चंद्रकांता संतति बीसवां भाग
चंद्रकांता संतति बीसवां भाग

चंद्रकांता संतति बीसवां भाग – Chandrakanta Santati Bisva Bhag

चंद्रकांता संतति बीसवां भाग

बयान – 1

भूतनाथ और देवीसिंह को कई आदमियों ने पीछे से पकड़कर अपने काबू में कर लिया और उसी समय एक आदमी ने किसी विचित्र भाषा में पुकारकर कुछ कहा जिसे सुनते ही वे दोनों औरतें अर्थात् चम्पा तथा भूतनाथ की स्त्री चिराग फेंक-फेंककर पीछे की ओर लौट गईं और अंधकार के कारण कुछ मालूम न हुआ कि वे दोनों कहां गईं, हां भूतनाथ और देवीसिंह को इतना मालूम हो गया कि उन्हें गिरफ्तार करने वाले भी सब नकाबपोश हैं। भूतनाथ की तरह देवीसिंह भी सूरत बदलकर अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए थे।

गिरफ्तार हो जाने के बाद भूतनाथ और देवीसिंह दोनों एक साथ कर दिये गये और दोनों ही को लिये हुए वे सब बीच वाले बंगले की तरफ रवाना हुए। यद्यपि अंधकार के अतिरिक्त सूरत बदलने और नकाब डाले रहने के सबब एक को दूसरे का पहिचानना कठिन था तथापि अन्दाज ही से एक को दूसरे ने जान लिया और शरमिन्दगी के साथ धीरे-धीरे उस बंगले की तरफ जाने लगे। जब बंगले के पास पहुंचे तो आगे वाले दालान में जहां दो चिरागों की रोशनी थी, तीन आदमियों को हाथ में नंगी तलवार लिये पहरा देते देखा। वहां पहुंचने पर हमारे दोनों ऐयारों को मालूम हुआ कि उन्हें गिरफ्तार करने वाले गिनती में आठ से ज्यादे नहीं हैं। उस समय देवीसिंह और भूतनाथ के दिल में थोड़ी देर के लिए यह बात पैदा हुई कि केवल आठ आदमियों से हमें गिरफ्तार हो जाना उचित न था और अगर हम चाहते तो इन लोगों से अपने को बचा ही लेते, मगर उन दोनों का यह विचार तुरन्त ही जाता रहा जब उन्होंने कुछ कम-वेश यह सोचा कि अगर हम इन लोगों से अपने को बचा लेते तो क्या होता क्योंकि यहां से निकलकर भाग जाना कठिन था और अगर भाग भी जाते तो जिस काम के लिए आये हैं उससे हाथ धो बैठते, अस्तु जो होगा देखा जायगा।

इस दालान में अन्दर जाने के लिए दरवाजा था और उसके आगे लाल रंग का रेशमी पर्दा लटक रहा था। दीवार-छत इत्यादि सब रंगीन बने हुए थे और उन पर बनी हुई तरह-तरह की तस्वीरें अपनी खूबी और खूबसूरती के सबब देखने वालों का दिल खींच लेती थीं परन्तु इस समय उन पर भरपूर और बारीक निगाह डालना हमारे ऐयारों के लिए कठिन था इसलिए हम भी उनका हाल बयान नहीं कर सकते।

जो लोग दोनों ऐयारों को गिरफ्तार कर लाये थे उनमें से एक आदमी पर्दा उठाकर बंगले के अन्दर चला गया और चौथाई घड़ी के बाद लौट आकर अपने साथियों से बोला, ”इन दोनों महाशयों को सरदार के सामने ले चलो और एक आदमी जाकर इनके लिए हथकड़ी-बेड़ी भी ले आओ, कदाचित् हमारे सरदार इन दोनों के लिए कैदखाने का हुक्म दें।”

अस्तु एक आदमी हथकड़ी-बेड़ी लाने के लिए चला गया और वे सब देवीसिंह और भूतनाथ को लिये हुए बंगले की तरफ रवाना हुए।

यह बंगला बाहर से जैसा सादा और मामूली ढंग का मालूम होता था वैसा अन्दर से न था, जूता उतारकर चौखट के अन्दर पैर रखते ही हमारे दोनों ऐयार ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखने लगे और फौरन ही समझ गये कि इसके अन्दर रहने वाला या इसका मालिक कोई साधारण आदमी नहीं है। देवीसिंह के लिए यह बात सबसे ज्यादे ताज्जुब की थी और इसीलिए उनके दिल में घड़ी-घड़ी यह बात पैदा होती थी कि यह स्थान हमारे इलाके में होने पर भी अफसोस और ताज्जुब की बात है कि इतने दिनों तक हम लोगों को इसका पता न लगा!

पर्दा उठाकर अन्दर जाने पर हमारे दोनों ऐयारों ने अपने को एक गोल कमरे में पाया जिसकी छत भी गोल गुम्बजदार थी और उसमें बहुत-सी बिल्लौरी हांडियां जिनमें इस समय मोमबत्तियां जल रही थीं कायदे और मौके के साथ लटक रही थीं। दीवारों पर खूबसूरत जंगलों और पहाड़ों की तस्वीरें निहायत खूबी के साथ बनी हुई थीं जो इस जगह की ज्यादे रोशनी के सबब साफ मालूम होती थीं और यही जान पड़ता था कि अभी बनकर तैयार हुई हैं। इस तस्वीरों में अकस्मात देवीसिंह और भूतनाथ ने रोहतासगढ़ के पहाड़ और किले की भी तस्वीर देखी जिसके सबब से और तस्वीरों को भी गौर से देखने का शौक इन्हें हुआ मगर ठहरने की मोहलत न मिलने के सबब लाचार थे। यहां की जमीन पर सुर्ख मखमली मुलायम गद्दा बिछा हुआ था और सदर दरवाजे के अतिरिक्त और भी तीन दरवाजे नजर आ रहे थे जिन पर बेशकीमत किमखाब के पर्दे पड़े हुए थे और उनमें मोतियों की झालरें लटक रही थीं। हमारे दोनों ऐयारों को दाहिने तरफ वाले दरवाजे के अन्दर जाना पड़ा जहां गली के ढंग पर रास्ता घूमा हुआ था। इस रास्ते में भी मखमली गद्दा बिछा हुआ था। दोनों तरफ की दीवारें साफ और चिकनी थीं तथा छत के सहारे एक बिल्लौरी कन्दील लटक रही थी जिसकी रोशनी इस सात-आठ हाथ लम्बी गली के लिए काफी थी। इस गली को पार करके ये दोनों एक बहुत बड़े कमरे में पहुंचाये गए जिसकी सजावट और खूबी ने उन्हें ताज्जुब में डाल दिया और वे हैरत की निगाह से चारों तरफ देखने लगे।

जंगल, मैदान, पहाड़, खोह, दर्रे, झरने, शिकारगाह तथा शहरपनाह, किले, मोरचे और लड़ाई इत्यादि की तस्वीरें चारों तरफ दीवार में इस खूबी और सफाई के साथ बनी हुई थीं कि देखने वाला यह कह सकता था कि बस इससे ज्यादे कारीगरी और सफाई का काम मुसौवर कर ही नहीं सकता। छत पर हर तरह की चिड़ियों और उनके पीछे झपटते हुए बाज-बहरी इत्यादि शिकारी परिन्दों की तस्वीरें बनी हुई थीं जो दीवारगीरों और कन्दीलों की तेज रोशनी के सबब बहुत साफ दिखाई दे रही थीं। जमीन पर साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था और सामने की तरफ हाथ-भर ऊंची गद्दी पर दो नकाबपोश तथा गद्दी के नीचे और कई आदमी अदब के साथ बैठे हुए थे मगर उनमें से ऐसा कोई भी न था जिसके चेहरे पर नकाब न हो।

देवीसिंह और भूतनाथ को उम्मीद थी कि हम उन्हीं दोनों नकाबपोशों को उसी ढंग की पोशाक में देखेंगे जिन्हें कई दफे देख चुके हैं मगर यहां उसके विपरीत देखने में आया। इस बात का निश्यच तो नहीं हो सकता था कि इन नकाब के अन्दर वही सूरत छिपी हुई हैं या कोई और लेकिन पोशाक और आवाज यही प्रकट करती थी कि वे दोनों कोई दूसरे ही हैं, मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि इन दोनों की पोशाक उन नकाबपोशों से कहीं बढ़-चढ़के थी जिन्हें भूतनाथ और देवीसिंह देख चुके थे।

जब देवीसिंह और भूतनाथ उन दोनों नकाबपोशों के सामने खड़े हुए तो उन दोनों में से एक ने अपने आदमियों से पूछा, ”ये दोनों कौन हैं जिन्हें गिरफ्तार कर लाये हो?’

एक – जी इनमें से एक (हाथ का इशारा करके) राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार देवीसिंह हैं और यह वही मशहूर भूतनाथ है जिसका मुकद्दमा आजकल राजा वीरेन्द्रसिंह के दरबार में पेश है।

नकाब – (ताज्जुब से) हां! अच्छा तो ये दोनों यहां क्यों आये अपनी मर्जी से आये हैं या तुम लोग जबर्दस्ती गिरफ्तार कर लाए हो?

वही आदमी – इस हाते के अन्दर तो ये दोनों आदमी अपनी मर्जी से आये थे मगर यहां हम लोग गिरफ्तार करके लाये हैं।

नकाब – (कुछ कड़ी आवाज में) गिरफ्तार करने की जरूरत क्यों पड़ी किस तरह मालूम हुआ कि ये दोनों यहां बदनीयती के साथ आये हैं क्या इन दोनों ने तुम लोगों से कुछ हुज्जत की थी?

वही आदमी – जी हुज्जत तो किसी से न की मगर छिप-छिपकर आने और पेड़ की आड़ में खड़े होकर ताक-झांक करने से मालूम हुआ कि इन दोनों की नीयत अच्छी नहीं है, इसीलिए गिरफ्तार कर लिए गये।

नकाब – इतने बड़े प्रतापी राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐसे नामी ऐयार के साथ केवल इतनी बात पर इस तरह का बर्ताव करना तुम लोगों को उचित न था, कदाचित् ये हम लोगों से मिलने के लिए आए हों। हां अगर केवल भूतनाथ के साथ ऐसा बर्ताव होता तो ज्यादे रंज की बात न थी –

यद्यपि नकाबपोश की आखिरी बात भूतनाथ को कुछ बुरी मालुम हुई मगर कर ही क्या सकता था साथ ही इसके यह भी देख रहा था कि नकाबपोश भलमनसी और सभ्यता के साथ बातें कर रहा है, जिसकी उम्मीद यहां आने के पहिले कदापि न थी। अस्तु जब नकाबपोश अपनी बात पूरी कर चुका तो इसके पहिले कि उसका नौकर कुछ जवाब दे भूतनाथ बोल उठा –

भूतनाथ – कृपानिधान, हम लोग यहां किसी बुरी नीयत से नहीं आये हैं, न तो चोरी करने का इरादा है न किसी को तकलीफ देने का, मैं केवल अपनी स्त्री का पता लगाने के लिए यहां आया हूं, क्योंकि मेरे जासूसों ने मेरी स्त्री के यहां होने की मुझे इत्तिला दी थी।

नकाब – (मुस्कुराकर) शायद ऐसा हो, मगर मेरा खयाल कुछ दूसरा ही है। मेरा दिल कह रहा है कि तुम लोग उन दोनों नकाबपोशों का असल हाल जानने के लिए यहां आये हो जो राजा साहब के दरबार में जाकर अपने विचित्र कामों से लोगों को ताज्जुब में डाल रहे हैं, मगर साथ ही इसके इस बात को भी समझ लो कि यह मकान उन दोनों नकाबपोशों का नहीं है बल्कि हमारा है। उनके मकान में जाने का रास्ता तुम उस सुरंग के अन्दर ही छोड़ आये जिसे तै करके यहां आये हो अर्थात् हमारे और उनके मकान का रास्ता बाहर से तो एक ही है मगर सुरंग के अन्दर आकर दो हो गया है। खैर जो कुछ हो हम इस बारे में ज्यादा बातचीत करना उचित नहीं समझते और न तुम लोगों को कुछ तकलीफ ही देना चाहते हैं बल्कि अपना मेहमान समझकर कहते हैं कि अब आ गये हो तो रातभर कुटिया में आराम करो, सबेरा होने पर जहां इच्छा हो चले जाना। (गद्दी के नीचे बैठे हुए एक नकाबपोश की तरफ देखके) यह काम तुम्हारे सुपुर्द किया जाता है, इन्हें खिला-पिलाकर ऊपर वाली मंजिल में सोने की जगह दो और सुबह को इन्हें खोह के बाहर पहुंचा दो।

इतना कहकर वह नकाबपोश उठ खड़ा हुआ और उसका साथी दूसरा नकाबपोश भी जाने के लिए तैयार हो गया। जिस जगह इन नकाबपोशों की गद्दी लगी हुई थी उस (गद्दी) के पीछे दीवार में एक दरवाजा था जिस पर पर्दा लटक रहा था। दोनों नकाबपोश पर्दा उठाकर अन्दर चले गये और यह छोटा-सा दरबार बर्खास्त हुआ। गद्दी के नीचे बैठने वाले भी मुसाहब दरबारी या नौकर जो कोई हों उठ खड़े हुए और उस आदमी ने, जिसे दोनों ऐयारों की मेहमानी का हुक्म हुआ था, देवीसिंह और भूतनाथ की तरफ देखकर कहा – ”आप लोग मेहरबानी करके मेरे साथ आइए और ऊपर की मंजिल में चलिए।” भूतनाथ और देवीसिंह भी कुछ उज्र न करके पीछे-पीछे चलने के लिए तैयार हो गए।

नकाबपोश की बातों ने भूतनाथ और देवीसिंह दोनों ही को ताज्जुब में डाल दिया। भूतनाथ ने नकाबपोश से कहा था कि मैं अपनी स्त्री की खोज में यहां आया हूं, मगर बहुत कुछ कह जाने पर भी नकाबपोश ने भूतनाथ की इस बात का कोई जवाब न दिया और ऐसा करना भूतनाथ के दिल में खुटका पैदा करने के लिए कम न था। भूतनाथ को निश्चय हो गया, कि उसकी स्त्री यहां है और अवश्य है। उसने सोचा कि जो नकाबपोश राजा वीरेन्द्रसिंह के दरबार में पहुंचकर बड़ी-बड़ी गुप्त बातें इस अनूठे ढंग से खोलते हैं, उनके घर में यदि मैं अपनी स्त्री को देखूं तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमारे देवीसिंह ने तो एक शब्द भी मुंह से निकालना पसन्द न किया, न मालूम इसका सबब क्या था और वे क्या सोच रहे थे मगर कम से कम इस बात की शर्म तो उनको जरूर ही थी कि वे यहां आने के साथ ही गिरफ्तार हो गये। यह तो नकाबपोशों की मेहरबानी थी कि हथकड़ी और बेड़ी से उनकी खातिर न की गई।

वह नकाबपोश कई रास्तों से घुमाता-फिराता भूतनाथ और देवीसिंह को ऊपर वाली मंजिल में ले गया। जो लोग इन दोनों को गिरफ्तार कर लाए थे वे भी उनके साथ गये।

जिस कमरे में भूतनाथ और देवीसिंह पहुंचाये गये वह यद्यपि बड़ा न था मगर जरूरी और मामूली ढंग के सामान से सजाया हुआ था। कन्दील की रोशनी हो रही थी। जमीन पर साफ-सुथरा फर्श बिछा था और कई तकिए भी रक्खे हुए थे। एक संगमर्मर की छोटी चौकी बीच में रक्खी हुई थी और किनारे दो सुन्दर पलंग आराम करने के लिए बिछे हुए थे।

भूतनाथ और देवीसिंह को खाने-पीने के लिए कई दफा कहा गया मगर उन दोनों ने इनकार किया अस्तु लाचार होकर नकाबपोश ने उन दोनों को आराम करने के लिए उसी जगह छोड़ा और स्वयं उन आदमियों को जो दोनों ऐयारों को गिरफ्तार कर लाये थे, साथ लिये हुए वहां से चला गया। जाती समय ये लोग बाहर से दरवाजे की जंजीर बन्द करते गये और इस कमरे में भूतनाथ और देवीसिंह अकेले रह गये।

बयान – 2

जब दोनों ऐयार उस कमरे में अकेले रह गये तब थोड़ी देर तक अपनी अवस्था और भूल पर गौर करने के बाद आपस में यों बातें करने लगे –

देवी – यद्यपि तुम मुझसे और मैं तुमसे छिपकर यहां आये मगर यहां आने पर वह छिपना बिल्कुल व्यर्थ गया। तुम्हारे गिरफ्तार हो जाने का तो ज्यादे रंज न होना चाहिए क्योंकि तुम्हें अपनी जान की फिक्र पड़ी थी, अतएव अपनी भलाई के लिए तुम यहां आये थे और जो कोई किसी तरह का फायदा उठाना चाहता है उसे कुछ-न-कुछ तकलीफ भी जरूर ही भोगनी पड़ती है, मगर मैं तो दिल्लगी ही दिल्लगी में बेवकूफ बन गया। न तो मुझे इन लोगों से कोई मतलब ही था और न यहां आए बिना मेरा कुछ हर्ज ही होता था।

भूत – (मुस्कुराकर) मगर आने पर आपका भी एक काम निकल आया, क्योंकि यहां अपनी स्त्री को देखकर अब किसी तरह भी जांच किए बिना आप नहीं रह सकते।

देवी – ठीक है! मगर भूतनाथ तुम बड़े ही निडर और हौसले के ऐयार हो जो ऐसी अवस्था में भी हंसने और मुस्कुराने से बाज नहीं आते!

भूत – तो क्या आप ऐसा नहीं कर सकते?

देवी – अगर बनावट के तौर पर हंसने या मुस्कुराने की जरूरत न पड़े तो मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं इस बात को खूब समझता हूं कि तुम्हारे जीवट और हौसले की इतनी तरक्की क्योंकर हुई मगर वास्तव में तुम निराले ढंग के आदमी हो, सच तो यह है कि तुम्हारी ठीक-ठीक अवस्था जानना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है।

भूत – आपका कहना बहुत ठीक है, मगर तभी तक मेरे जीवट और मर्दानगी का अन्दाजा मिलना कठिन है जब तक कि मैं अपने को मुर्दा समझे हुए हूं, जिस दिन मैं अपने को जिन्दा समझूंगा उस दिन यह बात न रहेगी।

देवी – तो क्या तुम अभी तक भी अपने को मुर्दा ही समझे हुए हो?

भूत – बेशक, क्योंकि अब मैं बेइज्जती और बदनामी के साथ जीने को मरने के बराबर समझता हूं। जिस दिन मैं राजा वीरेन्द्रसिंह का विश्वासपात्र बनने योग्य हो जाऊंगा उस दिन समझूंगा कि जी गया। मैं आपसे इस किस्म की बातें कदापि न करता अगर आपको अपना मेहरबान और मददगार न समझता। आपको जैपाल या नकली बलभद्रसिंह की पहिली मुलाकात का दिन याद होगा जब आपने मुझ पर मेहरबानी रखने और मुझे अपनाने का शपथपूर्वक इकरार किया था।

देवी – बेशक मुझे याद है, जब तुम घबराये हुए और बेबसी की अवस्था में थे तब मैंने तुमसे कहा था कि ‘यदि मुझे यह मालूम हो जायगा कि तुम मेरे पिता के घातक हो जिन पर मेरा बड़ा स्नेह था तब भी मैं तुम्हें इसी तरह मुहब्बत की निगाह से देखूंगा जैसे कि अब मैं देख रहा हूं।’  कहो है न यही बात?

भूत – बेशक यही शब्द आपने कहे थे।

देवी – और अब भी मैं उसी बात का इकरार करता हूं।

भूत – (प्रसन्नता से) आपकी सचाई पर भी मुझे उतना ही विश्वास है जितना एक और एक दो होने पर!

देवी – यह बात तो तुम सच नहीं कहते!

भूत – (चौंककर) सो कैसे?

देवी – इसी से कि तुमने भेद की कोई बात आज तक मुझसे नहीं कही, यहां तक कि इस जगह आने की इच्छा भी मुझ पर प्रकट न की।

भूत – (शरमिन्दगी से सिर नीचा करके) बेशक यह मेरा कसूर है जिसके लिए (हाथ जोड़कर) मैं आपसे माफी मांगता हूं, क्योंकि मैं इस बात को अच्छी तरह देख चुका हूं कि आपने अपनी बात का निर्वाह पूरा-पूरा किया।

देवी – खैर अब भी अगर तुम मुझे अपना विश्वासपात्र समझोगे तो मेरे दिल का रंज निकल जायगा, असल तो यों है कि इस मौके पर तुमसे मिलने के लिए ही मैंने यहां आने का इरादा

भी किया क्योंकि मुझे विश्वास था कि तुम यहां जरूर आओगे। खैर अब तुम अपने कौल और इकरार को याद रक्खो और इस समय इन बातों को इसी जगह छोड़कर इस बात पर विचार करो कि अब हम लोगों को क्या करना चाहिए। मैं समझता हूं कि तुम्हारे पास तिलिस्मी खंजर मौजूद है।

भूत – जी हां, (खंजर की तरफ इशारा करके) यह तैयार है।

देवी – (अपने खंजर की तरफ बताके) मेरे पास भी है।

भूत – आपको कहां से मिला?

देवी – तेजसिंह ने दिया था। यह वही खंजर है जो मनोरमा के पास था, कम्बख्त ने इसके जोड़ की अंगूठी अपनी जंघा के अन्दर छिपा रखी थी जिसका पता बड़ी मुश्किल से लगा और तब से इस ढंग को मैंने भी पसन्द किया।

भूत – अच्छा तो अब आपकी क्या राय होती है यहां से निकल भागने की कोशिश की जाय या यहां रहकर कुछ भेद जानने की?

देवी – इन दोनों खंजरों की बदौलत शायद हम यहां से निकल जा सकें मगर ऐसा करना न चाहिए। अब जब गिरफ्तार होने की शरमिन्दगी उठा ही चुके तो बिना कुछ किये चले जाना उचित नहीं है, जिस पर यहां आकर मैंने अपनी स्त्री को और तुमने अपनी स्त्री को देख लिया, अब क्या बिना उन दोनों का असल भेद मालूम किये यहां से चलने की इच्छा हो सकती है!

भूत – बेशक ऐसा ही है…।

इतना कहते-कहते भूतनाथ यकायक रुक गया क्योंकि उसके कान में किसी के जोर से हंसने की आवाज आई और यह आवाज कुछ पहिचानी हुई-सी जान पड़ी। देवीसिंह ने भी इस आवाज पर गौर किया और उन्हें भी इस बात का शक हुआ कि इस आवाज को मैं कई दफे सुन चुका हूं। मगर इस बात का कोई निश्चय वे दोनों नहीं कर सके कि यह आवाज किसकी है।

देवीसिंह और भूतनाथ दोनों ही आदमी इस बात को गौर से देखने और जांचने लगे कि यह आवाज किधर से आई या हम उसे किसी तरह देख भी सकते हैं या नहीं जिसकी यह आवाज है। यकायक उन दोनों ने दीवार में ऊपर की तरफ दो सूराख देखे जिनमें आदमी का सिर बखूबी जा सकता था। ये सूराख छत से हाथ भर नीचे हटकर बने हुए थे और हवा आने-जाने के लिए बनाए गए थे। दोनों को खयाल हुआ कि इसी सूराख में से आवाज आती है और उसी समय पुनः हंसने की आवाज आने से इस बात का निश्चय हो गया।

फौरन ही दोनों के मन में यह बात पैदा हुई कि किसी तरह उस सूराख तक पहुंचकर देखना चाहिए कि कुछ दिखाई देता है या नहीं मगर इस ढंग से कि उस दूसरी तरफ वालों को हमारी इस ढिठाई का पता न लगे।

हम लिख चुके हैं कि इस कमरे में दो चारपाइयां बिछी हुई थीं। देवीसिंह ने उन्हीं दोनों चारपाइयों को उस सूराख तक पहुंचने का जरिया बनाया अर्थात् बिछावन हटा देने के बाद एक चारपाई दीवार के सहारे खड़ी करके दूसरी चारपाई उसके ऊपर खड़ी की और कमन्द से दोनों के पावे अच्छी तरह मजबूती के साथ बांधकर एक प्रकार की सीढ़ी तैयार की। इसके बाद देवीसिंह ने भूतनाथ के कन्धे पर चढ़कर कन्दील की रोशनी बुझा दी और तब उस चारपाई की अनूठी सीढ़ी पर चढ़ने का विचार किया। उस समय मालूम हुआ कि उस सूराख में से थोड़ी-थोड़ी रोशनी भी आ रही है। भूतनाथ ने नीचे खड़े रहकर चारपाई को मजबूती के साथ थामा और बिछावन के सहारे अंगूठा अड़ाते हुए देवीसिंह ऊपर चढ़ गये। वे सूराख टेढ़े अर्थात् दूसरी तरफ को झुकते हुए थे। एक सूराख में गर्दन डालकर देवीसिंह ने देखना शुरू किया। उधर नीचे की मंजिल में एक बहुत बड़ा कमरा था जिसकी ऊंची छत इस कमरे की छत के बराबर पहुंची हुई थी जिसमें देवीसिंह और भूतनाथ थे। उस कमरे में सजावट की कोई चीज न थी सिर्फ जमीन पर साफ सफेद फर्श बिछा हुआ और दो शमादान जल रहे थे। वहां पर देवीसिंह ने दो नकाबपोशों को ऊंची गद्दी के नीचे बैठे हुए पाया और एक तरफ जिधर कोई मर्द न था अपनी और भूतनाथ की स्त्री को भी देखा। ये लोग आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। इनकी बातें साफ समझ में नहीं आती थीं, जो कुछ टूटी-फूटी बातें सुनने में आईं उनका मतलब यही था कि सुरंग का दरवाजा बन्द करने में भूल हो जाने के सबब से भूतनाथ और देवीसिंह वहां आ गये अस्तु अब ऐसी भूल न होनी चाहिए जिससे यहां तक कोई आ सके इत्यादि। इसी बीच में एक और भी नकाबपोश वहां आ पहुंचा जो इस समय अपने नकाब को उलटकर सिर के ऊपर फेंके हुए था। इस आदमी की सूरत देखते ही देवीसिंह ने पहिचान लिया कि भूतनाथ का लड़का और कमला का सगा बड़ा भाई हरनामसिंह है। देवीसिंह ने अपनी जिन्दगी में हरनामसिंह को शायद एक या दो दफे किसी मौके पर देखा होगा इसलिए उसको पहिचान तो लिया मगर ताज्जुब के साथ ही साथ शक बना रहा, अस्तु इस शक को मिटाने के लिए देवीसिंह नीचे उतर आये और चारपाई को खुद पकड़कर भूतनाथ को ऊपर चढ़ने और उस सूराख के अन्दर झांकने के लिए कहा।

