चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग (1)
चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग (1)

चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग – Chandrakanta Santati Tyesva Bhag

चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग

बयान – 1

सोहागरात के दिन कुंअर इंद्रजीतसिंह जैसे तरद्दुद और फेर में पड़ गये थे ठीक वैसा तो नहीं मगर करीब-करीब उसी ढंग का बखेड़ा कुंअर आनंदसिंह के साथ भी मचा, अर्थात् उसी दिन रात के समय जब आनंदसिंह और कामिनी का एक कमरे में मेल हुआ तो आनंदसिंह छेड़छाड़ करके कामिनी की शर्म को तोड़ने और कुछ बातचीत करने के लिए उद्योग करने लगे मगर लज्जा और संकोच के बोझ से कामिनी हर तरह दबी जाती थी। आखिर थोड़ी देर की मेहनत और चालाकी तथा बुद्धिमानी की बदौलत आनंदसिंह ने अपना मतलब निकाल ही लिया और कामिनी भी जो बहुत दिनों से दिल के खजाने में आनंदसिंह की मुहब्बत को हिफाजत के साथ छिपाये हुए थी, लज्जा और डर को विदाई का बीड़ा दे कुमार से बातचीत करने लगी।

जब रात लगभग दो घंटे के बाकी रह गई तो कामिनी जाग पड़ी और घबराहट के साथ चारों तरफ देखकर सोचने लगी कि कहीं सबेरा तो नहीं हो गया क्योंकि कमरे के सभी दरवाजे बंद रहने के कारण आसमान दिखाई नहीं देता था। उस समय आनंदसिंह गहरी नींद में सो रहे थे और उनके घुर्राटे की आवाज से मालूम होता था कि वे अभी दो-तीन घंटे तक बिना जगाये नहीं जाग सकते अस्तु कामिनी अपनी जगह से उठी और कमरे की कई छोटी-छोटी खिड़कियों (छोटे दरवाजों) में से जो मकान के पिछली तरफ पड़ती थीं एक खिड़की खोलकर आसमान की तरफ देखने लगी। इस तरफ से पतित-पावनी भगवती जाह्नवी की तरल तरंगों की सुंदर छटा दिखाई देती थी जो उदास से उदास और बुझे दिल को भी एक दफे प्रसन्न करने की सामर्थ्य रखती थी परंतु इस समय अंधकार के कारण कामिनी उस छटा को नहीं देख सकती थी और इस सबब से आसमान की तरफ देखकर भी वह इस बात का पता न लगा सकी कि अब रात कितनी बाकी है, मगर सबेरा होने में अभी देर है इतना जानकर उसके दिल को कुछ भरोसा हुआ। उसी समय सरकारी पहरे वाले ने घड़ी बजाई जिसे सुनकर कामिनी ने निश्चय कर लिया कि रात अभी दो घंटे से कम बाकी नहीं है। उसने उसी तरफ की एक और खिड़की खोल दी और तब उस जगह चली गई जहां चौकी के ऊपर गंगा-जमुनी लोटे में जल रखा हुआ था। उसी चौकी पर से एक रूमाल उठा लिया और उसे गीला करके अपना मुंह अच्छी तरह पोंछने अथवा धोने के बाद रूमाल खिड़की के बाहर फेंक दिया और तब उस जगह चली आई जहां आनंदसिंह गहरी नींद में सो रहे थे।

कामिनी ने आंचल के कपड़े से एक मामूली बत्ती बनाई और नाक में डालकर उसके जरिये से दो-तीन छींकें मारीं जिसकी आवाज से आनंसिंह की आंख खुल गई और उन्होंने अपने पास कामिनी को बैठे हुए देखकर ताज्जुब से कहा, ”हैं, तुम बैठी क्यों हो खैरियत तो है!”

कामिनी – जी हां, मेरी तबियत तो अच्छी है मगर तरद्दुद और सोच के मारे नींद नहीं आ रही है। बहुत देर से जाग रही हूं।

आनंद – (उठकर) इस समय भला कौन से तरद्दुद और सोच ने तुम्हें आ घेरा?

कामिनी – क्या कहूं, कहते हुए भी शर्म मालूम पड़ती है?

आनंद – आखिर कुछ कहो तो सही, शर्म कहां तक करोगी?

कामिनी – खैर मैं कहती हूं मगर आप बुरा न मानेंगे!

आनंद – मैं कुछ भी बुरा न मानूंगा, तुम्हें जो कुछ कहना है कहो।

कामिनी – बात केवल इतनी ही है कि मैं छोटे कुमार से एक दिल्लगी कर बैठी हूं मगर आज उस दिल्लगी का भेद जरूर खुल गया होगा, इसलिए सोच रही हूं कि अब क्या करूं इस समय कामिनी बहिन से भी मुलाकात नहीं हो सकती जो उनको कुछ समझा-बुझा देती।

आनंद – (ताज्जुब में आकर) तुमने कोई भयानक सपना तो नहीं देखा जिसका असर अभी तक तुम्हारे दिमाग में घुसा हुआ है यह मामला क्या है तुम कैसी बातें कर रही हो!

कामिनी – नहीं-नहीं, कोई विशेष बात नहीं है और मैंने कोई भयानक सपना भी नहीं देखा, बात केवल इतनी ही है कि मैं हंसी-हंसी में छोटे कुमार से कह चुकी हूं कि ‘मेरी शादी अभी तक नहीं हुई है और मैं प्रतिज्ञा कर चुकी हूं कि ब्याह कदापि न करूंगी’। अब आज ताज्जुब नहीं कि कामिनी बहन ने मेरा सच्चा भेद खोल दिया हो और कह दिया हो कि ‘लाडिली की शादी तो कमलिनी की शादी के साथ ही साथ अर्थात् दोनों की एक ही दिन हो चुकी है और आज उसकी भी सोहागरात है।’ अगर ऐसा हुआ तो मुझे बड़ी शर्म…।

आनंद – (ताज्जुब और घबड़ाहट से) तुम तो पागलों की-सी बातें कर रही हो। आखिर तुमने अपने को ओैर मुझको समझा ही क्या है जरा घूंघट हटाकर बातें करो। तुम्हारा मुंह तो दिखाई ही नहीं देता!!

कामिनी – नहीं मुझे इसी तरह बैठे रहने दीजिए। मगर आपने क्या कहा मैं कुछ भी नहीं समझी, इसमें पागलपने की कौन-सी बात है

आनंद – तुमने जरूर कोई सपना देखा है जिसका असर अभी तक तुम्हारे दिमाग में बसा हुआ है और तुम अपने को लाडिली समझ रही हो। ताज्जुब नहीं कि लाडिली ने तुमसे वे बातें कही हों जो उसने मुझसे दिल्लगी के ढंग पर कही थीं।

कामिनी – मुझे आपकी बातों पर ताज्जुब मालूम पड़ता है। मैं समझती हूं कि आप ही ने कोई अनूठा स्वप्न देखा है और यह भी देखा है कि कामिनी आपके बगल में पड़ी हुई है जिसका खयाल अभी तक बना हुआ है और मुझे आप कामिनी समझ रहें हैं। भला सोचिए तो सही कि छोटे कुमार (आनंदसिंह) को छोड़कर कामिनी आपके पास आने ही क्यों लगी कहीं आप मुझसे दिल्लगी तो नहीं कर रहे हैं

कामिनी की आखिरी बात सुनकर आनंदसिंह बहुत बेचैन हो गये और उन्होंने घबड़ाकर कामिनी के मुंह से घूंघट हटा दिया, मगर शमादान की रोशनी में उसका खूबसूरत चेहरा देखते ही वे चौंक पड़े और बोले – ”हैं! यह मामला क्या है लाडिली को मेरे पास आने की क्या जरूरत थी बेशक तुम लाडिली मालूम पड़ती हो कहीं तुमने अपना चेहरा रंगा तो नहीं है?’

कामिनी – (घबड़ाहट के ढंग पर) आपकी बातें तो मेरे दिल में हौल पैदा करती हैं! न मालूम आप क्या कह रहे हैं और इस बात को क्यों नहीं सोचते कि कामिनी को आपके पास आने की जरूरत ही क्या थी।

आनंद – (बेचैनी के साथ) पहले तुम अपना चेहरा धो डालो तो मैं तुमसे बातें करूं! तुम मुझे जरूर धोखा दे रही हो और अपनी सूरत लाडिली की-सी बनाकर मेरी जान सांसत में डाल रही हो! मैं अभी तक तुम्हें कामिनी समझ रहा था और समझता हूं।

कामिनी – (ताज्जुब से आनंदसिंह की सूरत देखकर) आपकी बातें तो कुछ विचित्र ढंग की हो रही हैं। जब आप मुझे कामिनी समझते हैं तो अपने को भी जरूर आनंदसिंह समझते होंगे?

आनंद – इसमें शक ही क्या है क्या मैं आनंदसिंह नहीं हूं?

कामिनी – (अफसोस से हाथ मलकर) हे परमेश्वर! आज इनको क्या हो गया!!

आनंद – बस अब तुम अपना चेहरा धो डालो तो मुझसे बातें करो, तुम नहीं जानतीं कि इस समय मेरे दिल की कैसी अवस्था है!

कामिनी – ठहरिये-ठहरिये, मैं बाहर जाकर सभों को इस बात की खबर कर देती हूं कि आपको कुछ हो गया है। मुझे आपके पास बैठते डर लगता है! हे परमेश्वर!!

आनंद – तुम नाहक मेरी जान को दुःख दे रही हो! पास ही तो पानी पड़ा है, अपना चेहरा क्यों नहीं धो डालतीं मुझे ऐसी दिल्लगी अच्छी नहीं मालूम होती, खैर अब बहुत हो गया, तुम उठो!

कामिनी – मेरे चेहरे में क्या लगा है जो धो डालूं आप ही क्यों नहीं अपना चेहरा धो डालते! क्या मुंह में पानी लगाकर मैं लाडिली से कोई दूसरी ही औरत बन जाऊंगी! या आप मुंह धोकर छोटे कुमार बन जायेंगे?

आनंद – (बेचैनी से बिगड़कर) बस-बस, अब मैं बरदाश्त नहीं कर सकता और न ज्यादे देर तक ऐसी दिल्लगी सह सकता हूं। मैं हुक्म देता हूं कि तुम तुरंत अपना चेहरा धो डालो नहीं तो तुम्हारे साथ जबरदस्ती की जायगी, फिर पीछे दोष न देना!

यह सुनते ही कामिनी घबड़ाकर उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई कि ‘आज भोर ही भोर ऐसी दुर्दशा में फंसी हूं, न मालूम दिन कैसा बीतेगा!’ उस चौकी के पास चली गई जिस पर गंगाजमनी लोटा जल से भरा हुआ रखा था और पास ही में एक बड़ा-सा आफताबा भी था। पानी से अपना चेहरा साफ किया और दो-चार कुल्ला भी करने के बाद रूमाल से मुंह पोंछ आनंदसिंह से बोली, ”कहिये मैं वही हूं कि बदल गई?’

कामिनी के साथ ही साथ आनंदसिंह भी बिछावन पर से उठकर वहां तक चले आये थे जहां पानी और आफताबा रखा हुआ था। जब कामिनी ने मुंह धोकर उनकी तरफ देखा तो कुमार के ताज्जुब की कोई हद न रही और वह पत्थर की मूरत बनकर एकटक उसकी तरफ देखते खड़े रह गये। इस समय खिड़कियों में से आसमान पर सुबह की सफेदी फैली हुई दिखाई दे रही थी और कमरे में भी रोशनी की कमी न थी।

कामिनी – (कुछ चिढ़ी हुई आवाज से) कहिये-कहिये, क्या मैं मुंह धोने से कुछ बदल गई आप बोलते क्यों नहीं?

आनंद – (एक लंबी सांस लेकर) अफसोस! तुम्हारे घूंघट ने मुझे धोखा दिया। अगर मिलाप के पहले तुम्हारी सूरत देख लेता तो धर्म नष्ट क्यों होता!

कामिनी – (जिसे अब लाडिली लिखेंगे, क्योंकि यह वास्तव में लाडिली ही है) फिर भी आप उसी ढंग की बातें कर रहे हैं और अभी तक अपने को छोटे कुमार समझते हैं। इतना हिलने-डोलने पर भी आपके दिमाग से स्वप्न का गुबार न निकला। (कमरे में लटकते हुए एक बड़े आईने की तरफ उंगली से इशारा करके) अब आप उसमें अपना चेहरा देख लीजिए तो मुझसे बातें कीजिये!

कुंअर आनंदसिंह भी यही चाहते थे, अस्तु वे उस आईने के सामने चले गये और बड़े गौर से अपनी सूरत देखने लगे। लाडिली भी उनके साथ ही साथ उस आईने के पास चली गई और जब वे ताज्जुब के साथ आईने में अपना चेहरा देख रहे थे तो बोली, ”कहिये, अब भी आप अपने को छोटे कुमार ही समझते हैं या और कोई?’

क्रोध के साथ ही साथ शर्मिंदगी ने भी आनंदसिंह पर अपना कब्जा कर लिया और वे घबड़ाकर अपनी पोशाक पर ध्यान देने लगे, मगर उसमें किसी तरह की खराबी न पाकर उन्होंने पुनः लाडिली की तरफ देखा और कहा, ”यह क्या मामला है मेरी सूरत किसने बदली?’

लाडिली – (ताज्जुब और घबड़ाहट के ढंग पर) क्या आप अपनी सूरत बदली हुई समझते हैं?

आनंद – बेशक!!

लाडिली – (अफसोस के साथ हाथ मलकर) अफसोस! अगर यह बात ठीक है तो बड़ा ही गजब हुआ!!

आनंद – जरूर ऐसा ही हे, मैं अभी अपना चेहरा धोता हूं!

इतना कहकर कुंअर आनंदसिंह उस चौकी के पास चले गये जिस पर पानी रखा हुआ था और अपना चेहरा धोने लगे। पानी पड़ते ही हाथ पर रंग उतर आया जिस पर निगाह पड़ते ही लाडिली चौंकी और रंज के साथ बोली, ”बेशक चेहरा रंगा हुआ है! हाय बड़ा ही गजब हो गया! मैं बेमौत मारी गई। मेरा धर्म नष्ट हुआ। अब मैं अपने पति के सामने किस मुंह से जाऊंगी और अपनी हमजोलियों की वार्ता का क्या जवाब दूंगी! औरतों के लिये यह बड़े शर्म की बात है, नहीं-नहीं, बल्कि औरतों के लिए यह घोर पातक है कि पराये मर्द का संग करें। सच तो यों है कि पराये मर्द का शरीर छू जाने से भी प्रायश्चित लगता है और बात को तो कहना क्या है! हाय, मैं बर्बाद हो गई और कहीं की भी न रही। इसमें कोई शक नहीं कि आपने जान-बूझकर मुझे मिट्टी में मिला दिया!

आनंद – (अच्छी तरह चेहरा धोने के बाद रूमाल से मुंह पोंछकर) क्या कहा क्या जान-बूझकर मैंने तुम्हारा धर्म नष्ट किया?

लाडिली – बेशक ऐसा ही है, मैं इस बात की दुहाई दूंगी और लोगों से इंसाफ चाहूंगी।

आनंद – क्या मेरा धर्म नष्ट नहीं हुआ?

लाडिली – मर्दों के धर्म का क्या कहना है और इसका बिगड़ना ही क्या जो दस-दस पंद्रह-पंद्रह ब्याह से भी ज्यादे कर सकते हैं! बर्बादी तो औरतों के लिये है। इसमें कोई शक नहीं कि आपने जान-बूझकर मेरा धर्म नष्ट किया! जब आप छोटे कुमार ही थे तो आपको मेरे पास से उठ जाना चाहिए था या मेरे पास बैठना ही मुनासिब न था।

आनंद – मैं कसम खाकर कह सकता हूं कि मैंने तुम्हारी सूरत घूंघट के सबब से अच्छी तरह नहीं देखी, एक दफे ऐंचातानी में निगाह पड़ भी गई थी तो तुम्हें कामिनी ही समझा था और इसके लिये भी मैं कसम खाता हूं कि मैंने तुम्हें धोखा देने के लिये जान-बूझकर अपनी सूरत नहीं रंगी है बल्कि मुझे इस बात की खबर भी नहीं कि मेरी सूरत किसने रंगी या क्या हुआ।

लाडिली – अगर आपका यह कहना ठीक है तो समझ लीजिये कि और भी गजब हो गया! मेरे साथ ही साथ कामिनी बर्बाद हो गई होगी। जिस धर्मात्मा ने धोखा देकर मेरा संग आपके साथ करा दिया है उसने कामिनी को भी जो आपके साथ ब्याही गई है, जरूर धोखा देकर मेरे पति के पलंग पर सुला दिया होगा!

यह एक ऐसी बात थी जिसे सुनते ही आनंदसिंह का रंग बदल गया। रंज और अफसोस की जगह क्रोध ने अपना दखल जमा लिया और कुछ सुस्त तथा ठंडी रगों में बेमौके हरारत पैदा हो गई जिससे बदन कांपने लगा और उन्होंने लाल आंखें करके लाडिली की तरफ देख के कहा – ”क्या कहा तुम्हारे पति के पलंग पर कामिनी! यह किसकी मजाल है कि…?”

लाडिली – ठहरिये-ठहरिये, आप गुस्से में न आ जाइये। जिस तरह आप अपनी और कामिनी की इज्जत समझते हैं उसी तरह मेरी और मेरे पति की इज्जत पर भी आपको ध्यान देना चाहिए। मेरी बर्बादी पर तो आपको गुस्सा न आया और कामिनी का भी मेरा ही-सा हाल सुनकर आप जोश में आकर उछल पड़े, अपने आप से बाहर हो गये और आपको बदला लेने की धुन सवार हो गई! सच है दुनिया में किसी विरले ही महात्मा को हमदर्दी और इंसाफ का ध्यान रहता है, दूसरे पर जो कुछ बीती है उसका अंदाजा किसी को तब तक नहीं लग सकता जब तक उस पर भी वैसा ही न बीते। जिसने कभी एक उपवास भी नहीं किया है वह अकाल के मारे भूखे गरीबों पर उचित और सच्ची हमदर्दी नहीं कर सकता, यों उनके उपकार के लिये भले ही बहुत कुछ जोश दिखाये और कुछ कर भी बैठे। ताज्जुब नहीं कि हमारे बुजुर्ग और बड़े लोग इसी खयाल से बहुत से व्रत चला गये हों और इससे उनका मतलब यह भी हो कि स्वयं भूखे रहकर देख लो तब भूखों की कदर कर सकोगे। दूसरे के गले पर छुरी चला देना कोई बड़ी बात नहीं है मगर अपने गले पर सूई से भी निशान नहीं किया जाता। जो दूसरों की बहू-बेटियों को झांका करते हैं वे अपनी बहू-बेटियों का झांका जाना सहन नहीं कर सकते। बस इसी से समझ लीजिए कि मेरी बर्बादी पर आपको अगर कुछ खयाल हुआ तो केवल इतना ही कि बस कसम खाकर अफसोस करने लगे और सोचने लगे कि मेरे दिल से किसी तरह इस बात का रंज निकल जाय मगर कामिनी का भी मेरे ही जैसा हाल सुनकर म्यान के बाहर हो गये! क्या यही इंसाफ है और यही हमदर्दी है इसी दिल को लेकर आप राजा बनेंगे और राजकाज करेंगे!!

लाडिली की जोश भरी बातें सुनकर आनंदसिंह सहम गये और शर्म ने उनकी गर्दन झुका दी। वह सोचने लगे कि क्या करूं और इसकी बातों का क्या जवाब दूं! इसी समय कमरे का दरवाजा खुला (जो शायद धोखे में खुला रह गया होगा) और इंद्रदेव की लड़की इंदिरा को साथ लिये हुए कामिनी आती दिखाई पड़ी।

लाडिली – लीजिए, कामिनी बहिन भी आ पहुंचीं! ताज्जुब नहीं कि ये भी अपना हाल कहने के लिए आई हों, (कामिनी से) लो बहिन, आज हम तुम्हारे बराबर हो गए!

कामिनी – बराबर नहीं, बल्कि बढ़ के!!

बयान – 2

रात पहर भर से ज्यादे जा चुकी है। महल के अंदर एक सजे हुए कमरे में एक तरफ रानी चंद्रकान्ता, चपला और चंपा बैठी हुई हैं और उनसे थोड़ी ही दूर पर राजा वीरेन्द्रसिंह, गोपाल और भैरोसिंह बैठे आपस में कुछ बातचीत कर रहे हैं।

चंद्र – (वीरेन्द्र से) सच्चा-सच्चा हाल मालूम होना तो दूर रहा मुझे इस बात का किसी तरह कुछ गुमान भी न हुआ। इस समय मैं दुलहिनों की सोहागरात का इंतजाम देख-सुनकर यहां आई और दिन भर की थकावट से सुस्त होकर पड़ रही, जी में आया कि घंटे-दो घंटे सो रहूं, मगर इसी बीच में चपला बहिन आ पहुंची और बोली, ‘लो बहिन, मैं तुम्हें एक अनूठा हाल सुनाती हूं जिसकी अब तक तुम लोगों को कुछ खबर ही न थी!’ बस इतना कहकर बैठ गईं और कहने लगीं कि ‘कमलिनी और लाडिली की शादी तिलिस्म के अंदर ही इंद्रजीत और आनंद के साथ हो चुकी है जिसके बारे में अब तक हम लोगों को किसी ने कुछ भी नहीं कहा, इस समय लड़के (भैरोसिंह) ने मुझसे कहा है’। सुनते ही मैं धक्क हो गई कि या राम! यह कौन-सी बात थी जिसे अभी तक सब कोई छिपाये बैठे रहे!!

