा क्यों न करे।

भूतनाथ – (कांपकर और दो कदम पीछे हटकर) ठहरो, जल्दी न करो, मैं हाथ जोड़ता हूं, जरा सब्र करो!

आदमी – अच्छा क्या कहते हो, जल्दी कहो।

भूतनाथ – पहले यह बताओ कि आज ऐसे समय में तुम मेरे पास क्यों आये हो?

आदमी – (जोर से हंसकर) क्या बेवकूफ आदमी है! अबे तू इतना नहीं सोच सकता कि मैं उसी दिन से तुझे खोज रहा होऊंगा, जिस दिन तूने मुझ पर सफाई का हाथ फेरा था, मगर लाचार था कि तेरा पता ही नहीं लगता था! मैं नहीं जानता था कि भूतनाथ के चोले के अन्दर वही हरामी सूरत छिपी हुई है जिसे मैं वर्षों से ढूंढ़ रहा हूं। अगर जानता तो कभी का तुझसे मिल चुका होता, इतने दिन मुफ्त में गंवाकर आज की नौबत न आई होती। अच्छा पूछो, और क्या पूछते हो!

भूतनाथ – (बहुत देर तक सोचने के बाद सिर नीचा करके) क्या मैं आशा कर सकता हूं कि थोड़े दिन तक तुम मुझे और छोड़ दोगे मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि इसके बाद स्वयं तुमसे मुलाकात करूंगा। उस समय तुम खुशी से मेरा सिर उतार लेना, मुझे कुछ भी रंज न होगा।

आदमी – सिर उतार लेना!

भूतनाथ – हां, मेरा सिर उतार लेना, मुझे कुछ भी दुःख न होगा।

आदमी – क्या सिर उतार लेने से बदला पूरा हो जायगा?

भूतनाथ – क्यों नहीं, क्या इससे भी बढ़ के कोई सजा है?

आदमी – मैं समझता हूं कि यह कुछ भी सजा नहीं है! क्या तुम नहीं जानते कि प्रायः बुद्धिमान लोग जिन्हें नादान भी कह सकते हैं, जरा-सी बात पर अपनी जान अपने हाथ से बर्बाद कर देते हैं और अपनी बेइज्जती कराना नहीं चाहते तथा ऐसा करते समय उन्हें कुछ भी दुःख नहीं होता!

भूतनाथ – (कांपकर) तो क्या तुमने इससे भी कड़ी कोई सजा मेरे लिए सोच रक्खी है?

आदमी – बेशक! बदला उसी को कहते हैं जो उसके बराबर हो जिसका बदला लिया जाय।

भूतनाथ – (लम्बी सांस लेकर) वास्तव मैं तुम ठीक कहते हो। मैं भी इसी फेर में मुद्दत से पड़ा हुआ हूं, (रुककर) खैर, यह बताओ कि हमारे-तुम्हारे बीच में किसी तरह का मामला तै हो सकता है, या तुम थोड़े दिन के लिए मुझे छोड़ सकते हो जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं?

आदमी – नहीं, बल्कि तुम्हें इसी समय हमारे साथ चलना होगा।

भूतनाथ – कहां?

आदमी – जहां मैं ले चलूं।

भूतनाथ – जबर्दस्ती?

आदमी – हां, जबर्दस्ती!

भूतनाथ – ऐसा नहीं हो सकता!

आदमी – ऐसा ही होगा!

भूतनाथ – तुम अपनी ताकत पर भरोसा करते हो?

आदमी – हां, अपनी ताकत पर और तदबीर पर भी!

भूतनाथ – अच्छा, फिर देखेंगे।

आदमी – अच्छा, तो श्यामसुन्दरसिंह के सामने (गठरी दिखाकर) इसे खोलूं, तुम डरोगे तो नहीं?

भूतनाथ – कोई हर्ज नहीं, मैं श्यामसिंह को तुम्हारी भूल समझा दूंगा।

आदमी – (हंसकर) ओ हो हो, तब तो मुझे इससे बढ़कर कोई तदबीर करनी चाहिए! अच्छा देखो!

इतना कहकर उस अद्भुत आदमी ने तीन दफे ताली बजाई और साथ ही इसके बगल वाले पेड़ों के झुरमुट में से एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया जिसने काले कपड़े से सिर से पैर तक अपने को ढांक रक्खा था। भूतनाथ कांपकर कई कदम पीछे हट गया और बड़े गौर से उसकी तरफ देखने लगा और इसके बाद श्यामसुन्दरसिंह की तरफ निगाह फेरी, यह जानने के लिए कि देखें, इन बातों का असर उसके ऊपर क्या हुआ है मगर रात का समय और कुछ दूर होने के कारण श्यामसुन्दरसिंह के चेहरे का उतार-चढ़ाव भूतनाथ देख न सका।

भूतनाथ – (जी कड़ा करके) मैं कैसे जान सकता हूं कि इस खोल के अन्दर कौन छिपा हुआ है

नया आदमी – ठीक है, तब यदि कहो तो मैं इस कपड़े को उतार दूं, मगर ताज्जुब नहीं कि मेरी आवाज तुम्हारे कानों में…?

भूतनाथ – (चौंककर) बस-बस, यह आवाज ऐसी नहीं है जिसे मैं भूल जाऊं। हाय, बेबसी और मजबूरी इसे कहते हैं। (श्यामसुन्दरसिंह से) अच्छा, तुम थोड़ी देर के लिए यहां से चले जाओ, जब मैं जफील बजाऊंगा तब फिर आ जाना।

श्यामसुन्दरसिंह ने इस समय एक ऐसा नाटक देखा था जिसका उसे गुमान भी न था। उन दोनों आदमियों के आने से भूतनाथ की क्या हालत हो गई थी इसे वह खूब समझ रहा था मगर उसे इस बात का आश्चर्य था कि भूतनाथ जिसके नाम से लोगों के दिल में हौल पैदा होता है इस वक्त ऐसा मजबूर और बेबस क्यों हो रहा है यद्यपि भूतनाथ का हुक्म वह टाल नहीं सकता था और उसे वहां से टल जाना ही आवश्यक था मगर साथ ही इसके वह इस सीन को भी छोड़ नहीं सकता था। भूतनाथ की आज्ञा पाकर वह वहां से चला तो गया मगर घूम-फिरकर बिल्ली की तरह कदम रखता हुआ लौट आया और एक पेड़ की आड़ में छिपकर खड़ा हो गया, जहां से वह उन तीनों को देख सकता था और उनकी बातचीत भी बखूबी सुन सकता था।

जब भूतनाथ ने देखा कि श्यामसुन्दरसिंह चला गया है तो उसने उस आदमी से कहा जो पहले आया था, ”क्या हमारे बीच में मेल नहीं हो सकता?’

आदमी – नहीं।

भूतनाथ – फिर तुम मुझसे क्या चाहते हो?

आदमी – यही कि चुपचाप हमारे साथ चले चलो।

इस बात को सुनकर भूतनाथ ने सिर झुका लिया और कुछ सोचने लगा। यह अवस्था देखकर उस आदमी ने कहा, ”भूतनाथ, मालूम होता है कि तुम भागने की तदबीर सोच रहे हो, मगर इस बात को खूब याद रक्खो कि मेरे सामने से तुम्हारा भाग जाना बिल्कुल ही वृथा है जब तक कि यह चीज मेरे पास मौजूद है और मेरे साथी जीते हैं। मैं फिर कहता हूं कि चुपचाप मेरे साथ चले चलो और जो कुछ मैं कहूं करो!”

भूतनाथ – नहीं-नहीं, मैं भागना पसन्द नहीं करता बल्कि इसके बदले में तुम्हारे साथ लड़कर जान दे देना उचित समझता हूं।

आदमी – अगर यही इरादा है तो आओ, मैं मुस्तैद हूं!

यह कहकर उस आदमी ने अपने हाथ की गठरी उस दूसरे आदमी के हाथ में दे दी जो सिर से पैर तक काले कपड़े से ढंका हुआ था और उसे वहां से चले जाने के लिए कहा। वह व्यक्ति वहां से हटकर पेड़ों की आड़ में गायब हो गया और उस विचित्र मनुष्य ने तलवार म्यान से बाहर खींच ली। भूतनाथ ने भी तलवार खींच ली और उसके सामने पैंतरा बदलकर आ खड़ा हुआ और दोनों में लड़ाई शुरू हो गई। निःसन्देह भूतनाथ तलवार चलाने के फन में बहुत होशियार और बहादुर था मगर श्यामसुन्दरसिंह ने जो छिपकर यह तमाशा देख रहा था, मालूम कर लिया कि उसका वैरी इस काम में उससे बहुत बढ़-चढ़ के है क्योंकि घण्टे-भर की लड़ाई में ही उसने भूतनाथ को सुस्त कर दिया और अपने बदन में एक जख्म भी न लगने दिया, इसके विपरीत भूतनाथ के बदन में छोटे-छोटे कई जख्म लग चुके थे और उनमें से खून निकल रहा था। केवल इतना ही नहीं, श्यामसुन्दरसिंह ने यह भी मालूम कर लिया कि उस अद्भुत आदमी ने, जो लड़ाई के फन में भूतनाथ से बहुत ही बढ़-चढ़ के है, कई मौकों पर जान-बूझ के तरह दे दी और भूतनाथ को छोड़ दिया, नहीं तो अब तक वह भूतनाथ को कब का खत्म कर चुका होता।

मगर क्या भूतनाथ इस बात को नहीं समझता था बेशक समझता था! वह खूब जानता था कि आज मेरा दुश्मन मुझसे बहुत जबर्दस्त है और उसने कई मौकों पर जब कि वह मेरी जान ले सकता था, जान-बूझकर तरह दे दी या अगर जख्म पहुंचाया भी तो बहुत कम।

सुबह हो चुकी थी। अब वहां की चीजें बिल्कुल साफ-साफ दिखाई देने लगी थीं। भूतनाथ बहुत ही थक गया था, इसलिए वह सुस्ताने के लिए ठहर गया और बड़े गौर से अपने वैरी की सूरत देखने लगा जिसके चेहरे पर थकावट या उदासी का कोई चिह्न नहीं दीख पड़ता था बल्कि वह मन्द-मन्द मुसका रहा था और उनकी आंखें भूतनाथ के चेहरे पर इस ढंग से पड़ रही थीं जैसे उस्तादों की निगाहें अपने नौसिखुए चेलों पर पड़ा करती हैं।

भूतनाथ ठहर गया और उसने धीमी आवाज में अपने वैरी को कहा, ”अब मैं लड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता, विशेष करके इसलिए कि तुम मुझसे उस तरह नहीं लड़ते जैसे दुश्मनों को लड़ना चाहिए। मैं खूब जानता हूं कि तुमने कई मौकों पर मुझे छोड़ दिया। खैर, अब मैं अपनी भलाई के लिए सिवाय इसके और कोई उपाय नहीं देखता कि अपने हाथ से अपनी जान दे दूं।”

आदमी – नहीं-नहीं, भूतनाथ, तुम अपने हाथ से अपनी जान नहीं दे सकते। क्योंकि तुम्हारी एक बहुत ही प्यारी चीज मेरे कब्जे में है। जो तुम्हारे बाद बड़ी तकलीफ में पड़ जायगी और जिसे तुम ‘लामाघाटी’ में छोड़ आये थे। मुझे विश्वास है कि तुम उसकी बेइज्जती कबूल न करोगे!