जब भूतनाथ चारपाई की बिनाव के सहारे ऊपर चढ़ गया और उस सूराख में झांककर देखा तो अपने लड़के हरनामसिंह को पहिचानकर उसे बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह बड़े गौर से देखने तथा उन लोगों की बातें सुनने लगा।

पाठक, ताज्जुब नहीं कि आप इस हरनामसिंह को एकदम ही भूल गये हों क्योंकि जहां तक हमें याद है इसका नाम शायद चन्द्रकान्ता सन्तति के दूसरे भाग के पांचवें बयान में आकर रह गया और फिर कहीं इसका जिक्र तक नहीं आया। यह वह हरनामसिंह नहीं है जो मायारानी का ऐयार था बल्कि यह कमला का बड़ा भाई तथा खास भूतनाथ का पहिला और असल लड़का हरनामसिंह है। इसे बहुत दिनों के बाद आज यहां देखकर आप निःसन्देह आश्चर्य करेंगे परन्तु खैर अब हम यह लिखते हैं कि भूतनाथ ने सूराख के अन्दर झांककर क्या देखा।

भूतनाथ ने देखा कि उसका लड़का हरनामसिंह गद्दी के ऊपर बैठे हुए दोनों नकाबपोशों के सामने खड़ा है और सदर दरवाजे की तरफ बड़े गौर से देख रहा है। उसी समय एक आदमी लपेटे हुए मोटे कपड़े का बहुत बड़ा लम्बा पुलिन्दा लिए हुए आ पहुंचा और इस पुलिन्दे को गद्दी पर रखके खड़ा हो हाथ जोड़कर भर्राई हुई आवाज में बोला, ”कृपानाथ, बस मैं इसी का दावा भूतनाथ पर करूंगा।”

गद्दी के नीचे बैठे हुए दो आदमियों ने इशारा पाकर लपेटे हुए कपड़े को खोला और तब भूतनाथ ने भी देखा कि वह एक बहुत बड़ी और आदमी के कद के बराबर तस्वीर है।

उस तस्वीर पर निगाह पड़ते ही भूतनाथ की अवस्था बिगड़ गई और वह डर के मारे थर-थर कांपने लगा। बहुत कोशिश करने पर भी वह अपने को सम्हाल न सका और उसके मुंह से एक चीख की आवाज निकल ही गई अर्थात् वह चिल्ला उठा। उसी समय यह भी देखा कि उसकी आवाज उन लोगों के कानों में पहुंच गई और इस सबब से वे लोग ताज्जुब के साथ ऊपर की तरफ देखने लगे।

भूतनाथ जल्दी के साथ चारपाई के नीचे उतर आया और कांपती हुई आवाज में देवीसिंह से बोला, ”ओफ, मैं अपने को सम्हाल न सका और मेरे मुंह से चीख की आवाज निकल ही गई जिसे उन लोगों ने सुन लिया। ताज्जुब नहीं कि उन लोगों में से कोई यहां आये, अस्तु आप जो उचित समझिये कीजिये, कुछ देर बाद मैं अपना हाल आपसे कहूंगा।” इतना कह भूतनाथ जमीन पर बैठ गया।

देवीसिंह ने झटपट अपने बटुए में से सामान निकालकर मोमबत्ती जलाई, दो-तीन डपट की बातें कह भूतनाथ को चैतन्य किया और उसके मोढ़े पर चढ़कर कन्दील जलाने के बाद मोमबत्ती बुझाकर बटुए में रख ली और इसके बाद दोनों चारपाई उसी तरह दुरुस्त कर दीं जिस तरह पहिले थीं, इसके बाद एक चारपाई पर भूतनाथ को सुलाकर पेट दर्द का बहाना करने और हाय-हाय करके कराहने के लिए कहकर आप उसी समय चारपाई के सहारे बैठे गये, उसी वक्त कमरे का दरवाजा खुला और तीन-चार नकाबपोश अन्दर आते हुए दिखाई पड़े।

उन आदमियों ने पहिले तो गौर से कमरे के अन्दर की अवस्था देखी और तब उनमें से एक ने आगे बढ़कर देवीसिंह से पूछा, ”क्या अभी तक आप लोग जाग रहे हैं?’

देवी – हां (भूतनाथ की तरफ इशारा करके) इनके पेट में यकायक दर्द पैदा हो गया और बड़ी तकलीफ है, अक्सर दर्द की तकलीफ से चिल्ला उठते हैं।

नकाब – (भूतनाथ की तरफ देखके) आज यहां कुछ खाने में भी तो नहीं आया।

देवी – पहिले ही कुछ कसर होगी।

नकाब – फिर कुछ दवा वगैरह का बन्दोबस्त किया जाय?

देवी – मैंने दो दफे दवा खिलाई है, अब तो कुछ आराम हो रहा है पहिले बड़ी तेजी पर था।

इतना सुनकर वे लोग चले गये और जाती समय पहिले की तरह दरवाजा पुनः बन्द करते गये।

अब फिर उस कमरे में सन्नाटा हो गया और भूतनाथ तथा देवीसिंह को धीरे-धीरे बातचीत करने का मौका मिला।

देवी – हां बताओ तुमने पिछले कमरे में क्या देखा और तुम्हारे मुंह से चीख की आवाज क्यों निकल गई?

भूत – ओफ, मेरे प्यारे दोस्त देवीसिंह, क्योंकि अब मैं आपको खुशी और सच्चे दिल से अपना दोस्त कह सकता हूं चाहे आप मुझसे हर तरह पर बड़े क्यों न हों, उस कमरे में जो कुछ मैंने देखा वह मुझे दहला देने के लिए काफी था। पहिले तो वहां मैंने अपने लड़के को देखा जिसे उम्मीद है कि आपने भी देखा होगा।

देवी – बेशक उसे मैंने देखा था मगर शक मिटाने के लिये तुम्हें दिखाना पड़ा, चाहे वह कोई ऐयार ही सूरत बदले क्यों न हो मगर शकल ठीक वैसे ही थी।

भूत – अगर उसकी सूरत बनावटी नहीं है तो वह मेरा लड़का हरनामसिंह ही है, खैर उसके बारे में न तो मुझे कुछ ज्यादे तरद्दुद हुआ मगर उसके कुछ ही देर बाद मैंने एक ऐसी चीज देखी कि जिससे मुझे हौल हो गया और मेरे मुंह से चीख की आवाज निकल पड़ी।

देवी – वह क्या चीज थी?

भूत – एक बहुत बड़ी तस्वीर थी जिसे एक आदमी ने पहुंचकर उन नकाबपोशों के आगे रख दिया जो गद्दी पर बैठे हुए थे और कहा, ”बस मैं इसी का दावा भूतनाथ पर करूंगा।”

देवी – वह किसकी तस्वीर थी, किसी मर्द की या औरत की?

भूत – (एक लम्बी सांस लेकर) वह औरत, मर्द, जंगल, पहाड़, बस्ती, उजाड़ सभी की तस्वीर थी, मैं क्या बताऊं किसकी तस्वीर थी। एक यही बात है जिसे मैं अपने मुंह से नहीं निकाल सकता! मगर अब मैं आपसे कोई बात न छिपाऊंगा चाहे कुछ ही क्यों न हो। आप यह तो अच्छी तरह जानते ही हैं कि मैं उस पीतल की सन्दूकड़ी से कितना डरता हूं जो नकली बलभद्रसिंह की दी हुई अभी तक तेजसिंह के पास है।

देवी – मैं खूब जानता हूं और उस दिन भी मेरा खयाल उसी सन्दूकड़ी की तरफ चला गया था जब एक नकाबपोश ने दरबार में खड़े होकर तुम्हारी तारीफ की थी और तुम्हें मुंहमांगा इनाम देने के लिए कहा था।

भूत – ठीक है, बलभद्रसिंह ने भी मुझे यही कहा था कि ‘ये नकाबपोश तुम्हारे मददगार हैं और तुम्हारा भेद ढके रहने के लिए महाराज से यह सन्दूकड़ी तुम्हें दिलाया चाहते हैं।’ मैं भी यह सोचकर प्रसन्न था और चाहता था कि मुकद्दमा फैसला होने के पहिले ही इनाम मांगने का मुझे मौका मिल जाय, मगर इस तस्वीर ने जिसे मैं अभी देख चुका हूं मेरी हिम्मत तोड़ दी और मैं पुनः अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो गया हूं।

देवी – तो उस सन्दूकड़ी से और इस तस्वीर से क्या सम्बन्ध है?

भूत – वह सन्दूकड़ी अपने पेट में जिस भेद को छिपाये हुए है उसी भेद को यह तस्वीर प्रकट करती है। इसके अतिरिक्त मैं सोचे हुए था कि अब उसका कोई दावेदार नहीं है मगर अब मालूम हो गया कि उसका दावेदार भी आ पहुंचा और उसी ने यह तस्वीर नकाबपोश के आगे पेश की!

देवी – क्या तुम यह नहीं बता सकते कि उस सन्दूकड़ी और इस तस्वीर में क्या भेद है।

भूत – (लम्बी सांस लेकर) अब मैं आपसे कोई बात छिपा न रखूंगा मगर इतना समझ रखिए कि उस भेद को सुनकर आप अपने ऊपर एक तरद्दुद का बोझा डाल लेंगे।

देवी – खैर जो कुछ होगा सहना ही पड़ेगा और तुम्हारी मदद भी करनी ही पड़ेगी, मगर सबके पहिले मैं यह जानना चाहता हूं कि उस भेद से हमारे महाराज का भी कुछ सम्बन्ध है या नहीं।

भूत – अगर कुछ सम्बन्ध है भी तो केवल इतना ही कि उस भेद को सुनकर वे मुझ पर घृणा करेंगे, नहीं तो महाराज से और उस भेद से कुछ सम्बन्ध नहीं। मैंने महाराज के विपक्ष में कोई बुरा काम नहीं किया, जो कुछ बुरा किया है वह सिर्फ अपने और अपने दुश्मनों के साथ।

देवी – जब महाराज से उस भेद का कोई सम्बन्ध ही नहीं है तो मैं हर तरह पर तुम्हारी मदद कर सकता हूं, अच्छा तो अब बताओ कि वह कौन-सा भेद है

भूत – इस समय न पूछिए क्योंकि हम लोग विचित्र स्थान में कैद हैं, ताज्जुब नहीं कि हम दोनों की बातें कोई किसी जगह पर छिपकर सुनता हो, हां मैदान में निकल चलने पर जरूर कहूंगा।

देवी – अच्छा यह तो बताओ कि उस आदमी की सूरत भी तुमने अच्छी तरह देख ली या नहीं जिसने यह तस्वीर नकाबपोश के आगे पेश की थी!

भूत – हां उसकी सूरत मैंने बखूबी देखी थी। मैं उसे खूब पहिचानता हूं, क्योंकि दुनिया में मेरा सबसे बड़ा दुश्मन वही है और उसे अपनी ऐयारी का भी घमंड है।

देवी – अगर वह तुम्हारे कब्जे में आ जाये तो?

भूत – जरूर उसे फंसाने बल्कि मार डालने की फिक्र करूंगा! मैं तो उसकी तरफ से बिल्कुल बेफिक्र हो गया था, मुझे इस बात की रत्तीभर उम्मीद न थी कि वह जीता है।

देवी – खैर कोई चिन्ता नहीं जैसा होगा देखा जायगा, तुम अभी से हताश क्यों हो रहे हो!

भूत – अगर वह सन्दूकड़ी मुझे मिल जाती और उसके खुलने की नौबत न आती तो…।

देवी – वह सन्दूकड़ी मैं तुम्हें दिला दूंगा और उसे किसी के सामने खुलने भी न दूंगा, उसकी तरफ से बेफिक्र रहो।

भूत (मुहब्बत से देवीसिंह का पंजा पकड़के) अगर ऐसा करो तो क्या बात है!

देवी – ऐसा ही होगा। खैर, अब यह सोचना चाहिए कि इस समय हम लोगों को क्या करना उचित है। मैं समझता हूं कि सुबह होने के साथ ही हम लोग इस हद के बाहर पहुंचा दिये जायेंगे।

भूत – मेरा खयाल भी यही है। लेकिन अगर ऐसा हुआ तो आपकी और मेरी स्त्री के बारे में किसी बात का पता न लगेगा।

देवीसिंह और भूतनाथ इस विषय पर बहुत देर तक बातचीत और राय पक्की करते रहे, यहां तक कि सबेरा हो गया। कई नकाबपोश उस कमरे को खोलकर भूतनाथ तथा देवीसिंह के पास पहुंचे और उन्हें बाहर चलने के लिए कहा।

बयान – 3

महाराज से जुदा होकर देवीसिंह और बलभद्रसिंह से बिदा होकर भूतनाथ ये दोनों ही नकाबपोशों का पता लगाने के लिए चले गये। बचा हुआ दिन और तमाम रात तो किसी ने इन दोनों की खोज न की मगर दूसरे दिन सबेरा होने के साथ ही इन दोनों की तलबी हुई और थोड़ी ही देर में जवाब मिला कि उन दोनों का पता नहीं है कि कहां गये और अभी तक क्यों नहीं आये। हमारे महाराज समझ गये कि देवीसिंह की तरह भूतनाथ भी उन्हीं दोनों नकाबपोशों का पता लगाने चला गया, मगर उन दोनों के न लौटने से एक तरह की चिन्ता पैदा हो गई और लाचार होकर आज दरबारे-आम का जलसा बन्द रखना पड़ा।

दरबारे – आम के बन्द होने की खबर वहां वालों को तो मिल गई मगर वे दोनों नकाबपोश अपने मालूमी समय पर आ ही गये और उनके आने की इत्तिला राजा वीरेन्द्रसिंह से की गई। उस समय राजा वीरेन्द्रसिंह एकान्त में तेजसिंह तथा और भी कई ऐयारों के साथ बैठे हुए देवीसिंह और भूतनाथ के बारे में बातें कर रहे थे। उन्होंने ताज्जुब के साथ नकाबपोशों का आना सुना और उसी जगह हाजिर करने का हुक्म दिया।

हाजिर होकर दोनों नकाबपोशों ने बड़े अदब से सलाम किया और आज्ञा पाकर महाराज से थोड़ी दूर पर तेजसिंह के बगल में बैठ गये। इस समय तखलिये का दरबार था तथा गिनती के मामूली आदमी बैठे हुए थे, राजा वीरेन्द्रसिंह को नकाबपोश की बातें सुनने का शौक था इसलिए तेजसिंह के बगल में ही बैठने की आज्ञा दी और स्वयं बातचीत करने लगे।

वीरेन्द्र – आज भूतनाथ के न होने से मुकद्दमे की कार्रवाई रोक देनी पड़ी।

नकाब – (अदब से हाथ जोड़कर) जी हां, मैंने यहां पहुंचने के साथ ही सुना कि ‘कल से देवीसिंहजी और भूतनाथ का पता नहीं है इसलिए आज दरबार न होगा।’ मगर ताज्जुब की बात है कि भूतनाथ और देवीसिंहजी एक साथ कहां चले गये। मैं तो यही समझता हूं कि भूतनाथ हम लोगों का पता लगाने के लिए निकला है और उसका ऐसा करना कोई ताज्जुब की बात भी नहीं मगर देवीसिंहजी बिना मर्जी के चले गये इस बात का ताज्जुब है।

वीरेन्द्र – देवीसिंह बिना मर्जी के नहीं चले गये बल्कि हमसे पूछके गये हैं।

नकाब – तो उन्हें महाराज ने हम लोगों का पीछा करने की आज्ञा क्यों दी हम लोग तो महाराज के ताबेदार स्वयं ही अपना भेद कहने के लिए तैयार हैं और शीघ्र ही समय पाकर अपने को प्रकट करेंगे ही, केवल मुकद्दमे की उलझन खोलने और कैदियों को निरुत्तर करने के लिए अपने को छिपाये हुए हैं।

तेज – आप लोगों को शायद यह मालूम नहीं कि भूतनाथ ने देवीसिंह को अपना दोस्त बना लिया है। जिस समय भूतनाथ के मुकद्दमे का बीज रोपा गया था उसके कई घंटे पहिले ही देवीसिंह ने उसकी सहायता करने की प्रतिज्ञा कर दी थी क्योंकि वह भूतनाथ की चालाकी, ऐयारी तथा उसके अच्छे कामों से प्रसन्न थे।

नकाब – ठीक है तब तो ऐसा हुआ ही चाहिए परन्तु कोई चिन्ता नहीं, भूतनाथ वास्तव में अच्छा आदमी है और उसे महाराज की सेवा का उत्साह भी है।

तेज – इसके अतिरिक्त उसने हमारे कई काम भी बड़ी खूबी के साथ किये हैं।

नकाब – ठीक है।

तेज – हां मैं एक बात आपसे पूछना चाहता हूं।

नकाब – आज्ञा!

तेज – निःसन्देह भूतनाथ और देवीसिंह आप लोगों का भेद लेने के लिए गये हैं, अस्तु आश्चर्य नहीं कि वे दोनों उस ठिकाने तक पहुंच गये हों जहां आप लोग रहते हैं और आपको उनका कुछ हाल भी मालूम हुआ हो!

नकाब – न तो वे हम लोगों के डेरे तक पहुंचे और न हम लोगों को उनका कुछ हाल ही मालूम है। हम लोगों के विषय में हजारों आदमी बल्कि यों कहना चाहिए कि आजकल यहां जितने लोग इकट्ठे हो रहे हैं सभी आश्चर्य करते हैं और इसलिए जब हम लोग यहां आते हैं तो सैकड़ों आदमी चारों तरफ से घेर लेते हैं और जाते समय तो कोसों तक पीछा करते हैं इसलिए हम लोगों को भी बहुत घूम-फिर तथा लोगों को भुलावा देते हुए अपने डेरे की तरफ जाना पड़ता है।

तेज – तब तो उन दोनों का न लौटना आश्चर्य है।

नकाब – बेशक, अच्छा तो आज हम लोग कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का कुछ हाल महाराज को सुनाते जायं, आखिर आ गये हैं तो कुछ काम करना ही चाहिए।

वीरेन्द्र – (ताज्जुब से) उनका कौन-सा हाल?

नकाब – वही तिलिस्म के अन्दर का हाल। जब तक राजा गोपालसिंह वहां थे तब तक का हाल तो उनकी जुबानी आपने सुना ही होगा मगर उसके बाद क्या हुआ और तिलिस्म में उन दोनों भाइयों ने क्या किया सो न सुना होगा, वह सब हाल हम लोग सुना सकते हैं, यदि आज्ञा हो तो…।

वीरेन्द्र – (ज्यादे ताज्जुब के साथ) कब तक का हाल आप सुना सकते हैं

नकाब – आज तक का हाल, बल्कि आज के बाद भी रोज-रोज का हाल तब तक बराबर सुना सकते हैं जब तक उनके यहां आने में दो घंटे की देर हो।

वीरेन्द्र – हम बड़ी प्रसन्नता से उनका हाल सुनने के लिए तैयार हैं। बल्कि हम चाहते हैं कि गोपालसिंह और अपने पिताजी के सामने वह हाल सुनें।

नकाब – जो आज्ञा, मैं सुनाने के लिए तैयार हूं।

वीरेन्द्र – मगर वह सब हाल आप लोगों को कैसे मालूम हुआ, मालूम होता है और होगा?

नकाब – (हाथ जोड़कर) इसका जवाब देने के लिए मैं अभी तैयार नहीं हूं, लेकिन यदि महाराज मजबूर करेंगे तो लाचारी है क्योंकि हम लोग महाराज को अप्रसन्न भी नहीं किया चाहते।

वीरेन्द्र – (मुस्कुराकर) हम तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई काम करना भी नहीं चाहते।

इतना कहके वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखा। तेजसिंह स्वयं उठकर महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास गये और थोड़ी ही देर में लौट आकर बोले, ”चलिए महाराज बैठे हैं और आप लोगों का इन्तजार कर रहे हैं।” सुनते ही सब कोई उठ खड़े हुए और राजा सुरेन्द्रसिंह की तरफ चले। उसी समय तेजसिंह ने एक ऐयार राजा गोपालसिंह के पास भेज दिया।

बयान – 4

राजा सुरेन्द्रसिंह का दरबारे-खास लगा हुआ है। जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, गोपालसिंह और भैरोसिंह वगैरह अपने खास ऐयारों के अतिरिक्त कोई गैर आदमी यहां दिखाई नहीं देता। महाराज की आज्ञानुसार एक नकाबपोश ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल इस तरह कहना शुरू किया –

नकाब – जब तक राजा गोपालसिंह वहां रहे तब तक का हाल तो इन्होंने आपसे कहा ही होगा, अब मैं उसके बाद का हाल बयान करूंगा।

राजा गोपालसिंह से बिदा हो दोनों कुमार उसी बावली पर पहुंचे। जब राजा गोपालसिंह सभी को लिये हुए वहां से चले गये उस समय सबेरा हो चुका था, अतएव दोनों भाई जरूरी काम और प्रातः कृत्य से छुट्टी पाकर बावली के अन्दर उतरे। निचली सीढ़ी पर पहुंचकर आनन्दसिंह ने अपने कुछ कपड़े उतार दिए और केवल लंगोट पहिरे हुए जल के अन्दर कूदकर बीचोंबीच में जा गोता लगाया। वहां जल के अन्दर एक छोटा-सा चबूतरा था और उस चबूतरे के बीचोंबीच में लोहे की मोटी कड़ी लगी हुई थी। जल में जाकर उसी को आनन्दसिंह ने उखाड़ लिया और इसके बाद जल के बाहर चले आये। बदन पोंछकर कपड़े पहिर लिए, लंगोट सूखने के लिए फैला दिया और दोनों भाई सीढ़ी पर बैठकर जल के सूखने का इन्तजार करने लगे।

जिस समय आनन्दसिंह ने जल में जाकर वह लोहे की कड़ी निकाल ली उसी समय से बावली का जल तेजी के साथ घटने लगा, यहां तक कि दो घण्टे के अन्दर ही बावली खाली हो गई और सिवाय कीचड़ के उसमें कुछ भी न रहा और वह कीचड़ भी मालूम होता था कि बहुत जल्द सूख जायगा क्योंकि नीचे की जमीन पक्की और संगीन बनी हुई थी, केवल नाममात्र को मिट्टी या कीचड़ का हिस्सा उस पर था। इसके अतिरिक्त किसी सुरंग या नाली की राह निकल जाते हुए पानी ने भी बहुत कुछ सफाई कर दी थी।

बावली के नीचे वाली चारों तरफ की अन्तिम सीढ़ी लगभग तीन हाथ के ऊंची थी और उसी दीवार में चारों तरफ दरवाजों के निशान बने हुए थे जिसमें से पूरब तरफ वाले निशान को दोनों कुमारों ने तिलिस्मी खंजर से साफ किया। जब उसके आगे वाले पत्थरों को उखाड़कर अलग किया तो अन्दर जाने के लिए रास्ता दिखाई दिया जिसके विषय में कह सकते हैं कि वह एक सुरंग का मुहारा था और उस ढंग से बन्द किया गया था जैसा कि ऊपर बयान कर चुके हैं।

इसी सुरंग के अन्दर कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को जाना था मगर पहर भर तक उन्होंने इस खयाल से उसके अन्दर जाना मौकूफ रक्खा था कि उसके अन्दर से पुरानी हवा निकलकर ताजी हवा भर जाय क्योंकि यह बात उन्हें पहिले ही से मालूम थी कि दरवाजा खुलने के बाद थोड़ी ही देर में उसके अन्दर की हवा साफ हो जायगी।

पहर भर दिन बाकी था जब दोनों कुमार उस सुरंग के अन्दर घुसे और तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए आधे घंटे तक बराबर चले गये। सुरंग में कई जगह ऐसे सूराख बने हुए थे जिनमें से रोशनी तो नहीं मगर हवा तेजी के साथ आ रही थी और यही सबब था कि उसके अन्दर की हवा थोड़ी देर में साफ हो गई।

आप सुन चुके होंगे कि तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में (जहां के देवमन्दिर में दोनों कुमार कई दिन तक रह चुके हैं) देवमन्दिर के अतिरिक्त चारों तरफ चार मकान बने हुए थे1 और उनमें से उत्तर तरफ वाला मकान गोलाकार स्याह पत्थर का बना हुआ तथा उसके चारों तरफ चर्खियां और तरह-तरह के कल-पुर्जे लगे हुए थे। उस सुरंग का दूसरा मुहाना उसी मकान के अन्दर था और इसीलिए सुरंग के बाहर होकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने अपने को उसी मकान में पाया। इस मकान में चारों तरफ गोलाकार दालान के अतिरिक्त कोई कोठरी या कमरा न था। बीच में एक संगमर्मर का चबूतरा था और उस पर स्याह रंग का एक मोटा आदमी बैठा हुआ था जो जांच करने पर मालूम हुआ कि लोहे का है। उसी आदमी के सामने की तरफ के दालान में सुरंग का वह मुहाना था जिसमें दोनों कुमार निकले थे। उस सुरंग के बगल में एक और सुरंग थी और उसके अन्दर उतरने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं। चारों तरफ देख-भाल करने के बाद दोनों कुमार उसी सुरंग में उतर गये और आठ-दस सीढ़ी नीचे उतर जाने के बाद देखा कि सुरंग खुलासी तथा दूर तक चली गई है। लगभग सौ कदम तक दोनों कुमार बेखटके चले गये और इसके बाद एक छोटे-से बाग में पहुंचे जिसमें खूबसूरत पेड़-पत्तों का तो कहीं नामनिशान भी न था हां जंगली बेर, मकोय तथा केले के पेड़ों की कमी न थी। दोनों कुमार सोचे हुए थे कि यहां भी और जगहों की तरह हम सन्नाटा पाएंगे अर्थात् किसी आदमी की सूरत दिखाई न देगी मगर ऐसा न था। वहां कई आदमियों को इधर-उधर घूमते देख दोनों कुमार को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वे गौर से आदमियों की तरफ देखने लगे जो बिल्कुल जंगली और भयानक मालूम पड़ते थे।

See also  श्रीकांत अध्याय 19

वे आदमी गिनती में पांच थे और उन लोगों ने भी दोनों कुमारों को देखकर उतना ही ताज्जुब किया जितना कुमारों ने उनको देखकर। वे लोग इकट्ठे होकर कुमार के पास चले आये और उनमें से एक ने आगे बढ़कर कुमार से पूछा, ”क्या आप दोनों के साथ भी वही सलूक किया गया जो हम लोगों के साथ किया गया था मगर ताज्जुब है कि आपके कपड़े और हर्बे छीने नहीं गए और आप लोगों के चेहरे पर भी किसी तरह का रंज मालूम नहीं पड़ता!”

