चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग
चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग

चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग – Chandrakanta Santati Baisva Bhag

चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग

बयान – 1

भूतनाथ की अवस्था ने सभों का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया। कुछ देर तक सन्नाटा रहा और इसके बाद इंद्रदेव ने पुनः महाराज की तरफ देख के कहा –

”महाराज, ध्यान देने और विचार करने पर सभों को मालूम होगा कि आजकल आपका दरबार ‘नाट्यशाला’ (थियेटर का घर) हो रहा है। नाटक खेलकर जो-जो बातें दिखाई जा सकती हैं और जिनके देखने से लोगों को नसीहत मिल सकती है तथा मालूम हो सकता है कि दुनिया में जिस दर्जे तक के नेक और बद, दुखिया और सुखिया, गंभीर और छिछोरे इत्यादि पाये जाते हैं, वे सब इस समय (आजकल) आपके यहां प्रत्यक्ष हो रहे हैं, ग्रह-दशा के फेर में जिन्होंने दुःख भोगा वे भी मौजूद हैं और जिन्होंने अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारी वे भी दिखाई दे रहे हैं, जिन्होंने अपने किए का फल ईश्वरेच्छा से पा लिया है वे भी आये हुए हैं और जिन्हें अब सजा दी जायगी वे भी गिरफ्तार किये गए हैं। बुद्धिमानों का यह कथन है कि ‘जो बुरी राह चलेगा उसे बुरा फल अवश्य मिलेगा’ ठीक है, परंतु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अच्छी राह चलने वाले तथा नेक लोग भी दुःख के चेहले में फंस जाते हैं और दुर्जन तथा दुष्ट लोग आनंद के साथ दिन काटते दिखाई देते हैं, इसे लोग ग्रह-दशा के कारण कहते हैं मगर नहीं, इसके सिवाय और भी बात जरूर है। परमात्मा की दी हुई बुद्धि और विचार-शक्ति का अनादर करने वाले ही प्रायः संकट में पड़कर तरह-तरह के दुःख भोगते हैं।

मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि इस समय अथवा आजकल आपके यहां तरह-तरह के जीव दिखाई देते हैं, दृष्टांत देने के बदले केवल इशारा करने से काम निकलता है। हां मैं यह कहना तो भूल ही गया कि इन्हीं में ऐसे भी जीव आए हुए हैं जो अपने किए का नहीं बल्कि अपने संबंधियों के किये हुए पापों का फल भोग रहे हैं और इसी से नाते (रिश्ते) और संबंध का गूढ़ अर्थ भी निकलता है। बेचारी लक्ष्मीदेवी की तरफ देखिये जिसने किसी का भी कुछ नहीं बिगाड़ा और फिर भी वह हद दर्जे की तकलीफ उठाकर ताज्जुब है कि जीती बच गई। ऐसा क्यों हुआ इसके जवाब में मैं तो यही कहूंगा कि राजा गोपालसिंह की बदौलत जो बेईमान दारोगा के हाथ की कठपुतली हो रहे थे और इस बात की कुछ भी खबर नहीं रखते थे कि उनके घर में क्या हो रहा है या उनके कर्मचारियों ने उन्हें किस जाल में फंसा रखा है। जिस राजा को अपने घर की खबर न होगी वह प्रजा का क्या उपकार कर सकता है, और ऐसा राजा अगर संकट में पड़ जाये तो आश्चर्य ही क्या है! केवल इतना ही नहीं, इनके दुःख भोगने का एक सबब और भी है। बड़ों ने कहा है कि ‘स्त्री के आगे अपने भेद की बात प्रकट करना बुद्धिमानों का काम नहीं है’ परंतु राजा गोपालसिंह ने इस बात पर कुछ भी ध्यान न दिया और दुष्टा मायारानी की मुहब्बत में फंसकर तथा अपने भेदों को बताकर बर्बाद हो गये। सज्जन और सरल स्वभाव से ही दुनिया का काम नहीं चलता, कुछ नीति का भी अवलंब करना ही पड़ता है। इसी तरह महाराज शिवदत्त को देखिये जिसे खुशामदियों ने मिल-जुलकर बर्बाद कर दिया। जो लोग खुशामद में पड़कर अपने ही को सबसे बड़ा समझ बैठते हैं और दुश्मन को कोई चीज नहीं समझते हैं, उनकी वैसी ही गति होती है जैसी शिवदत्त की हुई। दुष्टों और दुर्जनों की बात जाने दीजिए, उनको तो उनके बुरे कामों का फल मिलना ही चाहिए, मिला ही है और मिलेगा ही, उनका जिक्र तो मैं पीछे ही करूंगा, अभी तो मैं उन लोगों की तरफ इशारा करता हूं जो वास्तव में बुरे नहीं थे मगर नीति पर न चलने तथा बुरी सोहबत में पड़े रहने के कारण संकट में पड़ गये। मैं दावे के साथ कहता हूं कि भूतनाथ जैसा नेक, दयावान और चतुर ऐयार बहुत कम दिखाई देगा, मगर लालच और ऐयाशी के फेर में पड़कर यह ऐसा बर्बाद हुआ कि दुनिया-भर में मुंह छिपाने और अपने को मुर्दा मशहूर करने पर भी इसे सुख की नींद नसीब न हुई।

अगर यह मेहनत करके ईमानदारी के साथ दौलत पैदा किया चाहता तो आज इसकी दौलत का अंदाज करना कठिन होता और अगर ऐयाशी के फेर में न पड़ा होता तो आज नाती, पोतों से इसका घर दूसरों के लिए नजीर गिना जाता। इसने सोचा कि मैं मालदार हूं, होशियार हूं, चालाक हूं, और ऐयार हूं। कुलटा स्त्रियों और रण्डियों की सोहबत का मजा लेकर सफाई के साथ अलग हो जाऊंगा, मगर इसे अब मालूम हुआ होगा कि रंडियां ऐयारों के भी कान काटती हैं। नागर वगैरह के बर्ताव को जब यह याद करता होगा तब इसके कलेजे में चोट-सी लगती होगी। मैं इस समय इसकी शिकायत करने पर उतारू नहीं हुआ हूं बल्कि इसके दिल पर से पहाड़-सा बोझ हटाकर उसे हलका किया चाहता हूं, क्योंकि इसे मैं अपना दोस्त समझता था और समझता हूं, हां, इधर कई वर्षों से इसका विश्वास अवश्य उठ गया था और मैं इसकी सोहबत पसंद नहीं करता था, मगर इसमें मेरा कोई कसूर नहीं। किसी की चालचलन जब खराब हो जाती है तब बुद्धिमान लोग उसका विश्वास नहीं करते और शास्त्र की भी ऐसी ही आज्ञा है, अतएव मुझे भी ऐसा ही करना पड़ा। मैंने इसे किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुंचाई परंतु इसकी दोस्ती को एकदम भूल गया, मुलाकात होने पर उसी तरह बर्ताव करता था जैसा लोग नए मुलाकाती के साथ किया करते हैं। हां अब जबकि यह अपनी चालचलन को सुधारकर आदमी बना है, अपनी भूलों को सोचकर पछता चुका है, एक अच्छे ढंग से नेकी के साथ नामवरी करता हुआ दुनिया में फिर दिखाई देने लगा है और महाराज भी इसकी योग्यता से प्रसन्न होकर इसके अपराधों को (दुनिया के लिए) क्षमा कर चुके हैं, तब मैंने भी इसके अपराधों को दिल ही दिल में क्षमा कर इसे अपना मित्र समझ लिया है और फिर उसी निगाह से देखने लगा हूं जिस निगाह से पहले देखता था। परंतु इतना मैं जरूर कहूंगा कि भूतनाथ ही एक ऐसा आदमी है जो दुनिया में नेकचलनी और बदचलनी के नतीजे को दिखाने के लिए नमूना बन रहा है। आज यह अपने भेदों को प्रकट होते देख डरता है और चाहता है कि इसके भेद छिपे के छिपे रह जायं मगर यह इसकी भूल है क्योंकि किसी के ऐब छिपे नहीं रहते। सब नहीं तो बहुत-कुछ दोनों कुमारों को मालूम हो ही चुके हैं और महाराज भी जान गये हैं, ऐसी अवस्था में इसे अपना किस्सा पूरा-पूरा बयान करके दुनिया में एक नजीर छोड़ देना चाहिए और साथ ही इसके (भूतनाथ की तरफ देखते हुए) अपने दिल के बोझ को भी हल्का कर देना चाहिए। भूतनाथ, तुम्हारे दो-चार भेद तो ऐसे हैं जिन्हें सुनकर लोगों की आंखें खुल जायंगी और लोग समझेंगे कि हां, लोग ऐसे-ऐसे काम भी कर गुजरते हैं और उनका नतीजा ऐसा होता है, मगर यह तो कुछ तुम्हारे ही जैसे बुद्धिमान और अनूठे ऐयार का काम है कि इतना करने पर भी आज तुम भले-चंगे दिखाई देते हो बल्कि नेकनामी के साथ महाराज के ऐयार कहलाने की इज्जत पा चुके हो। मैं फिर कहता हूं कि किसी बुरी नीयत से इन बातों का जिक्र मैं नहीं करता बल्कि तुम्हारे दिल का खुटका दूर करने के साथ ही साथ जिनके नाम से तुम डरते हो उन्हें तुम्हारा दोस्त बनाया चाहता हूं, अस्तु तुम्हें बेखौफ अपना हाल बयान कर देना चाहिए।

भूत – ठीक है, मगर क्या करूं, मेरी जुबान नहीं खुलती। मैंने ऐसे-ऐसे बुरे काम किये हैं कि जिन्हें याद करके आज मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और आत्महत्या करने की जी में इच्छा होती है, मगर नहीं, मैं बदनामी के साथ दुनिया से उठ जाना पसंद नहीं करता अतएव जहां तक हो सकेगा एक दफे नेकनामी अवश्य पैदा करूंगा।

इंद्र – नेकनामी पैदा करने का ध्यान जहां तक बना रहे अच्छा ही है परंतु मैं समझता हूं कि तुम नेकनामी उसी दिन पैदा कर चुके जिस दिन हमारे महाराज ने तुम्हें अपना ऐयार बनाया, इसलिए कि तुमने इधर बहुत ही अच्छे काम किये हैं और वे सब ऐसे थे कि जिन्हें अच्छे से अच्छा ऐयार भी कदाचित नहीं कर सकता था। चाहे तुमने पहले कैसी ही बुराई और कैसे ही खोटे काम क्यों न किये हों मगर आज हम लोग तुम्हारे देनदार हो रहे हैं, तुम्हारे एहसान के बोझ से दबे हुए हैं, और समझते हैं कि तुम अपने दुष्कर्मों का प्रायश्चित कर चुके हो।

भूत – आप जो कुछ कहते हैं वह आपका बड़प्पन है परंतु मैंने जो कुछ कुकर्म किये हैं, मैं समझता हूं कि उनका प्रायश्चित ही नहीं है, तथापि अब तो मैं महाराज की शरण में आ ही चुका हूं और महाराज ने भी मेरी बुराइयों पर ध्यान न देकर मुझे अपना दासानुदास स्वीकार कर लिया है। इससे मेरी आत्मा संतुष्ट है और मैं अपने को दुनिया में मुंह दिखाने योग्य समझने लगा हूं। मैं यह भी समझता हूं कि आप जो कुछ आज्ञा कर रहे हैं यह वास्तव में महाराज की आज्ञा है जिसका मैं कदापि उल्लंघन नहीं कर सकता, अस्तु मैं अपनी अद्भुत जीवनी सुनाने के लिए तैयार हूं परंतु…।

इतना कहकर भूतनाथ ने एक लंबी सांस ली और महाराज सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखा।

सुरेन्द्र – भूतनाथ, यद्यपि हम लोग तुम्हारा कुछ-कुछ हाल जान चुके हैं मगर फिर भी तुम्हारा पूरा-पूरा हाल तुम्हारे ही मुंह से सुनने की इच्छा रखते हैं। तुम बयान करने में किसी तरह का संकोच न करो। इससे तुम्हारा दिल भी हल्का हो जायगा और दिन-रात जो तुम्हें खुटका बना रहता है वह भी जाता रहेगा।

भूत – जो आज्ञा।

इतना कहकर भूतनाथ ने सलाम किया और अपनी जीवनी इस तरह बयान करने लगा –

भूतनाथ की जीवनी

भूत – सबसे पहले मैं वही बात कहूंगा जिसे आप लोग नहीं जानते अर्थात् मैं नौगढ़ के रहने वाले और देवीसिंह के सगे चाचा जीवनसिंह का लड़का हूं। मेरी सौतेली मां मुझे देखना पसंद नहीं करती थी और मैं उसकी आंखों में कांटे की तरह गड़ा रहता था। मेरे ही सबब से मेरी मां की इज्जत और कदर थी और उस बांझ को कोई पूछता भी न था। अतएव वह मुझे दुनिया से ही उठा देने की फिक्र में लगी और यह बात मेरे पिता को मालूम हो गई इसलिए जबकि मैं आठ वर्ष का था मेरे पिता ने मुझे अपने मित्र देवदत्त ब्रह्मचारी के सुपुर्द कर दिया, जो तेजसिंह के गुरु1 थे और महात्माओं की तरह नौगढ़ की उसी तिलिस्मी खोह में रहा करते थे जिसे राजा वीरेन्द्रसिंहजी ने फतह किया। मैं नहीं जानता कि मेरे पिता ने मेरे विषय में उन्हें क्या समझाया और क्या कहा परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि ब्रह्मचारीजी मुझे अपने लड़के की तरह मानते-पढ़ाते, लिखाते और साथ-साथ ऐयारी भी सिखाते थे, परंतु जड़ी-बूटियों के प्रभाव से उन्होंने मेरी सूरत में बहुत बड़ा फर्क डाल दिया था जिससे मुझे कोई पहचान न ले। मेरे पिता मुझे देखने के लिए बराबर इनके पास आया करते थे।

इतना कहकर भूतनाथ कुछ देर के लिए चुप रह गया और सभों के मुंह की तरफ देखने लगा।

सुरेन्द्र – (ताज्जुब के साथ) ओफओह! क्या तुम जीवनसिंह के वही लड़के हो जिसके बारे में उन्होंने मशहूर कर दिया था कि उसे जंगल में शेर उठाकर ले गया!!

भूत – (हाथ जोड़कर) जी हां।

तेज – और आप वही हैं जिसे गुरुजी ‘फिरकी’ कह के पुकारा करते थे क्योंकि आप एक जगह ज्यादे देर तक बैठते न थे।

1चंद्रकान्ता संतति के पहले भाग के छठवें बयान में तेजसिंह ने अपने गुरु के बारे में वीरेन्द्रसिंह से कुछ कहा था।

भूत – जी हां।

देवी – यद्यपि मैं बहुत दिनों से आपको भाई की तरह मानने लगा हूं परंतु आज यह जानकर मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा कि आप वास्तव में मेरे भाई हैं, मगर यह तो बताइए कि ऐसी अवस्था में शेरसिंह आपके भाई क्योंकर हुए? वह कौन हैं?

भूत – वास्तव में शेरसिंह मेरा भाई नहीं है बल्कि गुरुभाई है और उन्हीं ब्रह्मचारीजी का लड़का है। मगर हां, लड़कपन ही से एक साथ रहने के कारण हम दोनों में भाई की-सी मुहब्बत हो गई थी।

तेज – आजकल शेरसिंह कहां है?

भूत – मुझे उनकी कुछ भी खबर नहीं है मगर मेरा दिल गवाही देता है कि अब वे हम लोगों को दिखाई न देंगे।

वीरेन्द्र – सो क्यों?

भूत – इसीलिए कि वे भी अपने को बिना छिपाये और हम लोगों से मिले-जुले रहते और साथ ही इसके ऐबों से खाली न थे।

सुरेन्द्र – खैर कोई चिंता नहीं, अच्छा तब?

भूत – अस्तु मैं उन्हीं ब्रह्मचारी के पास रहने लगा। कई वर्ष बीत गये। पिताजी मुझसे मिलने के लिए कभी-कभी आया करते थे और जब मैं बड़ा हुआ तो उन्होंने मुझे अपने से जुदा करने का सबब भी बयान किया और वे यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए कि मैं ऐयारी के फन में बहुत तेज और होशियार हो गया हूं। उस समय उन्होंने ब्रह्मचारीजी से कहा कि इसे किसी रियासत में नौकर रख देना चाहिए तब इसकी ऐयारी खुलेगी। मुख्तसर यह कि ब्रह्मचारीजी की ही बदौलत में गदाधरसिंह के नाम से रणधीरसिंहजी के यहां और शेरसिंह महाराज दिग्विजयसिंह के यहां नौकर हो गये और यह जाहिर किया कि शेरसिंह और गदाधरसिंह दोनों भाई हैं, और हम दोनों आपस में प्रेम भी ऐसा ही रखते थे!

उन दिनों रणधीरसिंहजी की जमींदारी में तरह-तरह के उत्पात मचे हुए थे और बहुत-से आदमी उनके जानी दुश्मन हो रहे थे। उनके आपस वालों को तो इस बात का विश्वास हो गया था कि अब रणधीरसिंहजी की जान किसी तरह नहीं बच सकती क्योंकि उन्हीं दिनों उनका ऐयार श्रीसिंह दुश्मनों के हाथों से मारा जा चुका था और खूनी का कुछ पता न लगता था। कोई दूसरा ऐयार भी उनके पास न था इसलिए वे बड़े तरद्दुद में पड़े हुए थे। यद्यपि उन दिनों उनके यहां नौकरी करना अपनी जान खतरे में डालना था मगर मुझे इन बातों की कुछ भी परवाह न हुई। रणधीरसिंहजी मुझे नौकर रखकर बहुत प्रसन्न हुए। मेरी खातिरदारी में कभी किसी तरह की कमी नहीं करते थे। इसके दो सबब थे, एक तो उन दिनों उन्हें ऐयार की सख्त जरूरत थी, दूसरे मेरे पिता से और उनसे कुछ मित्रता भी थी जो कुछ दिनों के बाद मुझे मालूम हुआ।

रणधीरसिंहजी ने मेरा ब्याह भी शीघ्र ही करा दिया। संभव है कि इसे भी मैं उनकी कृपा और स्नेह के कारण समझूं, पर यह भी हो सकता है कि मेरे पैर में गृहस्थी की बेड़ी डालने और कहीं भाग जाने लायक न रखने के लिए उन्होंने ऐसा किया हो क्योंकि अकेला और बेफिक्र आदमी कहीं पर जन्म भर रहे और काम करे इसका विश्वास लोगों को कम रहता है। खैर जो कुछ हो मतलब यह है कि उन्होंने मुझे बड़ी इज्जत और प्यार के साथ अपने यहां रखा और मैंने भी थोड़े ही दिनों में ऐसे अनूठे काम कर दिखाए कि उन्हें ताज्जुब होता था। सच तो यों है कि उनके दुश्मनों की हिम्मत टूट गई और वे दुश्मनी की आग में आप ही जलने लगे।

कायदे की बात है कि जब आदमी के हाथ से दो-चार काम अच्छे निकल जाते हैं और चारों तरफ उसकी तारीफ होने लगती है तब वह अपने काम की तरफ से बेफिक्र हो जाता है, वही हाल मेरा भी हुआ।

आप जानते ही होंगे कि रणधीरसिंहजी का दयाराम नामी एक भतीजा था जिसे वह बहुत प्यार करते थे और वही उनका वारिस होने वाला था। उसके मां-बाप लड़कपन ही में मर चुके थे मगर चाचा की मुहब्बत के सबब उसे भी बाप के मरने का दुःख मालूम न हुआ। दयाराम उम्र में मुझसे कुछ छोटा था मगर मेरे और उसके बीच में हद दर्जे की दोस्ती और मुहब्बत हो गई थी। जब हम दोनों आदमी घर पर मौजूद रहते तो बिना मिले जी नहीं मानता था। दयाराम का उठना-बैठना मेरे यहां ज्यादे होता था, अक्सर रात को मेरे यहां खा-पीकर सो जाता था और उसके घर वाले भी इसमें किसी तरह का रंज नहीं मानते थे।

जो मकान मुझे रहने के लिए मिला था वह निहायत उम्दा और शानदार था। उसके पीछे की तरफ एक छोटा-सा नजरबाग था जो दयाराम के शौक की बदौलत हरदम हरा-भरा गुंजान और सुहावना बना रहता था। प्रायः संध्या के समय हम दोनों दोस्त उसी बाग में बैठकर भांग-बूटी छानते और संध्योपासन से निवृत्त हो बहुत रात गये तक गप-शप किया करते।

जेठ का महीना था और गर्मी हद दर्जे की पड़ रही थी। पहर रात बीत जाने पर हम दोनों दोस्त उसी नजरबाग में दो चारपाई के ऊपर लेटे हुए आपस में धीरे – धीरे बातें कर रहे थे। मेरा खूबसूरत और प्यारा कुत्ता मेरे पायताने की तरफ एक पत्थर की चौकी पर बैठा हुआ था। बात करते – करते हम दोनों को नींद आ गई।

आधी रात से कुछ ज्यादे बीती होगी जब मेरी आंख कुत्ते के भौंकने की आवाज से खुल गई। मैंने उस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया और करवट बदलकर फिर आंखें बंद कर लीं क्योंकि वह कुत्ता मुझसे बहुत दूर और नजरबाग के पिछले हिस्से की तरफ था, मगर कुछ ही देर बाद वह मेरी चारपाई के पास आकर भौंकने लगा और पुनः मेरी आंख खुल गई। मैंने कुत्ते को अपने सामने बेचैनी की हालत में देखा, उस समय वह जुबान निकालते हुए जोर-जोर से हांफ रहा था और दोनों अगले पैरों से जमीन खोद रहा था।

मैं अपने कुत्ते की आदतों को खूब जानता और समझता था, अस्तु उसकी ऐसी अवस्था देखकर मेरे दिल में खुटका हुआ और मैं घबड़ाकर उठ बैठा। अपने मित्र को भी उठाकर होशियार कर देने की नीयत से मैंने उसकी चारपाई की तरफ देखा मगर चारपाई खाली पाकर मैं बेचैनी के साथ चारों तरफ देखने लगा और उठकर चारपाई से नीचे खड़े होने के साथ ही मैंने अपने सिरहाने के नीचे से खंजर निकाल लिया। उस समय मेरा नमकहलाल कुत्ता मेरी धोती पकड़कर बार-बार खींचने और बाग के पिछले हिस्से की तरफ चलने का इशारा करने लगा और जब में उसके मुताबिक चला तो वह धोती छोड़कर आगे-आगे दौड़ने लगा। कदम बढ़ाता हुआ मैं उसके पीछे-पीछे चला। उस समय मालूम हुआ कि मेरा कुत्ता जख्मी है, उसके पिछले पैर में चोट आई है इसलिए वह पैर उठाकर दौड़ता था। अस्तु कुत्ते के पीछे-पीछे चलकर मैं पिछली दीवार के पास जा पहुंचा जहां मालती और मोमियाने की लताओं के सबब घना कुंज और पूरा अंधकार हो रहा था। कुत्ता उस झुरमुट के पास जाकर रुक गया और मेरी तरफ देखकर दुम हिलाने लगा। उसी समय मैंने झाड़ी में से तीन आदमियों को निकलते हुए देखा जो बाग की दीवार के पास चले गये और फुर्ती से दीवार लांघकर पार हो गये। उन तीनों में से एक आदमी के हाथ में एक छोटी-सी गठरी थी जो दीवार लांघते समय उसके हाथ से छूटकर बाग के भीतर ही गिर पड़ी, निःसंदेह वह गठरी लेने के लिए वह भीतर लौटता मगर उसने मुझे और कुत्ते को देख लिया था इसलिए उसकी हिम्मत न पड़ी।

गठरी गिरने के साथ ही मैंने जफील बुलाई और खंजर हाथ में लिए हुए उस आदमी का पीछा करना चाहा अर्थात् दीवार की तरफ बढ़ा, मगर कुत्ते ने मेरी धोती पकड़ ली और झाड़ी की तरफ हटकर खींचने लगा जिससे मैं समझ गया कि इस झाड़ी में भी कोई छिपा हुआ है जिसकी तरफ कुत्ता इशारा कर रहा है। मैं सम्हलकर खड़ा हो गया और गौर के साथ उस झाड़ी की तरफ देखने लगा। उसी समय पत्तों की खड़खड़ाहट ने विश्वास दिला दिया कि इसमें कोई और भी है। मैं इस खयाल से जिस तरह पहले तीन आदमी दीवार लांघकर भाग गये हैं उसी तरह इसको भी भाग जाने न दूंगा, घूमकर दीवार की तरफ चला गया। उस समय मैंने देखा कि चार डंडे की सीढ़ी दीवार के साथ लगी हुई है जिसके सहारे वे तीनों निकल गये थे। मैंने वह सीढ़ी उठाकर उस गठरी के ऊपर फेंक दी जो उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ी थी क्योंकि मैं उस गठरी की हिफाजत का भी खयाल कर रहा था।

सीढ़ी हटाने के साथ ही दो आदमी उस झाड़ी में से निकले और बड़ी बहादुरी के साथ मेरा मुकाबला किया, और मैं भी जी तोड़कर उनके साथ लड़ने लगा। अंदाज से मालूम हो गया कि गठरी उठा लेने की तरफ ही उन दोनों का ध्यान विशेष है। आप सुन चुके हैं कि मेरे हाथ में केवल खंजर था मगर उन दोनों के हाथ में लंबे-लंबे लट्ठ थे और मुकाबला करने में भी वे दोनों कमजोर न थे। अस्तु मुझे अपने बचाव का ज़्यादा खयाल था और मैं तब तक लड़ाई खत्म करना नहीं चाहता था जब तक मेरे आदमी न आ जायें जिन्हें जफील देकर मैंने बुलाया था।

आधी घड़ी से ज्यादे देर तक मेरा-उनका मुकाबला होता रहा। उसी समय मुझे रोशनी दिखाई दी और मालूम हुआ कि मेरे आदमी चले आ रहे हैं। उनकी तरफ देखकर मेरा ध्यान कुछ बटा ही था कि एक आदमी के हाथ का लट्ठ मेरे सिर पर बैठा और मैं चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा।

बयान – 2

जब मेरी आंख खुली मैंने अपने को आदमियों से घिरा हुआ पाया। मशालों की रोशनी बखूबी हो रही थी। जांच करने पर मालूम हुआ कि मैं आधी घड़ी से ज्यादे देर तक बेहोश नहीं रहा। जब मैंने दुश्मन के बारे में दरियाफ्त किया तो मालूम हुआ कि वे दोनों भी भाग गये मगर मेरे आदमियों के सबब से उस गठरी को न ले जा सके। मैंने अपनी हिम्मत और ताकत पर खयाल किया तो मालूम हुआ कि मैं इस समय उनका पीछा करने लायक नहीं हूं। आखिर लाचार हो और पहरे का इंतजाम करके मैं गठरी लिए हुए अपने कमरे में चला गया मगर अपने मित्र की तरफ से मेरा दिल बड़ा ही बेचैन रहा और तरह-तरह के शक पैदा होते रहे।

