चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग
चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग

चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग – Chandrakanta Santati Unnisava Bhag

चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग

बयान – 1

अठारहवें भाग के अन्त में हम इन्द्रानी और आनन्दी का मारा जाना लिख आये हैं और यह भी लिख चुके हैं कि कुमार के सवाल करने पर नानक ने अपना दोष स्वीकार किया और कहा – ”इन दोनों को मैंने ही मारा है और इनाम पाने का काम किया है, ये दोनों बड़ी ही शैतान थीं।”

एक तो इनके मारे जाने ही से दोनों कुमार दुःखी हो रहे थे, दूसरे नानक के इस उद्दण्डता के साथ जवाब देने ने उन्हें अपने आपे से बाहर कर दिया। कुंअर आनन्दसिंह ने तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर बड़े भाई की तरफ देखा अर्थात् इशारे ही में पूछा कि यदि आज्ञा हो तो नानक को दो टुकड़े कर दिया जाय। कुंअर आनन्दसिंह के इस भाव को नानक भी समझ गया और हंसता हुआ बोला, ”आश्चर्य है कि आपके दुश्मनों को मारकर भी मैं दोषी ठहराया जाता हूं।”

इन्द्रजीत – क्या ये दोनों हमारी दुश्मन थीं?

नानक – बेशक।

इन्द्रजीत – इसका सबूत क्या है?

नानक – केवल ये दोनों लाशें।

इन्द्रजीत – इसका क्या मतलब?

नानक – यही कि इन दोनों का चेहरा साफ करने पर आपको मालूम हो जायगा कि ये दोनों वास्तव में मायारानी और माधवी थीं।

इन्द्रजीत – (चौंककर ताज्जुब से) हैं, मायारानी और माधवी!!

नानक – (बात पर जोर देकर) जी हां, मायारानी और माधवी!

इन्द्रजीत – (आश्चर्य और क्रोध से बूढ़े दारोगा की तरफ देखकर) आप सुनते हैं नानक क्या कह रहा है?

दारोगा – नहीं कदापि नहीं, नानक झूठा है।

नानक – (लापरवाही से) कोई हर्ज नहीं, यदि कुमार चाहेंगे तो बहुत जल्द मालूम हो जायेगा कि झूठा कौन है।

दारोगा – बेशक, कोई हर्ज नहीं, मैं अभी बावली में से जल लाकर और इनका चेहरा धोकर अपने को सच्चा साबित करता हूं।

इतना कहकर दारोगा जोश दिखाता हुआ बावली की तरफ चला गया और फिर लौटकर न आया।

पाठक, आप समझ सकते हैं कि नानक की बातों ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के कोमल कलेजों के साथ कैसा बर्ताव किया होगा आनन्दी और इन्द्रानी वास्तव में मायारानी और माधवी हैं इस बात ने दोनों कुमारों को हद से ज्यादे बेचैन कर दिया और दोनों अपने किए पर पछताते हुए क्रोध और लज्जाभरी निगाहों से बराबर एक-दूसरे को देखते हुए मन में सोचने लगे कि ‘हाय, हम दोनों से कैसी भूल हो गई! यदि कहीं यह हाल कमलिनी और लाडिली तथा किशोरी और कामिनी को मालूम हो गया तो क्या वे सब मारे तानों के हम लोगों के कलेजों को छलनी न कर डालेंगी। अफसोस, उस बुड्ढे दारोगा ही ने नहीं बल्कि हमारे सच्चे साथी भैरोसिंह ने भी हमारे साथ दगा की। उसने कहा था कि इन्द्रानी ने मेरी सहायता की थी इत्यादि पर यह कदापि सम्भव नहीं कि मायारानी भैरोसिंह की सहायता करे। अफसोस, क्या अब यह जमाना आ गया कि सच्चे ऐयार भी अपने मालिकों के साथ दगा करें।’

कुछ देर तक इसी तरह की बातें दोनों कुमार सोचते और दारोगा के आने का इन्तजार करते रहे। आखिर आनन्दसिंह ने अपने बड़े भाई से कहा, ”मालूम होता है कि वह कम्बख्त बुड्ढा दारोगा डर के मारे भाग गया, यदि आज्ञा हो तो मैं जाकर पानी लाने का उद्योग करूं।” इसके जवाब में कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने पानी लाने का इशारा किया और आनन्दसिंह बावली की तरफ रवाना हुए।

थोड़ी ही देर में कुंअर आनन्दसिंह अपना पटुका पानी से तर कर ले आए और यह कहते हुए इन्द्रजीतसिंह के पास पहुंचे – ”बेशक दारोगा भाग गया।”

उसी पटुके के जल से दोनों लाशों का चेहरा साफ किया गया और उसी समय मालूम हो गया कि नानक ने जो कुछ कहा सब सच है, अर्थात् वे दोनों लाशें वास्तव में मायारानी तथा माधवी की ही हैं।

अब दोनों भाइयों के रंज और गम का कोई हद न रहा। सकते की हालत में खड़े हुए पत्थर की मूरत की तरह वे उन दोनों लाशों की तरफ देख रहे थे। कुछ देर के बाद कुंअर आनन्दसिंह ने एक लम्बी सांस लेकर कहा, ”वाह रे भैरोसिंह, जब तुम्हारा यह हाल है तब हम लोग किस पर भरोसा कर सकते हैं!”

इसके जवाब में पीछे की तरफ से आवाज आई, ”भैरोसिंह ने क्या कसूर किया है जो आप उस पर आवाज कस रहे हैं!”

दोनों कुमारों ने घूमकर देखा तो भैरोसिंह पर निगाह पड़ी। भैरोसिंह ने पुनः कहा, ”जिस दिन आप इस बात को सिद्ध कर देंगे कि भैरोसिंह ने आपके साथ दगा की उस दिन जीते-जी भैरोसिंह को इस दुनिया में कोई भी न देख सकेगा।”

इन्द्रजीत – आशा तो ऐसी ही थी मगर आजकल तुम्हारे मिजाज में कुछ फर्क आ गया है।

भैरो – कदापि नहीं।

इन्द्रजीत – अगर ऐसा न होता तो तुम बहुत-सी बातें मुझसे छिपाकर मुझे आफत में न डालते।

भैरो – (कुमार के पास जाकर) मैंने कोई बात आपसे नहीं छिपाई और जो कुछ आप समझे हुए हैं वह आपका भ्रम है।

इन्द्रजीत – क्या तुमने नहीं कहा था कि इन्द्रानी तुम्हें इस तिलिस्म में मिली थी और उसने तुम्हारी सहायता की थी?

भैरो – कहा था और बेशक कहा था।

इन्द्रजीत – (उन दोनों लाशों की तरफ इशारा करके) फिर यह क्या मामला है तुम देख रहे हो कि ये किसकी लाशें हैं?

भैरो – मैं जानता हूं कि ये मायारानी और माधवी की लाशें हैं जो नानक के हाथ से मारी गई हैं, मगर इससे मेरा कोई कसूर साबित नहीं होता और न मेरी बात ही झूठी होती है। सम्भव है कि इन दोनों ने जिस तरह आपको धोखा दिया उसी तरह आपका मित्र और साथी समझकर मुझे भी धोखा दिया हो।

इन्द्रजीत – (कुछ सोचकर) खैर, एक नहीं, मैं और भी कई बातों में तुम्हें झूठा साबित करूंगा।

भैरो – दिल्लगी के शब्दों को छोड़कर आप मेरी एक बात भी झूठी साबित नहीं कर सकते।

इन्द्रजीत – सो सब-कुछ नहीं, इन पेचीली बातों को छोड़कर तुम्हें साफ-साफ मेरी बातों का जवाब देना होगा।

भैरो – मैं बहुत साफ-साफ आपकी बातों का जवाब दूंगा, आपको जो कुछ पूछना हो पूछें।

इन्द्रजीत – तुम हम लोगों से विदा होकर कहां गए थे, अब कहां से आ रहे हो, और इन लाशों की खबर तुम्हें कैसे मिली?

भैरो – आप तो एक साथ बहुत से सवाल कर गए जिनका जवाब मुख्तसर में हो ही नहीं सकता। बेहतर होगा कि आप यहां से चलकर उस कमरे में या और किसी ठिकाने बैठें और जो कुछ मैं जवाब देता हूं उसे गौर से सुनें। मुझे पूरा यकीन है कि निःसन्देह आप लोगों के दिल का खुटका निकल जायगा और आप लोग मुझे बेकसूर समझेंगे, इतना ही नहीं मैं और भी कई बातें आपसे कहूंगा।

इन्द्रजीत – इन दोनों लाशों को और नानक को यों ही छोड़ दिया जाय?

भैरो – क्या हर्ज है अगर यों ही छोड़ दिया जाय!

नानक – जबकि मैंने आप लोगों के साथ किसी तरह की बुराई नहीं की है तो फिर मुझे इस बेबसी की हालत में क्यों छोड़े जाते हैं यदि मुझे कुछ इनाम न मिले तो कम-से-कम कैद से तो छुट्टी मिल जाय।

इन्द्रजीत – ठीक है, मगर अभी हमें यह मालूम होना चाहिए कि तू इस तिलिस्म के अन्दर क्योंकर और किस नीयत से आया था, क्योंकि अभी उसी बाग में तेरी बदनीयती का हाल मालूम हो चुका जब दारोगा ने तुझे पकड़ा था।

नानक – मगर आपको दारोगा की बदनीयती का हाल भी तो मालूम हो चुका है।

भैरो – इस पचड़े से हमें कोई मतलब नहीं, अभी राजा गोपालसिंह का आदमी इसको लेने के लिए आता होगा। इसे उसके हवाले कर दीजिएगा।

इन्द्र – अगर ऐसा हो तो बहुत अच्छी बात है, मगर क्या तुमको ठीक मालूम है कि राजा गोपालसिंह का आदमी आयेगा क्या इस मामले की खबर उन्हें लग गई है?

भैरो – जी हां।

इन्द्र – क्योंकर?

भैरो – सो तो मैं नहीं जानता मगर कमलिनी की जुबानी जो कुछ सुना है वह कहता हूं।

इन्द्र – तो क्या तुमसे और कमलिनी से मुलाकात हुई थी इस समय वे सब कहां हैं?

भैरो – जी हां हुई थी और मैं आपकी मुलाकात उन लोगों से करा सकता हूं। (हाथ का इशारा करके) वे सब उस तरफ वाले बाग में हैं, और इस समय मैं उन्हीं के साथ था (रुककर और सामने की तरफ देखकर), वह देखिए राजा गोपालसिंह का आदमी आ पहुंचा।

दोनों भाइयों ने ताज्जुब के साथ उस तरफ देखा, वास्तव में एक आदमी आ रहा था जिसने पास पहुंचकर एक चीठी इन्द्रजीतसिंह के हाथ में दी और कहा, ”मुझे राजा गोपालसिंह ने आपके पास भेजा है।”

इन्द्रजीतसिंह ने उस चीठी को बड़े गौर से देखा। राजा गोपालसिंह का हस्ताक्षर और खास निशान भी पाया। जब निश्चय हो गया कि यह चीठी राजा गोपालसिंह ही की लिखी है तब पढ़के आनन्दसिंह को दे दिया। उस पत्र में केवल इतना लिखा हुआ था –

”आप नानक तथा मायारानी और माधवी की लाश को इस आदमी के हवाले करके अलग हो जायं और जहां तक जल्दी हो सके तिलिस्म का काम पूरा करें।”

इन्द्रजीतसिंह ने उस आदमी से कहा, ”नानक और ये दोनों लाशें तुम्हारे सुपुर्द हैं, तुम जो मुनासिब समझो करो मगर राजा गोपालसिंह को कह देना कि कल तक वह इस बाग में मुझसे जरूर मिल लें” इसके जवाब में उस आदमी ने ”बहुत अच्छा” कहा और दोनों कुमार तथा भैरोसिंह वहां से रवाना होकर बावली पर आए। तीनों ने उस बावली में स्नान करके अपने कपड़े सूखने के लिए पेड़ों पर फैला दिए और इसके बाद ऊपर वाले चबूतरे पर बैठकर बातचीत करने लगे।

बयान – 2

कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने एक लम्बी सांस लेकर भैरोसिंह से कहा, ”भैरोसिंह, इस बात का तो मुझे गुमान भी नहीं हो सकता कि तुम स्वप्न में भी हम लोगों के साथ बुराई करने का इरादा करोगे। मगर तुम्हारे झूठ बोलने ने हम लोगों को दुःखी कर दिया। अगर तुमने झूठ बोलकर हम लोगों को धोखे में न डाला होता तो आज इन्द्रानी और आनन्दी वाले मामले में पड़कर हमने अपने मुंह में अपने हाथ से स्याही न मली होती। यद्यपि इन दोनों औरतों के बारे में तरह-तरह के विचार मन में उठते थे मगर इस बात का गुमान कब हो सकता था कि ये दोनों मायारानी और माधवी होंगी! ईश्वर ने बड़ी कुशल की कि शादी होने के बाद आधी घड़ी के लिए भी उन दोनों कम्बख्तों का साथ न हुआ, अगर होता तो बड़े ही धर्म-संकट में जान फंस जाती। मैं यह समझता हूं कि राजा गोपालसिंह की आज्ञानुसार आजकल तुम कमलिनी वगैरह का साथ दे रहे हो, शायद ऐसा करने में भी कोई फायदा ही होगा, मगर इस बात पर हमारा खयाल कभी नहीं जम सकता कि इतनी बढ़ी-चढ़ी दिल्लगी करने की किसी ने तुम्हें इजाजत दी होगी। नहीं-नहीं, इसे दिल्लगी नहीं कहना चाहिए, यह तो इज्जत और हुर्मत को मिट्टी में मिला देने वाला काम है। भला तुम ही बताओ कि किशोरी और कमलिनी वगैरह तथा और लोगों के सामने अब हम अपना मुंह क्योंकर दिखायेंगे!

भैरो – और लोगों की बातें तो जाने दीजिए क्योंकि इस तिलिस्म के अन्दर जो कुछ हो रहा है इसकी खबर बाहर वालों को हो ही नहीं सकती, हां किशोरी, कामिनी और कमला वगैरह अवश्य ताना मारेंगी क्योंकि उनको इस मामले की पूरी खबर है और वे लोग इसी बगल वाले बाग में मौजूद भी हैं। मगर मैं सच कहता हूं कि इस मामले में मैं बिल्कुल बेकसूर हूं! इसमें कोई शक नहीं कि कमलिनी की इच्छानुसार मैं बहुत-सी बातें आप लोगों से छिपा गया हूं मगर इन्द्रानी के मामले में मैं भी धोखा खा गया। मैंने ही नहीं बल्कि कमलिनी ने भी यही समझा था कि इन्द्रानी और आनन्दी इस तिलिस्म की रानी हैं। खैर अब तो जो कुछ होना था वह हो चुका, रंज को दूर कीजिए और चलिए, मैं आपकी कमलिनी वगैरह से मुलाकात कराऊं।

इन्द्रजीत – नहीं, अभी मैं उन लोगों से मुलाकात न करूंगा, कुछ दिन के बाद देखा जायगा।

आनन्द – जी हां, मेरी भी यही राय है। अफसोस माधवी की बनावटी कलाई पर भी उस समय कुछ ध्यान नहीं गया, यद्यपि यह एक मामूली और छोटी बात थी!

भैरो – नहीं-नहीं, ऐसा खयाल न कीजिए, जब आप अपना दिल इतना छोटा कर लेंगे तब किसी भारी काम को क्योंकर करेंगे इसे भी जाने दीजिए, आप यह बताइये कि इसमें किशोरी या कमलिनी वगैरह का क्या कसूर है जो आप उनसे मुलाकात तक भी न करेंगे शादी-ब्याह का शौक बढ़ा आपको और भूल हुई आपसे, कमलिनी ने भला क्या किया (चौंककर) खैर आप उनके पास न जाइए, वह देखिए कमलिनी खुद ही आपके पास चली आ रही हैं!

कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने अफसोस और रंज से झुका सिर उठाकर देखा तो कमलिनी पर निगाह पड़ी जो धीरे-धीरे चलती और मुस्कुराती हुई इन्हीं लोगों की तरफ आ रही थी।

बयान – 3

नानक को लिये मायारानी दूसरी तरफ चली गई मगर जिस जगह जाना चाहती थी वहां पहुंचने के पहिले ही उसने पुनः एक गोपालसिंह को अपने से कुछ दूर पर देखा और उसी समय तिलिस्मी तमंचे में गोली भरकर निशाना सर किया। गोली उसके घुटने पर लग फूट गई और उसमें से निकला हुआ बेहोशी का धुआं उसके चारों तरफ फैल गया। मगर उसका असर गोपालसिंह पर कुछ भी न हुआ। गोपालसिंह तेजी के साथ लपककर मायारानी के पास चले आये और बोले, ”मैं वह नकली गोपालसिंह नहीं हूं जिस पर इस तमंचे का कुछ असर हो, मैं असली गोपालसिंह हूं और तुझसे यह पूछने के लिए आया हूं कि बता अब तेरे साथ क्या सलूक किया जाय?’

यह कैफियत देखकर मायारानी घबड़ा गई और उसे निश्चय हो गया कि अब उसकी मौत सामने आ खड़ी हुई है जो एक पल के लिए भी उसका मुलाहिजा न करेगी, अस्तु वह गोपालसिंह की बात का कुछ जवाब न दे सकी और नानक की तरफ देखने लगी। गोपालसिंह ने यह कहकर कि ‘नानक की तरफ क्या देख रही है मेरी तरफ…’ एक तमाचा उसके गाल पर इस जोर से मारा कि वह इस सदमे को बर्दाश्त न कर सकी और चक्कर खाकर जमीन पर बैठ गई। गोपालसिंह ने अपनी जेब में से कुछ निकालकर उसे जबर्दस्ती सुंघाया जिससे वह बेहोश होकर जमीन पर लेट गई।

इसके बाद गोपालसिंह ने नानक की तरफ, जो डर के मारे खड़ा कांप रहा था, देखा और कहा –

गोपाल – कहो नानक, तुम यहां कैसे आ गये क्या उस भुवनमोहिनी के प्रेम में कमी तो नहीं हो गई या मनोरमा को खोजते हुए तो नहीं आ गए?

नानक – (डरता हुआ हाथ जोड़कर) जी मैं कमलिनीजी से मिलने के लिए आया था क्योंकि वे मुझ पर कृपा रखती हैं और जब-जब मुझे ग्रहदशा आकर घेरती है तब-तब सहायता करती हैं। मुझे यह खबर लगी थी कि वे इस बाग में आई हुई हैं।

गोपाल – मगर यहां आकर कमलिनी की जगह मायारानी से मदद मांगने की नौबत आ गई, बल्कि क्या ताज्जुब कि इसी के साथ तुम यहां आये भी हो।

नानक – जी नहीं, मेरा इसका साथ भला क्योंकर हो सकता है, क्योंकि यह मेरी पुरानी दुश्मन है और इसने धोखा देकर मेरे बाप को ऐसी आफत में डाल दिया है कि अभी तक उसे किसी तरह छुटकारा नहीं मिलता।

गोपाल – वह सब जो कुछ है मैं खूब जानता हूं। तुमने अपने बाप के लिए जो कुछ कोशिश की वह किसी से छिपी नहीं है तथा तारासिंह ने तुम्हारे यहां जाकर जो कुछ तुम्हारा हाल मालूम किया है वह भी मुझे मालूम है। अच्छा अब मैं समझा कि तुम तारासिंह से बदला लेने यहां आये हो! मगर यह तो बताओ कि किस राह से तुम यहां आए?

नानक – जी नहीं, यह बात नहीं है, भला मैं तारासिंह से क्या बदला ले सकूंगा तारासिंह ही से नहीं बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह के किसी भी ऐयार का मुकाबला करने की हिम्मत मेरे में नहीं, मगर तारासिंह ने जो कुछ सलूक मेरे साथ किया है उसका रंज जरूर है और मैं कमलिनी से इसी बात की शिकायत करने यहां आया था क्योंकि मुझे उनका बड़ा भरोसा रहता है और यहां आने का रास्ता भी उन्होंने ही उस समय मुझे बताया था जब कम्बख्त मायारानी की बदौलत आप यहां कैद थे और पागल बने हुए तेजसिंह यहां आए हुए थे।

गोपाल – हां ठीक है, मगर मैं समझता हूं कि साथ ही इसके तुम उन भेदों के जानने का भी इरादा करके आए होगे जो गूंगी रामभोली की बदौलत यहां आने पर तुमने देखा था…।

नानक – जी हां, इसमें कोई शक नहीं कि मैं उन भेदों को भी जानना चाहता हूं, परन्तु यह बात बिना आपकी कृपा के..।

गोपाल – नहीं-नहीं, उन भेदों का जानना तुम्हारे लिए बहुत ही मुश्किल है क्योंकि तुम्हारी गिनती ईमानदार ऐयारों में नहीं हो सकती। यद्यपि वह सब हाल मुझे मालूम है। लाडिली ने तुम्हारा अनूठा हाल पूरा-पूरा बयान किया था और उसी को रामभोली समझकर तुम यहां आए भी थे, मगर जो कुछ तुमने यहां आकर देखा उसका सबब बयान करना मैं उचित नहीं समझता, फिर भी इतना जरूर कहूंगा कि वह अनोखी तस्वीर जो दारोगा वाले अजायबघर के बंगले में तुमने देखी थी वास्तव में कुछ न थी या अगर थी तो केवल तुम्हारी रामभोली की निरी शरारत।

नानक – और वह कुएं वाला हाथ?

गोपाल – वह तुम्हारे बुजुर्ग धनपत का साया था। (कुछ सोचकर) मगर नानक, मुझे इस बात का अफसोस है कि तुम अपनी जवानी, हिम्मत, लियाकत और ऐयारी तथा बु़द्धिमानी का खून बुरी तरह कर रहे हो। इसमें कोई शक नहीं कि अगर तुम इश्क और मुहब्बत के झगड़ों में न पड़े होते तो समय पर अपने बाप की सहायता करने लायक होते। अब भी तुम्हारे लिए उचित यही है कि तुम अपने खयालों को सुधारकर इज्जत पैदा करने की कोशिश करो और किसी के साथ दुश्मनी करने या बदला लेने का खयाल दिल से दूर कर दो। इस थोड़ी-सी जिन्दगी में मामूली ऐशोआराम के लिए अपना परलोक बिगाड़ना पढ़े-लिखे बुद्धिमानों का काम नहीं है। अच्छे लोग मौत और जिन्दगी का फैसला एक अनूठे ढंग पर करते हैं। उनका खयाल है कि दुनिया में वह कभी मरा हुआ तब तक न समझा जायगा जब तक उसका नाम नेकी के साथ सुना या लिया जायगा और जिसने अपने माथे पर बुराई का टीका लगा लिया वह मुर्दे से भी बढ़कर है। दुष्ट लोग यदि किसी कारण मनुष्य को चींटी समझने लायक हो भी जायं तो भी कोई बात नहीं मगर ईश्वर की तरफ से वे किसी तरह निश्चिन्त नहीं हो सकते और अपने-अपने कामों का फल अवश्य पाते हैं। क्या इन्हीं राजा वीरेन्द्रसिंह और मेरे किस्से से तुम यह नसीहत नहीं ले सकते क्या तुम मायारानी, माधवी, अग्निदत्त और शिवदत्त वगैरह से भी अपने को बढ़कर समझते हो और नहीं जानते कि उन लोगों का अन्त किस तरह हुआ और हो रहा है फिर किस भरोसे पर तुम अपने को बुरी राह चलाया चाहते हो निःसन्देह तुम्हारा बाप बुद्धिमान है जो एक नामी और अद्भुत शक्ति रखने वाला अमीर ऐयार होने और हर तरह की बेइज्जती सहने पर भी राजा वीरेन्द्रसिंह का कृपापात्र बनने का ध्यान अपने दिल से दूर नहीं करता और तुम उसी भूतनाथ के लड़के हो जो अपने दिल को भी काबू में नहीं रख सकते!

इस तरह की बहुत-सी नसीहत-भरी बातें राजा गोपालसिंह ने इस ढंग से नानक को कहीं कि उसके दिल पर असर कर गईं। वह राजा गोपालसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और जब उन्होंने उसे दिलासा देकर उठाया तो हाथ जोड़के अपनी डबडबाई हुई आंखें नीचे किये हुए बोला, ”मेरा अपराध क्षमा कीजिए! यद्यपि मैं क्षमा मांगने योग्य नहीं हूं परन्तु आपकी उदारता मुझे क्षमा देने योग्य है। अब मुझे अपनी ताबेदारी में लीजिए और हर तरह से आजमाकर देखिए कि आपकी नसीहत का असर मुझ पर कैसा पड़ा और अब मैं किस तरह आपकी खिदमत करता हूं।”

इसके जवाब में गोपालसिंह ने कहा, ”अच्छा हम तुम्हारा कसूर माफ करके तुम्हारी दर्खास्त कबूल करते हैं। तुम मेरे साथ आओ और जो कुछ मैं कहूं सो करो।”

बयान – 4

कमलिनी को देखकर दोनों कुमार शर्माए और मन में तरह-तरह की बातें सोचने लगे। देखते-देखते कमलिनी उनके पास आ गई और प्रणाम करके बोली, ”आप यहां जमीन पर क्यों बैठे हैं उस कमरे में चलकर बैठिए जहां फर्श बिछा है और सब तरह का आराम है।”

इन्द्र – मगर वहां अंधकार तो जरूर होगा?

कम – जी नहीं, वहां बखूबी रोशनी हो रही होगी, (मुस्कराकर) क्योंकि यहां की रानी के मर जाने से यह बाग एक सुघड़ रानी के अधिकार में आ गया है और उसने आपकी खातिर में रोशनी जरूर कर रक्खी होगी।

इन्द्र – (कुछ शर्मिन्दगी के साथ) बस रहने दीजिए, मैं यहां की रानियों का मेहमान नहीं बनता, जो कुछ बनना था सो बन चुका, अब तो तुम्हारी दिल्लगी का निशाना बनूंगा।

कमलिनी – (हाथ जोड़के) मेरी क्या मजाल जो आपसे दिल्लगी करूं, अच्छा आप मेरे मेहमान बनिए और यहां से उठिये।

इन्द्र – क्या तुम नहीं जानतीं कि यहां अपने भी पराए होकर दुःख देने के लिए तैयार हो जाते हैं?