इन्द्र – तुम लोगों के साथ क्या सलूक किया गया था और तुम लोग कौन हो?

आदमी – हम लोग कौन हैं इसका जवाब देना सहज नहीं है और न आप थोड़ी देर में इसका जवाब सुन ही सकते हैं मगर आप अपने बारे में सहज में बता सकते हैं कि किस कसूर पर यहां पहुंचाए गए।

इन्द्र – हम दोनों भाई तिलिस्म को तोड़ते और कई कैदियों को छुड़ाते हुए अपनी खुशी से यहां तक आए हैं और अगर तुम लोग कैदी हो तो समझ रक्खो कि अब इस कैद की अवधि पूरी हो गई और बहुत जल्द अपने को स्वतन्त्र विचरते हुए देखोगे।

आदमी – हमें कैसे विश्वास हो कि जो कुछ आप कह रहे हैं वह सच है?

इन्द्र – अभी नहीं तो थोड़ी देर में स्वयं विश्वास हो जायगा।

इतना कहकर कुमार आगे की तरफ बढ़े और वे लोग उन्हें घेरे हुए साथ-साथ जाने लगे। इन्द्रजीतसिंह व आनन्दसिंह को विश्वास हो गया कि सर्यू की तरह ये लोग भी इस तिलिस्म में कैद किये गए हैं और दारोगा या मायारानी ने इनके साथ यह सलूक किया है, और वास्तव में बात भी ऐसी ही थी।

इन आदमियों की उम्र यद्यपि बहुत ज्यादे न थी मगर रंज-गम और तकलीफ की बदौलत सूखकर कांटा हो गए थे। सिर और दाढ़ी के बालों ने बढ़ और उलझकर उनकी सूरत डरावनी कर दी थी और चेहरे की जर्दी तथा गढ़हे में घुसी हुई आंखें उनकी बुरी अवस्था का परिचय दे रही थीं।

इस बाग में पानी का एक चश्मा था और वही इन कैदियों की जिन्दगी का सहारा था मगर इस बात का पता नहीं लग सकता था कि पानी कहां से आता है और निकलकर कहां चला जाता है। इसी नहर की बदौलत यहां की जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा तर हो रहा था और इस सबब से उन कैदियों को केला वगैरह खाकर अपनी जान बचाये रहने का मौका मिलता था।

बाग के बीचोंबीच में बीस या पचीस हाथ ऊंचा एक बुर्ज था और उस बुर्ज के चारों तरफ स्याह पत्थर का कमरे बराबर ऊंचा चबूतरा बना हुआ था, मगर इस बात का पता नहीं लगता था कि इस बुर्ज पर चढ़ने के लिए कोई रास्ता भी है या नहीं, या अगर है तो कहां से है। दोनों कुमार उस चबूतरे पर बेधड़क जाकर बैठ गए और तब इन्द्रजीतसिंह ने उन कैदियों की तरफ देखके कहा, ”कहो अब तुम्हें विश्वास हुआ कि जो कुछ हमने कहा सच है?’

आदमी – जी हां, अब हम लोगों को विश्वास हो गया, क्योंकि हम लोगों ने इस चबूतरे को कई दफे आजमाकर देख लिया है। इस पर बैठना तो दूर रहा हम इसे छूने के साथ ही बेहोश हो जाते थे मगर ताज्जुब है कि आप पर इसका असर कुछ भी नहीं होता।

इन्द्र – इस समय तुम लोग भी चबूतरे पर बैठ सकते हो जब तक हम बैठे हैं।

आदमी – (चबूतरा छूने की नीयत से बढ़ता हुआ) क्या ऐसा हो सकता है!

इन्द्र – आजमाके देख लो।

उस आदमी ने चबूतरा छूआ मगर उस पर कुछ बुरा असर न हुआ और तब कुमार की आज्ञा पा वह चबूतरे पर बैठ गया। उसकी देखा-देखी सभी आदमी उस चबूतरे पर बैठ गये और जब किसी तरह का बुरा असर होते न देखा तब हाथ जोड़कर कुमार से बोले, ”अब हम लोगों को आपकी बात में किसी तरह का शक न रहा, आशा है कि आप कृपा करके अपना परिचय देंगे।”

जब कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने अपना परिचय दिया तब सबके सब उनके पैरों पर गिर पड़े और डबडबाई आंखों से उनकी तरफ देखके बोले, ”दोहाई है महाराज की, हमारे मामले पर विचार होकर दुष्टों को दण्ड मिलना चाहिए।”

इतना कहकर नकाबपोश चुप हो गया और कुछ सोचने लगा। इसी समय वीरेन्द्रसिंह ने उससे कहा, ”मालूम होता है कि उस चबूतरे में बिजली का असर था और इस सबब से उसे कोई छू नहीं सकता था, मगर दोनों लड़कों के पास बिजली वाला तिलिस्मी खंजर मौजूद था और उसके जोड़ की अंगूठी भी, इसलिए तब तक के लिए उसका असर जाता रहा जब तक दोनों लड़के उस पर बैठे रहे।”

नकाब – (हाथ जोड़कर) जी बेशक यही बात है।

बीरेन्द्र – अच्छ तब क्या हुआ।

नकाब – इसके बाद कुमार ने उन सभों का हाल पूछा और उन सभों ने रो-रोकर अपना हाल बयान किया।

बीरेन्द्र – उन लोगों ने अपना हाल क्या कहा?

नकाब – मैं यही सोच रहा था कि उन लोगों ने जो कुछ अपना हाल बयान किया वह मैं इस समय कहूं या न कहूं।

तेज – क्या उन लोगों का हाल कहने में कोई हर्ज है आखिर हम लोगों को मालूम तो होगा ही।

नकाब – जरूर मालूम होगा और मेरी ही जुबानी मालूम होगा, मैं जो कहने से रुकता हूं वह केवल एक ही दो दिन के लिए, हमेशा के लिए नहीं।

तेज – अगर यही बात है तो हमें दो-एक दिन के लिए कोई जल्दी भी नहीं।

नकाब – (हाथ जोड़कर) अस्तु अब आज्ञा हो तो हम लोग डेरे पर जायं। कल पुनः सभा में उपस्थित होकर यदि देवीसिंह और भूतनाथ न आए तो कुमार का हाल सुनावेंगे।

सुरेन्द्र – (इशारे से जाने की आज्ञा देकर) तुम दोनों ने इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल सुनाकर अपने विषय में हम लोगों का आश्चर्य और भी बढ़ा दिया।

दोनों नकाबपोश उठ खड़े हुए और अदब के साथ सलाम करके वहां से रवाना हुए।

बयान – 5

देवीसिंह और भूतनाथ की यह इच्छा न थी कि आज सबेरा होते ही हम लोग यहां से चले जायं और अपनी स्त्रियों के विषय में किसी तरह की जांच न करें, मगर लाचारी थी क्योंकि नकाबपोशों की इच्छा के विरुद्ध वे वहां रह नहीं सकते थे, साथ ही इसके मालिक मकान की मेहरबानी और मीठे बर्ताव का भी उन्हें वैसा ही खयाल था जैसा कि इस मजबूरी की अवस्था में होना चाहिए। सबेरा होने पर जब कई नकाबपोश उनके सामने आए और उन्हें बाहर निकलने के लिए कहा तो देवीसिंह और भूतनाथ उठ खड़े हुए और कमरे के बाहर निकल उनके पीछे-पीछे रवाना हुए। जब मकान के नीचे उतरकर मैदान में पहुंचे तो देवीसिंह का इशारा पाकर भूतनाथ ने एक नकाबपोश से कहा, ”हम तुम्हारे मालिक से एक दफे और मिलना चाहते हैं।”

नकाब – इस समय उनसे मुलाकात नहीं हो सकती।

भूत – अगर घण्टे वा दो घण्टे में मुलाकात हो सके तो हम लोग ठहर जायं।

नकाब – नहीं, अब मुलाकात हो ही नहीं सकती, उन्होंने रात ही को जो हुक्म दे रक्खा था हम लोग उसको पूरा कर रहे हैं।

भूत – हम लोगों को कोई जरूरी बात पूछनी हो तो?

नकाब – एक चीठी लिखकर रख जाओ, उसका जवाब तुम्हारे पास पहुंच जायगा।

भूत – अच्छा यह बताओ कि यहां हम लोगों ने गिरफ्तार होने के पहिले जिन दो औरतों को देखा था उनसे भी मुलाकात हो सकती है या नहीं

नकाब – नहीं, क्या उन लोगों को आपने खानगी समझ रक्खा है

दूसरा नकाब – इन सब फजूल बातों से कोई मतलब नहीं और न हम लोगों को इतनी फुरसत ही है। आप लोग नाहक हम लोगों को रंज करते हैं और हमारे मालिक की उस मेहरबानी को एकदम भूल जाते हैं जिसकी बदौलत आप लोग कैदखाने की हवा खाने से बच गए!

भूत – (कुछ क्रोध-भरी आवाज में) अगर हम लोग न जायं तो तुम क्या करोगे?

नकाब – (रंज के साथ) जबर्दस्ती निकाल बाहर करेंगे। आप लोग अपने तिलिस्मी खंजर के भरोसे न भूलियेगा, ऐसे-ऐसे तुच्छ खंजरों का काम हम लोग अपने नाखूनों से लेते हैं। बस सीधी तरह कदम उठाइये और इस जमीन को अपनी मिलकियत न समझिये।

नकाबपोशों की बातें यद्यपि भूतनाथ और देवीसिंह को बुरी मालूम हुईं मगर बहुत-सी बातों को सोच-विचारकर चुप हो रहे और तकरार करना उचित न जाना। सब नकाबपोशों ने मिलकर उन्हें खोह के बाहर किया और लौटती समय भूतनाथ और देवीसिंह से एक नकाबपोश ने कहा, ”बस अब इसके अन्दर आने का खयाल न कीजिएगा, कल दरवाजा खुला रह जाने के कारण आप लोग चले आये मगर अब ऐसा मौका भी न मिलेगा।”

नकाबपोशों के चले जाने के बाद भूतनाथ और देवीसिंह वहां से रवाना हुए और कुछ दूर जाकर जंगल में एक घने पेड़ की छाया देख बैठकर यों बातचीत करने लगे –

भूत – कहिये, अब क्या इरादा है?

देवी – बात तो यह है कि हम लोग नकाबपोशों के घर जाकर बेइज्जत हो गये। चाहे ये दोनों नकाबपोश कुछ भी कहें मगर मुझे निश्चय है कि दरबार में आने वाले दोनों नकाबपोश वही हैं जिनके हम मेहमान हुए थे। मुझे तो शर्म आयेगी जब दरबार में मैं उन्हें अपने सामने देखूंगा। इसके अतिरिक्त यहां से जाकर अपनी स्त्री को घर में न देखूंगा तो मेरे आश्चर्य, रंज और क्रोध का कोई हद न रहेगा।

भूत – यद्यपि मैं एक तौर पर बेहया हो गया हूं परन्तु आज की बेइज्जती दिल को फाड़े डालती है, बहुत ऐयारी की मगर ऐसा जक कभी नहीं उठाया। मेरी तो यहां से हटने की इच्छा नहीं होती, यही जी में आता है कि इनमें से एक-न-एक को अवश्य पकड़ना चाहिए और अपनी स्त्री के विषय में तो इतना कहना काफी है कि यदि आपने घर जाकर अपनी स्त्री को पा लिया तो मैं भी अपनी स्त्री की तरफ से बेफिक्र हो जाऊंगा।

देवी – करने के लिए तो हम लोग बहुत कुछ कर सकते हैं मगर जब मैं उनके बर्ताव पर ध्यान देता हूं तब लाचारी आकर पल्ला पकड़ती है। जब एक बार उन्होंने हम लोगों को गिरफ्तार किया तो हर तरह का सलूक कर सकते थे परन्तु किसी तरह बुराई हम लोगों के साथ न की, दूसरे वे लोग स्वयं हमारे महाराज के दरबार में हाजिर हुआ करते हैं और समय पर अपने को प्रकट कर देने का वादा भी कर चुके हैं, ऐसी अवस्था में उनके साथ खोटा बर्ताव करते डर लगता है। कहीं ऐसा न हो कि वे लोग रंज हो जायं और दरबार में आना छोड़ दें, अगर ऐसा हुआ तो बड़ी बदनामी होगी और कैदियों का मामला भी आजकल के ढंग से अधूरा ही रह जायगा!

भूत – आप बात तो ठीक कहते हैं, परन्तु…?

देवी – नहीं, अब इस समय तरह देना ही उचित है, जिस तरह मैं अपनी बदनामी का खयाल करता हूं उसी तरह तुमको भी तो खयाल होगा!

भूत – जरूर, यदि नकाबपोशों का कोई अकेला आदमी कब्जे में आ जाय तो शायद काम निकल जाय और किसी को इस बात की खबर भी न हो।

इस तरह की बातें हो रही थीं कि उनके कानों में घोड़े के टापों की आवाज आई और दोनों ने घूमकर पीछे की तरफ देखा। एक नकाबपोश सवार आता हुआ दिखाई पड़ा जिस पर निगाह पड़ते ही भूतनाथ ने देवीसिंह से कहा, ”यह भी जरूर उन्हीं में से है, भला एक दफे और तो कोशिश कीजिए और जिस तरह हो सके इसे गिरफ्तार कीजिए फिर जैसा होगा देखा जायगा। बस अब इस समय सोचने-विचारने का मौका नहीं है।”

वह सवार बिल्कुल बेफिक्री के साथ धीरे-धीरे आ रहा था अस्तु ये दोनों भी उसके रास्ते के दोनों तरफ पेड़ों की आड़ देकर उसे गिरफ्तर करने की नीयत से खड़े हो गए। जब वह नकाबपोश सवार इन दोनों की सीध पर पहुंचा और आगे बढ़ना ही चाहता था तभी भूतनाथ के हाथ की फेंकी हुई कमन्द उसके घोड़े के गले में जा पड़ी, घोड़ा भड़ककर उछलने-कूदने लगा और तब दोनों ने लपककर घोड़े की लगाम थाम ली। उस सवार ने खंजर खेंचकर वार करना चाहा, मगर कुछ सोचकर रुक गया और साथ ही इसके इन दोनों को भी उसने लड़ने के लिए तैयार देखा।

नकाब – (भूतनाथ से) तुम लोग मुझे व्यर्थ क्यों रोकते हो मुझसे क्या चाहते हो?

भूत – हम लोग तुम्हें किसी तरह की तकलीफ देना नहीं चाहते, बस थोड़ी देर के लिए घोड़े से नीचे उतरो और हमारी दो-चार बातों का जवाब देकर जहां जी में आवे चले जाओ।

नकाब – बहुत अच्छा, मगर नकाब हटाने के लिए जिद न करना।

इतना कहकर नकाबपोश घोड़े के नीचे उतर पड़ा और भूतनाथ ने उससे कहा, ”लेकिन तुम्हें अपने चेहरे से नकाब हटाना ही पड़ेगा और यह काम सबसे पहिले होगा।” यह कहते-कहते भूतनाथ ने अपने हाथ से उसके चेहरे की नकाब उलट दी मगर उसके चेहरे पर निगाह पड़ते ही चौंककर बोल उठा, ”हैं! यह तो मेरी स्त्री है जो नकाबपोशों के घर में दिखाई पड़ी थी!”

बयान – 6

अपनी स्त्री की सूरत देखकर जितना ताज्जुब भूतनाथ को हुआ उतना ही आचश्चर्य देवीसिंह को भी हुआ। यह विचार कर रंज-गम और गुस्से से देवीसिंह का सिर घूमने लगा कि इसी तरह मेरी स्त्री भी अवश्य नकाबपोशों के यहां होगी और हम लोगों को उसकी सूरत देखने में किसी तरह का भ्रम नहीं हुआ। यदि सोचा जाय कि जिन दोनों औरतों को हम लोगों ने देखा था वे वास्तव में हम लोगों की औरतें न थीं बल्कि वे औरतों की सूरत में ऐयार थे तो इसका निश्चय भी इसी समय हो सकता है। वह औरत सामने मौजूद ही है, देख लिया जाय कि कोई ऐयार है या वास्तव में भूतनाथ की स्त्री।

उस स्त्री ने भूतनाथ के मुंह से यह सुनकर कि ‘यह तो मेरी स्त्री है’ – क्रोधभरी आंखों से भूतनाथ की तरफ देखा और कहा, ”एक तो तुमने जबर्दस्ती मेरी नकाब उलट दी, दूसरे बिना कुछ सोचे-विचारे आवारा लोगों की तरह यह कह दिया कि ‘यह मेरी स्त्री है’। क्या सभ्यता इसी को कहते हैं (देवीसिंह की तरफ देखके) आप ऐसे सज्जन और प्रतापी राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार होकर क्या इस बात को पसन्द करते हैं?’

देवी – अगर तुम भूतनाथ की स्त्री नहीं हो तो मैं जरूर इस बर्ताव को बुरा समझता हूं जो भूतनाथ ने तुम्हारे साथ किया है।

औरत(भूतनाथ से) क्यों साहब, आपने मेरी ऐसी बेइज्जती क्यों की! अगर मेरा मालिक या कोई वारिस इस समय यहां होता तो अपने दिल में क्या कहता?

भूत – (ताज्जुब से उसका मुंह देखता हुआ) क्या मैं भ्रम में पड़ा हुआ हूं या मेरी आंखें मेरे साथ दगा कर रही हैं?

औरत – सो तो आप ही जानें, क्योंकि दिमाग आपका है और आंखें भी आपकी हैं, हां इतना मुझे अवश्य कहना पड़ेगा कि आप अपनी असभ्यता का परिचय देकर पुरानी बदनामी को चरितार्थ करते हैं। कौन-सी बात आपने मुझमें ऐसी देखी जिससे इतना कहने का साहस आपको हुआ?

भूत – मालूम होता है कि या तो तू कोई ऐयार है और या फिर किसी दूसरे ने तेरी सूरत मेरी स्त्री के ढंग की बना दी है जिसे शायद तूने कभी देखा नहीं।

भूतनाथ ने उस औरत की बातों का जवाब तो दिया मगर वास्तव में वह खुद भी बहुत घबरा गया था। अपनी स्त्री की ढिठाई और चपलता पर उसे तरह-तरह के शक होने लगे और वह बड़ी बेचैनी के साथ सोच रहा था कि अब क्या करना चाहिए कि इसी बीच में उस स्त्री ने भूतनाथ की बात का यों जवाब दिया –

स्त्री – यों आप जिस तरह चाहें सोच-समझकर अपनी तबियत खुश कर लें मगर इस बात को खूब समझ रक्खें कि मैं भी लावारिस नहीं हूं और आप अगर मेरे साथ कोई बेअदबी का बर्ताव करेंगे तो उसका बदला भी अवश्य पावेंगे, साथ ही इस बात को भी अवश्य समझ लें कि आपके इस कहने पर कि तू कोई ऐयार है आपके सामने अपना चेहरा धोने की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकती।

भूत – मगर अफसोस है कि मैं बिना जांच किए तुम्हें छोड़ भी नहीं सकता।

स्त्री – (देवीसिंह की तरफ देखके) बहादुरी तो तब थी जब आप लोग किसी मर्द के साथ इस ढिठाई का बर्ताव करते। एक कमजोर औरत को इस तरह मजबूर करके फजीहत करना ऐयारों और बहादुरों का काम नहीं है। हाय, इस जगह अगर मेरा कोई होता तो यह दुःख न भोगना पड़ता! (यह कहकर आंसू बहाने लगी)

उस औरत की बातचीत कुछ ऐसे ढंग की थी कि सुनने वालों को उस पर दया आ सकती थी और यही मालूम होता था कि यह जो कुछ कह रही है उसमें झूठ का लेश नहीं है, यहां तक कि स्वयं भूतनाथ को भी उसकी बातों पर सहम जाना पड़ा और वह ताज्जुब के साथ उस औरत का मुंह देखने लगा, खास करके इस खयाल से भी कि देखें आंसू बहने के सबब से उसके चेहरे पर रंग कुछ बदलता है या नहीं। उधर देवीसिंह तो उसकी बातों से बहुत ही हैरान हो गये और उनके जी में रह-रहके यह बात पैदा होने लगी कि जरूर भूतनाथ इसके पहिचानने में धोखा खा गया और वास्तव में यह भूतनाथ की स्त्री नहीं है। अक्सर लोगों ने एक ही रंग-रूप के दो आदमी देखे हैं, ताज्जुब नहीं कि यहां भी वैसा ही कुछ मामला आ पड़ा हो।

देवी – (स्त्री से) तो तू इस भूतनाथ की स्त्री नहीं है?

स्त्री – जी नहीं।

देवी – आखिर इसका फैसला क्योंकर हो?

स्त्री – आप लोग जरा तकलीफ करके मेरे घर तक चलें, वहां मेरे बच्चों को देखने और मेरे मालिक से बातचीत करने पर आपको मालूम हो जायगा कि मेरा कहना सच है या झूठ।

देवी – (औरत की बात पसन्द करके) तुम्हारा घर यहां से कितनी दूर है

स्त्री – (हाथ का इशारा करके) इसी तरफ है, यहां से थोड़ी दूर पर इन घने पेड़ों के पार होते ही आपको वह झोंपड़ी दिखाई देगी जिसमें आजकल हम लोग रहते हैं।

देवी – क्या तुम झोंपड़ी में रहती हो मगर तुम्हारी सूरत-शक्ल किसी झोंपड़ी में रहने योग्य नहीं है।

स्त्री – जी मेरे दो लड़के बीमार हैं, उनकी तन्दुरुस्ती का खयाल करके हवा-पानी बदलने की नीयत से आजकल हम लोग यहां आ टिके हैं। (हाथ जोड़कर) आप कृपा कर शीघ्र उठिये और मेरे डेरे पर चलकर इस बखेड़े को तै कीजिए, विलम्ब होने से मैं मुफ्त में सताई जाऊंगी।

देवी – (भूतनाथ से) क्या हर्ज है अगर इसके डेरे पर चलकर शक मिटा लिया जाय?

भूत – जो कुछ आपकी राय हो मैं करने को तैयार हूं, मगर यह तो मुझे अजीब ढंग से अन्धा बना रही है।

देवी – अच्छा फिर उठो, अब देर करना उचित नहीं!

उस औरत की अनूठी बातचीत ने इन दोनों को इस बात पर मजबूर किया कि उसके साथ-साथ डेरे तक या जहां वह ले जाय चुपचाप चले जायं और देखें कि जो कुछ वह कहती है कहां तक सच है। और आखिर ऐसा ही हुआ।

इशारा पाते ही औरत उठ खड़ी हुई। देवीसिंह और भूतनाथ उसके पीछे-पीछे रवाना हुए। उस औरत को घोड़े पर सवार होने की आज्ञा न मिली इसलिए वह घोड़े की लगाम थामे हुए धीरे-धीरे इन दोनों के साथ चली।

लगभग आध कोस के गए होंगे कि दूर से एक छोटा-सा कच्चा मकान दिखाई पड़ा जिसे एक तौर पर झोंपड़ी कहना उचित है। इस मकान के ऊपर खपड़े की जगह केवल पत्ते ही से छाजन छाया हुआ था।

जब ये लोग झोंपड़ी के दरवाजे पर पहुंचे तब उस औरत ने अपने घोड़े को खूंटे के साथ बांधकर थोड़ी-सी घास उसके आगे डाल दी जो उसी जगह एक पेड़ के नीचे पड़ी हुई थी और जिसे देखने से मालूम होता था कि रोज इसी जगह घोड़ा बंधा करता है। इसके बाद उसने देवीसिंह और भूतनाथ से कहा, ”आप लोग जरा-सा इसी जगह ठहर जायं, मैं अन्दर जाकर आप लोगों के लिए चारपाई ले आती हूं और अपने मालिक तथा लड़कों को भी बुला लाती हूं।”

देवीसिंह और भूतनाथ ने इस बात को कबूल किया और कहा, ”क्या हर्ज है, जाओ मगर जल्दी आना क्योंकि हम लोग ज्यादे देर तक यहां ठहर नहीं सकते।”

वह औरत मकान के अन्दर चली गई और वे दोनों देर तक बाहर खड़े रहकर उसका इन्तजार करते रहे। यहां तक कि घण्टे-भर से ज्यादे बीत गया और वह औरत मकान के बाहर न निकली। आखिर भूतनाथ ने पुकारना और चिल्लाना शुरू किया मगर इसका भी कोई नतीजा न निकला अर्थात् किसी ने भी उसे किसी तरह का जवाब न दिया। तब लाचार होकर वे दोनों मकान के अन्दर घुस गए मगर फिर भी किसी आदमी की यहां तक कि उस औरत की भी सूरत दिखाई न पड़ी। उस छोटी झोंपड़ी में किसी को ढूंढ़ना या पता लगाना कौन कठिन था अस्तु बित्ता-बित्ता भर जमीन देख डाली मगर सिवाय एक सुरंग के और कुछ भी दिखाई न पड़ा। न तो मकान में किसी तरह का असबाब ही था और न चारपाई, बिछावन, कपड़ा-लत्ता या अन्न और बरतन इत्यादि ही दिखाई पड़ा। अस्तु लाचार होकर भूतनाथ ने कहा, ”बस-बस हम लोगों को उल्लू बनाकर वह इसी सुरंग की राह निकल गई!”