मेरे कमरे में रोशनी बखूबी हो रही थी। दरवाजा बंद करके मैंने गठरी खोली और उसके अंदर की चीजों को बड़े गौर से देखने लगा।

गठरी में दो जोड़े कपड़े निकले जिन्हें मैं पहचानता न था मगर वे कपड़े पहिरे हुए और मैले थे। कागजों का एक मुट्ठा निकला जिसे देखते ही मैं पहचान गया कि यह रणधीरसिंहजी के खास संदूक के कागज हैं। मोम का एक सांचा कई कपड़ों की तह में लपेटा हुआ निकला जो खास रणधीरसिंहजी की मोहर पर से उठाया गया था। इन चीजों के अतिरिक्त मोतियों की एक माला, एक कंठा और तीन जड़ाऊ अंगूठियां निकलीं। ये चीजें मेरे मित्र दयारामसिंह की थीं। इन सब चीजों को पहिरे हुए ही आज वे मेरे यहां से गायब हुए थे।

इन चीजों को देखकर मैं बड़ी देर तक सोच-विचार में पड़ा रहा। उसी समय कमरे का वह दरवाजा खुला जो जनाने मकान में जाने के लिए था और मेरी स्त्री, कमला की मां, आती हुई दिखाई पड़ी। उस समय वह एक बच्चे की मां हो चुकी थी और अपने बच्चे को भी गोद में लिए हुए थी। इसमें कोई शक नहीं कि मेरी स्त्री बुद्धिमान थी और छोटे-मोटे कामों में मैं उसकी राय भी लिया करता था।

उसकी सूरत देखते ही मैं पहचान गया कि तरद्दुद और घबराहट ने उसे अपना शिकार बना लिया है अस्तु मैंने उसे बुलाकर अपने पास बैठाया और सब हाल कह सुनाया, साथ ही इसके यह भी कहा कि मैं इसी समय अपने दोस्त का पता लगाने के लिए जाया चाहता हूं। मगर उसने इस आखिरी बात को कबूल न किया और कहा कि ”मेरी राय में पहले रणधीरसिंहजी से मिल लेना चाहिए।”

कई बातों को सोचकर मैंने उसकी राय कबूल कर ली और उस गठरी को लेकर रणधीरसिंहजी से मिलने के लिए रवाना हुआ। मुझे इस बात का भी धोखा लगा हुआ था कि रास्ते में कहीं दुश्मनों से मुलाकात न हो जाय जो जरूर इस गठरी को छीन लेने की धुन में लगे हुए होंगे। इसलिए मैंने दो शागिर्दों को भी साथ में ले लिया।

रणधीरसिंहजी बेफिक्र और आराम की नींद सो रहे थे जब मैंने पहुंचकर उन्हें उठाया। जागने के साथ ही मुझे देखकर चौंके और बोले, ”क्यों क्या मामला है जो इस समय ऐसे ढंग से यहां आये हो दयाराम कुशल से तो है’

मेरी सूरत देखते ही उन्होंने दयाराम का कुशल पूछा इससे मुझे बड़ा ही ताज्जुब हुआ। खैर मैं उनके पास बैठ गया और जो कुछ मामला हुआ था साफ-साफ कह सुनाया।

मैं इस किस्से को मुख्तसर ही में बयान करूंगा। रणधीरसिंहजी इस हाल को सुनकर बहुत ही दुःखी और उदास हुए। बहुत कुछ बातचीत करने के बाद अंत में बोले, ”दयाराम मेरा एक ही एक वारिस और दिली दोस्त है, ऐसी अवस्था में उसके लिए क्या करना चाहिए सो तुम ही सोच लो मैं क्या कहूं। मैं तो समझ चुका था कि दुश्मनों की तरफ से अब निश्चिंत हुआ मगर नहीं…।”

इतना कहकर वे कपड़े से अपना मुंह ढांपकर रोने लगे। मैं उन्हें बहुत-कुछ समझा-बुझाकर बिदा हुआ और अपने घर चला आया। अपनी स्त्री से मिलकर सब हाल कहने और समझाने-बुझाने के बाद मैं अपने शागिर्दों को साथ लेकर घर से बाहर निकला। बस यहीं से मेरी बदकिस्मती का जमाना शुरू हुआ।

इतना कहकर भूतनाथ अटक गया और सिर नीचा करके कुछ सोचने लगा। सब कोई बेचैनी के साथ उसकी तरफ देख रहे थे और भूतनाथ की अवस्था से मालूम होता था कि वह इस बात को सोच रहा है कि मैं अपना किस्सा बयान करूं या नहीं। उसी समय दो आदमी और कमरे के अंदर चले आये और महाराज को सलाम करके खड़े हो गए। इनकी सूरत देखते ही भूतनाथ के चेहरे का रंग उड़ गया और वह डरे हुए ढंग से उन दोनों की तरफ देखने लगा।

दोनों आदमी जो अभी-अभी कमरे में आये, वे ही थे जिन्होंने भूतनाथ को अपना नाम ‘दलीपशाह’ बतलाया था। इंद्रदेव की आज्ञा पाकर वे दोनों भूतनाथ के पास ही बैठ गये।

बयान – 3

प्रेमी पाठक भूले न होंगे कि दो आदमियों ने भूतनाथ से अपना नाम दलीपशाह बतलाया था जिनमें से एक को पहला दलीप और दूसरे को दूसरा दलीप समझना चाहिए।

भूतनाथ तो पहले ही सोच में पड़ गया था कि अपना हाल आगे बयान करे या नहीं, अब दोनों दलीपशाह को देखकर वह और भी घबड़ा गया। ऐयार लोग समझ रहे थे कि अब उसमें बात करने की भी ताकत नहीं रही। उसी समय इंद्रदेव ने भूतनाथ से कहा, ”क्यों भूतनाथ, चुप क्यों हो गये कहो, हां तब आगे क्या हुआ?’

इसका जवाब भूतनाथ ने कुछ न दिया और सिर झुकाकर जमीन की तरफ देखने लगा। उस समय पहले दलीपशाह ने हाथ जोड़कर महाराज की तरफ देखा और कहा, ”कृपानाथ, भूतनाथ को अपना हाल बयान करने में बड़ा कष्ट हो रहा है, और वास्तव में बात भी ऐसी ही है। कोई भला आदमी अपनी उन बातों को जिन्हें वह ऐब समझता है अपनी जुबान से अच्छी तरह बयान नहीं कर सकता। अस्तु यदि आज्ञा हो तो मैं इसका हाल पूरा-पूरा बयान कर जाऊं क्योंकि मैं भी भूतनाथ का हाल उतना ही जानता हूं जितना स्वयं भूतनाथ। भूतनाथ जहां तक बयान कर चुके हैं उसे मैं बाहर खड़ा-खड़ा सुन भी चुका हूं। जब मैंने समझा कि अब भूतनाथ से अपना हाल नहीं कहा जाता तब मैं यह अर्ज करने के लिए हाजिर हुआ हूं। (भूतनाथ की तरफ देख के) मेरे इस कहने से आप यह न समझियेगा कि मैं आपके साथ दुश्मनी कर रहा हूं, नहीं, जो काम आपके सुपुर्द किया गया है उसे आपके बदले में मैं आसानी के साथ कर दिया चाहता हूं।”

इन दोनों आदमियों (दलीपशाह) को महाराज तथा और सभों ने भी ताज्जुब के साथ देखा मगर यह समझकर इंद्रदेव से किसी ने कुछ भी न पूछा कि जो कुछ है थोड़ी देर में मालूम हो ही जायगा, मगर जब दलीपशाह ऊपर लिखी बात बोलकर चुप हो गया तब महाराज ने भेद-भरी निगाहों से इंद्रजीतसिंह की तरफ देखा और कुमार ने झुककर धीरे-से कुछ कह दिया जिसे वीरेन्द्रसिंह तथा तेजसिंह ने भी सुना तथा इनके जरिए से हमारे और साथियों को भी मालूम हो गया कि कुमार ने क्या कहा।

दलीपशाह की बात सुनकर इंद्रदेव ने महाराज की तरफ देखा और हाथ जोड़कर कहा, ”इन्होंने (दलीपशाह ने) जो कुछ कहा वास्तव में ठीक है, मेरी समझ में अगर भूतनाथ का किस्सा इन्हीं की जबानी सुन लिया जाय तो कोई हर्ज नहीं है!” इसके जवाब में महाराज ने मंजूरी के लिए सिर हिला दिया।

इंद्र – (भूतनाथ की तरफ देख के) क्यों भूतनाथ, इसमें तुम्हें किसी तरह का उज्र है?

भूत – (महाराज की तरफ देखकर और हाथ जोड़कर) जो महाराज की मर्जी, मुझमें ‘नहीं’ करने की सामर्थ्य नहीं है। मुझे क्या खबर थी कि कसूर माफ हो जाने पर भी यह दिन देखना नसीब होगा। यद्यपि यह मैं खूब जानता हूं कि मेरा भेद अब किसी से छिपा नहीं रहा परंतु फिर भी अपनी भूल बार-बार कहने या सुनने से लज्जा बढ़ती ही है कम नहीं होती। खैर कोई चिंता नहीं, जैसे होगा वैसे अपने कलेजे को मजबूत करूंगा और दलीपशाह की कही हुई बातें सुनूंगा तथा देखूंगा कि ये महाशय कुछ झूठ का भी प्रयोग करते हैं या नहीं।

दलीप – नहीं-नहीं, भूतनाथ, मैं झूठ कदापि न बोलूंगा इससे तुम बेफिक्र रहो! (इंद्रदेव की तरफ देख के) अच्छा तो अब मैं प्रारंभ करता हूं।

दलीपशाह ने इस प्रकार कहना शुरू किया –

”महाराज, इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐयारी के फन में भूतनाथ परले सिरे का ओस्ताद और तेज आदमी है। अगर यह ऐयाशी के दरिया में गोते लगाकर अपने को बरबाद न कर दिया होता तो इसके मुकाबिले का ऐयार आज दुनिया में दिखाई न देता। मेरी सूरत देख के ये चौंकते और डरते हैं और इनका डरना वाजिब ही है मगर अब मैं इनके साथ किसी तरह का बुरा बर्ताव नहीं कर सकता क्योंकि मैं ऐसा करने के लिए दोनों कुमारों से प्रतिज्ञा कर चुका हूं, और इनकी आज्ञा मैं किसी तरह टाल नहीं सकता क्योंकि इन्हीं की बदौलत आज मैं दुनिया की हवा खा रहा हूं। (भूतनाथ की तरफ देख के) भूतनाथ, मैं वास्तव में दलीपशाह हूं, उस दिन तुमने मुझे नहीं पहचाना तो इसमें तुम्हारी आंखों का कोई कसूर नहीं है, कैद की सख्तियों के साथ-साथ जमाने ने मेरी सूरत ही बदल दी है। तुम तो अपने हिसाब से मुझे मार ही चुके थे और तुम्हें मुझसे मिलने की अभी उम्मीद भी न थी मगर सुन लो और देख लो कि ईश्वर की कृपा से मैं अभी तक जीता-जागता तुम्हारे सामने खड़ा हूं। यह कुंअर साहब के चरणों का प्रताप है। अगर मैं कैद न हो जाता तो तुमसे बदला लिए बिना कभी न रहता मगर तुम्हारी किस्मत अच्छी थी जो मैं कैद हो रह गया और छूटा भी तो कुंअर साहब के हाथ से जो तुम्हारे पक्षपाती हैं। तुम्हें इंद्रदेव से बुरा न मानना चाहिए और यह न सोचना चाहिए कि तुम्हें दुःख देने के लिए इंद्रदेव तुम्हारा पुराना पचड़ा खुलवा रहे हैं। तुम्हारा किस्सा तो सबको मालूम हो चुका है, इस समय ज्यों-का-त्यों चुपचाप रह जाने पर तुम्हारे चित्त को शांति नहीं मिल सकती और तुम हम लोगों की सूरत देख-देखकर दिन-रात तरद्दुद में पड़े रहोगे अस्तु तुम्हारे पिछले ऐबों को खोलकर इंद्रदेव तुम्हारे चित्त को शांति दिया चाहते हैं और तुम्हारे दुश्मनों को, जिनके साथ तुम ही ने बुराई की है, तुम्हारा दोस्त बना रहे हैं। ये यह भी चाहते हैं कि तुम्हारे साथ ही साथ हम लोगों का भेद भी खुल जाय और तुम जान जाओ कि हम लोगों ने तुम्हारा कसूर माफ कर दिया है क्योंकि अगर ऐसा न होगा तो जरूर तुम हम लोगों को मार डालने की फिक्र में पड़े रहोगे और हम लोग इस धोखे में रह जायेंगे कि हमने इनका कसूर तो माफ ही कर दिया अब ये हमारे साथ बुराई न करेंगे। (जीतसिंह की तरफ देख के) अब मैं मतलब की तरफ झुकता हूं और भूतनाथ का किस्सा बयान करता हूं।

जिस जमाने का हाल भूतनाथ बयान कर रहा है अर्थात् जिन दिनों भूतनाथ के मकान से दयाराम गायब हो गये थे उन दिनों यही नागर काशी के बाजार में वेश्या बनकर बैठी हुई अमीरों के लड़कों को चौपट कर रही थी। उसकी बढ़ी-चढ़ी खूबसूरती लोगों के लिए जहर हो रही थी और माल के साथ ही विशेष प्राप्ति के लिए यह लोगों की जान पर भी वार करती थी। यही दशा मनोरमा की भी थी परंतु उसकी बनिस्बत यह बहुत ज्यादा रुपए वाली होने पर भी नागर की-सी खूबसूरत न थी हां, चालाक जरूर ज्यादे थी। और लोगों की तरह भूतनाथ और दयाराम भी नागर के प्रेमी हो रहे थे। भूतनाथ को अपनी ऐयारी का घमंड था और नागर को अपनी चालाकी का। भूतनाथ नागर के दिल पर कब्जा किया चाहता था और नागर इसकी तथा दयाराम की दौलत अपने खजाने में मिलाना चाहती थी।

दयाराम की खोज में घर से शागिर्दों को साथ लिए हुए बाहर निकलते ही भूतनाथ ने काशी का रास्ता लिया और तेजी के साथ सफर करता हुआ नागर के मकान पर पहुंचा। नागर ने भूतनाथ की खातिरदारी और इज्जत की तथा कुशल-मंगल पूछने के बाद यकायक यहां आने का सबब भी पूछा।

भूतनाथ ने अपने आने का ठीक-ठीक सबब तो नहीं बताया मगर नागर समझ गई कि कुछ दाल में काला जरूर है। इस तरह भूतनाथ को भी इस बात का शक पैदा हो गया कि दयाराम की चोरी में नागर का कुछ लगाव जरूर है अथवा यह उन आदमियों को जरूर जानती है जिन्होंने दयाराम के साथ ऐसी दुश्मनी की है।

भूतनाथ का शक काशी ही वालों पर था इसलिए काशी में ही अड्डा बनाकर इधर-उधर घूमना और दयाराम का पता लगाना आरंभ किया। जैसे-जैसे दिन बीतता था भूतनाथ का शक भी नागर के ऊपर बढ़ता जाता था। सुनते हैं कि उसी जमाने में भूतनाथ ने एक औरत के साथ काशीजी में ही शादी भी कर ली थी जिससे कि नानक पैदा हुआ है। क्योंकि इस झमेले में भूतनाथ को बहुत दिनों तक काशी में रहना पड़ा था।

सच यह है कि कम्बख्त रंडियां रुपये के सिवाय और किसी की नहीं होतीं। जो दयाराम नागर को चाहता, मानता और दिल खोलकर रुपया देता था नागर उसी के खून की प्यासी हो गई क्योंकि ऐसा करने से उसे विशेष प्राप्ति की आशा थी। भूतनाथ ने यद्यपि अपने दिल का हाल नागर से बयान नहीं किया मगर नागर को विश्वास हो गया कि भूतनाथ को उस पर शक है और यह दयाराम ही की खोज में काशी आया हुआ है, अस्तु नागर ने अपना उचित प्रबंध करके काशी छोड़ दी और गुप्त रीति से जमानिया में जा बसी। भूतनाथ भी मिट्टी सूंघता हुआ उसकी खोज में जमानिया जा पहुंचा और एक भाड़े का मकान लेकर रहने लगा।

इस खोज-ढूंढ़ में वर्षों बीत गये मगर दयाराम का पता न लगा। भूतनाथ ने अपने मित्र इंद्रदेव से भी मदद मांगी और इंद्रदेव ने मदद दी भी मगर नतीजा कुछ भी न निकला। इंद्रदेव ही के कहने से मैं उन दिनों भूतनाथ का मददगार बन गया था।

इस किस्से के संबंध में रणधीरसिंह के रिश्तेदारों की तथा जमानिया, गयाजी और राजगृही इत्यादि की भी बहुत-सी बातें कही जा सकती हैं परंतु मैं उन सभों का बयान करना व्यर्थ समझता हूं और केवल भूतनाथ का ही किस्सा चुनकर बयान करता हूं जिससे कि खास मतलब है।

मैं कह चुका हूं कि दयाराम का पता लगाने के काम में उन दिनों मैं भी भूतनाथ का मददगार था, मगर अफसोस, भूतनाथ की किस्मत तो कुछ और ही कराया चाहती थी इसलिए हम लोगों की मेहनत का कोई अच्छा नतीजा न निकला बल्कि एक दिन जब मिलने के लिए मैं भूतनाथ के डेरे पर गया तो मुलाकात होने के साथ ही भूतनाथ ने आंखें बदलकर मुझसे कहा, ‘दलीपशाह, मैं तो तुम्हें बहुत अच्छा और नेक समझता था मगर तुम बहुत ही बुरे और दगाबाज निकले। मुझे ठीक-ठीक पता चल चुका है कि दयाराम का भेद तुम्हारे दिल के अंदर है और तुम हमारे दुश्मनों के मददगार और भेदिए हो तथा खूब जानते हो कि इस समय दयाराम कहां है। तुम्हारे लिए यही अच्छा है कि सीधी तरह उनका (दयाराम का) पता बता दो नहीं तो मैं तुम्हारे साथ बुरी तरह पेश आऊंगा और तुम्हारी मिट्टी पलीद करके छोड़ूंगा।’

महाराज, मैं नहीं कह सकता कि उस समय भूतनाथ की इन बेतुकी बातों को सुनकर कितना क्रोध चढ़ आया। मैं इसके पास बैठा भी नहीं और न इसकी बात का कुछ जवाब ही दिया, बस चुपचाप पिछले पैर लौटा और मकान के बाहर निकल आया। मेरा घोड़ा बाहर खड़ा था, मैं उस पर सवार होकर सीधे इंद्रदेव की तरफ चला गया। (इंद्रदेव की तरफ हाथ का इशारा करके) दूसरे दिन इनके पास पहुंचा और जो कुछ भी बीती थी इनसे कह सुनाया। इन्हें भी भूतनाथ की बातें बहुत ही बुरी मालूम हुईं और एक लंबी सांस लेकर ये मुझसे बोले, ‘मैं नहीं जानता कि इन दो-चार दिनों में भूतनाथ को कौन-सी नई बात मालूम हो गई और किस बुनियाद पर उसने तुम्हारे साथ ऐसा सलूक किया। खैर कोई चिंता नहीं, भूतनाथ अपनी इस बेवकूफी पर अफसोस करेगा और पछतावेगा, तुम इस बात का खयाल न करो और भूतनाथ से मिलना-जुलना छोड़कर दयाराम की खोज में लगे रहो, तुम्हारा एहसान रणधीरसिंह पर और मेरे ऊपर होगा।’

इंद्रदेव ने बहुत-कुछ कह-सुनकर मेरा क्रोध शांत किया और दो दिन तक मुझे अपने यहां मेहमान रखा। तीसरे दिन मैं इंद्रदेव से बिदा होने वाला ही था कि इनके एक शागिर्द ने आकर एक विचित्र खबर सुनाई। उसने कहा कि आज रात के बारह बजे के समय मिर्जापुर के एक जमींदार ‘राजसिंह’ के यहां दयाराम के होने का पता मुझे लगा है। खुद मेरे भाई ने यह खबर मुझे दी है। उसने यह भी कहा कि आजकल नागर भी उन्हीं के यहां है।

इंद्र – (शागिर्द से) वह खुद मेरे पास क्यों नहीं आया?

शागिर्द – वह आप ही के पास आ रहा था, मुझसे रास्ते में मुलाकात हुई और उसके पूछने पर मैंने कहा कि दयारामजी का पता लगाने के लिए मैं तैनात किया गया हूं। उसने जवाब दिया कि अब तुम्हारे जाने की कोई जरूरत न रही, मुझे उनका पता लग गया और यही खुशखबरी सुनाने के लिए मैं सरकार के पास जा रहा हूं, मगर अब तुम मिल गये हो तो मेरे जाने की कोई जरूरत नहीं, जो कुछ मैं कहता हूं तुम जाकर उन्हें सुना दो और मदद लेकर बहुत जल्द मेरे पास आओ। मैं उसी जगह जाता हूं, कहीं ऐसा न हो कि दयारामजी वहां से निकालकर किसी दूसरी जगह न पहुंचा दिए जायं और हम लोगों को पता न लगे, मैं जाकर इस बात का ध्यान रखूंगा। इसके बाद उसने सब कैफियत बयान की और अपने मिलने का समय बताया।

इंद्र – ठीक है, उसने जो कुछ किया बहुत अच्छा किया, अब उसे मदद पहुंचाने का बंदोबस्त करना चाहिए।

शागिर्द – यदि आज्ञा हो तो भूतनाथ को भी इस बात की इत्तिला दे दी जाय?

इंद्र – कोई जरूरत नहीं, अब तुम जाकर कुछ आराम करो, तीन घंटे बाद फिर तुम्हें सफर करना होगा।

इसके बाद इंद्रदेव का शागिर्द जब अपने डेरे पर चला गया तब मुझसे और इंद्रदेव से बातचीत होने लगी। इंद्रदेव ने मुझसे मदद मांगी और मुझे मिर्जापुर जाने के लिए कहा, मगर मैंने इनकार किया और कहा कि अब मैं न तो भूतनाथ का मुंह देखूंगा और न उसके किसी काम में शरीक ही होऊंगा। इसके जवाब में इंद्रदेव ने मुझे पुनः समझाया और कहा कि यह काम भूतनाथ का नहीं है, मैं कह चुका हूं कि इसका एहसान मुझ पर और रणधीरसिंहजी पर होगा।

इसी तरह की बहुत-सी बातें हुईं, लाचार मुझे इंद्रदेव की बात माननी पड़ी और कई घंटे के बाद इंद्रदेव के उसी शागिर्द ‘शंभू’ को साथ लिए हुए मैं मिर्जापुर की तरफ रवाना हुआ। दूसरे दिन हम लोग मिर्जापुर जा पहुंचे और बताये हुए ठिकाने पर पहुंचकर शंभू के भाई से मुलाकात की। दरियाफ्त करने पर मालूम हुआ कि दयाराम अभी तक मिर्जापुर की सरहद के बाहर नहीं गये हैं, अस्तु जो कुछ हम लोगों को करना था आपस में तै करने के बाद, सूरत बदलकर बाहर निकले।

दयाराम को ढूंढ़ निकालने के लिए हमने कैसी-कैसी मेहनत की और हम लोगों को किस-किस तरह की तकलीफें उठानी पड़ीं इसका बयान करना किस्से को व्यर्थ तूल देना और अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना है। महाराज के (आपके) नामी ऐयारों ने जैसे-जैसे अनूठे काम किए हैं उनके सामने हमारी ऐयारी कुछ भी नहीं है अतएव केवल इतना ही कहना काफी है कि हम लोगों ने अपनी हिम्मत से बढ़कर काम किया और हद दर्जे की तकलीफ उठाकर दयारामजी को ढूंढ़ निकाला। केवल दयाराम को नहीं बल्कि उनके साथ ही साथ ‘राजसिंह’ को भी गिरफ्तार करके हम लोग अपने ठिकाने पर ले आये, मगर अफसोस! हम लोगों की सब मेहनत पर भूतनाथ ने पानी ही नहीं फेर दिया बल्कि जन्म-भर के लिए अपने माथे पर कलंक का टीका भी लगाया।

कैद की सख्ती उठाने के कारण दयारामजी बहुत ही कमजोर और बीमार हो रहे थे, उनमें बात करने की भी ताकत न थी इसलिए हम लोगों ने उसी समय उन्हें उठाकर इंद्रदेव के पास ले जाना मुनासिब न समझा और दो-तीन दिन तक आराम देने की नीयत से अपने गुप्त स्थान पर जहां हम लोग टिके हुए थे ले गये। जहां तक हो सका नरम बिछावन का इंतजाम करके उस पर उन्हें लिटा दिया और उनके शरीर में ताकत लाने का बंदोबस्त करने लगे। इस बात का भी निश्चय कर लिया कि जब तक इनकी तबीयत ठीक न हो जायगी इनसे कैद किये जाने का सबब तक न पूछेंगे।

दयारामजी के आराम का इंतजाम करने के बाद हम लोगों ने अपने-अपने हरबे खोलकर उनकी चारपाई के नीचे रख दिये, कपड़े उतारे और बातचीत करने तथा दुश्मनी का सबब जानने के लिए राजसिंह को होश में लाये और उसकी मुश्कें खोलकर बातचीत करने लगे क्योंकि उस समय इस बात का डर हम लोगों को कुछ भी न था कि वह हम पर हमला करेगा या हम लोगों का कुछ बिगाड़ सकेगा।

जिस मकान में हम लोग टिके हुए थे वह बहुत ही एकांत और उजाड़ मुहल्ले में था। रात का समय था और मकान की तीसरी मंजिल पर हम लोग बैठे हुए थे, एक मद्धिम चिराग आले पर जल रहा था। दयारामजी का पलंग हम लोगों के पीछे की तरफ था। और राजसिंह पीछे की तरफ सामने बैठा हुआ ताज्जुब के साथ हम लोगों का मुंह देख रहा था। उसी समय यकायक कई-कई धमाके की आवाज आई और उसके कुछ ही देर बाद भूतनाथ तथा उसके दो साथियों को हम लोगों ने अपने सामने खड़ा देखा। सामना होने के साथ ही भूतनाथ ने मुझसे कहा, ‘क्यों बे शैतान के बच्चे, आखिर मेरी बात ठीक निकली न! तूने ही राजसिंह के साथ मेल करके हमारे साथ दुश्मनी पैदा की! खैर ले अपने किए का फल चख!!’