भैरो – (कमलिनी से) आपने खयाल किया या नहीं यह मेरी पूजा हो रही है।

कम – होनी ही चाहिए, आप इसी योग्य हैं। (इन्द्रजीतसिंह से) मगर आप मुझ लौंडी पर किसी तरह का शक न करें। यदि आप यह समझते हों कि मैं वास्तव में कमलिनी नहीं हूं तो मैं बहुत-सी बातें उस जमाने की आपको याद दिलाकर अपने पर विश्वास करा सकती हूं जिस जमाने में तालाब वाले तिलिस्मी मकान में आप मेरे साथ रहते थे। (उस समय की दो-तीन गुप्त बातों का इशारा करके) कहिए अब भी मुझ पर शक है?

इन्द्र – (बनावटी मुस्कुराहट के साथ) नहीं, अब तुम पर शक तो किसी तरह का नहीं है मगर रंज जरूर है।

कम – रंज! सो किस बात का?

इन्द्र – इस बात का कि यहां आने पर तुमने जान-बूझके अपने को मुझसे छिपाया और मुझे तरद्दुद में डाला!

कम – (हंसकर और कुमार का हाथ पकड़के) अच्छा आप यहां से उठिये और उस कमरे में चलिए तो मैं आपकी सब बातों का जवाब दूंगी। आप तो जरा-सी बात में रंज हो जाते हैं। अगर आपके साथ किसी तरह का मसखरापन किया या हम लोगों को आपसे मिलने नहीं दिया तो आपकी भावज साहेबा ने, अस्तु आपकी ऐसी बातों का जवाब भी वे ही देंगी और उनसे भी उसी कमरे मे मुलाकात होगी।

इन्द्र – मेरी भावज साहेबा! सो कौन, क्या लक्ष्मीदेवी!

कम – जी हां, वे उसी कमरे में बैठी आपका इन्तजार कर रही हैं, चलिए।

इन्द्र – हां, उनसे तो मैं जरूर मिलूंगा। जब से मैंने यह सुना है कि ‘तारा वास्तव में लक्ष्मीदेवी है’ तभी से मैं उनसे मिलने के लिए बेताब हो रहा हूं।

यह कहकर इन्द्रजीतसिंह उठ खड़े हुए और अपने सूखे हुए कपड़े पहिरकर कमलिनी के साथ उसी कमरे की तरफ चले जिसमें पहिले भी कई दफे आराम कर चुके थे। उनके पीछे-पीछे आनन्दसिंह और भैरोसिंह भी गए।

इस समय कमलिनी मामूली ढंग में न थी बल्कि बेशकीमत पोशाक और गहनों से अपने को सजाए हुए थी। एक तो यों ही किशोरी के मुकाबिले की खूबसूरत और हसीन थी तिस पर इस समय की बनावट और शृंगार ने उसे और भी उभाड़ रक्खा था। यद्यपि आज उससे मिलने के पहिले कुमार तरह-तरह की बातें सोच रहे थे और इन्द्रानी तथा आनन्दी वाले मामले से शर्मिन्दा होकर जल्दी उससे मिलना नहीं चाहते थे मगर जब वह सामने आकर खड़ी हो गई तो सब बातें एक तरह पर थोड़ी देर के लिए भूल गये और खुशी-खुशी उसके साथ चलकर उस कमरे में जा पहुंचे।

इस कमरे का दरवाजा मामूली ढंग पर बन्द था जो कमलिनी के धक्का देने से खुल गया और ज्यादे रोशनी के सबब भीतर के जगमगाते हुए सामान तथा कई औरतों पर दोनों कुमारों की निगाह पड़ी जो उन्हें देखते ही उठ खड़ी हुईं और जिनमें से एक को छोड़ बाकी की सभी ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह को और कई ने आनन्दसिंह को भी प्रणाम किया।

यह औरत जिसने कुमार को सलाम नहीं किया लक्ष्मीदेवी थी और वह राजा गोपालसिंह की जुबानी सुन चुकी थी कि दोनों कुमार उनके छोटे भाई हैं अस्तु दोनों कुमारों ने स्वयं लक्ष्मीदेवी को सलाम किया और उनकी पिछली अवस्था पर अफसोस करके पुनः जमानिया की रानी बनने पर प्रसन्नता के साथ मुबारकबाद देने के बाद और विषयों में देर तक उससे बातें करते रहे। इसके बाद किशोरी, कामिनी इत्यादि से बातचीत की नौबत पहुंची। किशोरी और इन्द्रजीतसिंह में तथा कामिनी और आनन्दसिंह में सच्ची और बढ़ी-चढ़ी मुहब्बत थी परन्तु धर्म-लज्जा और सभ्यता का पल्ला भी उन लोगों ने मजबूती के साथ पकड़ा हुआ था, इसलिए यद्यपि यहां पर कोई बड़ी-बूढ़ी औरत मौजूद न थी जिससे विशेष लज्जा करनी पड़ती तथापि इन चारों ने इस समय बनिस्बत जुबान के विशेष करके आंखों के इशारों तथा भावों ही में अपने दुःख-दर्द और जुदाई के सदमे को झलकाकर उपस्थित अवस्था तथा इस अनोखे मेल-मिलाप पर प्रसन्नता प्रकट की। कमलिनी, लाडिली, कमला, सर्यू और इन्दिरा आदि से भी कुशल-क्षेम पूछने के बाद इन लोगों में यों बातें होने लगीं –

इन्द्र – (लक्ष्मीदेवी से) आपको इस बात की शिकायत तो जरूर होगी कि आपको हद से ज्यादे दुःख भोगना पड़ा मगर यह जानकर आप अपना दुःख जरूर भूल गई होंगी कि भाई साहब ने कम्बख्त मायारानी की बदौलत जो कुछ कष्ट भोगा उसे भी कोई साधारण मनुष्य सहन नहीं कर सकता।

लक्ष्मीदेवी – निःसन्देह ऐसा ही है, क्योंकि मुझे तो किसी-न-किसी तरह आजादी की हवा मिल भी रही थी मगर उन्हें अंधेरी कोठरी में जिस तरह रहना पड़ा वैसा ईश्वर न करे किसी दुश्मन को भी नसीब हो।

इन्द्र – (मुस्कुराकर) मगर मैंने तो सुना था कि आप उनसे नाराज हो गई हैं और जमानिया जाने में…।

कम – (हंसकर) ये बनिस्बत उनके जिन्न को ज्यादे पसन्द करती थीं।

लक्ष्मी – वास्तव में उन्होंने बड़ा भारी धोखा दिया था।

इन्द्र – जैसाकि आपने तारा बनकर कमलिनी को धोखा दिया था।

कमला – आपने ठीक कहा, क्योंकि ऐयारी दोनों ही ने की थी।

कम – ओफ, जब मैं वह समय याद करती हूं जब ये तारा बनकर मेरे यहां रहती और ऐयारी का काम करती थीं तो मुझे आश्चर्य होता है। वास्तव में इनकी ऐयारी बहुत अच्छी होती थी और ये दुश्मनों का पता खूब लगाती थीं, रोहतासगढ़ पहाड़ी के नीचे जब मायारानी का ऐयार कंचनसिंह को मारकर आपको रथ पर सुलाके ले गया था तब भी इन्होंने मुझे खबर कुछ ही देर पहिले पहुंचाई थी।

इन्द्र – (ताज्जुब से) हां! तब तो इनका बहुत बड़ा अहसान मेरी गर्दन पर भी है! ओफ, वह जमाना भी कैसा भयानक था! मजा तो यह था कि दुश्मन लोग आपस में लड़ मरते थे पर एक की दूसरे को खबर नहीं होती थी। देखो रोहतासगढ़ में मायारानी की चमेली ने तो माधवी पर वार किया और माधवी को मरते दम तक इस बात का पता न लगा। अगर पता लग जाता तो क्या आज दिन माधवी मायारानी के साथ मिलकर यहां के तिलिस्मी बाग में आने की हिम्मत कभी करती?

कम – कदापि नहीं, (हंसकर) मगर आश्चर्य तो यह है कि जिस माधवी और मायारानी ने इतना ऊधम मचा रक्खा था उन्हीं दोनों से आपने शादी कर ली। अफसोस तो यही है कि उनके पापों ने उन्हें बचने न दिया और हम लोगों को मुबारकबाद देने का मौका न मिला!

इन्द्र – (शर्माकर) तुम तो…!

लक्ष्मी – (कुमार की बात काटकर कमलिनी से) बहिन, तुम भी कैसी शोख हो! कई दफे तुमसे कह चुकी कि इस बात का जिक्र न करना मगर आखिर तुमने न माना! खैर अगर कुमार ने शादी किया तो किया फिर तुम्हें क्या तुम ताना मारने वाली कौन और फिर भूलचूक की बात ही क्या है। इन्होंने कुछ जान-बूझके तो शादी की ही नहीं धोखे में पड़ गये। खबरदार, अब इस बात का जिक्र कोई करने न पाये। (कुमार से) हां तो बताइए कि हम लोगों का हाल आपको कुछ मालूम हुआ या नहीं

इन्द्र – मैं तो बहुत दिनों से तिलिस्म के अन्दर हूं मगर बाहर का हाल जिसमें आप लोगों का हाल भी मिला हुआ था भाई साहब (गोपालसिंह) बराबर सुना दिया करते थे और जो कुछ नहीं मालूम वह अब मालूम हो जायगा, क्योंकि ईश्वर की कृपा से आप लोगों का बहुत अच्छा समागम हुआ है, एक-दूसरे की बीती कहने-सुनने का मौका आज से बढ़कर फिर न मिलेगा। साथ ही इसके मैं यह भी कहूंगा कि आप (कमलिनी की तरफ इशारा करके) इन्हें बात-बात में डांटने या दबाने की तकलीफ न करें, ये जितना और जो कुछ मुझे कहें कहने दीजिए क्योंकि मैं इनके हाथ बिका हुआ हूं। इन्होंने हम लोगों के साथ जो कुछ सलूक किया है वह किसी से छिपा नहीं है और न उसका बोझ हम लोगों के सिर से कभी उतर सकता है।

कम – बस-बस-बस, ज्यादे तारीफों की भरमार न कीजिए। अगर आप… (सर्यू की तरफ देखके) चाची क्षमा कीजिए और जरा इस कमरे में जाकर (दोनों कुमारों और भैरोसिंह की तरफ बताकर) इन लोगों के लिए खाने का इन्तजाम कीजिए।

सर्यू कमलिनी का मतलब समझ गई कि उसके सामने हंसी-दिल्लगी की बातें करने में इन लोगों को शर्तें मालूम होती है और उचित भी यही है, अस्तु वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई और तब कमलिनी ने पुनः इन्द्रजीतसिंह से कहा, ”हां, अगर आप मेरे हाथ बिके हुए हैं तो कोई चिन्ता नहीं, मैं आपको बड़ी खातिर के साथ अपने पास रक्खूंगी।”

किशोरी – (मुस्कुराती हुई) इनकी तावीज बनाके गले में पहिर लेना।

कम – जी नहीं, गले तो ये तुम्हारे मढ़े जायंगे, मैं तो इन्हें हाथों पर लिए फिरूंगी।

लक्ष्मीदेवी – बल्कि चुटकियों पर, क्योंकि तुम ऐसी ही शोख और मसखरी हो! (कुमार से) आज हम लोगों के लिए बड़ी खुशी का दिन है, ईश्वर ने बड़े भागों से यह दिन दिखाया है, अतएव अगर हम लोग हंसी-दिल्लगी में कुछ विशेष कह जायं तो रंज न मानिएगा।

इन्द्रजीत – ताज्जुब है कि आप रंज होने का जिक्र करती हैं! क्या आप इस बात को नहीं जानतीं कि इन्हीं बातों के लिए हम लोग कब से तरस रहे हैं! (कमलिनी की तरफ देखके और मुस्कराके) मगर आशा है कि अब तरसना न पड़ेगा।

कमलिनी – यह तो (किशोरी की तरफ बताके) इन्हें कहिए, तरसने की बात का जवाब तो यही दे सकेंगी।

किशोरी – ठीक है, क्योंकि आदमी जब किसी के हाथ बिक जाता है तो आजादी की हवा खाने के लिए उसे तरसना ही पड़ता है।

इन्द्रजीत – (बात का ढंग दूसरी तरफ बदलने की नीयत से कमलिनी की तरफ देखकर) हां, यह तो बताओ कि नानक से और तुम लोगों से मुलाकात हुई थी या नहीं?

कमलिनी – जी नहीं, उस पर तो आपको बड़ा रंज होगा!

इन्द्रजीत – हां इसलिये कि उसने अपनी चाल-चलन को बहुत बिगाड़ रक्खा है। (कमला से) तुमने यह तो सुना ही होगा कि नानक भूतनाथ का लड़का है और भूतनाथ तुम्हारा पिता है!

कमला – जी हां, मैं सुन चुकी हूं, मगर वे (लम्बी सांस लेकर) आज-कल अपनी भूलों के सबब आप लोगों के मुजरिम बन रहे हैं!

इन्द्रजीत – चिन्ता मत करो, पिछले जमानों में अगर भूतनाथ से किसी तरह का कसूर हो गया तो क्या हुआ, आजकल वह हम लोगों का काम बड़ी खूबी और नेकनीयत के साथ कर रहा है और तुम विश्वास रक्खो कि उसका सब कसूर माफ किया जायगा।

कमला – यदि आपकी कृपा हो तो सब अच्छा ही होगा, (कमलिनी की तरफ इशारा करके) इन्होंने भी मुझे ऐसी ही आशा दिलाई है।

लक्ष्मीदेवी – इनका तो वह ऐयार ही ठहरा, इन्हीं के दिए हुए तिलिस्मी खंजर की बदौलत उसने बड़े-बड़े काम किए और कर रहा है। हां, खूब याद आया, (इन्द्रजीतसिंह से) मैं आपसे एक बात पूछूंगी।

इन्द्रजीत – पूछिये।

लक्ष्मीदेवी – तालाब वाले तिलिस्मी मकान से थोड़ी दूर पर जंगल में एक खूबसूरत नहर है और वहीं पर किसी योगिराज की समाधि है।

इन्द्रजीत – हां-हां, मैं उस स्थान का हाल जानता हूं। यद्यपि मैं वहां कभी गया नहीं, मगर ‘रक्तग्रन्थ’ की बदौलत मुझे वहां का हाल बखूबी मालूम हो गया है, (कमलिनी की तरफ देखकर) इन्हें भी तो मालूम ही होगा क्योंकि वह ‘रक्तग्रन्थ’ बहुत दिनों तक इनके पास था।

कम – जी हां, उसी रक्तग्रन्थ की बदौलत मुझे उसका कुछ हाल मालूम हुआ था और उसी जगह से वह तिलिस्मी खंजर और नेजा मैंने निकाला था।  मगर मैं उस रक्तग्रन्थ की लिखावट अच्छी तरह समझ नहीं सकती थी इसलिए उसका ठीक-ठीक और पूरा हाल मैं न जान सकी।

लक्ष्मी – इसी सबब से मेरी बातों का ठीक जवाब न दे सकी तब मैंने सोचा कि आपसे मुलाकात होने पर पूछूंगी कि क्या वहां भी कोई तिलिस्म है?

इन्द्र – जी नहीं, वहां कोई तिलिस्म नहीं है। जिस दार्शनिक महात्मा की वह समाधि है, उन्होंने यह तिलिस्म तथा रोहतासगढ़ का तहखाना, तालाब वाला तिलिस्मी खंडहर जिसमें मैं मुर्दा बनकर पहुंचाया गया था अथवा जिसमें किशोरी, कामिनी और भैरोसिंह वगैरह फंस गये थे बनवाया है, और चुनारगढ़ वाला तिलिस्म उनके गुरु का बनवाया हुआ है। यहां के राजा जिन्होंने यह तिलिस्म बनवाया था उन्हीं के शिष्य थे। उन महात्मा ने जीते-जी समाधि ले ली थी और उन्होंने अपना योगाश्रम भी उसी स्थान में बनवाया था। कमलिनी ने तिलिस्मी खंजर उसी योगाश्रम से निकाला होगा क्योंकि वहां भी बड़ी-बड़ी अनूठी चीजें हैं।

कम – जी हां, और उसी जगह मैंने इस बात की कसम भी खाई थी कि ‘भूतनाथ और नानक को अपना भाई समझूंगी, अगर ये लोग हम लोगों के साथ दगा न करेंगे।’ यद्यपि यह आश्चर्य की बात है कि अभी तक भूतनाथ के भेदों का सही-सही पता नहीं लगता फिर भी चाहे जो हो यह तो मैं जरूर कहूंगी कि भूतनाथ ने हम लोगों के साथ बड़ी नेकियां की हैं।

इन्द्र – इसमें किसी को क्या शक हो सकता है भूतनाथ वास्तव में बड़ा भारी ऐयार है। हां यह तो बताओ कि नानक यहां कैसे आ पहुंचा?

कम – भला मैं इस बात को क्या जानूं?

आनन्द – (मुस्कुराते हुए) अपनी रामभोली को खोजता हुआ आया होगा।

लाडिली – उसे मालूम हो चुका है कि उसकी रामभोली को मरे मुद्दत हो गई।

आनन्द – खैर उसकी तस्वीर खोजने आया होगा!

लाडिली – या किसी की बारात में आया होगा!

लाडिली की इस आखिरी बात ने सभों को हंसा दिया और आनन्दसिंह शर्माकर चुप हो रहे।

इन्द्र – (कमलिनी से) इस बात का कुछ पता न लगा कि अग्निदत्त को किसने मारा था! (किशोरी से) शायद इसका जवाब तुम दे सकती हो

किशोरी – अग्निदत्त को मायारानी के ऐयारों ने मारा था और उन्हीं लोगों ने मुझे ले जाकर उस तिलिस्मी खंडहर में कैद किया था।

भैरो – (कमलिनी से) हां खूब याद आया, हमने सुना था कि उस समय जब हम लोग शाहदरवाजा बन्द हो जाने के कारण दुःखी हो रहे थे तब आपने ही विचित्र ढंग से वहां पहुंचकर हम लोगों की सहायता की थी। आपको इन बातों की खबर कैसे मिली थी?2

कम – (लक्ष्मीदेवी की तरफ इशारा करके) उन दिनों ये ऐयारी कर रही थीं और इन्होंने ही उन बातों की खबर पहुंचाई थी तथा यह भी कहा था कि खंडहर वाली बावली साफ हो गई है। उस बावली में पहुंचने का रास्ता उसी योगिराज की समाधि के पास ही से है अगर वह बावली खुदकर साफ न हो गई होती तो मैं शाहदरवाजा खोल न सकती क्योंकि ऊपर की तरफ से खंडहर के अन्दर पहुंचना कठिन हो रहा था और भीतर मायारानी के आदमी उस तहखाने में जा पहुंचे थे। वह भी बड़ा कठिन समय था।

कमला – उसी समय राजा शिवदत्त भी वहां आकर…।

कम – हां, उस समय भूतनाथ ने बड़ी मदद दी। रूहा बनकर अगर वह राजा शिवदत्त को पकड़ न लिए होता तो गजब ही हो जाता।3

भैरो – मैं तो कुमार की जिन्दगी से बिल्कुल ही नाउम्मीद हो गया था।

कम – (कुमार से) हां, यह तो बताइये कि आप वहां किस तरह पहुंचाये गये थे। इसमें तो कोई शक नहीं कि आपको मायारानी के आदमियों ने गिरफ्तार किया था मगर इस बात का पता अभी तक न लगा कि उस मकान के अन्दर आप तथा देवीसिंह वगैरह ने क्या देखा कि हंसते-हंसते उसके अन्दर कूद गये और कूदने के बाद फिर क्या हुआ?

इन्द्र – कूद पड़ने के बाद फिर मुझे तनोबदन की सुध न रही और यही हाल उन सभों का भी हुआ जो मेरे पहिले उसके अन्दर कूद चुके थे मगर यह अभी न बताऊंगा कि उसके अन्दर कौन-सी हंसाने वाली चीज थी।

कम – यही बात हम लोगों ने जब देवीसिंह से पूछी थी तो उन्होंने भी इनकार करके कहा था कि ”माफ कीजिए, उस विषय में तब तक कुछ न कहूंगा जब तक इन्द्रजीतसिंह मेरे सामने मौजूद न होंगे क्योंकि उन्होंने इस बात को छिपाने के लिए मुझे सख्त ताकीद कर दी है। ताज्जुब है कि आपने अपने साथियों को भी इस तरह की ताकीद कर दी और आज स्वय भी उसके बताने से इन्कार करते हैं।

इन्द्र – इसमें कोई ऐसी बात नहीं थी जिसके बताने से मुझे परहेज हो मगर मैं चाहता हूं कि वही तमाशा तुम लोगों को तथा और अपने सभों को दिखाकर बताऊं कि उस मकान के

अन्दर बस यही था, निःसन्देह तुम लोगों की भी वही दशा होगी।

कम – तो आज ही वह तमाशा क्यों नहीं दिखाते?

इन्द्र – आज वह तमाशा मैं नहीं दिखा सकता हां भाई साहब (गोपालसिंह) अगर चाहें तो दिखा सकते हैं, मगर इसके लिए जल्दी ही क्या है? लक्ष्मी – खैर जाने दीजिए, आखिर एक-न-एक दिन मालूम हो ही जायगा। अच्छा यह बताइये कि आप जब इस तिलिस्म में या इसके बगल वाले बाग में आये थे तो उस बुड्ढे तिलिस्मी दारोगा से मुलाकात हुई थी या नहीं?

इन्द्र – हां हुई थी, बड़ा ही शैतान है, क्या तुम लोगों से वह नहीं मिला?

लक्ष्मी – भला वह कभी बिना मिले रह सकता है उसने तो हम लोगों को भी धोखे में डालना चाहा था मगर तुम्हारे भाई साहब ने पहिले ही उसकी शैतानी से हम लोगों को होशियार कर दिया था इसलिए हम लोगों का वह कुछ बिगाड़ न सका।

कम – मगर आपने उसकी बात मान ली और इसलिए उसने भी आपसे खुश होकर आपकी शादी करा दी। आपको तो उसका अहसान मानना चाहिए…।

लक्ष्मी – (कमलिनी को झिड़ककर) फिर उसी रास्ते पर चलीं! खामखाह एक आदमी को..।

इन्द्रजीत – अबकी अगर वह मुझे मिले तो उसे बिना मारे कभी न छोडूं चाहे जो हो।

इन्द्रजीतसिंह की इस बात पर सब हंस पड़े और इसके बाद लक्ष्मीदेवी ने कुमार से कहा, ”अच्छा अब यह बताइये कि मेरे चले जाने के बाद आपने तिलिस्म में क्या किया और क्या देखा’

इसी समय सर्यू भी आ पहुंची और बोली, ”चलिये पहिले खा-पी लीजिए तब बातें कीजिये।”

लक्ष्मीदेवी के जिद करने से दोनों कुमारों को उठना पड़ा और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाने के बाद फिर उसी ठिकाने बैठकर गप्पें उड़ने लगीं। कुमार ने अपना बिल्कुल हाल बयान किया और वे सब आश्चर्य से सब कथा सुनती रहीं। इसके बाद कुमार ने इन्दिरा से उसका बाकी किस्सा पूछा।

बयान – 5

दूसरे दिन तेजसिंह को उसी तिलिस्मी इमारत में छोड़कर और जीतसिंह को साथ लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह अपने पिता से मिलने के लिए चुनार गए। मुलाकात होने पर वीरेन्द्रसिंह ने पिता के पैरों पर सिर रक्खा और उन्होंने आशीर्वाद देने के बाद बड़े प्यार से उठाकर छाती से लगाया और सफर का हाल-चाल पूछने लगे।

राजा साहब की इच्छानुसार एकान्त हो जाने पर वीरेन्द्रसिंह ने सब हाल अपने पिता से बयान किया जिसे वे बड़ी दिलचस्पी के साथ सुनते रहे। इसके बाद पिता के साथ ही साथ महल में जाकर अपनी माता से मिले और संक्षेप में सब हाल कहकर बिदा हुए तब चन्द्रकान्ता के पास गए और उसी जगह चपला तथा चम्पा से मिलकर देर तक अपने सफर का दिलचस्प हाल कहते रहे।

दूसरे दिन राजा वीरेन्द्रसिंह अपने पिता के पास एकान्त में बैठे हुए बातों में राय ले रहे थे जब जमानिया से आये हुए एक सवार की इत्तिला मिली जो राजा गोपालसिंह की चीठी लाया था। आज्ञानुसार वह हाजिर किया गया, सलाम करके उसने राजा गोपालसिंह की चीठी दी और तब बिदा लेकर बाहर चला गया।

यह चीठी जो राजा गोपालसिंह ने भेजी थी नाम ही को चीठी थी। असल में यह एक ग्रंथ ही मालूम होता था जिसमें राजा गोपालसिंह ने दोनों कुमार, किशोरी, कामिनी, सर्यू, तारा, मायारानी और माधवी इत्यादि का खुलासा किस्सा जो कि हम ऊपर के बयानों में लिख आये हैं और जो राजा वीरेन्द्रसिंह को अभी मालूम नहीं हुआ था तथा अपने यहां का भी कुछ हाल लिख भेजा था और साथ ही यह भी लिखा था कि ‘आप लोग उसी खण्डहर वाली नई इमारत में रहकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के मिलने का इन्तजार करें’ इत्यादि।

राजा सुरेन्द्रसिंह को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि हम और राजा गोपालसिंह असल में एक ही खानदान की यादगार हैं और इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह से भी अब बहुत जल्द मुलाकात हुआ चाहती है, अस्तु यह बात तै पाई कि सब कोई उसी तिलिस्मी खण्डहर वाली नई इमारत में चलकर रहें और उसी जगह भूतनाथ का हाल-चाल मालूम करें। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् राजा सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, महारानी चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा वगैरह सभों की सवारी वहां आ पहुंची और मायारानी, दारोगा तथा और कैदियों को भी उसी जगह लाकर रखने का इन्तजाम किया गया।

हम बयान कर चुके हैं कि इस तिलिस्मी खंडहर के चारों तरफ अब बहुत बड़ी इमारत बनकर तैयार हो गई है जिसके बनवाने में जीतसिंह ने अपनी बुद्धिमानी का नमूना बड़ी खूबी के साथ दिखाया है, इत्यादि। अस्तु इस समय इन लोगों को यहां ठहरने में तकलीफ किसी तरह की नहीं हो सकती थी बल्कि हर तरह का आराम था।

पश्चिमी तरफ वाली इमारत के ऊपर वाले खंडों में कोठरियों और बालाखानों के अतिरिक्त बड़े-बड़े कमरे थे जिनमें से चार कमरे इस समय बहुत अच्छी तरह सजाए गये थे और उनमें महाराज सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह का डेरा था। यहां भूतनाथ के डेरे वाला बारह नम्बर का कमरा ठीक सामने पड़ता था और वह तिलिस्मी चबूतरा भी यहां से उतना ही साफ दिखाई देता था जितना भूतनाथ के डेरे से।