बेवकूफ बनाकर इस तरह उस औरत के निकल जाने से दोनों ऐयारों को बड़ा ही अफसोस हुआ। भूतनाथ ने सुरंग के अन्दर घुसकर उस औरत को ढूंढ़ने का इरादा किया। पहिले तो इस बात का खयाल हुआ कि कहीं उस सुरंग में दो-चार आदमी घुसकर बैठे न हों जो हम लोगों पर बेमौके वार करें मगर जब अपने तिलिस्मी खंजर का ध्यान आया तो यह खयाल जाता रहा और बेफिक्री के साथ हाथ में तिलिस्मी खंजर लिये हुए भूतनाथ उस सुरंग के अन्दर घुसा। पीछे-पीछे देवीसिंह ने भी उसके अन्दर पैर रक्खा।

वह सुरंग लगभग पांच सौ कदम के लम्बी होगी। उसका दूसरा सिरा घने जंगल में पेड़ों के झुरमुट के अन्दर निकलता था। देवीसिंह और भूतनाथ भी उसी सुरंग के अन्दर ही अन्दर वहां तक चले गये और इन्हें विश्वास हो गया कि अब उस औरत का पता किसी तरह नहीं लग सकता।

इस समय इन दोनों के दिल की क्या कैफियत थी सो वे ही जानते होंगे, अस्तु लाचार होकर देवीसिंह ने घर लौट चलने का विचार किया मगर भूतनाथ ने इस बात को स्वीकार न करके कहा, ”इस तरह तकलीफ उठाने और बेइज्जत होने पर भी बिना कुछ काम किए घर लौट चलना मेरे खयाल से उचित नहीं है।”

देवी – आखिर फिर किया ही क्या जायगा मुझे इतनी फुरसत नहीं है कि कई दिनों तक बेफिक्री के साथ इन लोगों का पीछा करूं। उधर दरबार की जो कुछ कैफियत है तुम जानते ही हो! ऐसी अवस्था में मालिक की प्रसन्नता का खयाल न करके एक साधारण काम में दूसरी तरफ उलझे रहना मेरे लिए उचित नहीं है।

भूत – आपका कहना ठीक है मगर इस समय मेरी तबियत का क्या हाल है सो भी आप अच्छी तरह समझते होंगे।

देवी – मेरे खयाल से तुम्हारे लिए कोई ज्यादे तरद्दुद की बात नहीं है। इसके अतिरिक्त घर लौट चलने पर मैं अपनी औरत को देखूंगा, अगर वह मिल गई तो तुम भी अपनी स्त्री की तरफ से बेफिक्र हो जाओगे।

भूत – अगर आपकी स्त्री घर पर मिल जाय तो भी मेरे दिल का खुटका न जायगा।

देवी – अपनी स्त्री का हाल – चाल लेने के लिए तुम भी अपने आदमियों को भेज सकते हो।

भूत – यह सब-कुछ ठीक है मगर क्या करूं, इस समय मेरे पेट में अजब तरह की खिचड़ी पक रही है और क्रोध क्षण-क्षण में बढ़ा ही चला आता है।

देवी – अगर ऐसा ही है तो जो कुछ तुम्हें उचित जान पड़े सो करो, मैं अकेला ही घर की तरफ लौट जाऊंगा।

भूत – अगर ऐसा ही कीजिए तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी, मगर जब महाराज इस बारे में पूछेंगे तब जवाब…

देवी – (बात काटकर) महाराज की तरफ से तुम बेफिक्र रहो मैं जैसा मुनासिब समझूंगा कह – सुन लूंगा, मगर इस बात का वादा कर जाओ कि कितने दिन पर तुम वापस आओगे या तुम्हारा हाल मुझे कब और क्योंकर मिलेगा?

भूत – मैं आपसे सिर्फ तीन दिन की छुट्टी लेता हूं। अगर इससे ज्यादे दिन तक अटकने की नौबत आई तो किसी-न-किसी तरह अपने हाल-चाल की खबर आप तक पहुंचा दूंगा।

देवी – बहुत अच्छा (मुस्कुराते हुए) अब आप जाइए और पुनः लात खाने का बन्दोबस्त कीजिए, मैं तो घर की तरफ रवाना होता हूं, जय माया की!

भूत – जय माया की!

भूतनाथ को उसी जगह छोड़कर देवीसिंह रवाना हुए और संध्या होने के पहिले ही तिलिस्मी इमारत के पास आ पहुंचे।

बयान – 7

डेरे पर पहुंचकर स्नान करने और पोशाक बदलने के बाद देवीसिंह सबसे पहिले राजा वीरेन्द्रसिंह के पास गये और उसी जगह तेजसिंह से भी मुलाकात की। पूछने पर देवीसिंह ने अपना और भूतनाथ का कुल हाल बयान किया जो कि हम ऊपर के बयानों में लिख आये हैं। उस हाल को सुनकर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को कई दफे हंसने और ताज्जुब करने का मौका मिला और अन्त में वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ”अच्छा किया जो तुम भूतनाथ को छोड़कर यहां चले आये। तुम्हारे न रहने के कारण नकाबपोशों के आगे हम लोगों को शर्मिन्दा होना पड़ा।”

देवी – (ताज्जुब से) क्या वे लोग यहां आये थे?

बीरेन्द्र – हां, वे दोनों अपने मालूमी वक्त पर यहां आये थे और तुम दोनों के पीछा करने पर ताज्जुब और अफसोस करते थे, साथ ही इसके उन्होंने यह भी कहा था कि दोनों ऐयार हमारे मकान तक नहीं पहुंचे।

देवी – वे लोग जो चाहें सो कहें मगर मेरा खयाल यही है कि हम दोनों उन्हीं के मकान में गये थे।

बीरेन्द्र – खैर जो हो मगर उन नकाबपोशों का यह कहना बहुत ठीक है कि जब हम लोग समय पर अपना हाल आप ही कहने के लिए तैयार हैं तो आपको हमारा भेद जानने के लिए उद्योग न करना चाहिए!

देवी – बेशक उनका कहना ठीक है मगर क्या किया जाय, ऐयारों की तबियत ही ऐसी चंचल होती है कि किसी भेद को जानने के लिए वे देर तक या कई दिनों तक सब्र नहीं कर सकते। यद्यपि भूतनाथ इस बात को खूब जानता है कि वे दोनों नकाबपोश उसके पक्षपाती हैं और पीछा करके उनका दिल दुखाने का नतीजा शायद अच्छा न निकले मगर फिर भी उसकी तबियत नहीं मानती, तिस पर कल की बेइज्जती और अपनी स्त्री के खयाल ने उसके जोश को और भी भड़का दिया है। अगर वह अपनी स्त्री को वहां न देखता तो निःसन्देह मेरे साथ वापस चला आता और उन लोगों का पीछा करने का खयाल अपने दिल से निकाल देता।

तेज – खैर कोई चिन्ता नहीं, वे नकाबपोश खुशदिल, नेक और हमारे प्रेमी मालूम होते हैं, इसलिए आशा है कि भूतनाथ को अथवा तुम्हारे किसी आदमी को तकलीफ पहुंचाने का खयाल न करेंगे।

बीरेन्द्र – हमारा भी यही खयाल है। (देवीसिंह से मुस्कुराकर) तुम्हारा दिल भी तो अपनी बीवी साहेबा को देखने के लिए बेताब हो रहा होगा?

देवी – बेशक मेरे दिल में धुकनी-सी लगी हुई है और मैं चाहता हूं कि किसी तरह आपकी बात पूरी हो तो महल में जाऊं।

बीरेन्द्र – मगर हमसे तो तुमने पूछा ही नहीं कि तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी बीवी महल में थी या नहीं।

देवी – (हंसकर) जी आपसे पूछने की मुझे कोई जरूरत नहीं और न मुझे विश्वास ही है कि आप इस बारे में मुझसे सच बोलेंगे।

बीरेन्द्र – (हंसकर) खैर मेरी बातों पर विश्वास न करो और महल में जाकर अपनी रानी को देखो, मैं भी उसी जगह पहुंचकर तुम्हें इस बेएतबारी का मजा चखाता हूं!

इतना कहकर राजा वीरेन्द्रसिंह उठ खड़े हुए और देवीसिंह भी हंसते हुए वहां से चले गये।

महल के अन्दर अपने कमरे में एक कुर्सी पर बैठी चम्पा रोहतासगढ़ पहाड़ी और किले की तस्वीर दीवार के ऊपर बना रही है और उसकी दो लौंडियां हाथ में मोमी शमादान लिये हुए रोशनी दिखाकर इस काम में उसकी मदद कर रही हैं। चम्पा का मुंह दीवार की तरफ और पीठ सदर दरवाजे की तरफ है। दोनों लौंडियां भी उसी की तरह दीवार की तरफ देख रही हैं इसलिए चम्पा तथा उसकी लौंडियों को इस बात की कुछ भी खबर नहीं कि देवीसिंह धीरे-धीरे पैर दबाते हुए इस कमरे में आकर दूर से और कुछ देर से उनकी कार्रवाई देखते हुए ताज्जुब कर रहे हैं। चम्पा तस्वीर बनाने के काम में बहुत ही निपुण और शीघ्र काम करने वाली थी तथा उसे तस्वीरों के बनाने का शौक भी हद से ज्यादे था। देवीसिंह ने उसके हाथ की बनाई हुई सैकडों तस्वीरें देखी थीं, मगर आज की तरह ताज्जुब करने का मौका उन्हें आज के पहिले नहीं मिला था। ताज्जुब इसलिए कि इस समय जिस ढंग की तस्वीरें चम्पा बना रही थी ठीक उसी ढंग की तस्वीरें देवीसिंह ने भूतनाथ के साथ जाकर नकाबपोशों के मकान में दीवार के ऊपर बनी हुई देखी थीं। कह सकते हैं कि एक स्थान या इमारत की तस्वीर अगर दो कारीगर बनावें तो सम्भव है कि एक ढंग की तैयार हो जायं मगर यहां यही बात न थी। नकाबपोशों के मकान में रोहतासगढ़ पहाड़ी की जो तस्वीर देवीसिंह ने देखी थी उसमें दो नकाबपोश सवार पहाड़ी के ऊपर चढ़ते हुए दिखलाये गये थे जिनमें से एक का घोड़ा मुश्की और दूसरे का सब्जा था। इस समय जो तस्वीर चम्पा बना रही थी उसमें भी उसी ठिकाने उसी ढंग के दो सवार इसने बनाये और उसी तरह इन दोनों सवारों में से भी एक का घोड़ा मुश्की और दूसरे का सब्जा था। देवीसिंह का खयाल है कि यह बात इत्तिफाक से नहीं हो सकती।

ताज्जुब के साथ उस तस्वीर को देखते हुए देवीसिंह सोचने लगे, क्या यह तस्वीर इसने यों ही अन्दाज से तैयार की है नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अगर यह तस्वीर इसने अन्दाज से बनाई होती तो दोनों सवार और घोड़े ठीक उसी रंग के न बनते जैसा कि मैं उन नकाबपोशों के यहां देखे आता हूं। तो क्या यह वास्तव में उन नकाबपोशों के यहां गई थी बेशक गई होगी, क्योंकि उस तस्वीर के देखे बिना उसके जोड़ की तस्वीर यह बना नहीं सकती, मगर इस तस्वीर के बनाने से साफ जाहिर होता है कि यह अपनी उन नकाबपोशों के यहां जाने वाली बात गुप्त रखना भी नहीं चाहती, मगर ताज्जुब है कि जब इसका ऐसा खयाल है तो वहां (नकाबपोशों के घर पर) मुझे देखकर छिप क्यों गई थी खैर अब बातचीत करने पर जो कुछ भेद है सब मालूम हो जायगा।

यह सोचकर देवीसिंह दो कदम आगे बढ़े ही थे कि पैरों की आहट पाकर चम्पा चौंकी और घूमकर देखने लगी। देवीसिंह पर निगाह पड़ते ही कूंची और रंग की प्याली जमीन पर रखकर उठ खड़ी हुई और हाथ जोड़कर प्रणाम करने के बाद बोली, ”आप सफर से लौटकर कब आये?’

देवी – (मुस्कुराते हुए) चार-पांच घण्टे हुए होंगे, मगर यहां भी मैं आधी घड़ी से तमाशा देख रहा हूं।

चम्पा – (मुस्कुराती हुई) क्या खूब! इस तरह चोरी से ताक-झांक करने की क्या जरूरत थी?

देवी – इस तस्वीर और इसकी बनावट को देखकर मैं ताज्जुब कर रहा था और तुम्हारे काम में हर्ज डालने का इरादा नहीं होता था।

चम्पा – (हंसकर) बहुत ठीक, खैर आइये बैठिए।

देवी – पहिले मैं तुम्हारी इस कुर्सी पर बैठके इस तस्वीर को गौर से देखूंगा।

इतना कहकर देवीसिंह उस कुर्सी पर बैठ गये जिस पर थोड़ी ही देर पहिले चम्पा बैठी हुई तस्वीर बना रही थी और बड़े गौर से उस तस्वीर को देखने लगे। चम्पा भी कुर्सी की पिछवाई पकड़कर खड़ी हो गई और देखने लगी। देखते-देखते देवीसिंह ने झट हलके जर्द रंग की प्याली और कूंची उठा ली और उस तस्वीर में रोहतासगढ़ किले के ऊपर एक बुर्ज और उसके साथ सटी पताका का साधारण निशान बनाया अर्थात् उसकी जमीन बांधी जिसे देखते ही चम्पा चौंकी और बोली, ”हां-हां ठीक है यह बनाना तो मैं भूल ही गई थी। बस अब आप रहने दीजिए, इसे भी मैं ही अपने हाथ से बनाऊंगी, तब आप देखकर कहियेगा कि तस्वीर कैसी बनी और इसमें कौन-सी बात छूट गई थी।”

चम्पा की इस बात को सुन देवीसिंह चौंक पड़े। अब उन्हें पूरा-पूरा विश्वास हो गया कि चम्पा उन नकाबपोशों के मकान में जरूर गई हुई थी और मैंने निःसन्देह इसी को देखा था, अस्तु देवीसिंह ने घूमकर चम्पा की तरफ देखा और कहा, ”मगर यह तो बताओ कि वहां मुझे देखकर तुम भाग क्यों गई थीं?’

चम्पा – (ताज्जुब की सूरत बनाके) कहां कब?

देवी – उन्हीं नकाबपोशों के यहां!

चम्पा – मुझे बिल्कुल याद नहीं पड़ता कि आप कब की बात कर रहे हैं!

देवी – अब लगीं न नखरा करके परेशान करने!

चम्पा – मैं आपके चरणों की कसम खाकर कहती हूं कि मुझे कुछ याद नहीं कि आप कब की बात कर रहे हैं।

अब तो देवीसिंह के ताज्जुब का हद न रहा, क्योंकि वे खूब जानते थे कि चम्पा जितनी खूबसूरत और ऐयारी के फन में तेज है उतनी ही नेक और पतिव्रता भी है। वह उसके चरणों की कसम खाकर झूठ कदापि नहीं बोल सकती। अस्तु कुछ देर तक ताज्जुब के साथ गौर करने के बाद पुनः देवीसिंह ने कहा, ”आखिर कल या परसों तुम कहां गई थीं?’

चम्पा – मैं तो कहीं नहीं गई! आप महारानी चन्द्रकान्ता से पूछ लें क्योंकि मेरा-उनका तो दिन-रात का संग है, अगर कहीं जाती तो किसी काम के ही सिर जाती और ऐसी अवस्था में आपसे छिपाने की जरूरत ही क्या थी?

देवी – फिर यह तस्वीर तुमने कहां देखी?

चम्पा – यह तस्वीर मैं…!

इतना कह चम्पा कपड़े का एक लपेटा हुआ पुलिन्दा उठा लाई और देवीसिंह के हाथ में दिया। देवीसिंह ने उसे खोलकर देखा और चौंककर चम्पा से पूछा, ”यह नक्शा तुम्हें कहां से मिला?’

चम्पा – यह नक्शा मुझे कहां से मिला सो मैं पीछे कहूंगी पहिले आप यह बतावें कि इस नक्शे को देखकर आप चौंके क्यों और यह नक्शा वास्तव में कहां का है क्योंकि मैं इसके बारे में कुछ भी नहीं जानती।

देवी – यह नक्शा उन्हीं नकाबपोशों के मकान का है जिनके बारे में मैं अभी तुमसे पूछ रहा था।

चम्पा – कौन नकाबपोश वे ही जो दरबार में आया करते हैं?

देवी – हां वे ही, और उन्हीं के यहां मैंने तुमको देखा था।

चम्पा – (ताज्जुब के साथ) यों मैं कुछ भी नहीं समझ सकती, पहिले आप अपने सफर का हाल सुनावें और बतावें कि आप कहां गये थे और क्या-क्या देखा?

इसके जवाब में देवीसिंह ने अपने और भूतनाथ के सफर का हाल बयान किया और इसके बाद उस कपड़े वाले नक्शे की तरफ बताके कहा, ”यह उसी स्थान का नक्शा है। इस बंगले के अन्दर दीवारों पर तरह-तरह की तस्वीरें बनी हुई हैं जिन्हें कारीगर दिखा नहीं सकता, इसलिए नमूने के तौर पर बाहर की तरफ यही रोहतासगढ़ की एक तस्वीर बनाकर उसने नीचे लिख दिया है कि इस बंगले में इसी तरह की बहुत-सी तस्वीरें बनी हुई हैं। वास्तव में यह नक्शा बहुत ही अच्छा, साफ और बेशकीमत बना हुआ है।”

चम्पा – अब मैं समझी कि असल मामला क्या है, मैं उस मकान में नहीं गई थी।

देवी – तब यह तस्वीर तुमने कहां से पाई?

चम्पा – यह तस्वीर मुझे लड़के (तारासिंह) ने दी थी।

देवी – तुमने पूछा तो होगा कि यह तस्वीर उसे कहां से मिली?

चम्पा – नहीं, उसने बहुत तारीफ करके यह तस्वीर मुझे दी और मैंने ले ली थी।

देवी – कितने दिन हुए?

चम्पा – आज पांच-छः दिन हुए होंगे।

इसके बाद देवीसिंह बहुत देर तक चम्पा के पास बैठे रहे और जब वहां से जाने लगे तब वह कपड़े वाली तस्वीर अपने साथ बाहर लेते गये।

बयान – 8

महल के बाहर आने पर भी देवीसिंह के दिल को किसी तरह चैन न पड़ा। यद्यपि रात बहुत बीत चुकी थी तथापि राजा वीरेन्द्रसिंह से मिलकर उस तस्वीर के विषय में बातचीत करने की नीयत से वह राजा साहब के कमरे में चले गए, मगर वहां जाने पर मालूम हुआ कि वीरेन्द्रसिंह महल में गये हुए हैं। लाचार होकर लौटा ही चाहते थे कि राजा वीरेन्द्रसिंह भी आ पहुंचे और अपने पलंग के पास देवीसिंह को देखकर बोले, ”रात को भी तुम्हें चैन नहीं पड़ती! (मुस्कुराकर) मगर ताज्जुब यह है कि चम्पा ने तुम्हें इतने जल्दी बाहर आने की छुट्टी क्योंकर दे दी!”

देवी – इस हिसाब से तो मुझे भी आप पर ताज्जुब करना चाहिए मगर नहीं, असल तो यह है कि मैं एक ताज्जुब की बात आपको सुनाने के लिए यहां चला आया हूं।

वीरेन्द्र – वह कौन-सी बात है, और तुम्हारे हाथ में यह कपड़े का पुलिन्दा कैसा है?

देवी – इसी कम्बख्त ने तो मुझे इस आनन्द के समय में आपसे मिलने पर मजबूर किया।

वीरेन्द्र – सो क्या (चारपाई पर बैठकर) बैठ के बातें करो।

देवीसिंह ने महल में चम्पा के पास जाकर जो कुछ देखा और सुना था सब बयान किया, इसके बाद वह कपड़े वाली तस्वीर खोलकर दिखाई तथा उस नक्शे को अच्छी तरह समझाने के बाद कहा, ”न मालूम यह नक्शा तारा को क्योंकर और कहां से मिला और उसने इसे अपनी मां को क्यों दे दिया!”

वीरेन्द्र – तारासिंह से तुमने क्यों नहीं पूछा।

देवी – अभी तो मैं सीधा आप ही के पास चला आया हूं, अब जो कुछ मुनासिब हो किया जाय। कहिए तो लड़के को इसी जगह बुलाऊं?

वीरेन्द्र – क्या हर्ज है, किसी को कहो, बुला लावे।

देवीसिंह कमरे के बाहर निकले और पहरे के एक सिपाही को तारासिंह को बुलाने की आज्ञा देकर पुनः कमरे में चले गये और राजा साहब से बातचीत करने लगे। थोड़ी देर में पहरे वाले ने वापस आकर अर्ज किया कि ‘तारासिंह से मुलाकात नहीं हुई और इसका भी पता न लगा कि वे कब और कहां गये हैं, उनका खिदमतगार कहता है कि संध्या होने के पहिले ही से उनका पता नहीं है।’

बेशक यह बात ताज्जुब की थी। रात के समय बिना आज्ञा लिए तारासिंह का गैरहाजिर रहना सभों को ताज्जुब में डाल सकता था, मगर राजा वीरेन्द्रसिंह ने सोचा कि आखिर तारासिंह ऐयार है शायद किसी काम की जरूरत समझकर कहीं चला गया हो अस्तु राजा साहब ने भैरोसिंह को तलब किया और थोड़ी ही देर में भैरोसिह ने हाजिर होकर सलाम किया।

वीरेन्द्र – (भैरो से) तुम जानते हो कि तारासिंह क्योंकर और कहां गया है?

भैरो – तारा तो आज संध्या होने के पहिले से ही गायब है, पहर भर दिन बाकी था जब मुझसे मिला था, उसे तरद्दुद में देखकर मैंने पूछा भी था कि आज तुम तरद्दुद में क्यों मालूम पड़ते हो मगर इसका उसने कोई जवाब नहीं दिया।

वीरेन्द्र – ताज्जुब की बात है! हमें उम्मीद थी कि तुम्हें उसका हाल जरूर मालूम होगा।

भैरो – क्या मैं सुन सकता हूं कि इस समय उसे याद करने की जरूरत क्यों पड़ी?

वीरेन्द्र – जरूर सुन सकते हो।

इतना कहकर वीरेन्द्रसिंह ने देवीसिंह की तरफ देखा और देवीसिंह ने कुछ कम-बेश अपना और भूतनाथ का किस्सा बयान करने के बाद उस तस्वीर का हाल कहा और तस्वीर भी दिखाई। अन्त में भैरोसिंह ने कहा, ”मुझे कुछ भी मालूम नहीं कि तारासिंह को यह तस्वीर कब और कहां से मिली मगर अब इसका हाल जानने की कोशिश जरूर करूंगा।”

हुक्म पाकर भैरोसिंह बिदा हुआ और थोड़ी देर तक बातचीत करने के बाद देवीसिंह भी चले गये।

दूसरे दिन मामूली कामों से छुट्टी पाकर राजा वीरेन्द्रसिंह जब दरबारे-खास में बैठे तो पुनः तारासिंह के विषय में बातचीत शुरू हुई और इसी बीच में नकाबपोशों का भी जिक्र छिड़ा। उस समय वहां वीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, तेजसिंह तथा देवीसिंह वगैरह अपने ऐयारों के अतिरिक्त कोई गैर आदमी न था। जितने थे सभी ताज्जुब के साथ तारासिंह के विषय में तरह-तरह की बातें कर रहे थे और मौके पर भूतनाथ तथा नकाबपोशों का भी जिक्र आता था। दोनों नकाबपोश वहां आकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का जो किस्सा सुना गए थे उसे आज तीन दिन का जमाना गुजर गया। इस बीच में न तो वे दोनों नकाबपोश आये और न उनके विषय में कोई बात ही सुनी गई। साथ ही इनके अभी तक भूतनाथ का कोई हाल-चाल मालूम न हुआ। खुलासा यह कि इस समय के दरबार में इन्हीं सब बातों की चर्चा थी और तरह-तरह के खयाल दौड़ाये जा रहे थे। इसी समय चोबदार ने दोनों नकाबपोशों के आने की इत्तिला की। हुक्म पाकर वे दोनों हाजिर किए गये और सलाम करके आज्ञानुसार उचित स्थान पर बैठ गये।

एक नकाब – (हाथ जोड़कर राजा वीरेन्द्रसिंह से) महाराज ताज्जुब करते होंगे कि ताबेदारों ने हाजिर होने में दो-तीन दिन का नागा किया।

वीरेन्द्र – बेशक ऐसा ही है क्योंकि हम लोग इन्द्रजीत और आनन्द का तिलिस्मी किस्सा सुनने के लिए बेचैन हो रहे थे।

नकाब – ठीक है, हम लोग हाजिर न हुए इसके कई सबब हो सकते हैं। एक तो इसका पता हम लोगों को लग चुका था कि भूतनाथ जो हम लोगों की फिक्र में गया था अभी तक लौटकर नहीं आया और इस सबब से कैदियों के मुकद्दमे में दिलचस्पी नहीं आ सकती थी। दूसरे कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के किस्से में कई बातें ऐसी थीं जिनका हाल दरियाफ्त करना बहुत जरूरी था और इस काम के लिए हम लोग तिलिस्म के अन्दर गये हुए थे।

वीरेन्द्र – क्या आप लोग जब चाहे तब उस तिलिस्म के अन्दर जा सकते हैं जिसे वे दोनों लड़के फतह कर रहे हैं?

नकाब – जी सब जगह तो नहीं मगर खास-खास ठिकाने कभी-कभी जा सकते हैं जहां तक कि हमारे गुरु महाराज जाया करते थे, मगर उनकी खबर एक-एक घड़ी की हम लोगों को मिला करती है।

वीरेन्द्र – आप लोगों के गुरु कौन और कहां हैं?

See also  गोरा अध्याय 7 | रविंद्रनाथ टैगोर

नकाब – अब तो वे परमधाम को चले गये।

वीरेन्द्र – खैर तो जब आप लोग तिलिस्म में गये थे तो क्या दोनों लड़कों से मुलाकात हुई थी!

नकाब – मुलाकात तो नहीं हुई मगर जिन बातों का शक था वह मिट गया और जो बातें मालूम न थीं वे मालूम हो गईं जिससे इस समय हम लोग पुनः उनका किस्सा कहने के लिए तैयार हैं। (देवीसिंह की तरफ देखकर) आपने भूतनाथ को अकेला छोड़ दिया?