यह एक ऐसी बात थी, जिसने भूतनाथ के दिल को एकदम से ही मसल डाला और इस तकलीफ को वह सह न सका। उसका सिर घूमने लगा, वह धीरे-से जमीन पर बैठ गया, और वह विचित्र आदमी इस ढंग से उसे देखने लगा जैसे बाघ अपने शिकार को काबू में कर लेने के बाद आशा और प्रसन्नता की दृष्टि से उसकी तरफ देखता है।

श्यामसुन्दरसिंह इस दृश्य को गौर और ताज्जुब से देख रहा था। बीच में एक दफे उसकी यह इच्छा भी हुई कि झाड़ी में से बाहर निकले और भूतनाथ के पास पहुंचकर उसकी मदद करे मगर दो बातों को सोचकर वह रुक गया। एक तो यह थी कि भूतनाथ ने उसे वहां से बिदा कर दिया था और कह दिया था कि ‘जब हम जफील बजाएं तब आना’ मगर इतनी लड़ाई होने और हार मानने पर भी भूतनाथ ने उसे नहीं बुलाया, इससे साफ मालूम होता है कि भूतनाथ श्यामसुन्दरसिंह का उस जगह आना पसन्द नहीं करता, दूसरे यह है कि उसने कमलिनी की जुबानी भूतनाथ की बहुत तारीफ सुनी थी। कमलिनी जोर देकर कहती थी कि लड़ाई के फन में भूतनाथ बहुत ही तेज और होशियार है। मगर इस जगह उस विचित्र मनुष्य के सामने उसने भूतनाथ को ऐसा पाया जैसे काबिल उस्ताद के सामने एक नौसिखुआ लड़का। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि भूतनाथ नादान है, बल्कि भूतनाथ ने जिस चालाकी और तेजी से अपने वैरी का मुकाबला किया, वह साधारण आदमी का काम नहीं था, असल तो यह है कि भूतनाथ का वैरी ही कोई विचित्र व्यक्ति था। उसकी चालाकी, फुर्ती और वीरता देखकर श्यामसुन्दरसिंह यद्यपि सिपाही था, मगर डर गया। और मन में कहने लगा कि यह मनुष्य नहीं है, इसके सामने जाकर मैं भूतनाथ की कुछ भी मदद नहीं कर सकता।

इन्हीं दो बातों को सोचकर श्यामसुन्दरसिंह जहां-का-तहां खड़ा रह गया और कुछ न कर सका।

श्यामसुन्दरसिंह छिपा हुआ इन सब बातों को सोच रहा था, भूतनाथ हताश होकर जमीन पर बैठ गया था और उसका वैरी आशा और प्रसन्नता की दृष्टि से उसे देख रहा था कि इसी बीच में एक आदमी ने श्यामसुन्दरसिंह के मोढ़े पर हाथ रखा।

श्यामसुन्दरसिंह चौंक पड़ा और उसने फिरकर देखा तो एक नकाबपोश पर निगाह पड़ी। जिसका कद नाटा तो न था मगर बहुत लम्बा भी न था। उसका चेहरा स्याह रंग के नकाब से ढंका हुआ था और उसके बदन का कपड़ा इतना चुस्त था कि बदन की मजबूती, गठन और सुडौली साफ मालूम होती थी। उसका कोई अंग ऐसा न था, जो कपड़े के अन्दर ढंका हुआ न हो। कमर में खंजर, तलवार और पीठ पर लटकती हुई एक छोटी-सी ढाल के अतिरिक्त वह हाथ में दो हाथ का डंडा भी लिए हुए था। हां, यह कहना तो हम भूल ही गये कि उसकी कमर में कमन्द और ऐयारी का बटुआ भी लटकता दिखाई दे रहा था।

श्यामसुन्दरसिंह ने बड़े गौर से उसकी तरफ देखा और कुछ बोलना ही चाहता था कि उसने चुप रहने और अपने पीछे-पीछे चले आने का इशारा किया। श्यामसुन्दरसिंह चुप तो रह गया, मगर उसके पीछे – पीछे जाने की हिम्मत न पड़ी। यह देख उस नकाबपोश ने धीरे-से कहा, ”डरो मत, हमको अपना दोस्त समझो और चुपचाप चले आओ। देखो, देर मत करो, नहीं तो पछताओगे।” इतना कहकर नकाबपोश ने श्यामसुन्दरसिंह की कलाई पकड़ ली और अपनी तरफ खींचा।

श्यामसुन्दरसिंह को ऐसा मालूम हुआ कि जैसे लोहे के हाथ ने कलाई पकड़ ली हो, जिसका छुड़ाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव था। अब श्यामसुन्दरसिंह में इन्कार करने की हिम्मत न रही और वह चुपचाप उसके पीछे-पीछे चला गया! दस-बारह कदम से ज्यादा न गया होगा कि नकाबपोश रुका और उसने श्यामसुन्दरसिंह से कहा, ”इतना देखने पर भी तुम कमलिनी के नमक की इज्जत करते हो या नहीं?’

श्यामसुन्दरसिंह – बेशक इज्जत करता हूं।

नकाबपोश – अच्छा तो तुम उस मैदान में जाओ जहां भूतनाथ बैठा अपनी बदनसीबी पर विचार कर रहा है और उस गठरी को उठा लाओ जिसे भगवनिया चुरा लाई थी। तुम जानते हो कि उसमें लाखों रुपये का कीमती माल है। कहीं ऐसा न हो कि वैरी उसे उठा ले जायं। ऐसा हुआ तो तुम्हारे मालिक का बहुत नुकसान होगा।

श्यामसुन्दरसिंह – ठीक है, मगर मैं डरता हूं कि ऐसा करने से कहीं भूतनाथ रंज न हो जाय।

नकाबपोश – तुम्हें भूतनाथ के रंज होने का खयाल न करना चाहिए, बल्कि अपने मालिक के नफा – नुकसान को विचारना चाहिए। इसके सिवाय मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि भूतनाथ कुछ भी न कहेगा। हां, उसका वैरी कुछ बोले तो ताज्जुब नहीं मगर नहीं, जहां तक मैं समझता हूं कि वह भी कुछ न बोलेगा, क्योंकि वह नहीं जानता कि उस गठरी में क्या चीज है।

श्यामसुन्दरसिंह – अगर रोके तो?

नकाबपोश – मैं छिपकर देखता रहूंगा, अगर वह तुम्हें रोकना चाहेगा तो मैं झट से पहुंच जाऊंगा, तब तक तुम गठरी उठाकर चल देना।

श्यामसुन्दरसिंह – अगर ऐसा ही है तो आप ही पहले वहां जाकर उससे लड़िये, बीच में मैं जाकर गठरी उठा लूंगा।

नकाबपोश – (हंसकर) मालूम होता है कि तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं और तुम उस आदमी से बहुत डरते हो?

श्यामसुन्दरसिंह – बेशक ऐसा ही है क्योंकि मैं देख चुका हूं कि भूतनाथ ऐसे जवांमर्द और बहादुर को उसने कैसा नीचा दिखाया और जहां तक मैं समझता हूं, आप भी उसका मुकाबला नहीं कर सकते। मालूम होता है कि आपने उसकी लड़ाई नहीं देखी। अगर देखते तो लड़ने की हिम्मत न करते।

नकाबपोश – नहीं-नहीं, मैं उसकी लड़ाई देख चुका हूं और इसी से उसके साथ लड़ने की इच्छा होती है।

श्यामसुन्दरसिंह – अगर ऐसा है तो विलम्ब न कीजिये, जाकर उससे लड़ाई शुरू कर दीजिये, फिर मैं जाकर गठरी उठा लूंगा और चल दूंगा। मगर यह तो बताइये कि आप कौन हैं और कमलिनी के लिए इतनी तकलीफ क्यों उठा रहे हैं?

नकाबपोश – इसका जवाब मैं कुछ भी न दूंगा! (कुछ सोचकर) अच्छा, तो अब यह बताओ कि गठरी उठा लेने के बाद तुम कहां चले जाओगे?

श्यामसुन्दरसिंह – इसका जवाब मैं क्या दे सकता हूं जहां मौका मिलेगा चल दूंगा।

नकाबपोश – नहीं, ऐसा न करना। जहां तुम्हें जाना चाहिए, मैं बताता हूं।

श्यामसुन्दरसिंह – (चौंककर) अच्छा बताइये!

नकाबपोश – तुम यहां से सीधे दक्खिन की तरफ चले जाना, थोड़ी दूर जाने के बाद एक पीपल का पेड़ दिखाई देगा, उसके नीचे पहुंचकर बाईं तरफ घूम जाना, एक पगडंडी मिलेगी, उसी को अपना रास्ता समझना। थोड़ी दूर जाने के बाद फिर एक पीपल का पेड़ दिखाई देगा, उसके नीचे चले जाना। वहां एक नकाबपोश बैठा हुआ दिखाई देगा और उसी के पास हाथ-पैर बंधी हुई हरामजादी भगवानी को भी देखोगे जो मौका पाकर यहां से भाग गई थी।

श्यामसुन्दर (ताज्जुब में आकर) अच्छा फिर?