इन कमरों के पिछले हिस्से में बाकी लोगों का डेरा था और बचे हुए ऐयारों को इमारत के बाहरी हिस्से में स्थान मिला था और उस तरफ थोड़े से फौजी सिपाहियों और शागिर्दपेशे वालों को जगह दी गई थी।

See also  प्रेमा दसवाँ अध्याय - विवाह हो गया | मुंशी प्रेमचंद | हिंदी कहानी

इस जगह राजा साहब और जीतसिंह तथा तेजसिंह के भी आ जाने से भूतनाथ तरद्दुद में पड़ गया और सोचने लगा कि ‘उस तिलिस्मी चबूतरे के अन्दर से निकलकर मुझसे मुलाकात करने वाले या बलभद्रसिंह को ले जाने वाले आदमियों का हाल कहीं राजा साहब या उनके ऐयारों को मालूम न हो जाय और मैं एक नई आफत में फंस जाऊं क्योंकि उनका पुनः चबूतरे के नीचे से निकलकर मुझसे मिलने आना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।’

रात आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है। राजा वीरेन्द्रसिंह अपने कमरे के बाहर बरामदे में फर्श पर बैठ अपने मित्र तेजसिंह से धीरे-धीरे कुछ बातें कर रहे हैं। कमरे के अन्दर इस समय एक हलकी रोशनी हो रही है सही, मगर कमरे का दरवाजा घूमा रहने के सबब यह रोशनी वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह तक नहीं पहुंच रही थी जिससे ये दोनों एक प्रकार से अंधकार में बैठे हुए थे और दूर से इन दोनों को कोई देख नहीं सकता था। नीचे बाग में लोहे के बड़े-बड़े खम्भों पर लालटेन जल रही थीं फिर भी बाग की घनी सब्जी और लताओं का सहारा उसमें छिपकर घूमने वालों के लिए कम न था। उस दालान में भी कंदील जल रही थी जिसमें तिलिस्मी चबूतरा था और इस समय राजा वीरेन्द्रसिंह की निगाह भी जो तेजसिंह से बात कर रहे थे उसी तिलिस्मी चबूतरे की तरफ ही थी।

यकायक चबूतरे के निचले हिस्से में रोशनी देखकर राजा वीरेन्द्रसिंह को ताज्जुब हुआ और उन्होंने तेजसिंह का ध्यान भी उसी तरफ दिलाया। उस रोशनी के सबब से साफ मालूम होता था कि चबूतरे का अगला हिस्सा (जो वीरेन्द्रसिंह की तरफ पड़ता था) किवाड़ के पल्ले की तरह खुलकर जमीन के साथ लग गया है और दो आदमी एक गठरी लटकाये हुए चबूतरे से बाहर की तरफ ला रहे हैं। उन दोनों के बाहर आने के साथ ही चबूतरे के अन्दर वाली रोशनी बन्द हो गई और उन दोनों में से एक ने दूसरे के कंधे पर चढ़कर वह कंदील भी बुझा दी जो उस दालान में जल रही थी।

कंदील बुझ जाने से वहां अंधकार हो गया और इसके बाद मालूम न हुआ कि वहां क्या हुआ या क्या हो रहा है। तेजसिंह और वीरेन्द्रसिंह उसी समय उठ खड़े हुए और हाथ में नंगी तलवार लिए तथा एक आदमी को लालटेन लेकर वहां जाने की आज्ञा देकर उस दालान की तरफ रवाना हुए जिसमें तिलिस्मी चबूतरा था, मगर वहां जाकर सिवाय एक गठरी के जो उसी चबूतरे के पास पड़ी हुई थी और कुछ नजर न आया। जब आदमी लालटेन लेकर वहां पहुंचा तो तेजसिंह ने अच्छी तरह घूमकर जांच की मगर नतीजा कुछ भी न निकला, न तो यहां कोई आदमी दिखाई दिया और न उस चबूतरे ही में किसी तरह के निशान या दरवाजे का पता लगा।

तेजसिंह ने वह गठरी खोली तो एक आदमी पर निगाह पड़ी। लालटेन की रोशनी में बड़े गौर से देखने पर भी तेजसिंह या वीरेन्द्रसिंह उसे पहिचान न सके, अस्तु तेजसिंह ने उसी समय जफील बजाई जिसे सुनते ही कई सिपाही और खिदमतगार वहां इकट्ठे हो गये। इसके बाद वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह उस आदमी को उठवाकर राजा सुरेन्द्रसिंह के पास ले आए जो इस समय का शोरगुल सुनकर जाग चुके थे और जीतसिंह को अपने पास बुलवाकर कुछ बातें कर रहे थे।

उस बेहोश आदमी पर निगाह पड़ते ही जीतसिंह पहिचान गये और बोल उठे – ”यह तो बलभद्रसिंह है!”

वीरेन्द्र – (ताज्जुब से) हैं, यही बलभद्रसिंह हैं जो यहां से गायब हो गये थे!

जीत – हां यही हैं, ताज्जुब नहीं कि जिस अनूठे ढंग से यहां पहुंचाये गये हैं उसी ढंग से गायब भी हुए हों।

सुरेन्द्र – जरूर ऐसा ही हुआ होगा, भूतनाथ पर व्यर्थ शक किया जाता था। अच्छा अब इन्हें होश में लाने की फिक्र करो और भूतनाथ को बुलाओ।

तेज – जो आज्ञा।

सहज ही में बलभद्रसिंह चैतन्य हो गये और तब तक भूतनाथ भी वहां आ पहुंचा। राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और तेजसिंह को सलाम करने के बाद भूतनाथ बैठ गया और बलभद्रसिंह से बोला –

भूत – कहिये कृपानिधान आप कहां छिप गये थे और कैसे प्रकट हो गये सभी को मुझ पर सन्देह हो रहा है।

पाठक, इसके जवाब में बलभद्रसिंह ने यह नहीं कहा कि ‘तुम्हीं ने तो मुझे बेहोश किया था’ जिसके सुनने की शायद आप इस समय आशा करते होंगे बल्कि बलभद्रसिंह ने यह जवाब दिया कि ”नहीं भूतनाथ, तुम पर कोई क्यों शक करेगा तुमने ही तो मेरी जान बचाई है और तुम्हीं मेरे साथ दुश्मनी करोगे ऐसा भला कौन कह सकता है?’

तेज – खैर यह बताइये कि आपको कौन ले गया था और कैसे ले गया था?

बल – इसका पता तो मुझे भी अभी तक नहीं लगा कि वे कौन थे जिनके पाले मैं पड़ गया था, हां जो कुछ मुझ पर बीती है उसे अर्ज कर सकता हूं मगर इस समय नहीं क्योंकि मेरी तबीयत कुछ खराब हो रही है, आशा है कि अगर मैं दो-तीन घंटे सो सकूंगा तो सुबह तक ठीक हो जाऊंगा।

सुरेन्द्र – कोई चिन्ता नहीं, आप इस समय जाकर आराम कीजिए।

जीत – यदि इच्छा हो तो अपने उसी पुराने डेरे में भूतनाथ के पास रहिए नहीं तो कहिए आपके लिए दूसरे डेरे का इन्तजाम कर दिया जाय।

बलभद्र – जी नहीं, मैं अपने मित्र भूतनाथ के साथ ही रहना पसन्द करता हूं।

बलभद्रसिंह को साथ लिए भूतनाथ अपने डेरे की तरफ रवाना हुआ। इधर राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह उस तिलिस्मी चबूतरे तथा बलभद्रसिंह के बारे में बातचीत करने लगे तथा अन्त में यह निश्चय किया कि बलभद्रसिंह जो कुछ कहेंगे उस पर भरोसा न करके अपनी तरफ से इस बात का पता लगाना चाहिए कि उस तिलिस्मी चबूतरे की राह से आने-जाने वाले कौन हैं। उस दालान में ऐयारों का गुप्त पहरा मुकर्रर करना चाहिए।


बयान – 6

कुमार की आज्ञानुसार इन्दिरा ने अपना किस्सा यों बयान किया –

इन्दिरा – मैं कह चुकी हूं कि ऐयारी का कुछ सामान लेकर जब मैं उस खोह के बाहर निकली और पहाड़ तथा जंगल पार करके मैदान में पहुंची तो यकायक मेरी निगाह एक ऐसी चीज पर पड़ी जिसने मुझे धोखा दिया और मैं घबड़ाकर उस तरफ देखने लगी।

जिस चीज को देखकर मैं चौंकी वह एक कपड़ा था जो मुझसे थोड़ी ही दूर पर ऊंचे पेड़ की डाल के साथ लटक रहा था और उस पेड़ के नीचे मेरी मां बैठी हुई कुछ सोच रही थी। जब मैं दौड़ती हुई उसके पास पहुंची तो वह ताज्जुब-भरी निगाहों से मेरी तरफ देखने लगी क्योंकि उस समय ऐयारी से मेरी सूरत बदली हुई थी। मैंने बड़ी खुशी के साथ कहा, ”मां, तू यहां कैसे आ गई?’ जिसे सुनते ही उसने उठकर मुझे गले से लगा लिया और कहा, ”इन्दिरा, यह तेरा क्या हाल है क्या तूने ऐयारी सीख ली है!” मैंने मुख्तसर में अपना सब हाल बयान किया मगर उसने अपने विषय में केवल इतना ही कहा कि अपना किस्सा मैं आगे चलकर तुझसे बयान करूंगी, इस समय केवल इतना ही कहूंगी कि दारोगा ने मुझे एक पहाड़ी में कैद किया था जहां से एक स्त्री की सहायता पाकर परसों मैं निकल भागी मगर अपने घर का रास्ता न पाने के कारण इधर-उधर भटक रही हूं।

अफसोस उस समय मैंने बड़ा ही धोखा खाया और उसके सबब से मैं बड़े संकट में पड़ गई, क्योंकि वह वास्तव में मेरी मां न थी बल्कि मनोरमा थी और यह हाल मुझे कई दिनों के बाद मालूम हुआ। मैं मनोरमा को पहिचानती न थी मगर पीछे मालूम हुआ कि वह मायारानी की सखियों में से थी और गौहर के साथ वह वहां तक गई थी। मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि वह बड़ी शैतान, बेदर्द और दुष्टा थी। मेरी किस्मत में दुःख भोगना बदा हुआ था जो मैं उसे मां समझकर कई दिनों तक उसके साथ रही और उसने भी नहाने-धोने के समय अपने को मुझसे बहुत बचाया। प्रायः कई दिनों के बाद वह नहाया करती और कहती कि मेरी तबियत ठीक नहीं है।

साथ ही इसके यह भी शक हो सकता है कि उसने मुझे जान से क्यों नहीं मार डाला इसके जवाब में मैं कह सकती हूं कि वह मुझे जान से मार डालने के लिए तैयार थी मगर वह भी उसी कम्बख्त दारोगा की तरह मुझसे कुछ लिखवाया चाहती थी। अगर मैं उसकी इच्छानुसार लिख देती तो वह निःसन्देह मुझे मारकर बखेड़ा तै करती। मगर ऐसा न हुआ।

जब उसने मुझसे यह कहा कि ‘रास्ते का पता न जानने के कारण से भटकती फिरती हूं’ तब मुझे एक तरह का तरद्दुद हुआ, मगर मैंने कुछ जोश के साथ उसी समय जवाब दिया – ‘कोई चिन्ता नहीं मैं अपने मकान का पता लगा लूंगी।’

मनो – मगर साथ ही इसके मुझे एक बात और भी कहनी है।

मैं – वह क्या?

मनो – मुझे ठीक खबर लगी है कि कम्बख्त दारोगा ने तेरे बाप को गिरफ्तार कर लिया है और इस समय वह काशी में मनोरमा के मकान में कैद है।

मैं – मनोरमा कौन?

मनो – राजा गोपालसिंह की स्त्री लक्ष्मीदेवी (जिसे अब लोग मायारानी के नाम से पुकारते हैं) की सखी।

मैं – असली लक्ष्मीदेवी से तो गोपालसिंह की शादी हुई ही नहीं, वह बेचारी तो…।

मनो – (बात काटकर) हां-हां, यह हाल मुझे भी मालूम है, मगर इस समय जो राजरानी बनी हुई है लोग तो उसी को न लक्ष्मीदेवी समझे हुए हैं इसी से मैंने उसे लक्ष्मीदेवी कहा।

मैं – (आंखों में आंसू भरकर) तो क्या मेरा बाप भी कैद हो गया?

मनो – बेशक, मैंने उसके छुड़ाने का भी बन्दोबस्त कर लिया है क्योंकि तुझे तो शायद मालूम ही होगा कि तेरे बाप ने मुझे भी थोड़ी-बहुत ऐयारी सिखा रखी है अस्तु वही ऐयारी इस समय मेरे काम आई और आवेगी।

मैं – (ताज्जुब से) मुझे तो नहीं मालूम कि पिताजी ने तुम्हें भी ऐयारी सिखाई है!

मनोरमा – ठीक है, तू उन दिनों बहुत नादान थी इसलिए आज वे बातें तुझे याद नहीं हैं पर मेरा मतलब यही है कि मैं कुछ ऐयारी जानती हूं और इस समय तेरे बाप को छुड़ा भी सकती हूं।

मनोरमा की यह बात ऐसी थी कि मुझे उस पर शक हो सकता था मगर उसकी मीठी-मीठी बातों ने मुझे धोखे में डाल दिया और सच तो यों है कि मेरी किस्मत में दुःख भोगना बदा था, अस्तु मैंने कुछ सोचकर यही जवाब दिया कि ‘अच्छा जो उचित समझो सो करो। ऐयारी तो थोड़ी-सी मुझे भी आ गई है और इसका हाल भी मैं तुम्हें कह चुकी हूं कि चम्पा ने मुझे अपनी चेली बना लिया है।’

मनोरमा – हां ठीक है, तो अब सीधे काशी ही चलना चाहिए और वहां चलने का सबसे ज्यादे सुभीता डोंगी पर है, इसलिए जहां तक जल्द हो सके गंगा किनारे चलना चाहिए, वहां कोई-न-कोई डोंगी मिल ही जायगी।

मैं – बहुत अच्छा चलो।

उसी समय हम लोग गंगा की तरफ रवाना हो गए और उचित समय पर वहां पहुंचकर अपने योग्य डोंगी किराये पर ली। डोंगी किराए करने में किसी तरह की तकलीफ न हुई क्योंकि वास्तव में डोंगी वाले भी उसी दुष्ट मनोरमा के नौकर थे मगर उस कम्बख्त ने ऐसे ढंग से बातचीत की मुझे किसी तरह का शक न हुआ या यों समझिए कि मैं अपनी मां से मिलकर एक तरह पर कुछ निश्चिन्त-सी हो रही थी। रास्ते ही में मनोरमा ने मल्लाहों से इस किस्म की बातें भी शुरू कर दीं कि ‘काशी पहुंचकर तुम्हीं लोग हमारे लिए एक छोटा-सा मकान भी किराए पर तलाश कर देना, इसके बदले में तुम्हें बहुत कुछ इनाम दूंगी।’

मुख्तसर यह कि हम लोग रात के समय काशी पहुंचे। मल्लाहों द्वारा मकान का बन्दोबस्त हो गया और हम लोगों ने उसमें जाकर डेरा भी डाल दिया। एक दिन उसमें रहने के बाद मनोरमा ने कहा कि ‘बेटी, तू इस मकान के अन्दर दरवाजा बन्द करके बैठ तो मैं जाकर मनोरमा का हाल दरियाफ्त कर आऊं। अगर मौका मिला तो मैं उसे जान से मार डालूंगी और तब स्वयं मनोरमा बनकर उसके मकान, असबाब और नौकरों पर कब्जा करके तुझे लेने यहां आऊंगी, उस समय तू मुझे मनोरमा की सूरत-शक्ल में देखकर ताज्जुब न कीजियो। जब मैं तेरे सामने आकर ‘चापगेच’ शब्द कहूं तब समझ जाइयो कि यह वास्तव में मेरी मां है मनोरमा नहीं क्योंकि उस समय कई सिपाही और नौकर मुझे मालिक समझकर आज्ञानुसार मेरे साथ होंगे। तेरे बारे में मैं उन लोगों में यही मशहूर करूंगी कि यह मेरी रिश्तेदार है। इसे मैंने गोद लिया है और अपनी लड़की बनाया है। तेरी जरूरत की सब चीजें यहां मौजूद हैं तुझे किसी तरह की तकलीफ न होगी।’

इत्यादि बहुत – सी बातें समझा-बुझाकर मनोरमा मकान के बाहर हो गई और मैंने भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया, मगर जहां तक मेरा खयाल है वह मुझे अकेला छोड़कर न गई होगी बल्कि दो-चार आदमी उस मकान के दरवाजे पर या इधर-उधर हिफाजत के लिए जरूर लगा गई होगी।

ओफ ओह, उसने अपनी बातों और तर्कीबों का ऐसा मजबूत जाल बिछाया कि मैं कुछ कह नहीं सकती। मुझे उस पर रत्ती भर भी किसी तरह का शक न हुआ और मैं पूरा धोखा खा गई। इसके दूसरे ही दिन वह मनोरमा बनी हुई कई नौकरों को साथ लिए मेरे पास पहुंची और ‘चापगेच’ शब्द कहकर मुझे अपना परिचय दिया। मैं यह समझकर बहुत प्रसन्न हुई कि मां ने मनोरमा को मार लिया अब मेरे पिता भी कैद से छुट जायेंगे। अस्तु जिस रथ पर सवार होकर मुझे लेने के लिए आई थी उसी पर मुझे अपने साथ बैठाकर वह अपने घर ले गई और उस समय मैं हर तरह से उसके कब्जे में पड़ गई।

मनोरमा के घर पहुंचकर मैं उस सच्ची मुहब्बत को खोजने लगी जो मां को अपने बच्चे के साथ होती है मगर मनोरमा में वह बात कहां से आती फिर भी मुझे इस बात का गुमान न हुआ कि यहां धोखे का जाल बिछा हुआ है जिसमें मैं फंस गई हूं, बल्कि मैंने यह समझा कि वह मेरे पिता को छुड़ाने की फिक्र में लगी हुई है और इसी से मेरी तरफ ध्यान नहीं देती और वह मुझसे घड़ी-घड़ी यही बात कहा भी करती कि ‘बेटी, मैं तेरे बाप को छुड़ाने की फिक्र में पागल हो रही हूं।’

जब तक मैं उसके घर में बेटी कहलाकर रही तब तक न तो उसने स्नान किया और न अपना शरीर ही देखने का कोई ऐसा मौका मुझे दिया जिसमें मुझको शक होता कि यह मेरी मां नहीं बल्कि दूसरी औरत है। और हां, मुझे भी वह असली सूरत में रहने नहीं देती थी। चेहरे में कुछ फर्क डालने के लिए उसने एक तेल बनाकर मुझे दे दिया था जिसे दिन में एक या दो दफे मैं नित्य लगा लिया करती थी। इससे केवल मेरे रंग में फर्क पड़ गया था और कुछ नहीं।

उसके यहां रहने वाले सभी मेरी इज्जत करते और जो कुछ मैं कहती उसे तुरत ही मान लेते मगर मैं उस मकान के हाते के बाहर जाने का इरादा नहीं कर सकती थी। कभी अगर ऐसा करती तो सभी लोग मना करते और रोकने को तैयार हो जाते।

इसी तरह वहां रहते मुझे कई दिन बीत गए। एक दिन जब मनोरमा रथ पर सवार होकर कहीं बाहर गई थी, मैं समझती हूं कि मायारानी से मिलने गई होगी, संध्या के समय जब थोड़ा-सा दिन बाकी था, मैं धीरे-धीरे बाग में टहल रही थी कि यकायक किसी का फेंका हुआ पत्थर का छोटा-सा टुकड़ा मेरे सामने आकर गिरा। जब मैंने ताज्जुब से उसे देखा तो उसमें बंधे कागज के एक पुरजे पर मेरी निगाह पड़ी। मैंने झट उठा लिया और पुर्जा खोलकर पढ़ा, उसमें यह लिखा हुआ था –

”अब मुझे निश्चय हो गया कि तू ‘इन्दिरा’ है, अस्तु तुझे होशियार करे देता हूं और कहे देता हूं कि तू वास्तव में मायारानी की सखी मनोरमा के फन्दे में फंसी हुई है! यह तेरी मां बनकर तुझे फंसा लाई है और राजा गोपालसिंह के दारोगा की इच्छानुसार अपना काम निकालने के बाद तुझे मार डालेगी। मुझे जो कुछ कहना था कह दिया, अब जैसा तू उचित समझ कर। तुझे धर्म की शपथ है, इस पुर्जे को पढ़कर तुरन्त फाड़ दे।”

मैंने उस पुर्जे को पढ़ने के बाद उसी समय टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिया और घबड़ाकर चारों तरफ देखने अर्थात् उस आदमी को ढूंढ़ने लगी जिसने वह पत्थर का टुकड़ा फेंका था, मगर कुछ पता न लगा और न कोई मुझे दिखाई ही पड़ा।

उस पुर्जे के पढ़ने से जो कुछ मेरी हालत हुई मैं बयान नहीं कर सकती। उस समय मैं मनोरमा के विषय में ज्यों-ज्यों पिछली बातों पर ध्यान देने लगी त्यों-त्यों मुझे निश्चय होता गया कि यह वास्तव में मनोरमा है मेरी मां नहीं और अब अपने किये पर पछताने और अफसोस करने लगी कि क्यों उस खोह के बाहर पैर रक्खा और आफत में फंसी!

उसी समय से मेरे रहन-सहन का ढंग भी बदल गया और मैं दूसरी ही फिक्र में पड़ गई। सबसे ज्यादे फिक्र मुझे उसी आदमी के पता लगाने की हुई जिसने वह पुर्जा मेरी तरफ फेंका था। मैं उसी समय वहां से हटकर मकान में चली गई, इस खयाल से कि जिस आदमी ने मेरी तरफ वह पुर्जा फेंका था और उसे फाड़ डालने के लिए कसम दी थी वह जरूर मनोरमा से डरता होगा और यह जानने के लिए कि मैंने पुर्जा फाड़कर फेंक दिया या नहीं, उस जगह जरूर जायगा जहां (बाग में) टहलते समय मुझे पुर्जा मिला था।

जब मैं छत पर चढ़कर और छिपकर उस तरफ देखने लगी जहां मुझे वह पुर्जा मिला था तो एक आदमी को धीरे-धीरे टहलकर उस तरफ जाते देखा। जब वह उस ठिकाने पर पहुंच गया तब उसने इधर-उधर देखा और सन्नाटा पाकर पुर्जे के उन टुकड़ों को चुन लिया जो मैंने फेंके थे और उन्हें कमर में छिपाकर उसी तरह धीरे-धीरे टहलता हुआ उस मकान की तरफ चला आया जिसकी छत पर से मैं यह सब तमाशा देख रही थी। जब वह मकान के पास पहुंचा तब मैंने उसे पहिचान लिया। मनोरमा से बातचीत करते समय मैं कई दफे उसका नाम ‘नानू’ सुन चुकी थी।

इन्दिरा अपना किस्सा यहां तक बयान कर चुकी थी कि कमलिनी ने चौंककर इन्दिरा से पूछा, ”क्या नाम लिया, नानू?’

इन्दिरा – हां, उसका नाम नानू था।

कमलिनी – वह तो इस लायक नहीं था कि तेरे साथ ऐसी नेकी करता और तुझे आने वाली आफत से होशियार कर देता। वह बड़ा ही शैतान और पाजी आदमी था, ताज्जुब नहीं कि किसी दूसरे ने तेरे पास वह पुर्जा फेंका और नानू ने देख लिया हो और उसके साथ दुश्मनी की नीयत से उन टुकड़ों को बटोरा हो।

इन्दिरा – (बात काटकर) बेशक ऐसा ही है, इस बारे में मुझे धोखा हुआ जिसके सबब से मेरी तकलीफ बढ़ गई, जैसा कि मैं आगे चलकर बयान करूंगी।

कमलिनी – ठीक है, मैं उस कम्बख्त नानू को खूब जानती हूं। जब मैं मायारानी के यहां रहती थी तब वह मायारानी और मनोरमा की नाक का बाल हो रहा था और उनकी खैरखाही के पीछे प्राण दिए देता था, मगर अन्त में न मालूम क्या सबब हुआ कि मनोरमा या नागर ही ने उसे फांसी देकर मार डाला। इसका सबब मुझे आज तक मालूम न हुआ और न मालूम होने की आशा ही है क्योंकि उन लोगों में से इसका सबब कोई भी न बतावेगा। मैं भी उसके हाथ से बहुत तकलीफ उठा चुकी हूं जिसका बदला तो मैं ले न सकी मगर उसकी लाश पर थूकने का मौका मुझे जरूर मिल गया। (लक्ष्मीदेवी की तरफ देखके) जब मैंने भूतनाथ के कागजात लेने के लिए मनोरमा के मकान पर जाकर नागर को धोखा दिया था तब मैंने अपनी कोठरी के बगल वाली कोठरी में इसी की लटकती हुई लाश पर थूका था।  उसी कोठरी में मैंने अफसोस के साथ ‘बरदेबू’ को भी मुर्दा पाया था, उसके मरने का सबब भी मुझे न मालूम हुआ और न होगा। वास्तव में ‘बरदेबू’ बड़ा ही नेक आदमी था और उसने मेरे साथ बड़ी नेकियां की थीं। मुझे यह खबर उसी ने दी थी कि ‘अब मायारानी तुम्हें मार डालने का बन्दोबस्त कर रही है।’ वह उन दिनों खास बाग के मालियों को दारोगा था।

इन्दिरा – बेशक बरदेबू बड़ा नेक आदमी था, असल में वह पुर्जा उसी ने मेरी तरफ फेंका था और कम्बख्त नानू ने देख लिया था, मगर मैं धोखा खा गई। मेरी समझ में आया कि वह पुर्जा नानू का फेंका हुआ है और उन टुकड़ों को इस खयाल से उसने चुन लिया है कि कोई देखने न पावे या किसी दुश्मन के हाथ में पड़कर मेरा…।

कमलिनी – अच्छा फिर आगे क्या हुआ सो कहो।

इन्दिरा – जब मैंने यह समझ लिया कि यह नेकी नानू ने ही मेरे साथ की है और वह टहलता हुआ मकान के पास आ गया तो मैं छत पर से उतरकर पुनः बाग में आई और टहलती हुई उसके पास पहुंची।

मैं – (नानू से) आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है जो मुझे आने वाली आफत से होशियार कर दिया। मैं अभी तक मनोरमा को अपनी मां ही समझ रही थी।

नानू – ठीक है मगर तुम्हें मुझसे ज्यादा बातचीत न करनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि लोगों को मुझ पर शक हो जाय।

मैं – इस समय यहां कोई भी नहीं है इसलिए मैं यह प्रार्थना करने आई हूं कि जिस तरह आपने मुझ पर इतनी कृपा की है उसी तरह मेरे निकल भागने में भी मदद देकर अनन्त पुण्य के भागी हों।

नानू – अच्छा मैं इस काम में भी तुम्हारी मदद करूंगा मगर तुम भागने में जल्दी न करना नहीं तो सब काम चौपट हो जायगा क्योंकि यहां के सभी आदमी तुम पर गहरी हिफाजत की निगाह रखते हैं और ‘बरदेबू’ तो तुम्हारा पूरा दुश्मन है, उससे कभी बातचीत न करना, वह बड़ा ही धोखेबाज ऐयार है। बरदेबू को जानती हो न?