देवी – हां, क्योंकि मुझे आप लोगों का भेद जानने का उतना शौक न था जितना भूतनाथ को है। मैं तो उस दिन केवल इतना ही जानने के लिए गया था कि देखें भूतनाथ कहां जाता है और क्या करता है मगर मेरी तबियत इतने में ही भर गई।

नकाब – मगर भूतनाथ की तबियत अभी नहीं भरी।

तेज – वह भी विचित्र ढंग का ऐयार है! साफ-साफ देखता है कि आप लोग उसके पक्षपाती हैं मगर फिर भी आप लोगों का असल हाल जानने के लिए बेताब हो रहा है। यह उसकी भूल है तथापि आशा है कि आप लोगों की तरफ से उसे किसी तरह की तकलीफ न पहुंचेगी।

नकाब – नहीं-नहीं कदापि नहीं। (राजा वीरेन्द्रसिंह की तरफ देखके और हाथ जोड़के) हम लोगों को अपना लड़का समझिए और विश्वास रखिए कि आपके किसी ऐयार को हम लोगों की तरफ से किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुंच सकती चाहे वे लोग हमें किसी तरह का रंज पहुंचावें।

बीरेन्द्र – आशा तो ऐसी ही है, और हमारे ऐयार भी बड़े ही नालायक होंगे अगर आप लोगों को किसी तरह की तकलीफ पहुंचाने का इरादा करेंगे।

देवी – मैं कल से एक और तरद्दुद में पड़ गया हूं।

नकाब – वह क्या?

देवी – कल से मेरे लड़के तारासिंह का पता नहीं है, न मालूम वह क्यों और कहां चला गया।

नकाब – तारासिंह के लिए आपको तरद्दुद न करना चाहिए, आशा है कि घण्टे भर के अन्दर ही यहां आ पहुंचेगा।

देवी – आपके इस कहने से तो मालूम होता है कि आपको उसका हाल मालूम है।

नकाब – बेशक मालूम है मगर मैं अपनी जुबान से कुछ भी न कहूंगा, आप स्वयं उससे जो कुछ पूछना होगा पूछे लेंगे। (वीरेन्द्रसिंह से) आज जिस समय हम लोग घर से यहां की तरफ रवाना हो रहे थे उसी समय एक चीठी कुंअर इन्द्रजीतसिंह की मुझे मिली जिसमें उन्होंने लिखा था कि तुम महाराज के पास जाकर मेरी तरफ से अर्ज करो कि महाराज भैरोसिंह और तारासिंह को मेरे पास भेज दें क्योंकि उनके बिना हम लोगों को कई बातों की तकलीफ हो रही है, साथ ही इसके एक चीठी महाराज के नाम की भी उन्होंने भेजी है।

इतना कहके नकाबपोश ने अपनी जेब में से एक बंद लिफाफा निकालकर वीरेन्द्रसिंह के हाथ में दिया।

बीरेन्द्र – (ताज्जुब के साथ लिफाफा लेकर) सीधे मेरे पास क्यों नहीं भेजा?

नकाब – वे न तो खुद तिलिस्म के बाहर आ सकते हैं और न किसी को भेज सकते हैं, हम लोगों का आदमी हर समय तिलिस्म के अन्दर मौजूद रहता है और उनके हालचाल की खबर लिया करता है इसलिए उसके मारफत पत्र भेज सकते हैं।

इतना सुनकर वीरेन्द्रसिंह चुप हो रहे और लिफाफा खोलकर पढ़ने लगे। प्रणाम इत्यादि के बाद यह लिखा था –

”हम दोनों भाई कुशलपूर्वक तिलिस्म की कार्रवाई कर रहे हैं परन्तु कोई ऐयार या मददगार न रहने के कारण कभी-कभी तकलीफ हो जाती है इसलिए आशा है कि भैरोसिंह और तारासिंह को शीघ्र भेज देंगे। यहां तिलिस्म में ईश्वर ने हमें दो मददगार बहुत अच्छे पहुंचा दिये हैं जिनका नाम रामसिंह और लक्ष्मणसिंह है। ये दोनों मायारानी के तिलिस्मी दारोगा इत्यादि के भेदों से खूब वाफिक हैं। यदि इन लोगों के सामने दुष्टों के मुकद्दमे का फैसला करेंगे तो आशा है कि देखने-सुनने वालों को एक अपूर्व आनन्द मिलेगा। इन्हीं दोनों की जुबानी हम दोनों भाइयों का हाल पूरा-पूरा मिला करेगा और ये ही दोनों भैरोसिंह और तारासिंह को भी हम लोगों के पास पहुंचा देंगे। भाई गोपालसिंह से कह दीजियेगा कि उनके दोस्त भरतसिंहजी भी इस तिलिस्म में मुझे मिले हैं। उन्हें कम्बख्त दारोगा ने कैद किया था, ईश्वर की कृपा से उनकी जान बच गई। भाई गोपालसिंहजी मुझसे बिदा होते समय तालाब वाले नहर के विषय में गुप्त रीति से जो कुछ कह गये थे वह ठीक निकला, चांद वाला पताका भी हम लोगों को मिल गया।

आपके आज्ञाकारी पुत्र – इन्द्रजीत, आनन्दसिंह।”

इस चीठी को पढ़कर वीरेन्द्रसिंह बहुत ही प्रसन्न हुए मगर साथ ही इसके उन्हें ताज्जुब भी हद से ज्यादे हुआ। इन्द्रजीतसिंह के हाथ के अक्षर पहिचानने में किसी तरह की भूल नहीं हो सकती थी, तथापि शक मिटाने के लिए वीरेन्द्रसिंह ने वह चीठी राजा गोपालसिंह के हाथ में दे दी क्योंकि उनके विषय में भी दो-एक गुप्त बातों का ऐसा इशारा था जिसके पढ़ने से इस बात का रत्ती-भर भी शक नहीं हो सकता था कि चीठी कुमार के हाथ की लिखी हुई नहीं है या ये नकाबपोश जाल करते हैं।

चीठी पढ़ने के साथ ही राजा गोपालसिंह हद से ज्यादे खुश होकर चौंक पड़े और राजा वीरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर बोले, ”निःसन्देह यह पत्र इन्द्रजीतसिंह के हाथ का लिखा हुआ है। बिदा होते समय जो गुप्त बातें मैं उनसे कह आया था इस चीठी में उनका जिक्र एक अपूर्व आनन्द दे रहा है, तिस पर अपने मित्र भरतसिंह के पा जाने का हाल पढ़कर मुझे जो प्रसन्नता हुई उसे मैं शब्दों द्वारा प्रकट नहीं कर सकता। (नकाबपोशों की तरफ देखके) अब मालूम हुआ कि आप लोगों के नाम रामसिंह और लक्ष्मणसिंह हैं। जरूर आप लोग बहुत-सी बातों को छिपा रहे हैं परन्तु जिस समय भेदों को खोलेंगे उस समय निःसन्देह एक अद्भुत आनन्द मिलेगा।

इतना कहकर राजा गोपालसिंह ने वह चीठी तेजसिंह के हाथ में दे दी और इन्होंने पढ़कर देवीसिंह को और देवीसिंह ने पढ़कर और ऐयारों को भी दिखाई जिसके सबब से इस समय सभों ही के चेहरे पर प्रसन्नता दिखाई देने लगी। इसी समय तारासिंह भी वहां पहुंचा।

नकाबपोश ने जो कुछ कहा था वही हुआ अर्थात् थोड़ी देर में तारासिंह ने भी वहां पहुंचकर सभों के दिल से खुटका दूर किया, मगर हमारे राजा साहब और ऐयारों को इस बात का ताज्जुब जरूर था कि नकाबपोश को तारासिंह का हाल क्योंकर मालूम हुआ और उसने किस जानकारी पर कहा कि वह घण्टे-भर के अन्दर आ जायगा। खैर इस समय तारासिंह के आ जाने से सभों को प्रसन्नता ही हुई और देवीसिंह को भी उस तस्वीर के विषय में कुछ खुलासा हाल पूछने का मौका मिला, मगर नकाबपोशों के सामने उस विषय में बातचीत करना उचित न जाना।

नकाबपोश – (वीरेन्द्रसिंह से) देखिए तारासिंह आ गये, जो मैंने कहा था वही हुआ। अब इन दोनों के विषय में क्या हुक्म होता है क्या आज ये दोनों ऐयार कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के पास जाने के लिए तैयार हो सकते हैं?

तेज – हां तैयार हो सकते हैं और आप लोगों के साथ जा सकते हैं मगर दो-एक जरूरी कामों की तरफ ध्यान देने से यही उचित जान पड़ता है कि आज नहीं बल्कि कल इन दोनों भाइयों को आपके साथ बिदा किया जाय।

नकाब – जैसी मर्जी, अब आज्ञा हो तो हम लोग बिदा हों।

तेज – क्या आज इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का किस्सा आप न सुनावेंगे?

नकाब – देर तो हो गई मगर फिर भी कुछ थोड़ा-सा हाल सुनाने के लिए हम लोग तैयार हैं, आप दरियाफ्त करायें यदि बड़े महाराज निश्चिन्त हों तो…।

इशारा पाते ही भैरोसिंह बड़े महाराज अर्थात् महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास चले गये और थोड़ी देर में लौट आकर बोले, ”महाराज आप लोगों का इन्तजार कर रहे हैं।”

इतना सुनते ही वीरेन्द्रसिंह के साथ ही साथ सब कोई उठ खड़े हुए और बात की बात में यह दरबारे-खास महाराज सुरेन्द्रसिंह का दरबारे-खास हो गया।

बयान – 9

महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह तथा उनके ऐयारों के सामने एक नकाबपोश ने दोनों कुमारों का हाल इस तरह बयान करना शुरू किया –

नकाब – कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने भी उन पांचों कैदियों के साथ रात को उसी बाग में गुजारा किया। सबेरा होने पर मामूली कामों से छुट्टी पाकर दोनों भाई उसी बीच वाले बुर्ज के पास गये और चबूतरे वाले पत्थरों को गौर से देखने लगे। उन पत्थरों में कहीं-कहीं अंक और अक्षर भी खुदे हुए थे, उन्हीं अंकों को देखते-देखते इन्द्रजीतसिंह ने एक चौखूटे पत्थर पर हाथ रक्खा और आनन्दसिंह की तरफ देखकर कहा, ”बस इसी पत्थर को उखाड़ना चाहिए।” इसके जवाब में आनन्दसिंह ने ”जी हां” कहा और तिलिस्मी खंजर की नोक से टुकड़े को उखाड़ डाला।

पत्थर के नीचे एक छोटा-सा चौखूटा कुण्ड बना हुआ था और उस कुण्ड के बीचोंबीच में लोहे की एक गोल कड़ी लगी थी जिसे कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने खींचना शुरू किया। उस कड़ी के साथ लोहे की पचीस-तीस हाथ लम्बी जंजीर लगी हुई थी जो बराबर खिंचती हुई चली आई और जब वह रुक गई अर्थात् अपनी हद तक खिंचकर बाहर निकल आई तब उस चबूतरे के चारों तरफ का निचला पत्थर आप से आप उखड़कर जमीन के साथ लग गया और उसके अन्दर जाने के लिए दो रास्ते दिखाई देने लगे। इनमें से एक रास्ता नीचे तहखाने में उतर जाने के लिए था और दूसरा बुर्ज के ऊपर चढ़ने के लिए।

दोनों कुमार पहिले बुर्ज के ऊपर चढ़ गये और वहां से चारों तरफ की बहार देखने लगे। खास बाग के कुछ हिस्से और उनके कई तरफ की मजबूत दीवारें तथा कुछ इमारत और पेड़-पत्ते इत्यादि दिखाई दे रहे थे। उन सभों को गौर से देखने के बाद कुमार नीचे उतर आये और उन पांचों कैदियों को यह कहकर कि तुम लोग इसी बाग में रहो, खबरदार ‘नीचे न उतरना’ दोनों भाई तहखाने में उतर गए।

नीचे उतरने के लिए चक्करदार ग्यारह सीढ़ियां थीं जिन्हें तै करने के बाद वे दोनों एक लम्बे-चौड़े कमरे में पहुंचे। वहां बिल्कुल अन्धकार था, मगर तिलिस्मी खंजर की रोशनी करने पर वहां की सब चीजें साफ दिखाई देने लगीं। वह कमरा लम्बाई में बीस हाथ और चौड़ाई में पन्द्रह हाथ से ज्यादे न होगा। उसके बीचों-बीच में लोहे का एक चबूतरा था और उसके ऊपर लोहे ही का एक शेर बैठा हुआ था जिसकी चमकदार आंखें उसके भयानक चेहरे के साथ ही साथ देखने वालों के दिल पर खौफ पैदा कर सकती थीं। उसके सामने जमीन पर लोहे का एक हथौड़ा पड़ा हुआ था। बस इसके अतिरिक्त उस कमरे में और कुछ भी न था। कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने उस शेर के सिर को अच्छी तरह टटोलना शुरू किया।

उस शेर के दाहिने कान की तरफ केवल एक अंगुली जाने लायक छोटा-सा गड़हा था। कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने अपनी जेब में से एक चमकदार चीज निकालकर उस गड़हे में फंसाने के बाद शेर के सामने वाला हथौड़ा जमीन से उठाकर उसी से वह चमकदार चीज (कील) एक ही चोट में ठोंक दी और इसके बाद तुरत ही दोनों भाई उस तहखाने के बाहर निकल आये।

वह चमकदार चीज जो शेर के सिर में ठोंकी गई थी क्या थी, इसे आप लोग जानते होंगे। यह वही चमकदार चीज थी जो कुंअर इन्द्रजीतसिंह को बाग के उस तहखाने में एक पुतले के पेट में से मिली थी जिसमें वे कुंअर आनन्दसिंह को खोजते हुए गये थे।

जब दोनों कुमार तहखाने के बाहर निकल आये, उसके थोड़ी ही देर बाद जमीन के अन्दर से धमधमाहट और धड़धड़ाहट की आवाज आने लगी जिससे वे पांचों कैदी बहुत ही ताज्जुब और घबड़ाहट में आ गये। मगर कुमार ने उन्हें समझाकर शान्त किया और कुछ खाने-पीने की फिक्र में लगे। पहर भर बाद वह आवाज बन्द हुई और तब तक कुमार भी हर तरह से निश्चिन्त हो गये। दो पहर दिन ढलने के बाद पांचों कैदियों को साथ लिये हुए दोनों कुमार पुनः तहखाने के अन्दर उतरे। जब उस कमरे में पहुंचे तो वहां शेर और चबूतरे का नाम-निशान भी न पाया, हां उसके बदले में उस जगह एक गड़हा देखा जिसमें उतरने के लिए छः-सात सीढ़ियां बनी हुई थीं। कैदियों को भी साथ लिए और तिलिस्मी खंजर की रोशनी किए हुए दोनों कुमार इस सुरंग में घुसे और लगभग पचास कदम जाने के बाद पुनः एक कमरे में पहुंचे। यह कमरा भी पहिले ही कमरे के बराबर था और इसके सामने की दीवार में पुनः आगे जाने के लिए एक सुरंग का मुहाना नजर आ रहा था अर्थात् इस कमरे को लांघकर पुनः आगे बढ़ जाने के लिए भी सामने की तरफ सुरंग दिखाई दे रही थी।

यह कमरा पहिले की तरह खाली या सुनसान न था। इसमें तरह-तरह की बेशकीमत चीजों तथा हर्बे, जवाहिरात और अशर्फियों के भी जगह-जगह ढेर लगे हुए थे जिन्हें देखकर उन पांचों कैदियों में से एक ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह से पूछा, ”यह इतनी बड़ी रकम यहां किसके लिए रक्खी हुई है?’

इन्द्र – यह सब दौलत हमारे लिए रक्खी हुई है, केवल इतनी ही नहीं बल्कि इसी तरह और भी कई जगह इससे भी बढ़के अच्छी-अच्छी और कीमती चीजें दिखाई देंगी।

कैदी – इन चीजों को आप क्योंकर बाहर निकालेंगे?

इन्द्र – जब हम लोग तिलिस्म तोड़ते हुए चुनारगढ़ पहुंचेंगे तब ये सब चीजें निकलवा ली जायंगी।

कैदी – तब तक इसी तरह ज्यों-की-त्यों पड़ी रहेंगी?

इन्द्र – हां।

इस कमरे में चारों तरफ की दीवारों के साथ तरह-तरह के बेशकीमत हर्बे लटक रहे थे जिन पर इस खयाल से कि जंग इत्यादि लगकर खराब न हो जायं, एक किस्म का मोमी रोगन लगा हुआ था। नीचे दो सन्दूक जड़ाऊ जेवरों से भरे हुए थे जिनमें ताले लगे हुए न थे। इसके अतिरिक्त सोने के बहुत-से जड़ाऊ खुशनुमा और नाजुक बर्तन भी दिखाई दे रहे थे।

इन चीजों को देख-भालकर कुमार आगे बढ़े और सुरंग के दूसरे मुहाने में घुसकर दूर तक चले गए। अबकी दफे का सफर सीधा न था बल्कि घूम-घुमौवा था। लगभग दो या डेढ़ कोस जाने के बाद पुनः एक कमरे में पहुंचे। पहिले कमरे की तरह इसमें भी आमने-सामने दोनों तरफ सुरंग बनी हुई थी।

इस कमरे में सोने-चांदी या जवाहिरात की कोई चीज न थी, हां दीवारों पर बड़ी-बड़ी तस्वीरें लटक रही थीं जो एक किस्म के रोगनी कपड़े पर जिस पर सर्दी-गर्मी का असर नहीं पहुंच सकता था, बनी हुई थीं। इन तस्वीरों में रोहतासगढ़ और चुनार की तस्वीरें ज्यादे थीं और तरह-तरह के नक्शे भी जगह-जगह लटक रहे थे जिन्हें बड़े गौर से दोनों कुमार देर तक देखते रहे।

इस कमरे की कैफियत को देखके इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, ”मालूम होता है, ‘ब्रह्म-मण्डल’ यही है, इसी जगह हम लोगों को बराबर आना पड़ेगा, तथा चुनारगढ़ के तिलिस्म की चाभी भी इसी जगह से हमें मिलेगी।”

आनन्द – बेशक यही बात है, इस जगह के ‘ब्रह्म-मण्डल’ होने में कुछ भी सन्देह नहीं हो सकता।

इन्द्र – फिर अब तुम्हारी क्या राय है इस समय यहां कुछ काम किया जाय या नहीं क्योंकि इस काम को हम लोग अपनी इन्छानुसार कर सकते हैं।

आनन्द – मेरी राय में तो इस समय यहां कोई काम न करना चाहिए क्योंकि (कैदियों की तरफ इशारा करके) इन लोगों को तकलीफ होगी, पहिले इन लोगों को तिलिस्म के बाहर कर देना उचित होगा, फिर हम लोग यहां आकर अपना काम किया करेंगे।

इन्द्र – मैं भी यही उचित समझता हूं, इसके अतिरिक्त हम लोगों को यहां कई दफे आने की जरूरत पड़ेगी अस्तु इस समय अगर यहां अटककर कोई काम करेंगे तो बाहर निकलने में बहुत देर हो जायगी और हम भी परेशान और दुखी हो जायेंगे।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह आगे की तरफ बढ़े और सभों को लिए सामने वाली सुरंग में घुसे। अबकी दफे दोनों कुमारों और कैदियों को बहुत ज्यादे चलना पड़ा और साथ ही इसके भूख-प्यास की भी तकलीफ उठानी पड़ी। कई कोस का सफर करने के बाद जब वे लोग सुरंग के बाहर निकले तो सुबह की सफेदी आसमान पर फैल चुकी थी इसलिए दोनों कुमारों ने अन्दाज से समझा कि अबकी दफे हम लोग चौदह या पन्द्रह घण्टे तक बराबर चलते रहे और जमानिया को बहुत दूर छोड़ आये।

सुरंग के बाहर निकलकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने जिस सरजमीन में अपने को पाया वह एक बहुत ही दिलचस्प और सुहावनी घाटी थी। चारों तरफ कम ऊंची सुन्दर और हरी-भरी पहाड़ियों के बीच में सरसब्ज मैदान था जिसके बीच में बरसाती पानी से बचने के लिए एक स्थान भी बना हुआ था। इस सरजमीन को इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने बहुत ही पसन्द किया और इन्द्रजीतसिंह ने उन कैदियों की तरफ देखकर कहा, ”अब तुम लोग अपने को आजाद और तिलिस्मी कैदखाने से बाहर निकला हुआ समझो, थोड़ी देर में हम लोग तुम्हें इस घाटी से बाहर पहुंचा देंगे फिर जहां तुम लोगों की इच्छा हो चले जाना।”

इसके जवाब में इन कैदियों ने हाथ जोड़कर कहा – ”अब हम लोग इन चरणों को छोड़ नहीं सकते! यद्यपि अपने दुश्मनों से बदला लेने के लिए हम लोग बेताब हो रहे हैं परन्तु हमारी यह अभिलाषा भी आपकी कृपा के बिना पूरी नहीं हो सकती अस्तु हम लोग आपके साथ ही साथ राजा वीरेन्द्रसिंह के दरबार में चलने की इच्छा रखते हैं।”

दोनों कुमारों ने उनकी प्रार्थना मंजूर कर ली और इसके बाद जो कुछ अनूठी कार्रवाई उन लोगों ने की, दूसरे दिन बयान करूंगा।

इतना कहकर नकाबपोश चुप हो गया और अपने घर जाने की इच्छा से राजा साहब का मुंह देखने लगा। यद्यपि महाराज इसके आगे भी इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल सुना चाहते थे परन्तु इस समय नकाबपोशों को छुट्टी दे देना ही उचित जानकर घर जाने की इजाजत दे दी और दरबार बर्खास्त किया।

बयान – 10

अब देखना चाहिए कि देवीसिंह का साथ छोड़के भूतनाथ ने क्या किया। भूतनाथ भी वास्तव में एक विचित्र ऐयार है। जिस तरह वह अपने फन में बड़ा ही तेज और होशियार है और जिस काम के पीछे पड़ जाता है उसे कुछ-न-कुछ सीधा किये बिना नहीं रहता, उसी तरह वह निडर भी परले सिरे का कहा जा सकता है। यद्यपि आजकल उसे इस बात की धुन चढ़ी हुई है कि उसके दो-एक पुराने ऐब जिनके सबब से उसकी ऐयारी में धब्बा लगता है छिपे रह जायं और वह किसी-न-किसी तरह राजा वीरेन्द्रसिंह का ऐयार बन जाय मगर फिर भी ऐयारी के समय अपना काम निकालने की धुन में वह जान तक की परवाह नहीं करता। इस मौके पर भी उसने नकाबपोशों का पीछा करके जो कुछ किया उसके विषय में भी यही कहने की इच्छा होती है कि उसने अपनी जान को हथेली पर लेकर वह काम किया जिसका हाल अब हम लिखते हैं।

संध्या होने में अभी घण्टे-भर की देर है। उसी खोह के मुहाने पर जिसके अन्दर नकाबपोशों का मकान है या जिसमें भूतनाथ और देवीसिंह नकाबपोशों का पता लगाते हुए गए थे हम दो नकाबपोशों को ढाल-तलवार लगाये हाथ में हाथ दिए टहलते हुए देखते हैं। इन दोनों नकाबपोशों की पोशाक और नकाब साधारण थी और हाथ-पैर से भी ये दोनों दुबले-पतले और कमजोर मालूम पड़ते थे। हम नहीं कह सकते कि यह दोनों यहां कितनी देर से और किस फिक्र में घूम रहे हैं तथा आपस में किस ढंग की बातें कर रहे हैं, हां इनके हाव-भाव से इस बात का पता जरूर लगता है कि ये दोनों किसी के आने का इन्तजार कर रहे हैं। ऐसे ही समय में अचानक एक आदमी इनके पास आकर खड़ा हो गया जो सूरत-शक्ल आदि से बिल्कुल उजड्ड और देहाती मालूम पड़ता था तथा जिसके हाथ-पैर तथा चेहरे पर गर्द रहने से यह भी जान पड़ता था कि यह कुछ दूर से सफर करता हुआ आ रहा है।

दोनों नकाबपोशों ने उसकी सूरत गौर से देखी और एक ने पूछा, ”तू कौन है और क्या चाहता है?’

उस देहाती ने नकाबपोश की बात का कुछ जवाब न दिया और इशारे से बताया कि यहां से थोड़ी दूर पर कोई किसी को मार रहा है।

पुनः एक नकाबपोश ने पूछा, ”क्या तू गूंगा है?’

इसका भी उसने कुछ जवाब न देकर फिर पहिले की तरह इशारे से कुछ समझाया और अपने साथ आने के लिए कहा।

दोनों नकाबपोशों को विश्वास हो गया कि यह गूंगा-बहरा और साथ ही इसके उजड्ड तथा बेवकूफ भी है। अस्तु एक नकाबपोश ने अपने साथी से कहा, ”इसके साथ चलकर देखो तो सही क्या कहता है।”

दोनों नकाबपोश उसके साथ चलने के लिए तैयार हो गये और वह भी यह इशारा करके कि तुम्हें थोड़ी ही दूर चलना पड़ेगा उन्हें अपने साथ लिये हुए पूरब की तरफ रवाना हुआ।

थोड़ी दूर जाने के बाद उस देहाती ने जमीन पर गिरे कई रुपये और दो-तीन जनाने जेवर नकाबपोशों को दिखाये जिससे इन्हें ताज्जुब हुआ और उन्होंने उस देहाती को जेवर और रुपये उठा लेने के लिए कहा मगर उस देहाती ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और आगे चलने के लिए इशारा किया।

दोनों नकाबपोश भी जेवरों और रुपयों को उसी तरह छोड़ उस देहाती के पीछे-पीछे चलकर और आगे बढ़े तथा कुछ दूर चलने पर पुनः दो-तीन जेवर और एक कटा हुआ हाथ जमीन पर देखा। ताज्जुब में आकर एक नकाबपोश ने दूसरे से कहा, ”यह क्या मामला है हमारे पड़ोस ही में कोई बुरी घटना भई हुई जान पड़ती है!”

दूसरा – रंग तो ऐसा ही मालूम पड़ता है!