नकाबपोश – फिर तुम भी उसके पास जाकर बैठ जाना, जब मैं उस जगह आऊंगा तो देखा जायगा, या जैसा वह नकाबपोश कहेगा वैसा ही करना। डरना मत, उसे अपना दोस्त समझना। तुम देखते हो कि मैं जो कुछ कहता या करता हूं, उससे तुम्हारे मालिक ही की भलाई है।

श्यामसुन्दरसिंह – मालूम तो ऐसा ही होता है।

नकाबपोश – मालूम होता है नहीं बल्कि यह कहो कि बेशक ऐसा है। अच्छा, अब तुम्हें एक बात और कहनी है।

श्यामसुन्दरसिंह – वह क्या?

नकाबपोश – यह तो तुम देख ही चुके हो कि अद्भुत आदमी ने भूतनाथ को अपने कब्जे में कर लिया है।

श्यामसुन्दरसिंह – सो तो प्रकट ही है।

नकाबपोश – अब वह भूतनाथ को अपने साथ ले जायगा।

श्यामसुन्दरसिंह – अवश्य ले जायगा, इसी के लिए तो इतना बखेड़ा मचाये है।

नकाबपोश – उस समय मैं भी उसके साथ-साथ चला जाऊंगा।

श्यामसुन्दरसिंह – अच्छा तब?

नकाबपोश – तब रात को तुम अपने साथी नकाबपोश और भगवानी को लेकर उस समय इसी जगह आ जाना जिस समय कमलिनी ने तुमसे मिलने की प्रतिज्ञा की है और सब हाल ठीक-ठीक उससे कह देना और यह भी कह देना कि कल शाम को अपने तिलिस्मी मकान के पास मेरी बाट जोहे।

श्यामसुन्दरसिंह – अच्छा ऐसा ही करूंगा, मगर आप भी तो विचित्र आदमी मालूम पड़ते हैं।

नकाबपोश – जो हो, लो, अब मेरे साथ-साथ चले आओ, मैं उसके मुकाबले में जाता हूं।

नकाबपोश और श्यामसुन्दरसिंह की बातचीत बहुत जल्द ही हुई थी। इसमें आधी घड़ी से ज्यादा समय न लगा होगा बल्कि इससे भी कम लगा होगा। आखिरी बात कहकर नकाबपोश उस तरफ रवाना हुआ जहां भूतनाथ बैठा हुआ सोच रहा था कि अब क्या करना चाहिए! श्यामसुन्दरसिंह भी उसके पीछे-पीछे गया, मगर जाकर पेड़ों की आड़ में छिपकर खड़ा हो गया जहां से वह सब-कुछ देख और सुन सकता था।

भूतनाथ अभी तक उसी तरह अपने विचार में निमग्न था और वह अद्भुत व्यक्ति उसकी तरफ बड़े गौर से देख रहा था। इसी बीच नकाबपोश भी उस जगह जा पहुंचा और उस चट्टान पर बैठ गया जिस पर गठरी रखी हुई थी।

पहले तो भूतनाथ ने समझा कि यह भी उसी विचित्र मनुष्य का साथी होगा जिसने मुझे हर तरह से दबा रखा है। मगर जब उस आदमी को भी नकाबपोश के यकायक आ जाने से अपनी तरह आश्चर्य के भंवर में डूबे हुए देखा, तो उसे बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह बड़े गौर से उसी तरफ देखने लगा। इसके पहले कि भूतनाथ कुछ कहे उसका दुश्मन नकाबपोश की तरफ बढ़ गया और जरा कड़ी आवाज में उससे बोला, ”तुम यहां क्यों आये हो और क्या चाहते हो?’

नकाबपोश – तुम्हें मेरे आने और चाहने से कोई मतलब नहीं, तुम लोग अपना काम करो।

यह जवाब कुछ ऐसी लापरवाही के साथ दिया गया था कि भूतनाथ और उसका वैरी दोनों ही दंग रह गये। आखिर उस आदमी ने भूतनाथ से कहा, ”खैर, हमें इनसे कोई मतलब नहीं, तुम उठो और मेरे साथ चलो।”

नकाबपोश – (दिल्लगी के ढंग पर) न जाय तो गोद में उठाकर ले आओ!

आदमी – क्यों जी, तुम हमारे बीच में बोलने वाले कौन!

नकाबपोश – कोई नहीं, हम तो केवल राय देते हैं कि जिसमें तुम दोनों का बखेड़ा जल्दी निपट जाय और किसी तरह इस जगह का पिण्ड छूटे।

आदमी – (चिढ़कर) मालूम होता है कि तुम हमसे मसखरापन कर रहे हो!

नकाबपोश – अगर ऐसा भी समझ लो तो हमारा कोई हर्ज नहीं, मगर यह तो बताओ कि तुम दूसरे की अमलदारी में क्यों हुल्लड़ मचाये हुए हो यहां से जाते क्यों नहीं?

आदमी – ओहो, मालूम होता है, आप ही यहां के राजा हैं।

नकाबपोश – नहीं, मगर इस जमीन के ठेकेदार हैं, और इतनी हिम्मत रखते हैं कि अगर तुम लोग बारह पल के अन्दर यहां से न चले जाओ तो कान पकड़कर इस जंगल से बाहर कर दें या लिबड़ी बरताना उतारकर दो लात जमावें और दक्खिन का रास्ता दिखाएं!

नकाबपोश की इन बातों को बर्दाश्त करके चुप रहने की ताकत उस विचित्र मनुष्य में न थी, झट तलवार खींचकर सामने आ खड़ा हुआ और बोला, ”बस खबरदार, जो अब एक शब्द भी मुंह से निकाला। चुपचाप उठकर चला जा, नहीं तो अभी दो टुकड़े कर दूंगा!”

नकाबपोश भी फुर्ती के साथ सामने खड़ा हो गया और बोला, ”मालूम होता है तुझे मेरी बातों का अभी तक विश्वास नहीं हुआ, इसी से ढिठाई करने के लिए सामने आ खड़ा हुआ है। मैं फिर कहता हूं यहां से चला जा और विश्वास रख कि यद्यपि मैं तेरे ऐसे नौसिखुए लौंडों के सामने तलवार खींचना उचित नहीं समझता, तथापि केवल लात और हाथ से तुझे दुरुस्त करके रख दूंगा।”

इतना सुनते ही उस आदमी ने तलवार का एक भरपूर हाथ नकाबपोश पर जमाया, जो अपने हाथ में केवल एक डण्डा लिए हुए उसके सामने खड़ा था, मगर इसका नतीजा वैसा न निकला जैसा कि वह समझे हुआ था, क्योंकि नकाबपोश ने फुर्ती से पैंतरा बदलकर अपने को बचा लिया और पीछे की तरफ जाकर उस आदमी की कमर पर एक लात ऐसी जमाई कि वह मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ा।

भूतनाथ जो दुःख और शोक से कातर हो जाने पर भी आश्चर्य के साथ इस तमाशे को देख रहा था, नकाबपोश की यह फुर्ती और चालाकी देखकर हैरान हो गया और एकदम से बोल उठा, ”वाह बहादुर, क्या बात है! वास्तव में तुम्हारे सामने यह नौसिखुआ लौंडा ही है!”

इस कैफियत और भूतनाथ के आवाज कसने से वह आदमी चुटीले सांप की तरह पेंच खाकर पुनः लड़ने के लिए तैयार हो गया, क्योंकि उसने इस तरह शर्मिन्दगी उठाने की बनिस्बत जान दे देना उत्तम समझ लिया था।

पुनः लड़ाई होने लगी और अबकी दफे उस आदमी ने बड़ी फुर्ती, मुस्तैदी और बहादुरी दिखाई मगर नकाबपोश ने अब भी अपनी कमर से तलवार निकालने का कष्ट स्वीकार न किया और लकड़ी के डण्डे से ही उसका मुकाबला किया। हां, उसने इतना अवश्य किया कि बायें हाथ में अपनी ढाल ले ली जिसके सहारे अपने वैरी की चोटों को बचाता जाता था। इसी बीच में श्यामसुन्दरसिंह वहां आ पहुंचा और गठरी उठाकर चलता बना।

थोड़ी ही देर में मौका पाकर नकाबपोश ने वैरी की उस कलाई पर, जिसमें तलवार का बेशकीमत कब्जा था, एक डण्डा ऐसा जमाया कि वह बेकाम हो गई और तलवार उसके हाथ से छूटकर जमीन पर गिर पड़ी। उसी समय भूतनाथ पुनः चिल्ला उठा, ”वाह उस्ताद, क्या कहना है! तुम-सा बहादुर मैंने आज तक न देखा और न देखने की आशा ही है!”

अब उस आदमी को हर तरह से नाउम्मीदी हो गई और उसने समझ लिया कि इस बहादुर नकाबपोश का मुकाबला मैं किसी तरह नहीं कर सकता और न यह नकाबपोश मुझे जान से मारने की ही इच्छा रखता है। वह आश्चर्य, लज्जा और निराशा की निगाह से नकाबपोश की तरफ देखने लगा।

नकाबपोश – मैं पुनः कहता हूं कि मुझसे मुकाबला करने का इरादा छोड़ दो और जो कुछ भी हुक्म दे चुका हूं, उसे मानो अर्थात् यहां से चले जाओ। हां, तुम्हारे और भूतनाथ के मामले में मैं किसी तरह की रुकावट न डालूंगा, तुम दोनों में जो कुछ पटे, पटा लो।

आदमी – अच्छा ऐसा ही होगा।

यह कहकर वह भूतनाथ के पास गया और बोला, ”अब बोलो, मेरे साथ चलोगे या नहीं! जो कुछ कहना हो, साफ-साफ कह दो!”