मैं – हां, मैं बरदेबू को जानती हूं।

नानू – बस तो तुम यहां से चली जाओ, मैं फिर किसी समय किसी बहाने से तुम्हारे पास आऊंगा तब बातें करूंगा।

मैं खुशी-खुशी वहां से हटी और बाग के दूसरे हिस्से में जाकर टहलने लगी जहां से पहरे वाले बखूबी देख सकते थे।

जैसे – जैसे अंधकार बढ़ता जाता था मुझ पर हिफाजत की निगाह भी बढ़ती जाती थी, यहां तक कि आधी घड़ी रात जाने पर लौंडियों और खिदमतगारों ने मुझे मकान के अन्दर जाने पर मजबूर किया और मैं भी लाचार होकर अपने कमरे में आ बिस्तर पर लेट गई। सभों ने खाने-पीने के लिए कहा मगर इस समय मुझे खाना-पीना कहां सूझता था, अस्तु बहाना करके टाल दिया और लेटे-लेटे सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए।

मैं समझे हुए थी कि नानू मेरे पास आकर मुझे यहां से निकल जाने के विषय में राय देगा जैसा कि वह वादा कर चुका था, मगर मेरा खयाल गलत था। आधी रात तक इन्तजार करने पर भी वह मेरे पास न आया। इसके अतिरिक्त रोज मेरी हिफाजत के लिए रात को दो लौंडियां मेरे कमरे में रहती थीं मगर आज चार लौंडियों को रोज से ज्यादे मुस्तैदी के साथ पहरा देते देखा। उस समय मुझे खुटका हुआ, मैं सोचने लगी कि निःसंदेह इन लोगों को मेरे बारे में कुछ संदेह हो गया है। मैं नींद न पड़ने और सिर में दर्द होने से बेचैनी दिखाकर उठी और कमरे में टहलने लगी, यहां तक कि दरवाजे के बाहर निकलकर सहन में पहुंची और तब देखा कि आज तो बाहर भी पहरे का इंतजाम बहुत सख्त हो रहा है। मैंने प्रकट में किसी तरह का आश्चर्य नहीं किया और पुनः अपने बिस्तरे पर आकर लेट रही और तरह-तरह की बातें सोचने लगी। उसी समय मुझे निश्चय हो गया कि उस पुर्जे को फेंकने वाला नानू नहीं कोई दूसरा है, अगर नानू होता तो इस बात की खबर फैल न जाती क्योंकि उन टुकड़ों को तो नानू ने मेरे सामने ही बटोर लिया था। अफसोस मैंने बहुत बुरा किया, अगर वे थोड़े-से शब्द मैं न कहती तो नानू सहज में ही उन टुकड़ों से कोई मतलब नहीं निकाल सकता था, मगर अब तो असल भेद खुल गया और मेरे पैरों में दोहरी जंजीर पड़ गई, अस्तु अब क्या करना चाहिए!

रात भर मुझे नींद न आई और सुबह को जैसे ही मैं बिछावन पर से उठी तो सुना कि मनोरमा आ गई है। कमरे के बाहर निकलकर सहन में गई जहां मनोरमा एक कुर्सी पर बैठी नानू से बात कर रही थी। दो लौंडियां उसके पीछे खड़ी थीं और उसके बगल में दो-तीन खाली कुर्सियां भी पड़ी हुई थीं। मनोरमा ने अपने पास एक कुर्सी खेंचकर मुझे बड़े प्यार से उस पर बैठने के लिए कहा और जब मैं बैठ गई तो बातें होने लगीं!

मनोरमा – (मुझसे) बेटी, तू जानती है कि यह (नानू की तरफ बताकर) आदमी हमारा कितना बड़ा खैरखाह है!

मैं – मां, शायद यह तुम्हारा खैरखाह होगा मगर मेरा तो पूरा दुश्मन है।

मनोरमा – (चौंककर) क्यों-क्यों, सो क्यों?

मैं – सैकड़ों मुसीबतें झेलकर तो मैं तुम्हारे पास पहुंची और तुमने भी मुझे अपनी लड़की बनाकर मेरे साथ जो सलूक किया वह प्रायः यहां के रहने वाले सभी कोई जानते होंगे। मगर यह नानू नहीं चाहता कि मैं अब भी किसी तरह सुख की नींद सो सकूं। कल शाम को जब मैं बाग में टहल रही थी तो यह मेरे पास आया और एक पुर्जा मेरे हाथ में देकर बोला कि ‘इसे पढ़ और होशियार हो जा, मगर खबरदार, मेरा नाम न लीजियो।’

नानू – (मेरी बात काटकर क्रोध से) क्यों मुझ पर तूफान बांध रही हो! क्या यह बात मैंने तुमसे कही थी!

मैं – (रंग बदलकर) बेशक तूने पुर्जा देकर यह बात कही थी और मुझे भाग जाने के लिए भी ताकीद की! आंखें क्यों दिखाता है! जो बातें तूने…?

मनो – (बात काटकर) अच्छा-अच्छा तू क्रोध मत कर जो कुछ होगा मैं समझ लूंगी, तू जो कहती थी उसे पूरा कर। (नानू से) बस चुपचाप बैठे रहो, जब यह अपनी बात पूरी कर ले तब जो कुछ कहना हो कहना।

मैं – मैंने उस पुर्जे को खोलकर पढ़ा तो उसमें यह लिखा हुआ पाया – ”जिसे तू अपनी मां समझती है वह मनोरमा है, तुझे अपना काम निकालने के लिए यहां ले आई है, काम निकल जाने पर तुझे जान से मार डालेगी, अस्तु जहां तक जल्द हो सके निकल भागने की फिक्र कर।” इत्यादि और भी कई बातें उसमें लिखी हुई थीं, जिन्हें पढ़कर मैं चौंकी और बात बनाने के तौर पर नानू से बोली, ”आपने बड़ी मेहरबानी की जो मुझे होशियार कर दिया, अब भागने में भी आप ही मेरी मदद करेंगे तो जान बचेगी।” इसके जवाब में इसने खुश होकर कहा कि ‘तुम्हें मुझसे ज्यादे बातचीत न करनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि लोगों को मुझ पर शक हो जाय। मैं भागने में भी तुम्हारी मदद करूंगा मगर इस बात को बहुत छिपाये रखना क्योंकि यहां बरदेबू नाम का आदमी तुम्हारा दुश्मन है।’ इत्यादि -।

नानू – (बात काटकर) हां बेशक यह बात मैंने तुमसे जरूर कही थी कि…।

मैं – धीरे-धीरे तुम सभी बात कबूल करोगे, मगर ताज्जुब यह है कि मना करने पर भी तुम टोके बिना नहीं रहते।

मनोरमा – (क्रोध से) क्या तुम चुप न रहोगे?

इसका जवाब नानू ने कुछ न दिया और चुप हो रहा। इसके बाद मनोरमा की इच्छानुसार मैंने यों कहना शुरू किया –

मैं – मैंने उस पुर्जे को पढ़कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला और फेंक दिया। इसके बाद नानू भी चला गया और मैं भी यहां आकर छत के ऊपर चढ़ गई और छिपकर उसी तरफ देखने लगी जहां उस पुर्जे को फाड़कर फेंक आई थी। थोड़ी देर बाद पुनः इस (नानू) को उसी जगह पहुंचकर कागज के उन टुकड़ों को चुनते और बटोरते देखा। जब यह उन टुकड़ों को बटोरकर कमर में रख चुका और इस मकान की तरफ आया तो मैं भी तुरत छत पर से उतरकर इसके पास चली आई और बोली, ”कहिए, अब मुझे कब यहां से बाहर कीजिएगा’ इसके जवाब में इसने कहा कि ‘मैं रात को एकान्त में तुम्हारे पास आऊंगा तो बातें करूंगा।’ इतना कहकर यह चला गया और पुनः मैं बाग में टहलने लगी। जब अन्धकार हुआ तो मैं घूमती हुई (हाथ का इशारा करके) उस झाड़ी की तरफ से निकली और किसी के बात की आहट पा पैर दबाती हुई आगे बढ़ी, यहां तक कि थोड़ी ही दूर पर दो आदमियों के बात करने की आवाज साफ-साफ सुनाई देने लगी। मैंने आवाज से नानू को तो पहिचान लिया मगर दूसरे को पहिचान न सकी कि वह कौन था, हां पीछे मालूम हुआ कि वह बरदेबू था।

मनो – अच्छा खैर यह बता कि इन दोनों में क्या बातें हो रही थीं?

मैं – सब बातें तो मैं सुन न सकी, हां जो कुछ सुनने और समझने में आया सो कहती हूं। इस नानू ने दूसरे से कहा कि ‘नहीं, नहीं, अब मैं अपना इरादा पक्का कर चुका हूं और उस छोकरी को भी मेरी बातों पर पूरा विश्वास हो चुका है, निःसंदेह उसे ले जाकर मैं बहुत रुपये उसके बदले में पा सकूंगा, अगर तुम इस काम में मेरी मदद करोगे तो मैं उसमें से आधी रकम तुम्हें दूंगा,’ इसके जवाब में दूसरे ने कहा कि ‘देखो नानू, यह काम तुम्हारे योग्य नहीं है, मालिक के साथ दगा करने वाला कभी सुख नहीं भोग सकता, बेहतर है कि तुम मेरी बात मान जाओ नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा और मैं तुम्हारा दुश्मन बन जाऊंगा।’ यह जवाब सुनते ही नानू क्रोध में आकर उसे बुरा-भला कहने और धमकाने लगा। उसी समय इसके सम्बोधन करने पर मुझे मालूम हुआ कि उस दूसरे का नाम बरदेबू है। खैर, जब मैंने जाना कि अब ये दोनों अलग होते हैं तो मैं चुपके से चल पड़ी और अपने कमरे में लेट रही। थोड़ी ही देर में यह मेरे पास पहुंचा और बोला, ‘बस अब जल्दी से उठ खड़ी हो और मेरे पीछे चली आओ क्योंकि अब वह मौका आ गया कि मैं तुम्हें इस आफत से बचाकर बाहर निकाल दूं।’ इसके जवाब में मैंने कहा कि ‘बस रहने दीजिए। आपकी सब कलई खुल गई, मैं आपकी और बरदेबू की बातें छिपकर सुन चुकी हूं, मां को आने दीजिए तो मैं आपकी खबर लेती हूं।’ इतना सुनते ही यह लाल-पीला होकर बोला कि ‘खैर देख लेना कि मैं तेरी खबर लेता हूं या तू मेरी खबर लेती है।’ बस यह कहके चला गया और थोड़ी देर में मैंने अपने को सख्त पहरे में पाया।

मनो – ठीक है अब मुझे असल बातों का पता लग गया।

नानू – (क्रोध के साथ) ऐसी तेज और धूर्त लड़की तो आज तक मैंने देखी ही नहीं! मेरे सामने ही मुझे झूठा और दोषी बना रही है और अपने सहायक बरदेबू को निर्दोष बनाया चाहती है!

इतना कहकर इन्दिरा कुछ देर के लिए रुक गई और थोड़ा-सा जल पीने के बाद बोली –

”जो कुछ मैंने कहा उस पर मनोरमा को विश्वास हो गया।”

इन्द्रजीत – विश्वास होना ही चाहिए, इसमें कोई शक नहीं कि तूने जो कुछ मनोरमा से कहा उसका एक-एक अक्षर चालाकी और होशियारी से भरा हुआ था।

कमला – निःसन्देह, अच्छा तब क्या हुआ?

इन्दिरा – नानू ने मुझे झूठा बनाने के लिए बहुत जोर मारा मगर कुछ कर न सका क्योंकि मनोरमा के दिल पर मेरी बातों का पूरा असर पड़ चुका था। उस पुर्जे के टुकड़ों ने उसी को दोषी ठहराया जो उसने बरदेबू को दोषी ठहराने के लिए चुन रक्खे थे, क्योंकि बरदेबू ने यह पुर्जा अक्षर बिगाड़कर ऐसे ढंग से लिखा था कि उसके कलम का लिखा हुआ कोई कह नहीं सकता था। मनोरमा ने इशारे से मुझे हट जाने के लिए कहा और मैं उठकर कमरे के अन्दर चली गई। थोड़ी देर के बाद जब मैं उसके बुलाने पर पुनः बाहर गई तो वहां मनोरमा को अकेले बैठे हुए पाया। इसके पास वाली कुर्सी पर बैठकर मैंने पूछा कि ‘मां, नानू कहां गया इसके जवाब में मनोरमा ने कहा कि ‘बेटी, नानू को मैंने कैदखाने में भेज दिया। ये लोग उस कम्बख्त दारोगा के साथी और बड़े ही शैतान हैं इसलिए किसी-न-किसी तरह इन लोगों को दोषी ठहराकर जहन्नम में मिला देना ही उचित है। अब मैं उस दारोगा से बदला लेने की धुन में लगी हुई हूं, इसी काम के लिए मैं बाहर गयी थी और इस समय पुनः जाने के लिए तैयार हूं केवल तुझे देखने के लिए चली आयी थी, तू बेफिक्री के साथ यहां रह। आशा है कि कल शाम तक मैं अवश्य लौट आऊंगी। जब तक मैं उस कम्बख्त से बदला न ले लूं और तेरे बाप को कैद से छुड़ा न लूं तब तक एक घड़ी के लिए भी अपना समय नष्ट करना नहीं चाहती। बरदेबू को अच्छी तरह समझा जाऊंगी, वह तुझे किसी तरह की तकलीफ न होने देगा।’

इन बातों को सुनकर मैं बहुत खुश हुई और सोचने लगी कि यह कम्बख्त जहां तक शीघ्र चली जाय उत्तम है क्योंकि मुझे हर तरह से निश्चय हो चुका था कि यह मेरी मां नहीं है और यहां से यकायक निकल जाना भी कठिन है। साथ ही इसके मेरा दिल कह रहा था कि मेरा बाप कैद नहीं हुआ, यह सब मनोरमा की बनावट है जो मेरे बाप का कैद होना बता रही है।

मनोरमा चली गई मगर उसने शायद मुझको यह न बताया कि नानू के साथ क्या सलूक किया या अब वह कहां है। फिर भी मनोरमा के चले जाने के बाद मैंने नानू को न देखा और न किसी लौंडी या नौकर ही ने उसके बारे में कभी कुछ कहा।

अबकी दफे मनोरमा के चले जाने के बाद मुझ पर उतना सख्त पहरा नहीं रहा जितना नानू ने बढ़ा दिया था मगर वहां का कोई आदमी मेरी तरफ से गाफिल भी न था।

उसी दिन आधी रात के समय जब मैं कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई नींद न आने के कारण तरह – तरह के मनसूबे बांध रही थी यकायक बरदेबू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, ”शाबाश तूने बड़ी चालाकी से मुझे बचा लिया और ऐसी बात गढ़ी कि मनोरमा को नानू पर ही पूरा शक हो गया और मैं इस आफत से बच गया। नहीं तो नानू ने मुझे पूरी तरह फांस लिया था, क्योंकि वह पुर्जा वास्तव में मेरा ही लिखा हुआ था। मैं तुझसे बहुत खुश हूं और तुझे इस योग्य समझता हूं कि तेरी सहायता करूं।”

मैं – आपको मेरी बातों का हाल क्योंकर मालूम हुआ?

बरदेबू – एक लौंडी की जुबानी मालूम हुआ जो उस समय मनोरमा के पास खड़ी थी।

मैं – ठीक है, मुझे विश्वास होता है कि आप मेरी सहायता करेंगे और किसी तरह इस आफत से बाहर कर देंगे क्योंकि मनोरमा के न रहने से अब मौका भी बहुत अच्छा है।

बरदेबू – बेशक मैं तुझे आफत से छुड़ाऊंगा मगर आज ऐसा करने का मौका नहीं है, मनोरमा की मौजूदगी में यह काम अच्छी तरह हो जायेगा और मुझ पर किसी तरह का शक भी न होगा क्योंकि जाते समय मनोरमा मुझे तेरी हिफाजत में छोड़ गई है। इस समय मैं केवल इसलिए आया हूं कि तुझे हर तरह की बातें समझा-बुझाकर यहां से निकल भागने की तर्कीब बता दूं और साथ ही इसके यह भी कह दूं कि तेरी मां दारोगा की बदौलत जमानिया में तिलिस्म के अन्दर कैद है और इस बात की खबर गोपालसिंह को नहीं है। मगर मैं उनसे मिलने की तर्कीब तुझे अच्छी तरह बता दूंगा।

बरदेबू घंटे भर तक मेरे पास बैठा रहा और उसने वहां की बहुत-सी बातें मुझे समझाईं और निकल भागने के लिए जो कुछ तर्कीब सोची थी वह भी कही जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा-साथ ही इसके बरदेबू ने मुझे यह भी समझा दिया कि मनोरमा की उंगली में एक अंगूठी रहती है जिसका नोकीला नगीना बहुत ही जहरीला है, किसी के बदन में कहीं भी रगड़ देने से बात-की-बात में उसका तेज जहर तमाम बदन में फैल जाता है और तब सिवाय मनोरमा की मदद के वह किसी तरह नहीं बच सकता। वह जहर की दवाइयों को (जिन्हें मनोरमा ही जानती है) घोड़े का पेट चीरकर और उसकी ताजी आंतों में उनको रखकर तैयार करती है…।

इतना सुनते ही कमलिनी ने रोककर कहा, ”हां-हां, यह बात मुझे भी मालूम है। जब मैं भूतनाथ के कागजात लेने वहां गई थी तो उसी कोठरी में एक घोड़े की दुर्दशा भी देखी थी जिसमें नानू और बरदेबू की लाश देखी, अच्छा तब क्या हुआ’ इसके जवाब में इन्दिरा ने फिर कहना शुरू किया –

बरदेबू मुझे समझा-बुझाकर और बेहोशी की दवा की दो पुड़ियां देकर चला गया और उसी समय से मैं भी मनोरमा के आने का इन्तजार करने लगी। दो दिन तक वह न आई और इस बीच में पुनः दो दफे बरदेबू से बातचीत करने का मौका मिला। और सब बातें तो नहीं मगर यह मैं इसी जगह कह देना उचित समझती हूं कि बरदेबू ने वह दवा की पुड़ियां मुझे क्यों दे दी थीं। उनमें से एक तो बेहोशी की दवा थी और दूसरी होश में लाने की। मनोरमा के यहां एक ब्राह्मणी थी जो उसकी रसोई बनाती थी और उस मकान में रहने तथा पहरा देने वाली ग्यारह लौंडियों को भी उसी रसोई में से खाना मिलता था। इसके अतिरिक्त एक ठकुरानी और थी जो मांस बनाया करती थी। मनोरमा को मांस खाने का शौक था और प्रायः नित्य खाया करती थी। मांस ज्यादे बना करता और जो बच जाता वह सब लौडियों, नौकरों और मालियों को बांट दिया जाता था। कभी-कभी मैं भी रसोई बनाने वाली मिसरानी या ठकुरानी के पास बैठकर उसके काम में सहायता कर दिया करती थी और वह बेहोशी की दवा बरदेबू ने इसलिए दी थी कि समय आने पर खाने की चीजों तथा मांस इत्यादि में जहां तक हो सके मिला दी जाय।

आखिर मुझे अपने काम में सफलता प्राप्त हुई, अर्थात् चौथे-पांचवें दिन संध्या के समय मनोरमा आ पहुंची और मांस के बटुए में बेहाशी की दवा मिला देने का भी मौका मिल गया।

रात के समय जब भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर मनोरमा अपने कमरे में बैठी तो उसने मुझे भी अपने पास बुलाकर बैठा लिया और बातें करने लगी। उस समय सिवाय हम दोनों के वहां और कोई भी न था।

मनोरमा – अबकी दफा का सफर मेरा बहुत अच्छा हुआ और मुझे बहुत-सी बातें नई मालूम हो गईं जिससे तेरे बाप के छुड़ाने में अब किसी तरह की कठिनाई नहीं रही। आशा है कि दो ही तीन दिन में वह कैद से छूट जायंगे और हम लोग भी इस अनूठे भेष को छोड़कर अपने घर जा पहुंचेंगे।

मैं – तुम कहां गई थीं और क्या करके आईं?

मनो – मैं जमानिया गई थी। वहां राजा गोपालसिंह की मायारानी तथा दारोगा से भी मुलाकात की। मायारानी ने वहां अपना पूरा दखल जमा लिया है और वहां की तथा तिलिस्म की बहुत-सी बातें उसे मालूम हो गई हैं। इसलिए अब राजा गोपालसिंह को मार डालने का बन्दोबस्त कर रही है।

मैं – तिलिस्म कैसा?

मनोरमा – (ताज्जुब के साथ) क्या तू नहीं जानती कि जमानिया का खास बाग एक बड़ा भारी तिलिस्म है?

मैं – नहीं, मुझे तो यह बात नहीं मालूम और तुमने भी कभी मुझे कुछ नहीं बताया।

यद्यपि मुझे जमानिया तिलिस्म का हाल मालूम था और इस विषय की बहुत-सी बातें अपनी मां से सुन चुकी थी मगर इस समय मनोरमा से यही कह दिया कि ‘नहीं, यह बात भी मालूम नहीं है और तुमने भी इस विषय में कभी कुछ नहीं कहा।’ इसके जवाब में मनोरमा ने कहा, ”हां ठीक है, मैंने नादान समझकर वे बातें नहीं कही थीं।”

मैं – अच्छा यह तो बताओ कि मायारानी को थोड़े ही दिनों में वहां का सब हाल कैसे मालूम हो गया?

मनोरमा – ये सब बातें मुझे मालूम न थीं मगर दारोगा ने मुझको असली मनोरमा समझकर बता दिया अस्तु जो कुछ उसकी जुबानी सुनने में आया है सो तुझे कहती हूं, मायारानी को वहां का हाल यकायक थोड़े ही दिनों में मालूम न हो जाता और दारोगा भी इतनी जल्दी उसे होशियार न कर देता मगर उसके (मायारानी के) बाप ने उसे हर तरह से होशियार कर दिया है क्योंकि उसके बड़े लोग दीवान के तौर पर कहीं की हुकूमत कर चुके हैं और इसीलिए उसके बाप को भी न मालूम किस तरह पर वहां की बहुत-सी बातें मालूम हैं।

मैं – खैर इन सब बातों से मुझे कोई मतलब नहीं। यह बताओ कि मेरे पिता कहां हैं और उन्हें छुड़ाने के लिए तुमने क्या बन्दोबस्त किया वह छूट जायं तो राजा गोपालसिंह को मायारानी के फंदे से बचा लें। हम लोगों के किये इस बारे में कुछ न हो सकेगा।

मनोरमा – उन्हें छुड़ाने के लिए भी मैं सब बन्दोबस्त कर चुकी हूं, देर बस इतनी ही है कि तू एक चीठी गोपालसिंह के नाम की उसी मजमून की लिख दे जिस मजमून की लिखने के लिए दारोगा तुझे कहता था। अफसोस इसी बात का है कि दारोगा को तेरा हाल मालूम हो गया है। वह तो मुझे नहीं पहचान सका मगर इतना कहता था कि ‘इन्दिरा को तूने अपनी लड़की बनाकर घर में रख लिया है, सो खैर तेरे मुलाहिजे में मैं उसे छोड़ देता हूं मगर उसके हाथ से इस मजमून की चीठी लिखकर जरूर भेजना होगा।’ (कुछ रुककर) न मालूम क्यों मेरा सिर घूमता है।

मैं – खाने को ज्यादा खा गई होगी।

मनोरमा – नहीं मगर…।

इतना कहते-कहते मनोरमा ने गौर की निगाह से मुझे देखा और मैं अपने को बचाने की नीयत से उठ खड़ी हुई। उसने यह देख मुझे पकड़ने की नीयत से उठना चाहा मगर उठ न सकी और उस बेहोशी की दवा का पूरा-पूरा असर उस पर हो गया अर्थात् वह बेहोश होकर गिर पड़ी। उस समय मैं उसके पास से चली आई और कमरे के बाहर निकली, चारों तरफ देखने से मालूम हुआ कि सब लौंडी, नौकर, मिसरानी और माली वगैरह जहां-तहां बेहोश पड़े हैं, किसी को तनोबदन की सुध नहीं है। मैं एक जानी हुई जगह से मजबूत रस्सी लेकर पुनः मनोरमा के पास पहुंची और उसी से खूब जकड़कर दूसरी पुड़िया सुंघा उसे होश में लाई। चैतन्य होने पर उसने हाथ में खंजर लिए मुझे अपने सामने खड़े पाया। वह उसी का खंजर था जो मैंने ले लिया था।

See also  परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा: लाला श्रीनिवास दास

मनोरमा – हैं यह क्या तूने मेरी ऐसी दुर्दशा क्यों कर रक्खी है?

मैं – इसलिए कि तू वास्तव में मेरी मां नहीं है और मुझे धोखा देकर यहां ले आई है।

मनोरमा – यह तुझे किसने कहा?

मैं – तेरी बातों और करतूतों ने।

मनोरमा – नहीं-नहीं, यह सब तेरा भ्रम है।

मैं – अगर यह सब मेरा भ्रम है और तू वास्तव में मेरी मां है तो बता मेरे नाना ने अपने अन्तिम समय में क्या कहा था?