पहिला – यह हाथ भी किसी औरत का जान पड़ता है, शायद ये जेवर भी उसी के हों!

दूसरा – बेशक ये जेवर उसी के होंगे, इस बात का पता लगाने के लिए अपने सरदार को इत्तिला देनी चाहिए।

ये बातें हो ही रही थीं कि आगे से किसी औरत के रोने की आवाज इन दोनों नकाबपोशों ने सुनी जिससे ताज्जुब में आकर ये आगे की तरफ बढ़े।

इसी तरह चलकर वे दोनों अपने स्थान से दूर निकल गये और अन्त में एक औरत को जोर-जोर से रोते और चिल्लाते देखा। यह औरत साधारण न थी बल्कि किसी अमीर घर की मालूम पड़ती थी। इसके बदन में खुशबूदार फूलों के जेवर पड़े हुए थे और यह दोनों हाथ से अपना सिर पीटके रो रही थी। इसके सामने एक दूसरी औरत की लाश पड़ी हुई थी और उसके बदन में भी खुशबूदार फूलों के जेवर पड़े हुए थे। उस लाश के बदन से खून बह रहा था और उसका एक हाथ कटा हुआ था।

थोड़ी देर तक ताज्जुब के साथ देखने के बाद एक नकाबपोश ने उस औरत से पूछा, ”इसे किसने मारा और यह तेरी कौन है’ इसके जवाब में उस औरत ने अपने आंचल से आंसू पोंछकर कहा, ”मैं क्या बताऊं कि किसने मारा! तुम्हारे किसी साथी ने मारा है, अब तुम मुझे भी मारकर छुट्टी करो जिससे बखेड़ा ही तै हो जाय।”

एक नकाब – (ताज्जुब और क्रोध के साथ) क्या हम लोग ऐसे नामर्द और पतित हैं जो औरतों के खून से अपना हाथ रंगेंगे?

औरत – मैं तो यही सोचती हूं, जब खुद मुझी पर बीत चुकी और बीत रही है तब मैं और क्या कहूं शायद आप न हों मगर आप ही की तरह पर्दे में मुंह छिपाने वालों ने इसे मारा है। चाहे वह मर्द हो या औरत मगर याद रहे कि इसका बदला लिए बिना न रहूंगी या इसके साथ अपनी भी जान दे दूंगी।

नकाबपोश – मगर यह तू कह क्या रही है और तुझे क्योंकर यकीन हो गया कि इसे हमारे साथियों ने मारा है?

औरत – तुम्हीं लोगों से कह रही हूं और मुझे यह अच्छी तरह यकीन है कि इसे तुम्हारे साथियों ने मारा है!

नकाबपोश – (क्रोध से) क्या कहूं तू औरत है, तुझ पर हाथ छोड़ नहीं सकता, अगर कोई मर्द ऐसी बातें करता तो उसे इस कहने का मजा चखा देता!

औरत – शायद मुझे धोखा हुआ हो मगर इसमें कोई शक नहीं कि जिसने इसे मारा है वह तुम्हारी तरह का था।

नकाबपोश – तू अपना और इसका हाल तो कह, शायद उससे कुछ पता लगे।

औरत – मैं इस जगह कुछ भी नहीं कहने की, अगर तुम उन लोगों में से नहीं हो जिन्होंने मुझे सताया है और असल मर्द हो तो मुझे अपने सरदार के पास ले चलो, उसी जगह मैं सब हाल कहूंगी।

नकाब – हमारे सरदार के पास तू नहीं जा सकती।

औरत – तो अब मुझे विश्वास हो गया जो कुछ किया है सब तुम लोगों ने किया है।

इसी तरह की बातें देर तक होती रहीं, यद्यपि वे दोनों नकाबपोश उस औरत को अपने सरदार के पास ले चलना यों उसे अपना पता देना नहीं चाहते थे मगर उस औरत ने ऐसी तीखी-तीखी बातें कहीं कि वे दोनों जोश में आ गये और उसे तथा लाश को उठाकर अपने खोह के मुहाने पर चलने के लिए तैयार हो गये। उन्होंने लाश उठाकर ले चलने में मदद करने के लिए उस गूंगे देहाती को इशारे में कहा मगर उसने ऐसा करने से साफ इनकार किया बल्कि जब उन दोनों नकाबपोशों ने उसे डांटा तब वह डरकर वहां से भागा और कुछ दूर पर जाकर खड़ा हो गया।

फिर उन दोनों नकाबपोशों ने उस गूंगे से कुछ कहना उचित न जाना और जोश में आकर खुद लाश को उठाकर ले चलने के लिए तैयार हो गये। क्योंकि उन्हें इस बात का पूरा विश्वास था कि इस औरत की जुबानी जरूर कोई अनूठी बात सुनने में आयेगी।

हम ऊपर बयान कर चुके हैं कि उस औरत की लाश भी फूलों के गहनों से भरी हुई थी, अब इतना और कह देना है कि उन फूलों पर बेहोशी की दवा इस ढंग पर छिड़की हुई थी कि कुछ मालूम नहीं होता था और खुशबू के साथ उस दवा का गुण भी धीरे-धीरे फैल रहा था। यद्यपि फूलों की फैलने वाली खुशबू के सबब नकाबपोशों पर उसका कुछ असर हो चुका था मगर उन्हें इस बात का खयाल कुछ भी न था।

जब उन दोनों ने उस लाश को उठा लिया और फूलों की खुशबू को तेजी के साथ दिमाग में घुसने का मौका मिला तब उन दोनों नकाबपोशों ने समझा कि हमारे साथ ऐयारी की गई है। मगर अब कर ही क्या सकते हैं तुरत सिर में चक्कर आने लगा जिसके सबब से वे दोनों बैठ गये और साथ ही इसके बेहोश होकर जमीन पर लम्बे हो गये। उस समय औरत की लाश भी चैतन्य हो गई और वह देहाती गूंगा भी उनकी खोपड़ी पर आ मौजूद हुआ। उस औरत ने देहाती गूंगे से कहा, ”अब क्या करना चाहिए।”

देहाती – बस अब हमारा काम हो गया, अब इन्हें मालूम हो जायगा कि भूतनाथ कोई साधारण ऐयार नहीं।

औरत – मगर अब भी आपको इस बात के सोचने का मौका है कि नकाबपोश लोग आपसे रंज न हो जायं और इस बखेड़े का नतीजा बुरा न निकले।

देहाती – इन बातों को मैं खूब सोच चुका हूं। उन दोनों नकाबपोशों को जो हमारे राजा साहब के दरबार में जाया करते हैं मैं रंज होने का मौका ही न दूंगा और इन दोनों में से भी केवल एक ही को उठा ले जाऊंगा और उसी से अपना काम निकालूंगा।

इतना कह उस देहाती ने दोनों नकाबपोशों के चेहरे पर से नकाब उल्ट दी मगर असली सूरत पर निगाह पड़ते ही चौंकके उस औरत की तरफ देखकर कहा, ”ओफ ओह, ये सूरतें तो वे ही हैं जिन्होंने दरबारे-आम में दारोगा और जैपाल को बदहवास कर दिया था। पहिले दिन जब नकाबपोश ने अपने चेहरे पर से नकाब हटाई थी तो दारोगा के सिर में चक्कर आ गया था।1 और दूसरे दिन जब दूसरे नकाबपोश ने सूरत दिखाई तो जैपाल की जान शरीर से निकलने की तैयारी करने लगी थी। 

इसी बीच में वह औरत भी उठकर हर तरह से दुरुस्त हो गई थी जिसे थोड़ी देर पहिले दोनों नकाबपोश मुर्दा समझकर उठा ले चले थे, असल में उसका हाथ कटा हुआ न था, असली हाथ कपड़े के अन्दर छिपा हुआ था और एक बनावटी कटा हुआ हाथ लगाकर दिखा दिया गया था।

ऊपर की बातचीत से हमारे पाठक समझ गये होंगे कि ये देहाती महाशय असल में भूतनाथ हैं और दोनों औरतें उसके नौजवान शागिर्द तथा मर्द हैं।

भूतनाथ की आखिरी बात सुनकर उसके एक शागिर्द ने जो औरत की सूरत में था कहा, ”क्या ये ही दोनों हमारे महाराज के दरबार में जाया करते हैं?’

भूत – दरबार में जब नकाबपोशों ने सूरत दिखाई थी तब दो दफे इन्हीं दोनों की सूरतें देखने में आई थीं, मगर मैं नहीं कह सकता कि वहां जाने वाले दोनों नकाबपोश यही हैं। मेरा दिल तो यही गवाही देता है कि दोनों नकाबपोश कोई दूसरे हैं और जब दरबार में जाते हैं तो केवल नकाब ही डालकर नहीं बल्कि अपनी सूरतें भी बदलकर जाते हैं और उस दिन इन्हीं की सूरत बनाकर गये थे।

शागिर्द – बेशक ऐसा ही है।

भूत – खैर अब मैं इन दोनों में से एक को छोड़ न जाऊंगा जैसाकि पहिले इरादा कर चुका था बल्कि दोनों ही को उठाकर ले जाऊंगा और असली भेद मालूम करके ही छोडूंगा।

इतना कहके भूतनाथ ने ऐयारी ढंग पर उन दोनों नकाबपोशों की गठरी बांधी और तीनों आदमी मिल-जुलकर उन्हें उठा ले गये।

बयान – 11

नकाबपोशों के चले जाने के बाद जब केवल घर वाले ही वहां रह गये तब राजा वीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता से तारासिंह की बाबत जो कुछ हाल हम ऊपर लिख आये हैं कुछ घटा-बढ़ाकर बयान किया और इसके बाद कहा, ”तारासिंह नकाबपोशों के सामने ही लौटकर आ गया था जिससे अभी तक यह पूछने का मौका न मिला कि वह कहां गया था और वह तस्वीर उसे कहां से मिली थी जो उसने अपनी मां को दी थी।”

इतना कहकर वीरेन्द्रसिंह चुप हो गये और देवीसिंह ने वह कपड़े वाली तस्वीर (जो चम्पा ने दी थी) महाराज सुरेन्द्रसिंह के सामने रख दी। सुरेन्द्रसिंह ने बड़े गौर से उस तस्वीर को देखा और इसके बाद तारासिंह से पूछा –

सुरेन्द्र – निःसन्देह यह तस्वीर किसी अच्छे कारीगर के हाथ की बनी हुई है, यह तुम्हें कहां से मिली?

तारा – मैं स्वयं इस तस्वीर का हाल अर्ज करने वाला था, परन्तु इसके सम्बन्ध की कई ऐसी बातों को जानना आवश्यक था जिनके बिना इसका पूरा भेद मालूम नहीं हो सकता, अतएव मैं उन्हीं बातों के जानने की फिक्र में पड़ा हुआ था और इसी सबब से अभी तक कुछ अर्ज करने की नौबत नहीं आई।

तेज – तो क्या तुम्हें इसका पूरा-पूरा भेद मालूम हो गया।

तारा – जी नहीं, मगर कुछ-कुछ जरूर मालूम हुआ है?

तेज – तो इस काम में तुमने अपने साथियों से मदद क्यों नहीं ली?

तारा – अभी तक मदद की जरूरत नहीं पड़ी थी, मगर, हां अब मदद लेनी पड़ेगी!

वीरेन्द्र – खैर, बताओ कि इस तस्वीर को तुमने क्योंकर पाया?

तारा – (इधर-उधर देखकर) भूतनाथ की स्त्री से।

तारासिंह की इस बात को सुनकर सब कोई चौंक पड़े खासकर देवीसिंह को तो बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उसने हैरत की निगाह से अपने लड़के तारासिंह की तरफ देखकर पूछा –

देवी – भूतनाथ की स्त्री तुम्हें कहां मिली?

तारा – उसी जंगल में जिसमें आपने और भूतनाथ ने उसे देखा था, बल्कि उसी झोंपड़ी में जिसमें भूतनाथ और आप उसके साथ गये थे और लाचार होकर लौट आये थे। आपको यह सुनकर ताज्जुब होगा कि वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री ही थी।

देवी – (आश्चर्य से) हैं, क्या वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री थी।

तारा – जी हां, आप और भूतनाथ नकाबपोशों के फेर में यद्यपि कई दिनों तक परेशान हुए परन्तु उतना हाल मालूम न कर सके जितना मैं जान आया हूं।

इस समय दरबार में आपस वालों के सिवाय कोई गैर आदमी ऐसा न था जिसके सामने इस तरह की बातों के कहने-सुनने में किसी तरह का खयाल होता अतएव बड़ी उत्कण्ठा के साथ सब कोई तारासिंह की बातें सुनने के लिए तैयार हो गये और देवीसिंह का तो कहना ही क्या जिनका दिल तूफान में पड़े हुए जहाज की तरह हिंडोले खा रहा था। उन्हें यकायक यह खयाल पैदा हुआ कि अगर वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री थी तो दूसरी औरत भी जरूर चम्पा ही रही होगी जिसे नकाबपोशों के मकान में देखा गया था। अस्तु बड़े ताज्जुब के साथ अपने लड़के तारासिंह से पूछा, ”क्या तुम बता सकते हो कि जिन दो औरतों को हमने नकाबपोशों के मकान में देखा था, वे कौन थीं’

तारा – उनमें से एक तो जरूर भूतनाथ की स्त्री थी मगर दूसरी के बारे में अभी तक कुछ पता नहीं लगा।

देवी – (कुछ सोचकर) दूसरी भी तुम्हारी मां होगी?

तारा – शायद ऐसा हो मगर विश्वास नहीं होता।

तेज – तुम्हें यह कैसे निश्चय हुआ कि वास्तव में वह भूतनाथ की स्त्री थी?

तारा – उसने स्वयं भूतनाथ की स्त्री होना स्वीकार किया बल्कि और भी बहुत-सी बातें ऐसी कहीं जिससे किसी तरह का शक नहीं रहा।

देवी – और तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि नकाबपोशों के घर जाकर हम लोगों ने किसे देखा या जंगल में भूतनाथ की स्त्री हम लोगों को मिली थी और हम लोग उसके पीछे-पीछे एक झोंपड़ी में जाकर सूखे हाथ लौट आये थे?

तारा – यह सब हाल मुझे बखूबी मालूम है और उस समय मैं भी उसी जंगल में था जिस समय आपने भूतनाथ की स्त्री को देखा था और उसके पीछे-पीछे गये थे। इस समय आप यह सुनकर और ताज्जुब करेंगे कि आपसे अलग होकर भूतनाथ ने उसी दिन अर्थात् कल संध्या के समय उन दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार कर लिया जिनकी सूरत यहां दरबार में देखकर दारोगा और जैपाल बदहवास हो गये थे।

वीरेन्द्र – (ताज्जुब से) हैं! मगर वे दोनों नकाबपोश तो आज भी यहां आये थे जिनका जिक्र तुम कर रहे हो।

तारा – जी हां, उन्हें तो मैं अपनी आंखों ही से देख चुका हूं, मगर मेरे कहने का मतलब यह है कि भूतनाथ ने कल जिन दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार किया है उनकी सूरतें ठीक वैसी ही हैं जैसी दारोगा और जैपाल ने यहां देखी थीं चाहे ये लोग हों कोई भी।

तेज – और भूतनाथ ने उन्हें गिरफ्तार कहां किया?

तारा – उसी खोह के मुहाने पर उसने उन्हें धोखा दिया जिसमें नकाबपोश लोग रहते थे।

देवी – मालूम होता है कि हम लोगों की तरह तुम भी कई दिनों से नकाबपोशों की खोज में पड़े हो?

तारा – खोज में नहीं बल्कि फेर में।

वीरेन्द्र – खैर तुम खुलासे तौर पर सब हाल बयान कर जाओ, इस तरह पूछने और कहने से काम नहीं चलेगा।

तारा – जो आज्ञा, मगर मेरा हाल कुछ बहुत लम्बा-चौड़ा नहीं, केवल इतना ही कहना है कि मैं भी पांच-सात दिन से उन नकाबपोशों के फेर में पड़ा हूं और इत्तिफाक से मैं भी उसी खोह के अन्दर जा पहुंचा जिसमें वे लोग रहते हैं। (कुछ सोचकर जीतसिंह की तरफ देखकर) अगर कोई हर्ज न हो तो दो घंटे के बाद मुझसे मेरा हाल पूछा जाय।

जीत – (महाराज की तरफ देखकर और कुछ इशारा पाकर) खैर कोई चिन्ता नहीं, मगर यह बताओ कि इन दो घण्टे के अन्दर तुम क्या काम करोगे?

तारा – कुछ भी नहीं, मैं केवल अपनी मां से मिलूंगा और स्नान-ध्यान से छुट्टी पा लूंगा।

देवी – (धीरे से) आजकल के लड़के भी कुछ विचित्र ही पैदा होते हैं, खास करके ऐयारों के।

इसके जवाब में तारासिंह ने अपने पिता की तरफ देखा और मुस्कुराकर सिर झुका लिया। यह बात देवीसिंह को कुछ बुरी मालूम हुई मगर बोलने का मौका न देखकर चुप रह गये।

तेज – (तारा से) आज जब हम लोग तुम्हारे न मिलने से परेशान थे तो हमारी परेशानी को देखकर नकाबपोशों ने कहा था कि तारासिंह के लिए आपको तरद्दुद न करना चाहिए, आशा है कि वह घंटे भर के अन्दर ही यहां आ पहुंचेगा, और वास्तव में हुआ भी ऐसा ही, तो क्या नकाबपोशों को तुम्हारा हाल मालूम था यह बात नकाबपोशों से भी पूछी गई थी मगर उन्होंने कुछ जवाब न दिया और कहा कि ‘इसका जवाब तारा ही देगा।’

तारा – नकाबपोशों की सभी बातें ताज्जुब की होती हैं, मैं नहीं जानता कि उन्हें मेरा हाल क्योंकर मालूम हुआ।

तेज – क्या तुम्हें इस बात की खबर है कि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने तुम्हें और भैरोसिंह को बुलाया है?

तारा – जी नहीं।

तेज – (कुमार की चीठी तारा को दिखाकर) लो इसे पढ़ो।

तारा – (चीठी पढ़कर) नकाबपोशों ही के हाथ यह चीठी आई होगी?

तेज – हां और उन्हीं नकाबपोशों के साथ तुम दोनों को जाना भी पड़ेगा?

तारा – जब मर्जी होगी हम दोनों चले जायंगे।

इसके बाद महाराज की आज्ञानुसार दरबार बर्खास्त हुआ और सब कोई अपने-अपने ठिकाने चले गये। तारासिंह भी महल में अपनी मां से मिलने के लिए चला गया और घंटे भर से ज्यादे देर तक उसके पास बैठा बातचीत करता रहा। इसके बाद जब महल से बाहर आया तो सीधे जीतसिंह के डेरे में चला गया और जब मालूम हुआ कि वे महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास गये हुए हैं तो खुद भी महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास चला गया।

हम नहीं कह सकते कि महाराज सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और तारासिंह में देर तक क्या-क्या बातें होती रहीं, हां इसका नतीजा यह जरूर निकला कि तारासिंह को पुनः अपना हाल किसी से कहना न पड़ा अर्थात् महाराज ने उसे अपना हाल बयान करने से माफी दे दी और तारासिंह को भी जो कुछ कहना-सुनना था महाराज से ही कह-सुनकर छुट्टी पा ली। औरों को तो इस बात का ऐसा खयाल न हुआ मगर देवीसिंह को यह चालाकी बुरी मालूम हुई और उन्हें निश्चय हो गया कि तारासिंह और चम्पा दोनों मां-बेटे मिले हुए हैं और साथ ही इसके बड़े महाराज भी इस भेद को जानते हैं मगर ताज्जुब है कि ऐयारों पर प्रकट नहीं करते, इसका कोई-न-कोई सबब जरूर है, और तब देवीसिंह की हिम्मत न पड़ी कि अपने लड़के को कुछ कहें या डांटें।

दो घण्टे रात जा चुकी थी जब महाराज सुरेन्द्रसिंह ने वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को अपने पास बुलाया। उस समय जीतसिंह पहिले ही से महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास बैठे हुए थे, अस्तु जब दोनों आदमी वहां आ गये तो दो घण्टे तक तारासिंह के बारे में बातचीत होती रही और इसके बाद महाराज आराम करने के लिए पलंग पर चले गये। वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह अपने-अपने कमरे में चले आये।

बयान – 12

दूसरे दिन अपने मालूमी समय पर पुनः दोनों नकाबपोशों के आने की इत्तिला मिली। उस समय जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह, राजा गोपालसिंह, बलभद्रसिंह, इन्द्रदेव और बद्रीनाथ वगैरह अपने यहां के ऐयार लोग भी महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास बैठे हुए थे और उन्हीं नकाबपोशों के बारे में तरह-तरह की बातें हो रही थीं। आज्ञानुसार दोनों नकाबपोश हाजिर किये गये और फिर इस तरह बातचीत होने लगी –

तेज – (नकाबपोशों की तरफ देखकर) तारासिंह की जुबानी सुनने में आया कि भूतनाथ ने आपके दो आदमियों को ऐयारी करके गिरफ्तार कर लिया है।

एक नकाब – जी हां, हम लोगों को भी इस बात की खबर लग चुकी है मगर कोई चिन्ता की बात नहीं है। गिरफ्तार होने और बेइज्जती उठाने पर भी वे दोनों भूतनाथ को किसी तरह की तकलीफ न देंगे और न भूतनाथ ही किसी तरह की तकलीफ उन्हें दे सकेगा। यद्यपि उस समय भूतनाथ ने उन दोनों को नहीं पहिचाना मगर जब उनका परिचय पायेगा और पहिचानेगा तो उसे बड़ा ही ताज्जुब होगा। जो हो मगर भूतनाथ को ऐसा करने की जरूरत न थी। ताज्जुब है कि ऐसे फजूल के कामों में भूतनाथ का जी क्योंकर लगता है। ऐयारी करके जिस समय भूतनाथ ने दोनों को गिरफ्तार किया था उस समय उन दोनों की सूरत देखने के साथ ही छोड़ देना चाहिए था क्योंकि एक दफे भूतनाथ इस दरबार में उन दोनों सूरतों को देख चुका था और जानता था कि आखिर इन दोनों का हाल मालूम होगा ही। अब दोनों को गिरफ्तार करके ले जाने से भूतनाथ की बेचैनी कम न होगी बल्कि और ज्यादे बढ़ जायगी।

तेज – हां, हम लोगों ने भी यही सुना था कि जिन सूरतों को देखकर मायारानी का दारोगा और जैपाल बदहवास हो गये थे उन्हीं दोनों को भूतनाथ ने गिरफ्तार किया है।

नकाब – जी हां, ऐसा ही है।

तेज – तो क्या वे दोनों स्वयं इस दरबार में आये थे या आप लोगों ने उन दोनों के जैसी सूरत बनाई थी?

नकाब – जी वे लोग स्वयं यहां नहीं आये थे बल्कि हम ही दोनों उन दोनों की तरह की सूरत बनाए हुए थे। दारोगा और जैपाल इस बात को समझ न सके।

तेज – असल में दोनों कौन हैं जिन्हें भूतनाथ ने गिरफ्तार किया है?

नकाब – (कुछ सोचकर) आज नहीं, अगर हो सकेगा तो दो-एक दिन में मैं आपको इस बात का जवाब दूंगा क्योंकि इस समय हम लोग ज्यादा देर तक यहां ठहरना नहीं चाहते। इसके अतिरिक्त सम्भव है कि कल तक भूतनाथ भी उन दोनों को लिये हुए यहीं आ जाय। अगर वह अकेला ही आवे तो हुक्म दीजियेगा कि उन दोनों को भी यहां ले आये। उस समय कम्बख्त दारोगा और जैपाल के सामने उन दोनों का हाल सुनने से आप लोगों को विशेष आनन्द मिलेगा। मैं भी… (कुछ रुककर) मौजूद ही रहूंगा, जो बात समझ में न आवेगी समझा दूंगा। (कुछ रुककर) हां, भैरोसिंह और तारासिंह के विषय में क्या आज्ञा होती है क्या आज वे दोनों हमारे साथ भेजे जायंगे क्योंकि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को उन दोनों के बिना सख्त तकलीफ है।

सुरेन्द्र – हां, भैरो और तारा तुम दोनों के साथ जाने के लिए तैयार हैं।

इतना कहकर महाराज ने भैरोसिंह और तारासिंह की तरफ देखा जो उसी दरबार में बैठे हुए नकाबपोशों की बातें सुन रहे थे। महाराज को अपनी तरफ देखते देख दोनों भाई उठ खड़े हुए और महाराज को सलाम करने के बाद दोनों नकाबपोशों के पास आकर बैठ गए।

नकाब (महाराज से) तो अब हम लोगों को आज्ञा मिलनी चाहिए।

सुरेन्द्र – क्या आज दोनों लड़कों का हाल हम लोगों को न सुनाओगे?