चपला – (भैरोसिंह की तरफ इशारा करके) सामने तो बैठा हुआ है, पूछिये कि इस समय के पहले कभी कुछ कहा था! यद्यपि दोनों की शादियां इसके सामने ही तिलिस्म के अंदर हुई थीं।

वीरेन्द्र – मुझे भी इस विषय में किसी ने कुछ नहीं कहा था, अभी थोड़ी देर हुई कि गोपालसिंह ने यह सब हाल पिताजी से बयान किया तब मालूम हुआ।

चंद्र – यही सुन के तो मैंने आपको तकलीफ दी क्योंकि आपकी जुबानी सुने बिना मेरी दिलजमई नहीं हो सकती।

वीरेन्द्र – जो कुछ तुमने सुना सब ठीक है।

चंद्र – मजा तो यह है कि लड़कों ने भी मुझसे इस बात की कुछ चर्चा नहीं की।

वीरेन्द्र – लड़कों को तो खुद ही इस बात की खबर नहीं है कि उनकी शादी कमलिनी और लाडिली के साथ हुई थी।

चंद्र – यह तो आप और ताज्जुब की बात कहते हैं। यह भला कैसे हो सकता है कि जिनकी शादी हो उन्हीं को पता न लगे कि मेरी शादी हो गई है इस पर कौन विश्वास करेगा!

वीरेन्द्र – बात ही कुछ ऐसी हो गई थी और यह शादी जानबूझकर किसी मतलब से छिपाई गई थी (गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) अब ये खुलासा हाल तुमसे बयान करेंगे तब तुम समझ जाओगी कि ऐसा क्यों हुआ।

गोपाल – मैं सब हाल आपसे खुलासा बयान करता हूं और आशा करता हूं कि आप मेरा कसूर माफ करेंगी क्योंकि यह सब मेरी ही करतूत है और मैंने ही यह शादी कराई है।

चंद्र – अगर तुमने ऐसा किया तो छिपाने की क्या जरूरत थी क्या हम लोग तुमसे रंज हो जाते या हम लोग इस बात को नहीं समझते कि जो कुछ तुम करोगे अच्छा ही समझ के करोगे।

गोपाल – ठीक है मगर किया क्या जाय, इस बात को छिपाये बिना काम नहीं चलता था, यही तो सबब हुआ कि खुद दोनों कुमारों को भी इस बात का पता न लगा कि उनकी शादी फलाने के साथ हो गई है।

चंद्र – आखिर ऐसा किया क्यों गया सो तो कहो!

गोपाल – इसका सबब यह है कि एक दिन कमला मेरे पास आई और बोली कि ‘मैं आपसे एक जरूरी बात कहती हूं जिस पर आपको विशेष ध्यान देना होगा’। मैंने पूछा – ‘क्या!’ इस पर उसने जवाब दिया कि कमलिनी ने जो कुछ एहसान हम लोगों पर, खास करके दोनों कुमारों तथा किशोरी और कामिनी पर किये हैं वह किसी से छिपे नहीं हैं। किशोरी का खयाल है कि ‘इसका बदला किसी तरह से अदा हो ही नहीं सकता’ और बात भी ऐसी ही है, अस्तु किशोरी ने बात ही बात में अपने दिल का हाल मुझसे भी कह दिया और इस बारे में जो कुछ उसने सोच रखा था वह भी बयान किया। किशोरी कहती है कि अगर मैं शादी न करूं या शादी होने के पहले ही इस दुनिया से उठ जाऊं तो उसके एहसान और ताने से कुछ बच सकती हूं। इस विषय पर जब मैंने किशोरी को बहुत-कुछ समझाया तो बोली कि खैर अगर मेरी शादी के पहले कमलिनी की शादी कुंअर इंद्रजीतसिंह के साथ हो जायगी तब मैं सुख से अपनी जिंदगी बिता सकूंगी और उसके एहसान से भी हलकी हो जाऊंगी क्योंकि ऐसा होने से कमलिनी को पटरानी की पदवी मिलेगी और उसी का लड़का गद्दी का मालिक समझा जायेगा। मैं छोटी रानी और कमलिनी की लौंडी होकर रहूंगी तभी मेरे दिल को राहत होगी और मैं समझूंगी कि कमलिनी के अहसान का बोझ मेरे सिर से उतर गया।

चंद्र – शाबाश! शाबाश!

वीरेन्द्र – बेशक किशोरी ने बड़े हौसले की और लासानी बात सोची!

चपला – बेशक यह साधारण बात नहीं है, यह बड़े कलेजे वाली औरतों का काम है, और इससे बढ़कर किशोरी कुछ कर ही नहीं सकती थी।

गोपाल – मैंने जब कमला की जुबानी यह बात सुनी तो दंग हो गया और मन में किशोरी की तारीफ करने लगा। सच तो यों है कि यह बात मेरे दिल में भी जम गई। अस्तु मैंने कमला से वादा तो कर दिया कि ‘ऐसा ही होगा’ मगर तरद्दुद में पड़ गया कि यह काम क्योंकर पूरा होगा, क्योंकि यह बात बहुत ही कठिन बल्कि असंभव थी कि इंद्रजीतसिंह और कमलिनी इस राय को मंजूर करें। इसके अतिरिक्त यह भी उम्मीद नहीं हो सकती थी कि हमारे महाराज इस बात को स्वीकार कर लेंगे।

भैरो – बेशक यह कठिन काम था, इंद्रजीतसिंह इस बात को कभी मंजूर न करते।

गोपाल – कई दिन के सोच-विचार के बाद मैंने और भैरोसिंह ने मिलकर एक तरकीब निकाल ली और किसी-न-किसी तरह कमलिनी और लाडिली को इंद्रानी और आनंदी बनाकर दोनों की शादी इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह के साथ करा दी। उन दिनों कमलिनी के पिता बलभद्रसिंहजी भूतनाथ की मदद से छूटकर यहां (अर्थात् बगुले वाले तिलिस्मी मकान में) आ चुके थे, अस्तु मैं तिलिस्म के अंदर ही अंदर यहां आया और बलभद्रसिंहजी को कन्यादान करने के लिए समझा-बुझाकर जमानिया ले गया।1 उस दिन भूतनाथ बहुत परेशान हुआ था और भैरोसिंह मेरे साथ था। हम लोग पहले जब इस मकान में आये थे तो भूतनाथ और बलभद्रसिंहजी के नाम की एक-एक चीठी दोनों की चारपाई पर रख के चले गये थे।

1देखिए चंद्रकान्ता संतति, अठारहवां भाग, आठवां बयान।

बलभद्रसिंहजी की चीठी में उनकी दिलजमई के लिए एक अंगूठी भी रखी थी जो उन्होंने ब्याह के पहले मुझे बतौर सगुन के दी थी। इसके बाद दूसरे दिन फिर पहुंचे और भूतनाथ को अपना पूरा-पूरा परिचय देकर बलभद्रसिंहजी को ले गये। उनके जाने का सबब भूतनाथ को ठीक-ठीक कह दिया था मगर साथ ही इसके इस बात की भी ताकीद कर दी थी कि यह हाल किसी को मालूम न होवे।

इतना कहते-कहते गोपालसिंह कुछ देर के लिए रुके और फिर इस तरह कहने लगे –

”पहले तो मुझे इस बात की चिंता थी कि बलभद्रसिंह मेरा कहना मानेंगे या नहीं मगर उन्होंने इस बात को बड़ी खुशी से मंजूर कर लिया। अपनी लड़कियों से मिलकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और हम लोगों पर जो कुछ आफतें बीत चुकी थीं उन्हें सुन-सुनाकर अफसोस करते रहे, फिर अपनी बीती सुनाकर प्रसन्नतापूर्वक हम लोगों के काम में शरीक हुए अर्थात् हंसी-खुशी के साथ उन्होंने कमलिनी और लाडिली का कन्यादान कर दिया।1 इस काम में भैरोसिंह को भी कम तरद्दुद नहीं उठाना पड़ा बल्कि दोनों कुमार इनसे रंज भी हो गये थे क्योंकि इनकी जुबानी असल बातों का उन्हें पता नहीं लगता था, अस्तु शादी हो जाने के बाद इस बात का बंदोबस्त किया गया कि इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह इस अनूठे ब्याह को भूल जायं तथा इंद्रानी और आनंदी से मिलने की उम्मीद न रखें।”

इसके बाद राजा गोपालसिंह ने और भी बहुत-सा हाल बयान किया जो हम संतति के अठारहवें भाग में लिख आये हैं और सब बातें सुनकर अंत में चंद्रकान्ता ने कहा, ”खैर जो हुआ अच्छा ही हुआ, हम लोगों के लिए तो जैसे किशोरी और कामिनी हैं वैसे ही कमलिनी और लाडिली हैं, मगर किशोरी के नाना को यदि इस बात का कुछ रंज हो तो ताज्जुब नहीं।”

वीरेन्द्र – पिताजी भी यही कहते थे। मगर इसमें कोई शक नहीं कि किशोरी ने परले सिरे की हिम्मत दिखलाई!

गोपाल – साथ ही इसके यह भी समझ लीजिये कि कमलिनी ने भी इस बात को सहज ही स्वीकार नहीं कर लिया, इसके लिए भी हम लोगों को बहुत कुछ उद्योग करना पड़ा। बात यह है कि कमलिनी भी किशोरी को जान से ज्यादे चाहती और मानती है।

चंद्र – मगर मुझे इस बात का अफसोस जरूर है कि इन दोनों की शादी में किसी तरह की तैयारी नहीं की गई और न कुछ धूमधाम ही हुई।

इसके बाद बहुत देर तक इन सभों में बातचीत होती रही।

1देखिए चंद्रकान्ता सन्तति, अठारहवां भाग, बारहवां बयान।

बयान – 3

अब हम कुंअर इंद्रजीतसिंह की तरफ चलते हैं और देखते हैं कि उधर क्या हो रहा है।

किशोरी और कमलिनी की बातचीत सुनकर कुंअर इंद्रजीतसिंह से रहा न गया और उन्होंने बेचैनी के साथ उन दोनों की तरफ देखकर कहा, ”क्या तुम लोगों ने मुझे सताने और दुःख देने के लिए कसम ही खा ली है क्यों मेरे दिल में हौल पैदा कर रही हो असल बात क्यों नहीं बतातीं!”

किशोरी – (मुस्कराती हुई) यद्यपि मुझे आपसे शर्म करनी चाहिए मगर कमला और कमलिनी बहिन ने मुझे बेहया बना दिया, तिस पर आज की दिल्लगी मुझे हंसाते-हंसाते बेहाल कर रही है। आप बिगड़े क्यों जाते हैं! ठहरिये-ठहरिये, जल्दी न कीजिये और समझ लीजिये कि मेरी शादी आपके साथ नहीं हुई बल्कि कमलिनी की शादी आपके साथ हुई है।

कुमार – सो कैसे हो सकता है! और मैं क्योंकर ऐसी अनहोनी बात मान लूं।

कमलिनी – अब आपकी हालत बहुत खराब हो गई! क्या कहूं मैं तो आपको अभी और छकाती मगर दया आती है इसलिए छोड़ देती हूं। इसमें कोई शक नहीं कि मैंने आपसे दिल्लगी की है मगर इसके लिए मैं आपसे इजाजत ले चुकी हूं! (अपनी तर्जनी उंगली दिखाकर) आप इसे पहचानते हैं!

कुमार – हां-हां, मैं इस अंगूठी को खूब पहचानता हूं, तिलिस्म के अंदर यह मैंने इंद्रानी को दी थी, मगर अफसोस!

कमलिनी – अफसोस न कीजिए, आपकी इंद्रानी मरी नहीं बल्कि जीती-जागती आपके सामने खड़ी है।

कमलिनी की इस आखिरी बात ने कुमार के दिल से आश्चर्य और दुःख को धोकर साफ कर दिया और उन्होंने खुशी-खुशी कमलिनी और किशोरी का हाथ पकड़कर कहा, ”क्या यह सच है?’

किशोरी – जी हां, सच है।

कुमार – और जिन दोनों को मैंने मरी हुई देखा था वे कौन थीं?

किशोरी – वे वास्तव में माधवी और मायारानी थीं जो तिलिस्म के अंदर ही अपनी बदकारियों का फल भोगकर मर चुकी थीं। आपके दिल से उस शादी का खयाल उठा देने के लिए ही उनकी लाशें इंद्रानी और आनंदी बनाकर दिखा दी गई थीं, मगर वास्तव में इंद्रानी यहीं मौजूद है और आनंदी लाडिली थी जो आनंदसिंह के साथ ब्याही गई थी। इस समय उधर भी कुछ ऐसा ही रंग मचा हुआ है।

कुमार – तुम्हारी बातों ने इस समय मुझे प्रसन्न कर दिया, विशेष प्रसन्नता तो इस बात से होती है कि तुम खुले दिल से इन बातों को बयान कर रही हो और कमलिनी में तथा तुममें पूरे दर्जे की मुहब्बत मालूम होती है। ईश्वर इस मुहब्बत को बराबर इसी तरह बनाए रहे। (कमलिनी से) मगर तुमने मुझे बड़ा ही धोखा दिया, ऐसी दिल्लगी भी कभी किसी ने नहीं सुनी होगी! आखिर ऐसा किया ही क्यों!

कमलिनी – अब क्या सब बातें खड़े-खड़े ही खत्म होंगी और बैठने की इजाजत न दी जायगी!

कुमार – क्यों नहीं, अब बैठकर हंसी-दिल्लगी करने और खुशी मनाने के सिवाय और हम लोगों को करना ही क्या है!

इतना कहकर कुंअर इंद्रजीतसिंह गद्दी पर बैठ गए और हाथ पकड़कर किशोरी और कमलिनी को अपने दोनों बगल में बैठा लिया। कमला आज्ञा पाकर बैठा ही चाहती थी कि दरवाजे पर ताली बजने की आवाज आई जिसे सुनते ही वह बाहर चली गई और तुरंत लौटकर बोली, ”पहरे वाली लौंडी कहती है कि भैरोसिंह बाहर खड़े हैं।”

कुमार – (खुश होकर) हां-हां, उन्हें जल्द ले आओ, इन हजरत ने मेरे साथ क्या कम दिल्लगी की है अब तो मैं सब बातें समझ गया। भला, आज उन्हें इत्तिला कराके मेरे पास आने का दिन तो नसीब हुआ!

कुमार की बातें सुनकर कमला पुनः बाहर चली गई और कमलिनी तथा किशोरी कुमार के बगल से कुछ हटकर बैठ गईं, इतने ही में भैरोसिंह आ पहुंचे।

कुमार – आइए, आइए, आपने भी मुझे बहुत छकाया है पर क्या चिंता है, समय मिलने पर समझ लूंगा।

भैरो – (हंसकर) जो कुछ किया (किशोरी की तरफ बताकर) इन्होंने किया, मेरा कोई कसूर नहीं।

कुमार – खैर जो हुआ सो अच्छा हुआ, अब मुझे सच्चा-सच्चा हाल तो सुना दो कि तिलिस्म के अंदर इस तरह की रूखी-फीकी शादी क्यों कराई गई और इस काम के अगुला कौन महापुरुष हैं

भैरो – (किशोरी की तरफ इशारा करके) जो कुछ किया सब इन्होंने किया। यही सब काम में अगुआ थीं और राजा गोपालसिंह इस काम में इनकी मदद कर रहे थे। उन्हीं की आज्ञानुसार मुझे भी मजबूर होकर इन लोगों का साथ देना पड़ा था। इसका खुलासा हाल आप कमला से पूछिए, यही ठीक-ठीक बतावेगी।

कुमार – (कमला से) खैर तुम्हीं बताओ कि क्या हुआ?

कमला – (किशोरी से) कहो बहिन, अब तो मैं साफ कह दूं?

किशोरी – अब छिपाने की जरूरत ही क्या है?

कमला ने इस तरह से कहना शुरू किया, ”किशोरी बहिन ने मुझसे कई दफे कहा कि ‘तू इस बात का बंदोबस्त कर कि किसी तरह मेरी शादी के पहले ही कमलिनी की शादी कुमार के साथ हो जाय’ मगर मेरे किये इसका कुछ भी बंदोबस्त न हो सका और कममिनी रानी भी इस बात पर राजी होती दिखाई न दीं अस्तु मैं बात टालकर चुपकी हो बैठी, मगर मुझे इस बात में सुस्त देखकर किशोरी ने फिर मुझसे कहा कि ‘देख कमला, तू मेरी बात पर कुछ ध्यान नहीं देती, मगर इसे खूब समझ रखियो कि अगर मेरा इरादा पूरा न हुआ अर्थात् मेरी शादी के पहले ही कमलिनी की शादी कुमार के साथ न हो गई तो मैं कदापि ब्याह न करूंगी बल्कि अपने गले में फांसी लगाकर जान दे दूंगी। कमलिनी ने जो कुछ एहसान मुझ पर किये हैं उनका बदला मैं किसी तरह चुका नहीं सकती, अगर कुछ चुका सकती हूं तो इसी तरह कि कमलिनी को पटरानी बनाऊं और आप उसकी लौंडी होकर रहूं, मगर अफसोस है कि तू मेरी बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं देती जिसका नतीजा यह होगा कि एक दिन तू रोएगी और पछताएगी।’

किशोरी की इस आखिरी बात से मेरे कलेजे पर एक चोट-सी लगी और मैंने सोचा कि जो कुछ यह कहती है बहुत ठीक है, ऐसा होना ही चाहिए। आखिर मैंने राजा गोपालसिंह से यह सब हाल कहा और उन्हें अपनी तरफ से भी बहुत-कुछ समझाया जिसका नतीजा यह निकला कि वे दिलोजान से इस काम के लिये तैयार हो गए। जब वे खुद तैयार हो गए तो फिर क्या था सब काम खूबी के साथ होने लगा।

राजा गोपालसिंह ने इस विषय में कमलिनीजी से कहा और उन्हें बहुत समझाया मगर ये राजी न हुईं और बोलीं कि ‘आपकी आज्ञानुसार मैं कुमार से ब्याह कर लेने के लिए तैयार हूं मगर यह नहीं हो सकता कि किशोरी से पहले ही अपनी शादी करके उसका हक मार दूं, हां, किशोरी की शादी हो जाने के बाद जो कुछ आप आज्ञा देंगे मैं करूंगी’। यह जवाब सुनकर गोपालसिंहजी ने फिर कमलिनी को समझाया और कहा कि ‘अगर तुम किशोरी की इच्छा पूरी न करोगी तो यह अपनी जान दे देगी, फिर तुम ही सोच लो कि उसके मर जाने से कुमार की क्या हालत होगी और तुम्हारी इस जिद का क्या नतीता निकलेगा?

गोपालसिंहजी की इस बात ने (कमलिनी की तरफ बता के) इन्हें लाजवाब कर दिया और लाचार हो शादी करने पर राजी हो गईं। तब राजा साहब ने भैरोसिंह को मिलाया और ये इस बात पर राजी हो गये। इसके बाद यह सोचा गया कि कुमार इस बात को स्वीकार न करेंगे अस्तु उन्हें धोखा देकर जहां तक हो तिलिस्म के अंदर ही कमलिनी के साथ उनकी शादी कर देनी चाहिए, क्योंकि तिलिस्म के बाहर हो जाने पर हम लोग स्वाधीन न रहेंगे और अगर बड़े महाराज इस बात को सुनकर अस्वीकार कर देंगे तो फिर हम लोग कुछ भी न कर सकेंगे इत्यादि।

बस यही सबब हुआ कि तिलिस्म के अंदर आपसे तरह-तरह की चालबाजियां खेली गईं और भैरोसिंह ने भी आप से भेद छिपा रखा। खुद राजा गोपालसिंहजी तिलिस्म के अंदर आये और बुड्ढे दारोगा बनकर इस काम में उद्योग करने लगे।”

कुमार – (बात रोककर ताज्जुब के साथ) क्या खुद गोपालसिंह बुड्ढे दारोगा बने थे?