इतना कहकर भूतनाथ ने मेरे ऊपर खंजर का वार किया जिसे बड़ी खूबी के साथ मेरे साथी ने रोका। मैं भी उठकर खड़ा हो गया और भूतनाथ के साथ लड़ाई होने लगी। भूतनाथ ने एक ही हाथ में राजसिंह का काम तमाम कर दिया और थोड़ी ही देर में मुझे भी खूब जख्मी किया, यहां तक कि मैं जमीन पर गिर पड़ा और मेरे दोनों साथी भी बेकार हो गये। उस समय दयारामजी को जो पड़े-पड़े सब तमाशा देख रहे थे जोश चढ़ आया और चारपाई पर से उठकर खाली हाथ भूतनाथ के सामने आ खड़े हुए, कुछ बोला ही चाहते थे कि भूतनाथ के हाथ का खंजर उनके कलेजे के पार हो गया और वे बेदम होकर जमीन पर गिर पड़े।

बयान – 4

मैं नहीं कह सकता कि भूतनाथ ने ऐसा क्यों किया! भूतनाथ का कौल तो यही है कि मैंने उनको पहचाना नहीं, और धोखा हुआ। खैर जो हो, दयाराम के गिरते ही मेरे मुंह से ‘हाय’ की आवाज निकली और मैंने भूतनाथ से कहा, ‘ऐ कम्बख्त! तैंने बेचारे दयाराम को क्यों मार डाला जिन्हें बड़ी मुश्किल से हम लोगों ने खोज निकाला था!!’

मेरी बात सुनते ही भूतनाथ सन्नाटे में आ गया। इसके बाद उसके दोनों साथी तो न मालूम क्या सोचकर एकदम भाग खड़े हुए मगर भूतनाथ बड़ी बेचैनी से दयाराम के पास बैठकर उनका मुंह देखने लगा। उस समय भूतनाथ के देखते ही देखते उन्होंने आखिरी हिचकी ली और दम तोड़ दिया। भूतनाथ उनकी लाश के साथ चिमटकर रोने लगा और बड़ी देर तक रोता रहा। तब तक हम तीनों आदमी पुनः मुकाबला करने लायक हो गये और इस बात से हम लोगों का साहस और भी बढ़ गया कि भूतनाथ के दोनों साथी उसे अकेला छोड़कर भाग गये थे। मैंने मुश्किल से भूतनाथ को अलग किया और कहा, ‘अब रोने और नखरा करने से फायदा ही क्या होगा, उनके साथ ऐसी ही मुहब्बत थी तो उन पर वार न करना था, अब उन्हें मारकर औरतों की तरह नखरा करने बैठे हो!’

इतना सुनकर भूतनाथ ने अपनी आंखें पोंछीं और मेरी तरफ देख के कहा, ‘क्या मैंने जान-बूझकर इन्हें मार डाला है?

मैं – बेशक! क्या यहां आने के साथ ही तुमने उन्हें चारपाई पर पड़े हुए नहीं देखा था?

भूत – देखा था, मगर मैं नहीं जानता था कि ये दयाराम हैं। इतने मोटे-ताजे आदमी को यकायक ऐसा दुबला-पतला देखकर मैं कैसे पहचान सकता था?

मैं – क्या खूब, ऐसे ही तो तुम अंधे थे खैर इसका इंसाफ तो रणधीरसिंह के सामने ही होगा, इस समय तुम हमसे फैसला कर लो क्योंकि अभी तक तुम्हारे दिल में लड़ाई का हौसला जरूर बना होगा।

भूत – (अपने को संभालकर और मुंह पोंछकर) नहीं-नहीं, मुझे अब लड़ने का हौसला नहीं है, जिसके वास्ते मैं लड़ता था जब वही नहीं रहा तो अब क्या मुझे ठीक पता लग चुका था कि दयाराम तुम्हारे फेर में पड़े हुए हैं और सो अपनी आंखों से देख भी लिया, मगर अफसोस है कि मैंने पहचाना नहीं और ये इस तरह धोखे में मारे गये, लेकिन इसका कसूर भी तुम्हारे ही सिर पर लग सकता है।

मैं – खैर अगर तुम्हारे किए हो सके तो तुम बिल्कुल कसूर मेरे ही सिर थोप देना, मैं अपनी सफाई आप कर लूंगा, मगर इतना समझ रखो कि लाख कोशिश करने पर भी तुम अपने को बचा नहीं सकते क्योंकि मैंने इन्हें खोज निकालने में जो कुछ मेहनत की थी वह इंद्रदेवजी के कहने से की थी, न तो मैं अपनी प्रशंसा कराना चाहता था और न इनाम ही लेना चाहता था। जरूरत पड़ने पर मैं इंद्रदेव की गवाही दिला सकता हूं और तुम अपने को बेकसूर साबित करने के लिए नागर को पेश कर देना, जिसके कहने और सिखाने में तुमने मेरे साथ दुश्मनी पैदा कर ली।

इतना सुनकर भूतनाथ सन्नाटे में आ गया। सिर झुकाकर देर तक सोचता रहा और इसके बाद लंबी सांस लेकर उसने मेरी तरफ देखा और कहा, ‘बेशक मुझे नागर कम्बख्त ने धोखा दिया! अब मुझे भी इन्हीं के साथ मर मिटना चाहिए!’ इतना कहकर भूतनाथ ने खंजर हाथ में ले लिया मगर कर कुछ न सका अर्थात् अपनी जान न दे सका।

महाराज, जवांमर्दों का कहना बहुत ठीक है कि बहादुरों को अपनी जान प्यारी नहीं होती। वास्तव में जिसे अपनी जान प्यारी होती है वह कोई हौसले का काम नहीं कर सकता और जो अपनी जान हथेली पर लिए रहता है और समझता है कि दुनिया में मरना एक बार ही है कोई बार-बार नहीं मरता, वही सब-कुछ कर सकता है। भूतनाथ के बहादुर होने में संदेह नहीं परंतु इसे अपनी जान प्यारी जरूर थी और इस उल्टी बात का सबब यही था कि वह ऐयाशी के नशे में चूर था। जो आदमी ऐयाश होता है उसमें ऐयाशी के सबब कई तरह की बुराइयां आ जाती हैं और बुराइयों की बुनियाद जम जाने के कारण ही उसे अपनी जान प्यारी हो जाती है तथा वह कोई भारी काम नहीं कर सकता। यही सबब था कि उस समय भूतनाथ जान न दे सका, बल्कि उसकी हिफाजत करने का ढंग जमाने लगा, नहीं तो उस समय मौका ऐसा ही था, इससे जैसी भूल हो गई थी उसका बदला तभी पूरा होता जब यह भी उसी जगह अपनी जान दे देता और उस मकान से तीनों लाशें एक साथ निकाली जातीं।

भूतनाथ ने कुछ देर तक सोचने के बाद मुझसे कहा – ‘मुझे इस समय अपनी जान भारी हो रही है और मैं मर जाने के लिए तैयार हूं मगर मैं देखता हूं कि ऐसा करने से भी किसी को फायदा नहीं पहुंचेगा। मैं जिसका नमक खा चुका हूं और खाता हूं उसका और भी नुकसान होगा क्योंकि इस समय वह दुश्मनों से घिरा हुआ है। अगर मैं जीता रहूंगा तो उनके दुश्मनों का नामोनिशान मिटाकर उन्हें बेफिक्र कर सकूंगा, अतएव मैं माफी मांगता हूं कि तुम मेहरबानी कर मुझे सिर्फ दो साल के लिए जीता छोड़ दो।’

मैं – दो वर्ष के लिए क्या जिंदगी भर के लिए तुम्हें छोड़ देता हूं, जब तुम मुझसे लड़ना नहीं चाहते तो मैं क्यों तुम्हें मारने लगा बाकी रही यह बात कि तुमने खामखाह मुझसे दुश्मनी पैदा कर ली है सो उसका नतीजा तुम्हें आप से आप मिल जायगा जब लोगों को यह मालूम होगा कि भूतनाथ के हाथ से बेचारा दयाराम मारा गया।

भूत – नहीं-नहीं, मेरा मतलब तुम्हारी पहली बात से नहीं बल्कि दूसरी बात से है अर्थात् अगर तुम चाहोगे तो लोगों को इस बात का पता ही नहीं लगेगा कि दयाराम भूतनाथ के हाथ से मारा गया।

मैं – यह क्योंकर छिप सकता है?

भूत – अगर तुम छिपाओ तो सब-कुछ छिप जायगा।

मुख्तसर यह कि धीरे-धीरे बातों को बढ़ाता हुआ भूतनाथ मेरे पैरों पर गिर पड़ा और बड़ी खुशामद के साथ कहने लगा कि तुम इस मामले को छिपाकर मेरी जान बचा लो। केवल इतना ही नहीं, इसने मुझे हर तरह के सब्जबाग दिखाए और कसमें दे-देकर मेरी नाक में दम कर दिया। लालच में तो मैं नहीं पड़ा मगर पिछली मुरौवत के फेर में जरूर पड़ गया और भेद को छिपाये रखने की कसम खाकर अपने साथियों को साथ लिए हुए मैं उस घर के बाहर निकल गया। भूतनाथ और दोनों लाशों को उसी तरह छोड़ दिया, फिर मुझे मालूम नहीं कि भूतनाथ ने उन लाशों के साथ क्या बर्ताव किया।”

यहां तक भूतनाथ का हाल कहकर कुछ देर के लिए दलीपशाह चुप हो गया और उसने इस नीयत से भूतनाथ की तरफ देखा कि देखें यह कुछ बोलता है या नहीं। इस समय भूतनाथ की आंखों से आंसू की नदी बह रही थी। वह हिचकियां ले-लेकर रो रहा था। बड़ी मुश्किल से भूतनाथ ने अपने दिल को सम्हाला और दुपट्टे से मुंह पोंछकर कहा, ”ठीक है, ठीक है, जो कुछ दलीपशाह ने कहा सब सच है। मगर यह बात मैं कसम खाकर कह सकता हूं कि मैंने जान-बूझकर दयाराम को नहीं मारा। वहां राजसिंह को खुले हुए देखकर मेरा शक यकीन के साथ बदल गया और चारपाई पर पड़े हुए देखकर भी मैंने दयाराम को नहीं पहचाना, मैंने समझा कि यह भी कोई दलीपशाह का साथी होगा। बेशक दलीपशाह पर मेरा शक मजबूत हो गया था और मैं समझ बैठा था कि जिन लोगों ने दयाराम के साथ दुश्मनी की है, दलीपशाह जरूर उनका साथी है। यह शक यहां तक मजबूत हो गया था कि दयाराम के मारे जाने पर भी दलीपशाह की तरफ से मेरा दिल साफ न हुआ बल्कि मैंने समझा कि इसी (दलीपशाह) ने दयाराम को वहां लाकर कैद किया था। जिस नागर पर मुझे शक हुआ था उसी कम्बख्त की जादू भरी बातों में मैं फंस गया और उसी ने मुझे विश्वास दिला दिया कि इसका कर्ताधर्ता दलीपशाह है। यही सबब है कि इतना हो जाने पर भी मैं दलीपशाह का दुश्मन बना ही रहा। हां दलीपशाह ने एक बात नहीं कही, वह यह है कि इस भेद को छिपाये रखने की कसम खाकर भी दलीपशाह ने मुझे सूखा नहीं छोड़ा। इन्होंने कहा कि तुम कागज पर लिखकर माफी मांगो तब मैं तुम्हें माफ करके यह भेद छिपाये रखने की कसम खा सकता हूं। लाचार होकर मुझे ऐसा करना पड़ा और मैं माफी के लिए चिट्ठी लिख हमेशा के लिए इनके हाथ में फंस गया।

दलीप – बेशक यही बात है, और मैं अगर ऐसा न करता तो थोड़े ही दिन बाद भूतनाथ मुझे दोषी ठहराकर आप सच्चा बन जाता। खैर अब मैं इसके आगे का हाल बयान करता हूं जिसमें थोड़ा – सा हाल तो ऐसा होगा जो मुझे खास भूतनाथ से मालूम हुआ था।

इतना कहकर दलीपशाह ने फिर अपना बयान शुरू किया –

दलीप – जैसा कि भूतनाथ कह चुका है बहुत मिन्नत और खुशामद से लाचार होकर मैंने कसूरवार होने और माफी मांगने की चिट्ठी लिखाकर इसे छोड़ दिया और इसका ऐब छिपा रखने का वादा करके अपने साथियों को साथ लिए उस घर से बाहर निकल गया और भूतनाथ की इच्छानुसार दयाराम की लाश को और भूतनाथ को उसी मकान में छोड़ दिया। फिर मुझे नहीं मालूम कि क्या हुआ और इसने लाश के साथ कैसा बर्ताव किया।

वहां से बाहर होकर मैं इंद्रदेव की तरफ रवाना हुआ मगर रास्ते भर सोचता जाता था कि अब क्या करना चाहिए, दयाराम का सच्चा-सच्चा हाल इंद्रदेव से बयान करना चाहिए या नहीं। आखिर हम लोगों ने निश्चय कर लिया कि जब भूतनाथ से वादा कर ही चुके हैं तो इस भेद को इंद्रदेव से भी छिपा ही रखना चाहिए।

जब हम लोग इंद्रदेव के मकान में पहुंचे तो उन्होंने कुशल-मंगल पूछने के बाद दयाराम का हाल दरियाफ्त किया जिसके जवाब में मैंने असल मामले को तो छिपा रखा और बात बनाकर यों कह दिया-जो कुछ मैंने या आपने सुना था वह ठीक ही निकला अर्थात् राजसिंह ही ने दयाराम के साथ वह सलूक किया और दयाराम राजसिंह के घर में ही मौजूद थे मगर अफसोस, बेचारे दयाराम को हम लोग छुड़ा न सके और वे जान से मारे गये!

इंद्र – (चौंककर) हैं! जान से मारे गये!!

मैं – जी हां और इस बात की खबर भूतनाथ को भी लग चुकी थी। मेरे पहले ही भूतनाथ राजसिंह के उस मकान में जिसमें दयाराम को कैद कर रखा था पहुंच गया और उसने अपने सामने दयाराम की लाश देखी जिसे कुछ ही देर पहले राजसिंह ने मार डाला था अस्तु भूतनाथ ने उसी समय राजसिंह का सिर काट डाला। सिवाय इसके वह और कर ही क्या सकता था! इसके थोड़ी ही देर बाद हम लोग भी उस घर में जा पहुंचे और दयाराम तथा राजसिंह की लाश और भूतनाथ को मौजूद पाया। दरियाफ्त करने पर भूतनाथ ने सब हाल बयान किया और अफसोस करते हुए हम लोग वहां से रवाना हुए।

इंद्र – अफसोस! बहुत बुरा हुआ! खैर ईश्वर की मर्जी!

मैंने भूतनाथ के ऐब को छिपाकर जो कुछ इंद्रदेव से कहा भूतनाथ की इच्छानुसार ही कहा था। भूतनाथ ने भी यही बात मशहूर की और इस तरह अपने ऐब को छिपा रखा।

यहां तक भूतनाथ का किस्सा कहकर जब दलीपशाह कुछ देर के लिए चुप हो गया तब तेजसिंह ने उससे पूछा, ”तुमने तो भला भूतनाथ की बात मानकर उससे मामले को छिपा रखा मगर शंभू वगैरह इंद्रदेव के शागिर्दों ने अपने मालिक से उस भेद को क्यों छिपाया?’

दलीप – (एक लंबी सांस लेकर) खुशामद और रुपया बड़ी चीज है, बस इसी से समझ जाइए और मैं क्या कहूं?

तेज – ठीक है, अच्छा तब क्या हुआ भूतनाथ की कथा इतनी ही है या और भी कुछ?

दलीप – जी अभी भूतनाथ की कथा समाप्त नहीं हुई, अभी मुझे बहुत-कुछ कहना बाकी है। और बातों के सिवाय भूतनाथ से एक कसूर ऐसा हुआ है जिसका रंज भूतनाथ को इससे भी ज्यादा होगा।

तेज – सो क्या?

दलीप – सो भी मैं अर्ज करता हूं।

इतना कहकर दलीपशाह ने फिर कहना शुरू किया –

इस मामले को वर्षों बीत गये। मैं भूतनाथ की तरफ से कुछ दिनों तक बेफिक्र रहा मगर जब यह मालूम हुआ कि भूतनाथ मेरी तरफ से निश्चिंत नहीं है बल्कि मुझे इस दुनिया से उठा बेफिक्र हुआ चाहता है तो मैं भी होशियार हो गया और दिन-रात अपने बचाव की फिक्र में डूबा रहने लगा। (भूतनाथ की तरफ देखकर) भूतनाथ, अब मैं वह हाल बयान करूंगा जिसकी तरफ उस दिन मैंने इशारा किया था जब तुम हमें गिरफ्तार करके एक विचित्र पहाड़ी स्थान में ले गये थे और जिसके विषय में तुमने कहा था – ‘यद्यपि मैंने दलीपशाह की सूरत नहीं देखी है’1इत्यादि। मगर क्या तुम इस समय…।

भूतनाथ – (बात काटकर) भला मैं कैसे कह सकता हूं कि मैंने दलीपशाह की सूरत नहीं

1देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, बीसवां भाग, बारहवां बयान।

देखी है जिसके साथ ऐसे मामले हो चुके हैं, मगर उस दिन मैंने तुम्हें धोखा देने के लिए वे शब्द कहे थे क्योंकि मैंने तुम्हें पहचाना नहीं था। इस कहने से मेरा मतलब यही था कि अगर तुम दलीपशाह न होगे तो कुछ न कुछ जरूर बात बनाओगे। खैर जो कुछ हुआ सो हुआ मगर क्या तुम वास्तव में अब उस किस्से को बयान करने वाले हो?

दलीप – हां मैं उसे जरूर बयान करूंगा।

भूत – मगर उसके सुनने से किसी को कुछ फायदा नहीं पहुंच सकता है और न किसी तरह की नसीहत ही हो सकती है। वह तो महज मेरी नादानी और पागलपने की बात थी, जहां तक मैं समझता हूं उसे छोड़ देने से कोई हर्ज नहीं होगा।

दलीप – नहीं। उसका बयान जरूरी जान पड़ता है, क्या तुम नहीं जानते या भूल गये कि उसी किस्से को सुनने के लिए कमला की मां अर्थात् तुम्हारी स्त्री यहां आई हुई है?

भूत – ठीक है मगर हाय! मैं सच्चा बदनसीब हूं जो इतना होने पर भी उन्हीं बातों को…।

इंद्र – अच्छा-अच्छा, जाने दो भूतनाथ! अगर तुम्हें इस बात का शक है कि दलीपशाह बातें बनाकर कहेगा या उसके कहने का ढंग लोगों पर बुरा असर डालेगा तो मैं दलीपशाह को वह हाल कहने से रोक दूंगा और तुम्हारे ही हाथ की लिखी हुई तुम्हारी अपनी जीवनी पढ़ने के लिए किसी को दूंगा जो इस संदूकड़ी में बंद है।

इतना कहकर इंद्रदेव ने वही संदूकड़ी निकाली जिसकी सूरत देखने से ही भूतनाथ का कलेजा कांपता था।

उस संदूकड़ी को देखते ही एक दफे तो भूतनाथ घबड़ाना-सा होकर कांपा मगर तुरंत ही उसने अपने को सम्हाल लिया और इंद्रदेव की तरफ देख के बोला, ”हां-हां, आप कृपा कर इस संदूकड़ी को मेरी तरफ बढ़ाइये क्योंकि यह मेरी चीज है और मैं इसे लेने का हक रखता हूं। यद्यपि कई ऐसे कारण हो गये हैं जिनसे आप कहेंगे कि यह संदूकड़ी तुम्हें नहीं दी जायगी मगर फिर भी मैं इसी समय इस पर कब्जा कर सकता हूं क्योंकि देवीसिंहजी मुझसे प्रतिज्ञा कर चुके हैं कि संदूकड़ी बंद की बंद तुम्हें दिला दूंगा। अस्तु देवीसिंह की प्रतिज्ञा झूठ नहीं हो सकती।” इतना कहकर भूतनाथ ने देवीसिंह की तरफ देखा।

देवी – (महाराजा) निःसंदेह मैं ऐसी प्रतिज्ञा कर चुका हूं।

महा – अगर ऐसा है तो तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी नहीं हो सकती, मैं आज्ञा देता हूं कि तुम अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।

इतना सुनते ही देवीसिंह उठ खड़े हुए। उन्होंने इंद्रदेव के सामने से वह संदूकड़ी उठा ली और यह कहते हुए भूतनाथ के हाथ में दे दी, ”लो मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करता हूं, तुम महाराज को सलाम करो जिन्होंने मेरी और तुम्हारी इज्जत रख ली।”

भूत – (महाराज को सलाम करके) महाराज की कृपा से अब मैं जी उठा।

तेज – भूतनाथ, तुम यह निश्चय जानो कि यह संदूकड़ी अभी तक खोली नहीं गई है, अगर सहज में खुलने लायक होती तो शायद खुल गई होती।

भूत – (संदूकड़ी अच्छी तरह देख-भालकर) बेशक यह अभी तक खुली नहीं है! मेरे सिवाय कोई दूसरा आदमी इसे बिना तोड़े खोल भी नहीं सकता। यह संदूकड़ी मेरी बुराइयों से भरी हुई है, या यों कहिए कि यह मेरे भेदों का खजाना है, यद्यपि इसमें के कई भेद खुल चुके हैं, खुल रहे हैं और खुलते जायेंगे, तथापि इस समय इसे ज्यों-का-त्यों बंद पाकर मैं बराबर महाराज को दुआ देता हुआ यही कहूंगा कि मैं जी उठा, जी उठा! अब मैं खुशी से अपनी जीवनी कहने और सुनने के लिए तैयार हूं और साथ ही इसके यह भी कह देता हूं कि अपनी जीवनी के संबंध में जो कुछ कहूंगा सच कहूंगा!

इतना कहकर भूतनाथ ने वह संदूकड़ी अपने बटुए में रख ली और पुनः हाथ जोड़कर महाराज से बोला, ”महाराज, मैं वादा कर चुका हूं कि अपना हाल सच-सच बयान करूंगा, परंतु मेरा हाल बहुत बड़ा और शोक, दुःख तथा भयंकर घटनाओं से भरा हुआ है। मेरे प्यारे मित्र इंद्रदेवजी, जिन्होंने मेरे अपराधों को क्षमा कर दिया है, कहते हैं कि तेरी जीवनी से लोगों का उपकार होगा और वास्तव में बात भी ठीक ही है। अतएव कई कठिनाइयों पर ध्यान देकर मैं विनयपूर्वक महाराज से एक महीने की मोहलत मांगता हूं। इस बीच मैं अपना पूरा-पूरा हाल लिखकर पुस्तक के रूप में महाराज के सामने पेश करूंगा और संभव है कि महाराज उसे सुन-सुनाकर यादगार की तौर पर अपने खजाने में रखने की आज्ञा देंगे! इस एक महीने के बीच में मुझे भी सब बातें याद करके लिख लेने का मौका मिलेगा और मैं अपनी निर्दोष स्त्री तथा उन लोगों से जिन्हें देखने की भी आशा नहीं थी परंतु जो बहुत-कुछ दुःख भोगकर भी दोनों कुमारों की बदौलत इस समय यहां आ गये हैं और जिन्हें मैं अपना दुश्मन समझता था मगर अब महाराज की कृपा से जिन्होंने मेरे कसूरों को माफ कर दिया है मिल-जुलकर कई बातों का पता भी लगा लूंगा जिससे मेरा किस्सा सिलसिलेवार और ठीक कायदे से हो जायगा।”

इतना कहकर भूतनाथ ने इंद्रदेव, राजा गोपालसिंह, दोनों कुमारों और दलीपशाह वगैरह की तरफ देखा और तुरंत ही मालूम कर लिया कि उसकी अर्जी कबूल कर ली जायेगी।

महाराज ने कहा, ”कोई चिंता नहीं, तब तक हम लोग कई जरूरी कामों से छुट्टी पा लेंगे।” राजा गोपालसिंह और इंद्रदेव ने भी इस बात को पसंद किया और इसके बाद इंद्रदेव ने दलीपशाह की तरफ देखकर पूछा, ”क्यों दलीपशाह, इसमें तुम लोगों को तो कोई उज्र नहीं है?’

दलीप – (हाथ जोड़कर) कुछ भी नहीं, क्योंकि अब महाराज की आज्ञानुसार हम लोगों को भूतनाथ से किसी तरह की दुश्मनी भी नहीं रही और न यही उम्मीद है कि भूतनाथ हमारे साथ किसी तरह की खुटाई करेगा, परंतु मैं इतना जरूर कहूंगा कि हम लोगों का किस्सा भी महाराज के सुनने लायक है और हम भूतनाथ के बाद अपना किस्सा भी सुनाना चाहते हैं।

महाराज – निःसंदेह तुम लोगों का किस्सा भी सुनने योग्य होगा और हम लोग उसको सुनने की अभिलाषा रखते हैं, यदि संभव हुआ तो पहले तुम्हीं लोगों का किस्सा सुनने में आवेगा। मगर सुनो दलीपशाह, यद्यपि भूतनाथ से बड़ी-बड़ी बुराइयां हो चुकी हैं और भूतनाथ तुम लोगों का भी कसूरवार है परंतु इधर हम लोगों के साथ भूतनाथ ने जो कुछ किया है उसके लिए हम लोग इसके अहसानमंद हैं और इसे अपना हितू समझते हैं।

इंद्र – बेशक-बेशक!

गोपाल – जरूर हम लोग इसके एहसान के बोझ से दबे हुए हैं।

दलीप – मैं भी ऐसा ही समझता हूं क्योंकि भूतनाथ ने इधर जो-जो अनूठे काम किये हैं उनका हाल कुंअर साहब की जुबानी हम लोग सुन चुके हैं। इसी खयाल से तथा कुंअर साहब की आज्ञा से हम लोगों ने सच्चे दिल से भूतनाथ का अपराध क्षमा ही नहीं कर दिया बल्कि कुंअर साहब के सामने इस बात की प्रतिज्ञा भी कर चुके हैं कि भूतनाथ को दुश्मनी की निगाह से कभी न देखेंगे।

महाराज – बेशक ऐसा ही होना चाहिए, अस्तु बहुत-सी बातों को सोचकर और इसकी कारगुजारी पर ध्यान देकर हमने इसका कसूर माफ करके इसे अपना ऐयार बना लिया है, आशा हे कि तुम लोग भी इसे अपनायत की निगाह से देखोगे और पिछली बातों को भूल जाओगे।

दलीप – महाराज अपनी आज्ञा के विरुद्ध चलते हुए हम लोगों को कदापि न देखेंगे यह हमारी प्रतिज्ञा है।

महाराज – (अर्जुनसिंह तथा दलीपशाह के दूसरे साथी की तरफ देखकर) तुम लोगों की जुबान से भी हम ऐसा ही सुना चाहते हैं।

दलीप का एक साथी – मेरी भी यही प्रतिज्ञा है और ईश्वर से प्रार्थना है कि मेरे दिल में दुश्मनी के बदले दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्की करने वाली भूतनाथ की मुहब्बत पैदा करे।

महाराज – शाबाश! शाबाश!!