नकाब – (हाथ जोड़कर) जी नहीं, क्योंकि देर हो जाने से आज भैरोसिंह और तारासिंह को इन्द्रजीतसिंह के पास हम लोग पहुंचा न सकेंगे।

सुरेन्द्र – खैर क्या हर्ज है, कल तो तुम लोगों का आना होगा ही।

नकाब – अवश्य।

इतना कहकर दोनों नकाबपोश उठ खड़े हुए और सलाम करके बिदा हुए। भैरोसिंह और तारासिंह भी उनके साथ रवाना हुए।

बयान – 13

रात घण्टे भर से कुछ ज्यादे जा चुकी है। पहाड़ के एक सुनसान दर्रे में जहां किसी आदमी का जाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव जान पड़ता है, सात आदमी बैठे हुए किसी के आने का इन्तजार कर रहे हैं और उन लोगों के पास ही एक लालटेन जल रही है। यह स्थान चुनारगढ़ के तिलिस्मी मकान से लगभग छः-सात कोस की दूरी पर होगा। यह दो पहाड़ों के बीच वाला दर्रा बहुत बड़ा, पेचीला, ऊंचा-नीचा और ऐसा भयानक था कि साधारण मनुष्य एक सायत के लिए भी यहां खड़ा रहकर अपने उछलते और कांपते हुए कलेजे को सम्हाल नहीं सकता था। इस दर्रे में बहुत-सी गुफाएं ऐसी हैं जिनमें सैकड़ों आदमी आराम से रहकर दुनियादारी की आंखों से बल्कि वहम और गुमान से भी अपने को छिपा सकते हैं। और इसी से समझ लेना चाहिए कि यहां ठहरने या बैठने वाला आदमी साधारण नहीं बल्कि बड़े जीवट और कड़े दिल का होगा।

See also  निर्मला अध्याय 8

ये सातों आदमी जिन्हें हम बेफिक्री के साथ बैठे देखते हैं भूतनाथ के साथी हैं और उसी की आज्ञानुसार ऐसे स्थान में अपना घर बनाये पड़े हुए हैं। इस समय भूतनाथ यहां आने वाला है, अस्तु ये लोग भी उसी का इन्तजार कर रहे हैं।

इसी समय भूतनाथ भी उन दोनों नकाबपोशों को जिन्हें आज ही धोखा देकर गिरफ्तार किया था लिए हुए आ पहुंचा। भूतनाथ को देखते ही वे लोग उठ खड़े हुए और बेहोश नकाबपोशों की गठरी उतारने में सहायता दी।

दोनों बेहोश जमीन पर सुला दिये गए और इसके बाद भूतनाथ ने अपने एक साथी की तरफ देखकर कहा, ”थोड़ा पानी ले आओ, मैं इन दोनों के चेहरे धोकर देखना चाहता हूं।”

इतना सुनते ही एक आदमी दौड़ता हुआ चला गया और थोड़ी ही दूर पर एक गुफा के अन्दर घुसकर पानी का भरा हुआ लोटा लेकर चला आया। भूतनाथ ने बड़ी होशियारी से (जिसमें उनका कपड़ा भीगने न पावे) दोनों नकाबपोशों का चेहरा धोकर लालटेन की रोशनी में गौर से देखा मगर किसी तरह का फर्क न पाकर धीरे से कहा, ”इन लोगों का चेहरा रंगा हुआ नहीं है।”

इसके बाद भूतनाथ ने उन दोनों को लखलखा सुंघाया जिससे वे तुरत ही होश में आकर उठ बैठे और घबराहट के साथ चारों तरफ देखने लगे। लालटेन की रोशनी में भूतनाथ के चेहरे पर निगाह पड़ते ही उन दोनों ने भूतनाथ को पहिचान लिया और हंसकर उससे कहा, ”बहुत खासे! तो ये सब जाल आप ही के रचे हुए थे’

भूत – जी हां, मगर आप इस बात का खयाल भी अपने दिल में न लाइयेगा कि मैं आपको दुश्मनी की नीयत से पकड़ लाया हूं।

एक नकाबपोश – (हंसकर) नहीं-नहीं, यह बात हम लोगों के दिल में नहीं आ सकती और न तुम हमें किसी तरह का नुकसान पहुंचा ही सकते हो, मगर मैं यह पूछता हूं कि तुम्हें इस कार्रवाई के करने से फायदा क्या होगा?

भूत – आप लोगों से किसी तरह का फायदा उठाने की भी मेरी नीयत नहीं है। मैं तो केवल दो-चार बातों का जवाब पाकर ही अपनी दिलजमई कर लूंगा और इसके बाद आप लोगों को उसी ठिकाने पहुंचा दूंगा जहां से ले आया हूं।

नकाब – मगर तुम्हारा यह खयाल भी ठीक नहीं है क्योंकि तुम खुद समझ गये होगे कि हम लोग थोड़े ही दिनों के लिए अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए हैं और अपना भेद प्रकट होने नहीं देते। इसके बाद हम लोगों का भेद छिपा नहीं रहेगा, अस्तु इस बात को जानकर भी तुम्हें इतनी जल्दी क्यों पड़ी है और क्यों तुम्हारे पेट में चूहे कूद रहे हैं क्या तुम नहीं जानते कि स्वयं महाराज सुरेन्द्रसिंह और राजा वीरेन्द्रसिंह हम लोगों का भेद जानने के लिए बेताब हो रहे थे मगर कई बातों पर ध्यान देकर हम लोगों ने अपना भेद खोलने से इनकार कर दिया और कह दिया कि कुछ दिन सब्र कीजिए फिर आपसे आप हम लोग अपना भेद खोल देंगे।

नकाबपोश की कुरुखी मिली हुई बातें सुनकर यद्यपि भूतनाथ को क्रोध चढ़ आया मगर क्रोध करने का मौका न देख वह चुप रह गया और नरमी के साथ फिर बातचीत करने लगा।

भूत – आपका कहना ठीक है, मैं इस बात को खूब जानता हूं, मगर मैं उन भेदों को खुलवाना नहीं चाहता जिन्हें हमारे महाराज जानना चाहते हैं, मैं तो केवल दो-चार मामूली बातें आप लोगों से पूछना चाहता हूं जिनका उत्तर देने में न तो आप लोगों का भेद ही खुलता है और न आप लोगों का कोई हर्ज ही होगा। इसके अतिरिक्त मैं वादा करता हूं कि मेरी बातों का जो कुछ आप जवाब देंगे उसे मैं किसी दूसरे पर तब तक प्रकट न करूंगा जब तक आप लोग अपना भेद न खोलेंगे।

नकाब – (कुछ सोचकर) अच्छा पूछो क्या पूछते हो?

भूत – पहिली बात तो यह पूछता हूं कि देवीसिंह के साथ मैं आप लोगों के मकान में गया था, यह बात आपको मालूम है या नहीं?

नकाब – हां मालूम है।

भूत – खैर और दूसरी बात यह है कि यहां मैंने अपने लड़के हरनामसिंह को देखा, क्या वह वास्तव में हरनामसिंह ही था?

नकाब – (कुछ क्रोध की निगाह से भूतनाथ को देखकर) हां था तो सही, फिर?

भूत – (लापरवाही के साथ) कुछ नहीं, मैं केवल अपना शक मिटाना चाहता था। अच्छा अब तीसरी बात ये जानना चाहता हूं कि वहां देवीसिंह ने अपनी स्त्री को और मैंने अपनी स्त्री को देखा था, क्या वे दोनों वास्तव में हम दोनों की स्त्रियां थीं या कोई और?

नकाब – चम्पा के बारे में पूछने वाले तुम कौन हो हां, अपनी स्त्री के बारे में पूछ सकते हो, सो मैं साफ कह देता हूं कि वह बेशक तुम्हारी स्त्री ‘रामदेई’ थी।

यह जवाब सुनते ही भूतनाथ चौंका और उसके चेहरे पर क्रोध और ताज्जुब की निशानी दिखाई देने लगी। भूतनाथ को निश्चय था कि उसकी स्त्री का असली नाम ‘रामदेई’ किसी को मालूम नहीं है मगर इस समय एक अनजान आदमी के मुंह से उसका नाम सुनकर भूतनाथ को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और इस बात पर उसे क्रोध भी चढ़ आया कि मेरी स्त्री इन लोगों के पास क्यों आई, क्योंकि वह एक ऐसे स्थान पर थी जहां उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई जा नहीं सकता था, ऐसी अवस्था में निश्चय है कि वह अपनी खुशी से बाहर निकली और इन लोगों के पास आई। केवल इतना ही नहीं उसे इस बात के खयाल से और भी रंज हुआ कि मुलाकात होने पर भी उसकी स्त्री ने उससे अपने को छिपाया बल्कि एक तौर पर धोखा देकर बेवकूफ बनाया – आदि इसी तरह की बातों को परेशानी और रंज के साथ भूतनाथ सोचने लगा।

नकाब – अब जो कुछ पूछना था पूछ चुके या अभी कुछ बाकी है?

भूत – हां अभी कुछ और पूछना है।

नकाब – तो जल्दी से पूछते क्यों नहीं, सोचने क्या लग गये?

भूत – अब यह पूछना है कि मेरी स्त्री आप लोगों के पास कैसे आई और वह खुद आप लोगों के पास आई या उसके साथ जबर्दस्ती की गई?

नकाब – अब तुम दूसरी राह चले, इस बात का जवाब हम लोग नहीं दे सकते।

भूत – आखिर इसका जवाब देने में हर्ज ही क्या है?

नकाब – हो या न हो मगर हमारी खुशी भी तो कोई चीज है।

भूत – (क्रोध में आकर) ऐसी खुशी से काम नहीं चलेगा, आपको मेरी बातों का जवाब देना ही पड़ेगा।

नकाब – (हंसकर) मानो आप हम लोगों पर हुकूमत कर रहे हैं और जबर्दस्ती पूछ लेने का दावा रखते हैं?

भूत – क्यों नहीं, आखिर आप लोग इस समय मेरे कब्जे में हैं।

इतना सुनते ही नकाबपोश को भी क्रोध चढ़ आया और उसने तीखी आवाज में कहा, ”इस भरोसे न रहना कि हम लोग तुम्हारे कब्जे में हैं, अगर अब तक नहीं समझते थे तो अब समझ रक्खो कि उस आदमी का तुम कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते जो अपने हाथों से तुम्हारे छिपे हुए ऐबों की तस्वीर बनाने वाला है। हां-हां, बेशक तुमने वह तस्वीर भी हमारे मकान में देखी होगी अगर सचमुच अपने लड़के हरनामसिंह को उस दिन देख लिया है तो।”

यह एक ऐसी बात थी जिसने भूतनाथ के होशहवास दुरुस्त कर दिये। अब तक जिस जोश और दिमाग के साथ वह बैठा बातें कर रहा था वह बिल्कुल जाता रहा और घबराहट तथा परेशानी ने उसे अपना शिकार बना लिया। वह उठकर खड़ा हो गया और बेचैनी के साथ इधर-उधर टहलने लगा। बड़ी मुश्किल से कुछ देर में उसने अपने को सम्हाला और तब नकाबपोश की तरफ देखकर पूछा, ”क्या वह तस्वीर आपके हाथ की बनाई हुई थी?’

नकाब – बेशक!

भूत – तो आप ही ने उस आदमी को वह तस्वीर दी भी होगी जो मुझ पर उस तस्वीर की बाबत दावा करने के लिये कहता था।

नकाब – इस बात का जवाब नहीं दिया जायगा।

भूत – तो क्या आप मेरे उन भेदों को दरबार में खोला चाहते हैं?

नकाब – अभी तक तो ऐसा करने का इरादा नहीं था मगर अब जैसा मुनासिब समझा जायगा वैसा किया जायगा।

भूत – उन भेदों को आपके अतिरिक्त आपकी मण्डली में और भी कोई जानता है?

नकाब – इसका जवाब देना भी उचित नहीं जान पड़ता।

भूत – आप बड़ी जबर्दस्ती करते हैं!

नकाब – जबर्दस्ती करने वाले तो तुम थे मगर अब क्या हो गया?

भूत – (तेजी के साथ) मुमकिन है कि मैं अब भी जबर्दस्ती का बर्ताव करूं। कोई क्या जान सकता है कि तुम लोगों को कौन उठा ले गया?

नकाब – (हंसकर) ठीक है, तुम समझते हो कि यह बात किसी को मालूम न होगी कि हम लोगों को भूतनाथ उठा ले गया है।

भूत – (जोर देकर) ऐसा ही है, इसके विपरीत भी क्या कोई समझा सकता है?

इतने ही में थोड़ी दूर पर से यह आवाज आई, ”हां समझा सकता है और विश्वास दिला सकता है कि यह बात छिपी हुई नहीं है।” अब तो भूतनाथ की कुछ विचित्र ही हालत हो गई। वह घबड़ाकर उस तरफ देखने लगा जिधर से आवाज आई थी और फुर्ती के साथ अपने आदमियों से बोला, ”पकड़ो, जाने न पाये!”

भूतनाथ के आदमी तेजी के साथ उस बोलने वाले की खोज में दौड़ गये मगर नतीजा कुछ भी न निकला अर्थात् वह आदमी गिरफ्तार न हुआ और भागकर निकल गया। यह हाल देख दोनों नकाबपोशों ने खिलखिलाकर हंस दिया और कहा, ”क्यों अब तुम अपनी क्या राय कायम करते हो?’

भूत – हां मुझे विश्वास हो गया कि आपका यहां रहना छिपा नहीं रहा अथवा हमारे पीछे आपका कोई आदमी यहां तक जरूर आया है। इसमें कोई शक नहीं कि आप लोग अपने काम में पक्के हैं, कच्चे नहीं मगर ऐयारी के फन में मैंने आपको दबा लिया।

नकाब – यह दूसरी बात है, तुम ऐयार हो और हम लोग ऐयारी नहीं जानते, इतना होने पर भी तुम हमारे लिए दिन-रात परेशान रहते हो और कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ता। मगर भूतनाथ, हम तुमसे फिर भी यही कहते हैं कि हम लोगों के फेर में न पड़ो और कुछ दिन सब्र करो, फिर आपसे आप हम लोगों का हाल मालूम हो जायगा। ताज्जुब है कि तुम इतने बड़े ऐयार होकर जल्दबाजी के साथ ऐसी ओछी कार्रवाई करके खुदबखुद अपना काम बिगाड़ने की कोशिश करते हो! उस दिन दरबार में तुम देख चुके हो और जान भी चुके हो कि हम लोग तुम्हारी तरफदारी करते हैं, तुम्हारे ऐबों को छिपाते हैं, और तुम्हें एक विचित्र ढंग से माफी दिलाकर खास महाराज का कृपापात्र बनाया चाहते हैं, फिर क्या सबब है कि तुम हम लोगों का पीछा करके खामखाह हमारा क्रोध बढ़ा रहे हो?

भूत – (गुस्से को दबाकर नर्मी के साथ) नहीं-नहीं, आप इस बात का गुमान भी न कीजिये कि मैं आप लोगों को दुःख दिया चाहता हूं औ…।

नकाब – (बात काटके लापरवाही के साथ) दुःख देने की बात मैं नहीं कहता, क्योंकि तुम हम लोगों को दुःख दे ही नहीं सकते।

भूत – खैर न सही मगर मैं अपने दिल की बात कहता हूं कि किसी बुरे इरादे से मैं आप लोगों का पीछा नहीं करता क्योंकि मुझे इस बात का निश्चय हो चुका है कि आप लोग मेरे सहायक हैं। मगर क्या करूं अपनी स्त्री को आपके मकान में देखकर हैरान हूं और मेरे दिल के अन्दर तरह-तरह की बातें पैदा हो रही हैं। आज मैं इसी इरादे से आप लोगों को यहां ले आया था कि जिस तरह हो सके अपनी स्त्री का असल भेद मालूम कर लूं।

नकाब – जिस तरह हो सके के क्या मानी हम कह चुके हैं कि तुम हमें किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुंचा सकते और न डरा-धमकाकर ही कुछ पूछ सकते हो क्योंकि हम लोग बड़े ही जबर्दस्त हैं।

भूत – अब इतनी ज्यादे शेखी न बघारिये, क्या आप ऐसे मजबूत हो गये कि हमारा हाथ कोई काम कर ही नहीं सकता!

नकाब – हमारे कहने का मतलब यह नहीं है बल्कि यह है कि ऐसा करने से तुम्हें कोई फायदा नहीं हो सकता, क्योंकि हमारे संगी-साथी सभी कोई तुम्हारे भेदों को जानते हैं मगर तुम्हें नुकसान पहुंचाना नहीं चाहते। हमारी ही तरफ ध्यान देकर देख लो कि तुम्हारे हाथों दुःखी होकर भी तुम्हें दुःख देना नहीं चाहते और जो कुछ तुम कर चुके हो उसे सहकर बैठे हैं।

भूत – हमने आपको क्या दुःख दिया है?

नकाब – अगर हम इस बात का जवाब देंगे तो तुम औरों को तो नहीं मगर हमें पहिचान जाओगे।

भूत – अगर आपको पहिचान भी जाऊंगा तो क्या हर्ज है मैं फिर प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूं कि जब तक आप स्वयं अपना भेद न खोलेंगे तब तक मैं अपने मुंह से कुछ भी किसी के सामने न कहूंगा, आप इसका निश्चय रखिये।

नकाब – (कुछ सोचकर) मगर हमारा जवाब सुनकर तुम्हें गुस्सा चढ़ आवेगा और ताज्जुब नहीं कि खंजर का वार कर बैठो।

भूत – नहीं-नहीं, कदापि नहीं, क्योंकि मुझे अब निश्चय हो गया कि आपका यहां आना छिपा नहीं है, अगर मैं आपके साथ कोई बुरा बर्ताव करूंगा तो किसी लायक न रहूंगा।

नकाब – हां ठीक है और बेशक बात भी ऐसी ही है। (फिर कुछ सोचकर) अच्छा तो अब तुम्हारी उस बात का जवाब देते हैं, सुनो और अपने कलेजे को अच्छी तरह सम्हालो।

भूत – कहिये मैं हर तरह से सुनने के लिये तैयार हूं।

नकाब – उस पीतल वाली सन्दूकड़ी में जिसके खुलने से तुम डरते हो, जो कुछ है वह हमारे ही शरीर का खून है, उसे तुम हमारे ही सामने से उठा ले गये थे और हमारा ही नाम ‘दलीपशाह’ है।

यह एक ऐसी बात थी कि जिसके सुनने की उम्मीद भूतनाथ को नहीं हो सकती थी और न भूतनाथ में इतनी ताकत थी कि ये बातें सुनकर भी अपने को सम्हाले रहता। उसका चेहरा एकदम जर्द पड़ गया, कलेजा भड़कने लगा, हाथ-पैर में कंपकंपी होने लगी, और वह सकते की-सी हालत में ताज्जुब के साथ नकाबपोश के चेहरे पर गौर करने लगा।

नकाब – तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास हुआ या नहीं?

भूत – नहीं तुम दलीपशाह कदापि नहीं हो सकते, यद्यपि मैंने दलीपशाह की सूरत नहीं देखी है मगर मैं उसके पहिचानने में गलती नहीं कर सकता और न इसी बात की उम्मीद हो सकती है कि दलीपशाह मुझे माफ कर देगा या मेरे साथ दोस्ती का बर्ताव करेगा।

नकाब – तो मुझे दलीपशाह होने के लिए कुछ और भी सबूत देना पड़ेगा। और उस भयानक रात की ओर इशारा करना पड़ेगा जिस रात को तुमने वह कार्रवाई की थी, जिस रात को घटाटोप अंधेरी छाई हुई थी, बादल गरज रहे थे, बार-बार बिजली चमककर औरतों के कलेजों को दहला रही थी, बल्कि उसी समय एक दफे बिजली तेजी के साथ चमककर पास ही वाले खजूर के पेड़ पर गिरी थी, और तुम स्याह कम्बल की धोंधी लगाये आम की बारी में घुसकर यकायक गायब हो गये थे! कहो कुछ और भी परिचय दूं या बस!

भूत – (कांपती हुई आवाज में) बस-बस, मैं ऐसी बातें सुना नहीं चाहता। (कुछ रुककर) मगर मेरा दिल यही कह रहा है कि तुम दलीपशाह नहीं हो।

नकाब – हां! तब तो मुझे कुछ और भी कहना पड़ेगा। जिस समय तुम घर के अन्दर घुसे थे तुम्हारे हाथ में स्याह कपड़े का एक बहुत बड़ा लिफाफा था। जब मैंने तुम पर खंजर का वार किया तब वह लिफाफा तुम्हारे हाथ से गिर पड़ा और मैंने उठा लिया जो अभी तक मेरे पास मौजूद है, अगर तुम चाहो तो मैं दिखा सकता हूं।

भूत – (जिसका बदन डर के मारे कांप रहा था) बस-बस-बस, मैं तुम्हें कह चुका हूं और फिर कहता हूं कि ऐसी बातें सुना नहीं चाहता और न इसके सुनने से मुझे विश्वास ही हो सकता है कि तुम दलीपशाह हो। मुझ पर दया करो और अपनी चलती-फिरती जुबान रोको!

नकाब – अगर विश्वास नहीं हो सकता तो मैं कुछ और भी कहूंगा और अगर तुम न सुनोगे तो अपने साथी को सुनाऊंगा। (अपने साथी नकाबपोश की तरफ देख के) मैं उस समय अपनी चारपाई के पास बैठा कुछ लिख रहा था जब यह भूतनाथ मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। कम्बल की धोंधी एक क्षण के लिए इसके आगे की तरफ से हट गई थी और इसके कपड़े पर पड़े खून के छींटे दिखाई दे रहे थे। यद्यपि मेरी तरह इसके चेहरे पर भी नकाब पड़ी हुई थी मगर मैं खूब समझता था कि यह भूतनाथ है। मैं उठ खड़ा हुआ और फुरती के साथ इसके चेहरे पर से नकाब हटाकर इसकी सूरत देख ली। उस समय इसके चेहरे पर भी खून के छींटे पड़े हुए दिखाई दिये। भूतनाथ ने मुझे डांटकर कहा कि ‘तुम हट जाओ और मुझे अपना काम करने दो।’ तब मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि यह मेरे पास क्यों आया है और क्या चाहता है। जब मैंने पूछा कि ‘तुम क्या किया चाहते हो और मैं यहां से क्यों हट जाऊं’ तब इसने मुझ पर खंजर का वार किया क्योंकि यह उस समय बिल्कुल पागल हो रहा था और मालूम होता था कि उस समय अपने-पराये को पहिचान नहीं सकता…।

भूत – (बात काटकर) ओफ, बस करो, वास्तव में उस समय मुझमें अपने-पराये को पहिचानने की ताकत न थी, मैं अपनी गरज में मतवाला और साथ ही इसके अन्धा भी हो रहा था!

नकाब – हां-हां, सो तो मैं खुद ही कह रहा हूं क्योंकि तुमने उस समय अपने प्यारे लड़के को कुछ भी नहीं पहिचाना और रुपये की लालच ने तुम्हें मायारानी के तिलिस्मी दारोगा का हुक्म मानने पर मजबूर किया। (अपने साथी नकाबपोश की तरफ देखकर) उस समय इसकी स्त्री अर्थात् कमला की मां इससे रंज होकर मेरे घर में आई और छिपी हुई थी और जिस चारपाई के पास मैं बैठा हुआ लिख रहा था उसी पर उसका छोटा बच्चा अर्थात् कमला का छोटा भाई सो रहा था। उसकी मां अन्दर के दालान में भोजन कर रही थी और उसके पास उसकी बहिन अर्थात् भूतनाथ की साली भी बैठी हुई अपने दुःख-दर्द की कहानी के साथ ही इसकी शिकायत भी कर रही थी, उसका छोटा बच्चा उसकी गोद में था, मगर भूतनाथ…।

भूत – (बात काटता हुआ) ओफ-ओफ! बस करो, मैं सुनना नहीं चाहता, तु तु तु तुम में…।

इतना कहता हुआ भूतनाथ पागलों की तरह इधर-उधर घूमने लगा और फिर एक चक्कर खाकर जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।

बयान – 14

भूतनाथ के बेहोश हो जाने पर दोनों नकाबपोशों ने भूतनाथ के साथियों में से एक को पानी लाने के लिए कहा और जब वह पानी ले आया तो उस नकाबपोश ने जिसने अपने को दलीपशाह बताया था अपने हाथ से भूतनाथ को होश में लाने का उद्योग किया। थोड़ी ही देर में भूतनाथ चैतन्य हो गया और नकाबपोश की तरफ देखकर बोला, ”मुझसे बड़ी भारी भूल हुई जो आप दोनों को फंसाकर यहां ले आया! आज मेरी हिम्मत बिल्कुट टूट गई और मुझे निश्चय हो गया कि अब मेरी मुराद पूरी नहीं हो सकती और मुझे लाचार होकर अपनी जान दे देनी पड़ेगी।”

नकाब – नहीं-नहीं, भूतनाथ, तुम ऐसा मत सोचो, देखो हम कह चुके हैं और तुम्हें मालूम भी हो चुका है कि हम लोग तुम्हारे ऐबों को खोला नहीं चाहते बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह से तुम्हें माफी दिलाने का बन्दोबस्त कर रहे हैं। फिर तुम इस तरह हताश क्यों होते हो होश करो और अपने को सम्हालो।

भूत – ठीक है, मुझे इस बात की आशा हो चली थी कि मेरे ऐब छिपे रह जायेंगे और मैं इसका बन्दोबस्त भी कर चुका था कि वह पीतल वाली सन्दूकड़ी खोली न जाय मगर अब वह उम्मीद कायम नहीं रह सकती क्योंकि मैं अपने दुश्मन को अपने सामने मौजूद पाता हूं।

नकाब – बड़े ताज्जुब की बात है कि दरबार में हम लोगों की कैफियत देख-सुनकर भी तुम हमें अपना दुश्मन समझते हो! यदि तुम्हें मेरी बातों का विश्वास न हो तो मैं तुम्हें इजाजत देता हूं कि खुशी से मेरा सिर काटकर पूरी दिलजमई कर लो और अपना शक भी मिटा लो। तब तो तुम्हें अपने भेदों के खुलने का भय न रहेगा

भूत – (ताज्जुब से नकाबपोश की सूरत देखकर) दलीपशाह, वास्तव में तुम बड़े ही दिलावर शेर-मर्द, रहमदिल और नेक आदमी हो। क्या सचमुच तुम मेरे कसूरों को माफ करते हो?

नकाब – हां-हां, मैं सच कहता हूं कि मैंने तुम्हारे कसूरों को माफ कर दिया बल्कि दो रईसों के सामने इस बात की कसम खा चुका हूं।

भूत – वे दोनों रईस कौन हैं?

नकाब – जिनके कब्जे में इस समय हम लोग हैं और जो नित्य महाराज साहब के दरबार में आया करते हैं।

भूत – क्या राजा साहब के दरबार में जाने वाले नकाबपोश कोई दूसरे हैं, आप नहीं, या उस दिन दरबार में आप नहीं थे जिस दिन आपकी सूरत देखकर जैपाल घबड़ाया था?

नकाब – हां बेशक वे नकाबपोश दूसरे हैं और समय-समय पर नकाब डालने के अतिरिक्त सूरतें भी बदलकर जाया करते हैं। उस दिन वे हमारी सूरत बनकर दरबार में गए थे।

भूत – वे दोनों कौन हैं?

नकाब – यही तो एक बात है जिसे हम लोग खोल नहीं सकते, मगर तुम घबड़ाते क्यों हो जिस दिन उनकी असली सूरत देखोगे खुश हो जाओगे, तुम ही नहीं बल्कि कुल दरबारियों को और महाराज साहब को भी खुशी होगी क्योंकि वे दोनों नकाबपोश कोई साधारण व्यक्ति नहीं।

भूत – मेरे इस भेद को वे दोनों जानते हैं या नहीं?