कमला – जी हां, वह बुड्ढी मैं बनी थी, तथा किशोरी और इंदिरा आदि ने लड़कों का रूप धरा था।

कम – (हंसकर) यह बुड्ढी भैरोसिंह की जोरू बनी थी। अब इस बात को सच कर दिखाना चाहिए, अर्थात् इस बुड्ढी को भैरोसिंह के गले मढ़ना चाहिये।

कुमार – जरूर! (कमला से) तब तो मैं समझता हूं कि ‘मकरंद’ इत्यादि के बारे में जो कुछ भैरोसिंह ने बयान किया था वह सब झूठ था।

कमला – हां बेशक उसमें बारह आने से ज्यादा झूठ था।

कुमार – खैर तब क्या हुआ तुम आगे बयान करो।

कमला ने फिर इस तरह बयान करना शुरू किया –

”भैरोसिंह जान-बूझकर इसलिये पागल बनाकर आपको दिखाये गये थे जिससे एक तो आप धोखे में पड़ जायं और समझें कि हमारे विपक्षी लोग भी वहां रहते हैं, दूसरे आपसे मिलाप हो जाने पर यदि भैरोसिंह से कभी कुछ भूल भी हो जाय तो आप यही समझें कि अभी तक इनके दिमाग में पागलपन का कुछ धुआं बचा हुआ है। जिस समय हम लोग तिलिस्म के अंदर पहुंचाए गये थे, उस समय राजा गोपालसिंह ने अपनी खास तिलिस्मी किताब कमलिनीजी को दे दी थी जिससे तिलिस्म का बहुत-कुछ हाल इन्हें मालूम हो गया था और इनकी मदद से हम लोग जो चाहते थे करते थे तथा किसी बात की तकलीफ भी नहीं होती थी और खाने-पीने की सभी चीजें राजा गोपालसिंहजी पहुंचा दिया करते थे।

भैरोसिंह जब पागल बनने के बाद आपसे मिले थे तो अपना ऐयारी का बटुआ जान – बूझकर कमलिनीजी के पास रख गये थे। फिर जब भैरोसिंह को बुलाने की इच्छा हुई तो उन्हीं का बटुआ और पीले मकरंद की लड़ाई दिखाकर वे आपसे अलग कर लिये गये, कमलिनी पीले मकरन्द की सूरत में थीं और मैं उनका मुकाबला कर रही थी, कही-बदी और मेल की लड़ाई थी इसलिए आपने समझा होगा कि हम दोनों बड़े बहादुर और लड़ाके हैं। अस्तु इस मामले के बाद जब इंद्रानी और आनंदी वाले बाग में भैरोसिंह आपसे मिले तब भी इन्होंने बहुत-सी झूठ बातें बनाकर आपसे कहीं और जब आप इनसे रंज हुए तो आपका संग छोड़कर फिर हम लोगों की तरफ चले आये।1 आप दोनों भाई उस समय शादी करने से इंकार करते थे मगर मजबूरी और लाचारी ने आपका पीछा न छोड़ा, इसके अतिरिक्त खुद इंद्रानी और आनंदी ने भी आप दोनों को किशोरी और कामिनी की चीठी दिखाकर खुश कर लिया था। यहां आकर आपने सुना ही है कि कमलिनीजी के पिता बलभद्रसिंहजी जिन्हें भूतनाथ छुड़ा लाया था यकायक गायब हो गए और कई दिनों के बाद लौटकर आये।”

कुमार – हां सुना था।

कमला – बस उन्हें राजा गोपालसिंह ही यहां आकर ले गये थे और खुद बलभद्रसिंहजी ने ही अपनी दोनों लड़कियों का कन्यादान किया था।

कुमार – (हंसते हुए) ठीक है, अब मैं सब बातें समझ गया और यह भी मालूम हो गया कि केवल धोखा देने के लिए ही माधवी और मायारानी जो पहले ही मर चुकी थीं, इंद्रानी और आनंदी बनाकर दिखाई गई थीं।

1देखिए चंद्रकान्ता संतति, अठारहवां भाग, ग्यारहवां बयान।

भैरो – जी हां।

कुमार – मगर नानक वहां क्योंकर पहुंचा था

भैरो – आप सुन चुके हैं कि तारासिंह ने नानक को कैसा छकाया था, अस्तु वह हम लोगों से बदला लेने की नीयत करके वहां गया और मायारानी से मिल गया था। कमलिनीजी ने वहां का रास्ता उसे बता दिया था उसी का यह नतीजा निकला। जब मायारानी राजा गोपालसिंह के कब्जे में पड़ गई तब राजा साहब ने नानक को बहुत-कुछ बुरा-भला कहा, यहां तक कि नानक उनके पैरों पर गिर पड़ा और उनसे अपने कसूर की माफी मांगी। उस समय राजा साहब ने उसका कसूर माफ करके उसे अपने साथ रख लिया। तब से वह उन्हीं के कब्जे में रहा और उन्हीं की आज्ञानुसार आपको धोखे में डालने की नीयत से मायारानी और माधवी की लाश के पास दिखाई दिया था। वे दोनों लाश पहले ही मारी जा चुकी थीं, मगर आपको भुलावा देने की नीयत से उनकी लाश इंद्रानी और आनंदी बनाकर दिखाई गई थीं। इसके अतिरिक्त और जो कुछ हाल है वह आपको राजा गोपालसिंहजी की जुबानी मालूम होगा।

कुमार – ठीक है, मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूं कि मायारानी और माधवी की लाश को इंद्रानी और आनंदी की सूरत में देखकर जो कुछ रंज मुझे हुआ था और आज तक इस घटना का जो कुछ असर मेरे दिल में था वह जाता रहा। अब मैं अपने को खुशनसीब समझने लगा। (कमलिनी से) अच्छा यह बताओ कि रात की दिल्लगी तुमने किस तौर पर की मेरी समझ में कुछ न आया और न इस बात का पता लगा कि मेरी सूरत क्योंकर बदल गई?

कमलिनी – इस बात का जवाब आपको कमला से मिलेगा।

कमला – यह तो एक मामूली बात है। समझ लीजिये कि जब आप सो गए तो इन्हीं (कमलिनी) ने आपको बेहोश करके आपकी सूरत बदल दी।1

कुमार – ठीक है मगर ऐसा क्यों किया?

कमला – एक तो दिल्लगी के लिए और दूसरे किशोरी के इस खयाल से कि जिसकी शादी पहले हुई है उसी की सुहागरात भी पहले होनी चाहिए।

कुमार (हंसकर और किशोरी की तरफ देखकर) अच्छा तो यह सब आपकी बहादुरी है। खैर आज आपकी पारी होगी ही, समझ लूंगा!

किशोरी ने शर्माकर सिर नीचा कर लिया और कुमार की बात का कुछ भी जवाब न दिया।

इसके बाद वे लोग कुछ देर तक हंसी-खुशी की बातें करते रहे और तब अपने-अपने ठिकाने चले गये।

1यही काम उधर लाडिली ने किया था। खुद तो पहले ही से कामिनी बनी हुई थी मगर जब कुमार सो गए तब उन्हें बेहोश करके उनकी सूरत बदल दी और सुबह को उनके जागने के पहले ही अपना चेहरा साफ कर लिया।

कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह की शादी के बाद कई दिनों तक हंसी-खुशी का जलसा बराबर बना रहा क्योंकि इस शादी के आठवें ही दिन कमला की शादी भैरोसिंह के साथ और तारासिंह की शादी इंदिरा के साथ हो गई और इस नाते को भूतनाथ तथा इंद्रदेव ने बड़ी खुशी के साथ मंजूर कर लिया।

इन सब कामों से छुट्टी पाकर महाराज ने निश्चय किया कि अब पुनः उसी बगुले वाले तिलिस्मी मकान में चलकर कैदियों का मुकदमा सुना जाय, अस्तु आज्ञानुसार बाहर के आये हुए मेहमान लोग हंसी-खुशी के साथ बिदा किए गये और फिर कई दिनों तक तैयारी करने के बाद सभों का डेरा कूच हुआ और पहले की तरह पुनः वह तिलिस्मी मकान हरा-भरा दिखाई देने लगा। कैदी भी उसी मकान के तहखाने में पहुंचाये गये और सबका मुकदमा सुनने की तैयारी होने लगी।

बयान – 4

अब हम थोड़ा-सा हाल नानक और उसकी मां का बयान करते हैं जो हर तरह से कसूरवार होने पर भी महाराज की आज्ञानुसार कैद किये जाने से बच गये और उन्हें केवल देश-निकाले का दंड दिया गया।

यद्यपि महाराज ने उन दोनों पर दया की और उन्हें छोड़ दिया मगर यह बात सर्वसाधारण को पसंद न आई। लोग यही कहते रहे कि ‘यह काम महाराज ने अच्छा नहीं किया और इसका नतीजा बहुत बुरा निकलेगा’। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् नानक ने इस एहसान को भूलकर फसाद करने और लोगों की जान लेने पर कमर बांधी।

जब नानक की मां और नानक को देश-निकाले का हुक्म हो गया और इंद्रदेव के आदमी इन दोनों को सरहद के पार करके लौट आये तब ये दोनों बहुत ही दुःखी और उदास हो एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। उस समय सबेरा हो चुका था और सूर्य की लालिमा पूरब तरफ आसमान पर फैल रही थी।

रामदेई – कहो अब क्या इरादा है हम लोग तो बड़ी मुसीबत में फंस गए!

नानक – बेशक मुसीबत में फंस गए और बिल्कुल कंगाल कर दिये गए। तुम्हारे जेवरों के साथ ही साथ मेरे हरबे भी छीन लिए गये और हम इस लायक भी न रहे कि किसी ठिकाने पर पहुंचकर रोजी के लिए कुछ उद्योग कर सकते।

रामदेई – ठीक है मगर मैं समझती हूं कि अगर हम लोग किसी तरह नन्हों के यहां पहुंच जायेंगे तो खाने का ठिकाना हो जायेगा और उससे किसी तरह की मदद भी ले सकेंगे।

नानक – नन्हों के यहां जाने से क्या फायदा होगा वह तो खुद गिरफ्तार होकर कैदखाने की हवा खा रही होगी! हां उसका भतीजा बेशक बचा हुआ है जिसे उन लोगों ने छोड़ दिया और जो नन्हों की जायदाद का मालिक बन बैठा होगा, मगर उससे किसी तरह की उम्मीद मुझको नहीं हो सकती है।

रामदेई – ठीक है मगर नन्हों की लौंडियों में से दो-एक ऐसी हैं जिनसे मुझे मदद मिल सकती है।

नानक – मुझे इस बात की भी उम्मीद नहीं है, इसके अतिरिक्त वहां तक पहुंचने के लिए भी तो समय चाहिए, यहां तो एक शाम की भूख बुझाने के लिए पल्ले में कुछ नहीं है।

रामदेई – ठीक है मगर क्या तुम अपने घर भी मुझे नहीं ले जा सकते वहां तो तुम्हारे पास रुपए-पैसे की कमी नहीं होगी!

नानक – हां यह हो सकता है, वहां पहुंचने पर फिर मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकती, मगर इस समय तो वहां तक पहुंचना भी कठिन हो रहा है। (लंबी सांस लेकर) अफसोस! मेरा ऐयारी का बटुआ भी छीन लिया गया और हम लोग इस लायक भी न रह गये कि किसी तरह सूरत बदलकर अपने को लोगों की आंखों से छिपा लेते।

रामदेई – खैर जो होना था सो हो गया, अब इस समय अफसोस करने से काम न चलेगा। सब जेवर छिन जाने पर भी मेरे पास थोड़ा-सा सोना बचा हुआ है, अगर इससे कुछ काम चले तो…।

नानक – (चौंककर) क्या कुछ है!

रामदेई – हां!

इतना कहकर रामदेई ने धोती के अंदर छिपी हुई सोने की एक करधनी निकाली और नानक के आगे रख दी।

नानक – (करधनी को हाथ में लेकर) बहुत है, हम लोगों को घर तक पहुंचा देने के लिए काफी है, और वहां पहुंचने पर किसी तरह की तकलीफ न रहेगी क्योंकि वहां मेरे पास खाने-पीने की कमी नहीं है।

रामदेई – तो क्या वहां चलकर इन बातों को भूल…।

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नानक – (बात काटकर) नहीं-नहीं, यह न समझना कि वहां पहुंचकर हम इन बातों को भूल जायेंगे और बेकार बैठे टुकड़े तोड़ेंगे, बल्कि वहां पहुंचकर इस बात का बंदोबस्त करेंगे कि अपने दुश्मनों से बदला लिया जाय।

रामदेई – हां, मेरा भी यही इरादा है, क्योंकि मुझे तुम्हारे बाप की बेमुरौवती का बड़ा रंज है जिसने हम लोगों को दूध की मक्खी की तरह एकदम निकालकर फेंक दिया और पिछली मुहब्बत का कुछ खयाल न किया। शांता और हरनामसिंह को पाकर ऐंठ गया और इस बात का कुछ भी खयाल न किया कि आखिर नानक भी तो उसका ही लड़का है और वह ऐयारी भी जानता है।

नानक – (जोश के साथ) बेशक यह उसकी बेईमानी और हरामजदगी है! अगर वह चाहता तो हम लोगों को बचा सकता था।

रामदेई – बचा लेना क्या, यह जो कुछ किया सब उसी ने तो किया। महाराज ने तो हुक्म दे ही दिया था कि ‘भूतनाथ की इच्छानुसार इन दोनों के साथ बर्ताव किया जाय।’

नानक – बेशक ऐसा ही है! उसी कम्बख्त ने हम लोगों के साथ ऐसा सलूक किया। मगर क्या चिंता है। इसका बदला लिये बिना मैं कभी न छोडूंगा।

रामदेई – (आंसू बहाकर) मगर तेरी बातों पर मुझे विश्वास नहीं होता क्योंकि तेरा जोश थोड़ी ही देर का होता है।

नानक – (क्रोध के साथ रामदेई के पैरों पर हाथ रख के) मैं तुम्हारे चरणों की कसम खाकर कहता हूं कि इसका बदला लिए बिना कभी न रहूंगा।

रामदेई – भला मैं भी तो सुनूं कि तुम क्या बदला लोगे मेरे खयाल से तो वह जान से मार देने लायक है।

नानक – ऐसा ही होगा, ऐसा ही होगा! जो तुम कहती हो वही करूंगा बल्कि उसके लड़के हरनामसिंह को यमलोक पहुंचाऊंगा!!

रामदेई – शाबाश! मगर मेरा चित्त तब तक प्रसन्न न होगा जब तक शांता का सिर अपने तलवों से न रगड़ने पाऊंगी!

नानक – मैं उसका सिर भी काटकर तुम्हारे सामने लाऊंगा और तब तुमसे आशीर्वाद लूंगा।

रामदेई – शाबाश, ईश्वर तेरा भला करे! मैं समझती हूं कि इन बातों के लिए तू एक दफे फिर कसम खा जिससे मेरी पूरी दिलजमई हो जाय।

नानक – (सूर्य की तरफ हाथ उठाकर) मैं त्रिलोकीनाथ के सामने हाथ उठाकर कसम खाता हूं कि अपनी मां की इच्छा पूरी करूंगा और जब तक ऐसा न कर लूंगा अन्न न खाऊंगा।

रामदेई – (नानक की पीठ पर हाथ फेरकर) बस-बस, अब मैं प्रसन्न हो गई और मेरा आधा दुःख जाता रहा।

नानक – अच्छा तो फिर यहां से उठो। (हाथ का इशारा करके) किसी तरह उस गांव में पहुंचना चाहिए फिर सब बंदोबस्त होता रहेगा।

दोनों उठे और एक गांव की तरफ रवाना हुए जो वहां से दिखाई दे रहा था।

बयान – 5

पाठक, आपने सुना कि नानक ने क्या प्रण किया अस्तु अब यहां पर हम यह कह देना उचित समझते हैं कि नानक अपनी मां को लिये हुए जब घर पहुंचा तो वहां उसने एक दिन के लिए भी आराम न किया। ऐयारी का बटुआ तैयार करने के बाद हर तरह का इंतजाम करके और चार-पांच शागिर्दों और नौकरों को साथ ले के वह उसी दिन घर के बाहर निकला और चुनार की तरफ रवाना हुआ। जिस दिन कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह की बारात निकलने वाली थी उस दिन वह चुनार की सरहद में मौजूद था। बारात की कैफियत उसने अपनी आंखों से देखी थी और इस बात की फिक्र में भी लगा हुआ था कि किसी तरह दो-चार कैदियों को कैद से छुड़ाकर अपना साथी बना लेना चाहिए और मौका मिलने पर राजा गोपालसिंह को भी इस दुनिया से उठा देना चाहिए।

अब हम कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह का हाल बयान करते हैं।

दोपहर दिन का समय है और सब कोई भोजन इत्यादि से निश्चिंत हो चुके हैं। एक सजे हुए कमरे में राजा गोपालसिंह, भरतसिंह, कुंअर आनंदसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह बैठे हुए हंसी-खुशी की बातें कर रहे हैं।

गोपाल – (भरतसिंह से) क्या मुझे स्वप्न में भी इस बात की उम्मीद हो सकती थी कि आपसे किसी दिन मुलाकात होगी कदापि नहीं, क्योंकि लोगों के कहने पर मुझे विश्वास हो गया था कि आप जंगल में डाकुओं के हाथ से मारे गए…।

भरत – और इसका बहुत बड़ा सबब यह था कि तब तक दारोगा की बेईमानी का आपको पता न लगा था, उसे आप ईमानदार समझते थे और उसी ने मुझे कैद किया था।

गोपाल – बेशक यही बात है मगर खैर, ईश्वर जिसका सहायक रहता है वह किसी के बिगाड़े नहीं बिगड़ सकता। देखिए मायारानी ने मेरे साथ क्या कुछ न किया, मगर ईश्वर ने मुझे बचा लिया और साथ ही इसके बिछुड़े हुओं को भी मिला दिया!

भरत – ठीक है, मगर मेरे प्यारे दोस्त, मैं कह नहीं सकता कि कम्बख्त दारोगा ने मुझे कैसी तकलीफें दी हैं और मजा तो यह है कि इतना करने पर भी वह बराबर अपने को निर्दोष ही बताता रहा। अस्तु जब मैं अपना हाल बयान करूंगा तब आपको मालूम होगा कि दुनिया में कैसे-कैसे नमकहराम और संगीन लोग होते हैं और बदों के साथ नेकी करने का नतीजा बहुत बुरा होता है।

गोपाल – ठीक है, ठीक है, इन्हीं बातों को सोचकर भैरोसिंह बार-बार मुझसे कहते हैं कि आपने नानक को सूखा छोड़ दिया सो अच्छा नहीं किया, वह बद है और बदों के साथ नेकी करना वैसा ही है जैसा नेकों के साथ बदी करना।

भरत – भैरोसिंह का कहना वाजिब है, मैं उनका समर्थन करता हूं।

भैरो – कृपानिधान, सच तो यों है कि नानक की तरफ से मुझे किसी तरह बेफिक्री होती ही नहीं। मैं अपने दिल को कितना ही समझाता हूं मगर वह जरा भी नहीं मानता। ताज्जुब नहीं कि…।

भैरोसिंह इतना कह ही रहा था कि सामने से भूतनाथ आता हुआ दिखाई पड़ा।

गोपाल – अजी वाह जी भूतनाथ, चार-चार दफे बुलाने पर भी आपके दर्शन नहीं होते!!

भूत – (मुस्कराता हुआ) अभी क्या हुआ है, दो-चार दिन बाद तो मेरे दर्शन और भी दुर्लभ हो जायंगे!

गोपाल – (ताज्जुब से) सो क्या?

भूत – यही कि मेरा सपूत नानक इस शहर में आ पहुंचा है और मेरी अन्त्येष्टि क्रिया करके बहुत जल्द अपने सिर का बोझ हलका करने की फिक्र में लगा है। (बैठकर) कृपा कर आप भी जरा होशियार रहियेगा!

गोपाल – तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि वह बदनीयती के साथ यहां आ गया है।

भूत – मुझे अच्छी तरह मालूम हो गया है। इसी से तो मुझे यहां आने में देर हो गई क्योंकि मैं यह हाल कहने और तीन-चार दिन की छुट्टी लेने के लिए महाराज के पास चला गया था, वहां से लौटा हुआ आपके पास आ रहा हूं।

गोपाल – तो क्या महाराज से छुट्टी ले आये?

भूत – जी हां, अब आपसे यह पूछना है कि आप अपने लिये क्या बंदोबस्त करेंगे?

गोपाल – तुम तो इस तरह की बातें करते हो जैसे उसकी तरफ से कोई बहुत बड़ा तरद्दुद हो गया हो! वह बेचारा कल का लौंडा हम लोगों के साथ क्या कर सकता है।

भूत – सो तो ठीक है मगर दुश्मन को छोटा और कमजोर न समझना चाहिए।

गोपाल – तुम्हें ऐसा ही डर है तो कहो, बैठे ही बैठे चौबीस घंटे के अंदर उसे गिरफ्तार कराके तुम्हारे हवाले कर दूं?

भूत – यह मुझे विश्वास है और आप ऐसा कर सकते हैं, मगर मुझे यह मंजूर नहीं है, क्योंकि मैं जरा दूसरे ढंग से उसका मुकाबिला किया चाहता हूं। आप जरा बाप-बेटे की लड़ाई देखिये तो! हां अगर वह आपकी तरफ झुके तो जैसा मौका देखिये कीजियेगा।

गोपाल – खैर ऐसा ही सही, मगर तुमने क्या सोचा है, जरा अपना मनसूबा तो सुनाओ!