अर्जुन – कुंअर साहब के सामने मैं जो कुछ प्रतिज्ञा कर चुका हूं उसे महाराज सुन चुके होंगे, इस समय महाराज के सामने भी शपथ खाकर कहता हूं कि स्वप्न में भी भूतनाथ के साथ दुश्मनी का ध्यान आने पर मैं अपने को दोषी समझूंगा।

इतना कहकर अर्जुनसिंह ने वह तस्वीर जो उसके हाथ में थी फाड़ डाली और टुकड़े-टुकड़े करके भूतनाथ के आगे फेंक दी और पुनः महाराज की तरफ देखकर कहा, ”यदि आज्ञा हो और बेअदबी न समझी जाय तो हम लोग इसी समय भूतनाथ से गले मिलकर अपने उदास दिल को प्रसन्न कर लें।”

महाराज – यह तो हम स्वयम् कहने वाले थे।

इतना सुनते ही दोनों दलीप, अर्जुन और भूतनाथ आपस में गले मिले और इसके बाद महाराज का इशारा पाकर एक साथ बैठ गये।

भूत – (दूसरे दलीप और अर्जुनसिंह की तरफ देखकर) अब कृपा करके मेरे दिल का खुटका मिटाओ और साफ-साफ बता दो कि तुम दोनों में से असल में अर्जुनसिंह कौन है जब मैं दलीपशाह को बेहोश करके उस घाटी में ले गया था।1 तब तुम दोनों में से कौन महाशय वहां पहुंचकर दूसरे दलीपशाह बनने को तैयार हुए थे

दूसरा दलीप – (हंसकर) उस दिन मैं ही तुम्हारे पास पहुंचा था। इत्तिफाक से उस दिन मैं अर्जुनसिंह की सूरत बनाकर बाहर घूम रहा था और जब तुम दलीपशाह को धोखा देकर ले चले तब मैंने छिपकर पीछा किया था। आज केवल धोखा देने के लिए ही अर्जुनसिंह के रहते मैं अर्जुनसिंह बनकर दलीपशाह के साथ यहां आया हूं।

इतना कहकर दूसरे दलीप ने पास से गीला गमछा उठाया और अपने चेहरे का रंग पोंछ डाला जो उसने थोड़ी देर के लिए बनाया या लगाया था।

चेहरा साफ होते ही उसकी सूरत ने राजा गोपालसिंह को चौंका दिया और वह यह कहते हुए उसके पास चले गये कि ”क्या आप भरतसिंह हैं जिनके विषय में इंद्रजीतसिंह ने हमें नकाबपोश बनकर इत्तिला दी थी’2 और इसके जवाब में ”जी हां” सुनकर वे भरतसिंह के गले से चिमट गये। इसके बाद उनका हाथ थामे हुए गोपालसिंह अपनी जगह पर चले आये और भरतसिंह को अपने पास बैठाकर महाराज से बोले, ”इनके मिलने की मुझे हद से ज्यादे खुशी हुई, बहुत देर से मैं चाहता था कि इनके विषय में कुछ पूछूं!”

महाराज – मालूम होता है इन्हें भी दारोगा ही ने अपना शिकार बनाया था।

भरत – जी हां, आज्ञा होने पर मैं अपना हाल बयान करूंगा।

इंद्रजीत – (महाराज से) तिलिस्म के अंदर मुझे पांच कैदी मिले थे जिनमें से तीन तो यही अर्जुनसिंह, भरतसिंह और दलीपशाह हैं, इसके अतिरिक्त दो और हैं जो यहां बुलाये नहीं गये। दारोगा, मायारानी तथा उसके पक्ष वालों के संबंध में इन पांचों ही का किस्सा सुनने योग्य है। जब कैदियों का मुकदमा होगा तब आप देखियेगा कि इन लोगों की सूरत देखकर कैदियों की क्या हालत होती है।

महाराज – वे दोनों कहां हैं?

इंद्रजीत – इस समय यहां मौजूद नहीं हैं, छुट्टी लेकर अपने घर की अवस्था देखने गये हैं, दो-चार दिन में आ जायेंगे।

भूत – (इंद्रदेव से) यदि आज्ञा हो तो मैं भी कुछ पूछूं!

इंद्रदेव – आप जो कुछ पूछेंगे उसे मैं खूब जानता हूं मगर खैर पूछिये।

भूत – कमला की मां आप लोगों को कहां और क्योंकर मिली?

इंद्रदेव – यह तो उसी की जुबानी सुनने में ठीक होगा। जब वह अपना किस्सा बयान करेगी कोई बात छिपी न रह जायगी।

1देखिए चंद्रकान्ता संतति, बीसवां भाग, तेरहवां बयान।

2देखिए चंद्रकान्ता संतति के बीसवें भाग के आठवें बयान में कुमार की चीठी।

भूत – और नानक की मां तथा देवीसिंहजी की स्त्री के विषय में कब मालूम होगा।

इंद्रदेव – वह भी उसी समय मालूम हो जायगा। मगर भूतनाथ (मुस्कराकर) तुमने और देवीसिंह ने नकाबपोशों का पीछा करके व्यर्थ यह खुटका और तरद्दुद खरीद लिया। यदि उनका पीछा न करते और पीछे से तुम दोनों को मालूम होता कि तुम्हारी स्त्रियां भी इस काम में शरीक हुई थीं तो तुम दोनों को एक प्रकार की प्रसन्नता होती। प्रसन्नता तो अब भी होगी मगर खुटके और तरद्दुद से कुछ खून सुखा लेने के बाद!

इतना कहकर इंद्रदेव हंस पड़े और इसके बाद सभों के चेहरों पर मुस्कराहट दिखाई देने लगी।

तेज – (मुस्कराते हुए देवीसिंह से) अब तो आपको मालूम हो ही गया होगा कि आपका लड़का तारासिंह कई विवित्र भेदों को आपसे क्यों छिपाता था?

देवी – जी हां, सब-कुछ मालूम हो गया। जब अपने को प्रकट करने के पहले ही दोनों कुमारों ने भैरों और तारा को अपना साथी बना लिया तो हम लोग जहां तक आश्चर्य में डाले जाते थोड़ा था।

देवीसिंह की बात सुनकर पुनः सभी ने मुस्करा दिया और अब दरबार का रंग-ढंग ही कुछ दूसरा हो गया अर्थात् तरद्दुद के बदले सभी के चेहरे पर हंसी और मुस्कराहट दिखाई देने लगी।

तेज – (भूतनाथ से) भूतनाथ, आज तुम्हारे लिए बड़ी खुशी का दिन है क्योंकि और बातों के अतिरिक्त तुम्हारी नेक और सती स्त्री भी तुम्हें मिल गई जिसे तुम मरी समझते थे और हरनामसिंह तुम्हारा लड़का भी तुम्हारे पास बैठा हुआ दिखाई देता है जो बहुत दिनों से गायब था और जिसके लिए बेचारी कमला बहुत परेशान थी, जब वह हरनामसिंह का हाल सुनेगी तो बहुत ही प्रसन्न होगी।

भूत – निःसंदेह ऐसा ही है, परंतु मैं हरनामसिंह के सामने भी एक संदूकड़ी देखकर डर रहा हूं कि कहीं यह भी मेरे लिए कोई दुखदायी सामान न लेकर आया हो!

इंद्रदेव – (हंसकर) भूतनाथ! अब तुम अपने दिल को व्यर्थ के खुटकों में न डालो, जो कुछ होना था सो हो गया, अब तुम पूरे तौर पर महाराज के ऐयार हो गये, किसी की मजाल नहीं कि तुम्हें किसी तरह की तकलीफ दे सके और महाराज भी तुम्हारे बारे में किसी तरह की शिकायत नहीं सुना चाहते! हरनामसिंह तो तुम्हारा लड़का ही है, वह तुम्हारे साथ बुराई क्यों करने लगा!

इसी समय महाराज सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह की तरफ देखकर कुछ इशारा किया और जीतसिंह ने इंद्रदेव से कहा, ”भूतनाथ का मामला तो अब तै हो गया इसके बारे में महाराज किसी तरह की शिकायत सुना नहीं चाहते, इसके अतिरिक्त भूतनाथ ने वादा किया है कि अपनी जीवनी लिखकर महाराज के सामने पेश करेगा। अस्तु अब रह गये दलीपशाह, अर्जुनसिंह और भरथसिंह तथा कमला की मां। इन सभी पर जो कुछ मुसीबतें गुजरी हैं उसे महाराज सुना चाहते हैं परंतु अभी नहीं क्योंकि विलंब बहुत हो गया, अब महाराज आराम करेंगे अस्तु अब दरबार बर्खास्त करना चाहिए जिससे ये लोग भी आपस में मिल-जुलकर अपने दिल की कुलफत निकाल लें क्योंकि अब यहां तो किसी से मिलने में अथवा आपस में बर्ताव करने में परहेज न होना चाहिए।”

इंद्र – (हाथ जोड़कर) जो आज्ञा!

दरबार बर्खास्त हुआ। इंद्रदेव की इच्छानुसार महाराज आराम करने के लिए जीतसिंह को साथ लिए एक दूसरे कमरे में चले गये। इसके बाद और सब कोई उठे और अपने-अपने ठिकाने पर जैसा कि इंद्रदेव ने इंतजाम कर दिया था चले गये, मगर कई आदमी जो आराम नहीं किया चाहते थे बंगले के बाहर निकलकर बगीचे की तरफ रवाना हुए।

बयान – 5

एक सुंदर पावों वाली मसहरी पर महाराज सुरेन्द्रसिंह लेटे हुए हैं। ऐयारों के सिरताज जीतसिंह उसी मसहरी के पास फर्श पर बैठे तथा दाहिने हाथ से मसहरी पर ढासना लगाये धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं।

महा – इंद्रदेव का स्थान बहुत ही सुंदर और रमणीक है, यहां से जाने का जी नहीं चाहता।

जीत – ठीक है, इस स्थान की तरह इंद्रदेव का बर्ताव भी चित्त को प्रसन्न करता है, परंतु मेरी राय यही है कि जहां तक जल्द हो यहां से लौट चलना चाहिए।

महा – हम भी यही सोचते हैं। इन लोगों की जीवनी और आश्चर्य भरी कहानी तो वर्षों तक सुनते ही रहेंगे परंतु इंद्रजीत और आनंद की शादी जहां तक जल्द हो सके कर देनी चाहिए जिससे और किसी तरह के विघ्न पड़ने का फिर डर न रहे।

जीत – जरूर ऐसा होना चाहिए, इसीलिए मैं चाहता हूं कि यहां से जल्द चलिए। भरतसिंह वगैरह की कहानी वहां ही सुन लेंगे या शादी के बाद और लोगों को भी यहां ले आवेंगे जिससे वे लोग भी तिलिस्म और इस स्थान का आनंद ले लें।

महा – अच्छी बात है, खैर यह बताओ कि कमलिनी और लाडिली के विषय में भी तुमने कुछ सोचा।

जीत – उन दोनों के लिए जो कुछ आप विचार रहे हैं वही मेरी भी राय है, उनकी भी शादी दोनों कुमारों के साथ कर ही देनी चाहिए।

महा – है न यही राय?

जीत – जी हां मगर किशोरी और कामिनी की शादी के बाद क्योंकि किशोरी एक राजा की लड़की है इसलिए उसी की औलाद को गद्दी का हकदार होना चाहिए यदि कमलिनी के साथ पहले शादी हो जाएगी तो उसी का लड़का गद्दी का मालिक समझा जाएगा, इसी से मैं चाहता हूं कि पटरानी किशोरी ही बनाई जाय।

महा – यह बात तो ठीक है, अस्तु ऐसा ही होगा और साथ ही इसके कमला की शादी भैरो के साथ और इंदिरा की तारा के साथ करा दी जाएगी।

जीत – जो मर्जी।

महाराज – अच्छा तो अब यही निश्चय रहा कि दलीपशाह और भरथसिंह की बीती यहां से चलने के बाद घर ही पर सुननी चाहिए।

जीत – जी हां, सच तो यों है कि ऐसा करना ही पड़ेगा क्योंकि इन लोगों की कहानी दारोगा और जैपाल इत्यादि कैदियों से घना संबंध रखती है बल्कि यों कहना चाहिए कि इन्हीं लोगों के इजहार पर उन लोगों के मुकदमे का दारोमदार (हेस-बेस) है और यही लोग उन कैदियों को लाजबाब करेंगे।

महा – निःसंदेह ऐसा ही है, इसके अतिरिक्त उन कैदियों ने हम लोगों तथा हमारे सहायकों को बड़ा दुःख दिया है और दोनों कुमारों की शादी में भी बड़े-बड़े विघ्न डाले हैं अतएव उन कम्बख्तों को कुमारों की शादी का जल्सा भी दिखा देना चाहिए जिससे ये लोग भी अपनी आंखों से देख लें कि जिन बातों को वे बिगाड़ा चाहते थे वे आज कैसी खूबी और खुशी के साथ हो रही हैं, इसके बाद उन लोगों को सजा देनी चाहिए। मगर अफसोस तो यह है कि मायारानी और माधवी जमानिया ही में मार डाली गर्ईं नहीं तो वे दोनों भी देख लेतीं कि…।

जीत – खैर उनकी किस्मत में यही बदा था।

महा – अच्छा तो एक बात का और खयाल करना चाहिए।

जीत – आज्ञा।

महा – भूतनाथ वगैरह को मौका देना चाहिए कि वे अपने संबंधियों से बखूबी मिल-जुलकर अपने दिल का खुटका निकाल लें क्योंकि हम लोग तो उनका हाल वहां चलकर ही सुनेंगे।

जीत – बहुत खूब।

इतना कहकर जीतसिंह उठ खड़े हुए और कमरे से बाहर चले गये।

बयान – 6

इंद्रदेव के इस स्वर्ग-तुल्य स्थान में बंगले से कुछ दूर हटकर बगीचे के दक्खिन तरफ एक घना जामुन का पेड़ है जिसे सुंदर लताओं ने घेरकर देखने योग्य बना रखा है और जहां एक कुंज की-सी छटा दिखाई पड़ती है। उसी के नीचे साफ पानी का एक चश्मा भी बह रहा है। अपनी सुरीली बोली से लोगों के दिल लुभा लेने वाली चिड़ियां संध्या का समय निकट जान अपने घोंसले के चारों तरफ फुदक-फुदककर अपने अपौरुष बच्चों को चैतन्य करती हुई कह रही हैं कि लो मैं बहुत दूर से तुम लोगों के लिये दाना-पानी अपने पेट में भर लाई हूं जिससे तुम्हारी संतुष्टि की जाएगी।

यह रमणीक स्थान ऐसा है कि यहां दो-चार आदमी छिपकर इस तरह बैठ सकते हैं कि वे चारों तरफ के आदमियों को बखूबी देख लें पर उन्हें कोई भी न देखे। इस स्थान पर हम इस समय भूतनाथ और उसकी पहली स्त्री, कमला की मां को पत्थर की चट्टानों पर बैठे बातें करते हुए देख रहे हैं। ये दोनों मुद्दत के बिछुड़े हुए हैं और दोनों के दिल में नहीं तो कमला की मां के दिल में जरूर शिकायतों का खजाना भरा हुआ है जिसे वह इस समय बेतरह उगलने के लिए तैयार है। प्यारे पाठक, आइये हम-आप मिलकर जरा इन दोनों की बातें तो सुन लें।

भूत – शांता आज तुमसे मिलकर मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ।

शांता – क्यों जो चीज किसी कारणवश खो जाती है उसे यकायक पाने से प्रसन्नता हो सकती है, मगर जो चीज जान-बूझकर फेंक दी जाती है उसके पाने की प्रसन्नता कैसी?

भूत – किसी को कहीं से एक पत्थर का टुकड़ा मिल जाय और वह उसे बेकार या बदसूरत समझकर फेंक दे, तथा कुछ समय के बाद जब उसे यह मालूम हो कि वास्तव में वह हीरा था पत्थर नहीं, तो क्या उसके फेंक देने का उसको दुःख न होगा या उसे पुनः पाकर प्रसन्नता न होगी!

शांता – अगर वह आदमी जिसने हीरे को पत्थर समझकर फेंक दिया है, यह जानकर कि वह वास्तव में हीरा था उसकी खोज करे, या इस विचार से कि उसे मैंने फलानी जगह छोड़ा या फेंका है वहां जाने से जरूर मिल जायेगा उसकी तरफ दौड़ा जाय, तो बेशक समझा जायगा कि उसे उसके फेंक देने का रंज हुआ था और उसके मिल जाने से प्रसन्नता होगी, लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो नहीं।

भूत – ठीक है, मगर वह आदमी उस जगह जहां उसने हीरे को पत्थर समझकर फेंका था पुनः उसे पाने की आशा में तभी जायगा जब अपना जाना सार्थक समझेगा। परंतु जब उसे यह निश्चय हो जायगा कि वहां जाने में उस हीरे के साथ तू भी बर्बाद हो जाएगा अर्थात् वह हीरा भी काम का न रहेगा और तेरी भी जान जाती रहेगी तब वह उसकी खोज में क्योंकर जायगा!

शांता – ऐसी अवस्था में वह अपने को इस योग्य बनावेगा ही कि वह उस हीरे की खोज में जाने लायक न रहे यदि यह बात उसके हाथ में होगी वह हीरे को वास्तव में हीरा समझता होगा।

भूतनाथ – बेशक, मगर शिकायत की जगह तो ऐसी अवस्था में हो सकती थी जब वह अपने बिगड़े हुए कंटीले रास्ते को जिसके सबब से वह उस हीरे तक नहीं पहुंच सकता था, पुनः सुधारने और साफ करने के लिए परले सिरे का उद्योग करता हुआ दिखाई न देता।

शांता – ठीक है, लेकिन जब वह हीरा यह देख रहा है कि उसका अधिकारी या मालिक बिगड़ी हुई अवस्था में भी एक मानिक के टुकड़े को कलेजे से लगाए हुए घूम रहा है और यदि वह चाहता तो उस हीरे को भी उसी तरह रख सकता था मगर अफसोस उस हीरे की तरफ

1शांता कमला की मां का नाम था।

जो वास्तव में पत्थर ही समझा गया है कोई भी ध्यान नहीं देता जो बेहाथ-पैर का होकर भी उसी मालिक की खोज में जगह-जगह की मिट्टी छानता फिर रहा है जिसने जान-बूझकर उसे पैर में गड़ने वाले कंकड़ की तरह अपने आगे से उठाकर फेंक दिया है और जानता है कि उस पत्थर के साथ जिसे वह व्यर्थ ही में हीरा कह रहा है वास्तव में छोटी-छोटी हीरे की कनियां भी चिपकी हुई हैं जो छोटी होने के कारण सहज ही मिट्टी में मिल जा सकती हैं, तब क्या शिकायत की जगह नहीं है!!

भूत – परंतु अदृष्ट भी कोई वस्तु है, प्रारब्ध भी कुछ कहा जाता है, और होनहार भी किसी चीज का नाम है?

शांता – यह दूसरी बात है, इन सभों का नाम लेना वास्तव में निरुत्तर (लाजवाब) होना और चलती बहस को जान-बूझकर बंद कर देना ही नहीं है बल्कि उद्योग जैसे अनमोल पदार्थ की तरफ से मुंह फेर लेना भी है। अस्तु जाने दीजिए, मेरी यह इच्छा भी नहीं है कि आपको परास्त करने की अभिलाषा से मैं विवाद करती ही जाऊं, यह तो बात ही बात में कुछ कहने का मौका मिल गया और छाती पर पत्थर रखकर जी का उबाल निकाल लिया, नहीं तो जरूरत ही क्या थी।

भूत – मैं कसूरवार हूं और बेशक कसूरवार हूं मगर यह उम्मीद भी तो न थी कि ईश्वर की कृपा से तुम्हें इस तरह जीती इस दुनिया में देखूंगा।

शांता – अगर यही आशा या अभिलाषा होती तो अपने परलोकगामी होने की खबर मुझ अभागी के कानों तक पहुंचाने की कोशिश क्यों करते और…।

भूत – बस-बस, अब मुझ पर दया करो और इस ढंग की बातें छोड़ दो क्योंकि आज बड़े भाग्य से मेरे लिए यह खुशी का दिन नसीब हुआ है। इसे जली-कटी बातें सुनाकर पुनः कड़वा न करो और यह सुनाओ कि तुम इतने दिनों तक कहां छिपी हुई थीं, अपनी लड़की कमला को किस तरह धोखा देकर चली गईं कि आज तक वह तुमको मरी हुई समझती है?

इस समय शांता का खूबसूरत चेहरा नकाब से ढका हुआ नहीं है। यद्यपि वह जमाने के हाथों सताई हुई तथा दुबली-पतली औरत है और उसका तमाम बदन पीला पड़ गया है मगर फिर भी आज की खुशी उसके सुंदर बादामी चेहरे पर रौनक पैदा कर रही है और इस बात की इजाजत नहीं देती कि कोई उसे ज्यादे उम्र वाली कहकर खूबसूरतों की पंक्ति में बैठने से रोके। हजार गई-गुजरी होने पर भी वह रामदेई (भूतनाथ की दूसरी स्त्री) से बहुत अच्छी मालूम पड़ती है और इस बात को भूतनाथ भी बड़े गौर से देख रहा है। भूतनाथ की आखिरी बात सुनकर शांता ने अपनी डबडबाई हुई आंखों को आंचल से साफ किया और एक लंबी सांस लेकर कहा –

शांता – मैं रणधीरसिंहजी के यहां से कभी न भागती अगर अपना मुंह किसी को दिखाने लायक समझती। मगर अफसोस आपके भाई ने इस बात को अच्छी तरह मशहूर किया कि

1देखिए चंद्रकान्ता संतति, बीसवें भाग का अंत।

आपके दुश्मन (अर्थात् आप) इस दुनिया से उठ गये। इसके सबूत में उन्होंने बहुत-सी बातें पेश कीं, मगर मुझे विश्वास न हुआ तथापि इस गम में मैं बीमार हो गई और दिन-दिन मेरी बीमारी बढ़ती ही गई। उसी जमाने में मेरी मौसेरी बहिन अर्थात् दलीपशाह की स्त्री मुझे देखने के लिए मेरे घर आई। मैंने अपने दिल का हाल और बीमारी का सबब उससे बयान किया, यह भी कहा कि जिस तरह मेरे पति ने सही-सलामत रहकर भी अपने को मरा हुआ मशहूर किया उसी तरह मुझे तुम कहीं छिपाकर मरा हुआ मशहूर कर दो, अगर ऐसा हो जायगा तो मैं अपने पति को ढूंढ़ निकालने का उद्योग करूंगी। उन्होंने मेरी बात पसंद कर ली और लोगों को यह कहकर कि मेरे यहां की आबोहवा अच्छी है वहां शांता को बहुत जल्द आराम हो जायगा, मुझे अपने यहां उठा ले जाने का बंदोबस्त किया और रणधीरसिंहजी से इजाजत भी ले ली। मैं दो दिन तक अपनी लड़की कमला को नसीहत करती रही और उसके बाद उसे किशोरी के हवाले करके और अपने छोटे दूध-पीते बच्चे को गोद में लेकर दलीपशाह के घर चनी आई और धीरे-धीरे आराम होने लगी। थोड़े ही दिन बाद दलीपशाह के घर में उस भयानक आधी रात के समय आपका आना हुआ, मगर हाय, उस समय आपकी अवस्था पागलों की-सी हो रही थी और आपने धोखे में पड़कर अपने प्यारे लड़के का जिसे मैं अपने साथ ले गई थी, खून कर डाला।

इतना कहते-कहते शांता का जी भर आया और वह हिचकियां ले-लेकर रोने लगी। भूतनाथ की बुरी अवस्था हो रही थी और इससे ज्यादे वह उस घटना का हाल नहीं सुनना चाहता था। वह यह कहता हुआ कि ”बस माफ करो, अब इसका जिक्र न करो”, अपनी स्त्री शांता के पैरों पर गिरा ही चाहता था कि उसने पैर खैंचकर भूतनाथ का सिर थाम लिया और कहा – ”हां-हां, क्या करते हो क्यों मेरे सिर पर पाप चढ़ाते हो मैं खूब जानती हूं कि आपने उसे नहीं पहचाना मगर इतना जरूर समझते थे कि वह दलीपशाह का लड़का है, अस्तु फिर भी आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था। खैर अब मैं इस जिक्र को छोड़ देती हूं।”

इतना कहकर शांता ने अपने आंसू पोंछे और फिर इस तरह का बयान करना शुरू किया –

”शोक और दुःख से मैं पुनः बीमार पड़ गई मगर आशालता ने धीरे-धीरे कुछ दिन में अपनी तरह मुझे भी (आराम) कर दिया। यह आशा केवल इसी बात की थी कि एक दफे आपसे जरूर मिलूंगी। मुश्किल तो यह थी कि उस घटना ने दलीपशाह को भी आपका दुश्मन बना दिया था, केवल उस घटना ने ही नहीं इसके अतिरिक्त भी दलीपशाह को बर्बाद करने में आपने कुछ उठा न रखा था यहां तक कि आखिर वह दारोगा के हाथ फंस ही गये।”

भूत – (बेचैनी के साथ लंबी सांस लेकर) ओफ! मैं कह चुका हूं कि इन बातों को मत

1दलीपशाह ने चंद्रकान्ता के बीसवें भाग के तेरहवें बयान में इस घटना की तरफ भूतनाथ से इशारा किया।

छेड़ो, केवल अपना हाल बयान करो, मगर तुम नहीं मानतीं!