भूतनाथ – मैं तुम्हारे साथ चलने पर राजी नहीं हूं।

आदमी – अच्छा, तो फिर मुझे भी जो कुछ कहना है, इस बहादुर नकाबपोश के सामने ही कह डालता हूं, क्योंकि ऐसा बहादुर गवाह मुझे फिर न मिलेगा।

यह कहकर उसने बड़े जोर से ताली बजाई। भूतनाथ समझ गया कि इसने फिर उस आदमी को बुलाया है जो सिर से पैर तक अपने को ढांके हुए था और जिसके हाथ में वह पुलिन्दा भी इसने दे दिया है जिसमें इसके कथनानुसार तारा की किस्मत बन्द है।

जो कुछ भूतनाथ ने सोचा, वास्तव में वही बात थी। मगर थोड़ी देर तक राह देखने पर भी वह आदमी न आया जिसे उस विचित्र मनुष्य ने ताली बजाकर बुलाया था। इसलिए उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा और वह स्वयं उसकी खोज में चला गया। थोड़ी देर तक चारों तरफ खोजता रहा, इसके बाद उसने एक झाड़ी के अन्दर उस आदमी को विचित्र अवस्था में देखा, अर्थात् अब वह कपड़ा उसके ऊपर न था। जिसने सिर से पैर तक उसे छिपा रखा था और इसलिए वह साफ औरत मालूम पड़ती थी। वह जमीन पर पड़ी हुई थी, रस्सी से हाथ-पैर बंधे हुए थे। एक कपड़ा उसके मुंह पर इस तरह बंधा हुआ था कि हजार उद्योग करने पर भी वह कुछ बोल नहीं सकती थी, और वह गठरी भी उसके पास इधर-उधर कहीं नहीं दिखाई देती थी जिसमें तारा की किस्मत बन्द थी और जो उस आदमी ने लड़ाई करते समय उसके हाथ में दे दी थी।

विचित्र मनुष्य ने झटपट उसके हाथ-पैर खोले, मुंह पर से कपड़ा दूर किया और उसकी इस बेइज्जती का कारण पूछा। कुछ शान्त होने पर उसने कहा, ”जिस समय तुम भूतनाथ से लड़ रहे थे, उसी समय एक नकाबपोश यहां आया था और उसने एक कपड़ा इस फुर्ती के साथ मेरे मुंह पर डाल दिया और मुझे बेकाबू कर दिया कि मैं कुछ न कर सकी, न तो तुम्हें बुला सकी और न चिल्ला ही सकी। इसके बाद उसने मेरे मुंह पर मजबूती से कपड़ा बांधा और फिर रस्सी से हाथ-पैर बांधने के बाद वह गठरी लेकर चला गया, जो तुमने मुझे दी थी और जो इस घबराहट में मेरे हाथ से छूटकर जमीन पर जा रही थी।”

आदमी – आह, तो मुझे अब मालूम हुआ कि वह शैतान नकाबपोश मेरा बहुत कुछ नुकसान करने के बाद मैदान में गया और मुझसे लड़ा था। हाय, उसने तो मुझे चौपट ही कर दिया, भूतनाथ पर काबू पाने का जो कुछ जरिया मेरे पास था, उसमें से बारह आना जाता रहा।

औरत – शायद ऐसा ही हो, क्योंकि मैं नहीं जानती कि किस नकाबपोश से तुम्हारी लड़ाई हुई और नतीजा क्या निकला?

आदमी – जो नकाबपोश मुझसे लड़ा था, वह अभी तक अखाड़े में बैठा हुआ है। जहां तक मुझे विश्वास होता है, मैं कह सकता हूं कि उसी ने तुम्हें तकलीफ दी है। मगर अफसोस, लड़ाई का नतीजा अच्छा न निकला, क्योंकि वह मुझसे बहुत जबर्दस्त है।

औरत – (आश्चर्य से) क्या लड़ाई में उसने तुम्हें दबा लिया?

आदमी – बेशक ऐसा ही हुआ, और इस समय मैं उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता।

औरत – तो क्या वह भूतनाथ का पक्षपाती है?

आदमी – कहता तो वह यही है कि मैं तुम्हारे और भूतनाथ के बीच में कुछ भी न बोलूंगा, तुम अगर चाहो तो भूतनाथ को ले जाओ या जैसा चाहो उसके साथ बर्ताव करो।

औरत – मगर, मेरे प्यारे मजनूं! तुम किसी बात की चिन्ता न करो, क्योंकि मैं उसे पहचान गई हूं। इसलिए आज नहीं तो फिर कभी जब तुम्हें मौका मिलेगा, तुम इस बेइज्जती का बदला ले सकोगे।

आदमी – (खुश होकर) तुमने उसे पहचान लिया किस तरह पहचाना?

औरत – जब वह मेरे हाथ-पैर बांध रहा था, उसी समय इत्तिफाक से उसके चेहरे पर से नकाब हट गया और मैंने उसे अच्छी तरह पहचान लिया।

आदमी – यह बहुत अच्छा हुआ, हां तो वह कौन है?

इसके जवाब में औरत ने धीरे-से उसके कान में कुछ कहा, जिसे सुनते ही वह चौंक पड़ा और सिर नीचा करके कुछ सोचने लगा। कई पल के बाद वह बोला, ”आह, मुझे गुमान न था कि उस नकाबपोश के अन्दर एक ऐसे की सूरत छिपी हुई है जो अपना सानी नहीं रखता, मगर बहुत बुरा हुआ। वह चीज मेरे हाथ में होती, तो भूतनाथ को इतना डर न था, जितना अब है। खैर, क्या हर्ज है, जब पता लग गया तो जाता कहां है आज नहीं कल, कल नहीं परसों। एक-न-एक दिन बदला ले लूंगा। मगर सुनो तो सही, मुझे एक नई बात सूझी है।”

विचित्र मनुष्य ने उस औरत से धीरे-धीरे कुछ कहा, जिसे वह बड़े गौर से सुनती रही और जब बात पूरी हो गई, तो बोली, ”ठीक है, ठीक है। मैं अभी जाती हूं, निश्चय रखो कि मेरी सवारी का घोड़ा घंटे भर के अन्दर अपनी पीठ खाली कर देगा और बहुत जल्द…।”

आदमी – बस-बस, मैं समझ गया। तुम जाओ और मैं भी अब उसके पास जाता हूं।

उस औरत को बिदा करके वह विचित्र मनुष्य फिर उसी जगह आया, जहां भूतनाथ अभी तक सिर झुकाये हुए बैठा था मगर उस नकाबपोश का कहीं पता न था।

आदमी – (भूतनाथ से) वह नकाबपोश कहां गया?

भूतनाथ – (इधर-उधर देखकर) मालूम नहीं, कहां चला गया।

आदमी – क्या तुम उसे जानते हो?

भूतनाथ – नहीं।

आदमी – मगर वह तुम्हारा पक्ष क्यों करता है?

भूतनाथ – मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं देखी, जिसमें मालूम हो कि वह मेरा पक्ष करता था।

आदमी – तुमने कोई ऐसी बात नहीं देखी, तो मैं कह देना उचित समझता हूं कि वह नकाबपोश वह गठरी बेगम के हाथ से जबर्दस्ती ले गया, जिसमें तारा की किस्मत बन्द थी।

भूतनाथ – चलो, अच्छा हुआ, एक बला से तो छुटकारा मिला!

आदमी – छुटकारा नहीं मिला बल्कि तुम और भी बड़ी आफत में फंस गये यदि वास्तव में तुम उसे नहीं जानते!

भूतनाथ – हां, ऐसा भी हो सकता है, खैर, जो कुछ किस्मत में बदा है, होगा, मगर तुम यह बताओ कि अब मुझसे क्या चाहते हो किसी तरह मेरा पिंड छोड़ोगे या नहीं?

आदमी – क्या हुआ, अगर वह गठरी चली गई, मगर फिर भी तुम खूब समझते होगे कि अभी तक तुम पूरी तरह से मेरे कब्जे में हो और तुम्हारी वह प्यारी चीज भी मेरे कब्जे में है जिसका इशारा मैं पहले कर चुका हूं। अतः मैं हुक्म देता हूं कि तुम उठो और मेरे साथ चलो!

भूतनाथ – खैर चलो, मैं चलता हूं।

इतना कहकर भूतनाथ ने आसमान की तरफ देखा और एक लम्बी सांस ली। इस समय दिन अनुमान से पहर-भर चढ़ चुका था और धूप में हरारत क्रमशः बढ़ती जाती थी। भूतनाथ को साथ लिए हुए वह विचित्र मनुष्य पूरब की तरफ रवाना हो गया।

बयान – 9

दिन बहुत ज्यादा चढ़ चुका था, जब कमलिनी अपना काम करके सुरंग की राह से लौटी और किशोरी, कामिनी तथा तारा को भैरोसिंह के साथ बातचीत करते पाया। कमलिनी, लाडिली और देवीसिंह बहुत प्रसन्न हुए और क्यों न होते, जिस आदमी की मेहनत ठिकाने लगती है उसकी खुशी का अन्दाजा करना उसी आदमी का काम है जो कठिन मेहनत करके किसी अमूल्य वस्तु का लाभ कर चुका हो। किशोरी, कामिनी और तारा को इस तरह पाना कम खुशी की बात न थी जिनके मिलने के विषय में आशा की भी आशा टूटी हुई थी।

किशोरी, कामिनी और तारा जमीन पर पड़ी बातें कर रही थीं क्योंकि उनमें उठने की सामर्थ्य बिल्कुल न थी, उन्होंने अपने बचाने वालों की तरफ – खासकर कमलिनी की तरफ – अहसान, शुक्रगुजारी और मुहब्बत-भरी निगाहों से देर तक देखा, जिसे कमलिनी तथा उसके साथी अच्छी तरह समझकर प्रसन्न होते रहे। कमलिनी को इस बात की खुशी हद से ज्यादा थी कि किशोरी, कामिनी तथा तारा की जान बच गई।

कमलिनी, लाडिली, देवीसिंह, और भैरोसिंह इस बात पर विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिए। किशोरी, कामिनी और तारा में इतनी सामर्थ्य न थी कि दो कदम भी चल सकें या घोड़े पर सवार हो सकें और दो-तीन दिन के अन्दर इतनी ताकत हो भी नहीं सकती थी।

कमलिनी – अफसोस तो यह है कि दुश्मनों ने मेरे तिलिस्मी मकान की अवस्था बिल्कुल खराब कर दी और वह मकान अब इस योग्य न रहा कि उसमें चलकर डेरा डालें, बिछावन और बर्तन तक उठा के ले गये।

देवीसिंह – तालाब की अवस्था भी तो बिल्कुल खराब है। मिट्टी भर जाने के कारण वह स्थान अब निर्भय होकर रहने योग्य नहीं रहा और उसकी सफाई भी सहज में नहीं हो सकती।

कमलिनी – नहीं, इस बात की तो मुझे कुछ भी चिन्ता नहीं है क्योंकि दो दिन के अन्दर मैं उस तालाब को बिना परिश्रम साफ कर सकती हूं और ऐसा करने के लिए किसी मजदूर की भी आवश्यकता नहीं है।

भैरोसिंह – सो कैसे?