इसके बाद उन लोगों में देर तक बातें होती रहीं और दो घंटे के बाद भूतनाथ उठकर अपने डेरे की तरफ चला गया।

बयान – 6

नानक जब चुनारगढ़ की सरहद पर पहुंचा तब सोचने लगा कि दुश्मनों से क्योंकर बदला लेना चाहिए। वह पांच आदमियों को अपना शिकार समझे हुए था और उन्हीं पांचों की जान लेने का विचार करता था। एक तो राजा गोपालसिंह, दूसरे इंद्रदेव, तीसरा भूतनाथ, चौथा हरनामसिंह और पांचवीं शांता। बस ये ही पांच उसकी आंखों में खटक रहे थे मगर इनमें से दो अर्थात् राजा गोपालसिंह और इंद्रदेव के पास फटकने की तो उसकी हिम्मत नहीं पड़ती थी और वह समझता था कि ये दोनों तिलिस्मी आदमी हैं, इनके काम जादू की तरह हुआ करते हैं और इनमें लोगों के दिल की बात समझ जाने की कुदरत है, मगर बाकी तीनों को वह निरा शिकार ही समझता था और विश्वास करता था कि इन तीनों को किसी-न-किसी तरह फंसा लेंगे। अस्तु चुनारगढ़ की सरहद में आ पहुंचने के बाद उसने गोपालसिंह और इंद्रदेव का खयाल तो छोड़ दिया और भूतनाथ की स्त्री और उसके लड़के हरनामसिंह की जान लेने के फेर में पड़ा। साथ ही इसके यह भी समझ लेना चाहिए कि नानक यहां अकेला नहीं आया था बल्कि समय पर मदद पहुंचाने के लायक सात-आठ आदमी और भी अपने साथ लाया था जिनमें से चार-पांच तो उसके शागिर्द ही थे।

दोनों कुमारों की शादी में जिस तरह दूर-दूर के मेहमान और तमाशबीन लोग आये थे उसी तरह साधू-महात्मा तथा साधू वेशधारी पाखंडी लोग भी बहुत-से इकट्ठे हो गये थे जिन्हें सरकार की तरफ से खाने-पीने को भरपूर मिलता था और लालच में पड़े हुए उन लोगों ने अभी तक चुनारगढ़ का पीछा नहीं छोड़ा था तथा तिलिस्मी मकान के चारों तरफ तथा आस-पास के जंगलों में डेरा डाले पड़े हुए थे। नानक और उसके साथी लोग भी साधुओं ही के वेश में वहां पहुंचे और उसी मंडली में मिल-जुलकर रहने लगे।

नानक को यह बात मालूम थी कि भूतनाथ का डेरा तिलिस्मी इमारत के अंदर है और वह वहां बड़ी कड़ी हिफाजत के साथ रहता है। इसलिए वह कभी-कभी यह सोचता था कि मेरा काम सहज ही में नहीं हो जायगा बल्कि उसके लिए बड़ी भारी मेहनत करनी पड़ेगी। मगर वहां पहुंचने के कुछ ही दिन बाद (जब शादी-ब्याह से सब कोई निश्चिंत होकर तिलिस्मी इमारत में आ गए) उसने सुना और देखा कि महाराज की आज्ञानुसार भूतनाथ ने स्त्री और लड़के सहित तिलिस्मी इमारत के बाहर एक बहुत बड़े और खूबसूरत खेमे में डेरा डाला है, अतएव वह बहुत ही प्रसन्न हुआ और उसे यह विश्वास हो गया कि मैं अपना काम शीघ्र और सुबीते के साथ निकाल लूंगा।

नानक ने और भी दो-तीन रोज तक इंतजार किया और इस बीच में यह भी जान लिया कि भूतनाथ के खेमे की कुछ विशेष हिफाजत नहीं होती और पहरे वगैरह का इंतजाम भी साधारण-सा ही है तथा उसके शागिर्द लोग भी आजकल मौजूद नहीं हैं।

रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। यद्यपि चंद्रदेव के दर्शन नहीं होते थे मगर आसमान साफ होने के कारण टुटपूंजिया तारागण अपनी नामवरी पैदा करने का उद्योग कर रहे थे और नानक जैसे बुद्धिमान लोगों से पूछ रहे थे कि यदि हम लोग इकट्ठे हो जायं तो क्या चंद्रमा से चौगुनी और पांचगुनी चमक-दमक नहीं दिखा सकते तथा जवाब में यह भी सुना चाहते थे कि ‘निःसंदेह’! ऐसे समय में एक आदमी स्याह लबादा ओढ़े रहने पर भी लोगों की निगाहों से अपने को बचाता हुआ भूतनाथ के खेमे की तरफ जा रहा है। पाठक समझ ही गए होंगे कि यह नानक है अस्तु जब वह खेमे के पास पहुंचा तो अपने मतलब का सन्नाटा देखकर खड़ा हो गया और किसी के आने का इंतजार करने लगा। थोड़ी ही देर में एक दूसरा आदमी भी उसके पास आया और दो-चार सायत तक बातें करके चला गया। उस समय नानक जमीन पर लेट गया और धीरे-धीरे खिसकता हुआ खेमे की कनात के पास जा पहुंचा, तब उसे धीरे से उठाकर अंदर चला गया। यहां उसने अपने को गुलामगर्दिश में पाया मगर यहां बिल्कुल ही अंधकार था, हां यह जरूर मालूम होता था कि आगे वाली कनात के अंदर अर्थात् खेमे में कुछ रोशनी हो रही है। नानक फिर वहां लेट गया और पहले की तरह यह दूसरी कनात भी उठाकर खेमे के अंदर जाने का विचार कर ही रहा था कि दाहिनी तरफ से कुछ खड़खड़ाहट की आवाज मालूम पड़ी। वह चौंका और उसी अंधेरे में तीन-चार कदम बाईं तरफ हटकर पुनः कोई आवाज सुनने और उसे जांचने की नीयत से ठहर गया। जब थोड़ी देर तक किसी तरह की आहट नहीं मालूम हुई तो पहले की तरह जमीन पर लेट गया और कनात उठा अंदर जाना ही चाहता था कि दाहिनी तरफ फिर किसी के पैर पटक-पटककर चलने की आहट मालूम हुई। वह खड़ा हो गया और पुनः चार-पांच कदम पीछे की तरफ (बाईं तरफ) हट गया, मगर इसके बाद फिर किसी तरह की आहट मालूम न हुई। कुछ देर तक इंतजार करने के बाद वह पुनः जमीन पर लेट गया और कनात के अंदर सिर डालकर देखने लगा। कोने की तरफ एक मामूली शमादान जल रहा था जिसकी मद्धिम रोशनी में दो चारपाई बिछी हुई दिखाई पड़ीं। कुछ देर तक गौर करने पर नानक को निश्चय हो गया कि इन दोनों चारपाइयों पर भूतनाथ तथा उसकी स्त्री शांता सोई हुई है परंतु लड़का हरनामसिंह खेमे के अंदर दिखाई न दिया और उसके लिए नानक को कुछ चिंता हुई, तथापि वह साहस करके खेमे के अंदर चला ही गया।

डरता-कांपता नानक धीरे-धीरे चारपाई के पास पहुंच गया, चाहा कि खंजर से इन दोनों का गला काट डाले मगर फिर सोचने लगा कि पहले किस पर वार करूं, भूतनाथ पर या शांता पर वे दोनों सिर से पैर तक चादर ताने पड़े हुए थे इससे यह मालूम करने की जरूरत थी कि किस चारपाई पर कौन सो रहा है, साथ ही इसके नानक इस बात पर भी गौर कर रहा था कि रोशनी बुझा दी जाय या नहीं। यद्यपि वह वार करने के लिए खंजर हाथ में ले चुका था मगर उसकी दिली कमजोरी ने उसका पीछा नहीं छोड़ा था और उसका हाथ कांप रहा था।

बयान – 7

किशोरी, कामिनी, कमलिनी और लाडिली ये चारों बड़ी मुहब्बत के साथ अपने दिन बिताने लगीं। इनकी मुहब्बत दिखौवा नहीं थी बल्कि दिली और सच्चाई के साथ थी। चारों ही जमाने के ऊंच-नीच को अच्छी तरह समझ चुकी थीं और खूब जानती थीं कि दुनिया में हर एक के साथ दुःख और सुख का चर्चा लगा ही रहता है, खुशी तो मुश्किल से मिलती है मगर रंज ओैर दुःख के लिए किसी तरह का उद्योग नहीं करना पड़ता, यह आप से आप पहुंचता है, और एक साथ दस को लपेट लेने पर भी जल्दी नहीं छोड़ता, इसलिये बुद्धिमान का काम यही है कि जहां तक हो सके खुशी का पल्ला न छोड़े और न कोई काम ऐसा करे जिसमें दिल को किसी तरह का रंज पहुंचे। इन चारों औरतों का दिल उन नादान और कमीनी औरतों का-सा नहीं था जो दूसरों को खुश देखते ही जल-भुनकर कोयला हो जाती हैं और दिन-रात कुप्पे की तरह मुंह फुलाये आंखों से पाखंड का आंसू बहाया करती हैं अथवा घर की औरतों के साथ मिल-जुलकर रहना अपनी बेइज्जती समझती हैं।

इन चारों का दिल आईने की तरफ साफ था, नहीं-नहीं, हम भूल गये, हमें दिल के साथ आईने की उपमा पसंद नहीं। न मालूम लोगों ने इस उपमा को किस लिये पसंद कर रखा है! उपमा में उसी वस्तु का व्यवहार करना चाहिए जिसकी प्रकृति में उपमेय से किसी तरह का फर्क न पड़े, मगर आईने (शीशे) में यह बात पाई नहीं जाती, हर एक आईना बेऐब-साफ और बिना धब्बे के नहीं होता और वह हर एक की सूरत एक-सी भी नहीं दिखाता बल्कि जिसकी जैसी सूरत होती है उसके मुकाबिले में वैसा ही बन जाता है। इसलिये आईना उन लोगों के दिल को कहना उचित है जो नीति-कुशल हैं या जिन्होंने यह बात ठान ली है कि जो जैसा करे उसके साथ वैसा ही करना चाहिए, चाहे वह अपना हो या पराया, छोटा हो या बड़ा। मगर इन चारों में यह बात न थी, ये बड़ों की झिड़की को आशीर्वाद और छोटे की ऐंठन को उनकी नादानी समझती थीं। जब कोई हमजोली या आपस वाली क्रोध में भरी हुई अपना मुंह बिगाड़े इनके सामने आती तो यदि मौका होता तो ये हंसकर कह देतीं कि ‘वाह, ईश्वर ने अच्छी सूरत बनाई है!’ या ‘बहिन, हमने तो तुम्हारा जो कुछ बिगाड़ा सो बिगाड़ा मगर तुम्हारी सूरत ने तुम्हारा क्या कसूर किया है जो तुम उसे बिगाड़ रही हो बस इतने ही में उसका रंग बदल जाता। इन बातों को विचारकर हम इनके दिल का आईने के साथ मिलान करना पसंद नहीं करते बल्कि यह कहना मुनासिब समझते हैं कि ‘इनका दिल समुद्र की तरह गंभीर था।’

इन चारों को इस बात का खयाल ही न था कि हम अमीर हैं, हाथ-पैर हिलाना या घर का कामकाज करना हमारे लिए पाप है। ये खुशी से घर का काम जो इनके लायक होता करतीं और खाने-पीने की चीजों पर विशेष ध्यान रखतीं। सबसे बड़ा खयाल इन्हें इस बात का रहता था कि इनके पति इनसे किसी तरह रंज न होने पावें और घर के किसी बड़े बुजुर्ग को इन्हें बेअदब कहने का मौका न मिले। महारानी चंद्रकान्ता की तो बात ही दूसरी है, ये चपला और चंपा को सास की तरह ही समझतीं और इज्जत करती थीं। घर की लौंडियां तक इनसे प्रसन्न रहतीं और जब किसी लौंडी से कोई कसूर हो जाता तो झिड़की और गालियों के बदले नसीहत के साथ समझाकर उसे कायल और शर्मिन्दा कर देतीं और उसके मुंह से कहला देतीं कि ‘बेशक मुझसे भूल हुई आइंदे कभी ऐसा न होगा!’ सबसे विचित्र बात तो यह थी कि इनके चेहरे पर रंज, क्रोध या उदासी कभी दिखाई देती ही न थी और जब कभी ऐसा होता तो किसी भारी घटना का अनुमान किया जाता था। हां, उस समय इनके दुःख और चिंता का कोई ठिकाना नहीं रहता था जब ये अपने पति को किसी कारण दुःखी देखतीं। ऐसी अवस्था में इनकी सच्ची भक्ति के कारण इनके पति को अपनी उदासी छिपानी पड़ती या इन्हें प्रसन्न करने और हंसाने के लिए और किसी तरह का उद्योग करना पड़ता। मतलब यह है कि इन्होंने घर भर का दिल अपने हाथ में कर रखा था और ये घर भर की प्रसन्नता का कारण समझी जाती थीं।

भूतनाथ की स्त्री शांता का इन्हें बहुत बड़ा खयाल रहता और ये उसकी पिछली घटनाओं को याद करके उसकी पति-भक्ति की सराहना किया करतीं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि इन्हें अपनी जिंदगी में दुखों के बड़े-बड़े समुद्र पार करने पड़े थे परंतु ईश्वर की कृपा से जब ये किनारे लगीं तब इन्हें कल्पवृक्ष की छाया मिली और किसी बात की परवाह न रही।

इस समय संध्या होने में घंटे भर की देर है। सूर्य भगवान अस्ताचल की तरफ तेजी के साथ झुके चले जा रहे हैं और उनकी लाल-लाल पिछली किरणों से बड़ी-बड़ी अटारियां तथा ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के ऊपरी हिस्सों पर ठहरा हुआ सुनहरा रंग बड़ा ही सोहावना मालूम पड़ता है। ऐसा जान पड़ता है मानो प्रकृति ने प्रसन्न होकर अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपने सहचारियों और सहायकों को सुनहरा ताज पहिरा दिया है।

ऐसे समय में किशोरी, कामिनी, कमलिनी, लाडिली और कमला अटारी पर एक सजे हुए बंगले के अंदर बैठी जालीदार खिड़कियों से उस जंगल की शोभा देख रही हैं जो इस तिलिस्मी मकान से थोड़ी दूर पर है और साथ ही इसके मीठी बातें भी करती जाती हैं।

कमलिनी – (किशोरी से) बहिन, एक दिन वह था कि हमें अपनी इच्छा के विरुद्ध ऐसे बल्कि इससे बढ़कर भयानक जंगलों में घूमना पड़ता था और उस समय यह सोचकर डर मालूम पड़ता था कि कोई शेर इधर-उधर से निकलकर हम पर हमला न करे, और एक आज का दिन है कि इस जंगल की शोभा भली मालूम पड़ती है और इसमें घूमने को जी चाहता है।

किशोरी – ठीक है, जो काम लाचारी के साथ करना पड़ता है वह चाहे अच्छा ही क्यों न हो परंतु चित्त को बुरा लगता है, फिर भयानक तथा कठिन कामों का तो कहना ही क्या! मुझे तो जंगल में शेर और भेड़ियों का इतना खयाल न होता था जितना दुश्मनों का, मगर वह समय और ही था जो ईश्वर न करे किसी दुश्मन को दिखे। उस समय हम लोगों की किस्मत बिगड़ी हुई थी और अपने साथी लोग भी दुश्मन बनकर सताने के लिए तैयार हो जाते थे। (कमला की तरफ देखकर) भला तुम्हीं बताओ कि उस चमेला छोकरी का मैंने क्या बिगड़ा था जिसने मुझे हर तरह से तबाह कर दिया अगर वह मेरी मुहब्बत का हाल मेरे पिता से न कह देती तो मुझ पर वैसी भयानक मुसीबत क्यों आ जाती?

कमला – बेशक ऐसा ही है, मगर उसने जैसी नमकहरामी की वैसी ही सजा पाई, मेरे हाथ के कोड़े1 वह जन्म भर न भूलेगी!

किशोरी – मगर इतना होने पर भी उसने मेरे पिता का ठीक-ठीक भेद न बताया।

कमला – बेशक वह बड़ी जिद्दी निकली, मगर तुमने भी यह बड़ी चालाकी दिखाई कि अंत में उसे छोड़ देने का हुक्म दे दिया। अब भी वह जहां जायगी दुःख ही भोगेगी।

किशोरी – इसके अतिरिक्त उस जमाने में धनपति के भाई ने क्या मुझे कम तकलीफ दी थी जब मैं नागर के यहां कैद थी! उस कम्बख्त की तो सूरत देखने से मेरा खून खुश्क हो जाता था।1

लाडिली – वही जिसे भूतनाथ ने जहन्नुम में पहुंचा दिया! मगर नागर इस मामले को बिल्कुल ही छिपा गई, मायारानी से उसने कुछ भी न कहा और इसी में उसका भला भी था।

किशोरी – (लाडिली से) बहिन, तुम तो बड़ी नेक हो और तुम्हारा ध्यान भी धर्म-विषयक कामों में विशेष रहता है, मगर उन दिनों तुम्हें क्या हो गया था कि मायारानी के साथ बुरे कामों में अपना दिन बिताती थीं और हम लोगों की जान लेने के लिए तैयार रहती थीं

लाडिली – (लज्जा और उदासी के साथ) फिर तुमने वही चर्चा छेड़ी! मैं कई दफे हाथ जोड़कर तुमसे कह चुकी हूं कि उन बातों की याद दिलाकर मुझे शर्मिन्दा न करो, दुःख न दो, मेरे मुंह पर बार-बार स्याही न लगाओ। उन दिनों मैं पराधीन थी, मेरा कोई सहायक न था, मेरे लिए कोई रास्ता और ठिकाना न था, और उस दुष्टा का साथ छोड़कर मैं अपने को कहीं छिपा भी नहीं सकती थी और डरती थी कि वहां से निकल भागने पर कहीं मेरी इज्जत पर न आ बने! मगर बहिन, तुम जान-बूझकर बार-बार उन बातों की याद दिलाकर मुझे सताती हो, कहो बैठूं या उठ जाऊं?

किशोरी – अच्छा-अच्छा, जाने दो, माफ करो मुझसे भूल हो गई, मगर मेरा मतलब वह न था जो तुमने समझा है, मैं दो-चार बातें नानक के विषय में पूछना चाहती थी जिनका पता अभी तक नहीं लगा और जो भेद की तरह हम लोगों…।

लाडिली – (बात काटकर) वे बातें भी तो मेरे लिए वैसी ही दुःखदायी हैं।

किशोरी – नहीं-नहीं, मैं यह न पूछूंगी कि तुमने नानक के साथ रामभोली बनकर क्या-क्या किया बल्कि यह पूछूंगी कि उस टीन के डिब्बे में क्या था जो नानक ने चुरा लाकर तुम्हें बजरे में दिया था कुएं से हाथ कैसे निकला था नहर के किनारे वाले बंगले में पहुंचकर वह क्योंकर फंसा लिया गया उस बंगले में वह तस्वीरें कैसी थीं असली रामभोली कहां गई और क्या हुई रोहतासगढ़ तहखाने के अंदर तुम्हारी तस्वीर किसने लटकाई और तुम्हें वहां का भेद कैसे मालूम हुआ था इत्यादि बातें मैं कई दफे कई तरफ से सुन चुकी हूं मगर उनका असल भेद अभी तक मालूम न हुआ।2

लाडिली – हां इन सब बातों का जवाब देने के लिए मैं तैयार हूं। तुम जानती हो और अच्छी तरह सुन और समझ चुकी हो कि वह तिलिस्मी बाग तरह-तरह की अजायब बातों से भरा हुआ हे, विशेष नहीं तो भी वहां का बहुत कुछ हाल मायारानी और दारोगा को मालूम था। वहां

1देखिए चंद्रकान्ता संतति, पहला भाग, ग्यारहवें बयान का अंत।

2देखिए चंद्रकान्ता संतति, आठवां भाग, नौवां बयान।

अथवा उसकी सरहद में ले जाकर किसी को डराने-धमकाने या तकलीफ देने के लिए कोई ताज्जुब का तमाशा दिखाना कौन बड़ी बात थी!

किशोरी – हां सो तो ठीक ही है।

लाडिली – और फिर नानक जान-बूझकर काम निकालने के लिए ही तो गिरफ्तार किया गया था। इसके अतिरिक्त तुम यह भी सुन चुकी हो कि दारोगा के बंगले या अजायबघर से खास बाग तक नीचे-नीचे रास्ता बना हुआ है, ऐसी अवस्था में नानक के साथ वैसा बर्ताव करना कौन बड़ी बात थी!