मनोरमा – (कुछ सोचकर) मेरे पास आ तो बताऊं।

मैं – तेरे पास आ सकती हूं मगर इतना समझ ले कि अब वह जहरीली अंगूठी तेरी उंगली में नहीं है।

इतना सुनते ही वह चौंक पड़ी। उसके बाद और भी खूब-सूब बातें उससे हुईं जिससे निश्चय हो गया कि मेरी ही करनी से वह बेहोश हुई थी और अब मैं उसके फेर में नहीं पड़ सकती। मैं उसे निःसन्देह जान से मार डालती मगर बरदेबू ने ऐसा करने से मुझे मना कर दिया था। वह कह चुका था कि…”मैं तुझे इस कैद से छुड़ा तो देता हूं मगर मनोरमा की जान पर किसी तरह की आफत नहीं ला सकता क्योंकि उसका नकम खा चुका हूं।”

यही सबब था कि उस समय मैंने उसे केवल बातों की ही धमकी देकर छोड़ दिया। बची हुई बेहोशी की दवा जबर्दस्ती उसे सुंघाकर बेहोश करने के बाद मैं कमरे के बाहर निकली और बाग में चली आई जहां प्रतिज्ञानुसार बरदेबू खड़ा मेरी राह देख रहा था। उसने मेरे लिए एक खंजर और ऐयारी का बटुआ भी तैयार कर रखा था जो मुझे देकर उसके अन्दर की सब चीजों के बारे में अच्छी तरह समझा दिया और इसके बाद जिधर मालियों के रहने का मकान था उधर ले गया। माली सब तो बेहोश थे ही अस्तु कमन्द के सहारे मुझे बाग की दीवार के बाहर कर दिया और फिर मुझे मालूम न हुआ कि बरदेबू ने क्या कार्रवाइयां कीं और उस पर तथा मनोरमा इत्यादि पर क्या बीती।

मनोरमा के घर से बाहर निकलते ही मैं सीधे जमानिया की तरफ भागी क्योंकि एक तो अपनी मां को छुड़ाने की फिक्र लगी हुई थी जिसके लिए बरदेबू ने कुछ रास्ता भी बता दिया था, मगर इसके इलावे मेरी किस्मत में भी यही लिखा था कि बनिस्बत घर जाने के जमानिया को जाना पसन्द करूं और वहां अपनी मां की तरह खुद भी फंस जाऊं। अगर मैं घर जाकर अपने पिता से मिलती और यह सब हाल कहती तो दुश्मनों का सत्यानाश भी होता और मेरी मां भी छूट जाती मगर सो न तो मुझको सूझा और न हुआ। इस सम्बन्ध में उस समय मुझको घड़ी-घड़ी इस बात का भी खयाल होता था, मनोरमा मेरा पीछा जरूर करेगी। अगर मैं घर की तरफ जाऊंगी तो निःसन्देह गिरफ्तार हो जाऊंगी।

खैर, मुख्तसर यह है कि बरदेबू के बताए हुए रास्ते से मैं इस तिलिस्म के अन्दर आ पहुंची। आप तो यहां की सब बात का भेद जान ही गए होंगे इसलिए विस्तार के साथ कहने की कोई जरूरत नहीं, केवल इतना ही कहना काफी होगा कि गंगा किनारे एक श्मशान पर जो महादेव का लिंग एक चबूतरे के ऊपर है वही रास्ता आने के लिए बरदेबू ने मुझे बताया था।

इन्दिरा ने अपना हाल यहां तक बयान किया था कि कमलिनी ने रोका और कहा, ”हां-हां, उस रास्ते का हाल मुझे मालूम है, (कुमार से) जिस रास्ते से मैं आप लोगों को निकालकर तिलिस्म के बाहर ले गई थी!”

इन्द्रजीत – ठीक है (इन्दिरा से) अच्छा तब क्या हुआ?

इन्दिरा – मैं इस तिलिस्म के अन्दर आ पहुंची और घूमती-घूमती उसी कमरे में पहुंच गई जिसमें आपने उस दिन मुझे, मेरे पिता और राजा गोपालसिंह को देखा था, जिस दिन आप उस बाग में पहुंचे थे जिसमें मेरी मां कैद थी।

इन्द्रजीत – अच्छा ठीक है, तो उसी खिड़की में से तूने भी अपनी मां को देखा होगा?

इन्दिरा – जी हां, दूर ही से उसने मुझे देखा और मैंने उसे देखा मगर उसके पास न पहुंच सकी। उस समय हम दोनों की क्या अवस्था होगी इसे आप स्वयं समझ सकते हैं। मुझमें कहने की सामर्थ्य नहीं है। (एक लम्बी सांस लेकर) कई दिनों तक व्यर्थ उद्योग करने पर भी जब मुझे निश्चय हो गया कि मैं किसी तरह उसके पास नहीं पहुंच सकती और न उसके छुड़ाने का कुछ बन्दोबस्त ही कर सकती हूं तब मैंने चाहा कि अपने पिता को इन सब बातों की इत्तिला दूं। मगर अफसोस, यह काम मेरे किए न हो सका। मैं किसी तरह इस तिलिस्म के बाहर न जा सकी और मुद्दत तक यहां रहकर ग्रहदशा के दिन काटती रही।

इन्द्रजीत – अच्छा यह बता कि राजा गोपालसिंह वाली तिलिस्मी किताब तुझे क्योंकर मिली?

इन्दिरा – यह हाल भी मैं आपसे कहती हूं।

इतना कहकर इन्दिरा थोड़ी देर के लिए चुप हो गयी और उसके बाद फिर अपना किस्सा शुरू किया ही चाहती थी कि कमरे का दरवाजा जो कुछ घूमा हुआ था यकायक जोर से खुला और राजा गोपालसिंह आते हुए दिखाई पड़े।

बयान – 7

राजा गोपालसिंह को देखते ही सब कोई उठ खड़े हुए और बारी-बारी से सलाम की रस्म अदा की। इस समय भैरोसिंह ने लक्ष्मीदेवी की आंखों से मिलती हुई राजा गोपालसिंह की उस मुहब्बत, मेहरबानी और हमदर्दी की निगाह पर गौर किया जिसे आज के थोड़े दिन पहिले लक्ष्मीदेवी बेताबी के साथ ढूंढ़ती थी या जिसके न पाने से वह तथा उसकी बहिनें तरह-तरह का इलजाम गोपालसिंह पर लगाने का खयाल कर रही थीं।

सभों की इच्छानुसार राजा गोपालसिंह भी दोनों कुमारों के पास ही बैठ गए और सभों के कुशल-मंगल पूछने के बाद कुमार से बोले, ”क्या आपको उस बड़े इजलास की फिक्र नहीं है जो चुनार में होने वाला है, जिसमें भूतनाथ का दिलचम्प मुकद्दमा फैसला किया जायेगा और जिसमें उसका तथा और भी कई कैदियों के सम्बन्ध में एक से एक बढ़कर अनूठा हाल खुलेगा साथ ही इसके मुझे यह भी सन्देह होता है कि आप उनकी तरफ से भी कुछ बेफिक्र हो रहे हैं जिनके लिए…।”

इन्द्र – नहीं-नहीं मैं न तो बेफिक्र हूं और न अपने काम में सुस्ती ही किया चाहता हूं!

गोपाल – क्या हम लोग नहीं जानते कि इधर के कई दिन आपने किस तरह व्यर्थ नष्ट किए हैं और इस समय भी किस बेफिक्री के साथ बैठे गप्पें उड़ा रहे हैं?

इन्द्र (कुछ कहते-कहते रुककर) जी नहीं, इस समय तो हम लोग इन्दिरा का किस्सा सुन रहे थे।

गोपाल इन्दिरा कहीं भागी नहीं जाती थी, यहां नहीं तो चुनार में हर तरह से बेफिक्र होकर आप इसका किस्सा सुन सकते थे, जहां और भी कई अनूठे किस्से आप सुनेंगे। खैर बताइए कि आप इन्दिरा का किस्सा सुन चुके या नहीं?

इन्द्र – हां और सब किस्सा तो सुन चुका केवल इतना सुनना बाकी है कि आपकी वह तिलिस्मी किताब क्योंकर इसके हाथ लगी और यह उस पुतली की सूरत में क्यों वहां रहा करती थी।

गोपाल – इतना किस्सा आप तिलिस्मी कार्रवाई से छुट्टी पाकर सुन लीजिएगा और खैर अगर इस पर ऐसा ही जी लगा हुआ है तो मैं मुख्तसर में आपको समझाये देता हूं क्योंकि मैं यह सब हाल इन्दिरा से सुन चुका हूं। असल यह है कि मेरे यहां दो ऐयार हरनामसिंह और बिहारीसिंह रहते थे। वे रुपये की लालच में पड़कर कम्बख्त मायारानी से मिल गए थे और मुझे कैदखाने में पहुंचाने के बाद वे लोग उसी की इच्छानुसार काम करते थे, मगर बुरी राह चलने वालों को या बुरों का संग करने वालों को जो कुछ फल मिलता है वही उन्हें भी मिला, अर्थात् एक दिन मायारानी ने धोखा देकर उन्हें खास बाग के एक गुप्त कुएं में ढकेल दिया। जिसके बारे में वह केवल इतना ही जानती थी कि वह तिलिस्मी ढंग का कुआं लोगों को मार डालने के लिए बना हुआ है, मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। वह कुआं उन लोगों के लिए बना है जिन्हें तिलिस्म में कैद करना मंजूर होता है। मायारानी को चाहे यह निश्चय हो गया कि दोनों ऐयार मर गए लेकिन वास्तव में वे मरे नहीं बल्कि तिलिस्म में कैद हो गये थे। इस बात को मायारानी बहुत दिनों तक छिपाये रही लेकिन आखिर एक दिन उसने अपनी लौंडी लीला से कह दिया और लीला से यह बात हरनामसिंह की लड़की ने सुन ली।

जब आपने मुझे कैद से छुड़ाया और मैं खुल्लमखुल्ला पुनः जमानिया का राजा बना तब हरनामसिंह की लड़की फरियाद करने के लिए मेरे पास पहुंची और मुझसे वह हाल कहा। मैंने जवाब में कहा कि ‘वे दोनों ऐयार उस कुएं में ढकेल देने से मरे नहीं बल्कि तिलिस्म में कैद हो गए हैं जिन्हें मैं छुड़ा तो सकता हूं मगर उन दोनों ने मेरे साथ दगा की है इसलिए छुड़ाने योग्य नहीं हैं और न मैं उन्हें छुड़ाऊंगा ही।’ इतना सुन वह चली गई मगर छिपे-छिपे उसने ऐसा भेद लगाया और चालाकी की जिसे सुनेंगे तो दंग हो जायेंगे। मुख्तसर यह कि अपने बाप को छुड़ाने की नीयत से उसी लड़की ने मेरी तिलिस्मी किताब चुराई और उसकी मदद से तिलिस्म के अन्दर पहुंची, मगर उस किताब का मतलब ठीक-ठीक न समझने के सबब वह न तो अपने बाप को छुड़ा सकी और न खुद ही तिलिस्म के बाहर निकल सकी, हां उसी जगह अकस्मात् इन्दिरा से उसकी मुलाकात हो गई। इन्दिरा को भी अपनी तरह दुःखी जानकर उसने सब हाल इससे कहा और इन्दिरा ने चालाकी से वह किताब अपने कब्जे में कर ली तथा उससे बहुत कुछ फायदा भी उठाया। तिलिस्म में आने-जाने वालों से अपने को बचाने के लिए इन्दिरा उस पुतली की सूरत बनकर रहने लगी, क्योंकि उसी ढंग के कपड़े इन्दिरा को उस पुतली वाले घर से मिल गए थे। जब मैंने इन्दिरा से यह हाल सुना तो बिहारीसिंह और हरनामसिंह तथा उसकी लड़की को बाहर निकाला। वे सब भी चुनारगढ़ पहुंचाए जा चुके हैं। जब आप चुनारगढ़ पहुंचेंगे तो औरों के साथ-साथ उन लोगों का भी तमाशा देखेंगे, तथा…।

लक्ष्मीदेवी – (गोपालसिंह से) मगर आप इन बातों को इतनी जल्दी-जल्दी और संक्षेप में कहकर कुमारों को भगाना क्यों चाहते हैं इन्हें यहां अगर एक दिन की देर ही हो जायगी तो क्या हर्ज है?

कमलिनी – मेहमानदारी के खयाल से जल्द छूटना चाहते हैं!

गोपाल – औरतों का काम तो आवाज कसने का हई है मगर मैं किसी और ही सबब से जल्दी मचा रहा हूं। महाराज (वीरेन्द्रसिंह) के पत्र बराबर आ रहे हैं कि दोनों कुमारों को शीघ्र भेज दो, इसके अतिरिक्त वहां कैदियों का जमाव हो रहा है और नित्य एक नया रंग खिलता है। वहां जितनी आफतें थीं वह सब जाती रहीं…।

लक्ष्मी – (बात काटकर) तो कुमार को और हम लोगों को आप तिलिस्म के बाहर क्यों नहीं ले चलते वहां से कुमार बहुत जल्दी चुनार पहुंच सकते हैं।

गोपाल – (कुमार से) आप इस समय मेरे साथ तिलिस्म के बाहर जा सकते हैं मगर ऐसा होना न चाहिए। आप लोगों के हाथ से जो कुछ तिलिस्म टूटने वाला है उसे तोड़कर ही आपका इस तिलिस्म के अन्दर ही अन्दर चुनार पहुंचना उचित होगा। जब आपकी शादी हो जायगी तब मैं आपको यहां लाकर अच्छी तरह इस तिलिस्म की सैर कराऊंगा। इस समय मैं (किशोरी, कामिनी, इन्दिरा वगैरह की तरफ बताकर) इन सभों को लेकर खास बाग में जाता हूं क्योंकि अब वहां सब तरह से शान्ति हो चुकी है और किसी तरह का अन्देशा नहीं। वहां आठ-दस दिन रहकर सभों को लिए हुए मैं चुनार चला जाऊंगा और तब उसी जगह आपसे हम लोगों की मुलाकात होगी।

इन्द्रजीत – जो कुछ आप कहते हैं वही होगा मगर यहां की अद्भुत बातें देखकर मेरे दिल में कई तरह का खुटका बना हुआ है…।

गोपाल – वह सब चुनार में निकल जायगा, यहां मैं आपको कुछ न बताऊंगा। देखिए अब रात बीता चाहती है, सबेरा होने के पहिले ही आपको अपने काम में हाथ लगा देना चाहिए।

लक्ष्मी – (हंसकर) आप क्या आये मानो भूचाल आ गया! अच्छी जल्दी मचाई, बात तक नहीं करने देते! (कुमार से) जरा इन्हें अच्छी तरह जांच तो लीजिए, कहीं कोई ऐयार रूप बदलकर न आया हो।

गोपाल – (इन्द्रजीतसिंह के कान में कुछ कहकर) बस अब आप विलम्ब न कीजिए।

इन्द्रजीत – (उठकर) अच्छा तो फिर मैं प्रणाम करता हूं और भैरोसिंह को भी आपके ही सुपुर्द किए जाता हूं। (लक्ष्मीदेवी से) आप किसी तरह की चिन्ता न करें, ये (गोपालसिंह) वास्तव में हमारे भाई साहब ही हैं, अस्तु अब चुनार में पुनः मुलाकात की उम्मीद करता हुआ मैं आप लोगों से बिदा होता हूं।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने मुस्कुराते हुए सभों की तरफ देखा और आनन्दसिंह ने भी बड़े भाई का अनुसरण किया। राजा गोपालसिंह दोनों कुमारों को लिए कमरे के बाहर चले गए और कुछ देर तक बातचीत करने तथा समझाकर बिदा करने के बाद पुनः कमरे में चले आये।

बयान – 8

यद्यपि चुनारगढ़ वाले तिलिस्पी खंडहर की अवस्था ही जीतसिंह ने बदल दी और अब वह आला दर्जे की इमारत बन गई है मगर उसके चारों तरफ दूर-दूर तक जो जंगलों की शोभा थी उसमें किसी तरह की कमी उन्होंने न होने दी।

सुबह को सोहावना समय है और राजा सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह तथा तेजसिंह वगैरह धुर ऊपर वाले कमरे में बैठे जंगल की शोभा देखने के साथ ही साथ आपस में धीरे-धीरे बात भी करते जाते हैं। जंगली पेड़ों के पत्तों से छनी और फूलों की महक से सोंधी भई दक्षिणी हवा के झपेटे आ रहे हैं और रात भर की चुप बैठी हुई तरह-तरह की चिड़ियां सबेरा होने की खुशी में अपनी सुरीली आवाजों से लोगों का जी लुभा रही हैं। स्याह तीतर अपनी मस्त और बंधी हुई आवाज से हिन्दू-मुसलमान, कुंजड़े और कस्साब में झगड़ा पैदा कर रहे हैं। मुसलमान कहते हैं कि तीतर साफ आवाज में यही कह रहा है कि ‘सुब्हान तेरी कुदरत’ मगर हिन्दू इस बात को स्वीकार नहीं करते, कहते हैं कि यह स्याह तीतर ‘राम लक्ष्मण दशरथ’ कहकर अपनी भक्ति का परिचय दे रहा है। कुंजड़े इसे भी नहीं मानते और उसकी बोली का मतलब ‘मूली प्याज अदरक’ समझकर अपना दिल खुश कर रहे हैं, परन्तु कस्साबों को सिवाय इसके और कुछ नहीं सूझता कि यह तीतर ‘कर जबह और ढक रख’ का उपदेश दे रहा है।

इसी समय देवीसिंह भी वहां आ पहुंचे और भूतनाथ और बलभद्रसिंह के हाजिर होने की इत्तिला दी। इच्छानुसार दोनों ने सामने आकर सलाम किया और फर्श पर बैठने के बाद इशारा पाकर भूतनाथ ने तेजसिंह से कहा –

भूत – (बलभद्रसिंह की तरफ इशारा करके) इनका हाल सुनने के लिए जी बेचैन हो रहा है, मैं इनसे कई दफे पूछ चुका हूं मगर ये कुछ कहते नहीं।

तेज – (बलभद्रसिंह से) अब तो आपकी तबियत ठिकाने हो गई होगी?

बल – जी हां, अब मैं बहुत अच्छा और अपना हाल कहने के लिए तैयार हूं।

तेज – अच्छी बात है, हम लोग भी सुनने के लिए तैयार हैं और आप ही का इन्तजार कर रहे थे।

सभों का ध्यान बलभद्रसिंह की तरफ खिंच गया और बलभद्रसिंह ने अपने गायब होने का हाल इस तरह कहना शुरू किया –

इस बात की तो मुझे कुछ भी खबर नहीं कि मुझे कौन ले गया और क्योंकर ले गया। उस दिन मैं भूतनाथ के पास ही एक चारपाई पर सो रहा था और जब मेरी आंख खुली तो मैंने अपने को एक हरे-भरे और खूबसूरत बाग में पाया। उस समय मैं बिल्कुल मजबूर था अर्थात् मेरे हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी पड़ी हुई थी और एक औरत नंगी तलवार लिए मेरे सामने खड़ी थी। मैंने सोचा कि अब मेरी जान नहीं बचती और मेरे भाग्य ही में कैदी बनकर जान देना बदा है। बहुत-सी बातें सोच-विचारके मैंने उस औरत से पूछा कि ‘तू कौन है और मैं यहां क्योंकर पहुंचा हूं? जिसके जवाब में उस औरत ने कहा कि ‘तुझे मैं यहां ले आई हूं और इस समय तू मेरा कैदी है। मैं जिस मुसीबत में फंसी हुई हूं उससे छुटकारा पाने के लिए इसके सिवाय और कोई तर्कीब न सूझी कि तुझे अपने कब्जे में करके अपने छुटकारे की सूरत निकालूं क्योंकि मेरा दुश्मन तेरे ही कब्जे में है। अगर तू उसे समझा-बुझाकर राह पर ले आवेगा तो मेरे साथ-साथ तेरी जान बच जायगी।’

उस औरत की बातें सुनकर मुझे बड़ा ही ताज्जुब हुआ और मैंने उससे पूछा, ‘वह है कौन जो तेरा दुश्मन है और मेरे कब्जे में है?

औरत – तेरी बेटी कमलिनी मेरे साथ दुश्मनी कर रही है।

मैं – क्यों?

औरत – उसकी खुशी, मैंने तो उसका नुकसान नहीं किया।

मैं – आखिर दुश्मनी का कोई सबब भी तो होगा?

औरत – अगर कोई सबब है तो केवल इतना ही कि वह भूतनाथ का पक्ष करती है और मुझे भूतनाथ का दुश्मन समझती है मगर मैं कसम खाकर कहती हूं कि मुझे भूतनाथ से जरा भी रंज नहीं है बल्कि मैं भूतनाथ को अपना मददगार और भाई समझती हूं। और मुझे भूतनाथ से किसी तरह का रंज होता तो मैं तुझे गिरफ्तार करके न लाती बल्कि भूतनाथ ही को ले आती। क्योंकि जिस तरह मैं तुझे उठा लाई हूं उसी तरह भूतनाथ को भी उठा ला सकती थी। खैर, अब मैं चाहती हूं कि तू एक चीठी कमलिनी के नाम की लिख दे कि वह मेरे साथ दुश्मनी का बर्ताव न करे। अगर तू अपनी कसम देके यह बात कमलिनी को लिख देगा तो वह जरूर मान जायगी।

मैंने कई तरह से, उलट-फेरके, कई तरह की बातें उस औरत से पूछीं मगर साफ-साफ न मालूम हुआ कि कमलिनी उसके साथ दुश्मनी क्यों करती है इसके अतिरिक्त मुझे इस बात का भी निश्चय हो गया कि जब तक मैं कमलिनी के नाम की चीठी न लिख दूंगा तब तक मेरी जान को छुट्टी न मिलेगी। चीठी लिखने से इनकार करने के कारण कई दिनों तक मैं उसका कैदी बना रहा, आखिर लाचार हो मैंने उसकी इच्छानुसार पत्र लिख दिया, तब उसने बेहोशी की दवा सुंघाकर मुझे बेहोश किया और उसके बाद जब मेरी आंख खुली तो मैंने अपने को आपके सामने पाया।

भूत – आपको यह नहीं मालूम हुआ कि उस औरत का नाम क्या था?

बल – मैंने कई दफे नाम पूछा मगर उसने न बताया।

मालूम होता है कि बलभद्रसिंह ने अपना जो कुछ हाल बयान किया उस पर हमारे राजा साहब या ऐयारों को विश्वास न हुआ मगर उनकी खातिर से तेजसिंह ने कह दिया कि ‘ठीक है, ऐसा ही होगा।’

बलभद्रसिंह और भूतनाथ को राजा साहब बिदा किया ही चाहते थे कि उसी समय इन्द्रदेव के आने की इत्तिला मिली। आज्ञानुसार इन्द्रदेव हाजिर हुए और सभों को सलाम करने के बाद इशारा पाकर तेजसिंह के बगल में बैठ गए।

इन्द्रदेव के आने से हमारे राजा साहब और ऐयारों को बड़ी खुशी हुई और इसीलिए पन्नालाल, रामनारायण और पं. बद्रीनाथ वगैरह हमारे बाकी के ऐयार लोग भी जो इस समय यहां हाजिर और इस इमारत के बाहरी तरफ टिके हुए थे इन्द्रदेव के साथ ही साथ राजा साहब के पास आ पहुंचे क्योंकि इन्द्रदेव, बलभद्रसिंह और भूतनाथ का अनूठा हाल जानने के लिए सभी बेचैन हो रहे थे और खास करके भूतनाथ के मुकद्दमे से तो सभों को दिलचस्पी थी। इसके अतिरिक्त इन्द्रदेव अपने साथ दो कैदी अर्थात् नकली बलभद्रसिंह और नागर को भी लाए थे और बोले थे कि ‘काशिराज के भेजे हुए और भी कई कैदी थोड़ी देर में हाजिर हुआ चाहते हैं’ जिस कारण हमारे ऐयारों की दिलचस्पी और भी बढ़ रही थी।

सुरेन्द्र – तुम्हारे आने से हम लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। इन्द्रजीत और गोपालसिंह तुम्हारी बड़ी प्रशंसा करते हैं और वास्तव में तुमने जो कुछ किया है वह प्रशंसा के योग्य भी है।

इन्द्रदेव – (हाथ जोड़कर) मैं तो किसी योग्य भी नहीं हूं और न कोई काम ही मेरे हाथ से ऐसा निकला जिससे महाराज के गुलाम के बराबर भी अपने को समझने की प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकूं – हां दुर्दैव ने जो कुछ मेरे साथ बर्ताव किया और उसके सबब से मुझ अभागे को जो कष्ट भोगने पड़े उन्हें सुनकर दयालु महाराज को मुझ पर दया अवश्य आई होगी।

सुरेन्द्र – हम लोग ईश्वर को धन्यवाद देते हैं जिसकी कृपा से एक विचित्र और अनूठी घटना के साथ तुम्हारी स्त्री और लड़की का पता लग गया और तुमने उन दोनों को जीती-जागती देखा।

इन्द्र – यह सब-कुछ आपके और कुमारों के चरणों की बदौलत हुआ। वास्तव में तो मैं भाड़े की जिन्दगी बिताता हुआ दुनिया से विरक्त ही हो चुका था। अब भी वे दोनों आप लोगों के चरणों की धूल आंखों में लगा लेंगी तभी मेरी प्रसन्नता का कारण होंगी। आशा है कि आज ही या कल तक राजा गोपालसिंह भी उन दोनों तथा किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाडिली और कमला इत्यादि को लेकर यहां आवें और महाराज के चरणों का दर्शन करेंगे।

सुरेन्द्र – (आश्चर्य और प्रसन्नता के साथ) हां! क्या गोपाल ने तुम्हें कुछ लिखा है?

इन्द्रदेव – जी हां, उन्होंने मुझे लिखा है कि ‘मैं शीघ्र ही उन सभों को लेकर महाराज की सेवा में उपस्थित हुआ चाहता हूं। तुम भी अपने दोनों कैदी नकली बलभद्रसिंह और नागर को लेकर काशिराज से मिलते हुए चुनार जाओ और काशिराज ने हम पर कृपा करके हमारे जिन दुश्मनों को कैद कर रखा है अर्थात् बेगम, जमालो और नौरतन वगैरह को भी अपने साथ लेते जाओ।’ अस्तु इस समय उन्हीं के लिखे अनुसार मैं सेवा में उपस्थित हुआ हूं!

सुरेन्द्र – (उत्कण्ठा के साथ) तो क्या तुम उन लोगों को भी अपने साथ लेते आए हो

इन्द्रदेव – जी हां और उन सभों को बाहर सरकारी सिपाहियों की सुपुर्दगी में छोड़ आया हूं। बेगम वगैरह का हाल तो काशिराज ने महाराज को लिखा होगा?

सुरेन्द्र – हां काशिराज ने गोपालसिंह को लिखा था कि तुम्हारे ऐयार भूतनाथ के निशान देने के मुताबिक बलभद्रसिंह के दुश्मन गिरफ्तार कर लिए गए हैं और मनोरमा का मकान भी जब्त कर लिया गया है। गोपालसिंह ने यह समाचार मुझको लिखा था!