नकाब – फिर तुम उसी तरह की बातें पूछने लगे।

भूत – अच्छा अब न पूछूंगा मगर अंदाज से मालूम होता है कि जब आप उनके सामने भेद छिपाने की कसम खा चुके हैं तो वे इस भेद को जानते जरूर होंगे। खैर जब आप कहते ही हैं कि मेरा भेद छिपा रह जायगा तो मुझे घबड़ाना न चाहिए। मगर मैं फिर यही कहूंगा कि आप दलीपशाह नहीं हैं।

नकाब – (खिलखिलाकर हंसने के बाद) तब तो फिर मुझे कुछ और कहना पड़ेगा। वाह, तुम्हारी स्त्री बड़ी नेक थी, जो कुछ तुमने उसके सामने किया…?

भूत – (नकाबपोश के मुंह पर हाथ रखकर) बस-बस-बस, मैं कुछ भी सुना नहीं चाहता, यह कैसी माफी है कि आप अपनी जुबान नहीं रोकते!

इतने ही में पत्थरों की आड़ में से एक आदमी निकलकर बाहर आया और यह कहता हुआ भूतनाथ के सामने खड़ा हो गया, ”तुम उन्हें भले ही रोक दो मगर मैं उन बातों की याद दिलाए बिना नहीं रह सकता!”

हम नहीं कह सकते कि इस नए आदमी को यहां आए कितनी देर हुई या यह कब से पत्थरों की आड़ में छिपा हुआ इन दोनों की बातें सुन रहा था, मगर भूतनाथ उसे यकायक अपने सामने देखकर चौंक पड़ा और घबड़ाहट तथा परेशानी के साथ उसकी सूरत देखने लगा। यह देख उस आदमी ने जान-बूझकर रोशनी के सामने अपनी सूरत कर दी जिससे पहिचानने के लिए भूतनाथ को तकलीफ न करनी पड़े। यह वही आदमी था जिसे भूतनाथ ने नकाबपोशों के मकान में सूराख के अंदर से झांककर देखा था और जिसने नकाबपोशों के सामने एक बड़ी-सी तस्वीर पेश करके कहा था कि ‘कृपानाथ, बस मैं इसी का दावा भूतनाथ पर करूंगा।’

इस आदमी को देखकर भूतनाथ पहिले से भी ज्यादे घबड़ा गया। उसके बदन का खून बर्फ की तरह जम गया और उसमें हाथ-पैर हिलाने की ताकत बिल्कुल न रही। उस आदमी ने पुनः कड़ककर भूतनाथ से कहा, ”ये नकाबपोश साहब तुम्हारी बात मानकर चाहे चुप रह जायं मगर मैं उन बातों को अच्छी तरह याद दिलाए बिना न रहूंगा जिन्हें सुनने की ताकत तुममें नहीं है। अगर तुम इनको दलीपशाह नहीं मानते तो मुझे दलीपशाह मानने में तुम्हें कोई उज्र भी न होगा।”

भूतनाथ यद्यपि आश्चर्यमय घटनाओं का शिकार हो रहा था और एक तौर पर खौफ, तरद्दुद, परेशानी और नाउम्मीदी ने उसे चारों तरफ से आकर घेर लिया था मगर फिर भी उसने कोशिश करके अपने होश-हवास दुरुस्त किये और उस नए आये दलीपशाह की तरफ देखकर कहा, ”बहुत खासे! एक दलीपशाह ने तो परेशन ही कर रक्खा था अब आप दूसरे दलीपशाह भी आ पहुंचे! थोड़ी देर में कोई तीसरे दलीपशाह भी आ जायेंगे, फिर मैं काहे को किसी से दो बातें कर सकूंगा। (पुराने दलीपशाह की तरफ देखकर) अब बताइये दलीपशाह आप हैं या ये?’

पुराना दलीप – तुम इतने ही में घबड़ा गये! हमारे यहां जितने नकाबपोश हैं सभी अपना नाम दलीपशाह बताने के लिए तैयार होंगे, मगर तुम्हें अपनी अक्ल से पहिचानना चाहिए कि वास्तव में दलीपशाह कौन है।

भूत – इस कहने का मतलब तो यही है कि आप लोग सच नहीं बोलते?

पुराना दलीप – जो बातें हमने तुमसे कहीं क्या वे झूठ हैं?

नया दलीप – या मैं जो कुछ कहूंगा वह झूठ होगा! अच्छा सुनो मैं एक दिन का जिक्र करता हूं जब तुम ठीक दोपहर के समय उसी पीतल वाली सन्दूकड़ी को बगल में छिपाये रोहतासगढ़ की तरफ भागे जा रहे थे। जब तुम्हें प्यास लगी तब तुम एक ऊंचे जगत वाले कुएं पर पानी पीने के लिए ठहर गये जिस पर एक पुराने नीम के पेड़ की सुन्दर छाया पड़ रही थी। कुएं की जगत में नीचे की तरफ एक खुली कोठरी थी और उसमें एक मुसाफिर गर्मी की तकलीफ मिटाने की नीयत से लेटा हुआ तुम्हारे ही बारे में तरह-तरह की बातें सोच रहा था। तुम्हें उस आदमी के वहां मौजूद रहने का गुमान भी न था मगर उसने तुम्हें कुएं पर जाते हुए देख लिया, अस्तु वह इस फिक्र में पड़ गया कि तुम्हारी छोटी-सी गठरी में क्या चीज है, इसे मालूम करे और अगर उसमें कोई चीज उसके मतलब की हो तो उसे निकाल ले। उस समय उस आदमी की सूरत ऐसी न थी कि तुम उसे पहिचान सकते बल्कि वह ठीक एक देहाती पंडित की सूरत में था क्योंकि वह वास्तव में एक ऐयार था, अस्तु वह हाथ में लोटा लिये हुए कोठरी के बाहर निकला और उस ठिकाने गया जहां तुम कुएं में झुककर पानी खींच रहे थे। तुम्हें इस बात का गुमान भी न था कि वह तुम्हारे साथ दगा करेगा मगर उसने पीछे से तुम्हें ऐसा धक्का दिया कि तुम कुएं के अन्दर जा रहे और उसने तुम्हारे ऐयारी के बटुए पर कब्जा करके जो कुछ अन्दर था उसे अच्छी तरह देख और समझ लिया बल्कि कुछ ले भी लिया। क्या तुम्हें आज तक मालूम भी हुआ कि वह कौन था?

भूत – (ताज्जुब से) नहीं, मैं अभी तक न जान सका कि वह कौन था, मगर इन बातों के कहने से तुम्हारा मतलब ही क्या है?

नया दलीप – मतलब यही है कि तुम जान जाओ कि इस समय वह आदमी तुम्हारे सामने खड़ा है।

भूत – (क्रोध से खंजर निकालकर) क्या वह तुम ही थे?

नया दलीप – (खंजर का जवाब खंजर ही से देने के लिए तैयार होकर) बेशक मैं ही था और मैंने तुम्हारे बटुए में क्या – क्या देखा सो भी इस समय बयान करूंगा।

पहिला दलीप – (भूतनाथ को डपटकर) बस खबरदार, होश में आओ और अपनी करतूतों पर ध्यान दो। हमने पहिले ही कह दिया था कि तुम क्रोध में आकर अपने को बर्बाद कर दोगे। बेशक तुम बर्बाद हो जाओगे और कौड़ी काम के न रहोगे, साथ ही इसके यह भी समझ रखना कि तुम दलीपशाह का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते और न उसे तुम्हारे तिलिस्मी खंजर की परवाह है।

भूत – मैं आपसे किसी तरह तकरार नहीं करता मगर इसको सजा दिये बिना भी न रहूंगा क्योंकि इसने मेरे साथ दगा करके मुझे बड़ा नुकसान पहुंचाया है और यही वह शख्स है जो मुझ पर दावा करने वाला है, अस्तु हमारे-इसके बीच इसी जगह सफाई हो जाय तो बेहतर है।

पहिला दलीप – खैर जब तुम्हारी बदकिस्मती आ ही गई है तो हम कुछ नहीं कह सकते, तुम लड़के देख लो और जो कुछ बदा है भोगो, मगर साथ ही इसके यह भी सोच लो कि तुम्हारे तरह इसके और मेरे हाथ में भी तिलिस्मी खंजर है और इन खंजरों की चमक में तुम्हारे आदमी तुम्हें कुछ भी मदद नहीं पहुंचा सकते।

भूत – (कुछ सोचकर और रुकके) तो क्या आप इसकी मदद करेंगे

पहिला दलीप – बेशक!

भूत – आप तो मेरे सहायक हैं?

पहिला दलीप – मगर इतने नहीं कि अपने साथियों को नुकसान पहुंचावें।

भूत – आखिर ये जब मुझे नुकसान पहुंचाने के लिए तैयार है तो क्या किया जाय?

पहिला दलीप – इनसे भी माफी की उम्मीद करो क्योंकि हम लोगों के सरदार तुम्हारे पक्षपाती हैं।

भूत – (खंजर म्यान में रखकर) अच्छा अब हम आपकी मेहरबानी पर भरोसा करते हैं, जो चाहे कीजिये।

पहिला दलीप – (नये दलीप से) आओ जी, तुम मेरे पास बैठ जाओ।

नया दलीप – मैं तो इससे लड़ता ही नहीं मुझे क्या कहते हो लो मैं तुम्हारे पास बैठ जाता हूं, मगर यह तो बताओ कि अब इसी भूतनाथ के कब्जे में पड़े रहोगे या यहां से चलोगे भी

पहिला दलीप – (भूतनाथ से) कहो अब मेरे साथ क्या सलूक किया चाहते हो तुम्हें मुनासिब तो यही है कि हमें कैद करके दरबार में ले चलो।

भूत – नहीं मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है बल्कि आप मुझे माफी की उम्मीद दिलाइये तो मैं यहां से चला जाऊं।

पहिला दलीप – हां तुम माफी की उम्मीद कर सकते हो, मगर इस शर्त पर कि अब हम लोगों का पीछा न करोगे!

भूत – नहीं, अब ऐसा न करूंगा। चलिए मैं आपको आपके ठिकाने पहुंचा दूं।

नया दलीप – हमें अपना रास्ता मालूम है। किसी मदद की जरूरत नहीं।

इतना कहकर नया दलीपशाह उठ खड़ा हुआ और साथ ही वे दोनों नकाबपोश भी, जिन्हें भूतनाथ बेहोश करके लाया था, उठे और अपने मकान की तरफ चल पड़े।

बयान – 15

महाराज सुरेन्द्रसिंह के दरबार में दोनों नकाबपोश दूसरे दिन नहीं आये बल्कि तीसरे दिन आये और आज्ञानुसार बैठ जाने पर अपनी गैरहाजिरी का सबब एक नकाबपोश ने इस तरह बयान किया –

”भैरोसिंह और तारासिंह को साथ लेकर यद्यपि हम लोग इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के पास गये थे मगर रास्ते में कई तरह की तकलीफ हो जाने के कारण जुकाम (सर्दी) और बुखार के शिकार बन गये, गले में दर्द और रेजिश के सबब साफ बोला नहीं जाता था बल्कि अभी तक आवाज साफ नहीं हुई, इसीलिए कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने जोर देकर हम लोगों को रोक लिया और दो दिन अपने पास से हटने न दिया, लाचार हम लोग हाजिर न हो सके, बल्कि उन्होंने एक चीठी भी महाराज के नाम की दी है।”

यह कहके नकाबपोश ने एक चीठी जेब से निकाली और उठकर महाराज के हाथ में दे दी। महाराज ने बड़ी प्रसन्नता से वह चीठी जो खास इन्द्रजीतसिंह के हाथ की लिखी हुई थी पढ़ी और इसके बाद बारी-बारी से सभों के हाथ में वह चीठी घूमी। उसमें यह लिखा हुआ था –

प्रमाण इत्यादि के बाद –

”आपके आशीर्वाद से हम लोग प्रसन्न हैं। दोनों ऐयारों के न होने से जो तकलीफ थी अब वह भी जाती रही। रामसिंह और लक्ष्मणसिंह ने हम लोगों की बड़ी मदद की इसमें कोई सन्देह नहीं। हम लोग तिलिस्म का बहुत ज्यादे काम खत्म कर चुके हैं। आशा है कि आज के तीसरे दिन हम दोनों भाई आपकी सेवा में उपस्थित होंगे और इसके बाद जो कुछ तिलिस्म का काम बचा हुआ है उसे आपकी सेवा में रहकर ही पूरा करेंगे। हम दोनों की इच्छा है कि तब तक आप कैदियों का मुकद्दमा भी बन्द रक्खें क्योंकि उसके देखने और सुनने के लिए हम दोनों बेचैन हो रहे हैं। उपस्थित होने पर हम दोनों अपना अनूठा हाल भी अर्ज करेंगे।”

इस चीठी को पढ़कर और यह जानकर सभी प्रसन्न हुए कि अब कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह आया ही चाहते हैं। इसी तरह इस उपन्यास के प्रेमी पाठक भी जानकर प्रसन्न होंगे कि अब यह उपन्यास भी शीघ्र ही समाप्त हुआ चाहता है। अस्तु कुछ देर तक खुशी के चर्चे होते रहे और इसके बाद पुनः नकाबपोशों से बातचीत होने लगी –

एक नकाब – भूतनाथ लौटकर आया या नहीं?

तेज – ताज्जुब है कि अभी तक भूतनाथ नहीं आया। शायद आपके साथियों ने उसे…।

नकाबपोश – नहीं-नहीं, हमारे साथी लोग उसे दुःख नहीं देंगे, मुझे तो विश्वास था कि भूतनाथ आ गया होगा क्योंकि वे दोनों नकाबपोश लौटकर हमारे यहां पहुंच गये जिन्हें भूतनाथ गिरफ्तार करके ले गया था। मगर अब शक होता है कि भूतनाथ पुनः किसी फेर में तो नहीं पड़ गया या उसे पुनः हमारे किसी साथी को पकड़ने का शौक तो नहीं हुआ!

तेज – आपके साथी ने लौटकर अपना हाल तो कहा होगा?

नकाबपोश – जी हां, कुछ हाल कहा था जिससे मालूम हुआ कि उन दोनों को गिरफ्तार करके ले जाने पर भूतनाथ को पछताना पड़ा।

तेज – क्या आप बता सकते हैं कि क्या-क्या हुआ?

नकाब – बता सकते हैं मगर यह बात भूतनाथ को नापसन्द होगी क्योंकि भूतनाथ को उन लोगों ने उसके पुराने ऐबों को बताकर डरा दिया था और इसी सबब से वह उन नकाबपोशों का कुछ बिगाड़ न सका। हां हम लोग उन दोनों नकाबपोशों को अपने साथ यहां ले आये हैं, यह सोचकर कि भूतनाथ यहां आ गया होगा। अस्तु उनका मुकाबिला हुजूर के सामने करा दिया जायगा।

तेज – हां! वे दोनों नकाबपोश कहां हैं

नकाबपोश – बाहर फाटक पर उन्हें छोड़ आया हूं, किसी को हुक्म दिया जाय बुला लावे।

इशारा पाते ही एक चोबदार उन्हें बुलाने के लिए चला गया, और उसी समय भूतनाथ भी दरबार में हाजिर होता दिखाई दिया। कौतुक की निगाह से सभों ने भूतनाथ को देखा। भूतनाथ ने सभों को सलाम किया और आज्ञानुसार देवीसिंह के बगल में बैठ गया।

जिस समय भूतनाथ इस इमारत की ड्योढ़ी पर आया था उसी समय उन दोनों नकाबपोशों को फाटक पर टहलता हुआ देखकर चौंक पड़ा था। यद्यपि उन दोनों के चेहरे नकाब से खाली न थे मगर फिर भी भूतनाथ ने उन्हें पहिचान लिया कि ये दोनों वही नकाबपोश हैं जिन्हें हम फंसा ले गये थे। अपने धड़कते कलेजे और परेशान दिमाग को लिये हुए भूतनाथ फाटक के अन्दर चला गया और दरबार में हाजिर होकर उसने दोनों सरदार नकाबपोशों को देखा।

एक नकाबपोश – कहो भूतनाथ, अच्छे तो हो?

भूत – हुजूर लोगों के इकबाल से जिन्दा हूं मगर दिन-रात इसी सोच में पड़ा रहता हूं कि प्रायश्चित करने या क्षमा मांगने से ईश्वर भी अपने भक्तों के पापों को क्षमा कर देता है परन्तु मनुष्यों में वह बात क्यों नहीं पाई जाती!

नकाब – जो लोग ईश्वर के भक्त हैं और जो निर्गुण और सगुण सर्वशक्तिमान जगदीश्वर का भरोसा रखते हैं वे जीवमात्र के साथ वैसा ही बर्ताव करते हैं जैसा ईश्वर चाहता है या जैसा कि हरिइच्छा समझी जाती है। अगर तुमने सच्चे दिल से परमात्मा से क्षमा मांग ली और अब तुम्हारी नीयत साफ है तो तुम्हें किसी तरह का दुःख नहीं मिल सकता, अगर कुछ मिलता है तो इसका कारण तुम्हारे चित्त का विकार है। तुम्हारे चित्त में अभी तक शान्ति नहीं हुई और तुम एकाग्र होकर उचित कार्यों की तरफ ध्यान नहीं देते इसीलिए तुम्हें सुख प्राप्त नहीं होता। अब हमारा कहना इतना ही है कि तुम शान्ति के स्वरूप बनो और ज्यादे खोज-बीन के फेर में न पड़ो। यदि तुम इस बात को मानोगे तो निःसन्देह अच्छे रहोगे और तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा।

भूत – निःसन्देह आप उचित कहते हैं।

देवी – भूतनाथ, तुम्हें यह सुनकर प्रसन्न होना चाहिए कि दो ही तीन दिन में कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह आने वाले हैं!

भूत – (ताज्जुब से) यह कैसे मालूम हुआ!

देवी – उनकी चीठी आई है।

भूत – कौन लाया है?

देवी – (नकाबपोशों की तरफ बताकर) ये ही लाये हैं।

भूत – क्या मैं उस चीठी को देख सकता हूं?

देवी – अवश्य।

इतना कह देवीसिंह ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह की चीठी भूतनाथ के हाथ में दे दी। भूतनाथ ने प्रसन्नता के साथ पढ़कर कहा, ”अब सब बखेड़ा तै हो जायगा!”

जीत – (महाराज का इशारा पाकर भूतनाथ से) भूतनाथ, तुम्हें महाराज की तरफ से किसी तरह का खौफ न करना चाहिए, क्योंकि महाराज आज्ञा दे चुके हैं कि तुम्हारे ऐबों पर ध्यान न देंगे और देवीसिंह जिन्हें महाराज अपना अंग समझते हैं, तुम्हें अपने भाई के बराबर मानते हैं। अच्छा यह बताओ कि तुम्हारे लौट आने में इतना विलम्ब क्यों हुआ, क्योंकि जिन दो नकाबपोशों को गिरफ्तार करके ले गए थे उन्हें अपने घर लौटे दो दिन हो गए।

भूतनाथ कुछ जवाब देना ही चाहता था कि वे दोनों नकाबपोश भी हाजिर हुए जिन्हें बुलाने के लिए चोबदार गया था। जब वे दोनों सभों को सलाम करके आज्ञानुसार बैठ गये तब भूतनाथ ने जवाब दिया –

भूत – (दोनों नकाबपोशों की तरफ बताकर) जहां तक मैं खयाल करता हूं ये दोनों नकाबपोश वे ही हैं जिन्हें मैं गिरफ्तार करके ले गया था। (नकाबपोशों से) क्यों साहबो?

एक नकाबपोश – ठीक है मगर हम लोगों को ले जाकर तुमने क्या किया सो महाराज को मालूम नहीं है।

भूत – हम लोग एक साथ ही अपने-अपने स्थान की तरफ रवाना हुए थे, ये दोनों तो बेखटके अपने घर पहुंच गए होंगे मगर मैं एक विचित्र तमाशे के फेर में पड़ गया था।

जीत – वह क्या?

भूत – (कुछ संकोच के साथ) क्या कहूं कहते शर्म मालूम होती है!

देवी – ऐयारों को किसी घटना के कहने में शर्म न होनी चाहिए चाहे उन्हें अपनी दुर्गति का हाल ही क्यों न कहना पड़े, और यहां कोई गैर शख्स भी बैठा हुआ नहीं है। ये नकाबपोश साहब भी अपने हैं, तुम खुद देख चुके हो कि कुंअर इन्द्रजीतसिह ने इनके बारे में क्या लिखा है।

भूत – ठीक है मगर… खैर जो होगा देखा जायगा, मैं बयान करता हूं, सुनिये, इन नकाबपोशों को बिदा करने के बाद जिस समय मैं वहां से रवाना हुआ, रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। जब मैं ‘पिपलिया’ वाले जंगल में पहुंचा जो यहां से दो-ढाई कोस होगा, तो गाने की मधुर आवाज मेरे कानों में पड़ी और मैं ताज्जुब से चारों तरफ गौर करने लगा। मालूम हुआ कि दाहिनी तरफ से आवाज आ रही है अस्तु मैं रास्ता छोड़ धीरे-धीरे दाहिनी तरफ चला और गौर से उस आवाज को सुनने लगा। जैसे-जैसे आगे बढ़ता था आवाज साफ होती जाती थी और यह भी जान पड़ता था कि मैं इस आवाज से अपरिचित नहीं बल्कि कई दफे सुन चुका हूं, अस्तु उत्कण्ठा के साथ कदम बढ़ाकर चलने लगा। कुछ और आगे जाने के बाद मालूम हुआ कि दो औरतें मिलकर बारी-बारी से गा रही हैं जिनमें से एक की आवाज पहिचानी हुई है। जब उस ठिकाने पहुंच गया जहां से आवाज आ रही थी तो देखा कि बड़ के एक बड़े और पुराने पेड़ के ऊपर कई औरतें चढ़ी हुई हैं जिनमें दो औरतें गा रही हैं। वहां बहुत अन्धकार हो रहा था इसलिए इस बात का पता नहीं लग सकता था कि वे औरतें कौन, कैसी और किस रंग-ढंग की हैं तथा उनका पहिरावा कैसा है। मैं भले-बुरे का कुछ खयाल न करके उस पेड़ के नीचे चला गया और तिलिस्मी खंजर अपने हाथ में लेकर रोशनी के लिए उसका कब्जा दबाया। उसकी तेज रोशनी से चारों तरफ उजाला हो गया और पेड़ पर चढ़ी हुई वे औरतें साफ दिखाई देने लगीं। मैं उनके पहिचानने की कोशिश कर ही रहा था कि यकायक उस पेड़ के चारों तरफ चक्र की तरह आग भभक उठी और तुरत ही बुझ गई। जैसे किसी ने बारूद की तकीर में आग लगा दी हो और वह भक से उड़ जाने के बाद केवल धुआं ही धुआं रह जाय ठीक वैसा ही मालूम हुआ। आग बुझ जाने के साथ ही ऐसा जहरीला और कडुआ धुआं फैला कि मेरी तबियत घबड़ा गई और मैं समझ गया कि इसमें बेहोशी का असर जरूर है और मेरे साथ ऐयारी की गई। बहुत कोशिश की मगर मैं अपने को सम्हाल न सका और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा।

मैं नहीं कह सकता कि बेहोश होने के बाद मेरे साथ कैसा सलूक किया गया, हां, जब मैं होश में आया और मेरी आंखें खुलीं तो मैंने एक सुन्दर सजे हुए कमरे में अपने को हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर पाया। उस समय कमरे में रोशनी बखूबी हो रही थी और मेरे सामने साफ फर्श के ऊपर कई औरतें बैठी हुई थीं जिनमें मेरी औरत ऊंची गद्दी पर बैठी हुई उन सभों की सरदार मालूम पड़ती थी।

(बीसवां भाग समाप्त)

चंद्रकांता संतति – Chandrakanta Santati

चंद्रकांता संतति लोक विश्रुत साहित्यकार बाबू देवकीनंदन खत्री का विश्वप्रसिद्ध ऐय्यारी उपन्यास है।

बाबू देवकीनंदन खत्री जी ने पहले चन्द्रकान्ता लिखा फिर उसकी लोकप्रियता और सफलता को देख कर उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाया और ‘चन्द्रकान्ता संतति’ की रचना की। हिन्दी के प्रचार प्रसार में यह उपन्यास मील का पत्थर है। कहते हैं कि लाखों लोगों ने चन्द्रकान्ता संतति को पढ़ने के लिए ही हिन्दी सीखी। घटना प्रधान, तिलिस्म, जादूगरी, रहस्यलोक, एय्यारी की पृष्ठभूमि वाला हिन्दी का यह उपन्यास आज भी लोकप्रियता के शीर्ष पर है।

Download PDF (चंद्रकांता संतति बीसवां भाग)

चंद्रकांता संतति बीसवां भाग – Chandrakanta Santati Bisva Bhag

Download PDF:Chandrakanta Santati Bisva Bhag in Hindi PDF

Further Reading:

  1. चंद्रकांता संतति पहला भाग
  2. चंद्रकांता संतति दूसरा भाग
  3. चंद्रकांता संतति तीसरा भाग
  4. चंद्रकांता संतति चौथा भाग
  5. चंद्रकांता संतति पाँचवाँ भाग
  6. चंद्रकांता संतति छठवां भाग
  7. चंद्रकांता संतति सातवाँ भाग
  8. चंद्रकांता संतति आठवाँ भाग
  9. चंद्रकांता संतति नौवां भाग
  10. चंद्रकांता संतति दसवां भाग
  11. चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग
  12. चंद्रकांता संतति बारहवां भाग
  13. चंद्रकांता संतति तेरहवां भाग
  14. चंद्रकांता संतति चौदहवां भाग
  15. चंद्रकांता संतति पन्द्रहवां भाग
  16. चंद्रकांता संतति सोलहवां भाग
  17. चंद्रकांता संतति सत्रहवां भाग
  18. चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग
  19. चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग
  20. चंद्रकांता संतति बीसवां भाग
  21. चंद्रकांता संतति इक्कीसवां भाग
  22. चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग
  23. चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग
  24. चंद्रकांता संतति चौबीसवां भाग

Leave a comment

Leave a Reply