किशोरी – बेशक ऐसा ही है, अच्छा उस डिब्बे वगैरह का भेद तो बताओ।

लाडिली – उस गठरी में जो कलमदान था वह तो हमारे विशेष काम का न था मगर उस डिब्बे में वही इंदिरा वाला कलमदान था जिसके लिये दारोगा साहब बेताब हो रहे थे और चाहते थे कि वह किसी तरह पुनः उनके कब्जे में आ जाय। असल में उसी कलमदान के लिये मुझे रामभोली बनना पड़ा था। दारोगा ने असली रामभोली को तो गिरफ्तार करवा के इस तरह मरवा डाला कि किसी को कानोंकान खबर भी न हुई और मुझे रामभोली बनकर यह काम निकालने की आज्ञा दी। लाचार मैं रामभोली बनकर नानक से मिली और उसे अपने वश में करने के बाद इंद्रदेवजी के मकान में से वह कलमदान तथा उसके साथ और भी कई तरह के कागज नानक की मार्फत चुरा मंगवाए। मुझे तो उस कलमदान की सूरत देखने से डर मालूम होता था क्योंकि मैं जानती थी कि वह कलमदान हम लोगों के खून का प्यासा और दारोगा के बड़े-बड़े भेदों से भरा हुआ है। इसके अतिरिक्त उस पर इंदिरा की बचपन की तस्वीर भी बनी हुई थी और सुंदर अक्षरों में इंदिरा का नाम लिखा हुआ था, जिसके विषय में मैं उन दिनों जानती थी कि वे मां-बेटी बड़ी बेदर्दी के साथ मारी गईं। यही सब सबब था कि उस कलमदान की सूरत देखते ही मुझे तरह-तरह की बातें याद आ गईं, मेरा कलेजा दहल गया और मैं डर के मारे कांपने लगी। खैर जब मैं नानक को लिये हुए जमानिया की सरहद में पहुंची तो उसे धनपति के हवाले करके खास बाग में चली गई। अपना दुपट्टा नहर में फेंकती गई। दूसरी राह से उस तिलिस्मी कुएं के नीचे पहुंचकर पानी का प्याला और बनावटी हाथ निकालने के बाद मायारानी से जा मिली और फिर बचा हुआ काम धनपति और दारोगा ने पूरा किया। दारोगा वाले कमरे में जो तस्वीर रखी हुई थी वह केवल नानक को धोखा देने के लिए थी, उसका और कोई मतलब न था, और रोहतासगढ़ के तहखाने में जो मेरी तस्वीर आप लोगों ने देखी थी वह वास्तव में दिग्विजयसिंह की बुआ ने मेरे सुबीते के लिए लटकाई थी और तहखाने की बहुत-सी बातें समझाकर बता दिया था कि ‘जहां तू अपनी तस्वीर देखियो समझ लीजियो कि उसके फलानी तरफ फलानी बात है’ इत्यादि। बस वह तस्वीर इतने ही काम के लिए लटकाई गई थी। वह बुढ़िया बड़ी नेक थी, और उस तहखाने का हाल बनिस्बत दिग्विजयसिंह के बहुत ज्यादे जानती थी। मैं पहले भी महाराज के सामने बयान कर चुकी हूं कि उसने मेरी मदद की थी। वह कई दफे मेरे डेरे पर आई थी और तरह-तरह की बातें समझा गई थी। मगर न तो दिग्विजयसिंह उसकी कदर करता था और न वही दिग्विजयसिंह को चाहती थी। इसके अतिरिक्त यह भी कह देना आवश्यक है कि मैं तो उस बुढ़िया की मदद से तहखाने के अंदर चली गई थी मगर कुंदन अर्थात् धनपति ने वहां जो कुछ किया वह मायारानी के दारोगा की बदौलत था। घर लौटने पर मुझे मालूम हुआ कि दारोगा वहां कई दफे छिपकर गया और कुंदन से मिला था मगर उसे मेरे बारे में कुछ खबर न थी, अगर खबर होती तो मेरे और कुंदन में जुदाई न रहती। अगर मुझे इस बात का ताज्जुब जरूर है कि घर पहुंचने पर भी धनपति ने वहां की बहुत-सी बातें मुझसे छिपा रखीं।

किशोरी – अच्छा यह तो बताओ कि रोहतासगढ़ में जो तस्वीर तुमने कुंदन को दिखाने के लिए मुझे दी थी वह तुम्हें कहां से मिली थी और तुम्हें तथा कुंदन को उसका असली हाल क्योंकर मालूम हुआ था?

लाडिली – उन दिनों मैं यह जानने के लिए बेताब हो रही थी कि कुंदन असल में कौन है। मुझे इस बात का भी शक हुआ था कि वह राजा साहब (वीरेन्द्रसिंह) की कोई ऐयारा होगी और यही शक मिटाने के लिए मैंने वह तस्वीर खुद बनाकर उसे दिखाने के लिए तुम्हें दी थी। असल में उस तस्वीर का भेद हम लोगों को मनोरमा की जुबानी मालूम हुआ था और मनोरमा ने इंदिरा से उस समय सुना था जब मनोरमा को मां समझकर वह उसके फेर में पड़ गई थी।

किशोरी – ठीक है मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि इन सब बखेड़ों की जड़ वही कम्बख्त दारोगा है। यदि जमानिया के राज्य में दारोगा न होता तो इन सब बातों में से एक भी न सुनाई देती और न हम लोगों की दुःखमय कहानी का कोई अंश लोगों के कहने-सुनने के लिए पैदा होता। (कमलिनी से) मगर बहिन, यह तो बताओ कि इस हरामी के पिल्ले (दारोगा) का कोई वारिस या रिश्तेदार भी दुनिया में है या नहीं

कम – सिवाय एक के और कोई नहीं! दुनिया का कायदा है कि जब आदमी भलाई या बुराई कुछ सीखता है तो पहले अपने घर से ही आरंभ करता है। मां-बाप के अनुचित लाड़-प्यार और उनकी असावधानी से बुरी राह पर चलने वाले लड़के घर ही में श्रीगणेशाय करते हैं और तब कुछ दिन के बाद दुनिया में मशहूर होने योग्य होते हैं। यही बात इस हरामखोर की भी थी, इसने पहले अपने नाते-रिश्तेदारों ही पर सफाई का हाथ फेरा और उन्हें जहन्नुम में मिलाकर समय के पहले घर का मालिक बन बैठा। साधू का भेष धरना इसने लड़कपन ही से सीखा है और विशेष करके इसी भेष की बदौलत लोग धोखे में भी पड़े। हमारे राजा गोपालसिंह ने भी (मुस्कराती हुई) इसे विशिष्ट ऋषि ही समझकर अपने यहां रखा था। हां इसका एक चचेरा भाई जरूर बच गया था जो इसके हत्थे नहीं चढ़ा था क्योंकि वह खुद भी परले सिरे का बदमाश था और इसकी करतूतों को खूब समझता था जिससे लाचार होकर इसे उसकी खुशामद करनी ही पड़ी और उसे अपना साथी बनाना ही पड़ा।

किशोरी – क्या वह मर गया उसका क्या नाम था?

कमलिनी – नहीं वह मरा नहीं मगर मरने के ही बराबर है, क्योंकि वह हमारे यहां कैद है। उसने अपना नाम शिखण्डी रख लिया था। तुम जानती ही हो कि जब मैं जमानिया के खास बाग के तहखाने और सुरंग की राह से दोनों कुमारों तथा बाकी कैदियों को लेकर बाहर निकल रही थी तो हाथी वाले दरवाजे पर उसने इनके (इंद्रजीतसिंह) के ऊपर वार किया था।

किशोरी – हां-हां, तो क्या वह वही कम्बख्त था?

कमलिनी – हां वही था, उसे मैं अपना पक्षपाती समझती थी मगर बेईमान ने मुझे धोखा दिया। ईश्वर की कृपा थी कि पहले ही वार में वह उसी जगह गिरफ्तार हो गया नहीं तो शायद मुझे धोखे में पड़कर बहुत तकलीफें उठानी पड़तीं और…।

कमलिनी ने इतना कहा ही था कि उसका ध्यान सामने के जंगल की तरफ जा पड़ा, उसने देखा कि कुंअर आनंदसिंह एक सब्ज घोड़े पर सवार सामने की तरफ से आ रहे हैं, साथ में केवल तारासिंह एक छोटे टट्टू पर सवार बातें करते आ रहे हैं, और दूसरा कोई आदमी साथ नहीं है। साथ ही इसके कमलिनी को एक और अद्भुत दृश्य दिखाई दिया जिससे वह यकायक चौंक पड़ी इसलिए उसका तथा और सभों का ध्यान भी उसी तरफ जा पड़ा।

उसने देखा कि आनंदसिंह और तारासिंह जंगल में से निकलकर कुछ ही दूर मैदान में आये थे कि यकायक एक बार पुनः पीछे की तरफ घूमे और गौर के साथ कुछ देखने लगे। कुछ ही देर बाद और भी दस-बारह नकाबपोश आदमी हाथ में तीर-कमान लिए दिखाई पड़े जो जंगल से बाहर निकलते ही इन दोनों पर फुर्ती के साथ तीर चलाने लगे। ये दोनों भी म्यान से तलवार निकालकर उन लोगों की तरफ झपटे और देखते ही देखते सब के सब लड़ते-भिड़ते पुनः जंगल में घुसकर देखने वालों की नजरों से गायब हो गए। कमलिनी, किशोरी और कामिनी वगैरह इस घटना को देखकर घबरा गयीं, सभों की इच्छानुसार कमला दौड़ी हुई गई और एक लौंडी को इस मामले की खबर करने के लिए नीचे कुंअर इंद्रजीतसिंह के पास भेजा।

बयान – 8

नानक इस बात को सोच रहा था कि मैं पहले किस पर वार करूं अगर पहले शांता पर वार करूंगा तो आहट पाकर भूतनाथ जाग जाएगा और मुझे गिरफ्तार कर लेगा क्योंकि मैं अकेला किसी तरह उसका मुकाबला नहीं कर सकता। अतएव पहले भूतनाथ ही का काम तमाम करना चाहिए। अगर इसकी आहट पाकर शांता जाग भी जायगी तो कोई चिंता नहीं, मैं उसे सांस लेने की भी मोहलत न दूंगा। वह औरत जात मेरे मुकाबिले में क्या कर सकती है। मगर ऐसा करने के लिए यह जानने की जरूरत है कि इन दोनों में शांता कौन है और भूतनाथ कौन?

थोड़ी ही देर के अंदर ऐसी बहुत-सी बातें नानक के दिमाग में दौड़ गर्ईं और उन दोनों में भूतनाथ कौन है इसका पता न लगा सकने के कारण लाचार होकर उसने एक निश्चय किया कि इन दोनों ही को बेहोश करके यहां से ले चलना चाहिए। ऐसा करने से मेरी मां बहुत ही प्रसन्न होगी।

नानक ने अपने बटुए में से बहुत ही तेज बेहोशी की दवा निकाली और उन दोनों के मुंह पर चादर के ऊपर ही छिड़ककर उनके बेहोश होने की इंतजार करने लगा।

थोड़ी ही देर में उन दोनों ने हाथ-पैर हिलाये जिससे नानक समझ गया कि अब इन पर बेहोशी का असर हो गया, अस्तु उसने दोनों के ऊपर से चादर हटा दी और तभी देखा कि इन दोनों में भूतनाथ नहीं है बल्कि ये दोनों औरतें ही हैं जिनमें एक भूतनाथ की औरत शांता है उस दूसरी औरत को नानक पहचानता न था।

नानक ने फिर एक दफे बेहोशी की दवा सुंघाकर शांता को अच्छी तरह बेहोश किया और चारपाई पर से उठाकर बहुत हिफाजत और होशियारी के साथ खेमे के बाहर निकाल लाया जहां उसने अपने एक साथी को मौजूद पाया। दोनों ने मिलकर उसकी गठरी बांधी और फुर्ती से लश्कर के बाहर निकाल ले गये।

शांता को पा जाने से नानक बहुत ही खुश था और सोचता था कि इसे पाकर मेरी मां बहुत ही प्रसन्न होगी और हद से ज्यादे मेरी तारीफ करेगी, मैं इसे सीधे अपने घर ले जाऊंगा और जब दूसरी दफे लौटूंगा तो भूतनाथ पर कब्जा करूंगा। इसी तरह धीरे-धीरे अपने सब दुश्मनों को जहन्नुम में मिला डालूंगा।

कोस भर निकल जाने के बाद नानक एक संकेत पर पहुंचा तो उसके और साथियों से भी मुलाकात हुई जो कसे-कसाये कई घोड़ों के साथ उसका इंतजार कर रहे थे।

एक घोड़े पर सवार होने के बाद नानक ने शांता को अपने आगे रख लिया, उसके साथी लोग भी घोड़ों पर सवार हुए, और सभों ने पूरब का रास्ता लिया।

दूसरे दिन संध्या के समय नानक अपने घर पहुंचा। रास्ते में उसने और उसके साथियों ने कई दफे भोजन किया मगर शांता की कुछ भी खबर न ली बल्कि जब इस बात का खयाल हुआ कि अब उसकी बेहोशी उतरा चाहती है तब पुनः दवा सुंघाकर उसकी बेहोशी मजबूत कर दी गई।

नानक को देखकर उसकी मां बहुत प्रसन्न हुई और जब उसे यह मालूम हुआ कि उसका सपूत शांता को गिरफ्तार कर लाया है तब तो उसकी खुशी का कोई ठिकाना ही न रहा। उसने नानक की बहुत ही आवभगत की और बहुत तारीफ करने के बाद बोली, ”इससे बदला लेने में अब क्षणभर की भी देर न करनी चाहिए, इसे तुरंत खंभे के साथ बांधकर होश में ले आओ और पहले जूतियों से खूब अच्छी तरह खबर लो फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। मगर इसके मुंह में खूब अच्छी तरह कपड़ा ठूंस दो जिससे कुछ बोल न सके और हम लोगों को गालियां न दे।”

नानक को भी यह बात पसंद आई और उसने ऐसा ही किया। शांता के मुंह में कपड़ा ठूंस दिया गया और वह दालान में एक खंभे के साथ बांधकर होश में लाई गई। होश आते ही अपने को ऐसी अवस्था में देखकर वह बहुत ही घबड़ाई और जब उद्योग करने पर भी कुछ बोल न सकी तो आंखों से आंसू की धारा बहाने लगी।

नानक ने उसकी दशा पर कुछ भी ध्यान न दिया। अपनी मां की आज्ञा पाकर उसने शांता को जूते से मारना शुरू किया और यहां तक मारा कि अंत में वह बेहोश होकर झुक गई। उस समय नानक की मां कागज का एक लपेटा हुआ पुर्जा नानक के आगे फेंककर यह कहती हुई घर के बाहर निकल गई कि ”इसे अच्छी तरह पढ़ तब तक मैं आती हूं।”

उसकी कार्रवाई ने नानक को ताज्जुब में डाल दिया। उसने जमीन पर से पुर्जा उठा लिया और चिराग के सामने ले जाकर पढ़ा, यह लिखा हुआ था –

”भूतनाथ के साथ ऐयारी करना या उसका मुकाबला करना नानक जैसे नौसिखे लौंडों का काम नहीं है। तैं समझता होगा कि मैंने शांता को गिरफ्तार कर लिया, मगर खूब समझ रख कि वह कभी तेरे पंजे में नहीं आ सकती। जिस औरत को तू जूतियों से मार रहा है वह शांता नहीं है, पानी से इसका चेहरा धो डाल और भूतनाथ की कारीगरी का तमाशा देख! अब अगर अपनी जान तुझे प्यारी है तो खबरदार, भूतनाथ का पीछा कभी न कीजियो।”

पुर्जा पढ़ते ही नानक के होश उड़ गये। झटपट पानी का लोटा उठा लिया और मुंह में ठूंसा हुआ लत्ता निकालकर शांता का चेहरा धोने लगा, तब तक वह भी होश में आ गई। चेहरा साफ होने पर नानक ने देखा कि वह तो उसकी असली मां, रामदेई है। उसने होश में आते ही नानक से कहा, ”क्यों बेटा, तुमने मेरे ही साथ ऐसा सलूक किया!”

नानक के ताज्जुब की कोई हद न रही। वह घबड़ाहट के साथ अपनी मां का मुंह देखने लगा और ऐसा परेशान हुआ कि आधी घड़ी तक उसमें कुछ बोलने की शक्ति न रही, इस बीच में रामदेई ने उसे तरह-तरह की बेतुकी बातें सुनाईं जिन्हें वह सिर नीचा किए हुए चुपचाप सुनता रहा। जब उसकी तबीयत कुछ ठिकाने हुई तब उसने सोचा कि पहले उस रामदेई को पकड़ना चाहिए जो मेरे सामने चीठी फेंककर मकान के बाहर निकल गई है, परंतु यह उसकी सामर्थ्य के बाहर था क्योंकि उसे घर से बाहर गए हुए देर हो चुकी थी, अस्तु उसने सोचा कि अब वह किसी तरह नहीं पकड़ी जा सकती।

नानक ने अपनी मां के हाथ-पैर खोल डाले और कहा, ”मेरी समझ में कुछ नहीं आता कि यह क्या हुआ, तुम वहां कैसे जा पहुंचीं, और तुम्हारी शक्त में यहां रहने वाली कौन थी या क्योंकर आई!!”

रामदेई – मैं इसका जवाब कुछ भी नहीं दे सकती और न मुझे कुछ मालूम ही है। मैं तुम्हारे चले जाने के बाद इसी घर में थी, इसी घर में बेहोश हुई और होश आने पर अपने को इसी घर में देखती हूं अब तुम्हीं बयान करो कि क्या हुआ और तुमने मेरे साथ ऐसा सलूक क्यों किया?

नानक ने ताज्जुब के साथ अपना किस्सा पूरा-पूरा बयान किया और अंत में कहा, ”अब तुम ही बताओ कि मैंने इसमें क्या भूल की?’

बयान – 9

दिन का समय है और दोपहर ढल चुकी है। महाराज सुरेन्द्रसिंह अभी-अभी भोजन करके आये हैं और अपने कमरे में पलंग पर लेटे हुए पान चबाते हुए अपने दोस्तों तथा लड़कों से हंसी-खुशी की बातें कर रहे हैं जो कि महाराज से घंटे भर पहले ही भोजन इत्यादि से छुट्टी पा चुके हैं।

महाराज के अतिरिक्त इस समय इस कमरे में राजा वीरेन्द्रसिंह, कुंअर इंद्रजीतसिंह, आनंदसिंह, राजा गोपालसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पन्नालाल, रामनारायण, पंडित बद्रीनाथ, चुन्नीलाल, जगन्नाथ ज्योतिषी, भैरोसिंह, इंद्रदेव और गोपालसिंह के दोस्त भरतसिंह भी बैठे हुए हैं।

वीरेन्द्र – इसमें कोई संदेह नहीं कि जो तिलिस्म मैंने तोड़ा था वह इस तिलिस्म के सामने रुपये में एक पैसा भी नहीं है, साथ ही इसके जमानिया राज्य में जैसे-जैसे महापुरुष (दारोगा की तरह) रह चुके हैं तथा वहां जैसी-जैसी घटनाएं हो गई हैं उनकी नजीर भी कभी सुनने में न आवेगी।

गोपाल – बखेड़ों का सबब भी उसी तिलिस्म को समझना चाहिए, उसी का आनंद लूटने के लिए लोगों ने ऐसे बखेड़े मचाए और उसी की बदौलत लोगों की ताकत और हैसियत भी बढ़ी।

जीत – बेशक यही बात है, जैसे-जैसे तिलिस्म के भेद खुलते गए तैसे-तैसे पाप और लोगों की बदकिस्मती का जमाना भी तरक्की करता गया।

सुरेन्द्र – हमें तो कम्बख्त दारोगा के कामों पर आश्चर्च होता है, न मालूम किस सुख के लिए उस कम्बख्त ने ऐसे-ऐसे कुकर्म किए!!

भरत – (हाथ जोड़कर) मैं तो समझता हूं कि दारोगा के कुकर्मों का हाल महाराज ने अभी बिल्कुल नहीं सुना, उसकी कुछ पूर्ति तब होगी जब हम लोग अपना किस्सा बयान कर चुकेंगे।

सुरेन्द्र – ठीक है, हमने भी आज आप ही का किस्सा सुनने की नीयत से आराम नहीं किया।

भरत – मैं अपनी दुर्दशा बयान करने के लिए तैयार हूं।

जीत – अच्छा तो अब आप शुरू करें।

भरत – जो आज्ञा।

इतना कहकर भरतसिंह ने इस तरह अपना हाल बयान करना शुरू किया –

भरत – मैं जमानिया का रहने वाला और एक जमींदार का लड़का हूं। मुझे इस बात का सौभाग्य प्राप्त था कि राजा गोपालसिंह मुझे अपना मित्र समझते थे, यहां तक कि भरी मजलिस में भी मित्र कहकर मुझे संबोधन करते थे, और घर में भी किसी तरह का पर्दा नहीं रखते थे। यही सबब था कि वहां के कर्मचारी लोग तथा अच्छे-अच्छे रईस मुझसे डरते और मेरी इज्जत करते थे परंतु दारोगा को यह बात पसंद न थी।

केवल राजा गोपालसिंह ही नहीं, इनके पिता भी मुझे अपने लड़के की तरह ही मानते और प्यार करते थे, विशेष करके इसलिए कि हम दोनों मित्रों की चाल-चलन में किसी तरह की बुराई दिखाई नहीं देती थी।

जमानिया में जो बेईमान और दुष्ट लोगों की एक गुप्त कमेटी थी उसका हाल आप लोग जान ही चुके हैं अतएव उसके विषय में विस्तार के साथ कुछ कहना वृथा ही है, हां, जरूरत पड़ने पर उसके विषय में इशारा मात्र कर देने से काम चला जायगा।

रियासतों में मामूली तौर पर तरह-तरह की घटनाएं हुआ ही करती हैं इसलिए राजा गोपालसिंह को गद्दी मिलने के पहले जो कुछ मुझ पर बीत चुकी है उसे मामूली समझकर मैं छोड़ देता हूं और उस समय से अपना हाल बयान करता हूं जब इनकी शादी हो चुकी थी। इस शादी में जो कुछ चालबाजी हुई थी उसका हाल आप सुन ही चुके हैं।

जमानिया की वह गुप्त कमेटी यद्यपि भूतनाथ की बदौलत टूट चुकी थी मगर उसकी जड़ नहीं कटी थी क्योंकि कम्बख्त दारोगा हर तरह से साफ बच रहा था और कमेटी का कमजोर दफ्तर अभी भी उसके कब्जे में था।

गोपालसिंह की शादी हो जाने के बहुत दिन बाद एक दिन मेरे एक नौकर ने रात के समय जबकि वह मेरे पैरों में तेल लगा रहा था मुझसे कहा कि ‘राजा गोपालसिंह की शादी असली लक्ष्मीदेवी के साथ नहीं बल्कि किसी दूसरी ही औरत के साथ हुई है। यह काम दारोगा ने रिश्वत लेकर किया है और इस काम में सुबीता होने के लिए गोपालसिंहजी के पिता को भी उसी ने मारा है।’

सुनने के साथ मैं चौंक पड़ा, मेरे ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा, मैंने उससे तरह-तरह के सवाल किये जिनका जवाब उसने ऐसा तो न दिया जिससे मेरी दिलजमई हो जाती मगर इस बात पर बहुत जोर दिया कि ‘जो कुछ मैं कह चुका हूं वह बहुत ठीक है।’

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मेरे जी में तो यही आया कि इसी समय उठकर राजा गोपालसिंह के पास जाऊं और हाल कह दूं, परंतु यह सोचकर कि किसी काम में जल्दी न करनी चाहिए मैं चुप रह गया और सोचने लगा कि यह कार्रवाई क्योंकर हुई और इसका ठीक-ठीक पता किस तरह लग सकता है?