शांता – नहीं-नहीं, मैं तो अपना ही हाल बयान कर रही हूं। खैर मुख्तसर ही में कहती हूं –

उस घटना के बाद ही मेरी इच्छानुसार दलीपशाह ने मेरा और बच्चे का मर जाना मशहूर किया जिसे सुनकर हरनामसिंह और कमला भी मेरी तरफ से निश्चिंत हो गये। जब खुद दलीपशाह भी दारोगा के हाथ में फंस गये तब मैं बहुत ही परेशान हुई और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। उस समय दलीपशाह के घर में उनकी स्त्री, एक छोटा-सा बच्चा और मैं, केवल तीन ही आदमी रह गये थे। दलीपशाह की स्त्री को मैंने धीरज धराया और कहा कि अभी अपनी जान मत बर्बाद कर, मैं बराबर तेरा साथ दूंगी और दलीपशाह को खोज निकालने का उद्योग करूंगी मगर अब हम लोगों को यह घर एकदम छोड़ देना चाहिए और ऐसी जगह छिपकर रहना चाहिए जहां दुश्मनों को हम लोगों का पता न लगे। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् हम लोगों की जो कुछ जमा-पूंजी थी उसे लेकर हमने उस घर को एकदम छोड़ दिया और काशीजी में जाकर एक अंधेरी गली में पुराने और गंदे मकान में डेरा डाला मगर इस बात की टोह लेते रहे कि दलीपशाह कहां हैं अथवा छूटने के बाद अपने घर की तरफ जाकर हम लोगों को ढूंढ़ते हैं या नहीं। इस फिक्र में मैं कई दफे सूरत बदलकर बाहर निकली और इधर-उधर घूमती रही। इत्तिफाक से दिल में यह बात पैदा हुई कि किसी तरह अपने लड़के हरनामसिंह से छिपकर मिलना और उसे अपना साथी बना लेना चाहिए। ईश्वर ने मेरी यह मुराद पूरी की। जब माधवी कुंअर इंद्रजीतसिंह को फंसाकर ले गई और उसके बाद उसने किशोरी पर भी कब्जा कर लिया तब कमला और हरनामसिंह दोनों आदमी किशोरी की खोज में निकले और एक-दूसरे से जुदा हो गये। किशोरी की खोज में हरनामसिंह काशी की गलियों में घूम रहा था जब उस पर मेरी निगाह पड़ी और मैंने इशारे से अलग बुलाकर अपना परिचय दिया। उसको मुझसे मिलकर जितनी खुशी हुई उसे मैं बयान नहीं कर सकती। मैं उसे अपने घर में ले गई और सब हाल उससे कह अपने दिल का इरादा जाहिर किया जिसे उसने खुशी से मंजूर कर लिया। उस समय मैं चाहती तो कमला को भी अपने पास बुला लेती मगर नहीं, उसे किशोरी की मदद के लिए छोड़ दिया क्योंकि किशोरी के नमक को मैं किसी तरह भूल नहीं सकती थी, अस्तु मैंने केवल हरनामसिंह को अपने पास रख लिया और खुद चुपचाप अपने घर में बैठी रहकर आपका और दलीपशाह का पता लगाने का काम लड़के के सुपुर्द किया। बहुत दिनों तक बेचारा लड़का चारों तरफ मारा-मारा फिरा और तरह-तरह की खबरें लाकर मुझे सुनाता रहा। जब आप प्रकट होकर कमलिनी के साथी बन गए और उसके काम के लिए चारों तरफ घूमने लगे तब हरनामसिंह ने भी आपको देखा और पहचानकर मुझे इत्तिला दी। थोड़े दिन बाद यह भी उसी की जुबानी मालूम हुआ कि अब आप नेकनाम होकर दुनिया में अपने को प्रकट किया चाहते हैं। उस समय मैं बहुत प्रसन्न हुई और मैंने हरनाम को राय दी कि तू किसी तरह राजा वीरेन्द्रसिंह के किसी ऐयार की शागिर्दी कर ले। आखिर वह तारासिंह से मिला और उसके साथ रहकर थोड़े ही दिनों में उसका प्यारा शागिर्द बल्कि दोस्त बन गया तब उसने अपना हाल तारासिंह को कह सुनाया और तारासिंह ने भी उसके साथ बहुत अच्छा बर्ताव करके उसकी इच्छानुसार उसके भेदों को छिपाया। तब से हरनामसिंह सूरत बदले हुए तारासिंह का काम करता रहा और मुझे भी आपकी पूरी-पूरी खबर मिलती रही। आपको शायद इस बात की खबर न हो कि तारासिंह की मां चंपा से और मुझसे बहिन का रिश्ता है, वह मेरे मामा की लड़की है, अस्तु चंपा ने लड़के की जुबानी हरनामसिंह का हाल सुना और जब यह मालूम हुआ कि वह रिश्ते में उसका भतीजा होता है तब उसने भी उस पर दया प्रकट की और तब से उसे बराबर अपने लड़के की तरह मानती रही।

जमानिया के तिलिस्म को खोलते और कैदियों को साथ लिए हुए जब दोनों कुमार उस खोह वाले तिलिस्मी बंगले में पहुंचे तो उन्होंने भैरोसिंह और तारासिंह को अपने पास बुला लिया और तिलिस्म का पूरा हाल उनसे कह के उन दोनों को अपने पास रखा। दलीपशाह को यह हाल भी तारासिंह ही से मालूम हुआ कि उसके बाल-बच्चे ईश्वर की कृपा से अभी तक राजी-खुशी हैं, साथ ही इसके मेरा हाल भी दलीपशाह को मालूम हुआ। उस समय तारासिंह दोनों कुमारों से आज्ञा लेकर हरनामसिंह को उस बंगले में ले आया और दलीपशाह से उसकी मुलाकात कराई। हरनामसिंह को साथ लेकर दलीपशाह काशी गये और वहां से मुझको तथा अपनी स्त्री और लड़के को साथ लेकर कुमार के पास चले आये। जब तारासिंह की जुबानी चंपा ने यह हाल सुना तब वह भी मुझसे मिलने के लिए तारासिंह के साथ यहां अर्थात् उस बंगले में आई।

भूत – जब दोनों कुमार नकाबपोश बनकर भैरोसिंह और तारासिंह को यहां ले आए उसके पहले तो तारासिंह यहां नहीं आए थे?

शांता – जी उसके पहले ही से वे दोनों यहां आते-जाते रहे। उस दिन तो प्रकट रूप में यहां लाए गये थे। क्या इतना हो जाने पर भी आपको अंदाज मालूम न हुआ?

भूत – ठीक है, इस बात का शक तो मुझे और देवीसिंह को भी होता रहा।

शांता का किस्सा भूतनाथ ने बड़े गौर के साथ ध्यान से सुना और तब देर तक आरजू-मिन्नत के साथ शांता से माफी मांगता रहा। इसके बाद पुनः दोनों में बातचीत होने लगी।

शांता – अब तो आपको मालूम हुआ कि चंपा यहां क्योंकर और किसलिए आई।

भूत – हां यह भेद तो खुल गया मगर इसका पता न लगा कि नानक और उसकी मां का यहां आना कैसे हुआ?

शांता – सो मैं न कहूंगी, यह उसी से पूछ लेना।

भूत – (ताज्जुब से) सो क्यों?

शांता – मैं उसके बारे में कुछ कहा भी नहीं चाहती।

भूत – आखिर इसका कोई सबब भी है?

शांता – सबब यही है कि उसकी यहां कोई इज्जत नहीं है बल्कि वह बेकदरी की निगाह से देखी जाती है।

भूत – वह है भी इसी योग्य! पहले तो मैं उसे प्यार करता था मगर जब से यह सुना कि उसी की बदौलत मैं जैपाल (नकली बलभद्र) का शिकार बन गया और एक भारी आफत में फंस गया, तब से मेरी तबीयत उससे खट्टी हो गई।

शांता – सो क्यों?

भूत – इसीलिए कि वह बेगम की गुप्त सहेली नन्हों से गहरी मुहब्बत रखती है और इसी सबब से वह कागज का मुट्ठा जो मैंने अपने फायदे के लिए तैयार किया था गायब हो के जैपाल के हाथ लग गया और उससे मुझे नुकसान पहुंचा। इस बात का सबब भी मैंने अपनी आंखों से देख लिया।

शांता – सो ठीक है, मैं भी दलीपशाह से यह बात सुन चुकी हूं।

भूत – ‘इसी से अब मैं उसे अपनी स्त्री नहीं बल्कि दुश्मन समझता हूं। केवल नन्हों से ही नहीं बल्कि कम्बख्त गौहर से भी वही दोस्ती रखती थी और वह दोस्ती पाक न थी। (लंबी सांस लेकर) अफसोस! इसी से उस खोटी का लड़का नानक भी खोटा ही निकला।

शांता – (मुस्कराकर) तब आप उसके लिए इतना परेशान क्यों थे क्योंकि यह बात सुनने के बाद ही तो आपने उसे नकाबपोशों के स्थान में देखा था!

भूत – वह परेशानी मेरी उसकी मोहब्बत के सबब से न थी बल्कि इस खयाल से थी कि कहीं वह मुझ पर कोई नई आफत लाने के लिए तो नकाबपोशों से नहीं आ मिली।

शांता – ठीक है। यह खयाल भी हो सकता था।

भूत – फिर भी इसी बीच में जब मुझे जंगल में गाना सुना के धोखा दिया और गिरफ्तार करके अपने स्थान पर ले गई जिसका हाल शायद तुम्हें मालूम होगा, तब मेरा रंज और भी बढ़ गया।

शांता – यह हाल मुझे भी मालूम है मगर यह कार्रवाई उसकी न थी बल्कि इंद्रदेव की थी। उन्होंने ही आपके साथ यह ऐयारी की थी और उस दिन जंगल में घोड़े पर सवार जो औरत आपको मिली थी और जिसे आपने अपनी स्त्री समझा था, वह इंद्रदेव का ऐयार ही था, यह बात मैं उन्हीं (इंद्रदेव) की जुबानी सुन चुकी हूं, शायद आपसे भी वे कहें। हां उस दिन बंगले में जिस औरत को आपने देखा था वह बेशक नानक की मां थी। वह तो खुद कैदियों की तरह यहां रखी गई है, मैदान की हवा क्योंकर खा सकती है! दोनों कुमार नहीं चाहते थे कि प्रकट होने के पहले ही कोई उन लोगों का पता लगा ले इसीलिए ये सब खेल खेले गये। (कुछ सोचकर) आखिर आपने धीर-धीरे नानक की मां का हाल पूछ ही लिया, मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा चाहती थी, अस्तु अब इससे आगे और कुछ भी नहीं कहूंगी, आप उसके बारे में मुझसे कुछ न पूछें।

भूत – नहीं-नहीं, जब इतना बता चुकी हो तो कुछ और भी बताओ क्योंकि मैं उससे मिलकर कुछ भी नहीं पूछा चाहता बल्कि अब उसका मुंह देखना भी मुझे पसंद नहीं है। अच्छा यह तो बताओ कि वह कम्बख्त यहां क्यों लाई गई?

शांता – लाई नहीं गई बल्कि उसी नन्हों के यहां गिरफ्तार की गई, उस समय नानक भी उसके साथ था।

भूत – (आश्चर्य और क्रोध से) फिर भी उसी नन्हों के यहां गई थी?

शांता – जी हां।

भूत – (लम्बी सांस लेकर) लोग सच कहते हैं कि ऐयाशी का नतीजा बहुत बुरा निकलता है।

शांता – अस्तु अब उसके बारे में मुझसे कुछ न पूछिए, इंद्रदेवजी आपको सब-कुछ बता देंगे।

भूत – हां ठीक है, खैर अब उसके बारे में कुछ न पूछूंगा, जो कुछ पूछूंगा वह तुम्हारे और हरनाम ही के बारे में होगा, अच्छा एक बात और बताओ, आज के दरबार में मैंने हरनाम को हाथ में एक संदूकड़ी लिए देखा था, वह संदूकड़ी कैसी थी और उसमें क्या था

शांता – उसमें दारोगा के हाथ की लिखी हुई बहुत-सी चीठियां हैं जिनके देखने से आपको निश्चय हो जायगा कि आपने दलीपशाह को व्यर्थ ही अपना दुश्मन समझ लिया था। पहले जब दारोगा ने दलीपशाह को लालच दिखाकर लिखा लिया था कि वह आपको गिरफ्तार करा दे, तब दो-चार चीठियों में तो दलीपशाह ने इस नीयत से कि दारोगा की शैतानियों का सबूत उससे मिलकर बटोर लें दारोगा के मतलब ही का जवाब दिया था जिससे खुश होकर उसने कई चीठियों में दलीपशाह को तरह-तरह के सब्जबाग दिखलाए, मगर जब दारोगा की कई चीठियां दलीपशाह ने बटोर लीं तब साफ जवाब दे दिया। उस समय दारोगा बहुत घबड़ाया और उसने सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि दलीपशाह मुझसे दुश्मनी करके मेरा भेद खोल दे, अस्तु किसी तरह उसे गिरफ्तार कर लेना चाहिए। उस समय कम्बख्त दारोगा आपसे मिला और उसने दलीपशाह की पहली चीठियां आपको दिखाकर खुद आप ही को दलीपशाह का दुश्मन बना दिया, बल्कि आप ही के जरिये से दलीपशाह को गिरफ्तार भी करा लिया।

भूत – ठीक है, इस विषय में मैंने बहुत बड़ा धोखा खाया।

शांता – मगर दलीपशाह को गिरफ्तार कर लेने पर भी वे चीठियां दारोगा के हाथ न लगीं क्योंकि वे दलीपशाह की स्त्री के कब्जे में थीं, अब हम लोग उन्हें अपने साथ लाये हैं जिन्हें दारोगा के मुकदमे में पेश करेंगे।

भूत – अस्तु वह मेरे दिल का खुटका निकल गया और मुझे निश्चय हो गया कि हरनाम की कोई कार्रवाई मेरे खिलाफ न होगी।

शांता – भला वह कोई काम ऐसा क्यों करेगा जिससे आपको तकलीफ हो ऐसा खयाल भी आपको न होना चाहिए।

इन दोनों में इस तरह की बातें हो रही थीं कि किसी के आने की आहट मालूम हुई, भूतनाथ ने घूमकर देखा तो नानक पर निगाह पड़ी। जब वह पास आया तब भूतनाथ ने उससे पूछा, ”क्या चाहते हो?’

नानक – मेरी मां आपसे मिलना चाहती है।

भूत – तो यहां पर क्यों न चली आई यहां कोई गैर तो था नहीं!

नानक – सो तो वही जानें।

भूत – अच्छा जाओ, उसे इसी जगह मेरे पास भेज दो।

नानक – बहुत अच्छा।

इतना कहकर नानक चला गया और इसके बाद शांता ने भूतनाथ से कहा, ”शायद उसे मेरे सामने आपसे बातचीत करना मंजूर न हो, शर्म आती हो या किसी तरह का और कुछ खयाल हो, अस्तु आज्ञा दीजिए तो मैं चली जाऊं, फिर…।”

भूत – नहीं, उसे जो कुछ कहना होगा तुम्हारे सामने ही कहेगी, तुम चुपचाप बैठी रहो।

शांता – संभव है कि वह मेरे रहते यहां न आवे या उसे इस बात का खयाल हो कि तुम मेरे सामने उसकी बेइज्जती करोगे।

भूत – हो सकता है, मगर… (कुछ सोच के) अच्छा तुम जाओ।

इतना सुनकर शांता वहां से उठी और बंगले की तरफ रवाना हुई। इस समय सूर्य अस्त हो चुका था और चारों तरफ से अंधेरी झुकी आती थी।

बयान – 7

इंद्रदेव का यह स्थान बहुत बड़ा था। इस समय यहां जितने आदमी आए हुए हैं, उनमें से किसी को किसी तरह की भी तकलीफ नहीं हो सकती थी और इसके लिए प्रबंध भी बहुत अच्छा कर रखा गया था। औरतों के लिए एक खास कमरा मुकर्रर किया गया था मगर रामदेई (नानक की मां) की निगरानी की जाती थी। और इस बात का भी बंदोबस्त कर रखा गया था कि कोई किसी के साथ दुश्मनी का बर्ताव न कर सके। महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह और दोनों कुमारों के कमरों के आगे पहरे का पूरा-पूरा इंतजाम था और हमारे ऐयार लोग भी बराबर चौकन्ने रहा करते थे।

यद्यपि भूतनाथ एकांत में बैठा हुआ अपनी स्त्री से बातें कर रहा था मगर यह बात इंद्रदेव और देवीसिंह से छिपी हुई न थी जो इस समय बगीचे में टहलते हुए बातें कर रहे थे। इन दोनों के देखते ही देखते नानक भूतनाथ की तरफ गया और लौटकर आया। इसके बाद भूतनाथ की स्त्री अपने डेरे पर चली गई और फिर रामदेई अर्थात् नानक की मां भूतनाथ की तरफ जाती हुई दिखाई पड़ी। उस समय इंद्रदेव ने देवीसिंह से कहा, ”देवीसिंहजी देखिये भूतनाथ अपनी पहली स्त्री से बातचीत कर चुका है, अब उसने नानक की मां को अपने पास बुलाया है। शांता की जुबानी उसकी खुटाई का हाल तो उसे जरूर ही मालूम हो गया होगा, इसलिए ताज्जुब नहीं कि वह गुस्से में आकर रामदेई के हाथ-पैर तोड़ डाले?’

देवी – ऐसा हो तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है, मगर उस औरत ने भी तो सजा पाने के ही लायक काम किया है।

इंद्रदेव – ठीक है, मगर इस समय उसे बचाना चाहिये।

देवी – तो जाइए वहां बैठकर तमाशा देखिए और मौका पड़ने पर उसकी सहायता कीजिए। (मुस्कराकर) आप ही आग लगाते हैं और आप ही बुझाने दौड़ते हैं।

इंद्रदेव – (हंसकर) आप तो दिल्लगी करते हैं।

देवी – दिल्लगी काहे की क्या आपने उसे गिरफ्तार नहीं कराया है और अगर गिरफ्तार कराया है तो क्या इनाम देने के लिए?

इंद्रदेव – (मुस्कराते हुए) तो आपकी राय है कि इसी समय उसकी मरम्मत की जाय!!

देवी – चाहिए तो ऐसा ही! जी में आवे तो तमाशा देखने चलिए। कहिए तो आपके साथ चलूं।

इंद्रदेव – नहीं-नहीं, ऐसा न होना चाहिए। भूतनाथ आपका दोस्त है और अब तो नातेदार भी। आप ऐसे मौके पर उसके सामने जा सकते हैं, जाइये और उसे बचाइये, मेरा जाना मुनासिब न होगा।

देवी – (हंसकर) तो आप चाहते हैं कि मैं भी भूतनाथ के हाथ से दो-एक घूंसे खा लूं अच्छा साहब चलता हूं, आपका हुक्म कैसे टालूं, आज आपने बड़ी-बड़ी बातें मुझे सुनाई हैं इसलिए आपका एहसान भी तो मानना होगा।

इतना कहते हुए देवीसिंह पेड़ों की आड़ देते हुए भूतनाथ की तरफ रवाना हुए और जब ऐसी जगह पहुंचे जहां से उन दोनों की बातें बखूबी से सुन सकते थे, तब एक चट्टान पर बैठ गए और सुनने लगे कि वे दोनों क्या बातें कर रहे हैं।

भूत – खैर अच्छा ही हुआ जो तुम यहां तक आ गईं, मुझसे मुलाकात भी हो गई और मैं ‘लामाघाटी’ तक जाने से बच गया। मगर यह तो बताओ कि अपनी सहेली ‘नन्हों’ को यहां तक क्यों न लेती आईं, मैं भी जरा उससे मिल के अपना कलेजा ठंडा कर लेता?

रामदेई – नन्हों बेचारी पर क्यों आक्षेप करते हो, उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है और वह यहां आती ही काहे को क्या तुम्हारी लौंडी थी! व्यर्थ ही एक आदमी को बदनाम और दिक करने के लिए लोग टूट पड़ते हैं।

भूत – (उभड़ते हुए गुस्से को दबाकर) छी-छी, वह बेचारी हमारी लौंडी क्यों होने लगी, लौंडी तो तुम उसकी थीं जो झख मारने के लिए उसके घर गई थीं।

रामदेई – (आंचल से आंसू पोंछती हुई) अगर में उसके यहां गई तो क्या पाप किया। मैं पहले ही नानक से कहती थी कि जाकर पूछ आओ तब मैं नन्हों के यहां जाऊं नहीं तो कहीं व्यर्थ ही बात का बतंगड़ न बन जाय, मगर लड़के ने न माना और आखिर वही नतीजा निकला, बदमाशों ने वहां पहुंचकर उसे भी बेइज्जत किया और मुझे भी बेइज्जत करके यहां तक घसीट लाये। उसके सिर झूठे ही कलंक थोप दिया कि वह बेगम की सहेली है।

इतना कहकर रामदेई नखरे के साथ रोने लगी।

भूत – तुमने पहले भी कभी उसका जिक्र मुझसे किया था कि वह तुम्हारी नातेदार है, या मुझसे पूछकर कभी उसके यहां गई थीं?

राम – एक दफे गई सो तो यह गति हुई, और जाती तो न मालूम क्या होता!

भूत – जो लोग तुझे यहां ले आये हैं वे बदमाश थे?

राम – बदमाश तो कहे ही जायेंगे! जो व्यर्थ दूसरों को दुःख दे वही बदमाश होते हैं और क्या बदमाशों के सिर पर सींग होती हैं! तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गया है कि जो लोग तुम्हारी बेइज्जती किए ही जाते हैं उन्हीं के लिए तुम जान दे रहे हो। न मालूम तुम्हें ऐसी क्या गरज पड़ी हुई है।

भूत – ठीक है, यही राय लेने के लिए तो मैंने तुम्हें यहां एकांत में बुलाया है। अगर तुम्हारी राय होगी तो मैं देखते-देखते इन लोगों से बदला ले लूंगा, क्या मैं कमजोर या दब्बू हूं!

रामदेई – जरूर बदला लेना चाहिए, अगर तुम ऐसा नहीं करोगे तो मैं समझूंगी कि तुमसे बढ़कर कमीना कोई नहीं है।

इतना सुनकर भूतनाथ को बेहिसाब गुस्सा चढ़ आया मगर फिर भी उसने अपने क्रोध को दबाया और कहा –

भूत – अच्छा तो अब मैं ऐसा ही करूंगा, मगर यह तो बताओ कि शेर की लड़की ‘गौहर’ से तुमसे क्या नाता है?

राम – उस मुसलमानिन से मुझसे क्या नाता होगा! मैंने तो उसकी सूरत भी नहीं देखी।

भूत – लोग तो कहते हैं कि तुम उसके यहां भी आती-जाती हो और मेरे बहुत से भेद तुमने उसे बता दिए हैं।

राम – सब झूठ है। ये लोग बात लगाने वाले जैसे ही धूर्त और पाजी हैं वैसे तुम सीधे और बेवकूफ हो।

अब भूतनाथ अपने गुस्से को बर्दाश्त न कर सका और उसने एक चपत रामदेई के गाल पर ऐसी जमाई कि वह तिलमिलाकर जमीन पर लेट गई। मगर उसे चिल्लाने का साहस न हुआ। कुछ देर बाद वह उठ बैठी और भूतनाथ का मुंह देखने लगी।

भूत – कमीनी, हरामजादी! जिनके लिए मैं जान तक देने को तैयार हूं उन्हीं लोगों की शान में तू ऐसी बातें कह रही है जो एक पराये को भी कहना उचित नहीं है और जिसे मैं एक सायत के लिए भी बर्दाश्त नहीं कर सकता! ले समझ ले और कान खोलकर सुन ले कि तेरे हाथ की लिखी वह चीठी मुझे मिल गई है जो तूने चांद वाले दिन गोहर के यहां मिलने के लिए नन्हों के पास भेजी थी और जिसमें तूने अपना परिचय ‘करौंदा की छैयें-छैयें’ दिया था। बस इसी से समझ ले कि तेरी सब कलई खुल गई और तेरी बेईमानी लोगों को मालूम हो गई। अब तेरा नखरे के साथ रोना और बातें बनाकर अपने को बेकसूर साबित करना व्यर्थ है। अब तेरी मुहब्बत एक रत्ती बराबर मेरे दिल में नहीं रह गई और तुझे उस जहरीली नागिन से भी हजार दर्जे समझने लग गया जिसे खूबसूरत होने पर भी कोई हाथ से छूने तक का साहस नहीं कर सकता। मुझे आज इस बात का सख्त रंज है कि मैंने तुझे इतने दिन तक प्यार किया और इस बात की तरफ कुछ भी ध्यान न दिया कि उस मुहब्बत, ऐयाशी और शौक का नतीजा एक न एक दिन जरूर भयानक होता है जिसे छिपाने की जरूरत समझी जाती है और जिसका जाहिर होना शर्मिन्दगी और बेहयाई का सबब समझा जाता है। मुझे इस बात का अफसोस है कि तुझसे अनुचित संबंध रखकर मैंने उस उचित संबंध वाली का साथ छोड़ दिया जिसकी जूतियों की बराबरी भी तू नहीं कर सकती या यों कहना चाहिए कि तेरे शरीर का चमड़ा जिसकी जूतियों में भी देखना मैं पसंद नहीं कर सकता। मुझे इस बात का दुःख है कि नागर या मायारानी के कब्जे से तुझे छुड़ाने के लिए मैंने तरह-तरह के ढोंग रचे और इसका दम भर के लिए भी विचार न किया कि मैं उस क्षयी रोग को अपनी छाती से लगाने का प्रबंध कर रहा हूं जिसे पहली ही अवस्था में ईश्वर की कृपा ने मुझसे अलग कर दिया था। ये बातें तू अपने ही लिए न समझ बल्कि अपने जाये नानक के लिए भी समझकर मेरे सामने से उठ जा और उससे भी कह दे कि आज से मेरे सामने आकर मेरी जूतियों का शिकार न बने। यदि मेरे पुराने विचार न बदल गये होते और उन दिनों की तरह आज भी मैं पाप को पाप न समझता होता तो आज तेरी खाल खिंचवाकर नमक और मिर्च का उबटन लगवा देता, मगर खैर अब इतना ही कहता हूं कि मेरे सामने से उठ जा और फिर कभी अपना काला मुंह मुझे मत दिखाइयो। जिस कुल को तू पहले कलंक लगा चुकी है अब भी उसी कुल की बदनामी का सबब बनकर दुनिया की हवा खा।

रामदेई के पास भूतनाथ की बातों का जवाब न था। वह अपनी पुरानी चिठी का सच्चा परिचय सुनकर बदहवास हो गई और समझ गई कि उसके अच्छे नसीब के पहिए की धुरी टूट गई जिसे वह किसी तरह भी बना नहीं सकती। वह अपने धड़कते हुए कलेजे और कांपते हुए बदन के साथ भूतनाथ की बातें सुनती रही और अंत में उठने का साहस करने पर भी अपनी जगह से न हिल सकी मगर भूतनाथ वहां से उठ खड़ा हुआ और बंगले की तरफ चल पड़ा। थोड़ी ही दूर गया होगा कि देवीसिंह से मुलाकात हुई जिसने इसका हाथ पकड़ लिया और कहा, ”भूतनाथ शाबाश! शाबाश!! जो कुछ नेक और बहादुर आदमियों को करना चाहिए इस समय तुमने वही किया। मैं छिपकर तुम्हारी सब बातें सुन रहा था। अगर तुम कोई बेजा काम करना चाहते तो मैं तुम्हें जरूर रोकता मगर ऐसा करने का मौका न हुआ जिससे मैं बहुत ही खुश हूं। अच्छा जाओ अपने कमरे में आराम करो, मैं इंद्रदेव के पास जाता हूं।”

बयान – 8

रात पहर से ज्यादे जा चुकी है। एक सुंदर सजे हुए कमरे में राजा गोपालसिंह और इंद्रदेव बैठे हैं और उनके सामने नानक हाथ जोड़े बैठा दिखाई देता है।

गोपाल – (नानक से) ठीक है, यद्यपि इन बातों में तुमने अपनी तरफ से कुछ नमक-मिर्च जरूर लगाया होगा मगर फिर भी मुझे कोई ऐसी बात नहीं जान पड़ती जिससे भूतनाथ को दोषी ठहराऊं। उसने जो कुछ तुम्हारी मां से कहा सच कहा और उसके साथ जैसा बर्ताव किया वह उचित ही था। इस विषय में मैं भूतनाथ को कुछ भी नहीं कह सकता और न अब तुम्हारी बातों पर भरोसा ही कर सकता हूं। बड़े अफसोस की बात है कि मेरी नसीहत ने तुम्हारे दिल पर कुछ भी असर न किया1 और अगर कुछ किया भी तो वह दो-चार दिन बाद जाता रहा। अगर तुम अपनी मां के साथ नन्हों के मकान में गिरफ्तार न हुए होते तो कदाचित् मैं तुम्हारे धोखे में आ जाता मगर अब मैं किसी तरह भी तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।

नानक – मगर आप मेरा कसूर माफ कर चुके हैं और…।

इंद्रदेव – (नानक से) अगर तुम उस माफी को पाकर खुश हुए थे तो फिर पुराने रास्ते पर क्यों गये और पुनः अपनी मां को लेकर नन्हों के पास क्यों पहुंचे तुम्हें बात करते शर्म नहीं आती!!