कमलिनी – उस मकान में एक विचित्र कुआं है। यदि उसका मुंह खोल दिया जाये, तो चश्मे की तरफ दो हाथ मोटी पानी की धारा उसमें से निकला करे और महीनों बन्द न हो, इसके अतिरिक्त तालाब में जल की निकासी के लिए भी एक लम्बी-चौड़ी मोरी बनी हुई है। कारीगरों ने ये दोनों चीजें तालाब की सफाई के लिए बनाई हैं। बस इसी से तुम समझ सकते हो कि तालाब की सफाई कोई मुश्किल नहीं है। जब कुएं से बेअन्दाज जल निकलकर तालाब को साफ करता हुआ दूसरी तरफ से निकल जाने लगेगा तो उतनी मिट्टी का बह जाना कुछ कठिन नहीं है जितनी दुश्मनों ने तालाब में भर दी है।

देवीसिंह – बेशक अगर ऐसा है तो तालाब की सफाई कुछ मुश्किल नहीं है।

तारा – (बारीक और कमजोर आवाज से) अफसोस, यह बात मुझे मालूम नहीं थी, नहीं तो तालाब का जल क्यों सूखता और मिट्टी भरने की नौबत क्यों आती!

कमलिनी – ठीक है, और इसी सबब से मैं मकान की बरबादी का इलजाम तुझ पर नहीं लगाती बल्कि अपने ऊपर लगाती हूं इसलिए कि यह भेद मैंने तुझे क्यों न बता रखा था। असल तो यह है कि दुश्मनों के इस उद्योग का मुझे गुमान भी न था, खैर, जो होना था हो गया।

देवीसिंह – अच्छा, तो जिस तरकीब से आपने कहा है तालाब को साफ करके इन लोगों को उसी मकान में ले चलना चाहिए। बाकी रहा मकान के अन्दर का सामान, सो इसके लिए कोई चिन्ता नहीं, देखा जायेगा।

कमलिनी – हां, मैं भी यही उचित समझती हूं, दो रोज में मकान और तालाब की दुरुस्ती हो जायेगी, तब तक इन लोगों को इसी जगह रखना चाहिए, यह जगह भी बड़ी हिफाजत की है, जिसको रास्ता मालूम न हो यहां कदापि नहीं आ सकता। देखिये चारों तरफ कैसे ऊंचे-ऊंचे पहाड़ हैं। कभी-कभी इन पहाड़ों के ऊपर से जाते हुए मुसाफिर दिखाई देते हैं मगर वे लोग यदि यहां आना चाहें तो नहीं आ सकते। जब तक मकान और तालाब की सफाई न हो जाये, तब तक वहां केवल आपका रहना काफी है। सफाई के सम्बन्ध में या और भी जिन-जिन बातों की आवश्यकता है, मैं आपको समझा दूंगी और फिर इसी जगह आकर इनके पास रहूंगी और इनका इलाज करूंगी।

देवीसिंह – आपका खयाल बहुत ठीक है, जो कुछ आप कहें, मैं करने के लिए तैयार हूं।

कमलिनी – पहले किशोरी, कामिनी और तारा के खाने-पीने का बंदोबस्त करना चाहिए। (भैरोसिंह से) इस रमणीक स्थान में तीतरों और बटेरों की कमी नहीं है।

भैरोसिंह – और हमारे पास खाना बनाने का सफरी सामान भी है, मैं भी यही समझता हूं कि इनके लिए तीतर का शोरबा बहुत लाभदायक होगा।

किशोरी – (कमजोर आवाज से) नहीं, मैं शोरबा या मांस न खाऊंगी, औरतों के लिए यह…।

देवीसिंह (हुकूमत के ढंग पर, मगर वह हुकूमत का ढंग ठीक वैसा ही था जैसा बड़े लोग छोटों पर कर सकते हैं) नहीं, बीमारी की अवस्था में इसका खयाल नहीं हो सकता है, तुम इसे दवा समझ के चुप रहो।

बेचारी किशोरी ने इस बात का कुछ भी जवाब नहीं दिया और चुप हो रही। भैरोसिंह उसी समय उठ खड़ा हुआ और तीतर पकड़ने के लिए चला गया। उस धूर्त और चालाक ऐयार को इस काम के लिए तीर या गुलेल इत्यादि किसी विशेष सामान की आवश्यकता न थी, वह केवल अपनी फुर्ती और चालाकी से बात-की-बात में सब्ज घास पर चरते हुए और खटका पाने के साथ ही झाड़ियों में घुसकर छिप जाने वाले कई तीतरों को पकड़ लाया और शोरबा पकाने का बन्दोबस्त करने लगा। इधर कमलिनी और देवीसिंह में बातचीत होने लगी।

देवीसिंह – उन दोनों घोड़ों की भी सुध लेनी चाहिए जिन्हें यहां से थोड़ी ही दूर पर एक पेड़ से बांधकर छोड़ आये हैं।

कमलिनी – हां, उन घोड़ों को भी जिस तरह बने, धीरे-धीरे यहां तक ले आना चाहिए, नहीं तो बेचारे जानवर भूख और प्यास के मारे मर जायेंगे। एक तो यहां का रास्ता ऐसा खराब है कि घोड़ों पर सवार होकर मैं आ नहीं सकती थी; दूसरे रात का समय था इसलिए लाचार होकर उनको उसी जगह छोड़ देना पड़ा, पर अब हम लोगों को वहां तक जाने की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती।

देवीसिंह – ठीक है, अगर कहिए, तो मैं उन दोनों घोड़ों को यहां ले आऊं, अब तो दिन का समय है और जब तक भैरोसिंह खाने की तैयारी करता है तब तक बेकार बैठे रहने से कुछ काम ही करना अच्छा है।

कमलिनी – अगर ले आइए, तो अच्छी बात है, मगर हां, सुनिए तो सही, भूतनाथ और श्यामसुन्दरसिंह को कहा गया था कि आज रात के समय हम लोगों से मिलने के लिए उसी ठिकाने तैयार रहें जहां भगवानी उनके हवाले की गई थी।

देवीसिंह – जी हां, कहा गया था, मगर मैं समझता हूं कि अब हम लोगों का वहां जाना वृथा ही है, अगर आप कहिए तो मैं उन लोगों के पास जाऊं और यदि इस समय मुलाकात हो जाय, तो इस बात की इत्तिला भी देता जाऊं या उन लोगों को इसी जगह लेता आऊं?

कमलिनी – एक तो रात होने के पहले उन लोगों से मुलाकात ही नहीं हो सकती, कौन ठिकाना वहां हों या दूसरी जगह चले गये हों, दूसरी बात यह है कि मैं उन लोगों को यह जगह दिखाना नहीं चाहती और न यहां का भेद बताना चाहती हूं, क्योंकि आजकल की अवस्था देखकर श्यामसुन्दरसिंह पर से भी विश्वास उठा जाता है, बाकी रहा भूतनाथ। वह यद्यपि मेरे आधीन है और इस बात का उद्योग भी करता है कि हम लोगों को प्रसन्न रखे, मगर वह कई ऐसी भयानक घटनाओं का शिकार हो रहा है कि बहुत लायक और खैरख्वाह होने पर भी मैं उसे किसी भी योग्य नहीं समझती और न इसी बात का विश्वास है कि उसका दिल वैसा ही रहेगा जैसा आज है; बल्कि मैं कह सकती हूं कि वह अपने दिल का मालिक नहीं है।

देवीसिंह – यह तो आप एक ऐसी बात कहती हैं जिसे पहेली की तरह उल्टी भूमिका कहने की इच्छा होती है।

कमलिनी – बेशक ऐसा ही है। इस जगह ‘तिनके की ओट पहाड़’ वाली कहावत ठीक बैठती है। न मालूम वह कौन-सा भेद है जिसको जानने के लिए पहाड़ ऐसे पचासों दिन नष्ट करने की आवश्यकता होगी।

देवीसिंह – तो क्या आप भूतनाथ को अच्छी तरह नहीं जानतीं?

कमलिनी – मैं भूतनाथ के सात पुश्त को जानती हूं जिसका परिचय आज लोगों को आपसे-आप मिल जायगा। निःसन्देह भूतनाथ दिल से हम लोगों का खैरख्वाह है परन्तु उसका दिल निरोगी नहीं है और उसके भीतर का लंगर जो फौलाद की तरह ठोस है किसी चुम्बक की समीपता के कारण सीधी चाल नहीं चलता। मैं इस फिक्र में हूं कि उसे हर तरह से स्वतन्त्र कर दूं मगर उसके दिल पर किसी जबरदस्त घटना के हादसे की लगी हुई मोहर उसके द्वारा कोई भेद प्रकट होने नहीं देती, निःसन्देह उस पर किसी अनुचित कार्य का काला धब्बा ऐसा मजबूत लगा है कि वह केवल आंसुओं के जल से धुलकर साफ नहीं हो सकता। हाय, एक दफे की चूक जन्म-भर के लिए बवाल हो जाती है। आप स्वयं चालाक हैं, यदि मेरी तरह खोज में लगे रहेंगे तो कुछ पता पा जायेंगे। वह बेशक हम लोगों का खैरख्वाह है, नमकहराम नहीं, मगर जिसका दिल इश्क का लवलेश न होने पर भी अपने अख्तियार में न हो उसका क्या विश्वास?