रात भर मुझे नींद न आई और इन्हीं बातों को सोचता रह गया। सबेरा होने पर स्नान-संध्या इत्यादि से छुट्टी पाकर मैं राजा साहब से मिलने के लिए गया, मालूम हुआ कि राजा साहब अभी महल से बाहर नहीं निकले हैं। मैं सीधे महल में चला गया, उस समय गोपालसिंहजी संध्या कर रहे थे और इनसे थोड़ी दूर पर सामने बैठी मायारानी फूलों का गजरा तैयार कर रही थी। उसने मुझे देखते ही कहा, ”अहा, आज क्या है! मालूम होता है मेरे लिए आप कोई अनूठी चीज लाए हैं।”

इसके जवाब में मैं हंसकर चुप हो गया और इशारा पाकर गोपालसिंहजी के पास एक आसन पर बैठ गया। जब वे संध्योपासना से छुट्टी पा चुके तब मुझसे बातचीत होने लगी। मैं चाहता था कि मायारानी वहां से उठ जाय तब मैं अपना मतलब बयान करूं पर वह वहां से उठती न थी और चाहती थी कि मैं जो कुछ कहूं उसे वह भी सुन ले। यह संभव था कि मैं मामूली बातें करके मौका टाल देता और वहां से उठ खड़ा होता मगर वह हो न सका क्योंकि उन दोनों ही को इस बात का विश्वास हो गया था कि मैं जरूर कोई अनूठी बात कहने के लिए आया हूं। लाचार गोपालसिंहजी से इशारे में कह देना पड़ा कि ‘मैं एकांत में केवल आप ही से कुछ कहना चाहता हूं।’ जब गोपालसिंह ने किसी काम के बहाने से उसे अपने सामने से उठाया तब वह भी मेरा मतलब समझ गई और कुछ मुंह बनाकर उठ खड़ी हुई।

हम दोनों यही समझते थे कि मायारानी वहां से चली गई मगर उस कम्बख्त ने हम दोनों की बातें सुन लीं क्योंकि उसी दिन से मेरी कम्बख्ती का जमाना शुरू हो गया। मैं ठीक नहीं कह सकता कि किस ढंग से उसने हमारी बातें सुनीं। जिस जगह हम दोनों बैठे थे उसके पास ही दीवार में एक छोटी-सी खिड़की पड़ती थी, शायद उसी जगह पिछवाड़े की तरफ खड़ी होकर उसने मेरी बातें सुन ली हों तो कोई ताज्जुब नहीं।

मैंने जो कुछ अपने नौकर से सुना था सब तो नहीं कहा केवल इतना कहा कि ‘आपके पिता को दारोगा ही ने मारा है और लक्ष्मीदेवी की इस शादी में भी उसने कुछ गड़बड़ किया है, गुप्त रीति पर इसकी जांच करनी चाहिए।’ मगर अपने नौकर का नाम नहीं बताया क्योंकि मैं उसे बहुत चाहता था और वैसा ही उसकी हिफाजत का भी खयाल रखता था। इसमें कोई शक नहीं कि मेरा वह नौकर बहुत ही होशियार और बुद्धिमान था बल्कि इस योग्य था कि राज्य का कोई भारी काम उसके सुपुर्द किया जाता, परंतु वह जाति का कहार था इसलिए किसी बड़े मर्तबे पर न पहुंच सका।

गोपालसिंहजी ने मेरी बातें ध्यान से सुनीं मगर उन्हें उन बातों का विश्वास न हुआ क्योंकि ये मायारानी को पतिव्रताओं की नाक और दारोगा को सच्चाई तथा ईमानदारी का पुतला समझते थे। मैंने उन्हें अपनी तरफ से बहुत कुछ समझाया और कहा कि ‘यह बात चाहे झूठ हो मगर आप दारोगा से हरदम होशियार रहा कीजिए और उसके कामों को जांच की निगाह से देखा कीजिए’ मगर अफसोस, इन्होंने मेरी बातों पर कुछ ध्यान न दिया और इसी से मेरे साथ ही अपने को भी बर्बाद कर लिया।

इसके बाद भी कई दिनों तक मैं उन्हें समझाता रहा और ये भी हां में हां मिला देते रहे जिससे विश्वास होता था कि कुछ उद्योग करने से ये समझ जायेंगे मगर ऐसा कुछ न हुआ। एक दिन मेरे उसी नौकर ने जिसका नाम हरदीन था मुझसे फिर एकांत में कहा कि ‘अब आप राजा साहब को समझाना-बुझाना छोड़ दीजिए, मुझे निश्चय हो गया कि उनकी बदकिस्मती के दिन आ गये हैं और वे आपकी बातों पर कुछ भी ध्यान न देंगे। उन्होंने बहुत बुरा किया कि आपकी बातें मारायानी और दारोगा पर प्रकट कर दीं। अब उनको समझाने के बदले आप अपनी जान बचाने की फिक्र कीजिए और अपने को हर वक्त आफत से घिरा हुआ समझिए। शुक्र है कि आपने सब बातें नहीं कह दीं, नहीं तो और भी गजब हो जाता…।’

औरों को चाहे कैसा ही कुछ खयाल हो मगर मैं अपने खिदमतगार हरदीन की बातों पर विश्वास करता था और उसे अपना खैरख्वाह समझता था। उसकी बातें सुनकर मुझे गोपालसिंह पर बेहिसाब क्रोध चढ़ आया और उसी दिन से मैंने इन्हें समझाना-बुझाना छोड़ दिया मगर इनकी मुहब्बत ने मेरा साथ न छोड़ा।

मैंने हरदीन से पूछा कि ‘ये सब बातें तुझे क्योंकर मालूम हुर्ईं और होती हैं मगर उसने ठीक-ठीक न बताया, बहुत जिद करने पर कहा कि कुछ दिन और सब्र कीजिए मैं इसका भेद भी आपको बता दूंगा।

दूसरे दिन जब कि सूरज अस्त होने में दो घंटे की देर थी मैं अकेला अपने नजरबाग में टहल रहा था और इस सोच में पड़ा हुआ था कि राजा गोपालसिंह का भ्रम मिटाने के लिए अब क्या बंदोबस्त करना चाहिए। उसी समय रघुबरसिंह मेरे पास आया और साहब-सलामत करने के बाद इधर-उधर की बातें करने लगा। बात ही बात में उसने कहा कि ‘आज मैंने एक घोड़ा निहायत उम्दा खरीद किया है मगर अभी तक उसका दाम नहीं दिया है, आप उस पर सवारी करके देखिए, अगर आप भी पसंद करें तो मैं उसका दाम चुका दूं। इस समय मैं उसे अपने साथ लेता आया हूं, आप उस पर सवार हो लें और मैं अपने पुराने घोड़े पर सवार होकर आपके साथ चलता हूं, चलिए दो-चार कोस का चक्कर लगा आवें…।’

मुझे घोड़े का बहुत ही शौक था। रघुबरसिंह की बातें सुनकर मैं खुश हो गया और यह सोचकर कि अगर जानवर उम्दा होगा तो खुद उसका दाम देकर अपने यहां रख लूंगा, मैंने जवाब दिया कि ‘चलो देखें कैसा घोड़ा है, एक घोड़े की जरूरत मुझे भी थी’। इसके जवाब में रघुबर ने कहा कि ”अच्छी बात है, अगर आपको पसंद आवे तो आप ही रख लीजियेगा।’

उन दिनों मैं रघुबरसिंह को भला आदमी, अशराफ और अपना दोस्त समझता था, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि यह परले सिरे का बेईमान और शैतान का भाई है, उसी तरह दारोगा को भी मैं इतना बुरा नहीं समझता था और राजा गोपालसिंह की तरह मुझे भी विश्वास था कि जमानिया की उस गुप्त कमेटी से इन दोनों का कुछ भी संबंध नहीं है, मगर हरदीन ने मेरी आंखें खोल दीं और साबित कर दिया कि जो कुछ हम सोचे हुए थे वह हमारी भूल थी।

खैर, मैं रघुबर के साथ ही बाग के बाहर निकला और दरवाजे पर आया, कसे-कसाये दो घोड़े दिखे जिनमें एक तो खास रघुबरसिंह का था और दूसरा एक नया और बहुत ही शानदार वही घोड़ा था जिसकी रघुबरसिंह ने तारीफ की थी।

मैं उस घोड़े पर सवार होने वाला ही था कि हरदीन दौड़ा-दौड़ा बदहवास मेरे पास आया और बोला, ”घर में बहूजी (मेरी स्त्री) को न मालूम क्या हो गया है कि गिरकर बेहोश हो गई हैं और मुंह से खून निकल रहा है, जरा चलकर देख लीजिए।”

हरदीन की बात सुनकर मैं तरद्दुद में पड़ गया और उसे साथ लेकर घर के अंदर गया, क्योंकि हरदीन बराबर जनाने में आया-जाया करता था और उसके लिए किसी तरह का पर्दा न था। जब घर की दूसरी ड्योढ़ी मैंने लांघी तब वहां एकांत देखकर हरदीन ने मुझे रोका और कहा, ‘जो कुछ मैंने आपको खबर दी वह बिल्कुल झूठ थी, बहूजी बहुत अच्छी तरह हैं।’

मैं – तो तुमने ऐसा क्यों किया?

हरदीन – इसलिए कि रघुबरसिंह के साथ जाने से आपको रोकूं।

मैं – सो क्यों?

हरदीन – इसलिए कि वह आपको धोखा देकर ले जा रहा है और आपकी जान लिया चाहता है। मैं उसके सामने आपको रोक नहीं सकता था, अगर रोकता तो उसे मेरी तरफदारी मालूम हो जाती और मैं जान से मारा जाता और फिर आपको इन दुष्टों की चालबाजियों से बचाने वाला कोई न रहता। यद्यपि मुझे अपनी जान आपसे बढ़कर प्यारी नहीं है तथापि आपकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है और यह बात आपके आधीन है, यदि आप मेरा भेद खोल देंगे तो फिर मेरा इस दुनिया में रहना मुश्किल है।

मैं – (ताज्जुब के साथ) तुम यह क्या कह रहे हो रघुबर तो हमारा दोस्त है।

हरदीन – इस दोस्त पर आप भरोसा न करें और इस समय इस मौके को टाल जायं, रात को मैं सब बातें आपको अच्छी तरह समझा दूंगा या यदि आपको मेरी बातों पर विश्वास न हो तो जाइए मगर एक तमंचा कमर में छिपाकर लेते जाइए और पश्चिम तरफ कदापि न जाकर पूरब तरफ जाइए – साथ ही हर तरह से होशियार रहिए। इतनी होशियारी करने पर आपको मालूम हो जायगा कि मैं जो कुछ कह रहा हूं वह सच है या झूठ।

हरदीन की बातों ने मुझे चक्कर में डाल दिया। कुछ सोचने के बाद मैंने कहा, ”शाबाश हरदीन, तुमने बेशक इस समय मेरी जान बचाई, मगर खैर तुम चिंता न करो और मुझे इस दुष्ट के साथ जाने दो, अब मैं इसके पंजे में न फंसूंगा और जैसा तुमने कहा है वैसा ही करूंगा।”

इसके बाद मैं चुपचाप अपने कमरे में चला गया और एक छोटा-सा दोनाली तमंचा भरकर अपनी कमर में छिपा लेने के बाद बाहर निकला। मुझे देखते ही रघुबरसिंह ने पूछा, ‘कहिए क्या हाल है मैंने जवाब दिया, ‘अब तो होश में आ गई हैं, वैद्यजी को बुला लाने के लिए कह दिया है, तब तक हम लोग भी घूम आवेंगे।’

इतना कहकर मैं उस घोड़े पर सवार हो गया, रघुबरसिंह भी अपने घोड़े पर सवार हुआ और मेरे साथ चला। शहर के बाहर निकलने के बाद मैंने पूरब तरफ घोड़े को घुमाया, इसी समय रघुबरसिंह ने टोका और कहा, ‘उधर नहीं पश्चिम तरफ चलिए, इधर का मैदान बहुत अच्छा और सोहावना है।’

मैं – इधर पूरब तरफ भी तो कुछ बुरा नहीं है, मैं इधर ही चलूंगा।

रघु – नहीं-नहीं, आप पश्चिम ही की तरफ चलिए, उधर एक काम और निकलेगा। दारोगा साहब भी इस घोड़े की चाल देखा चाहते थे, मैंने कह दिया था कि आप अपने घोड़े पर सवार होकर जाइये और फलानी जगह ठहरियेगा, हम लोग घूमते हुए उसी तरफ आवेंगे, वह जरूर वहां गये होंगे और हम लोगों का इंतजार कर रहे होंगे।

मैं – ऐसा ही शौक था तो दारोगा साहब भी हमारे यहां आ जाते और हम लोगों के साथ चलते!

रघु – खैर अब तो जो हो गया सो हो गया अब उनका खयाल जरूर करना चाहिए।

मैं – मुझे भी पूरब तरफ जाना बहुत जरूरी है क्योंकि एक आदमी से मिलने का वादा कर चुका हूं।

इसी तौर पर मेरे और उसके बीच बहुत देर तक हुज्जत होती रही। मैं पूरब तरफ जाना चाहता था और वह पश्चिम तरफ जाने के लिए जोर देता रहा, नतीजा यह निकला कि न पूरब ही गये न पश्चिम बल्कि लौटकर सीधे घर चले आये और यह बात रघुबरसिंह को बहुत ही बुरी मालूम हुई, उसने मुझसे मुंह फुला लिया और कुढ़ा हुआ अपने घर चला गया।

मेरा रहा-सहा शक भी जाता रहा और हरदीन की बातों पर मुझे पूरा-पूरा विश्वास हो गया, मगर मेरे दिल में इस बात की उलझन हद से ज्यादे पैदा हुई कि हरदीन को इन सब बातों की खबर क्योंकर लग जाती है। आखिर रात के समय जब एकांत हुआ तब मुझसे और हरदीन से इस तरह की बातें होने लगीं –

मैं – हरदीन, तुम्हारी बात तो ठीक निकली, उसने पश्चिम तरफ ले जाने के लिए बहुत जोर मारा मगर मैंने उसकी एक न सुनी।

हरदीन – आपने बहुत अच्छा किया नहीं तो इस समय बड़ा अंधेर हो गया होता।

मैं – खैर, यह तो बताओ कि यकायक वह मेरी जान का दुश्मन क्यों बन बैठा वह तो मेरी दोस्ती का दम भरता था!

हर – इसका सबब वही लक्ष्मीदेवी वाला भेद है। मैं अपनी भूल पर अफसोस करता हूं, मुझसे चूक हो गई जो मैंने वह भेद आपसे खोल दिया। मैंने तो राजा गोपालसिंहजी का भला करना चाहा था मगर उन्होंने नादानी करके मामला ही बिगाड़ दिया। उन्होंने जो कुछ आपसे सुना था लक्ष्मीदेवी से कहकर दारोगा और रघुबर को आपका दुश्मन बना दिया, क्योंकि उन्हीं दोनों की बदौलत वह इस दर्जे को पहुंची, इन्हीं दोनों की बदौलत हमारे महाराज (गोपालसिंह के पिता) मारे गए और इन्हीं दोनों ने लक्ष्मीदेवी ही को नहीं बल्कि उसके घर भर को बर्बाद कर दिया।

मैं – इस समय तो तुम बड़े ही ताज्जुब की बातें सुना रहे हो!

हर – मगर इन बातों को आप अपने ही दिल में रखकर जमाने की चाल के साथ काम करें नहीं तो आपको पछताना पड़ेगा। यद्यपि मैं यह कदापि न कहूंगा कि आप राजा गोपालसिंह का ध्यान छोड़ दें और उन्हें डूबने दें क्योंकि वह आपके दोस्त हैं।

मैं – जैसा तुम चाहते हो मैं वैसा ही करूंगा। अच्छा तो यह बताओ कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह पर क्या बीती?

हर – उन दोनों को दारोगा ने अपने पंजे में फंसाकर कहीं कैद कर दिया था इतना तो मुझे मालूम है मगर इसके बाद का हाल मैं कुछ भी नहीं जानता, न मालूम वे मार डाले गये या अभी तक कहीं कैद हैं। हां, उस गदाधरसिंह को इसका हाल शायद मालूम होगा जो रणधीरसिंहजी का ऐयार है और जिसने नानक की मां को धोखा देने के लिए कुछ दिन तक अपना नाम रघुबरसिंह रख लिया था तथा जिसकी बदौलत यहां की गुप्त कमेटी का भंडा फूटा है। उसने इस रघुबरसिंह और दारोगा को खूब ही छकाया है। लक्ष्मीदेवी की जगह मुंदर की शादी कर देने की बाबत इनके और हेलासिंह के बीच में जो पत्र-व्यवहार हुआ उसकी नकल भी गदाधरसिंह (रणधीरसिंह के ऐयार) के पास मौजूद है जो कि उसने समय पर काम देने के लिए असल चीठियों से अपने हाथ से नकल की थी। अफसोस, उसने रुपये के लालच में पड़कर रघुबरसिंह और दारोगा को छोड़ दिया और इस बात को छिपा रखा कि यही दोनों उस गुप्त कमेटी के मुखिया हैं। इस पाप का फल गदाधरसिंह को जरूर भोगना पड़ेगा, ताज्जुब नहीं कि एक दिन चीठियों की नकल से उसी को दुःख उठाना पड़े और वे चिट्ठियां उसी के लिए काल बन जायं।

इस समय मुझे हरदीन की वे बातें अच्छी तरह याद पड़ रही हैं। मैं देखता हूं कि जो कुछ उसने कहा था सच उतरा। उन चीठियों की नकल ने खुद भूतनाथ का गला दबा दिया जो उन दिनों गदाधरसिंह के नाम से मशहूर हो रहा था! भूतनाथ का हाल मुझे अच्छी तरह मालूम है और इधर जो कुछ हो चुका है वह सब भी मैं सुन चुका हूं मगर इतना मैं जरूर कहूंगा कि भूतनाथ के मुकदमे में तेजसिंहजी ने बहुत बड़ी गलती की। गलती तो सभों ने की मगर तेजसिंह को ऐयारों का सिरताज मानकर मैं सबके पहले इन्हीं का नाम लूंगा। इन्होंने जब लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली इत्यादि के सामने वह कागज का मुट्ठा खोला था और चीठियों को पढ़कर भूतनाथ पर इलजाम लगाया था कि ‘बेशक ये चीठियां भूतनाथ के हाथ की लिखी हुई हैं’ तो इतना क्यों नहीं सोचा कि भूतनाथ की चीठियों के जवाब में हेलासिंह ने जो भी चीठियां भेजी हैं वे भी तो भूतनाथ ही के हाथों की लिखी हुई मालूम पड़ती हैं, तो क्या अपनी चीठी का जवाब भी भूतनाथ अपने ही हाथ से लिखा करता था?

यहां तक कहकर भरतसिंह चुप हो रहे और तेजसिंह की तरफ देखने लगे। तेजसिंह ने कहा, ”आपका कहना बहुत ही ठीक है, बेशक उस समय मुझसे बड़ी भूल हो गई। उनमें की एक ही चीठी पढ़कर क्रोध के मारे हम लोग ऐसे पागल हो गए कि इस बात पर कुछ भी ध्यान न दे सके। बहुत दिनों के बाद जब देवीसिंह ने यह बात सुझाई तब हम लोगों को बहुत अफसोस हुआ और तब से हम लोगों का खयाल भी बदल गया।”

भरतसिंह ने कहा, ”तेजसिंहजी, इस दुनिया में बड़े-बड़े चालाकों और होशियारों से यहां तक कि स्वयं विधाता ही से भूल हो गई है तो फिर हम लोगों की क्या बात है मगर मजा तो यह है कि बड़ों की भूल कहने-सुनने में नहीं आती इसीलिए आपकी भूल पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। किसी कवि ने ठीक ही कहा है –

को कहि सके बड़ेन सों लखे बड़े ही भूल।

दीन्हें दई गुलाब के इन डारन ये फूल।।

अस्तु अब मैं पुनः अपनी कहानी शुरू करता हूं।”

इसके बाद भरतसिंह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया –

भरत – मैंने हरदीन से कहा कि ‘अगर यह बात है तो गदाधरसिंह से मुलाकात करनी चाहिए, मगर वह मुझसे अपने भेद की बातें क्यों कहने लगा इसके अतिरिक्त वह यहां रहता भी नहीं है, कभी-कभी आ जाता है। साथ ही इसके यह जानना भी कठिन है कि वह कब आया और कब चला गया।’

हर – ठीक है, मगर मैं आपसे उनकी मुलाकात करा सकता हूं, आशा है कि वे मेरी बात मान लेंगे और आपको असल हाल भी बता देंगे। कल वह जमानिया में आने वाले हैं।

मैं – मगर मुझसे और उससे तो किसी तरह की मुलाकात नहीं है, वह मुझ पर क्यों भरोसा करेगा

हर – कोई चिंता नहीं, मैं आपकी-उनकी मुलाकात करा दूंगा।

हरदीन की इस बात ने मुझे और भी ताज्जुब में डाल दिया, मैं सोचने लगा कि इससे और गदाधरसिंह (भूतनाथ) से ऐसी गहरी जान-पहचान क्योंकर हो गई और वह इस पर क्यों भरोसा करता है

भरतसिंह ने अपना किस्सा यहां तक बयान किया था कि उनके काम में विघ्न पड़ गया अर्थात् उसी समय एक चोबदार ने आकर इत्तिला दी कि ”भूतनाथ हाजिर हैं।” इस खबर को सुनते ही सब कोई खुश हो गये और भरतसिंह ने भी कहा, ”अब मेरे किस्से में विशेष आनंद आवेगा।”

महाराज ने भूतनाथ को हाजिर करने की आज्ञा दी और भूतनाथ ने कमरे के अंदर पहुंचकर सभों को सलाम किया।

तेज – (भूतनाथ से) कहो भूतनाथ, कुशल तो है आज कई दिनों पर तुम्हारी सूरत दिखाई दी!