गोपाल – फिर भी मैं अपनी जबान (माफी) का खयाल करूंगा और तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न दूंगा, मगर अब भूतनाथ की तरह मैं भी तुम्हारी सूरत देखना पसंद नहीं करता और न भूतनाथ को इस विषय में कुछ कहना चाहता हूं। इंद्रदेव ने तुम्हारे साथ इतनी ही रियायत की सो बहुत किया कि तुमको यहां से निकल जाने की आज्ञा दे दी नहीं तो तुम इस लायक थे कि जन्म भर कैद में पड़े सड़ा करते।

नानक – जो आज्ञा, मगर मेरे पिता से इतना तो दिला दीजिए कि मेरी मां जन्म भर खाने-पीने की तरफ से बेफिक्र रहे।

इंद्रदेव – अबे कमीने, तुझे यह कहते शर्म नहीं मालूम होती! इतना बड़ा हो के भी तू अपनी मां के लायक दाना-पानी नहीं जुटा सकता और अब तुझे आखिरी मर्तबे कहा जाता है कि अब हम लोगों से किसी तरह की उम्मीद न रख और अपनी मां को साथ लेकर यहां से चला जा। भूतनाथ ने भी मुझे ऐसा ही कहने के लिए कहला भेजा है।

इतना कहकर इंद्रदेव ने ताली बजाई और साथ ही अपने ऐयार सूर्यसिंह को कमरे के अंदर आते देखा।

इंद्रदेव – (सूर्य से) भूतनाथ कहां है?

सूर्य – नंबर पांच के कमरे में देवीसिंहजी से बातें कर रहे हैं, वे दोनों यहां आये भी थे मगर

1देखिए चंद्रकान्ता संतति, उन्नीसवां भाग, तीसरा बयान।

यह सुनकर कि नानक यहां बैठा हुआ है पिछले पैर लौट गये।

इंद्रदेव – अच्छा तुम जाओ और उन्हें यहां बुला लाओ।

सूर्यसिंह – जो आज्ञा, परंतु मुझे आशा नहीं है कि वे लोग नानक के रहते यहां आवेंगे।

इंद्रदेव – अच्छा तो मैं खुद जाता हूं।

गोपाल – हां तुम्हारा ही जाना ठीक होगा, देवीसिंह को भी बुलाते आना।

इंद्रदेव उठकर चले गये और थोड़ी ही देर में भूतनाथ तथा देवीसिंह को साथ लिए हुए आ पहुंचे।

गोपाल – (भूतनाथ से) क्यों साहब, आप यहां तक आकर लौट क्यों गये?

भूत – यों ही, मैंने समझा कि आप लोग किसी खास बात में लगे हुए हैं।

गोपाल – अच्छा बैठिये और एक बात का जवाब दीजिए।

भूत – कहिए?

गोपाल – रामदेई और नानक के बारे में आप क्या हुक्म देते हैं?

भूत – महाराज ने क्या आज्ञा दी है?

गोपाल – उन्होंने इसका फैसला आप ही के ऊपर छोड़ा है।

भूत – फिर जो राय आप लोगों की हो, मैंने तो इन दोनों के बारे में इसकी मां को हुक्म सुना ही दिया है।

गोपाल – इनके कसूर तो आप सुन ही चुके होंगे।

भूत – पिछले कसूरों को तो मैं सुन ही चुका हूं, हां नया कसूर सिर्फ इतना ही मालूम हुआ है कि ये दोनों नन्हों के यहां गिरफ्तार हुए हैं।

गोपाल – इसके अतिरिक्त एक बात और है।

भूत – वह क्या?

गोपाल – यही कि ये दोनों अगर खाली हाथ न होते तो बेचारी शांता को जान से मार डालते।

इतने ही में नानक बोल उठा, ”नहीं-नहीं, यह आपके जासूसों ने हमारे ऊपर झूठा इल्जाम लगाया है!”

भूत – अगर यह बात है तो मैं इसे हथकड़ी से खाली क्यों देखता हूं?

इंद्रदेव – इसीलिए कि हमारे हाते के अंदर ये लोग कुछ कर नहीं सकते। जब ये लोग यहां गिरफ्तार होकर आये तो कुछ दिन तक तो भलमनसी के साथ रहे मगर आज इनकी नीयत बिगड़ी हुई मालूम पड़ी।

भूत – खैर, अब आप ही इनके लिए हुक्म सुनाइये। मगर इंद्रदेव, आप यह न समझियेगा कि इन लोगों के बारे में मुझे किसी तरह का रंज है। मैं सच कहता हूं कि इन दोनों का यहां आना मेरे लिए बहुत अच्छा हुआ! मैं इन लोगों के फेर में बेतरह फंसा हुआ था। आज मालूम हुआ कि ये लोग जहर हलाहल से भी बढ़े हुए हैं, अस्तु आज इन लोगों से पीछा छुड़ाकर मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ। मेरे सिर से बोझा उतर गया और आज मेरी जिंदगी खुशी के साथ बीतेगी। आपका कहना सच निकला अर्थात् इनका यहां आना मेरे लिए खुशी का सबब हुआ।

इंद्रदेव – अच्छा यह बताइये कि ये अगर इसी तरह छोड़ दिये जायं तो आपके खजाने को तो किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचा सकते जो ‘लामाघाटी’ के अंदर है।

भूत – कुछ भी नहीं, और ‘लामाघाटी’ के अंदर जेवरों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं, सो जेवरों को मैं वहां से मंगवा ले सकता हूं।

इंद्रदेव – अगर सिर्फ नानक की मां के जेवरों से आपका मतलब है तो वह अब मेरे कब्जे में हैं क्योंकि नन्हों के यहां वह बिना जेवरों के नहीं गई थी।

भूत – बस तो मैं उस तरफ से बेफिक्र हो गया, यद्यपि उन जेवरों की मुझे कोई परवाह नहीं है मगर उसके पास मैं एक कौड़ी भी नहीं छोड़ा चाहता। इसके अतिरिक्त यह भी जरूर कहूंगा कि अब ये लोग सूखा छोड़ देने लायक नहीं रहे।

इंद्रदेव – खैर जैसी राय होगी वैसा ही किया जायगा।

इतना कहकर इंद्रदेव ने पुनः सूर्यसिंह को बुलाया और जब वह कमरे के अंदर आ गया तो कहा – ”थोड़ी देर के लिए नानक को बाहर ले जाओ।”

नानक को लिए हुए सूर्यसिंह कमरे के बाहर चला गया और इसके बाद चारों आदमी विचार करने लगे कि नानक ओैर उसकी मां के साथ क्या बर्ताव करना चाहिए। देर तक सोच-विचार कर यही निश्चय किया कि उन दोनों को देश से निकाल दिया जाय और कह दिया जाय कि जिस दिन हमारे महाराज की अमलदारी में दिखाई दोगे उसी दिन मार डाले जाओगे।

इस हुक्म पर महाराज से आज्ञा लेने की इन लोगों को कोई जरूरत न थी क्योंकि उन्होंने सब बातें सुन-सुनाकर पहले ही हुक्म दे दिया था कि भूतनाथ की आज्ञानुसार काम किया जाय, अस्तु नानक कमरे के अंदर बुलाया गया और इसके बाद रामदेई भी बुलाई गई। जब दोनों इकट्ठे हो गए तो उन्हें हुक्म सुना दिया गया।

यह हुक्म यद्यपि साधारण मालूम होता है मगर उन दोनों के लिए ऐसा न था जिन्हें भूतनाथ की बदौलत शाहखर्ची की आदत पड़ गई थी। नानक और रामदेई की आंखों से आंसू जारी था जब इन्द्रदेव ने सूर्यसिंह को हुक्म दिया कि चार आदमी इन दोनों को ले जायं और महाराज की सरहद के बाहर कर आवें। सूर्यसिंह दोनों को लिए कमरे के बाहर निकल गया।

भूत – सिर से बोझ उतरा और कम्बख्तों से पीछा छूटा, अच्छा अब बतलाइये कि कल क्या-क्या होगा

गोपाल – महाराज ने तो यही हुक्म दिया है कि कल यहां से डेरा कूच किया जाय और तिलिस्म की सैर करते हुए चुनारगढ़ पहुंचें, चंपा, शांता, हरनामसिंह, भरतसिंह और दलीपशाह वगैरह बाहर की राह से चुनार भेज दिये जायं, यदि हमारे किसी ऐयार की भी इच्छा हो तो उनके साथ चला जाय।

भूत – ऐसा कौन बेवकूफ होगा जो तिलिस्म की सैर छोड़ उनके साथ जाएगा!

देवीसिंह – सभी कोई ऐसा ही कहते हैं।

भूत – हां यह तो बताइये कि मैंने नानक को जब दरबार में देखा था तो उसके हाथ में एक लपेटी तस्वीर थी, अब वह तस्वीर कहां है और उसमें क्या बात थी?

इंद्रदेव – वह कागज जिसे आप तस्वीर समझे हुए हैं मेरे पास है, आपको दिखाऊंगा। असल में वह तस्वीर नहीं बल्कि नानक ने उसमें एक बहुत बड़ी दर्खास्त लिखकर तैयार की थी जो दरबार में आ के पेश किया चाहता था, मगर ऐसा कर न सका।

भूत – उसमें लिखा क्या था?

इंद्रदेव – जो लोग उसे गिरफ्तार कर लाये हैं उनकी शिकायत के सिवाय और कुछ भी नहीं। साथ ही इसके उस दर्खास्त में इस बात पर बहुत जोर दिया गया था कि कमला की मां वास्तव में मर गई है और आज जिस शांता को सब कोई देख रहे हैं वह वास्तव में नकली है।

भूत – वाह रे शैतान! (कुछ सोचकर) तो शायद यह दर्खास्त महाराज के हाथ तक नहीं पहुंची।

इंद्रदेव – क्यों नहीं, मैंने जान-बूझकर ऐसा करने का मौका दिया। वह रात को पहरे वालों से इत्तिला कराकर खुद महाराज के पास पहुंचा और उनके सामने वह दर्खास्त रख दी। उस समय महाराज ने मुझे बुलाया और मुझी को वह दर्खास्त पढ़ने के लिए दी गई। उसे सुनकर महाराज ने मुस्करा दिया और इशारा किया कि वह कमरे के बाहर निकाल दिया जाय क्योंकि इसके पहले मैं शांता और हरनामसिंह का पूरा-पूरा हाल महाराज से अर्ज कर चुका था।

भूत – अच्छा मुझे वह दर्खास्त दिखाइयेगा।

इंद्रदेव – (उंगली से इशारा करके) वह कारनिस के ऊपर पड़ी हुई है, देख लीजिए।

भूतनाथ ने दर्खास्त उतारकर पढ़ी और इसके बाद कुछ देर तक उन लोगों में बातचीत होती रही।

बयान – 9

सुबह का सुहावना समय सब जगह एक-सा नहीं मालूम होता, घर की खिड़कियों से उसका चेहरा कुछ और ही दिखाई देता है और बाग में उसकी कैफियत कुछ मस्तानी होती है, पहाड़ में उसकी खूबी कुछ और ढंग की दिखाई देती है और जंगल में उसकी छटा कुछ निराली ही होती है। आज इंद्रदेव के इस अनूठे स्थान में इसकी खूबी सबसे चढ़ी-बढ़ी है, क्योंकि जहां जंगल भी हैं, पहाड़ भी, अनूठा बाग तथा सुंदर बंगला या कोठी भी है, फिर यहां के आनंद का पूछना ही क्या। इसलिए हमारे महाराज कुंअर साहब और ऐयार लोग भी यहां घूमकर सुबह के सुहावने समय का पूरा आनंद ले रहे हैं, खास करके इसलिए कि आज ये लोग डेरा कूच करने वाले हैं।

बहुत देर घूमने-फिरने के बाद हर कोई बाग में आकर बैठा और इधर-उधर की बातें होनी लगीं।

जीत – (इंद्रदेव से) भरतसिंह वगैरह तथा औरतों को आपने चुनार रवाना कर दिया।

इंद्रदेव – जी हां, बड़े सबेरे ही उन लोगों को बाहर की राह से रवाना कर दिया। औरतों के लिए सवारी का इंतजाम कर देने के अतिरिक्त अपने दस-पंद्रह मातबिर आदमी भी साथ कर दिये हैं।

जीत – तब अब हम लोग भी कुछ भोजन करके यहां से रवाना हुआ चाहते हैं।

इंद्रदेव – जैसी मर्जी।

जीत – भैरो और तारा जो आपके साथ यहां आए थे कहां चले गए, दिखाई नहीं पड़ते।

इंद्रदेव – अब भी मैं उन्हें अपने साथ ही ले जाने की आज्ञा चाहता हूं क्योंकि उनकी मदद की मुझे जरूरत है।

जीत – तो क्या आप हम लोगों के साथ न चलेंगे?

इंद्रदेव – जी हां उस बाग तक जरूर साथ चलूंगा जहां से मैं आप लोगों को यहां तक ले आया हूं पर उसके बाद गुप्त हो जाऊंगा क्योंकि मैं आपको कुछ तिलिस्मी तमाशे दिखाया चाहता हूं और इसके अतिरिक्त उन चीजों को भी तिलिस्म के अंदर से निकलवाकर चुनार पहुंचाना है जिनके लिये आज्ञा मिल चुकी है।

सुरेन्द्र – नहीं, नहीं, गुप्त रीति पर हम तिलिस्म का तमाशा नहीं देखा चाहते, हमारे साथ रहकर जो-जो कुछ दिखा सको दिखा दो, बाकी रहा उन चीजों को निकलवाकर चुनार पहुंचाना, सो यह काम दो दिन के बाद भी होगा तो कोई हर्ज नहीं।

इंद्रदेव – जैसी आज्ञा।

इतना कहकर इंद्रदेव थोड़ी देर के लिए कहीं चले गए और तब भैरोसिंह तथा तारासिंह को साथ लिए आकर बोले, ”भोजन तैयार है।”

सब कोई वहां से उठे और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। जिस तरह इंद्रदेव इन लोगों को अपने स्थान में ले आये थे उसी तरह पुनः उस तिलिस्मी बाग में ले गये जिसमें से लाए थे।

जब महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैरह उस बारहदरी में पहुंचे जिसमें पहले दिन आराम किया था और जहां बाजे की आवाज सुनी थी तब दिन पहर भर से कुछ ज्यादे बाकी था। जीतसिंह ने इंद्रदेव से पूछा, ”अब क्या करना चाहिए?’

इंद्रदेव – यदि महाराज आज की रात यहां रहना पसंद करें तो एक दूसरे बाग में चलकर वहां की कुछ कैफियत दिखाऊंगा!

जीत – बहुत अच्छी बात है, चलिये।

इतना सुनकर इंद्रदेव ने उस बारहदरी की कई अलमारियों में से एक अलमारी खोली और उसके अंदर जाकर सभों को अपने पीछे आने का इशारा किया। यहां एक गली के तौर पर रास्ता बना हुआ था जिसमें सब कोई इंद्रदेव की इच्छानुसार बेखौफ चले गए और थोड़ी दूर जाने के बाद जब इंद्रदेव ने दूसरा दरवाजा खोला तब उसके बाहर होकर सभों ने अपने को एक छोटे बाग में पाया जिसकी बनावट कुछ विचित्र ही ढंग की थी। यह बाग जंगली पौधों की सब्जी से हरा-भरा था और पानी का चश्मा भी बह रहा था मगर चारदीवारी के अतिरिक्त और किसी तरह की बड़ी इमारत इसमें न थी, हां बीच में एक बहुत बड़ा चबूतरा जरूर था जिस पर धूप और बरसाती पानी के लिए सिर्फ मोटे-मोटे बारह खंभों के सहारे पर छत बनी हुई थी और चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों तरफ सीढ़ियां थीं।

यह चबूतरा कुछ अजीब ढंग का बना हुआ था। लगभग चालीस हाथ के चौड़ा और इतना ही लंबा होगा। इसके फर्श में लोहे की बारीक नालियां जाल की तरह जड़ी हुई थीं और बीच में एक चौखूटा स्याह पत्थर इस अंदाज का रखा था जिस पर चार आदमी बैठ सकते थे। बस इसके अतिरिक्त इस चबूतरे में और कुछ भी न था।

थोड़ी देर तक सब कोई उस चबूतरे की बनावट देखते रहे, इसके बाद इंद्रदेव ने महाराज से कहा, ”तिलिस्म बनाने वालों ने यह बगीचा केवल तमाशा देखने के लिए बनाया था। यहां की कैफियत आपके साथ रहकर मैं नहीं दिखा सकता हां यदि आप मुझे दो-तीन पहर की छुट्टी दें तो…!!”

इंद्रदेव की बात महाराज ने मंजूर कर ली और तब वह (इंद्रदेव) सभों के देखते-देखते चौखूटे पत्थर के ऊपर चले गये जो चबूतरे के बीच में जड़ा हुआ था। सवार होने के साथ ही वह पत्थर हिला और इंद्रदेव को लिए हुए जमीन के अंदर चला गया मगर थोड़ी देर में पुनः ऊपर चला आया और अपने ठिकाने पर ज्यों का त्यों बैठ गया लेकिन उस समय इंद्रदेव उस पर न थे।

इंद्रदेव के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक तो सब कोई उस चबूतरे पर खड़े रहे, इसके बाद धीरे-धीरे वह चबूतरा गरम होने लगा और वह गर्मी यहां तक बढ़ी कि लाचार उन सभों को चबूतरा छोड़ देना पड़ा, अर्थात् सब कोई चबूतरे के नीचे उतर आए और बाग में टहलने लगे। इस समय दिन घंटे भर से कुछ कम बाकी था।

इस खयाल से कि देखें इसकी दीवार किस ढंग की बनी हुई है, सब कोई घूमते हुए पूरब तरफ वाली दीवार के पास जा पहुंचे ओैर गौर से देखने लगे मगर कोई अनूठी बात दिखाई न दी। इसके बाद उत्तर तरफ वाली और फिर पश्चिम तरफ वाली दीवार को देखते हुए सब कोई दक्खिन तरफ गए और उधर की दीवार को आश्चर्य के साथ देखने लगे क्योंकि इसमें कुछ विचित्रता जरूर थी।

यह दीवार शीशे की मालूम होती थी और इसमें महाभारत की तस्वीरें बनी हुई थीं। ये तस्वीरें उसी ढंग की थीं जैसा कि उस तिलिस्मी बंगले में चलती-फिरती तस्वीरें इन लोगों ने देखी थीं। ये लोग तस्वीरों को बड़ी देर तक देखते रहे और सभों को विश्वास हो गया कि जिस तरह उस बंगले वाली तस्वीरों को चलते-फिरते और काम करते हम लोग देख चुके हैं उसी तरह इन तस्वीरों को भी देखेंगे क्योंकि दीवार पर हाथ फेरने से साफ मालूम होता था कि तस्वीरें शीशे के अंदर हैं।

इन तस्वीरों को देखने से महाभारत की लड़ाई का जमाना आंखों के सामने फिर जाता था, कौरवों ओैर पाण्डवों की फौज, बड़े-बड़े सेनापति तथा रथ, हाथी, घोड़े इत्यादि जो कुछ बने थे सभी अच्छे और दिल पर असर पैदा करने वाले थे। ‘इस लड़ाई की नकल अपनी आंखों से देखेंगे’ इस विचार से सब कोई प्रसन्न थे। बड़ी दिलचस्पी के साथ उन तस्वीरों को देख रहे थे, यहां तक कि सूर्य अस्त हो गया और धीरे-धीरे अंधकार ने चारों तरफ अपना दखल जमा लिया। उस समय यकायक दीवार चमकने लगी और तस्वीरों में हरकत पैदा हुई जिससे सभों ने समझा कि नकली लड़ाई शुरू हुआ चाहती है मगर कुछ ही देर बाद लोगों का यह विश्वास ताज्जुब के साथ बदल गया जब यह देखा कि उसमें की तस्वीरें एक-एक करके गायब हो रही हैं। यहां तक कि घड़ी भर के अंदर ही सब तस्वीरें गायब हो गईं और दीवार साफ दिखाई देने लगी। इसके बाद दीवार की चमक भी बंद हो गई ओैर फिर अंधकार दिखाई देने लगा।

थोड़ी देर बाद उस चबूतरे की तरफ रोशनी मालूम हुई। यह देखकर सब कोई उसी तरफ रवाना हुए और जब उसके पास पहुंचे तो देखा कि उस चबूतरे की छत में जड़े हुए शीशों के दस बारह टुकड़े इस तेजी के साथ चमक रहे हैं कि जिससे केवल चबूतरा ही नहीं बल्कि तमाम बाग उजाला हो रहा है। इसके अतिरिक्त सैकड़ों मूरतें भी उस चबूतरे पर इधर-उधर चलती-फिरती दिखाई दीं। गौर करने से मालूम हुआ कि ये मूरतें (या तस्वीरें) बेशक वे ही हैं जिन्हें उस दीवार के अंदर देख चुके हैं। ताज्जुब नहीं कि वह दीवार इन सभों का खजाना हो और वही यहां इस चबूतरे पर आकर तमाशा दिखाती हों।

इस समय जितनी मूरतें उस चबूतरे पर थीं सब अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की लड़ाई से संबंध रखती थीं। जब उन मूरतों ने अपना काम शुरू किया तो ठीक अभिमन्यु की लड़ाई का तमाशा आंखों के सामने दिखाई देने लगा। जिस तरह कौरवों के रचे हुए व्यूह के अंदर फंसकर कुमार अभिमन्यु ने वीरता दिखाई थी और अंत में अधर्म के साथ जिस तरह वह मारा गया था उसी को आज नाटक स्वरूप में देखकर सब कोई बड़े प्रसन्न हुए और सभों के दिलों पर बहुत देर तक इसका असर रहा।

इस तमाशे का हाल खुलासे तौर पर हम इसलिए नहीं लिखते कि इसकी कथा बहुत प्रसिद्ध है और महाभारत में विस्तार के साथ लिखी है।

यह तमाशा थोड़ी ही देर में खत्म नहीं हुआ बल्कि देखते-देखते तमाम रात बीत गई। सबेरा होने के कुछ पहले अंधकार हो गया और उसी अंधकार में सब मूरतें गायब हो गईं। उजाला होने और आंखें ठहरने पर जब सभों ने देखा तो उस चबूतरे पर सिवाय इंद्रदेव के और कुछ भी दिखाई न दिया।

इंद्रदेव को देखकर सब कोई प्रसन्न हुए और साहब-सलामत के बाद इस तरह बातचीत होने लगी –

इंद्रदेव – (चबूतरे से नीचे उतरकर और महाराज के पास आकर) मैं उम्मीद करता हूं कि इस तमाशे को देखकर महाराज प्रसन्न हुए होंगे।

महाराज – बेशक! क्या इसके सिवाय और भी कोई तमाशा यहां दिखाई दे सकता है?

इंद्रदेव – जी हां यहां पूरा महाभारत दिखाई दे सकता है अर्थात् महाभारत ग्रंथ में जो कुछ लिखा है वह सब इसी ढंग पर और इसी चबूतरे पर आप देख सकते हैं मगर दो-चार दिन में नहीं बल्कि महीनों में। इसके साथ-साथ बनाने वाले ने इसकी भी तरकीब रखी है कि चाहे शुरू ही से तमाशा दिखाया जाय या बीच ही से कोई टुकड़ा दिखा दिया जाय अर्थात् महाभारत के अंतर्गत जो कुछ चाहें देख सकते हैं।

महाराज – इच्छा तो बहुत कुछ देखने की थी मगर इस समय हम लोग यहां ज्यादे रुक नहीं सकते अस्तु फिर कभी जरूर देखेंगे। हां हमें इस तमाशे के विषय में कुछ समझाओ तो सही कि यह काम क्योंकर हो सकता है और तुमने यहां से कहां जाकर क्या किया?