कमलिनी की इन भेद-भरी बातों ने केवल देवीसिंह ही को नहीं बल्कि किशारी, कामिनी और तारा को भी हैरानी में डाल दिया जो असाध्य रोगियों की तरह जमीन पर पड़ी हुई थीं और उनसे थोड़ी ही दूर पर बेठे हुए भैरोसिंह ने भी कमलिनी की बातों को अच्छी तरह सुना और समझा, मगर जिस तरह देवीसिंह के दिल पर उन बातों ने असर किया उस तरह भैरोसिंह के दिल पर उन बातों ने, मालूम होता है कोई असर नहीं किया क्योंकि भैरोसिंह के चेहरे पर उन बातों को सुनने से आश्चर्य या उत्कण्ठा की कोई निशानी नहीं पाई जाती थी।

कुछ देर तक सोचने के बाद देवीसिंह यह कहकर उठ खड़े हुए, ”अच्छा, मैं पहले घोड़ों की फिक्र में जाता हूं, फिर जैसा होगा देखा जाएगा।”

आधा घण्टा सफर करने के बाद देवीसिंह उस जगह पहुंचे जहां एक पेड़ के साथ दोनों घोड़े बंधे हुए थे। वहां से थोड़ी दूरी पर एक चश्मा बह रहा था। देवीसिंह दोनों घोड़ों को वहां ले गये और पानी पिलाने के बाद लम्बी बागडोर के सहारे पेड़ों के साथ बांध दिया जहां उनके चरने के लिए लम्बी घास बहुतायत के साथ जमी हुई थी।

देवीसिंह ने सोचा कि यद्यपि कुसमय है मगर फिर भी वहां अवश्य चलना चाहिए जहां भगवानी को छोड़ आये थे, शायद भूतनाथ या श्यामसुन्दरसिंह से मुलाकात हो जाय, अगर किसी से मुलाकात हो गई तो कह देंगे कि आज प्रतिज्ञानुसर इस जगह कमलिनी से मुलाकात न होगी। अगर यह काम हो गया तो रात के समय पुनः बीमारों को छोड़ के इस तरफ आने की आवश्यकता न पड़ेगी।

इन बातों को सोचकर देवीसिंह वहां से आगे की तरफ बढ़े, मगर सौ कदम से ज्यादा दूर न गये होंगे कि सामने की तरफ से किसी के आने की आहट मालूम पड़ी।

देवीसिंह ठहर गये और बड़े गौर से उधर देखने लगे जिधर से किसी के आने की आहट मिल रही थी। थोड़ी ही देर में दो आदमी निगाह के सामने आ पहुंचे जिनमें से एक को देवीसिंह पहचानते थे और दूसरे को नहीं। पाठक समझ गये होंगे कि उन दोनों में से एक तो भूतनाथ था और दूसरा वही विचित्र आदमी जिसने भूतनाथ पर अपना अधिकार कर लिया था और जो इसे उस समय अपने साथ न मालूम कहां लिये जाता था।

देवीसिंह ने भूतनाथ के उदास और मुरझाये चेहरे को बड़े गौर से देखा और फिर आगे बढ़कर उससे पूछा –

देवीसिंह – क्यों साहब, आप कहां जा रहे हैं और वह आपका साथी कौन है?

भूतनाथ – (अपने साथी की तरफ इशारा करके) इन्हें आप नहीं जानते। इनके साथ मैं एक जरूरी काम के लिए जा रहा हूं, आप कमलिनीजी से कह दीजियेगा कि आज रात को प्रतिज्ञानुसार मैं उनसे मिल नहीं सकता।

देवीसिंह – सो क्यों?

भूतनाथ – इसलिए कि इनके साथ जाता हूं, क्या जाने कब छुट्टी मिले!

देवीसिंह – इनके साथ कहां जाते हो?

भूतनाथ – (घबड़ाहट और लाचारी के ढंग से) सो तो मुझे मालूम नहीं!

इतना कहके उसने एक लम्बी सांस ली। अब देवीसिंह के दिमाग में वे बातें घूमने लगीं जो भूतनाथ के विषय में कमलिनी ने कही थीं। देवीसिंह ने भूतनाथ की कलाई पकड़ ली और एक तरफ ले जाकर पूछा, ”दोस्त, क्या तुम इतना भी नहीं बता सकते कि कहां जा रहे हो ऐयार लोगों का आपस में क्या ऐसा ही बर्ताव होता है! क्या तुम और हम दोनों एक ही पक्ष के नहीं हैं और क्या तुम अपने दिल की बातें मुझसे भी नहीं कह सकते बोलो-बोलो, मेरी बातों का कुछ जवाब दो! वाह-वाह, यह क्या! तुम रो क्यों रहे हो’

भूतनाथ – (आंखों से आंसू पोंछकर) हाय, मैं कुछ भी नहीं कह सकता कि मेरे दिल की क्या अवस्था है। (मुहब्बत से देवीसिंह का हाथ पकड़ के) मैं तुमको अपना बड़ा भाई समझता हूं, और तुम इस बात का अपने दिल में ध्यान भी न लाना कि भूतनाथ तुम्हारे साथ चालबाजी की बातें करेगा, मगर हाय, मैं मजबूर हूं, कुछ नहीं कह सकता! (विचित्र मनुष्य की तरफ इशारा करके) मैं और मेरा सर्वस्व इस हरामजादे की मुट्ठी में है और छुटकारे की कोई आशा नहीं! अफसोस! अच्छा दोस्त, अब मुझे बिदा दो, अगर जीता रहा तो फिर मिलूंगा!

देवीसिंह – भूतनाथ, तुम कैसी बे-सिर-पैर की बातें कर रहे हो, कुछ समझ में नहीं आता! आश्चर्य है कि तुम्हारे ऐसा बहादुर आदमी और इस तरह की बातें करे। साफ-साफ कहो तो कुछ मालूम हो, कदाचित् मैं तुम्हारी मदद कर सकूं।

भूतनाथ – नहीं, तुम कुछ भी मदद नहीं कर सकते। मेरा नसीबा बिगड़ा हुआ है और इसे वही ठीक कर सकता है जिसने इसे बनाया है।

देवीसिंह – मैं इस बात को नहीं मानता। निःसन्देह ईश्वर सबके ऊपर है, परन्तु साथ ही इसके यह भी समझना चाहिए कि वह किसी को बनाने और बिगाड़ने के लिए अपने हाथ-पैर से काम नहीं लेता। यदि ऐसा करे या हो तो उसमें और मनुष्य में कहने के लिए भी कोई भेद बाकी न रह जाय, अतएव कह सकते हैं कि केवल उसकी इच्छा ही इतनी प्रबल है कि वह किसी तरह टल नहीं सकती और वह इस पृथ्वी का काम इसी पर रहने वालों से कराता रहता है। इसका तत्व यह है कि वह जिस मनुष्य द्वारा अपनी इच्छा पूरी किया चाहता है उसके अन्दर उस बुद्धि और साहस का संचार करता है जिसका मुकाबला करने वाला पृथ्वी में सिवाय बुद्धि और साहस के और कोई नहीं। इसके साथ-ही-साथ जिससे वह रुष्ट होता है उससे बुद्धि और साहस छीन लेता है। बस, इन्हीं के द्वारा वह अपनी इच्छा पूरी करके नित्य नवीन नाटक देखा करता है और यही उसकी कारीगरी है। मैं इस समय जब अपनी तरफ ध्यान देता हूं तो ईश्वर की कृपा से अपने में साहस की कमी नहीं देखता और दिल को तुम्हारी मदद के लिए व्याकुल पाता हूं और इससे भी निश्चय होता है कि मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूं और यही ईश्वर की इच्छा है। तुम एकदम हताश मत हो जाओ और जान-बूझ के अपनी जान के दुश्मन मत बनो, असल-असल हाल कहो, फिर देखो कि मैं क्या करता हूं।

भूतनाथ – तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, परन्तु मुझे निश्चय है कि जब मैं अपना असल भेद तुमसे कह दूंगा तो तुम स्वयं मुझसे घृणा करोगे और चाहोगे कि यह दुष्ट किसी तरह मेरे सामने से दूर हो जाय! प्यारे दोस्त, जब से मैंने अपनी प्रकृति बदलने का उद्योग किया है और ईश्वर के सामने कसम खाई है कि अपने माथे से बदनामी का टीका दूर करके नेक, ईमानदार, सच्चा और सुयोग्य बनूंगा तब से मेरे हृदय की विचित्र अवस्था हो गई है। जब मुझे यह मालूम होता है कि मेरी पिछली बातें अब प्रकट हुआ चाहती हैं तब मुझे मौत से बढ़ के कष्ट होता है, और जब मैं यह चाहता हूं कि अपनी जान देकर भी किसी तरह इन बातों से छुटकारा पाऊं तो उसी समय मुझे मालूम होता है कि मेरे अन्दर दिल के पास ही बैठा हुआ कोई कह रहा है कि खबरदार ऐसा न करना। तू कसम खा चुका है कि अपने सिर से बदनामी का टीका दूर करेगा। यदि ऐसा किये बिना मर जायगा तो ईश्वर के सामने झूठा होने के कारण नरक का भागी होगा, अर्थात् तेरी आत्मा जो कभी मरने वाली नहीं है, बड़ा कष्ट भोगेगी और हजारों वर्ष तक बिना पानी के मछली की तरह तड़पा करेगी। हाय, ये बातें ऐसी हैं कि मुझे बेचैन किए देती हैं। ऐसी अवस्था में तुम स्वयं सोच सकते हो कि अपनी बुराइयों को मैं अपने ही मुंह से कैसे प्रकट करूं और तुमसे क्या कहूं! यदि जी कड़ा करके कुछ कहूंगा भी तो निःसन्देह तुम मुझसे घृणा करोगे जैसा कि तुमसे कह चुका हूं।

देवीसिंह – नहीं-नहीं, कदापि नहीं! मैं शपथपूर्वक कहता हूं कि यदि मुझे यह भी मालूम हो जायेगा कि तुम मेरे पिता के घातक हो, जिन पर मेरा बड़ा ही स्नेह था तो भी मैं तुम्हें इसी तरह मुहब्बत की निगाह से देखूंगा, जैसा कि अब देख रहा हूं! कहो, अब इससे ज्यादा मैं क्या कह सकता हूं!