भूत – जी हां ईश्वर की कृपा से सब कुशल है, जितने दिन की छुट्टी लेकर गया था उसके पहले ही हाजिर हो गया हूं।

तेज – सो तो ठीक है मगर अपने सपूत लड़के का तो कुछ हाल कहो, कैसी निपटी?

भूत – निपटी क्या आपकी आज्ञा पालन की, नानक को मैंने किसी तरह की तकलीफ नहीं दी मगर सजा बहुत ही मजेदार और चटपटी दे दी गई!

देवी – (हंसते हुए) सो क्या?

भूत – मैंने उससे एक ऐसी दिल्लगी की कि वह भी खुश हो गया होगा… अगर बिल्कुल जानवर न होगा तो अब हम लोगों की तरफ कभी मुंह भी न करेगा। बात बिल्कुल मामूली थी, जब वह यहां आकर मेरी फिक्र में डूबा तो घर की हिफाजत का बंदोबस्त करने के बाद कुछ शागिर्दों को साथ लेकर उसके मकान पर पहुंच उसकी मां को उड़ा लाया मगर उसकी जगह अपने एक शागिर्द को रामदेई बनाकर छोड़ आया। यहां उसे शांता बनाकर अपने खेमे में जो इसी काम के लिए खड़ा किया था एक लौंडी के साथ सुला दिया और खुद तमाशा देखने लगा। आखिर नानक उसी को शांता समझ के उठा ले गया और खुशी-खुशी अपनी नकली मां के सामने पहुंचकर डींग हांकने लगा बल्कि उसकी आज्ञानुसार नकली शांता को खंभे के साथ बांधकर जूते से पूजा करने लगा। जब खूब दुर्गति कर चुका तब नकली रामदेई उसके सामने एक पुर्जा फेंककर घर के बाहर निकल गई। उस पुर्जे के पढ़ने से जब उसे मालूम हुआ कि मैंने जो कुछ किया अपनी ही मां के साथ किया तब वह बहुत ही शर्मिन्दा हुआ। उस समय उन दोनों की जैसी कैफियत हुई मैं क्या बयान करूं, आप लोग खुद सोच-समझ लीजिये।

भूतनाथ की बात सुनकर सब लोग हंस पड़े। महाराज ने उसे अपने पास बुलाकर बैठाया और कहा, ”भूतनाथ, जरा एक दफे तुम इस किस्से को फिर बयान कर जाओ मगर जरा खुलासे तौर पर कहो।”

भूतनाथ ने हाल को विस्तार के साथ ऐसे ढंग पर दोहराया कि हंसते-हंसते सभों का दम घुटने लगा। इसके बाद जब भूतनाथ को मालूम हुआ कि भरतसिंह अपना किस्सा बयान कर रहे हैं तब उसने भरतसिंह की तरफ देखा और कहा, ”मुझे भी तो आपके किस्से से कुछ संबंध है।”

भरत – बेशक! और वही हाल मैं इस समय बयान कर रहा था।

भूतनाथ – (गोपालसिंह से) क्षमा कीजियेगा, मैंने आपसे उस समय जब आप कृष्णाजिन्न बने हुए थे यह झूठ बयान किया था कि ‘राजा गोपालसिंह के छूटने के बाद मैंने उन कागजों का पता लगाया है जो इस समय मेरे ही साथ दुश्मनी कर रहे हैं’ इत्यादि। असल में वे कागज मेरे पास उसी जमाने में मौजूद थे, जब जमानिया में मुझसे और भरतसिंह से मुलाकात हुई थी। आप यह हाल इनकी जुबानी सुन चुके होंगे।

भरत – हां भूतनाथ, इस समय मैं वही हाल बयान कर रहा हूं, अभी कह नहीं चुका।

भूत – खैर तो अभी श्रीगणेश है। अच्छा आप बयान कीजिये।

भरतसिंह ने फिर इस तरह बयान किया –

भरत – दूसरे दिन आधी रात के समय जब मैं गहरी नींद में सोया हुआ था हरदीन ने आकर मुझे जगाया और कहा, ‘लीजिये मैं गदाधरसिंहजी को ले आया हूं, उठिये और इनसे मुलाकात कीजिये, ये बड़े ही लायक और बात के धनी आदमी हैं!’ मैं खुशी-खुशी उठ बैठा और बड़ी नर्मी के साथ भूतनाथ से मिला। इसके बाद मुझसे और भूतनाथ (गदाधर) से इस तरह बातचीत होने लगी –

भूत – साहब, आपका हरदीन बड़ा ही नेक और दिलावर है, ऐसे जीवट का आदमी दुनिया में कम दिखाई देगा। मैं तो इसे अपना परम हितैषी और मित्र समझता हूं, इसने मेरे साथ जो भलाइयां की हैं उनका बदला मैं किसी तरह चुका ही नहीं सकता, मुझसे आपसे कभी की जान-पहचान नहीं, मुलाकात नहीं, ऐसी अवस्था में मैं पहले-पहल बिना मतलब के आपके घर कदापि न आता परंतु इनकी इच्छा के विरुद्ध मैं नहीं चल सका, इन्होंने यहां आने के लिए कहा और मैं बेधड़क चला आया। इनकी जुबानी मैं सुन भी चुका हूं कि आजकल आप किस फेर में पड़े हुए हैं और मुझसे मिलने की जरूरत आपको क्यों पड़ी अस्तु हरदीन की आज्ञानुसार मैं वह कागज का मुट्ठा भी आपको दिखाने के लिए लेता आया हूं जिससे आपको दारोगा और रघुबरसिंह की हरामजदगी और राजा गोपालसिंह की शादी का पूरा-पूरा हाल मालूम हो जायेगा, मगर खूब याद रखिये कि इस कागज को पढ़कर आप बेताब हो जायेंगे, आपको बेहिसाब गुस्सा चढ़ आवेगा और आपका दिल बेचैनी के साथ तमाम भंडा फोड़ देने के लिए तैयार हो जायगा मगर नहीं, आपको बहुत बर्दाश्त करना पड़ेगा, दिल को सम्हालना और इन बातों को हर तरह से छिपाना पड़ेगा। मुझे हरदीन ने आपका बहुत ज्यादे विश्वास दिलाया है तभी मैं यहां आया हूं और यह अनूठी चीज भी दिखाने के लिए तैयार हूं, नहीं तो कदापि न आता।

मैं – आपने बड़ी मेहरबानी की जो मुझ पर भरोसा किया और यहां तक चले आये, मेरी जबान से आपका रत्ती भर भेद भी किसी को नहीं मालूम हो सकता, इसका आप विश्वास रखिये। यद्यपि मैं इस बात का निश्चय कर चुका हूं कि गोपालसिंह के मामले में मैं अब कुछ भी दखल न दूंगा मगर इस बात का अफसोस जरूर है कि वह मेरे मित्र हैं और दुष्टों ने उन्हें बेतरह फंसा रखा है।

भूत – केवल आप ही को नहीं, इस बात का अफसोस मुझको भी है और मैं खुद गोपालसिंह को इस आफत से छुड़ाने का इरादा कर रहा हूं, मगर लाचार हूं कि बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी का कुछ भी पता नहीं लगता और जब तक उन दोनों का पता न लग जाय तब तक इस मामले को उठाना बड़ी भूल है।

मैं – मगर यह तो आपको निश्चय है न कि इसका कर्ताधर्ता कम्बख्त दारोगा ही है।

भूत – भला इसमें भी कुछ शक है! लीजिये इस कागज के मुट्ठे को पढ़ जाइये तब आपको भी विश्वास हो जायगा।

इतना कहकर भूतनाथ ने कागज का एक मुट्ठा निकाला और मेरे आगे रख दिया तथा मैंने भी उसे पढ़ना शुरू किया। मैं आपसे नहीं कह सकता कि उन कागजों को पढ़कर मेरे दिल की कैसी अवस्था हो गई और दारोगा तथा रघुबरसिंह पर मुझे कितना क्रोध चढ़ आया। आप लोग तो उसे पढ़-सुन चुके हैं अतएव इस बात को खुद समझ सकते हैं। मैंने भूतनाथ से कहा कि ‘यदि तुम मेरा साथ दो तो मैं आज ही दारोगा और रघुबरसिंह को इस दुनिया से उठा दूं।’

भूत – इससे फायदा ही क्या होगा और यह काम ही कितना बड़ा है मुझे खुद इस बात का खयाल है और मैं लक्ष्मीदेवी का पता लगाने के लिए दिल से कोशिश कर रहा हूं, तथा आपका हरदीन भी पता लगा रहा है। इस तरह समय के पहले छेड़छाड़ करने से खुद अपने को झूठा बनाना पड़ेगा और लक्ष्मीदेवी भी जहां की तहां पड़ी सड़ेगी या मर जायगी।

मैं – हां ठीक है, अच्छा यह तो बताइये कि आप हरदीन की इतनी इज्जत क्यों करते हैं।

भूत – इसलिए कि यह सब कुछ इन्हीं की बदौलत है, इन्होंने मुझे उस कमेटी का पता बताया और उसका भेद समझाया और इन्हीं की मदद से मैंने उस कमेटी का सत्यानाश किया।

मैं – (हरदीन से) और तुम्हें उस कमेटी का भेद क्योंकर मालूम हुआ

हर – (हाथ जोड़ के) माफ कीजिएगा, मैं उस कमेटी का मेम्बर था और अभी तक उन लोगों के खयाल से उन सभों का पक्षपाती बना हुआ हूं, मगर मैं ईमानदार मेंबर था इसलिए ऐसी बातें मुझे पसंद न आर्ईं और मैं गुप्त रीति से उन लोगों का दुश्मन बन बैठा, मगर इतना करने पर भी अभी तक मेरी जान इसलिए बची हुई है कि आपके घर में मेरे सिवाय और कोई इन लोगों का साथी नहीं है।

मैं – तो क्या अभी तक तुम उन लोगों के साथी बने हुए हो और वे लोग अपने दिल का हाल तुमसे कहते हैं।

हर – जी हां, तभी तो मैंने आपको रघुबरसिंह के पंजे से बचाया था जब वह आपको घोड़े पर सवार कराके ले चला था!

मैं – अगर ऐसा है तो तुम्हें यह भी मालूम हो गया होगा कि उस दिन घात न लगने के कारण रघुबरसिंह ने अब कौन-सी कार्रवाई सोची है।

हर – जी हां, पहले तो उसने मुझसे पूछा था कि ‘भरतसिंह ने ऐसा क्यों किया, क्या उसको मेरी नीयत का कुछ पता लग गया’ जिसके जवाब में मैंने कहा कि ‘नहीं, दूसरे सबब से ऐसा हुआ होगा’। इसके बाद दारोगा साहब ने मुझ पर हुक्म लगाया कि ‘तू भरतसिंह को जिस तरह हो सके जहर दे दे’। मैंने कहा, ‘बहुत अच्छा ऐसा ही करूंगा, मगर इस काम में पांच-सात दिन जरूर लग जायेंगे।’

इतना कह हरदीन ने भूतनाथ से पूछा कि ‘कहिए अब क्या करना चाहिए’ इसके जवाब में भूतनाथ ने कहा कि ‘अब पांच-सात दिन के बाद भरतसिंह को झूठ-मूठ हल्ला मचा देना चाहिए कि मुझको किसी ने जहर दे दिया, बल्कि कुछ बीमारी की-सी नकल भी करके दिखा देनी चाहिए।’

इसके बाद थोड़ी देर तक और भी भूतनाथ से बातचीत होती रही और किसी दिन फिर मिलने का वादा करके भूतनाथ बिदा हुआ।

इस घटना के बाद कई दफे भूतनाथ से मुलाकात हुई बल्कि कहना चाहिए कि इनके और मेरे बीच में एक प्रकार की मित्रता-सी हो गई और इन्होंने कई कामों में मेरी सहायता भी की।

जैसा कि आपस में सलाह हो चुकी थी मुझे यह मशहूर करना पड़ा कि ‘मुझे किसी ने जहर दे दिया’। साथ ही इसके कुछ बीमारी की नकल भी की गई जिससे मेरे नौकर पर कम्बख्त दारोगा को शक न हो जाय मगर इसका कोई अच्छा नतीजा न निकला अर्थात् दारोगा को मालूम हो गया कि हरदीन उसका सच्चा साथी और भेदिया नहीं है।

एक दिन रात के समय एकांत में हरदीन ने मुझसे कहा, ‘लीजिए अब दारोगा साहब को निश्चय हो गया कि मैं उनका सच्चा साथी नहीं हूं। आज उसने मुझे अपने पास बुलाया था मगर मैं गया नहीं क्योंकि मुझे यह निश्चय हो गया कि जाने के साथ ही मैं उसके कब्जे में आ जाऊंगा और फिर किसी तरह जान न बचेगी, यों तो छिटके रहने पर लड़ते-झगड़ते जैसा होगा देखा जायगा। अस्तु इस समय मुझे आपसे यह कहना है कि आज से मैं आपके यहां रहना छोड़ दूंगा और तब तक आपके पास न आऊंगा जब तक मैं दारोगा की तरफ से बेफिक्र न हो जाऊंगा, देखा चाहिए मेरी उससे क्योंकर निपटती है। वह मुझे मारकर निश्चिंत होता है या मैं उसे जहन्नुम में पहुंचाकर कलेजा ठंडा करता हूं। मुझे अपने मरने का रंज कुछ भी नहीं है मगर इस बात का अफसोस जरूर है कि मेरे जाने के बाद आपका मददगार यहां कोई भी नहीं है और कम्बख्त दारोगा आपको फंसाने में किसी तरह की कसर न करेगा, खैर लाचारी है क्योंकि मेरे यहां रहने से भी आपका कोई कल्याण नहीं हो सकता। यों तो मैं छिपे-छिपे कुछ-न-कुछ मदद जरूर करूंगा परंतु आप जहां तक हो सके खूब होशियारी के साथ काम कीजियेगा।’

मैं – अगर यही बात है तो तुम्हारे भागने की कोई जरूरत नहीं हम लोग दारोगा के भेदों को खोलकर खुल्लमखुल्ला उसका मुकाबला कर सकते हैं।

हर – इससे कोई फायदा नहीं हो सकता, क्योंकि हम लोगों के पास दारोगा के खिलाफ कोई सबूत नहीं है और न उसके बराबर ताकत ही है।

मैं – क्या इन भेदों को हम गोपालसिंह से नहीं खोल सकते और ऐसा करने से भी कोई काम नहीं चलेगा

हर – नहीं, ऐसा करने से जो कुछ बरस-दो बरस गोपालसिंहजी की जिंदगी है वह भी न रहेगी अर्थात् हम लोगों के साथ ही साथ वे भी मार डाले जायेंगे। आप नहीं समझ सकते और नहीं जानते कि दारोगा की असली सूरत क्या है, उसकी ताकत कैसी है, और उसके मजबूत जाल किस कारीगरी के साथ फैले हुए हैं। गोपालसिंह अपने को राजा और शक्तिमान समझते होंगे मगर में सच कहता हूं कि दारोगा के सामने उनकी कुछ भी हकीकत नहीं है, हां, यदि राजा गोपालसिंह किसी को किसी तरह की खबर किए बिना एकाएक दारोगा को गिरफ्तार करके मार डालें तो बेशक वे राजा कहला सकते हैं, मगर ऐसी अवस्था में मायारानी उन्हें जीता न छोड़ेगी और लक्ष्मीदेवी वाला भेद भी ज्यों-का-त्यों बंद रह जायगा, वह भी किसी तहखाने में पड़ी-पड़ी भूखी-प्यासी मर जाएगी।

इसी तरह पर हमारे और हरदीन के बीच में देर तक बातें होती रहीं और वह मेरी हर एक बात का जवाब देता रहा। अंत में वह मुझे समझा-बुझाकर घर से बाहर निकल गया और उसका पता न लगा।

रात भर मुझे नींद न आई और मैं तरह-तरह की बातें सोचता रह गया। सुबह को चारपाई से उठा, हाथ-मुंह धोने के बाद दरबारी कपड़े पहिरे, हरबे लगाए और राजा साहब की तरफ रवाना हुआ। जब मैं उस तिरमुहानी पर पहुंचा जहां से एक रास्ता राजा साहब के दीवानखाने की तरफ और दूसरा खास बाग की तरफ गया है तब उस जगह पर दारोगा साहब से मुलाकात हुई जो दीवानखाने की तरफ से लौटे हुए चले आ रहे थे।

प्रकट में मुझसे और दारोगा साहब से बहुत अच्छी तरह साहब-सलामत हुई और उन्होंने उदासीनता के साथ मुझसे कहा, ‘आप दीवानखाने की तरफ कहां जा रहे हैं, राजा साहब तो खास बाग में चले गये, मेरे साथ चलिए मैं भी उन्हीं से मिलने के लिए जा रहा हूं, सुना है कि रात से उनकी तबीयत खराब हो रही है।’

मैं – (ताज्जुब के साथ) क्यों-क्यों, कुशल तो है?

दारोगा – अभी-अभी पता लगा है कि आधी रात के बाद से उन्हें बेहिसाब दस्त और कै आ रहे हैं। आप कृपा करके यदि मोहनजी वैद्य को अपने साथ लेते आवें तो बड़ा काम हो, मैं खुद उनकी तरफ जाने का इरादा कर रहा था।

दारोगा की बातें सुनकर मैं घबड़ा गया, राजा साहब की बीमारी का हाल सुनते ही मेरी तबीयत उदास हो गई और मैं ‘बहुत अच्छा’ कह उल्टे पैर लौटा और मोहनजी वैद्य की तरफ रवाना हुआ।

यहां तक अपना हाल कह कुछ देर के लिए भरतसिंह चुप हो गये और दम लेने लगे। इस समय जीतसिंह ने महाराज की तरफ देखा और कहा, ”भरतसिंहजी का किस्सा दरबारे-आम में कैदियों के सामने ही सुनने लायक है।”

महाराज – बेशक ऐसा ही है। (गोपालसिंह से) तुम्हारी क्या राय है?