इन्द्रदेव – ठीक है तो अब उन कैदियों के लिए भी उचित प्रबन्ध कर देना चाहिए जिन्हें मैं अपने साथ लाया हूं।

सुरेन्द्र – उसका प्रबन्ध बद्रीनाथ कर चुके होंगे क्योंकि कैदियों का इन्तजाम उन्हीं के सुपुर्द है।

बद्री – (इन्द्रदेव से) उनके लिए आप तरद्दुद न करें क्योंकि वे लोग अपने उचित स्थान पर पहुंचा दिये गए।

पन्नालाल – (सुरेन्द्रसिंह से – भूतनाथ और बलभद्रसिंह की तरफ बताकर) मगर इन दोनों महाशयों में से जिनकी खातिरदारी मेरे सुपुर्द की गई यह बलभद्रसिंह कहते हैं कि मैं महाराज का अन्न न खाऊंगा बल्कि अपने आराम की कोई चीज भी यहां से न लूंगा क्योंकि अब यह बात मालूम हो चुकी है कि राजा गोपालसिंह महाराज के पोते हैं और…।

सुरेन्द्र – ठीक है, वास्तव में ऐसा ही होना चाहिए। (बलभद्रसिंह से) मगर आप बहुत-सी मुसीबत और कैद से छूटकर आए हैं इसलिए आपके पास रुपये-पैसे की जरूर कमी होगी, फिर आप क्योंकर अपने लिए हर तरह का सामान जुटा सकेंगे

बलभद्र – मैं भी इसी फिक्र में डूबा हुआ था मगर ईश्वर ने बड़ी कृपा की जो मेरे प्यारे मित्र इन्द्रदेव को यहां भेज दिया। अब मुझे किसी तरह की तकलीफ न होगी, जो कुछ जरूरत पड़ेगी मैं इनसे ले लूंगा, फिर इसके बाद मुझे यह भी आशा है कि दुष्टों का मुकद्दमा हो जाने पर बेगम के कब्जे से निकली हुई मेरी दौलत भी मुझे मिल जायगी।

इन्द्र – (हाथ जोड़कर महाराज सुरेन्द्रसिंह से) मेरे मित्र बलभद्रसिंह जो कुछ कह रहे हैं ठीक है और आशा है कि महाराज भी इस बात को स्वीकार कर लेंगे।

सुरेन्द्र – (पन्नालाल से) खैर ऐसा ही किया जाय, इन्द्रदेव का डेरा बलभद्रसिंह के साथ ही करा दो जिससे ये दोनों मित्र प्रसन्नता से आपस में बातें करते रहें।

इन्द्रदेव – (हाथ जोड़कर) मैं भी यही अर्ज किया चाहता था। आज न मालूम किस तरह, कितने दिनों के बाद, ईश्वर ने मित्र – दर्शन का सुख दिया है, सो भी ऐसे मित्र का दर्शन जिसके मिलने की आशा कर ही नहीं सकते थे और इसके लिए हम लोग भूतनाथ के बड़े ही कृतज्ञ हैं।

भूतनाथ – यह सब महाराज के चरणों का प्रताप है जिनके सदैव दर्शन के लोभ से महाराज का कुछ न बिगाड़ने पर भी मैं अपने को दोषी बनाए और भगवती की कृपा पर भरोसा किए बैठा हुआ हूं।

इन्द्रदेव – (महाराज की तरफ देखके) वास्तव में ऐसा ही है। अभी तक जो कुछ मालूम हुआ है उससे तो यही जाना जाता है कि भूतनाथ ने महाराज के यहां एक दफे चोरी करने के अतिरिक्त और कोई काम ऐसा नहीं किया जिससे महाराज या महाराज के सम्बन्धियों को दुःख हो…।

भूतनाथ – (लज्जा ने नीची गर्दन करके) और सो भी बदनीयती के साथ नहीं!

इन्द्रदेव – आगे चलकर और कोई बात जानी जाय तो मैं नहीं कह सकता, मगर…।

भूत – ईश्वर न करे ऐसा हो।

बीरेन्द्र – भूतनाथ ने अगर हम लोगों का कोई कसूर किया भी हो तो अब हम उस पर ध्यान नहीं दे सकते क्योंकि रोहतासगढ़ के तहखाने में मैं भूतनाथ का कसूर माफ कर चुका हूं।

भूत – ईश्वर आपका सहायक रहे!

इन्द्रदेव – लेकिन अगर भूतनाथ ने किसी ऐसे के साथ बुरा बर्ताव किया हो जिससे आज के पहिले महाराज का कोई सम्बन्ध न था तो उस पर भी महाराज को विशेष ध्यान न देना चाहिए।

तेज – जी हां मगर इसमें कोई शक नहीं कि भूतनाथ की जीवनी अनेक अद्भुत-अनूठी और दुखद घटनाओं से भरी हुई है। मैं समझता हूं कि भूतनाथ ने लोगों के दिल पर अपना भयानक प्रभाव तो पैदा किया परन्तु अपने कामों की बदौलत अपने को सुखी न बना सका, उलटा इसने जमाने को दिखा दिया कि प्रतिष्ठा और सभ्यता का पल्ला छोड़कर केवल लक्ष्मी का कृपापात्र बनने के लिए उद्योग और उत्साह दिखाने वाले का परिणाम कैसा होता है।

इन्द्रदेव – निःसन्देह ऐसा ही है। अगर भूतनाथ उसके साथ ही साथ प्रतिष्ठा का पल्ला भी मजबूती के साथ पकड़े होता और इस बात पर ध्यान रखता कि जो कुछ करे वह इसकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध न होने पावे तो आज दुनिया में भूतनाथ तीसरे दर्जे का ऐयार कहा जाता।

जीत – (मुस्कुराकर) मगर सुना जाता है कि अब भूतनाथ इज्जत और हुर्मत की मीनार पर चढ़कर दुनिया की सैर किया चाहता है और यह बात देवताओं को भी वश में कर लेने वाले मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर नहीं।

इन्द्रदेव – अगर सिफारिश न समझी जाय तो मैं यह कहने का हौसला कर सकता हूं कि दुनिया में इज्जत और हुर्मत उसी को मिल सकती है जो इज्जत और हुर्मत का उचित बर्ताव करता हुआ किसी बड़े इज्जत और हुर्मत वाले का कृपापात्र बने।

देवी – भूतनाथ का खयाल भी आजकल इन्हीं बातों पर है। मैंने बहुत दिनों तक छिपे – छिपे भूतनाथ का पीछा करके जान लिया है कि भूतनाथ को होशियारी, चालाकी और ऐयारी की विद्या के साथ ही साथ दौलत की कमी भी नहीं है। अगर यह चाहे तो बेफिक्री के साथ अमीराना ढंग पर अपनी जिन्दगी बिता सकता है, मगर भूतनाथ इसे पसन्द नहीं करता और खूब समझता है कि वह सच्चा सुख जो प्रतिष्ठा, सभ्यता और सज्जनता के साथ सज्जन और मित्र मण्डली में बैठकर हंसने-बोलने से प्राप्त होता है और ही कोई वस्तु है और उसके बिना मनुष्य का जीवन वृथा है।

बलभद्र – बेशक, यही सबब है कि आजकल भूतनाथ अपना समय ऐसे ही कामों और विचारों में बिता रहा है और चाहता है कि अपना चेहरा बेदाग आईने में उसी तरह देख सके जिस तरह हीरा निर्मल जल में, मगर इसके लिए भूतनाथ को अपने पुराने मालिक से भी मदद लेनी चाहिए।

इन्द्रदेव – (कुछ चौंककर) हां, मैं यह निवेदन करना तो भूल ही गया कि आज ही कल में यहां रणधीरसिंह भी आने वाले हैं, अस्तु उनके लिए महाराज को प्रबन्ध कर देना चाहिए।

यह एक ऐसी बात थी जिसने भूतनाथ को चौंका दिया और वह थोड़ी देर के लिए किसी गम्भीर चिन्ता में निमग्न हो गया, मगर उद्योग करके उसने शीघ्र ही अपने दिल को सम्हाला और कहा –

भूतनाथ – क्योंकि वे महाराज के मेहमान बनकर इस मकान में रहना कदाचित् स्वीकार न करेंगे।

जीत – ठीक है, तो उनके लिए दूसरा प्रबन्ध किया जायगा।

इन्द्र – उनका आदमी उनके लिए खेमा वगैरह सामान लेकर आता ही होगा।

जीत – (इन्द्रदेव से) हमारे पास कोई इत्तिला तो नहीं आई!

इन्द्रदेव – जी यह काम भी मेरे ही सुपुर्द किया गया था।

जीत – तो क्या तुम्हारे पास उनका कोई आदमी या पत्र गया था?

इन्द्र – जी नहीं, वे स्वयं राजा गोपालसिंह के पास यह सुनकर गए थे कि माधवी उन्हीं के यहां कैद है, क्योंकि उन्होंने अपने हाथ से माधवी को मार डालने का प्रण किया था…।

सुरेन्द्र – (ताज्जुब से) तो क्या उन्होंने माधवी को अपने हाथों से मारा?

इन्द्र – जी नहीं, अपने खानदान की एक लड़की को मारकर हाथ रंगने की बनिस्बत प्रतिज्ञा भंग करना उन्होंने उत्तम समझा, उस समय मैं भी वहां था।

भूत – (सुरेन्द्रसिंह से हाथ जोड़कर) यदि मुझे आज्ञा हो तो खेमा वगैरह खड़ा करने का इन्तजाम मैं करूं और समय पर अगवानी के लिए कुछ दूर जाकर अपना कलंकित मुख उनको दिखाऊं। यद्यपि मैं इस योग्य नहीं हूं और न वे मेरी सूरत देखना पसन्द ही करेंगे मगर उनके नमक से पला हुआ यह शरीर उनसे दुर्दुराया जाकर भी अपनी प्रतिष्ठा ही समझेगा।

सुरेन्द्र – ठीक है मगर उनकी इच्छा के विरुद्ध ऐसा करने की आज्ञा हम नहीं दे सकते। हां, यदि तुम अपनी इच्छा से ऐसा करो तो हम रोकना भी उचित नहीं समझेंगे।

ये बातें हो ही रही थीं कि जमानिया से राजा गोपालसिंह के कूच करने की इत्तिला मिली, इस तौर पर कि – ‘किशोरी, कामिनी और लक्ष्मीदेवी वगैरह को लिए राजा गोपालसिंह चले आ रहे हैं।’

बयान – 9

चुनारगढ़ वाली तिलिस्मी इमारत के चारों तरफ छोटे-बड़े सैकड़ों खेमों-डेरों-रावटियों और शामियानों की बहार दिखाई दे रही है, जिनमें से बहुतों में लोगों के डेरे पड़ चुके हैं और बहुत अभी तक खाली पड़े हैं मगर वे भी धीरे-धीरे भर रहे हैं। किशोरी के नाना रणधीरसिंह और किशोरी, कामिनी वगैरह को लिए हुए राजा गोपालसिंह भी आ गए और इन लोगों के साथ कुछ फौजी सिपाही भी आ पहुंचे हैं जो कायदे के साथ रावटियों में डेरा डाले हुए हैं। किशोरी इत्यादि महल में पहुंचा दी गई हैं जिनके सबब से अन्दर तरह-तरह की खुशियां मनाई जा रही हैं। राजा गोपालसिंह का डेरा भी तिलिस्मी इमारत के अन्दर ही पड़ा है। राजा वीरेन्द्रसिंह ने उनके लिए अपने कमरे के पास ही एक सुन्दर और सजा हुआ कमरा मुकर्रर कर दिया है, और उनके (गोपालसिंह के) साथी लोग इमारत के बाहर वाले खेमों में उतरे हुए हैं। इसी तरह रणधीरसिंह का भी डेरा इमारत के बाहर उन्हीं के भेजे हुए खेमे में पड़ा है और वे यहां पहुंचकर राजा सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह तथा और लोगों से मुलाकात करने के बाद किशोरी और कमला से मिलकर खुश हो चुके हैं और साथ ही इसके भूतनाथ की नजर भी कबूल कर चुके हैं जिसकी उम्मीद भूतनाथ को कुछ भी न थी।

इसी तरह राजा वीरेन्द्रसिंह के बचे हुए ऐयार लोग भी जो यहां मौजूद न थे अब आ गए हैं, यहां तक कि रोहतासगढ़ से ज्योतिषीजी का डेरा भी आ गया है और वे भी तिलिस्मी इमारत के बाहर एक खेमे में टिके हुए हैं।

इनके अतिरिक्त कई बड़े-बड़े रईस, जमींदार और महाजन लोग भी गया, रोहतासगढ़, जमानिया और चुनार वगैरह से राजा वीरेन्द्रसिंह को नजर और मुबारकबाद देने की नीयत से आये हुए हैं, जिनके सबब से यहां खूब अमन-चमन हो रहा है और सभों को यह भी विश्वास है कि कुंअर इन्द्रजीसिंह और आनन्दसिंह भी तिलिस्म फतह करते हुए शीघ्र आया चाहते हैं और उनके आने के साथ ही ब्याह-शादी के जलसे शुरू हो जायंगे। साथ ही इसके भूतनाथ वगैरह के मुकद्दमे से भी सभों को दिलचस्पी हो रही है, यहां तक कि बहुत-से लोग केवल इसी कैफियत को देखने-सुनने की नीयत से आए हुए हैं।

तिलिस्मी इमारत के बाहर एक छोटा-सा बाजार लग गया है जिसमें जरूरी चीजें तथा खाने का कच्चा गल्ला तथा सब तरह का सामान मेहमानों के लिए मौजूद है और राजा साहब की आज्ञा है कि जिसको जिस चीज की जरूरत हो दी जाय और उसकी कीमत किसी से भी न ली जाय। इस काम की निगरानी के लिए कई नेक और ईमानदार मुन्शी मुकर्रर हैं जो अपना काम बड़ी खूबी और नेकनीयत के साथ कर रहे हैं। यह बात तो हुई है मगर लोगों को आश्चर्य के साथ उस समय और भी आनन्द मिलता है जब एक बहुत बड़े खेमे या पण्डाल के अन्दर कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की शादी का सामान इकट्ठा होते देखते हैं।

कैदियों को किसी खेमे में जगह नहीं मिली है बल्कि वे सब तिलिस्मी इमारत के अन्दर एक ऐसे स्थान में रक्खे गये हैं जो उन्हीं के योग्य है, मगर भूतनाथ बिल्कुल आजाद है और आश्चर्य के साथ लोगों की उंगलियां उठवाता हुआ इस समय चारों तरफ घूम रहा है और मेहमानों की खातिरदारी का खयाल भी करता रहता है।

राजा साहब की आज्ञानुसार तिलिस्मी इमारत के अन्दर पहिले खण्ड में एक बहुत बड़ा दालान उस आलीशान दरबार के लिए सजाया जा रहा है जिसमें पहिले तो भूतनाथ तथा अन्य कैदियों का मुकद्दमा फैसला किया जायगा और बाद में दोनों कुमारों के ब्याह की महफिल का आनन्द लोगों को मिलेगा और इसे लोग ‘दरबारेआम’ के नाम से सम्बोधन करते हैं। इसके अतिरिक्त ‘दरबारे-खास’ के नाम से दूसरी मंजिल पर एक और कमरा सजाकर तैयार हुआ है जिसमें नित्य पहर दिन चढ़े तक दरबार हुआ करेगा और उसमें खास-खास तथा ऐयारी पेशे वाले बैठकर जरूरी कामों पर विचार किया करेंगे। इस समय हम अपने पाठकों को भी इसी दरबारेखास में ले चलकर बैठाते हैं।

एक ऊंची गद्दी पर महाराज सुरेन्द्रसिंह और उनके बाईं तरफ राजा वीरेन्द्रसिंह बैठे हुए हैं। सुरेन्द्रसिंह के दाहिने तरफ जीतसिंह और वीरेन्द्रसिंह के बाई तरफ तेजसिंह बैंठे हैं और उनके बगल में क्रमशः देवीसिंह, पण्डित बद्रीनाथ, रामनारायण, जगन्नाथ ज्योतिषी, पन्नालाल और भूतनाथ वगैरह दिखाई दे रहे हैं और भूतनाथ के बगल में चुन्नीलाल हाथ में नंगी तलवार लिए खड़ा है। उधर जीतसिंह के बगल में राजा गोपालसिंह और फिर क्रमशः बलभद्रसिंह, इन्ददेव, भैरोसिंह वगैरह बैठे हैं और उनके बगल में नाहरसिंह नंगी तलवार लिए खड़ा है और इस बात पर विचार हो रहा है कि कैदियों का मुकद्दमा कब से शुरू किया जाय तथा उस सम्बन्ध में किन-किन बातों या चीजों की जरूरत है।

इसी समय चोबदार ने आकर अदब से अर्ज किया – ”महल के दरवाजे पर एक नकाबपोश हाजिर हुआ है जो पूछने पर अपना परिचय नहीं देता परन्तु दरबार में हाजिर होने की आज्ञा मांगता है।”

इस खबर को सुनकर तेजसिंह ने राजा साहब की तरफ देखा और इशारा पाकर उस सवार को हाजिर करने के लिए चोबदार को हुक्म दिया।

वह नौजवान नकाबपोश सवार जो सिपाहियाना ठाठ के बेशकीमत कपड़ों से अपने को सजाए हुए था, हाजिर होने की आज्ञा पाकर घोड़े से उतर पड़ा। अपना नेजा जमीन में गाड़कर उसी के सहारे घोड़े की लगाम अटकाकर वह इमारत के अन्दर गया और चोबदार के साथ घूमता-फिरता दरबारे-खास में हाजिर हुआ। महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और तेजसिंह को अदब से सलाम करने के बाद उसने अपना दाहिना हाथ जिसमें एक चीठी थी दरबार की तरफ बढ़ाया और देवीसिंह ने उसके हाथ से पत्र लेकर तेजसिंह के हाथ में दे दिया। तेजसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह को दिया। उन्होंने उसे पढ़कर तेजसिंह के हवाले किया और इसके बाद वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह ने भी वह पत्र पढ़ा।

जीत – (नकाबपोश से) इस पत्र के पढ़ने से जाना जाता है कि खुलासा हाल तुम्हारी जुबानी मालूम होगा?

नकाबपोश – (हाथ जोड़कर) जी हां मेरे मालिकों ने यह अर्ज करने के लिए मुझे यहां भेजा है कि ‘हम दोनों भूतनाथ तथा और कैदियों का मुकद्दमा सुनने के समय उपस्थित रहने की इच्छा रखते हैं और आशा करते हैं कि इसके लिए महाराज प्रसन्नता के साथ हम लोगों को आज्ञा देंगे। हम लोग यह प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि हम लोगों के हाजिर होने का नतीजा देखकर महाराज प्रसन्न होंगे।’

जीत – मगर पहिले यह तो बताओ कि तुम्हारे मालिक कौन हैं और कहां रहते हैं?

नकाबपोश – इसके लिए आप क्षमा करें क्योंकि हमारे मालिक लोग अभी अपने को प्रकट नहीं किया चाहते और इसलिए जब यहां उपस्थित होंगे तो अपने चेहरे पर नकाब डाले होंगे। हां, मुकद्दमा खतम हो जाने के बाद वे अपने को प्रसन्नता के साथ प्रकट कर देंगे। आप देखेंगे कि उनकी मौजूदगी में मुकद्दमा सुनने के समय कैसे-कैसे गुल खिलते हैं जिससे आशा है कि महाराज भी बहुत प्रसन्न होंगे।

जीत – कदाचित् तुम्हारा कहना ठीक हो मगर ऐसे मुकद्दमों में जिन्हें घरेलू मुकद्दमे भी कह सकते हैं अपरिचित लोगों को शरीक होने और बोलने की आज्ञा महाराज कैसे दे सकते हैं?

नकाब – ठीक है, महाराज मालिक हैं जो उचित समझें करें मगर इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि अगर उस समय हमारे मालिक लोग (केवल दो आदमी) उपस्थित न होंगे तो मुकद्दमे की बारीक गुत्थी सुलझ न सकेगी, और यदि वे पहिले ही से अपने को प्रकट कर देंगे तो…।

जीत – (तेजसिंह से) इस विषय में उचित यही है कि एकान्त में इस नकाबपोश से बातचीत की जाय।

तेज – (हाथ जोड़कर) जो आज्ञा।

इतना कहकर तेजसिंह उठे और उस नकाबपोश को साथ लिये हुए एकान्त में चले गए।

इस नकाबपोश को देखकर सभी हैरान थे। इसकी सिपाहियाना चुस्त और बेशकीमत पोशाक, इसका बहादुराना ढंग और इसकी अनूठी बातों ने सभों के दिल में खलबली पैदा कर दी थी, खास करके भूतनाथ के पेट में तो चूहे दौड़ने लग गये और उसने इस नकाबपोश की अससियत जानने का खयाल अपने दिल में मजबूती के साथ बांध लिया था। यही कारण था कि जब थोड़ी देर बाद तेजसिंह उस नकाबपोश से बातें करके और उसको साथ लिये हुए वापस आए तब सभों का ध्यान उसी तरफ चला गया और सभी यह जानने के लिए व्यग्र होने लगे कि देखें तेजसिंह क्या कहते हैं।

तेजसिंह ने अपने बाप जीतसिंह की तरफ देखकर कहा, ”मेरे खयाल से इनकी प्रार्थना स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। यदि मान लिया जाय कि वे लोग हमारे साथ दुश्मनी भी रखते हों तो भी हमें इसकी कुछ परवाह नहीं हो सकती और न वे लोग हमारा कुछ बिगाड़ ही सकते हैं।”

तेजसिंह की बात सुनकर जीतसिंह ने महाराज की तरफ देखा और कुछ इशारा पाकर नकाबपोश से कहा, ”खैर, तुम्हारे मालिकों की प्रार्थना स्वीकार की जाती है। उनसे कह देना कि कल से नित्य एक पहर दिन चढ़ने के बाद इस दरबारे-खास में हाजिर हुआ करें।”

नकाबपोश ने झुककर सलाम किया और जिधर से आया था उसी तरफ लौट गया। थोड़ी देर तक और कुछ बातचीत होती रही जिसके बाद सब कोई अपने-अपने ठिकाने चले गए। केवल महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह और गोपालसिंह रह गए और इन लोगों में कुछ देर तक उसी नकाबपोश के विषय में बातचीत होती रही। क्या-क्या बातें हुईं इसे हम इस जगह खोलना उचित नहीं समझते और न इसकी जरूरत ही देखते हैं।

बयान – 10

दूसरे दिन फिर उसी तरह का दरबारे-खास लगा जैसा पहिले दिन लगा था और जिसका खुलासा हाल हम ऊपर के बयान में लिख आए हैं। आज के दरबार में वे दोनों नकाबपोश हाजिर होने वाले थे जिनकी तरफ से कल एक नकाबपोश आया था। अस्तु राजा साहब की तरफ से कल ही सिपाहियों और चोबदारों को हुक्म मिल गया था कि जिस समय दोनों नकाबपोश आवें उसी समय बिना इत्तिला किए ही दरबार में पहुंचा दिए जायं। यही सबब था कि आज दरबार लगने के कुछ ही देर बाद एक चोबदार के पीछे-पीछे वे दोनों नकाबपोश हाजिर हुए।

इन दोनों नकाबपोशों की पोशाक बहुत ही बेशकीमत थी। सिर पर बेलदार शमला था जिसके आगे हीरे का जगमगाता हुआ सरपेच था। भद्दी मगर कीमती नकाब में बड़े-बड़े मोतियों की झालर लगी हुई थी। चपकन और पायजामे में भी सलमे-सितारे की जगह हीरे और मोतियों की भरमार थी तथा परतले के बेशकीमत हीरे ने तो सभों को ताज्जुब ही में डाल दिया था जिसके सहारे जड़ाऊ कब्जे की तलवार लटक रही थी। दोनों नकाबपोशों की पोशाक एक ही ढंग की थी और दोनों एक ही उम्र के मालूम पड़ते थे।

यद्यपि देखने से तो यही मालूम होता था कि ये दोनों नकाबपोश राजाओं से भी ज्यादे दौलत रखने वाले और किसी अमीर खानदान के होनहार बहादुर हैं मगर इन दोनों ने बड़े अदब के साथ महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह और जीतसिंह को सलाम किया और इन तीनों के सिवाय और किसी की तरफ ध्यान भी न दिया। महाराज की आज्ञानुसार राजा गोपालसिंह के बगल में इन दोनों को जगह मिली। जीतसिंह ने सभ्यतानुसार कुशल-मंगल का प्रश्न किया।

दुष्टों के सिरताज, पतितों के महाराजाधिराज, नमकहरामों के किबलेगाह और दोजखियों के जहांपनाह मायारानी के तिलिस्मी दारोगा साहब तलब किये गए और जब हाजिर हुए तो बिना किसी को सलाम किए जहां चोबदार ने बैठाया बैठ गए। इस समय इनके हाथों में हथकड़ी और पैरों में ढीली बेड़ी पड़ी हुई थी। जब से इन्हें कैदखाने की हवा नसीब हुई तब से बाहर की कोई खबर इनके कानों तक पहुंची न थी। इन्हीं के लिए नहीं बल्कि तमाम कैदियों के लिए इस बात का इन्तजाम किया गया था कि किसी तरह की अच्छी या बुरी खबर उनके कानों तक न पहुंचे और न कोई उनकी बातों का जवाब ही दे।

महाराज का इशारा पाकर पहिले राजा गोपालसिंह ने बात शुरू की और दारोगा की तरफ देखकर कहा –

गोपाल – कहिए दारोगा साहब, मिजाज तो अच्छा है! अब आपको अपनी बेकसूरी साबित करने के लिए किन-किन चीजों की जरूरत है?

दारोगा – मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है और उम्मीद करता हूं कि आपको भी इस बात का कोई सबूत न मिला होगा कि मैंने आपके साथ किसी तरह की बुराई की थी या मुझे इस बात की खबर भी थी कि आपको महारानी ने कैद कर रखा है।

गोपाल – (मुस्कुराते हुए) नहीं-नहीं, आप मेरे बारे में किसी तरह का तरद्दुद न करें। मैं आपसे अपने मामले में बातचीत करना नहीं चाहता और न यही पूछना चाहता हूं कि शुरू-शुरू में आपने मेरी शादी में कैसे-कैसे नोंक-झोंक के काम किए और बहुत-सी मड़वे की बातों को तै करते हुए अन्त में किस मायारानी को लेकर अपने किस मेहरबान गुरुभाई के पास किस तरह की मदद लेने गये थे या फिर जमाने ने क्या रंग दिखाए, इत्यादि। मेरे साथ तो जो कुछ आपने किया उसे याद करने का ध्यान भी मैं अपने दिल में लाना पसन्द नहीं करता मगर मेरे पुराने दोस्त इन्द्रदेव आपसे कुछ पूछे बिना भी न रहेंगे। उन्हें चाहिए था कि अब भी अपने गुरुभाई का नाता निबाहें मगर अफसोस, किसी बेविश्वासे ने उन्हें यह कहकर रंज कर दिया है कि ‘इन्दिरा और सर्यू की किस्मतों का फैसला भी इन्हीं दारोगा साहब के हाथ से हुआ है!’