इतना सुनते ही भूतनाथ जिसने अपनी पीठ विचित्र मनुष्य की तरफ इसलिए कर रखी थी कि चेहरे के उतार-चढ़ाव से वह उसकी बातों का कुछ भेद न पा सके, देवीसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और रोने लगा। देवीसिंह ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और कहा – ”देखो, जी कड़ा करो, घबड़ाओ मत, ईश्वर जो कुछ करेगा, अच्छा ही करेगा, क्योंकि नेकी की राह चलने वालों की वह सहायता किया ही करता है और उनके पिछले ऐबों पर ध्यान नहीं देता, यदि वह जान जाय कि यह व्यक्ति भविष्य में नेक और सच्चा निकलेगा।”

विचित्र मनुष्य जो दूर खड़ा यह तमाशा देख रहा था, जी में बहुत ही कुढ़ा और उसने भूतनाथ से ललकार के कहा, ”भूतनाथ, यह क्या बात है तुम राह चलते हर एक ऐरे-गैरे के सामने खड़े होकर घण्टों कलपा करोगे। और मैं खड़ा पहरा दिया करूंगा यह नहीं हो सकता। मैं तुम्हारा ताबेदार नहीं हूं बल्कि तुम मेरे ताबेदार हो, चलो, जल्दी करो, अब मैं नहीं रुक सकता!”

भूतनाथ ने लाचारी और मजबूरी की निगाह देवीसिंह पर डाली और सिर नीचा करके चुप हो रहा। देवीसिंह ने पहिले तो भूतनाथ के कान में धीरे से कुछ कहा और इसके बाद विचित्र मनुष्य की तरफ बढ़कर बोले –

देवीसिंह – क्यों बे, क्या तूने मुझे ऐरे-गैरों में समझ लिया जुबान संभालके नहीं बोलता! क्या तू नहीं जानता कि मैं कौन हूं?

विचित्र – मैं खूब जानता हूं कि तुम्हारा नाम देवीसिंह है और तुम राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार हो, मगर मुझे इससे क्या मतलब तुमने मेरे आसामी को इतनी देर तक क्यों रोक रखा है?

देवीसिंह – भूतनाथ तेरा आसामी नहीं है बल्कि मेरा साथी ऐयार है। कदाचित् अपने पागलपन में तूने इसे अपना आसामी समझ लिया हो तो भी जो कुछ कहना हो भूतनाथ से कह, तुझे पागल समझकर मैं कुछ न कहूंगा छोड़ दूंगा, मगर तू इतना हौसला नहीं कर सकता कि राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को ‘ऐरे-गैरे’ कहकर सम्बोधन करे! क्या तू नहीं जानता कि ऐयार की इज्जत राजदीवान से कम नहीं होती मैं बेशक तुझे इस बेअदबी की सजा दूंगा।

विचित्र मनुष्य – तुम मुझे क्या सजा दोगे, मैं तुम्हें समझता ही क्या हूं!

देवीसिंह – तो मैं दिखाऊं तमाशा तुझे और बता दूं कि राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग कैसे होते हैं?

विचित्र मनुष्य – जो कुछ करते बने करो, मैं तैयार हूं, तुमसे डरता नहीं।

इतना कहकर विचित्र मनुष्य ने म्यान से तलवार निकाल ली और देवीसिंह ने भी जमीन पर से पत्थर का एक टुकड़ा उठा लिया। विचित्र मनुष्य ने झपटकर देवीसिंह पर तलवार का वार किया। देवीसिंह उछलकर दूर जा खड़े हुए और उस पत्थर के टुकड़े से अपने वैरी पर वार किया, मगर उसने पैंतरा बदलकर अपने को बचा लिया और देवीसिंह पर झपटा। अबकी दफे देवीसिंह ने फुर्ती के साथ पत्थर के दो टुकड़े दोनों हाथों में उठा लिये और दुश्मन के वार को खाली देकर एक पत्थर चलाया। जब तक विचित्र मनुष्य उस वार को बचाए तब तक देवीसिंह ने दूसरा टुकड़ा चलाया जो उसके घुटने पर बैठा और उसे सख्त चोट लगी। देवीसिंह ने विलम्ब न किया, फिर एक पत्थर उठा लिया और अपने वैरी को दूर से ही मारा। पैर में चोट लग जाने के कारण वह उछलकर अलग न हो सका और देवीसिंह का चलाया हुआ दूसरा पत्थर उसके दूसरे घुटने पर इस जोर से लगा कि वह चलने लायक न रहा, इसके बाद देवीसिंह का चलाया हुआ फिर एक पत्थर उसकी दाहिनी कलाई पर बैठा और तलवार उसके हाथ से छूटकर जमीन पर गिर पड़ी। विचित्र मनुष्य की कलाई नकाबपोश की लड़ाई में पहले ही चोट खा चुकी थी, अबकी दफे तो वह ऐसी बेकाम हुई कि उसे विश्वास हो गया कि कई महीने तक तलवार का कब्जा न थाम सकेगी। वह घबड़ाहट के साथ देवीसिंह की तरफ देख ही रहा था कि देवीसिंह का चलाया हुआ एक और पत्थर आया जिसने उसका सिर तोड़ दिया और उसने भहरा-कर जमीन पर गिरते-गिरते यह सुना, ”देखी राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार की करामात!”

देवीसिंह तुरन्त उस विचित्र मनुष्य के पास पहुंचे जो जमीन पर बेहोश पड़ा हुआ था। अपने बटुए में से बेहोशी की दवा निकालकर उसे सुंघाई और उसके हाथ-पैर बांधने के बाद पुनः भूतनाथ के पास आये और बोले, ”तुम मेरी इस कार्रवाई से किसी तरह की चिन्ता मत करो और देखो कि मैं इस कम्बख्त को कैसा छकाता हूं।”

भूतनाथ – मैं आपकी जितनी तारीफ करूं थोड़ी है। कोई जमाना ऐसा था कि ऐसे दुष्ट लोग मेरे नाम से कांपा करते थे परन्तु अब तो बात ही उल्टी हो गई। अब यह जब मेरे सामने आता है तो ‘बालि’ बनकर आता है अर्थात् इसकी सूरत देखते ही मेरी ताकत, फुर्ती और चालाकी हवा खाने चली जाती है या इसी दुष्ट का साथ देती है। अच्छा तो अब मुझे क्या करना चाहिए हां इस बात पर भी विचार कर लेना कि मेरी इज्जत अर्थात् मेरी स्त्री इसके कब्जे में है, न मालूम इसने उससे कहां कैद कर रखा है!

देवीसिंह – (आश्चर्य से भूतनाथ का मुंह देख के) खैर, पहले यह बताओ कि यह कौन है, इससे तुमसे कब मुलाकात हुई और क्या हुआ?

भूतनाथ ने यह तो नहीं बताया कि वह विचित्र मनुष्य कौन है मगर जिस समय से वह मिला और उसके बाद जो-जो हुआ, सब पूरा-पूरा कह सुनाया और देवीसिंह आश्चर्य के साथ सुनते रहे।

देवीसिंह कुछ देर तक सोचते रहे। भगवनिया के छूट जाने का उन्हें बहुत रंज था क्योंकि उन्हें या भूतनाथ को इस बात की खबर नहीं थी कि भगवनिया भूतनाथ के कब्जे से निकलकर नकाबपोश के कब्जे में फंसी है। देवीसिंह इस बात पर देर तक गौर करते रहे कि नकाबपोश कौन होगा, तारा की किस्मत क्या चीज होगी जो गठरी में थी, और वह घूमती-फिरती नकाबपोश के कब्जे में कैसे जा पहुंची देवीसिंह को विश्वास तो था कि तारा की किस्मत के विषय में भूतनाथ से बढ़कर साफ कोई नहीं समझा सकता मगर साथ ही इसके यह भी निश्चय था कि भूतनाथ अपने मुंह से इन भेदों को इस समय कदापि न खोलेगा और ऐसा करने के लिए जोर देने से उसे कष्ट होगा।

देवीसिंह – अच्छा भूतनाथ, यह बताओ कि तुम मुझ पर विश्वास कर सकते हो मैं इस दुष्ट के पंजे से तुम्हें छुड़ाने का उद्योग करूंगा। तुम इस बात की चिन्ता न करो कि मैं इसे मार डालूंगा या बहुत दिनों तक कैद कर रखूंगा क्योंकि ऐसा करने से तुम्हारी स्त्री को कष्ट होगा और यह बात मुझे मंजूर नहीं है!

भूतनाथ – मैं शपथपूर्वक कहता हूं कि अपनी जिन्दगी का सबसे नाजुक और कीमती हिस्सा आपके हवाले करता हूं, आप जैसा चाहें उसके साथ बर्ताव करें, मगर मेरी प्रार्थना अवश्य स्वीकार करें।

देवीसिंह – वह क्या?

भूतनाथ – यही कि इस भेद के विषय में मेरी जुबान से कुछ कहलाने का उद्योग न करें और तहकीकात करने पर जो कुछ भेद आपको मालूम हों उन भेदों को भी बिना मेरी इच्छा के राजा वीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों कुमार, राजा गोपालसिंह, तारा और कमलिनी पर प्रकट न करें। बस इससे ज्यादा कुछ न कहकर आशा करता हूं कि मुझे अपना कनिष्ठ भ्राता समझकर इस दुष्ट के पंजे से छुटकारा दिलावेंगे। हां, एक बात कहना भूल गया, वह यह है कि इस दुष्ट को कैद करके आप बेफिक्र न रहियेगा, इसके मददगार लोग बड़े ही शैतान और पाजी हैं।

देवीसिंह – जो कुछ तुमने कहा, मुझे मंजूर है। मैं वादा करता हूं कि जब तक तुम आज्ञा न दोगे तुम्हारे भेद अपने दिल के अन्दर रक्खूंगा और उद्योग करूंगा जिसमें तुम्हारी आत्मा निरोग हो और तुम स्वतन्त्र होकर विचार कर सको – अच्छा एक काम करो।

भूतनाथ – कहिये।

देवीसिंह – इस दुष्ट को तो मैं अपने कब्जे में करता हूं, जहां मुनासिब समझूंगा ले जाऊंगा, तुम यहां से जाओ, कल सबेरे तालाब वाले तिलिस्मी मकान में जिसे दुश्मनों ने खराब कर डाला है मुझसे और कमलिनी से मुलाकात करो। इस बीच अगर हो सके तो श्यामसुन्दरसिंह को खोज निकालो और उसे भी अपने साथ उसी जगह लेते आओ। फिर जो कुछ मुनासिब होगा किया जायगा।

भूतनाथ – (चौंककर) तो क्या ये सब बातें आप कमलिनी से कहेंगे?