इंद्रदेव ने इस तमाशे का पूरा-पूरा भेद सभों को समझाया और कहा कि ऐसे कई तमाशे इस तिलिस्म में भरे पड़े हैं, अगर आप चाहें तो इस काम में वर्षों बीत सकते हैं, इसके अतिरिक्त यहां की दौलत का भी यही हाल है कि वर्षों तक ढोते रहिए फिर भी कमी न हो, सोने-चांदी का तो कहना ही क्या है, जवाहिरात भी आप जितना चाहें ले सकते हैं, सच तो यों है कि जितनी दौलत यहां है उसके रहने का ठिकाना भी यहीं हो सकता है। इस बगीचे के आस ही पास और भी चार बाग हैं, शायद उन सभों में घूमना और वहां के तमाशों को देखना इस समय आप पसंद न करें…।

महाराज – बेशक इस समय हम इन सब तमाशों में समय बिताना पसंद नहीं करते। सबसे पहले शादी-ब्याह के काम से छुट्टी पाने की इच्छा लगी हुई है मगर इसके बाद पुनः एक दफे इस तिलिस्म में आकर यहां की सैर जरूर करेंगे।

कुछ देर तक इसी किस्म की बातें होती रहीं, इसके बाद इंद्रदेव सभों को पुनः उसी बाग में ले आये जिसमें उनसे मुलाकात हुई थी या जहां से इंद्रदेव के स्थान पर जाने का रास्ता था।

बयान – 10

इस बाग में पहले दिन जिस बारहदरी में बैठकर सभों ने भोजन किया था, आज पुनः उसी बारहदरी में बैठने और भोजन करने का मौका मिला। खाने की चीजें ऐयार लोग अपने साथ ले आये थे और जल की वहां कमी ही न थी, अस्तु स्नान, संध्योपासन और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर सब कोई उसी बारहदरी में सो रहे क्योंकि रात के जागे हुए थे और बिना कुछ आराम किसे बढ़ने की इच्छा न थी।

जब दिन पहर भर से कुछ कम बाकी रह गया तब सब कोई उठे और चश्मे के जल से हाथ-मुंह धोकर आगे की तरफ बढ़ने के लिए तैयार हुए।

हम ऊपर किसी बयान में लिख आये हें कि यहां तीनों तरफ की दीवारों में कई अलमारियां भी थीं अस्तु इस समय कुंअर इंद्रजीतसिंह ने उन्हीं अलमारियों में से एक अलमारी खोली और महाराज की तरफ देखकर कहा, ”चुनार के तिलिस्म में जाने का यही रास्ता है और हम दोनों भाई इसी रास्ते से वहां तक गये थे।”

रास्ता बिल्कुल अंधेरा था इसलिए इंद्रजीतसिंह तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए आगे-आगे रवाना हुए और उनके पीछे महाराज सुरेन्द्रसिंह, राजा वीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, इंद्रदेव वगैरह और ऐयार लोग रवाना हुए। सबसे पीछे कुंअर आनंदसिंह तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए जाने लगे क्योंकि सुरंग पतली थी और केवल आगे की रोशनी से काम नहीं चल सकता था।

ये लोग उस सुरंग में कई घंटे तक बराबर चले गये और इस बात का पता न लगा कि कब संध्या हुई या अब कितनी रात बीत चुकी है। जब सुरंग का दूसरा दरवाजा इन लोगों को मिला और उसे खोलकर सब कोई बाहर निकले तो अपने को एक लंबी-चौड़ी कोठरी में पाया जिसमें इस दरवाजे के अतिरिक्त तीनों तरफ की दीवारों में और भी तीन दरवाजे थे जिनकी तरफ इशारा करके कुंअर इंद्रजीतसिंह ने कहा, ”अब हम लोग उस चबूतरे वाले तिलिस्म के नीचे आ पहुंचे हैं। इस जगह एक-दूसरे से मिली हुई सैकड़ों कोठरियां हैं जो भूलभुलैये की तरह चक्कर दिलाती हैं और जिनमें फंसा हुआ अनजान आदमी जल्दी निकल ही नहीं सकता। जब पहले-पहल हम दोनों भाई यहां आये थे तो सब कोठरियों के दरवाजे बंद थे जो तिलिस्मी किताब की सहायता से खोले गये और जिनका खुलासा हाल आपको तिलिस्मी किताब को पढ़ने से मालूम होगा, मगर इनके खोलने में कई दिन लगे और तकलीफ भी बहुत हुई। इन कोठरियों के मध्य में एक चौखूटा कमरा आप देखेंगे जो ठीक चबूतरे के नीचे हैं और उसी में से बाहर निकलने का रास्ता है, बाकी सब कोठरियों में असबाब और खजाना भरा हुआ है। इसके अतिरिक्त छत के ऊपर एक और रास्ता उस चबूतरे में से बाहर निकलने के लिए बना हुआ है जिसका हाल मुझे पहले मालूम था, जिस दिन हम दोनों भाई उस चबूतरे की राह निकले हैं उस दिन देखा कि इसके अतिरिक्त एक रास्ता और भी है।”

इंद्रदेव – जी हां, दूसरा रास्ता भी जरूर है मगर वह तिलिस्म के दारोगा के लिए बनाया गया था, तिलिस्म तोड़ने वाले के लिए नहीं। मुझे उस रास्ते का हाल बखूबी मालूम है।

गोपाल – मुझे भी उस रास्ते का हाल (इंद्रदेव की तरफ इशारा करके) इन्हीं की जुबानी मालूम हुआ है, इसके पहले मैं कुछ भी नहीं जानता था और न ही मालूम था कि इस तिलिस्म के दारोगा यही हैं।

इसके बाद कुंअर इंद्रजीतसिंह ने सभों को तहखाने अथवा कोठरियों, कमरों की सैर कराई जिसमें लाजवाब और हद दर्जे की फिजूलखर्ची को मात करने वाली दौलत भरी हुई थी और एक से एक बढ़कर अनूठी चीजें लोगों के दिल को अपनी तरफ खींच रही थीं, साथ ही इसके यह भी समझाया कि इन कोठरियों को हम लोगों ने कैसे खोला और इस काम में कैसी-कैसी कठिनाइयां उठानी पड़ीं।

घूमते – फिरते और सैर करते हुए सब कोई उस मध्य वाले कमरे में पहुंचे जो ठीक तिलिस्मी चबूतरे के नीचे था। वास्तव में वह कमरा कल-पुरजों से बिल्कुल भरा हुआ था। जमीन से छत तक बहुत-सी तारों और कल-पुरजों का संबंध था और दीवार के अंदर से ऊपर चढ़ जाने के लिए सीढ़ियां दिखाई दे रही थीं।

दोनों कुमारों ने महाराज को समझाया कि तिलिस्म के टूटने के पहले वे कल-पुरजे किस ढंग पर लगे थे और तोड़ते समय उनके साथ कैसी कार्रवाई की गई। इसके बाद इंद्रजीतसिंह ने सीढ़यों की तरफ इशारा करके कहा, ”अब तक इन सीढ़ियों का तिलिस्म कायम है, हर एक की मजाल नहीं कि इन पर पैर रख सके।”

वीरेन्द्र – यह सब-कुछ है मगर असल तिलिस्मी बुनियाद वही खोह वाला बंगला जान पड़ता है जिसमें चलती-फिरती तस्वीरों का तमाशा देखा था और वहां से तिलिस्म के अंदर घुसे थे।

सुरेन्द्र – इसमें क्या शक है। वही चुनार, जमानिया और रोहतासगढ़ वगैरह के तिलिस्मों की नकेल है और वहां रहने वाला तरह-तरह के तमाशे देख-दिखा सकता है और सबसे बढ़कर आनंद ले सकता है।

जीत – वहां की पूरी-पूरी कैफियत अभी देखने में नहीं आई।

इंद्रजीत – दो-चार दिन में वहां की कैफियत देख भी नहीं सकते। जो कुछ आप लोगों ने देखा वह रुपये में एक आना भी न था। मुझे भी अभी पुनः वहां जाकर बहुत कुछ देखना बाकी है।

सुरेन्द्र – इस समय जल्दी में थोड़ा-बहुत देख लिया है मगर काम से निश्चिंत होकर पुनः हम लोग वहां चलेंगे और उसी जगह से रोहतासगढ़ के तहखाने की भी सैर करेंगे। अच्छा अब यहां से बाहर होना चाहिए।

आगे – आगे कुंअर इंद्रजीतसिंह रवाना हुए। पांच-सात सीढ़ियां चढ़ जाने के बाद एक लोहे का छोटा-सा दरवाजा मिला जिसे उसी हीरे वाली तिलिस्मी ताली से खोला और तब सभों को लिए हुए दोनों कुमार तिलिस्मी चबूतरे के बाहर हुए।

सब कोई तिलिस्म की सैर करके लौट आये और अपने-अपने काम-धंधे में लगे। कैदियों के मुकदमे थोड़े दिन तक मुल्तवी रखकर कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह की शादी पर सभों ने ध्यान दिया और इसी के इंतजाम की फिक्र करने लगे। महाराज सुरेन्द्रसिंह ने जो काम जिसके लायक समझा उसके सुपुर्द करके कुल कैदियों को चुनारगढ़ भेजने का हुक्म दिया और यह भी निश्चय कर लिया कि दो-तीन दिन के बाद हम लोग भी चुनारगढ़ चले जायेंगे क्योंकि बारात चुनारगढ़ ही से निकलकर यहां आवेगी।

भरथसिंह और दलीपशाह वगैरह का डेरा बलभद्रसिंह के पड़ोस ही में पड़ा और दूसरे मेहमानों के साथ ही साथ इनकी खातिरदारी का बोझ भी भूतनाथ के ऊपर डाला गया। इस जगह संक्षेप में हम यह भी लिख देना उचित समझते हैं कि कौन काम किसके सुपुर्द किया गया।

1. इस तिलिस्मी इमारत के इर्द-गिर्द जिन मेहमानों के डेरे पड़े हैं उन्हें किसी बात की तकलीफ तो नहीं होती, इस बात को बराबर मालूम करते रहने का काम भूतनाथ के सुपुर्द किया गया।

2. मोदी, बनिए और हलवाई वगैरह किसी से किसी चीज का दाम तो नहीं लेते, इस बात की तहकीकात के लिए रामनारायण ऐयार मुकर्रर किये गए।

3. रसद वगैरह के काम में कहीं किसी तरह की बेईमानी तो नहीं होती, या चोरी का नाम तो किसी की जुबान से नहीं सुनाई देता, इसको जानने और शिकायतों को दूर करने पर चुन्नीलाल ऐयार तैनात किये गए।

4. इस तिलिस्मी इमारत से लेकर चुनारगढ़ तक की सड़क और उसकी सजावट का काम पन्नालाल और पंडित बद्रीनाथ के जिम्मे किया गया।

5. चुनारगढ़ में बाहर से न्यौते में आये हुए पंडितों की खातिरदारी और पूजा-पाठ इत्यादि के सामान की दुरुस्ती का बोझ जगन्नाथ ज्योतिषी के ऊपर डाला गया।

6. बारात और महफिल वगैरह की सजावट तथा उसके संबंध में जो कुछ काम हो उसके जिम्मेदार तेजसिंह बनाये गये।

7. आतिशबाजी और अजायबातों के तमाशे तैयार करने के साथ ही साथ उसी तरह की एक इमारत बनवाने का हुक्म इंद्रदेव को दिया गया जैसी इमारत के अंदर हंसते-हंसते इंद्रजीतसिंह वगैरह एक दफे कूद गये थे और जिसका भेद अभी तक खोला नहीं गया है।1

8. पन्नालाल वगैरह के बदले में रणधीरसिंह के डेरे की हिफाजत तथा किशोरी, कमलिनी वगैरह की निगरानी के जिम्मेवार देवीसिंह बनाये गये।

9. ब्याह संबंधी खर्च की तहवील (रोकड़) राजा गोपालसिंह के हवाले की गई।

10. कुंअर इंद्रजीतसिंह व आनंदसिंह के साथ रहकर उनके विवाह संबंधी शानशौकत और जरूरतों को कायदे के साथ निबाहने के लिए भैरोसिंह और तारासिंह छोड़ दिये गये।

11. हरनामसिंह को अपने मातहत में लेकर भैरोसिंह ने यह काम अपने जिम्मे ले लिया कि हर एक के कामों की निगरानी रखने के अतिरिक्त कुछ कैदियों को भी किसी उचित ढंग से इस विवाहोत्सव के तमाशे दिखा देंगे ताकि वे लोग भी देख लें कि जिस शुभ दिन के लिए हम बाधक थे वह आज किस खुशी और खूबी के साथ बीत रहा है और सर्वसाधारण भी देख लें कि धन-दौलत और ऐश-आराम के फेर में पड़कर अपने पैर में कुल्हाड़ी मारने वाले, छोटे होकर बड़ों के साथ बैर बांध के नतीजा भोगने वाले, मालिक के साथ नमकहरामी और उग्र पाप करने का कुछ फल इस जन्म में भी भोग लेने वाले, और बदनीयती तथा पाप के साथ ऊंचे दर्जे पर पहुंचकर यकायक रसातल में पहुंच जाने वाले, धर्म और ईश्वर से विमुख ये ही प्रायश्चिती लोग हैं।

इन सभों के साथ मातहती में काम करने के लिए आदमी भी काफी तौर पर दिये गये।

इनके अतिरिक्त और लोगों को भी तरह-तरह के काम सुपुर्द किए गए और सब कोई बड़ी खूबी के साथ अपना-अपना काम करने लगे।

1देखिए चंद्रकान्ता संतति, पांचवां भाग, चौथा बयान।

बयान – 11

अब हम थोड़ा-सा हाल कुंअर इंद्रजीतसिंह का बयान करेंगे जिन्हें इस बात का बहुत ही रंज है कि कमलिनी की शादी किसी दूसरे के साथ हो गई है और वे उम्मीद ही में बैठे रह गये।

रात पहर से कुछ ज्यादे जा चुकी है, कुंअर इंद्रजीतसिंह अपने कमरे में बैठे भैरोसिंह से धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं। इन दोनों के सिवाय कोई तीसरा आदमी इस कमरे में नहीं है और कमरे का दरवाजा भी भिड़काया हुआ है।

भैरो – तो आप साफ-साफ कहते क्यों नहीं कि आपकी उदासी का सबब क्या है आपको तो आज खुश होना चाहिए कि जिस काम के लिए बरसों परेशान रहे, जिसकी उम्मीद में तरह-तरह की तकलीफ उठाई, जिसके लिए हथेली पर जान रख के बड़े-बड़े दुश्मनों से मुकाबला करना पड़ा और जिसके होने या मिलने ही पर तमाम दुनिया की खुशी समझी जाती थी, आज वही काम आपकी इच्छानुसार हो रहा है और उसी किशोरी के साथ अपनी शादी का इंतजाम अपनी आंखों से देख रहे हैं, फिर भी ऐसी अवस्था में आपकी उदासी देखकर कौन ऐसा है जो ताज्जुब न करेगा?

इंद्र – बेशक मेरे लिए आज बड़ी खुशी का दिन है और मैं खुश हूं भी मगर कमलिनी की तरफ से जो रंज मुझे हुआ है उसे हजार कोशिश करने पर भी मेरा दिल बरदाश्त नहीं कर पाता।

भैरो – (ताज्जुब का चेहरा बनाकर) हैं, कमलिनी की तरफ से और आपको रंज! जिसके एहसानों के बोझ से आप दबे हुए हैं उसी कमलिनी से रंज। यह आप क्या कह रहे हैं?

इंद्र – इस बात को तो मैं खुद कह रहा हूं कि उसके एहसानों के बोझ से मैं जिंदगी भर हलका नही हो सकता और अब तक उसके जी में मेरी भलाई का ध्यान बंधा ही हुआ है मगर रंज इस बात का है कि अब मैं उसे उस मोहब्बत की निगाह से नहीं देख सकता जिससे कि पहले देखता था।

भैरो – सो क्यों, क्या इसलिए कि अब वह अपने ससुराल चली जायगी और फिर उसे आप पर एहसान करने का मौका न मिलेगा?

इंद्र – हां करीब-करीब यही बात है।

भैरो – मगर अब आपको उसकी मदद की जरूरत भी तो नहीं है। हां इस बात का खयाल बेशक हो सकता है कि अब आप उसके तिलिस्मी मकान पर कब्जा कर सकेंगे।

इंद्र – नहीं-नहीं, मुझे इस बात की कुछ जरूरत नहीं है और न उसका कुछ खयाल ही है!

भैरो – तो इस बात का खयाल है कि उसने अपनी शादी में आपको न्यौता नहीं दिया मगर वह एक हिंदू लड़की की हैसियत से ऐसा कर भी तो नहीं सकती थी! हां इस बात की शिकायत आप राजा गोपालसिंह से जरूर कर सकते हैं क्योंकि उस काम के कर्ता-धर्ता वे ही हैं।

इंद्र – उनसे तो मुझे बहुत ही शिकायत है मगर मैं शर्म के मारे कुछ कह नहीं सकता।

भैरो – (चौंककर) शर्म तो तब होती जब आप इस बात की शिकायत करते कि मैं खुद उससे शादी किया चाहता था।

इंद्र – हां बात तो ऐसी ही है। (मुस्कराकर) मगर तुम तो पागलों की-सी बातें करते हो।

भैरो – (हंसकर) यह कहिए न! आप दोनों हाथ लड्डू चाहते थे! तो इस चोर को आप इतने दिनों तक छिपाए क्यों रहे?

इंद्र – तो यही कब उम्मीद हो सकती थी कि इस तरह यकायक गुमसुम शादी हो जायगी।

भैरो – खैर अब तो जो कुछ होना था सो हो गया, मगर आपको इस बात का खयाल न करना चाहिए। इसके अतिरिक्त क्या आप समझते हैं कि किशोरी इस बात को पसंद करती कभी नहीं, बल्कि आये दिन का झगड़ा पैदा हो जाता।

इंद्र – नहीं, किशोरी से मुझे ऐसी उम्मीद नहीं हो सकती। खैर अब इस विषय पर बहस करना व्यर्थ है, मगर मुझे रंज जरूर है। अच्छा यह तो बताओ कि तुमने उन्हें देखा है जिनके साथ कमलिनी की शादी हुई?

भैरो – कई दफे, बातें भी अच्छी तरह कर चुका हूं।

इंद्र – कैसे हैं?

भैरो – बड़े लायक, पढ़े-लिखे, पंडित, बहादुर, दिलेर, हंसमुख और सुंदर। इस अवसर पर आवेंगे ही, देख लीजिएगा। आपने कमलिनी से इस बारे में बातचीत नहीं की?

इंद्र – इधर तो नहीं मगर तिलिस्म की सैर को जाने से पहले मुलाकात हुई थी, उसने खुद मुझे बुलाया था बल्कि उसी की जुबानी उसकी शादी का हाल मुझे मालूम हुआ था। मगर उसने मेरे साथ विचित्र ढंग का बर्ताव किया।

भैरो – सो क्या?

इंद्र – (जो कुछ कैफियत हो चुकी थी उसे बयान करने के बाद) तुम इस बर्ताव को कैसा समझते हो?

भैरो – बहुत अच्छा और उचित।

इसी तरह बातचीत हो रही थी कि पहले दिन की तरह बगल वाले कमरे का दरवाजा खुला ओैर एक लौंडी ने आकर सलाम करने के बाद कहा, ”कमलिनीजी आपसे मिलना चाहती हैं, आज्ञा हो तो…।”

इंद्र – अच्छा मैं चलता हूं, तू दरवाजा बंद कर दे।

भैरो – अब मैं भी जाकर आराम करता हूं।

इंद्र – अच्छा जाओ फिर कल देखा जायेगा।

लौंडी – इनसे (भैरोसिंह) भी उन्हें कुछ कहना है।

यह कहती हुई लौंडी ने दरवाजा बंद कर दिया, तब तक स्वयं कमलिनी इस कमरे में आ पहुंची और भैरोसिंह की तरफ देखकर बोली, (जो उठकर बाहर जाने के लिए तैयार था) ”आप कहां चले आप ही से तो मुझे बहुत-सी शिकायत करनी है।”

भैरो – सो क्या?

कमलिनी – अब उसी कमरे में चलिये, वहां बातचीत होगी।

इतना कहकर कमलिनी ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और अपने कमरे की तरफ ले चली, पीछे-पीछे भैरोसिंह भी गये। लौंडी दरवाजा बंद करके दूसरी राह से बाहर चली गई और कमलिनी ने इन दोनों को उचित स्थान पर बैठाकर पानदान आगे रख दिया और भैरोसिंह से कहा, ”आप लोग तिलिस्म की सैर कर आये और मुझे पूछा भी नहीं!”

भैरो – महाराज खुद कह चुके हैं कि शादी के बाद औरतों को भी तिलिस्म की सैर करा दी जाय और फिर तुम्हारे लिए तो कहना ही क्या है, तुम जब चाहो तिलिस्म की सैर कर सकती हो।

कम – ठीक हे, मानो यह मेरे हाथ की बात है।

भौरो – है ही।

कम – (हंसकर) टालने के लिए अच्छा ढंग है! खैर जाने दीजिए, मुझे कुछ ऐसा शौक भी नहीं है, हां यह बताइए कि वहां क्या-क्या कैफियत देखने में आई मैंने सुना कि भूतनाथ वहां बड़े चक्कर में पड़ गया था और उसकी पहली स्त्री भी वहां दिखाई पड़ गई।

भैरो – बेशक ऐसा ही हुआ।

इतना कहकर भैरोसिंह ने कुल हाल खुलासा बयान किया और इसके बाद कमलिनी ने इंद्रजीतसिंह से कहा, ”खैर आप बताइए कि शादी की खुशी में मुझे क्या इनाम मिलेगा।”

इंद्र – (हंसकर) गालियों के सिवाय और किसी चीज की तुम्हें कमी ही क्या है जो मैं दूं?

कम – (भैरो से) सुन लीजिए, मेरे लिए कैसा अच्छा इनाम सोचा गया है! (कुमार से हंसकर) याद रखियेगा, इस जवाब के बदले में मैं आपको ऐसा छकाऊंगी कि खुश हो जाइयेगा!

भैरो – इन्हें तो तुम छका ही चुकी हो। अब इससे बढ़ के क्या होगा कि चुपचाप दूसरे के साथ शादी कर ली और इन्हें अंगूठा दिखा दिया! अब तुम्हें ये गालियां न दें तो क्या करें!

कम – (मुस्कराती हुई) आपकी राय भी यही है?

भैरो – बेशक!

कम – तो बेचारी किशोरी के साथ आप अच्छा सलूक करते हैं।

भैरो – इसका इल्जाम तो कुमार के ऊपर हो सकता है!

कम – हां साब, मर्दों की मुरौवत जो कुछ कर दिखाए थोड़ा है, मैं किशोरी बहिन से इसका जिक्र करूंगी।

भैरो – तब तो एहसान पर एहसान करोगी।

इंद्र – (भैरो से) तुम भी व्यर्थ की छेड़छाड़ मचा रहे हो, भला इन बातों से क्या फायदा।

भैरो – ब्याह-शादी में ऐसी बातें हुआ ही करती हैं!

इंद्र – तुम्हारा सिर हुआ करता है! (कमलिनी से) अच्छा यह बताओ कि इस समय तुमने मुझे क्यों याद किया?

कम – हरे राम! अब मैं क्या ऐसी भारी हो गई कि मुझसे मिलना भी बुरा मालूम होता है

इंद्र – नहीं-नहीं, अगर मिलना बुरा मालूम होता तो मैं यहां आता ही क्यों पूछता हूं आखिर कोई काम भी है या –

कम – हां है तो सही।

इंद्र – कहो!

कम – आपको शायद मालूम होगा कि मेरे पिता जब से यहां आये हैं उन्होंने अपने खाने-पीने का इंतजाम अलग रखा है अर्थात् आपके यहां का अन्न नहीं खाते और न कुछ अपने लिए खर्च करवाते हैं।

इंद्र – हां मुझे मालूम है।

कम – अब उन्होंने इस मकान में भी रहने से इनकार किया है, उनके एक मित्र ने खैमे वगैरह का इंतजाम कर दिया है और वे उसी में अपना डेरा उठा ले जाने वाले हैं।

इंद्र – यह भी मालूम है।

कम – मेरी इच्छा है कि यदि आप आज्ञा दें तो लाडिली को साथ लेकर मैं भी उसी डेरे में चली जाऊं।

इ्रंद – क्यों तुम्हें यहां रहने में परहेज ही क्या हो सकता है?

कम – नहीं-नहीं मुझे किस बात का परहेज होगा मगर यों ही जी चाहता है कि मैं दो-चार दिन आपने बाप के साथ ही रहकर उनकी खिदमत करूं।

इंद्र – यह दूसरी बात है, इसकी इजाजत तुम्हें अपने मालिक से लेनी चाहिए, मैं कौन हूं जो इजाजत दूं?

कम – इस समय वे तो यहां हैं नहीं अस्तु उनके बदले में मैं आप ही को अपना मालिक समझती हूं।

इंद्र – (मुस्कराकर) फिर तुमने वही रास्ता पकड़ा खैर मैं इस बात की इजाजत न दूंगा।

कम – तो मैं आज्ञा के विरुद्ध कुछ न करूंगी।

इंद्र – (भैरो से) इनकी बातचीत का ढंग देखते हो?

भैरो – (हंसकर) शादी हो जाने पर भी ये आपको नहीं छोड़ा चाहतीं तो मैं क्या करूं।

कम – अच्छा मुझे एक बात की इजाजत तो जरूर दीजिए।

इंद्र – वह क्या?

कम – आपकी शादी में मैं आपसे एक विचित्र दिल्लगी किया चाहती हूं।

इंद्र – वह कौन-सी दिल्लगी होगी?

कम – यही बता दूंगी तो उसमें मजा ही क्या रह जायगा बस आप इतना कह दीजिए कि उस दिल्लगी से रंज न होंगे चाहे वह कैसी ही गहरी क्यों न हो।

इंद्र – (कुछ सोचकर) खैर मैं रंज न होऊंगा।

इसके बाद थोड़ी देर तक हंसी की बातें होती रहीं और फिर सब कोई उठकर अपने-अपने ठिकाने चले गये।

बयान – 12

ब्याह की तैयारी और हंसी-खुशी में ही कई सप्ताह बीत गये और किसी को कुछ मालूम न हुआ। हां कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह को खुशी के साथ ही रंज और उदासी से भी मुकाबला करना पड़ा। यह रंज और उदासी क्यों शायद कमलिनी और लाडिली के सबब से हो। जिस तरह कुंअर इंद्रजीतसिंह कमलिनी से मिलकर और उसकी जुबानी उसके ब्याह का हो जाना सुनकर दुःखी हुए, उसी तरह आनंदसिंह को भी लाडिली से मिलकर दुःखी होना पड़ा या नहीं, सो हम नहीं कह सकते क्योंकि लाडिली से और आनंदसिंह से जो बातें हुर्ईं उसमें और कमलिनी की बातों में बड़ा फर्क है। कमलिनी ने तो खुद इंद्रजीतसिंह को अपने कमरे में बुलवाया था मगर लाडिली ने ऐसा नहीं किया। लाडिली का कमरा भी आनंदसिंह के कमरे के बगल में ही था। जिस रात कमलिनी और इंद्रजीतसिंह की दूसरी मुलाकात हुई थी, उसी रात को आनंदसिंह ने भी अपने बगल वाले कमरे में लाडिली को देखा था मगर दूसरे ढंग से। आनंदसिंह अपने कमरे में मसहरी पर लेटे हुए तरह-तरह की बातें सोच रहे थे कि उसी समय बगल वाले कमरे में से कुछ खटके की आवाज आई जिससे आनंदसिंह चौंके और उन्होंने घूमकर देखा तो उस कमरे का दरवाजा कुछ खुला हुआ नजर आया। इन्हें यह जरूर मालूम था कि हमारे बगल ही में लाडिली का कमरा है और उससे मिलने की नीयत से इन्होंने कई दफे दरवाजा खोलना भी चाहा था मगर बंद पाकर लाचार हो गये थे। अब दरवाजा खुला पाकर बहुत खुश हुए और मसहरी पर से उठ धीरे-धीरे दरवाजे के पास गये। हाथ के सहारे दरवाजा कुछ विशेष खोला और अंदर की तरफ झांककर देखा। लाडिली पर निगाह पड़ी जो एक शमादान के आगे बैठी हुई कुछ लिख रही थी। शायद उसे इस बात की कुछ खबर ही न थी कि मुझे कोई देख रहा है।

भीतर सन्नाटा पाकर अर्थात् किसी गैर को न देखकर आनंदसिंह बेधड़क कमरे के अंदर चले गये। पैर की आहट पाते ही लाडिली चौंकी तथा आनंदसिंह को अपनी तरफ आते देख उठ खड़ी हुई और बोली, ”आपने दरवाजा कैसे खोल लिया?’

आनंद – (मुस्कराते हुए) किसी हिकमत से!

लाडिली – क्या आज के पहले वह हिकमत मालूम न थी शायद सफाई के लिए किसी लौंडी ने दरवाजा खोला हो और बंद करना भूल गई हो।

आनंद – अगर ऐसा ही हो तो क्या कुछ हर्ज है

लाडिली – नहीं हर्ज काहे का है, मैं तो खुद ही आपसे मिलना चाहती थी मगर लाचारी…।

आनंद – लाचारी कैसी क्या किसी ने मना कर दिया था?

लाडिली – मना ही समझना चाहिए जबकि मेरी बहिन कमलिनी ने जोर देकर कह दिया कि ‘या तो तू मेरी इच्छानुसार शादी कर ले या इस बात की कसम खा जा कि किसी गैर मर्द से कभी बातचीत न करेगी’। जिस समय उनकी (कमलिनी की) शादी होने लगी थी उस समय भी लोगों ने मुझ पर शादी कर लेने के लिए दबाव डाला था मगर मैं इस समय जैसी हूं वैसी ही रहने के लिए कसम खा चुकी हूं, मतलब यह है कि इसी बखेड़े में मुझसे और उनसे कुछ तकरार भी हो गई है।

आनंद – (घबराहट और ताज्जुब के साथ) क्या कमलिनी की शादी हो गई?