See also  गोरा अध्याय 8 | रविंद्रनाथ टैगोर

राजा गोपालसिंह के जुबानी थपेड़ों ने दारोगा का मुंह नीचा कर दिया। पुरानी बातों और करतूतों ने आंखों के आगे ऐसी भयानक सूरतें पैदा कर दीं जिनके देखने की ताकत इस समय उसमें न थी। उसके दिल में एक तरह का दर्द-सा मालूम होने लगा और उसका दिमाग चक्कर खाने लगा। यद्यपि उसकी बदकिस्मती और उसके पापों ने भयानक अन्धकार का रूप धारण करके उसे चारों ओर से घेर लिया था परन्तु इस अन्धकार में भी उसे सुबह के झिलमिलाते हुए तारे की तरह उम्मीद की एक बारीक और हलकी रोशनी बहुत दूर पर दिखाई दी जो उसी तरह ही थी जिसका सबब इन्द्रदेव था, क्योंकि इसे (दारोगा को) इन्दिरा और सर्यू के प्रकट होने का हाल कुछ भी मालूम न था और वह यही समझ रहा था कि इन्द्रदेव पहिले की तरह अभी तक इन बातों से बेखबर होगा और इन्दिरा तथा सर्यू भी तिलिस्म के अन्दर मर-खपकर अपने बारे में मेरी बदकारियों का सबूत साथ ही लेती गई होंगी, अस्तु ताज्जुब नहीं कि आज भी इन्द्रदेव मुझे अपना गुरुभाई समझकर मदद करे। इसी सबब से उसने मुश्किल से अपने दिल को सम्हाला और इन्द्रदेव की तरफ देखके कहा –

”राम – राम, भला इस अनर्थ का भी कुछ ठिकाना है! क्या आप भी इस बात को सच मान सकते हैं?’

इन्द्रदेव – अगर इन्दिरा मर गई होती और यह कलमदान नष्ट हो गया होता तो इस बात को मानने के लिए मुझे जरूर कुछ उद्योग करना पड़ता।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने इन्दिरा की तस्वीर वाला वह कलमदान निकालकर सामने रख दिया।

इन्द्रदेव की बातें सुन और इस कलमदान की सूरत पुनः देखकर दारोगा की बची-बचाई उम्मीद भी जाती रही। उसने भय और लज्जा से सिर झुका लिया और बदन में पैर्दा भई कंपकंपी को रोकने का उद्योग करने लगा। इसी बीच में भूतनाथ बोल उठा –

”दारोगा साहब, इन्दिरा को आपके पंजे से बार-बार छुड़ाने वाला भूतनाथ भी तो आपके सामने ही मौजूद है और अगर आप चाहें उस कम्बख्त औरत से भी मिल सकते हैं जिसने उस बाग में आपको कुएं के अन्दर और बेचारी इन्दिरा को दुःख के अथाह समुद्र से बाहर किया था।”

भूतनाथ की बात सुनते ही दारोगा कांप गया और घबड़ाकर उन नए आए हुए दोनों नकाबपोशों की तरफ देखने लगा। उसी समय उनमें से एक नकाबपोश ने नकाब हटाकर रूमाल से अपने चेहरे को इस तरह पोंछा जैसे पसीना आने पर कोई अपने चेहरे को साफ करता है। लेकिन इससे उसका असल मतलब केवल इतना ही था कि दारोगा उसकी सूरत देख ले।

दारोगा के साथ ही साथ और कई आदमियों की निगाह उस नकाबपोश के चेहरे पर गई मगर उनमें से किसी ने भी आज के पहिले उसकी सूरत नहीं देखी थी इसलिए कोई कुछ अनुमान न कर सका, हां, दारोगा उसकी सूरत देखते ही भय और दुःख से पागल हो गया। वह घबड़ाकर उठ खड़ा हुआ और उसी समय चक्कर खाकर जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।

यह कैफियत देख लोगों को बड़ा ही ताज्जुब हुआ। राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और राजा गोपालसिंह ने भी उस नकाबपोश की सूरत देख ली थी मगर इनमें से न तो किसी ने उसे पहिचाना और न उससे कुछ पूछना ही उचित जाना, अस्तु आज्ञानुसार दरबार बर्खास्त किया गया और वह कम्बख्त नकटा दारोगा पुनः कैदखाने की अंधेरी कोठरी में डाल दिया गया। उन दोनों नकाबपोशों में से एक ने तेजसिंह से पूछा, ‘कल किसका मुकद्दमा होगा जवाब में तेजसिंह ने बलभद्रसिंह का नाम लिया और दोनों नकाबपोश वहां से रवाना हो गए।

बयान – 11

दूसरे दिन नियत समय पर फिर दरबार लगा और वे दोनों नकाबपोश भी आ मौजूद हुए। आज के दरबार में बलभद्रसिंह भी अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए थे। आज्ञानुसार पुनः वह नकटा दारोगा और नकली बलभद्रसिंह हाजिर किए गए और सबके पहिले इन्द्रदेव ने नकली बलभद्रसिंह से इस तरह पूछना शुरू किया –

इन्द्रदेव – क्यों जी, क्या तुम असली बलभद्रसिंह का ठीक-ठीक पता न बताओगे?

नकली बलभद्र – (लम्बी सांस लेकर और महाराजा साहब की तरफ देखकर) कैसा बुरा जमाना हो रहा है। हजार बार पहिचाने जाने पर भी अभी तक मैं नकली बलभद्रसिंह ही कहा जाता हूं और गुनाहों की टोकरी सिर पर लादने वाले भूतनाथ को मूंछों पर ताव देता हुआ देखता हूं। (इन्द्रदेव की तरफ देखकर) मालूम होता है कि आपको जमानिया के दारोगा वाला रोजनामचा नहीं मिला, अगर मिलता तो आपको मुझ पर किसी तरह का शक न रहता।

भूत – (जैपाल अर्थात् नकली बलभद्रसिंह से) मुझे अभी तक हौसला बना ही हुआ है (तेजसिंह से) कृपानिधान, अभी कल की बात है, आप उन बातों को कदापि न भूले होंगे जो मैंने कमलिनीजी के तालाब वाले तिलिस्मी मकान में इस दुष्ट के सामने आप लोगों से उस समय कही थीं जब आप लोग इसे सच्चा मानकर मुझे कैदखाने की हवा खिलाने का बन्दोबस्त कर चुके थे। क्या मैंने नहीं कहा था कि महाराज के सामने मेरा मुकद्दमा एक अनूठा रंग पैदा करके मेरे बदले में किसी दूसरे ही को कैदखाने की कोठरी का मेहमान बनाबेगा देखिये आज वह दिन आपकी आंखों के सामने है, आपके साथ वे लोग भी हर तरह से मेरी बातों को सुन रहे हैं जिन्होंने उस दिन इसे असली बलभद्रसिंह मान लिया और मुझे घृणा की दृष्टि से भी देखना पसन्द नहीं करते थे। आशा है आप लोग उस समय की भूल पर अफसोस करेंगे और इस समय मैं बड़े अनूठे रहस्यों को खोलकर जो तमाशा दिखाने वाला हूं, उसे ध्यान देकर देखेंगे।

तेज – बेशक ऐसा ही है, औरों के दिल की तो मैं नहीं कह सकता मगर मैं अपनी उस समय की भूल पर जरूर अफसोस करता हूं।

इस कमरे में जिसमें दरबार लगा हुआ था ऊपर की तरफ कई खिड़कियां थीं जिनमें दोहरी चिकें पड़ी हुई थीं जहां बैठी लक्ष्मीदेवी, कमलिनी वगैरह इन बातों को बड़े गौर से सुन रही थीं। भूतनाथ ने पुनः जैपाल की तरफ देखा और कहा –

भूत – अब मैं उन बातों को भी जान चुका हूं जिन्हें उस समय न जानने के कारण मैं सचाई के साथ अपनी बेकसूरी साबित नहीं कर सकता था। हां, कहो अब तुम अपने बारे में क्या कहते हो?

जैपाल – मालूम होता है कि आज तू अपने हाथ की लिखी हुई उन चीठियों से इनकार किया चाहता है जो तेरी बुराइयों के खजाने को खोलने के काम में आ चुकी हैं और आवेंगी। क्या लक्ष्मीदेवी की गद्दी पर मायारानी को बैठाने की कार्रवाई में तूने सबसे बड़ा हिस्सा नहीं लिया था और क्या वे सब चीठियां तेरे हाथ की लिखी हुई नहीं हैं

भूत – नहीं-नहीं, मैं इस बात से इनकार नहीं करूंगा कि वे चीठियां मेरे हाथ की लिखी हुई नहीं हैं, बल्कि इस बात को साबित करूंगा कि लक्ष्मीदेवी के बारे में मैं बिल्कुल बेकसूर हूं और वे चीठियां जिन्हें मैंने अपने फायदे के लिए लिख रक्खा था मुझे नुकसान पहुंचाने का सबब हुईं, तथा इस बात को भी साबित करूंगा कि मैं वास्तव में वह रघुबरसिंह नहीं हूं जिसने लक्ष्मीदेवी के बारे में कार्रवाई की थी। इसके साथ ही तुझे और इस नकटे दारोगा को भी यह सुनकर अपने उछलते हुए कलेजे को रोकने के लिए तैयार हो जाना चाहिए कि केवल असली बलभद्रसिंह ही नहीं बल्कि इन्दिरा तथा सर्यू भी दम-भर में तुम लोगों की कलई खोलने के लिए यहां आ चुकी हैं।

जैपाल – (बेहयाई के साथ) मालूम होता है कि तुम लोगों ने किसी को जाली बलभद्रसिंह बनाकर राजा साहब के सामने पेश कर दिया है।

इतना सुनते ही बलभद्रसिंह ने अपने चेहरे से नकाब हटाकर जैपाल की तरफ देखा और कहा, ”नहीं-नहीं, जाली बलभद्रसिंह बनाया नहीं गया बल्कि मैं स्वयं यहां बैठा हुआ तेरी बातें सुन रहा हूं।”

बलभद्रसिंह की सूरत देखके एक दफे तो जैपाल हिचका मगर तुरत ही उसने अपने को सम्हाला और परले सिरे की बेहयाई को काम में लाकर बोला, ”आह, हेलासिंह भी यहां आ गये! मुझे तुमसे मिलने की कुछ भी आशा न थी, क्योंकि मेरे मुलाकातियों ने जोर देकर कहा था कि हेलासिंह मर गया और अब तुम उसे कदापि नहीं देख सकते।”

बलभद्र – (मुस्कराता हुआ तेजसिंह की तरफ देखके) ऐसे बेहया की सूरत भी आज के पहिले आप लोगों ने न देखी होगी! (जैपाल से) मालूम होता है कि तू अपने दोस्त हेलासिंह की मौत का सबब भी किसी दूसरे को ही बताना चाहता है मगर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि मेरे दोस्त भूतनाथ मेरे साथ हेलासिंह के मामले का सबूत भी बेगम के मकान से लेते आये हैं।

भूत – हां-हां, वह सबूत भी मेरे पास मौजूद है जो सबसे ज्यादे मेरे खास मामले में काम देगा।

इतना कहके भूतनाथ ने दो-चार कागज, दस-बारह पन्ने की एक किताब और हीरे की अंगूठी जिसके साथ छोटा-सा पुरजा बंधा हुआ था अपने बटुए में से निकालकर राजा गोपालसिंह के सामने रख दिया और कहा, ”बेगम, नौरतन और जमालो को भी तलब करना चाहिए।”

इन चीजों को गौर से देखकर राजा गोपालसिंह ताज्जुब में आ गए और भूतनाथ का मुंह देखने लगे।

भूत – (गोपालसिंह से) आप जिस समय कृष्णाजिन्न की सूरत में थे उस समय मैंने आपसे अर्ज किया था कि अपनी बेकसूरी का बहुत अच्छा सबूत किसी समय आपके सामने ला रखूंगा, सो यह सबूत मौजूद है, इसी से दोनों का काम चलेगा।

गोपाल – (ताज्जुब के साथ) हां ठीक है, (वीरेन्द्रसिंह से) ये बड़े काम की चीजें भूतनाथ ने पेश की हैं। बेगम, नौरतन और जमालो के हाजिर होने पर मैं इनका मतलब बयान करूंगा।

वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखा और तेजसिंह ने बेगम, नौरतन और जमालो के हाजिर होने का हुक्म दिया। इस समय जैपाल का कलेजा उछल रहा था। वह उन चीजों को अच्छी तरह देख नहीं सकता था और न उसे इसी बात का गुमान था कि बेगम के यहां से भूतनाथ फलानी चीजें ले आया है।

कैदियों की सूरत में बेगम, नौरतन और जमालो हाजिर हुईं। उस समय एक नकाबपोश ने जिसने भूतनाथ की पेश की हुई चीजों को अच्छी तरह देख लिया था गोपालसिंह से कहा, ”मैं उम्मीद करता हूं कि भूतनाथ की पेश की हुई इन चीजों का मतलब बनस्बित आपके मैं ज्यादा अच्छी तरह बयान कर सकूंगा। यदि आप मेरी बातों पर विश्वास करके ये चीजें मेरे हवाले करें तो उत्तम हो।”

नकाबपोश की बातें सभी ने ताज्जुब के साथ सुनीं, खास करके जैपाल ने, जिसकी विचित्र अवस्था हो रही थी। यद्यपि वह अपनी जान से हाथ धो बैठा था मगर साथ ही इसके यह भी सोचे हुए था कि मेरी चालबाजियों में उलझे हुए भूतनाथ को कोई कदापि बचा नहीं सकता और इस समय भूतनाथ के मददगार जो आदमी हैं वे लोग तभी भूतनाथ को बचा सकेंगे जब मेरी बातों पर पर्दा डालेंगे या मेरे कसूरों की माफी दिला देंगे, तथा जब तक ऐसा न होगा मैं कभी भूतनाथ को अपने पंजे से निकलने न दूंगा। यही सबब था कि ऐसी अवस्था में भी वह बोलने और बातें बनाने से बाज नहीं आता था।

नकाबपोश की बात सुनकर राजा गोपालसिंह ने मुस्करा दिया और भूतनाथ की दी हुई चीजें उनके सामने रखकर कहा, ”अच्छी बात है यदि आप मुझसे ज्यादा जानते हैं तो आप ही इस गुत्थी को साफ करें।”

नकाबपोश – अच्छा होता यदि इन चीजों को पहिले बड़े महाराज और जीतसिंह भी देख लेते।

गोपाल – मैं भी यही चाहता हूं।

इतना कहकर राजा गोपालसिंह ने उन चीजों को हाथ में उठा लिया और तेजसिंह की तरफ देखा। तेजसिंह का इशारा पाकर देवीसिंह राजा गोपालसिंह के पास गए और वे चीजें लेकर जीतसिंह के हाथ में दे आये।

महाराज सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह ने भी उन चीजों को अच्छी तरह देखा और इसके बाद महाराज की आज्ञानुसार जीतसिंह ने कहा, ”महाराज हुक्म देते हैं कि आज की कार्रवाई यहीं खत्म की जाय और इसके बाद की कार्रवाई कल दरबारे-आम में हो और इन पुर्जों का मतलब भी कल ही के दरबार में नकाबपोश साहब बयान करें।”

इस बात को सभों ने पसन्द किया खास करके दोनों नकाबपोश और भूतनाथ की भी यही इच्छा थी, अस्तु दरबार बर्खास्त हुआ और कल के लिए दरबारे-आम की मुनादी की गई।

बयान – 12

आज के दरबारे-आम की बैठक भी उसी ढंग की है जैसा कि हम दरबारे-खास के बारे में बयान कर चुके हैं, अगर फर्क है तो सिर्फ इतना ही है कि दरबारे-खास में बैठने वाले लोगों के बाद उन रईसों, अमीरों और अफसरों तथा ऐथारों को दर्जे-बदर्जे जगह मिली है जो आज के दरबार में शरीक हुए हैं और आदमी भी बहुत ज्यादे इकट्ठे हुए हैं मगर आवाज के खयाल से पूरा-पूरा सन्नाटा छाया हुआ है। गुलशोर की तो दूर रही किसी की मजाल नहीं कि बिना मर्जी के चुटकी भी बजा सके। इसके अतिरिक्त नंगी तलवार लिए रुआबदार फौजी सिपाहियों के पहरे का इन्तजाम भी बहुत ही मुनासिब और खूबसूरती के साथ किया गया है और बाहर के आये हुए मेहमान भी बड़ी दिलचस्पी के साथ बलभद्रसिंह और भूतनाथ का मुकद्दमा सुनने के लिए तैयार हैं।

नकटा दारोगा, जैपाल, बेगम, नौरतन और जमालो के हाजिर होने के बाद तेजसिंह ने कल के दरबार में भूतनाथ की पेश की हुई चीठियां, अंगूठी और छोटी किताब राजा गोपालसिंह को दे दी और राजा गोपालसिंह ने इस खयाल से कि कल के और परसों के मामले से भी सभी को आगाही हो जानी चाहिए, जो कुछ पिछले दो दिन के दरबारे-खास में हुआ था रणधीरसिंह की तरफ देखकर बयान किया और इसके बाद कहा, ”आज भी वे दोनों नकाबपोश इस दरबार में हाजिर हैं जिन्हें हम लोग ताज्जुब की निगाहों से देख रहे हैं और नहीं जानते कि कौन हैं, कहां के रहने वाले हैं, या इन मामलों से इन्हें क्या सम्बन्ध है जिसके लिए इन दोनों ने यहां आने और मुकद्दमे में शरीक होने का कष्ट स्वीकार किया है। फिर भी जब तक ये दोनों अपने को प्रकट न करें हम लोगों को इनका हाल जानने के लिए उद्योग न करना चाहिए और देखना चाहिए कि इनकी कार्रवाइयों और बातों का असर कम्बख्त मुजरिमों पर कैसा पड़ता है।”

यह कहकर गोपालसिंह ने वह अंगूठी, चीठियां और छोटी किताब नकाबपोश के आगे रख दीं।

इस दरबारे-आम वाले मकान में भी ऐसी जगह बनी हुई थी जहां से रानी चन्द्रकान्ता और किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी वगैरह भी यहां की कैफियत देख-सुन सकती थीं, इसलिए समझ रखना चाहिए कि वे सब भी दरबार के मामले को देख-सुन रही हैं।

उन दोनों में से एक नकाबपोश ने भूतनाथ के पेश किये हुए कागजों में से एक कागज उठा लिया और खड़े होकर इस तरह कहना शुरू किया –

”निःसन्देह आप लोग हम दोनों को ताज्जुब की निगाह से देखते होंगे और यह भी जानने की इच्छा रखते होंगे कि हम लोग कौन और कहां के रहने वाले हैं, मगर अफसोस है कि इस समय इस बारे में हम इससे ज्यादा कुछ नहीं कह सकते कि हम लोग ईश्वर के दूत हैं और इन दुष्टों के अच्छे-बुरे कर्मों को अच्छी तरह जानते हैं। यह जैपाल अर्थात् नकली बलभद्रसिंह चाहता है कि अपने साथ भूतनाथ को भी ले डूबे, मगर इसे समझ रखना चाहिए कि भूतनाथ हजार बुरा होने पर भी इज्जत और कदर की निगाह से देखे जाने के लायक है। अगर भूतनाथ न होता तो यह जैपाल इस समय असली बलभद्रसिंह बनकर न मालूम और भी कैसे-कैसे अनर्थ करता और असली बलभद्रसिंह की जान न जाने किस तकलीफ के साथ निकलती। अगर भूतनाथ न होता तो आज का यह आलीशान दरबार भी हम लोगों के लिए न होता और राजा गोपालसिंह भी इस तरह बैठे हुए दिखाई न देते, क्योंकि भूतनाथ की ही बदौलत दारोगा की गुप्त कमेटी का अन्त हुआ और इसी की बदौलत कमलिनी भी मायारानी के साथ मुकाबला करने लायक हुई। अगर भूतनाथ ने दो काम बुरे किये हैं तो दस काम अच्छे भी किये हैं, जो आप लोगों से छिपे नहीं हैं। भूतनाथ के अनूठे कामों का बदला यह नहीं हो सकता कि उसे किसी तरह की सजा मिले बल्कि यही हो सकता है कि उसे मुंहमांगा इनाम मिले। आशा है कि मेरी इस बात को महाराज खुले दिल से स्वीकार भी करेंगे।”

इतना करकर नकाबपोश चुप हो गया और महाराज की तरफ देखने लगा। महाराज का इशारा पाकर तेजसिंह ने कहा, ”महाराज आपकी इस बात को प्रसन्नता के साथ स्वीकार करते हैं।”

इतना सुनते ही भूतनाथ ने खड़े होकर सलाम किया और नकाबपोश ने भी सलाम करके पुनः इस तरह कहना शुरू किया –

”बहुतों को ताज्जुब होगा कि जैपाल जब बलभद्रसिंह बन ही चुका था तो इतने दिनों तक कहां और क्योंकर छिपा रहा, लक्ष्मीदेवी या कमलिनी से मिला क्यों नहीं और इसी तरह से भूतनाथ भी जब जानता था कि बलभद्रसिंह कौन और कहां है तो उसने इस बात को इतने दिनों तक छिपा क्यों रक्खा इसका जवाब मैं इस तरह देता हूं कि अगर भूतनाथ कमलिनी का ऐयार बना हुआ न होता तो यह नकली बलभद्रसिंह अर्थात् जैपाल जिसे भूतनाथ मरा हुआ समझे बैठा था, कभी का प्रकट हो चुका होता, मगर भूतनाथ का डर इसे हद से ज्यादे था और यह चाहता था कि कोई ऐसा जरिया हाथ लग जाय जिससे भूतनाथ इसके सामने सिर उठाने लायक न रहे, और तब यह प्रकट होकर अपने को बलभद्रसिंह के नाम से मशहूर करे। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् वह छोटी सन्दूकड़ी जिसकी तरफ देखने की भी ताकत भूतनाथ में नहीं है इसके हाथ लग गई और वह कागज का मुट्ठा भी इसे मिल गया जो भूतनाथ के हाथ का लिखा हुआ था। अपनी इस बात के सबूत में मैं इस (हाथ की चीठी दिखाकर) चीठी को जो आज के बहुत दिन पहिले की लिखी हुई है, पढ़कर सुनाऊंगा!”

इतना कहकर उसने चीठी पढ़ना शुरू किया जिसमें यह लिखा हुआ था –

”प्यारी बेगम,

वह सन्दूकड़ी तो मेरे हाथ लग गई जो भूतनाथ को बस में करने के लिए जादू का असर रखती है मगर भूतनाथ तथा उसके आदमी बेतरह मेरे पीछे पड़े हुए हैं। ताज्जुब नहीं कि मैं गिरफ्तार हो जाऊं, इसलिए यह सन्दूकड़ी तुम्हारे पास भेजता हूं, तुम इसे हिफाजत के साथ रखना। मैं भूतनाथ को धोखा देने का बन्दोबस्त कर रहा हूं। अगर मैं अपना काम पूरा कर सका तो निःसन्देह भूतनाथ को विश्वास हो जायेगा कि जैपाल मर गया। उस समय मैं तुम्हारे पास आकर अपनी खुशी का तमाशा दिखाऊंगा। मुझे इस बात का पता भी लग चुका है कि वह कागज की गठरी उसकी स्त्री के सन्दूक में है जिसका जिक्र मैं कई दफे तुमसे कर चुका हूं और जिसके मिले बिना मैं अपने को बलभद्रसिंह बनाकर प्रकट नहीं कर सकता।

वही जैपाल”

पढ़ने के बाद नकाबपोश ने वह चीठी गोपालसिंह के आगे फेंक दी और बेगम की तरफ देखके पूछा, ”तुझे याद है कि यह चीठी किस महीने में जैपाल ने तेरे पास भेजी थी?’

बेगम – बहुत दिन की बात हो गई इसलिए मुझे महीना और दिन तो याद नहीं।

नकाब – (जैपाल से) क्या तुझे याद है कि यह चीठी तूने किस महीने में लिखी थी?

जैपाल – वह चीठी मेरे हाथ की लिखी हुई होती तो मैं तेरी बात का जवाब देता।

नकाब – तो यह बेगम क्या कह रही है?

जैपाल – तू ही जाने कि तेरी बेगम क्या कह रही है मैं तो उसे पहिचानता भी नहीं!

इतना सुनते ही नकाबपोश को गुस्सा चढ़ आया। उसने अपने चेहरे से नकाब हटाकर गुस्से-भरी निगाहों से जैपाल की तरफ देखा जिसकी ताज्जुब-भरी निगाहें पहिले ही से उसकी तरफ जम रही थीं, और इसके बाद तुरत अपना चेहरा ढांप लिया।

न मालूम उस नकाबपोश की सूरत में क्या बात थी कि उसे देखते ही जैपाल की सूरत बिगड़ गई और वह कांपता तथा नकाबपोश की तरफ देखता हुआ अपने हथकड़ी सहित हाथों को जोड़कर बोला, ”बस-बस माफ कीजिए, बेशक यह चीठी मेरे हाथ की लिखी हुई है! ओफ, मैं जानता था कि तुम अभी जीते हो, मैं तुम्हारी तरफ देखना नहीं चाहता हूं!”