देवीसिंह – हां यदि आवश्यकता होगी तो कहूंगा और इसमें तुम्हारा कुछ हर्ज नहीं है, परन्तु विश्वास रक्खो कि इन बातों का असल भेद, जिनका मैं पता भविष्य में लगाऊंगा, अपनी प्रतिज्ञानुसार किसी से न कहूंगा।

भूतनाथ – (मजबूर के ढंग से) बहुत अच्छा, मैं जाता हूं।

भूतनाथ वहां से चला गया। देवीसिंह ने उस विचित्र मनुष्य की गठरी बांधी और उस जगह आये जहां दोनों घोड़ों को छोड़ा था। घोड़ों पर जीन कसने के बाद एक पर उस आदमी को लादा और दूसरे पर आप सवार होकर उस तरफ रवाना हुए जहां कमलिनी, किशोरी, कामिनी इत्यादि को छोड़ा था।

बयान – 10

दिन ढल चुका था जब देवीसिंह विचित्र मनुष्य की गठरी और दोनों घोड़ों को लिए हुए वहां पहुंचे जहां किशोरी, कामिनी, तारा, कमलिनी, लाडिली और भैरोसिंह को छोड़ा था। तीतर का शोरबा पीने से किशोरी, कामिनी और तारा की तबीयत ठहरी हुई थी और वे इस योग्य हो गई थीं कि दीवार के सहारे कुछ देर तक बैठ सकें, अस्तु इस समय जब देवीसिंह वहां पहुंचे तो वे तीनों पत्थर की चट्टान के सहारे बैठी हुई कमलिनी और भैरोसिंह से बातचीत कर रही थीं। वहां जंगली पेड़ों की घनी छाया थी जिनकी टहनियां तेज हवा के झपेटों से झोंके खा रही थीं और पत्तों की खड़खड़ाहट की मधुर ध्वनि बहुत ही भली मालूम देती थी।

जिस समय भैरोसिंह ने देखा कि देवीसिंह के साथ दोनों घोड़े ही नहीं हैं बल्कि एक गठरी भी है वह उठकर आगे बढ़ गया और विचित्र मनुष्य की गठरी अपनी पीठ पर लादकर कमलिनी के पास ले आया। उस समय सभी की आश्चर्य-भरी निगाहें उसी गठरी की तरफ पड़ रही थीं। दोनों घोड़ों को पेड़ से बांधकर जब देवीसिंह कमलिनी के पास पहुंचे तो उन्होंने अपने पास की गठरी खोली और सभी ने बड़े गौर से उस विचित्र मनुष्य के चेहरे पर नजर डाली। यद्यपि देवीसिंह ने उसके फटे हुए सिर पर कपड़ा बांध दिया था मगर थोड़ा-थोड़ा खून अभी तक बह रहा था।

कमलिनी – इसे आप कहां से लाए और यह कौन है?

देवीसिंह – मुझे अभी तक मालूम न हुआ कि यह कौन है।

कमलिनी – (आश्चर्य से) क्या खूब! अगर ऐसा ही था तो इसे कैद क्यों कर लाये?

देवीसिंह – इसका किस्सा बड़ा ही विचित्र है। मुझे अब निश्चय हो गया कि भूतनाथ निःसन्देह किसी भारी घटना का शिकार हो रहा है जैसा कि आपने कहा था।

कमलिनी – अच्छा अब मैं टूटी-फूटी बातें नहीं सुनना चाहती, जो कुछ हाल हो खुलासा-खुलासा कह जाइये।

इस जगह पुनः उन बातों को दोहराना पाठकों का समय नष्ट करना है अतएव इतना ही कह देना काफी है कि देवीसिंह ने अपना पूरा हाल तथा भूतनाथ की जुबानी इस विचित्र मनुष्य और नकाबपोश वगैरह का जो कुड हाल सुना था, कमलिनी से कह सुनाया जिसे सुनकर कमलिनी को बड़ा ही ताज्जुब हुआ। कमलिनी से भी ज्यादा ताज्जुब तारा को हुआ जब उसने सुना कि इस विचित्र मनुष्य के हाथ में एक गठरी थी जिसके विषय में यह कहता था कि इसके अन्दर तारा की किस्मत बन्द है और गठरी घूमती-फिरती किसी नकाबपोश के हाथ में चली गई, मालूम नहीं वह नकाबपोश कौन था या कहां चला गया।

कमलिनी – (तारा से) जब तुम्हारी किस्मत की गठरी इस आदमी के हाथ में थी तो मालूम होता है कि तुम इसे जानती भी होगी!

तारा – कुछ भी नहीं, बल्कि जहां तक मैं कह सकती हूं मालूम होता है कि मैंने इसकी सूरत भी कभी नहीं देखी होगी।

कमलिनी – ठीक है, इस समय इसके विषय में तुमसे कुछ पूछना भूल है, क्योंकि साफ मालूम होता है कि इस आदमी की सूरत वास्तव में वैसी नहीं है जैसी हम देख रहे हैं। जरूर इसने अपनी सूरत बदली है और इसके बाल भी असली नहीं बल्कि बनावटी हैं, जब वे अलग किए जाएंगे और इसका चेहरा धोया जायगा तब शायद तुम इसे पहचान सको।

तारा – कदाचित ऐसा ही हो।

कमलिनी – अच्छा तो पहले इसका चेहरा साफ करना चाहिए।

देवीसिंह – मैं भी यही मुनासिब समझता हूं, इसके बाद इसे होश में लाकर जो कुछ पूछना हो पूछा जायगा।

इतना कहकर देवीसिंह ने अपने बटुए में से लोटा निकाला, भैरोसिंह का लोटा भी उठा लिया और जल भरने के लिए चश्मे के किनारे गये। चश्मा बहुत दूर न था इसलिए बहुत जल्द लौट आये और बाल दूर करके उसका चेहरा धोने लगे। आश्चर्य की बात है कि जैसे-जैसे उस विचित्र मनुष्य का चेहरा साफ होता था, तैसे-तैसे तारा के चेहरे की रंगत बदलती जाती थी, यहां तक कि उसका चेहरा अच्छी तरफ साफ हुआ भी न था कि तारा ने एक चीख मारी और ‘हाय’ कहके गिरने के साथ ही बेहोश हो गई। उस वक्त सभी का खयाल तारा की तरफ जा रहा और कमलिनी ने कहा, ”निःसन्देह इस मनुष्य को तारा पहचानती है!”

उसी समय भैरोसिंह की निगाह सामने की तरफ जा पड़ी और एक नकाबपोश को अपनी तरफ आते हुए देखकर उसने कहा, ”देखिये, एक नकाबपोश हम लोगों की तरफ ही आ रहा है! आश्चर्य है कि उसने यहां का रास्ता कैसे देख लिया! कदाचित् चाचाजी के पीछे छिपकर चला आया हो। बेशक ऐसा ही है, नहीं तो इस भूलभुलैंया रास्ते का पता लगाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है! जो हो मगर मैं कसम खाकर कह सकता हूं कि यह वही नकाबपोश है जिसका हाल इस समय सुनने में आया है। और देखो उसके हाथ में एक गठरी भी है, हां यह वही गठरी होगी जिसके विषय में कहा जाता है कि इसमें तारा की किस्मत बन्द है!”

कमलिनी – बेशक ऐसा ही है।

देवीसिंह – हां, इसके लिए तो मैं भी कसम खा सकता हूं।

(ग्यारहवां भाग समाप्त)

चंद्रकांता संतति – Chandrakanta Santati

चंद्रकांता संतति लोक विश्रुत साहित्यकार बाबू देवकीनंदन खत्री का विश्वप्रसिद्ध ऐय्यारी उपन्यास है।

बाबू देवकीनंदन खत्री जी ने पहले चन्द्रकान्ता लिखा फिर उसकी लोकप्रियता और सफलता को देख कर उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाया और ‘चन्द्रकान्ता संतति’ की रचना की। हिन्दी के प्रचार प्रसार में यह उपन्यास मील का पत्थर है। कहते हैं कि लाखों लोगों ने चन्द्रकान्ता संतति को पढ़ने के लिए ही हिन्दी सीखी। घटना प्रधान, तिलिस्म, जादूगरी, रहस्यलोक, एय्यारी की पृष्ठभूमि वाला हिन्दी का यह उपन्यास आज भी लोकप्रियता के शीर्ष पर है।

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चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग – Chandrakanta Santati Gyarahava Bhag

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Further Reading:

  1. चंद्रकांता संतति पहला भाग
  2. चंद्रकांता संतति दूसरा भाग
  3. चंद्रकांता संतति तीसरा भाग
  4. चंद्रकांता संतति चौथा भाग
  5. चंद्रकांता संतति पाँचवाँ भाग
  6. चंद्रकांता संतति छठवां भाग
  7. चंद्रकांता संतति सातवाँ भाग
  8. चंद्रकांता संतति आठवाँ भाग
  9. चंद्रकांता संतति नौवां भाग
  10. चंद्रकांता संतति दसवां भाग
  11. चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग
  12. चंद्रकांता संतति बारहवां भाग
  13. चंद्रकांता संतति तेरहवां भाग
  14. चंद्रकांता संतति चौदहवां भाग
  15. चंद्रकांता संतति पन्द्रहवां भाग
  16. चंद्रकांता संतति सोलहवां भाग
  17. चंद्रकांता संतति सत्रहवां भाग
  18. चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग
  19. चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग
  20. चंद्रकांता संतति बीसवां भाग
  21. चंद्रकांता संतति इक्कीसवां भाग
  22. चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग
  23. चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग
  24. चंद्रकांता संतति चौबीसवां भाग

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