लाडिली – जी हां।

आनंद – किसके साथ?

लाडिली – सो तो मैं नहीं कह सकती, आपको खुद मालूम हो जायगा।

आनंद – यह बहुत बुरा हुआ।

लाडिली – बेशक बहुत बुरा हुआ मगर क्या किया जाय, जीजाजी (गोपालसिंह) की मर्जी ही ऐसी थी क्योंकि किशोरी ने ऐसा करने के लिए उन पर बहुत जोर डाला था अस्तु कमलिनी बहिन दबाव में पड़ गई, मगर मैंने साफ इंकार कर दिया कि जैसी हूं वैसी ही रहूंगी।

आनंद – तुमने बहुत अच्छा किया।

लाडिली – और मैं ऐसा करने के लिए सख्त कसम खा चुकी हूं।

आनंद – (ताज्जुब से) क्या तुम्हारे इस कहने का यह मतलब लगाया जाय कि अब तुम शादी करोगी ही नहीं?

लाडिली – बेशक!

आनंद – यह तो कोई अच्छी बात नहीं!

लाडिली – जो हो, अब तो मैं कसम खा चुकी हूं और बहुत जल्द यहां से चली जाने वाली हूं, सिर्फ कामिनी बहिन की शादी हो जाने का इंतजार कर रही हूं।

आनंद – (कुछ सोचकर) कहां जाओगी?

लाडिली – आप लोगों की कृपा से अब तो मेरा बाप भी प्रकट हो गया है अब इसकी चिंता ही क्या है?

आनंद – मगर जहां तक मैं समझता हूं तुम्हारे बाप तुम्हें शादी करने के लिए जरूर जोर देंगे।

लाडिली – इस विषय में उनकी कुछ न चलेगी।

लाडिली की बातों से आनंदसिंह को ताज्जुब के साथ ही साथ रंज भी हुआ और ज्यादे रंज तो इस बात का था कि अब तक लाडिली ने खड़े ही खड़े बातचीत की और कुमार को बैठने तक के लिए नहीं कहा। शायद इसका मतलब हो कि ‘मैं ज्यादे देर तक आपसे बात नहीं कर सकती’। अस्तु आनंदसिंह को क्रोध और दुःख के साथ लज्जा ने भी धर दबाया और वे यह कहकर कि ‘अच्छा मैं जाता हूं’ अपने कमरे की तरफ लौट चले।

आनंदसिंह के दिल में जो बातें घूम रही थीं उनका अंदाजा शायद लाडिली को भी मिल गया और जब वे लौटकर जाने लगे तब उसने पुनः इस ढंग पर कहा मानो उसकी आखिरी बात अभी पूरी नहीं हुई थी – ”क्योंकि जिनकी मुझ पर कृपा रहती थी अब वे और ही ढंग के हो गये!!”

इस बात ने कुमार को तरद्दुद में डाल दिया, उन्होंने घूमकर एक तिरछी निगाह लाडिली पर डाली और कहा, ”इसका क्या मतलब है?’

लाडिली – सो कहने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। हां जब आपकी शादी हो जायगी तब मैं साफ-साफ आपसे कह दूंगी, उस समय जो कुछ आप राय देंगे उसे मैं कबूल भी कर लूंगी!

इस आखिरी बात से कुमार को कुछ हिम्मत बंध गई मगर बैठने की या और कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी और ‘अच्छा’ कहकर वे अपने कमरे में चले आये।

बयान – 13

विवाह का सब सामान ठीक हो गया मगर हर तरह की तैयारी हो जाने पर भी लोगों की मेहनत में कमी नहीं हुई। सब कोई उसी तरह दौड़-धूप और काम-काज में लगे हुए दिखाई दे रहे हैं। महाराज सुरेन्द्रसिंह सभों को लिए हुए चुनारगढ़ चले गये। अब इस तिलिस्मी मकान में सिर्फ जरूरत की चीजों के ढेर और इंतजामकार लोगों के डेरे भर ही दिखाई दे रहे हैं। इस मकान में उन लोगों के लिए भी रास्ता बनाया गया है जो हंसते-हंसते उस तिलिस्मी इमारत में कूदा करेंगे जिसके बनाने की आज्ञा इंद्रदेव को दी गई थी और जो इस समय बनकर तैयार हो गई।

यह इमारत बीस गज लंबी और इतनी ही चौड़ी थी। ऊंचाई इसकी लगभग चालीस हाथ से कुछ ज्यादे होगी। चारों तरफ दीवार साफ और चिकनी थी तथा किसी तरफ कोई दरवाजे का निशान दिखाई नहीं देता था। पूरब तरफ ऊपर चढ़ जाने के लिए छोटी सीढ़ियां बनी हुइ थीं जिनके दोनों तरफ हिफाजत के लिए लोहे के सींखचे लगा दिए गए थे। उसी पूरब तरफ वाली दीवार पर बड़े-बड़े हरफों में यह भी लिखा हुआ था –

”जो आदमी इन सीढ़ियों की राह ऊपर जायगा और एक नजर अंदर की तरफ झांक वहां की केफियत देखकर इन्हीं सीढ़ियों की राह नीचे उतर आवेगा उसे एक लाख रुपये इनाम दिये जायेंगे।”

इस इमारत ने चारों तरफ एक अनूठा रंग पैदा कर दिया था। हजारों आदमी इस इमारत के ऊपर चढ़ जाने के लिए तैयार थे और हर एक आदमी अपनी-अपनी लालसा पूरी करने के लिए जल्दी मचा रहा था, मगर सीढ़ी का दरवाजा बंद था। पहरेदार लोग किसी को ऊपर जाने की इजाजत नहीं देते थे और यह कहकर सभों को संतोष करा देते थे कि बारात वाले दिन दरवाजा खुलेगा और पंद्रह दिन तक बंद न होगा।

यहां से चुनारगढ़ की सड़कों के दोनों तरफ जो सजावट की गई थी उसमें भी एक अनूठापन था। दोनों तरफ रोशनी के लिए जाफरी बनी हुई थी और उसमें अच्छे-अच्छे नीति के श्लोक दरसाए गये थे। बीच-बीच में थोड़ी-थोड़ी दूर पर नौबत खाने के बगल में एक मचान था जिस पर एक या दो कैदियों के बैठने के लिए जगह बनी हुई थी। जाफरी के दोनों तरफ दस हाथ चौड़ी जमीन में बाग का नमूना तैयार किया गया था और इसके बाद आतिशबाजी लगाई गई थी। आध-आध कोस की दूरी पर सर्वसाधारण और गरीब तमाशबीनों के लिए महफिल तैयार की गई थी और उसके लिए अच्छी-अच्छी गाने वाली रंडियां और भांड मुकर्रर किये गये थे। रात अंधेरी होने के कारण रोशनी का सामान ज्यादे तैयार किया गया था और वह तिलिस्मी चंद्रमा जो दोनों राजकुमारों को तिलिस्म के अंदर से मिला था चुनारगढ़ किले के ऊंचे कंगूरे पर लगा दिया गया था जिसकी रोशनी इस तिलिस्मी मकान तक बड़ी खूबी और सफाई के साथ पड़ रही थी।

पाठक, दोनों कुमारों के बारात की सजावट, महफिलों की तैयारी, रोशनी और आतिशबाजी की खूबी, मेहमानदारी की तारीफ और खैरात की बहुतायत इत्यादि का हाल विस्तारपूर्वक लिखकर पढ़ने वालों का समय नष्ट करना हमारी आत्मा और आदत के विरुद्ध है। आप खुद समझ सकते हैं कि दोनों कुमारों की शादी का इंतजाम किस खूबी के साथ किया गया होगा, नुमाइश की चीजें कैसी अच्छी होंगी। बड़प्पन का कितना बड़ा खयाल किया गया होगा, और बारात किस धूमधाम से निकली होगी। हम आज तक जिस तरह संक्षेप में लिखते आये हैं अब भी उसी तरह लिखेंगे, तथापि हमारी उन लिखावटों से जो ब्याह के संबंध में ऊपर कई दफे मौके पर लिखी जा चुकी हैं आपको अंदाजा के साथ-साथ अनुमान करने का हौसला भी मिल जायगा और विशेष सोच-विचार की जरूरत न रहेगी। हम इस जगह पर केवल इतना ही लिखेंगे कि –

बारात बड़े धूमधाम से चुनारगढ़ के बाहर हुई। आगे-आगे नौबत निशान और उसके बाद सिलसिलेवार फौजी, सवार, पैदल और तोपखाने वगैरह थे, जिसके बाद ऐसी फुलवारियां थीं जिनके देखने से खुशी और लूटने से दौलत हासिल हो। इसके बाद बहुत बड़े सजे हुए अम्बारीदार हाथी पर दोनों कुमार हाथी ही पर सवार अपने बड़े बुजुर्गों, रिश्तेदारों और मेहमानों से घिरे हुए धीरे-धीरे दोतरफों बहार लूटते और दुश्मनों के कलेजों को जलाते हुए जा रहे थे और उनके बाद तरह-तरह की सवारियों और घोड़ों पर बैठे हुए बड़े-बड़े सरदार लोग दिखाई दे रहे थे। अंत में फिर फौजी सिपाहियों का सिलसिला था। आगे वाले नौबत निशान से लेकर कुमारों के हाथी तक कई तरह के बाजे वाले अपने-अपने मौके से अपना इल्म और हुनर दिखा रहे थे।

कुशलपूर्वक बारात ठिकाने पहुंची और शास्त्रानुसार कर्म तथा रीति होने के बाद कुंअर इंद्रजीतसिंह का विवाह किशोरी और आनंदसिंह का कामिनी के साथ हो गया और इस काम में रणधीरसिंह ने भी वित्त के अनुसार दिल खोलकर खर्च किया। दूसरे रोज पहर भर दिन चढ़ने के पहले ही दोनों बहुओं की रुखसती करा महाराज चुनारगढ़ की तरफ लौट पड़े।

चुनारगढ़ पहुंचने पर जो कुछ रस्में थीं वे पूरी होने लगीं और मेहमान तथा तमाशबीन लोग तरह-तरह के तमाशों और महफिलों का आनंद लूटने लगे। उधर तिलिस्मी मकान की सीढ़ियों पर लाख रुपया इनाम पाने की लालसा से लोगों ने चढ़ना आरंभ किया। जो कोई दीवार के ऊपर पहुंचकर अंदर की तरफ झांकता वह अपने दिल को किसी तरह न सम्हाल सकता और एक दफे खिलखिलाकर हंसने के बाद अंदर की तरफ कूद पड़ता तथा कई घंटे के बाद उस चबूतरे वाली बहुत बड़ी तिलिस्मी इमारत की राह से बाहर निकल जाता।

बस, विवाह का इतना ही हाल संक्षेप में लिखकर हम इस बयान को पूरा करते हैं और इसके बाद सोहागरात की एक अनूठी घटना का उल्लेख करके इस बाईसवें भाग को समाप्त करेंगे क्योंकि हम दिलचस्प घटनाओं ही का लिखना पसंद करते हैं।

बयान – 14

आज कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह की खुशी का कोई ठिकाना नहीं है क्योंकि तरह-तरह की तकलीफें उठाकर एक मुद्दत के बाद इन दोनों को दिली मुरादें हासिल हुई हैं।

रात आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है और एक सुंदर सजे हुए कमरे में ऊंची और मुलायम गद्दी पर किशोरी और कुंअर इंद्रजीतसिंह बैठे हुए दिखाई देते हैं। यद्यपि कुंअर इंद्रजीतसिंह की तरह किशोरी के दिल में भी तरह-तरह की उमंगें भरी हैं और वह आज इस ढंग पर कुंअर इंद्रजीतसिंह की पहली मुलाकात को सौभाग्य का कारण समझती है मगर उस अनोखी लज्जा के पाले में पड़ी हुई किशोरी का चेहरा घूंघट की ओट से बाहर नहीं होता जिसे प्रकृति अपने हाथों से औरत की बुद्धि में जन्म ही से दे देती है। यद्यपि आज से पहले कुंअर इंद्रजीतसिंह को कई दफे किशोरी देख चुकी है और उनसे बातें भी कर चुकी है तथापि आज पूरी स्वतंत्रता मिलने पर भी यकायक सूरत दिखाने की हिम्मत नहीं पड़ती। कुमार तरह-तरह की बातें कहकर और समझाकर उसकी लज्जा दूर किया चाहते हैं मगर कृतकार्य नहीं होते। बहुत कुछ कहने-सुनने पर कभी-कभी किशोरी दो-एक शब्द बोल देती है मगर वह भी धड़कते हुए कलेजे के साथ। कुमार ने सोच लिया कि यह स्त्रियों की प्रकृति है अतएव उसके विरुद्ध जोर न देना चाहिए, यदि इस समय इनकी हिम्मत नहीं खुलती तो क्या हुआ, घंटे दो घंटे, पहर या एक-दो दिन में खुल ही जायगी! आखिर ऐसा ही हुआ।

इसके बाद किस तरह की छेड़छाड़ शुरू हुई या क्या हुआ सो हम नहीं लिख सकते, हां उस समय का हाल जरूर लिखेंगे जब धीरे-धीरे सुबह की सफेदी आसमान पर फैलने लग गई थी और नियमानुसार प्रातःकाल बजाये जाने वाली नफीरी की आवाज ने कुंअर इंद्रजीतसिंह और किशोरी को नींद से जगा दिया था। किशोरी जो कुंअर इंद्रजीतसिंह के बगल में सोई हुई थी घबड़ाकर उठ बैठी और मुंह धोने तथा बिखरे हुए बालों को सुधारने की नीयत से उस सुनहरी चौकी की तरफ बढ़ी जिस पर सोने के बर्तन में गंगाजल भरा हुआ था और जिसके पास ही जल गिराने के लिए एक बड़ा-सा चांदी का आफताबा (एक बर्तन) भी रखा हुआ था। हाथ में जल लेकर चेहरे पर लगाने और पुनः अपना हाथ धोने के साथ ही किशोरी चौंक पड़ी और घबराकर बोली, ”हैं! यह क्या मामला है?’

इन शब्दों ने इंद्रजीतसिंह को चौंका दिया। वे घबड़ाकर किशोरी के पास चले गये और पूछा, ”क्यों क्या हुआ?’

किशोरी – मेरे साथ यह क्या दिल्लगी की?

इंद्र – कुछ कहो भी तो क्या हुआ?

किशोरी – (हाथ दिखाकर) देखिए यह रंग कैसा है जो चेहरे पर से पानी लगाने के साथ ही छूट रहा है।

इंद्र – (हाथ देखकर) हां है तो सही! मगर मैंने तो कुछ भी नहीं किया, तुम खुद सोच सकती हो कि मैं भला तुम्हारे चेहरे पर रंग क्यों लगाने लगा। मगर तुम्हारे चेहरे पर यह रंग आया कहां से।

किशोरी – (पुनः चेहरे पर जल लगा के) यह देखिए है या नहीं।

इंद्र – सो तो मैं खुद कह रहा हूं कि रंग जरूर है, मगर जरा मेरी तरफ देखो तो सही!

किशोरी ने जो अब समयानुकूल लज्जा के हाथों से छूटकर ढिठाई का पल्ला पकड़ चुकी थी और जो कई घंटों की कशमकश और चालचलन की बदौलत बातचीत करने लायक समझी जाती थी, कुमार की तरफ देखा और फिर कहा, ”देखिए और कहिए यह किसकी सूरत है?’

इंद्र – (और भी हैरान होकर) बड़े ताज्जुब की बात है! और इस रंग के छुटने से तुम्हारा चेहरा भी कुछ बदला हुआ-सा मालूम पड़ता है! अच्छा जरा अच्छी तरह मुंह धो डालो!

किशोरी ने ‘अच्छा’ कह मुंह धो डाला और रूमाल से पोंछने के बाद कुमार की तरफ देखकर बोली, ”बताइए अब कैसा मालूम पड़ता है, रंग अब छूट गया या अभी नहीं?’

इंद्र – (घबड़ाकर) हैं! अब तो तुम साफ कमलिनी मालूम पड़ती हो! यह क्या मामला है?

किशोरी – मैं कमलिनी तो हूं ही। क्या पहले कोई दूसरी मालूम पड़ती थी?

इंद्र – बेशक! पहले तुम किशोरी मालूम पड़ती थीं, कम रोशनी और कुछ लज्जा के कारण यद्यपि बहुत अच्छी तरह तुम्हारी सूरत रात को देखने में नहीं आई तथापि मौके-मौके पर कई दफे निगाह पड़ ही गई थी अस्तु किशोरी के सिवाय दूसरी और होने का गुमान भी नहीं हो सकता था! मगर सच तो यह है कि तुमने मुझे बड़ा धोखा दिया!

कम – (जिसे अब इसी नाम से लिखना उचित है) मैंने धोखा नहीं दिया बल्कि आप मुझे इस बात का जवाब तो दीजिए कि अगर आपने मुझे किशोरी समझा था तो इतनी ढिठाई करने की हिम्मत कैसे पड़ी? किशोरी आपकी स्त्री नहीं थी!

इंद्र – क्या पागलपने की-सी बात कर रही हो। अगर किशोरी मेरी स्त्री नहीं थी तो क्या तुम मेरी स्त्री थीं?

कम – अगर आपने मुझे किशोरी समझा था तो आपको मेरे पास से उठ जाना चाहिए था। जबकि आप जानते हैं कि किशोरी कुमार के साथ ब्याही गई है तो आपको उसके पास बैठने या उससे बातचीत करने का क्या हक था?

इंद्र – तो क्या मैं इंद्रजीतसिंह नहीं हूं बल्कि उचित तो यह था कि तुम मेरे पास से उठ जातीं। जब तुम कमलिनी थीं तो तुम्हें पराये मर्द के पास बैठना भी न चाहिए था।

कम – (ताज्जुब और कुछ क्रोध का चेहरा बनाकर) फिर आप वही बातें कहे जाते हैं आप अपने को समझ ही क्या रहे हैं पहले आप आईने में अपनी सूरत देखिए और तब कहिए कि आप किशोरी के पति हैं या कमलिनी के! (आले पर से आईना उठा और कुमार को दिखाकर) बतलाइए आप कौन हैं और मैं क्यों आपके पास से उठ जाती?

अब तो कुमार के ताज्जुब की कोई हद न रही, क्योंकि आईने में उन्होंने सूरत में फर्क पाया। यह तो नहीं कह सकते थे कि किस आदमी की सूरत मालूम पड़ती है क्योंकि ऐसे आदमी को कभी देखा भी न था मगर इतना जरूर कह सकते थे कि सूरत बदल गई और अब मैं इंद्रजीतसिंह नहीं मालूम पड़ता। इंद्रजीतसिंह समझ गए कि किसी ने मेरे और कमलिनी के साथ चालबाजी करके दोनों का धर्म नष्ट किया और इसमें बेचारी कमलिनी का कोई कसूर नहीं है मगर फिर भी कमलिनी को आज का सामान देखकर चौंकना चाहिए था। हां ताज्जुब की बात है कि इस घर में आज के पहले मुझे किसी ने टोका भी नहीं! तो क्या इस घर में आने के बाद मेरी सूरत बदली गई मगर ऐसा भी क्योंकर हो सकता है इत्यादि बातें सोचते हुए कुमार कमलिनी का मुंह देखने लगे। कमलिनी ने आईना हाथ से रख दिया और पूछा, ”अब बताइये आप कौन हैं?’ इसके जवाब में इंद्रजीतसिंह ने कहा, ”अब मैं भी अपना मुंह धो डालूं तो कहूं।” इतना कहकर कुमार ने भी जल से अपना चेहरा साफ किया और रूमाल से पोंछने के बाद कमलिनी की तरफ देख के कहा – ”अब तुम ही बताओ कि मैं कौन हूं?’

कम – अरे, यह क्या हुआ! तुम तो बेशक बड़े कुमार हो मगर तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? तुम्हें जरा भी धर्म का विचार न हुआ? बताओ अब मैं किस लायक रह गई और क्या कर सकती हूं? लोगों को कैसे अपना मुंह दिखाऊंगी और इस दुनिया में क्योंकर रहूंगी?

इंद्र – जिसने ऐसा किया वह बेशक मारे जाने लायक है। मैं उसे कभी न छोड़ूंगा क्योंकि ऐसा होने से मेरा भी धर्म नष्ट हुआ और इस बदनामी को मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता, मगर यह तो बताओ कि आज का सामान देखकर तुम्हारे दिल में किसी प्रकार का शक पैदा न हुआ

कम – क्योंकर शक पैदा हो सकता था जबकि आप ही की तरह मेरे लिए भी ‘सोहागरात’ आज ही तै की गई थी! मैं नहीं कह सकती कि दूसरी तरफ का क्या हाल है। ताज्जुब नहीं कि जिस तरह मैं धोखे में डाली गई उसी तरह किशोरी के साथ भी बेईमानी की गई हो और आपके बदले में किशोरी मेरे पति के पास पहुंचाई गई हो!!

ओहो! कमलिनी की इस बात ने तो कुमार की रही-सही अक्ल भी खो दी! जिस बात का अब तक कुमार के दिल में ध्यान भी न था उसे समझाकर तो कमलिनी ने अनर्थ कर दिया। ब्याह हो जाने पर भी किशोरी किसी दूसरे मर्द के पास भेजी जाय, क्या इस बात को कुमार बर्दाश्त कर सकते थे कभी नहीं! सुनने के साथ ही मारे क्रोध के उनका शरीर कांपने लगा और वे घबड़ाकर कमलिनी से बोले, ”यह तो तुमने ठीक कहा! ताज्जुब नहीं कि ऐसा हुआ हो। लेकिन अगर ऐसा हुआ होगा तो मैं उन दोनों को इस दुनिया से उठा दूंगा।”

इतना कहकर कुमार ने अपनी तलवार उठा ली जो गद्दी पर पड़ी हुई थी और कमरे के बाहर जाने लगे। उस समय कमलिनी ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और कहा, ”कृपानिधान, जरा मेरी एक बात का जवाब दीजिए तो यहां से जाइए।”

इंद्र – कहो।

कम – आपका धर्म नष्ट हुआ, खैर कोई चिंता नहीं, क्योंकि धर्मशास्त्र में मर्दों के लिए कोई कड़ी पाबंदी नहीं लगाई गई है, मगर औरतों को तो किसी लायक नहीं छोड़ा है। आपके लिए तो प्रायश्चित है मगर मेरे लिए तो कोई प्रायश्चित भी नहीं जिसे कर मैं सुधर जाऊंगी, इतना जानकर भी मेरा धर्म नष्ट होने पर आपको उतना रंज या क्रोध नहीं हुआ जितना यह सोचकर हुआ कि किशोरी की भी ऐसी ही दशा हुई होगी! ऐसा क्यों? क्या मेरा पति कमजोर और नामर्द है क्या वह भी आपकी तरह क्रोध में न आया होगा इसी तरह वह भी तलवार लेकर मेरी और आपकी खोज में न निकला होगा आप जल्दी क्यों करते हैं, वह खुद यहां आता होगा क्योंकि वह आपसे ज्यादे क्रोधी है, मैं तो खुद उसके सामने अपनी गर्दन झुका दूंगी!!

कुमार को क्रोध पर क्रोध, रंज पर रंज और अफसोस पर अफसोस होता ही जाता था। कमलिनी की इस आखिरी बात ने कुमार के दिल में दूसरा ही रंग पैदा कर दिया। उन्होंने घबड़ाकर एक लंबी सांस ली और ऊपर की तरफ मुंह करके कहा, ”विधाता! तूने यह क्या किया! मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया था जिसके बदले मैं इस खुशी को ऐसे रंज के साथ तूने बदल दिया, अब मैं क्या करूं क्या अपने हाथ से अपना गला काटकर निश्चिंत हो जाऊं मुझ पर आत्मघात का दोष तो नहीं लगाया जायगा!”

इंद्रजीतसिंह ने इतना ही कहा था कि कमरे का दरवाजा जिसे कुमार बंद समझते थे खुला और किशोरी तथा कमला अंदर आती हुई दिखाई पड़ीं। कुमार ने समझा कि बेशक किशोरी इसी ढंग का उलाहना लेकर आई होगी, मगर उन दोनों के चेहरों पर हंसी देखकर कुमार को ताज्जुब हुआ और यह देखकर उनका ताज्जुब और भी बढ़ गया कि किशोरी और कमला को देख कमलिनी खिलखिलाकर हंस पड़ी और किशोरी से बोली – ”लो बहिन आज मैंने तुम्हारे पति को अपना बना लिया!” इसके जवाब में किशोरी बोली, ”तुमने पहले ही अपना बना लिया था, आज की बात ही क्या है!!”

(बाईसवां भाग समाप्त)

चंद्रकांता संतति – Chandrakanta Santati

चंद्रकांता संतति लोक विश्रुत साहित्यकार बाबू देवकीनंदन खत्री का विश्वप्रसिद्ध ऐय्यारी उपन्यास है।

बाबू देवकीनंदन खत्री जी ने पहले चन्द्रकान्ता लिखा फिर उसकी लोकप्रियता और सफलता को देख कर उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाया और ‘चन्द्रकान्ता संतति’ की रचना की। हिन्दी के प्रचार प्रसार में यह उपन्यास मील का पत्थर है। कहते हैं कि लाखों लोगों ने चन्द्रकान्ता संतति को पढ़ने के लिए ही हिन्दी सीखी। घटना प्रधान, तिलिस्म, जादूगरी, रहस्यलोक, एय्यारी की पृष्ठभूमि वाला हिन्दी का यह उपन्यास आज भी लोकप्रियता के शीर्ष पर है।

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चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग– Chandrakanta Santati Baisva Bhag

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Further Reading:

  1. चंद्रकांता संतति पहला भाग
  2. चंद्रकांता संतति दूसरा भाग
  3. चंद्रकांता संतति तीसरा भाग
  4. चंद्रकांता संतति चौथा भाग
  5. चंद्रकांता संतति पाँचवाँ भाग
  6. चंद्रकांता संतति छठवां भाग
  7. चंद्रकांता संतति सातवाँ भाग
  8. चंद्रकांता संतति आठवाँ भाग
  9. चंद्रकांता संतति नौवां भाग
  10. चंद्रकांता संतति दसवां भाग
  11. चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग
  12. चंद्रकांता संतति बारहवां भाग
  13. चंद्रकांता संतति तेरहवां भाग
  14. चंद्रकांता संतति चौदहवां भाग
  15. चंद्रकांता संतति पन्द्रहवां भाग
  16. चंद्रकांता संतति सोलहवां भाग
  17. चंद्रकांता संतति सत्रहवां भाग
  18. चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग
  19. चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग
  20. चंद्रकांता संतति बीसवां भाग
  21. चंद्रकांता संतति इक्कीसवां भाग
  22. चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग
  23. चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग
  24. चंद्रकांता संतति चौबीसवां भाग

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