इतना कहकर जैपाल ने दोनों हाथों से अपनी आंखें ढंक लीं और लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा।

इस नकाबपोश की सूरत पर सभों की तो नहीं मगर बहुतों की निगाह पड़ी। हमारे राजा साहब, ऐयार लोग, गोपालसिंह, इन्द्रदेव और भूतनाथ वगैरह ने भी इसे देखा मगर पहिचाना किसी ने भी नहीं, क्योंकि इन लोगों में से किसी ने भी आज के पहिले इसे देखा न था। इसके अतिरिक्त पहिले दिन दरबार में नकाबपोश की जो सूरत दिखाई दी थी उसमें और आज की सूरत में जमीन-आसमान का अन्तर था। इस विषय में लोगों ने यह खयाल कर लिया कि पहिले दिन एक नकाबपोश ने सूरत दिखाई थी और आज दूसरे ने, क्योंकि नकाब और पोशाक इत्यादि के खयाल से जाहिर में दोनों नकाबपोश एक ही रंग के थे।

इन नकाबपोशों की तरफ से भूतनाथ का दिल तरददुद और खुटके से खाली न था। पहिले दिन उस नकाबपोश की जो सूरत भूतनाथ ने देखी उसे उसने अपने दिल में अच्छी तरह नक्शा कर लिया था – बल्कि एक कागज पर उसकी सूरत (तस्वीर) भी बनाकर तैयार कर ली थी और आज भी इसी नीयत से उसकी सूरत के विषय में बारीक निगाह से भूतनाथ ने काम लिया मगर ताज्जुब कर रहा था कि ये दोनों कौन हैं जो बेवजह मेरी मदद कर रहे हैं और ये गुप्त बातें इन दोनों को कैसे मालूम हुईं।

थोड़ी देर तक नकाबपोश चुप रहा और इसके बाद उसने राजा साहब की तरफ देखके कहा, ”महाराज देखते हैं कि मैं इस मुकद्दमे की गुत्थी को किस तरह सुलझा रहा हूं और जैपाल के दिल पर मेरी सूरत का क्या असर पड़ा, अस्तु मैं इसी जगह एक और भी गुप्त बात की तरफ इशारा किया चाहता हूं जिसका हाल शायद अभी तक भूतनाथ को भी मालूम न होगा। वह यह है कि मनोरमा इस (बेगम की तरफ बताकर) बेगम की मौसेरी बहिन है और भूतनाथ की गुप्त सहेली नन्हों से गहरी मुहब्बत रखती है। यही सबब है कि भूतनाथ के घर से यह गठरी गायब हुई और जैपाल ने भी प्रकट होने के साथ ही लामाघाटी  की तरफ इशारा करके भूतनाथ को काबू में कर लिया। इस बात को महाराज तो न जानते होंगे मगर भूतनाथ को इन्कार करने की जगह अब नहीं तो दो दिन बाद न रहेगी।’

नकाबपोश की इस बात ने भूतनाथ को चौंका दिया और उसने घबड़ाकर नकाबपोश से कहा, ”क्या यह बात आप पूरी तरह से समझ-बूझकर कह रहे हैं’

नकाब – हां, और यह बात तुम्हारे ही सबब से पैदा हुई थी जिसके सबूत में मैं यह पुर्जा पेश करता हूं।

इतना कहकर नकाबपोश ने अपने जेब में से एक पुर्जा निकालकर पढ़ा और फिर राजा गोपालसिंह के सामने फेंक दिया। उसमें लिखा हुआ था –

‘प्यारी नन्हों,

अब तो उन्होंने अपना नाम भी बदल दिया। तुम्हें पता लगाना हो तो ‘भूतनाथ’ के नाम से पता लगा लेना और मुझे भी चांद वाले दिन गौहर के यहां देखना जो शेर की लड़की है।

– करौंदा की छैंये-छैंये”

इस चीठी ने भूतनाथ को परेशान कर दिया और उसने खड़े होकर कहा, ”बस-बस, मुझे आपके कहने का विश्वास हो गया और बहुत-सी पुरानी बातों का पता भी लग गया।”

नकाबपोश – मैं इस बारे में और भी बहुत-सी बातें कहूंगा मगर अभी नहीं, जब समय तथा बातों का सिलसिला आ जायगा तब। मैं यह तो ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि तुम्हारी स्त्री तुमसे दुश्मनी रखती है या वह इस बात को जानती है कि नन्हों और बेगम की मुहब्बत है मगर इतना जरूर कहूंगा कि तुमने अपनी स्त्री को गौहर के यहां जाने की इजाजत देकर अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मार ली। मुझे इन बातों के कहने की कोई जरूरत नहीं थी मगर इस खयाल से बात निकल आई कि तुम भी अपनी गठरी के चोरी जाने का सबब जान जाओ। (तेजसिंह की तरफ देखकर) औरों को क्या कहा जाय, भूतनाथ ऐसे चालाक ऐयार लोग भी औरतों के मामले में चूक ही जाते हैं।

इसी समय बेगम उद्योग करके उठ खड़ी हुई और महाराज की तरफ देखकर जोर से बोली, ”दोहाई महाराज की! इन नकाबपोश का यह कहना कि नन्हों नाम की किसी औरत से मुझसे दोस्ती है बिल्कुल झूठ है। इसका कोई सबूत नकाबपोश साहब नहीं दे सकते। मैं तो जानती भी नहीं कि नन्हों किस चिड़िया का नाम है। असल तो यह है कि यह केवल भूतनाथ की मदद करने आए हैं और झूठ-सच बोलकर अपना काम निकालना चाहते हैं। अगर सरकार उस सन्दूकड़ी को खोलें तो सारी कलई खुल जाय।”

बेगम की बात सुनकर दोनों नकाबपोश गुस्से में आ गये। दूसरा नकाबपोश जो बैठा था उठ खड़ा हुआ और अपने चेहरे की एक झलक लापरवाही के साथ बेगम को दिखाकर क्रोध-भरी आवाज में बोला, ”क्या ये सब बातें झूठ हैं!”

इस दूसरे नकाबपोश ने अपनी सूरत दिखाने की नीयत से अपनी नकाब को दम-भर के लिए इस तरह हटाया जिससे लोगों को गुमान हो सकता था कि धोखे में नकाब खिसक गई, मगर होशियार और ऐयार लोग समझ गये कि इसने जान-बूझके अपनी सूरत दिखाई है। यद्यपि इसके चेहरे पर केवल तेजसिंह, देवीसिंह, गोपालसिंह, भूतनाथ, जैपाल और बेगम की निगाह पड़ी थी, मगर इस दूसरे नकाबपोश के चेहरे पर निगाह पड़ते ही बेगम यह कहकर चिल्ला उठी – ”आह तू कहां! क्या नन्हों भी गई!!”

बस इससे ज्यादे और कुछ न कह सकी, एक दफे कांपकर बेहोश हो गई और जैपाल भी जमीन पर गिरकर बेहोश हो गया, अतएव मुकद्दमे की कार्रवाई रोक देनी पड़ी।

भूतनाथ तथा हमारे ऐयारों को विश्वास था कि यह दूसरा नकाबपोश वही होगा जिसने पहिले दिन सूरत दिखलाई थी, मगर ऐसा न था। उस सूरत और इस सूरत में जमीन-आसमान का फर्क था, अतएव सभों ने निश्चय कर लिया कि वह कोई दूसरा था और यह कोई और है।

इस सूरत को भी भूतनाथ पहिचानता न था। उसके ताज्जुब का हद न रहा और उसने निश्चय कर लिया कि आज इनकी खबर जरूर ली जायगी और यही कैफियत हमारे ऐयारों की भी थी।

कैदी पुनः कैदखाने में भेज दिये गये, दोनों नकाबपोश बिदा हुए और दरबार बर्खास्त किया गया।

बयान – 13

दरबार बर्खास्त होने के बाद जब महाराज सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, गोपालसिंह और देवीसिंह एकान्त में बैठे तो यों बातचीत होने लगी –

सुरेन्द्र – ये दोनों नकाबपोश तो विचित्र तमाशा कर रहे हैं। मालूम होता है कि इन सब मामलों की सबसे ज्यादे खबर इन्हीं लोगों को है।

जीत – बेशक ऐसा ही है।

वीरेन्द्र – जिस तरह इन दोनों ने तीन दफे तीन तरह की सूरतें दिखाईं इसी तरह मालूम होता है और भी कई दफे कई तरह की सूरतें दिखायेंगे।

गोपाल – निःसन्देह ऐसा ही होगा। मैं समझता हूं कि या तो ये लोग अपनी सूरत बदलकर आया करते हैं या दोनों केवल दो ही नहीं हैं और भी कई आदमी हैं जो पारी-पारी से आकर लोगों को ताज्जुब में डालते हैं और डालेंगे।

तेज – मेरा भी यही खयाल है, भूतनाथ के दिल में भी खलबली पैदा हो रही है। उसके चेहरे से मालूम होता था कि वह इन लोगों का पता लगाने के लिए परेशान हो रहा है।

देवी – भूतनाथ का ऐसा विचार कोई ताज्जुब की बात नहीं। जब हम लोग उनका हाल जानने के लिए व्याकुल हो रहे हैं तब भूतनाथ का क्या कहना है।

सुरेन्द्र – इन लोगों ने मुकद्दमे की उलझन खोलने का ढंग तो अच्छा निकाला है मगर यह मालूम करना चाहिए कि इन मामलों से इन्हें क्या सम्बन्ध है

देवी – अगर आज्ञा हो तो मैं उनका हाल जानने के लिए उद्योग करूं?

वीरेन्द्र – कहीं ऐसा न हो कि पीछा करने से ये लोग बिगड़ जायं और फिर यहां आने का इरादा न करें।

गोपाल – मेरे खयाल से तो उन लोगों को इस बात का रंज न होगा कि लोग उनका हाल जानने के लिए पीछा कर रहे हैं, क्योंकि उन लोगों ने काम ही ऐसा उठाया है कि सैकड़ों आदमियों को ताज्जुब हो, सैकड़ों ही उनका पीछा भी करें। इस बात को वे लोग खूब ही समझते होंगे और इस बात का भी उन्हें विश्वास होगा कि भूतनाथ उनका हाल जानने के लिए सबसे ज्यादे कोशिश करेगा।

वीरेन्द्र – ठीक है और इसी खयाल से वे लोग हर वक्त चौकन्ने भी रहते हों तो कोई ताज्जुब नहीं।

जीत – जरूर चौकन्ने रहते होंगे और ऐसी अवस्था में पता लगाना भी कठिन होगा।

गोपाल – जो हो मगर मेरी इच्छा तो यही है कि स्वयं उनका हाल जानने के लिए उद्योग करूं।

सुरेन्द्र – अगर उनके मामले में पता लगाने की इच्छा ही है तो क्या तुम्हारे यहां ऐयारों की कमी है जो तुम स्वयं कष्ट करोगे तेजसिंह, देवीसिंह, पण्डित बद्रीनाथ या और जिसे चाहो इस काम पर मुकर्रर करो।

गोपाल – जो आज्ञा, देवीसिंह कहते ही हैं तो इन्हीं को यह काम सुपुर्द किया जाय।

सुरेन्द्र – (देवीसिंह से) अच्छा जाओ तुम ही इस काम में उद्योग करो देखें क्या खबर लाते हो।

देवी – (सलाम करके) जो आज्ञा।

गोपाल – और इस बात का भी पता लगाना कि भूतनाथ उनका पीछा करता है या नहीं।

देवी – जरूर पता लगाऊंगा।

इस बात से छुट्टी पाने के बाद थोड़ी देर तक और बातें हुई, इसके बाद महाराज आराम करने चले गये तथा और लोग भी अपने ठिकाने पधारे।

बयान – 14

सबसे ज्यादे फिक्र भूतनाथ को इस बात के जानने की थी कि वे दोनों नकाबपोश कौन हैं और दारोगा, जैपाल तथा बेगम का उन सूरतों से क्या सम्बन्ध है जो समय-समय पर नकाबपोशों ने दिखाई थीं या हमारे तथा राजा गोपालसिंह और लक्ष्मीदेवी इत्यादि के सम्बन्ध में हम लोगों से भी ज्यादे जानकारी इन नकाबपोशों को क्योंकर हुई तथा ये दोनों वास्तव में दो ही हैं या कई।

इन्हीं बातों के सोच-विचार में भूतनाथ का दिमाग चक्कर खा रहा था। यों तो उस दरबार में जितने भी आदमी थे सभी उन दोनों नकाबपोशों का हाल जानने के लिए बेताब हो रहे थे और दरबार बर्खास्त होने तथा अपने डेरे पर जाने के बाद भी हर एक आदमी इन्हीं दोनों नकाबपोशों का खयाल और फिक्र करता था मगर किसी की हिम्मत यह न होती थी कि उनके पीछे-पीछे जाय। हां, ऐयार और जासूस लोग जिनकी प्रकृति ही ऐसी होती है कि खामखाह भी लोगों के भेद जानने की कोशिश किया करते हैं उन दोनों नकाबपोशों का हाल जानने के फेर में पड़े हुए थे।

भूतनाथ का डेरा यद्यपि तिलिस्मी इमारत के अन्दर बलभद्रसिंह के साथ था मगर वास्तव में वह अकेला न था। भूतनाथ के पिछले किस्से से पाठकों को मालूम हो चुका होगा कि उसके साथी, नौकर, सिपाही या जासूस लोग कम न थे जिनसे वह समय-समय पर काम लिया करता था और जो उसके हाल-चाल की खबर बराबर रक्खा करते थे। अब यह कह देना आवश्यक है कि यहां भी भूतनाथ के बहुत से आदमी धीरे-धीरे आ गए हैं जो सूरत बदलकर चारों तरफ घूमते और उसकी जरूरतों को पूरा करते हैं और उनमें से दो आदमी खास तिलिस्मी इमारत के अन्दर उसके साथ रहते हैं जिन्हें भूतनाथ ने अपने खिदमतगार कहकर अपने पास रख लिया है और इस बात को बलभद्रसिंह भी जानते हैं।

दरबार बर्खास्त होने के बाद भूतनाथ और बलभद्रसिंह अपने डेरे पर गये और कुछ जलपान इत्यादि से छुट्टी पाकर यों बातचीत करने लगे –

बलभद्र – ये दोनों नकाबपोश तो बड़े ही विचित्र मालूम पड़ते हैं।

भूत – क्या कहें, कुछ अक्ल काम नहीं करती। मजा तो यह है कि वे हमीं लोगों की बातों को हम लोगों से भी ज्यादे जानते और समझते हैं।

बलभद्र – बेशक ऐसा ही है।

भूत – यद्यपि अभी तक इन नकाबपोशों ने मेरे साथ कुछ बुरा बर्ताव नहीं किया बल्कि एक तौर पर मेरा पक्ष ही करते हैं तथापि मेरा कलेजा डर के मारे सूखा जाता है। यह सोचकर कि जिस तरह आज मेरी स्त्री की एक गुप्त बात इन्होंने प्रकट कर दी जिसे मैं भी नहीं जानता था उसी तरह कहीं मेरी उस सन्दूकड़ी का भेद भी न खोल दें जो जैपाल की दी हुई अभी तक राजा साहब के पास अमानत रक्खी है और जिसके खयाल ही से मेरा कलेजा हरदम कांपा करता है।

बलभद्र – ठीक है, मगर मेरा खयाल है कि नकाबपोश तुम्हारी उस सन्दूकड़ी का भेद न तो खुद ही खोलेंगे और न खुलने ही देंगे।

भूत – सो कैसे?

बलभद्र – क्या तुम उन बातों को भूल गये जो एक नकाबपोश ने भरे दरबार में तुम्हारे लिए कही थीं क्या उसने नहीं कहा था कि भूतनाथ ने जैसे-जैसे काम किये हैं उनके बदले में उसे मुंहमांगा इनाम देना चाहिए और क्या इस बात को महाराज ने भी स्वीकार नहीं किया था?

भूत – ठीक है, तो इस कहने से शायद आपका मतलब यह है कि मुंहमांगा इनाम के बदले में मैं उस सन्दूकड़ी को भी पा सकता हूं?

बलभद्र – बेशक ऐसा ही है और उन नकाबपोशों ने भी इसी खयाल से वह बात कही थी मगर अब यह सोचना चाहिए कि मुकद्दमा तै होने के पहिले मांगने का मौका क्योंकर मिल सकता है।

भूत – मेरे दिल ने भी उस समय यही कहा था, मगर दो बातों के खयाल से मुझे प्रसन्न होने का समय नहीं मिलता।

बलभद्र – वह क्या?

भूत – एक तो यही कि मुकद्दमा होने के पहिले इनाम में उस सन्दूकड़ी के मांगने का मौका मुझे मिलेगा या नहीं। और दूसरे यह कि नकाबपोश ने उस समय यह बात सच्चे दिल से कही थी या केवल जैपाल को सुनाने की नीयत से। साथ ही इसके एक बात और भी है।

बलभद्र – वह भी कह डालो।

भूत – आज आखिरी मर्तबे दूसरे नकाबपोश ने जो सूरत दिखाई थी उसके बारे में मुझे कुछ भ्रम – सा होता है। शायद मैंने उसे कभी देखा है मगर कहां और क्योंकर सो नहीं कह सकता।

बलभद्र – हां, उस सूरत के बारे में तो अभी तक मैं भी गौर कर रहा हूं मगर अक्ल तब तक कुछ ठीक काम नहीं कर सकती जब तक उन नकाबपोशों का कुछ हाल मालूम न हो जाय।

भूत – मेरी तो यही इच्छा होती है कि उनका असल हाल जानने के लिए उद्योग करूं बल्कि कल मैं अपने आदमियों को इस काम के लिए मुस्तैद भी कर चुका हूं।

बलभद्र – अगर कुछ पता लग सका तो बहुत ही अच्छी बात है, सच तो यों है कि मेरा दिल भी खुटके से खाली नहीं है।

भूत – इस समय से संध्या तक और इसके बाद रात भर मुझे छुट्टी है, यदि आप आज्ञा दें तो मैं इस फिक्र में जाऊं।

बलभद्र – कोई चिन्ता नहीं, तुम जाओ, अगर महाराज का कोई आदमी खोजने आवेगा तो मैं जवाब दे लूंगा।

भूत – बहुत अच्छा।

इतना कहकर भूतनाथ उठा और अपने दोनों आदमियों में से एक को साथ लेकर मकान के बाहर हो गया।

बयान – 15

तिलिस्मी इमारत से लगभग दो कोस दूरी पर जंगल में पेड़ों की घनी झुरमुट के अन्दर बैठा हुआ भूतनाथ अपने दो आदमियों से बातें कर रहा है।

भूत – तो क्या तुम उनके पीछे-पीछे उस खोह के मुहाने तक चले गये थे?

एक आदमी – जी नहीं, थोड़ी देर तक तो मैं उन नकाबपोशों के पीछे-पीछे चला गया मगर जब देखा कि वे दोनों बेफिक्र नहीं हैं बल्कि चौकन्ने होकर चारों तरफ, खास करके मुझे गौर से देखते जाते हैं तब मैं भी तरह देकर हट गया। दूसरे दिन हम लोग कई आदमी एक-दूसरे से अलग दूर-दूर बैठ गये और आखिर मेरे साथी ने उन्हें ठिकाने तक पहुंचाकर पता लगा ही लिया कि ये दोनों इस खोह के अन्दर रहते हैं। उसके बाद हम लोगों ने निश्चय कर लिया और उसी खोह के पास छिपकर मैंने स्वयं कई दफे उन लोगों को उसी के अन्दर आते-जाते देखा और यह भी जान लिया कि वे लोग दस-बारह आदमी से कम नहीं हैं।

भूत – मेरा भी यही खयाल था कि वे लोग दस-बारह से कम न होंगे, खैर जो होगा देखा जायगा, अब मैं संध्या हो जाने पर उस खोह के अन्दर जाऊंगा, तुम लोग हमारी हिफाजत का खयाल रखना और इसके अतिरिक्त इस बात का पता लगाना कि जिस तरह मैं उनकी टोह में लगा हूं उसी तरह और कोई भी उनका पीछा करता है या नहीं।

आदमी – जो आज्ञा।

भूत – हां एक बात और पूछनी है। तुम लोगों ने जिन दस-बारह आदमियों को खोह के अन्दर आते-जाते देखा है वे सभी अपने चेहरे पर नकाब रखते हैं या दो-चार?

आदमी – जी, हम लोगों ने जितने आदमियों को देखा सभों को नकाबपोश पाया।

भूत – अच्छा तो तुम अब जाओ और अपने साथियों को मेरा हुक्म सुनाकर होशियार कर दो।

इतना कहकर भूतनाथ खड़ा हो गया और अपने दोनों आदमियों को बिदा करने के बाद पश्चिम की तरफ रवाना हुआ। इस समय भूतनाथ अपनी असली सूरत में न था बल्कि सूरत बदलकर अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए था।

यहां से लगभग कोस भर की दूरी पर उस खोह का मुहाना था जिसका पता भूतनाथ के आदमियों ने दिया था। संध्या होने तक भूतनाथ इधर-उधर जंगल में घूमता रहा और जब अंधेरा हो गया तब उस खोह के मुहाने पर पहुंचकर चारों तरफ देखने लगा।

यह स्थान एक घने और भयानक जंगल में था। छोटे-से पहाड़ के निचले हिस्से में दो-तीन आदमियों के बैठने लायक एक गुफा थी और आगे से पत्थरों के बड़े-बड़े ढोकों ने उसका रास्ता रोक रक्खा था। उसके नीचे की तरफ पानी का एक छोटा-सा नाला बहता था जिसमें इस समय कम मगर साफ पानी बह रहा था और उस नाले के दोनों तरफ भी पेड़ों की बहुतायत थी। भूतनाथ ने सन्नाटा पाकर उस गुफा के अन्दर पैर रक्खा और सुरंग की तरफ रास्ता पाकर टटोलता हुआ थोड़ी देर तक बेखटके चला गया। आगे जाकर जब रास्ता खराब मालूम हुआ तब उसने बटुए में से मोमबत्ती निकालकर जलाई और चारों तरफ देखने लगा। सामने का रास्ता बिल्कुल बन्द पाया अर्थात् सामने की तरफ पत्थर की दीवार थी जो एक चबूतरे की तरह मालूम पड़ती थी मगर वहां की छत इतनी ऊंची जरूर थी कि आदमी उस चबूतरे के ऊपर चढ़कर बखूबी खड़ा हो सकता था, अस्तु भूतनाथ उस चबूतरे के ऊपर चढ़ गया और जब आगे की तरफ देखा तो नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां नजर आईं।

भूतनाथ सीढ़ियों की राह नीचे उतर गया और अन्त में उसने एक छोटे-से दरवाजे का निशान देखा जिसमें किवाड़-पल्ले इत्यादि की कोई जगह न थी, केवल बाएं, दाहिने और नीचे की तरफ चौखट का निशान था। दरवाजे के अन्दर पैर रखने के बाद सुरंग की तरह रास्ता दिखाई दिया जिसे गौर से अच्छी तरह देखने के बाद भूतनाथ ने मोमबत्ती बुझा दी और टटोलता हुआ आगे की तरफ बढ़ा। थोड़ी दूर जाने के बाद सुरंग खतम हुई और रोशनी दिखाई दी। यह हलकी और नाममात्र की रोशनी किसी चिराग या मशाल की न थी बल्कि आसमान पर चमकते हुए तारों की थी क्योंकि वहां से आसमान तथा सामने की तरफ मैदान का एक छोटा-सा टुकड़ा दिखाई दे रहा था।

यह मैदान आठ या दस बिगइे से ज्यादे न होगा। बीच में एक छोटा-सा बंगला था, उसके आगे वाले दालान में कई आदमी बैठे हुए दिखाई देते थे तथा चारों तरफ बड़े-बड़े जंगली पेड़ों की भी कमी न थी। सन्नाटा देखकर भूतनाथ सुरंग के पार निकल गया और एक पेड़ की आड़ देकर इस खयाल से खड़ा हो गया कि मौका मिलने पर आगे की तरफ बढ़ेंगे। थोड़ी ही देर मे भूतनाथ को मालूम हो गया कि उसके पास ही एक पेड़ की आड़ में कोई दूसरा आदमी भी खड़ा है। यह दूसरा आदमी वास्तव में देवीसिंह था जो भूतनाथ के पीछे ही पीछे थीड़ी देर बाद यहां आकर पेड़ की आड़ में खड़ा हो गया था और वह भी सूरत बदलने के बाद अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए था इसलिए एक को दूसरे का पहिचानना कठिन था।

थोड़ी ही देर बाद दो औरतें अपने-अपने हाथों में चिराग लिए बंगले के अन्दर से निकलीं और उसी तरफ रवाना हुईं जिधर पेड़ की आड़ में भूतनाथ और देवींसिंह खड़े हुए थे। एक तो भूतनाथ और देवीसिंह का दिल इस खयाल से खुटके में था ही कि मेरे पास ही एक पेड़ की आड़ में कोई दूसरा भी खड़ा है, दूसरे इन दो औरतों को अपनी तरफ आते देख और भी घबड़ाये, मगर कर ही क्या सकते थे। क्योंकि इस समय जो कुछ ताज्जुब की बात उन दोनों ने देखी उसे देखकर भी चुप रह जाना उन दोनों की सामर्थ्य से बाहर था अर्थात् कुछ पास आने पर मालूम हो गया कि उन दोनों ही औरतों में से एक तो भूतनाथ की स्त्री है जिसे वह लामाघाटी में छोड़ आया था और दूसरी चम्पा।

भूतनाथ आगे बढ़ा ही चाहता था कि पीछे से कई आदमियों ने आकर उसे पकड़ लिया और उसी की तरह देवीसिंह भी बेकाबू कर दिए गये।

(उन्नीसवां भाग समाप्त)

चंद्रकांता संतति – Chandrakanta Santati

चंद्रकांता संतति लोक विश्रुत साहित्यकार बाबू देवकीनंदन खत्री का विश्वप्रसिद्ध ऐय्यारी उपन्यास है।

बाबू देवकीनंदन खत्री जी ने पहले चन्द्रकान्ता लिखा फिर उसकी लोकप्रियता और सफलता को देख कर उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाया और ‘चन्द्रकान्ता संतति’ की रचना की। हिन्दी के प्रचार प्रसार में यह उपन्यास मील का पत्थर है। कहते हैं कि लाखों लोगों ने चन्द्रकान्ता संतति को पढ़ने के लिए ही हिन्दी सीखी। घटना प्रधान, तिलिस्म, जादूगरी, रहस्यलोक, एय्यारी की पृष्ठभूमि वाला हिन्दी का यह उपन्यास आज भी लोकप्रियता के शीर्ष पर है।

Download PDF (चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग)

चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग – Chandrakanta Santati Unnisava Bhag

Download PDF: Chandrakanta Santati Unnisava Bhag in Hindi PDF

Further Reading:

  1. चंद्रकांता संतति पहला भाग
  2. चंद्रकांता संतति दूसरा भाग
  3. चंद्रकांता संतति तीसरा भाग
  4. चंद्रकांता संतति चौथा भाग
  5. चंद्रकांता संतति पाँचवाँ भाग
  6. चंद्रकांता संतति छठवां भाग
  7. चंद्रकांता संतति सातवाँ भाग
  8. चंद्रकांता संतति आठवाँ भाग
  9. चंद्रकांता संतति नौवां भाग
  10. चंद्रकांता संतति दसवां भाग
  11. चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग
  12. चंद्रकांता संतति बारहवां भाग
  13. चंद्रकांता संतति तेरहवां भाग
  14. चंद्रकांता संतति चौदहवां भाग
  15. चंद्रकांता संतति पन्द्रहवां भाग
  16. चंद्रकांता संतति सोलहवां भाग
  17. चंद्रकांता संतति सत्रहवां भाग
  18. चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग
  19. चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग
  20. चंद्रकांता संतति बीसवां भाग
  21. चंद्रकांता संतति इक्कीसवां भाग
  22. चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग
  23. चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग
  24. चंद्रकांता संतति चौबीसवां भाग


Leave a comment

Leave a Reply