गोपाल – महाराज की इच्छा के विरुद्ध मैं कुछ बोल न सका नहीं तो मैं भी यही सोचता था कि और नकाबपोशों की तरह इनका किस्सा भी कैदियों के सामने सुना जाय।

और सभों ने भी यही राय दी, आखिर महाराज ने हुक्म दिया कि ”कल दरबारे-आम किया जाय और कैदी लोग दरबार में लाए जायं।”

दिन पहर भर से कुछ कम बाकी था जब यह छोटा-सा दरबार बर्खास्त हुआ और सब कोई अपने ठिकाने चले गए। कुंअर आनंदसिंह शिकारी कपड़े पहनकर तारासिंह को साथ लिए महल के बाहर आये और दोनों दोस्त घोड़ों पर सवार हो जंगल की तरफ रवाना हो गये।

बयान – 10

घोड़े पर सवार तारासिंह को साथ लिए हुए कुंअर आनंदसिंह जंगल ही जंगल घूमते और साधारण ढंग पर शिकार खेलते हुए बहुत दूर निकल गये और जब दिन बहुत कम बाकी रह गया तब धीरे-धीरे घर की तरफ लौटे।

हम ऊपर के किसी बयान में लिख आये हैं कि अटारी पर एक सजे हुए बंगले में बैठी हुई किशोरी, कामिनी और कमलिनी वगैरह ने जंगल से निकलकर घर की तरफ आते हुए कुंअर आनंदसिंह और तारासिंह को देखा तथा यह भी देखा कि दस-बारह नकाबपोशों ने जंगल में से निकल इन दोनों पर तीर चलाये और ये दोनों उनका पीछा करते हुए पुनः जंगल के अंदर घुस गये – इत्यादि।

यह वही मौका है जिसका हम जिक्र कर रहे हैं। उस समय कमला ने एक लौंडी की जुबानी इंद्रजीतसिंह को इस बात की खबर दिलवा दी थी, और खबर पाते ही कुंअर इंद्रजीतसिंह, भैरोसिंह तथा बहुत से आदमी आनंदसिंह की मदद के लिए रवाना हो गये थे।

असल बात यह थी कि भूतनाथ की चालाकी से शर्मिन्दगी उठाकर भी नानक ने सब्र नहीं किया बल्कि पुनः इन लोगों का पीछा किया और अबकी दफे इस ढंग से जाहिर हुआ था कि मौका मिले तो आनंदसिंह को तीर का निशाना बनावे और इसी तरह बारी-बारी से अपने दुश्मनों की जान लेकर कलेजा ठंडा करे। मगर उसका यह इरादा भी काम न आया, आनंदसिंह और तारासिंह की चालाकी और उनके घोड़ों की चपलता के कारण उसका निशाना कारगर न हुआ और उन्होंने तेजी के साथ उनके सिर पर पहुंचकर सभों को हर तरह से मजबूर कर दिया। तब तक मदद के लिए गये हुए कुंअर इंद्रजीतसिंह भी जा पहुंचे और आठ साथियों के सहित बेईमान नानक को गिरफ्तार कर लिया। यद्यपि उसी समय यह भी मालूम हो गया कि इसके साथियों में से कई आदमी निकल गए मगर इस बात की कुछ परवाह न की गई और जो कुछ गिरफ्तार हो गये थे उन्हीं को लेकर सब कोई घर की तरफ रवाना हो गए।

कम्बख्त नानक पर हर तरह की रियायत की गई, बहुत कड़ी सजा पाने के योग्य होने पर भी उसे किसी तरह की सजा न दी गई, और इस खयाल से बिल्कुल साफ छोड़ दिया गया कि शायद फिर भी सुधर जाय मगर नहीं –

भूयोपि सिकता पयसा घृतेन

न निम्ब वृक्षो मधुरत्वमेति

अर्थात् नीम न मीठी होय सींचे गुड़ घीउ से।

आखिर नानक को वह दुःख भोगना ही पड़ा जो उसकी किस्मत में बदा हुआ था।

जिस समय नानक गिरफ्तार करके लाया गया और लोगों ने उसका हाल सुना, उस समय सभों को उसकी नालायकी पर बहुत ही रंज हुआ। महाराज की आज्ञानुसार वह कैदखाने में पहुंचाया गया और सभों को निश्चय हो गया कि अब इसे किसी तरह छुटकारा नहीं मिल सकता।

दूसरे दिन दरबारे-आम का बंदोबस्त किया गया और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए बड़े शौक से लोग इकट्ठा होने लगे। हथकड़ियों और बेड़ियों से जकड़े हुए कैदी लोग हाजिर किए गए और आपस वालों तथा ऐयारों को साथ लिए हुए महाराज भी दरबार में आकर एक ऊंची गद्दी पर बैठ गये। आज के दरबार में भीड़ मामूली से बहुत ज्यादे भी और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए सभी उतावले हो रहे थे। भरतसिंह, दलीपशाह, अर्जुनसिंह तथा उनके और भी दो साथी जो तिलिस्म के बाहर होने के बाद अपने घर चले गये थे और अब लौट आये हैं अपने-अपने चेहरों पर नकाब डालकर दरबार में राजा गोपालसिंह के पास बैठ गये और महाराज के हुक्म का इंतजार करने लगे।

महाराज का इशारा पाकर भरतसिंह खड़े हो गए और उन्होंने दारोगा तथा जैपाल की तरफ देखकर कहा –

”दारोगा साहब, जरा मेरी तरफ देखिये और पहिचानिये कि मैं कौन हूं। जैपाल, तू भी इधर निगाह कर!”

इतना कहकर भरतसिंह ने अपने चेहरे पर से नकाब उलट दी और एक दफे चारों तरफ देखकर सभों का ध्यान अपनी तरफ खैंच लिया। सूरत देखते ही दारोगा और जैपाल थर-थर कांपने लगे। दारोगा ने लड़खड़ाई आवाज से कहा, ”कौन ओफ भरतसिंह! नहीं-नहीं, भरतसिंह कहां उसे मरे बहुत दिन हो गये, यह तो कोई ऐयार है!!”

भरत – नहीं-नहीं, दारोगा साहब, मैं ऐयार नहीं हूं, मैं वही भरतसिंह हूं जिसे आपने हद से ज्यादा सताया था, मैं वही भरतसिंह हूं जिसके मुंह पर आपने मिर्च का तोबड़ा चढ़ाया था और मैं वही भरतसिंह हूं जिसे आपने अंधेरे कुएं में लटका दिया था। सुनिए मैं अपना किस्सा बयान करता हूं और यह भी कहता हूं कि आखिर में मेरी जान क्योंकर बची। जैपालसिंह आप भी सुनिए और हुंकारी भरते चलिए।

इतना कहकर भरतसिंह ने अपना किस्सा आदि से कहना आरंभ किया जैसा कि हम ऊपर बयान कर आये हैं और इसके बाद यों कहने लगे –

भरत – दारोगा की बातों ने मुझे घबड़ा दिया और मैं उलटे पैर मोहनजी वैद्य को बुलाने के लिए रवाना हुआ। मुझे इस बात का रत्ती भर भी शक न था कि मोहनजी और दारोगा साहब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं अथवा इन दोनों में हमारे लिए कुछ बातें तै पा चुकी हैं। मैं बेधड़क उनके मकान पर गया और इत्तिला कराने के बाद उनके एकांत वाले कमरे में जा पहुंचा जहां उन्होंने मुझे बुला भेजा था। उस समय वे अकेले बैठे माला जप रहे थे। नौकर मुझे वहां तक पहुंचाकर विदा हो गया और मैंने उनके पास बैठकर राजा साहब का हाल बयान करके खास बाग में चलने के लिए कहा। जवाब में वैद्यजी यह कहकर कि ‘मैं दवाओं का बंदोबस्त करके अभी आपके साथ चलता हूं’ खड़े हुए और अलमारी में से कई तरह की शीशियां निकाल – निकाल जमीन पर रखने लगे। उसी बीच में उन्होंने एक छोटी शीशी निकालकर मेरे हाथ में दे दी और कहा, ‘देखिए, यह मैंने एक नए ढंग की ताकत की दवा तैयार की है, खाना दूर रहा इसके सूंघने ही से तुरंत मालूम होता है कि बदन में एक तरह की ताकत आ रही है! लीजिए जरा सूंघ के अंदाज तो कीजिए।’

मैं वैद्यजी के फेर में पड़ गया और शीशी का मुंह खोलकर सूंघने लगा। इतना तो मालूम हुआ कि इसमें कोई खुशबूदार चीज है मगर फिर तनोबदन की सुध न रही। जब मैं होश में आया तो अपने को हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर एक अंधेरी कोठरी में कैद पाया। नहीं कह सकता कि वह दिन का समय था या रात का, कोठरी के एक कोने में चिराग जल रहा था और दारोगा तथा जैपाल हाथ में नंगी तलवार लिए सामने बैठे हुए थे।

मैं – (दारोगा से) अब मालूम हुआ कि आपने इसी काम के लिए मुझे वैद्यजी के पास भेजा था।

दारोगा – बेशक इसीलिए, क्योंकि तुम मेरी जड़ काटने के लिए तैयार हो चुके थे।

मैं – तो फिर मुझे कैद कर रखने से क्या फायदा? मारकर बखेड़ा निपटाइए और बेखटके आनंद कीजिए।

दारोगा – हां, अगर तुम मेरी बात न मानोगे तो बेशक मुझे ऐसा ही करना पड़ेगा।

मैं – मानने की कौन-सी बात है मैंने तो अभी तक कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे आपको किसी तरह का नुकसान पहुंचे।

दारोगा – ये सब बातें तो रहने दो क्योंकि तुम और हरदीन मिलकर जो कुछ कर चुके थे और जो किया चाहते थे उसे मैं खूब जानता हूं मगर बात यह है कि अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें इस कैद से छुट्टी दे सकता हूं, नहीं तो मौत तुम्हारे लिए रखी हुई है।

मैं – खैर बताइये तो सही कि वह कौन-सा काम है जिसके करने से छुट्टी मिल सकती है।

दारोगा – यही कि तुम एक चीठी इन रघुबरसिंह अर्थात् जैपाल के नाम की लिख दो जिसमें यह बात हो कि ‘लक्ष्मीदेवी के बदले में मुंदर को मायारानी बना देने में जो कुछ मेहनत की है वह हम-तुम दोनों ने मिलकर की है अतएव उचित है कि इस काम में जो कुछ तुमने फायदा उठाया है उसमें से आधा मुझे बांट दो नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा।’

मैं – ठीक है, आपका मतलब मैं समझ गया, खैर आज तो नहीं मगर कल जैसा आप कहते हैं वैसा ही कर दूंगा।

दारोगा – आखिर एक दिन की देर करने में तुमने फायदा ही क्या सोच लिया है!

मैं – सो भी कल ही बताऊंगा।

दारोगा – अच्छा क्या हर्ज है कल ही सही।

इतना कहकर दारोगा चला गया और मैं भूखा-प्यासा उसी कोठरी में पड़ा हुआ तरह-तरह की बातें सोचने लगा क्योंकि उस दिन दारोगा ने मेरे खाने-पीने के लिए कुछ भी प्रबंध न किया। मुझे निश्चय हो गया कि इस ढंग की चीठी लिखाने के बाद दारोगा मुझे जान से मार डालेगा और मेरे मरने के बाद यही चीठी मेरी बदनामी का सबब बनेगी, मेरे दोस्त गोपालसिंह मुझको बेईमान समझेंगे और तमाम दुनिया मुझे कमीना खयाल करेगी, अस्तु मैंने दिल में ठान ली कि चाहे जान जाय या रहे मगर इस तरह की चीठी कदापि न लिखूंगा। आखिर मरना तो जरूर ही है फिर कलंक का टीका जान-बूझकर अपने माथे क्यों लगाऊं?

दूसरे दिन रघुबरसिंह को साथ लिए हुए दारोगा पुनः मेरे पास आया।

भरतसिंह ने अपना हाल यहां तक बयान किया कि राजा गोपालसिंह ने बीच ही में टोका और पूछा, ”क्या रघुबरसिंह भी इसी जैपाल का नाम है?’

भरत – जी हां, इसका नाम रघुबरसिंह था और कुछ दिन के लिए इसने अपना नाम ‘भूतनाथ’ रख लिया था।

गोपाल – ठीक है, मुझे इस बारे में धोखा हुआ बल्कि मेरे खजांची ही ने मुझे धोखा दिया, खैर तब क्या हुआ?

भरत – हां तो दूसरे दिन जैपाल को साथ लिए हुए दारोगा पुनः मेरे पास आया और बोला, ‘कहो चीठी लिख देने के लिए तैयार हो या नहीं इसके जवाब में मैंने कहा कि ‘मर जाना मंजूर है मगर झूठे कलंक का टीका अपने माथे पर लगाना मंजूर नहीं।’

दारोगा ने मुझे कई तरह से समझाना-बुझाना और धोखे में डालना चाहा मगर मैंने उसकी एक न सुनी। आखिर दोनों ने मिलकर मुझे मारना शुरू किया, यहां तक मारा कि मैं बेहोश हो गया। जब होश में आया तो फिर उसी तरह अपने को कैद पाया। भूख और प्यास के मारे मेरा बुरा हाल हो गया था और मार के सबब से मेरा तमाम बदन चूर-चूर हो रहा था। तीसरे दिन दोनों शैतान पुनः मेरे पास आये और उस दिन भी मैंने दारोगा की बात न मानी तो उसने घोड़ों के दाना खाने वाले तोबड़े में चूर किया हुआ मिरचा रखकर मेरे मुंह पर चढ़ा दिया। हाय-हाय! उस तकलीफ को मैं कभी भी नहीं भूल सकता!!

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यहां तक कहकर भरतसिंह चुप हो गये और दारोगा तथा जैपाल की तरफ देखने लगे। वे दोनों सिर नीचा किये हुए जमीन की तरफ देख रहे थे और डर के मारे दोनों का बदन कांप रहा था। भरतसिंह ने पुकारकर कहा, ”कहिए दारोगा साहब, जो कुछ मैं कह रहा हूं वह सच है या झूठ’ मगर दारोगा ने इसका कुछ भी जवाब न दिया। मगर वहां उस समय दरबार में जितने आदमी बैठे थे क्रोध के मारे सभों का बुरा हाल था और सब कोई दारोगा की तरफ जलती हुई निगाह से देख रहे थे। भरतसिंह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया –

भरत – दारोगा के संबंध में मेरा किस्सा वैसा दिलचस्प नहीं है जैसा कि दलीपशाह और अर्जुनसिंह का आप लोग सुनेंगे, क्योंकि उनके साथ बड़ी-बड़ी विचित्र घटनाएं हो चुकी हैं, बल्कि यों कहना चाहिए कि मेरा तमाम किस्सा उनकी एक दिन की घटना का मुकाबला भी नहीं कर सकता, परंतु साथ ही इसके यह बात भी जरूर है कि मैंने न तो कभी किसी के साथ किसी तरह की बुराई की और न किसी से विशेष मेलजोल या हंसी-दिल्लगी ही रखता था, फिर भी उन दिनों जमानिया की वह दशा थी कि सादे ढंग पर जिंदगी बिताने वाला मैं भी सुख की नींद न सो सका और राजा साहब की दोस्ती की बदोलत मुझे हर तरह का दुःख भोगना पड़ा। इस हरामखोर दारोगा ने ऐसे-ऐसे कुकर्म किए हैं कि जिनका पूरा-पूरा बयान हो ही नहीं सकता और न यही मेरी समझ में आता है कि दुनिया में कौन-सी ऐसी सजा है जो इसके योग्य समझी जाय। अस्तु अब मैं संक्षेप में अपना हाल समाप्त करता हूं।

अपने मन के माफिक चीठी लिखाने की नीयत से आठ-दस दिन तक कम्बख्त दारोगा ने मुझे बेहिसाब तकलीफें दीं। मिर्च का तोबड़ा मेरे मुंह पर चढ़ाया, जहरीली राई का लेप मेरे बदन पर किया, कुएं में लटकाया, गंदी कोठरी में बंद किया, जो-जो सूझा सब-कुछ किया और इतने दिनों तक बराबर ही मुझे भूखा भी रखा गया मगर न मालूम क्या सबब है कि मेरी जान न निकली। मैं बराबर ईश्वर से प्रार्थना करता था कि किसी तरह मुझे मौत दे जिससे इस दुःख से छुट्टी मिले। आखिरी दिन मैं इतना कमजोर हो गया था कि मुझमें बात करने की ताकत न थी।

उस दिन आधी रात के समय में उसी कोठरी में पड़ा-पड़ा मौत का इंतजार कर रहा था कि यकायक कोठरी का दरवाजा खुला और एक नकाबपोश दाहिने हाथ में नंगी तलवार और बाएं हाथ में एक छोटी गठरी लिए हुए कोठरी के अंदर आता हुआ दिखाई पड़ा। हाथ में वह जो तलवार लिए था उसके अतिरिक्त उसके कमर में एक तलवार और भी थी। कोठरी के अंदर आते ही उसने भीतर से दरवाजा बंद कर दिया और मेरे पास चला आया, हाथ की गठरी और तलवार जमीन पर रख मुझसे चिमट गया और रोने लगा। उसकी ऐसी मुहब्बत देख मैं चौंक पड़ा और मुझे तुरंत मालूम हो गया कि यह मेरा पुराना खैरख्वाह हरदीन है। उसके चेहरे से नकाब हटाकर मैंने उसकी सूरत देखी और तब रोने में उसका साथ दिया।

थोड़ी ही देर बाद हरदीन मुझसे अलग हुआ और बोला, ‘मैं किसी न किसी तरह यहां पहुंच गया मगर यहां से निकल भागना जरा कठिन है, तथापि आप घबराएं नहीं, मैं एक दफे तो दुश्मन को सताए बिना नहीं रहता, अब आप शीघ्र उठें और जो कुछ मैं खाने-पीने के लिए लाया हूं उसे भोजन करके चैतन्य हो जायं।’

जो गठरी हरदीन लाया था उसमें खाने-पीने का सामान था। उसने मुझे भोजन कराया, पानी पिलाया और इसके बाद मेरे हाथ में एक तलवार देकर बोला, ‘बस अब आप उठिए और मेरे पीछे-पीछे चले आइए, इतना समय नहीं है कि मैं आपसे विशेष बातें करूं, इसके अतिरिक्त जिस जगह पर आप कैद हैं यह तिलिस्म का एक हिस्सा है, यहां से निकलने के लिए भी बहुत उद्योग करना होगा।’

भोजन करने से कुछ ताकत तो मुझमें हो ही गई थी मगर कैद से छुटकारा मिलने की उम्मीद ने उससे भी ज्यादे ताकत पैदा कर दी। मैं उठ खड़ा हुआ और हरदीन के पीछे-पीछे रवाना हुआ। कोठरी का दरवाजा खोलने के बाद जब मैं बाहर निकला तब मुझे मालूम हुआ कि मैं खास बाग के तीसरे दर्जे में हूं जिसमें कई दफे राजा गोपालसिंह के साथ जा चुका था, मगर इस बात से मुझको बहुत ही ताज्जुब हुआ और मैं सोचने लगा कि देखो राजा साहब के खास बाग ही में दारोगा लोगों पर इतना जुल्म करता है और राजा साहब को खबर तक नहीं होती। क्या यहां कई ऐसे स्थान हैं जिनका हाल दारोगा जानता है और राजा साहब नहीं जानते!

खैर में कोठरी के बाहर निकलकर बरादमे में पहुंचा जहां से बायें और दाहिने सिर्फ दो ही तरफ जाने का रास्ता था। दाहिने तरफ इशारा करके हरदीन ने मुझसे कहा, ‘इसी तरफ से मैं आया हूं, दारोगा, जैपाल तथा बहुत-से आदमी इस तरफ बैठे हैं इसलिए इधर तो अब जा नहीं सकते, हां बार्ईं तरफ चलिए कहीं-न-कहीं तो रास्ता मिल ही जाएगा।’

रात चांदनी थी और ऊपर से खुला रहने के सबब उधर की हर एक चीज साफ दिखाई देती थी। हम दोनों आदमी बाईं तरफ रवाना हुए। लगभग पचीस कदम जाने के बाद नीचे उतरने के लिए दस-बारह सीढ़ियां मिलीं जिन्हें तै करने के बाद हम दोनों एक दालान में पहुंचे जो बहुत लंबा-चौड़ा तो न था मगर निहायत खूबसूरत और स्याह पत्थर का बना हुआ था। उस दालान में पहुंचे ही थे कि पीछे से दारोगा और जैपाल तेजी के साथ आते हुए दिखाई पड़े, मगर हरदीन ने इनकी कुछ भी परवाह न की और कहा, ‘इन दोनों के लिए तो मैं अकेला ही काफी हूं।’

हरदीन मुझे अपने पीछे करने के बाद अड़कर खड़ा हो गया। उसने दारोगा को सैकड़ों गालियां दीं और मुकाबला करने के लिए ललकारा मगर उन दोनों की हिम्मत न पड़ी कि आगे बढ़ें और हरदीन का मुकाबला करें। कुछ देर तक खड़े-खड़े देखने और सोचने के बाद दारोगा ने अपने जेब में से एक छोटा-सा गोला निकाला और हम दोनों की तरफ फेंका। हरदीन समझ गया कि जमीन पर गिरने के साथ ही इसमें से बेहोशी का धुआं निकलेगा। उसने अपने हाथ से मुझे भागने का इशारा किया। गोला जमीन पर गिरकर फटा और उसमें से बहुत-सा धुआं निकला मगर हम दोनों वहां से हट गये थे इसलिए उसका कुछ असर न हुआ। उसी समय दारोगा ने हम लोगों की तरफ फेंकने के लिए दूसरा गोला निकाला।

इस दालान के बीचोंबीच में एक छोटा-सा चबूतरा लाल पत्थर का बना हुआ था मगर हम दोनों यह नहीं जानते थे कि इसमें क्या गुण है। दारोगा को दूसरा गोला निकालते देख हम दोनों उस चबूतरे पर चढ़ गए मगर उस पर से उतरकर भाग न सके क्योंकि चढ़ने के साथ ही चबूतरा हिला, तब हम दोनों को लिए हुए जमीन के अंदर धंस गया और साथ ही न मालूम किस चीज के असर से हम दोनों बेहोश हो गये। जब होश में आये तो चारों तरफ अंधकार ही अंधकार दिखाई दिया, नहीं कह सकते कि हम दोनों कितनी देर तक बेहोश रहे।

कुछ देर तक चुपचाप बैठे रहने के बाद सामने की तरफ कुछ उजाला मालूम हुआ और वह उजाला धीरे-धीरे बढ़ने लगा जिससे हमने समझा कि सामने कोई दरवाजा है और उसमें से सुबह की सफेदी दिखाई दे रही है। हम दोनों उठकर खड़े हुए और उसी उजाले की तरफ बढ़े। वास्तव में वैसा ही था जैसा हम लोगों ने सोचा था। कई कदम चलने के बाद एक दरवाजा मिला जिसे लांघकर हम दोनों उसी बुर्ज वाले बाग में जा पहुंचे जहां दोनों कुमार से मुलाकात हुई थी। इसके बाद बाहर का हाल बहुत दिनों तक कुछ भी मालूम न हुआ कि क्या हो रहा है और क्या हुआ। बहुत दिनों तक वहां से बाहर निकलने के लिए उद्योग करते रहे परंतु सब व्यर्थ हुआ ओैर वहां से छुट्टी तभी मिली जब दोनों कुमारों के दर्शन हुए1 कुछ दिनों बाद दलीपशाह से भी उसी बाग में मुलाकात हुई जिसका हाल उनका किस्सा सुनने से आप लोगों को मालूम होगा। बस इतना ही तो मेरा किस्सा है, हां जब आप लोग दलीपशाह की कहानी सुनेंगे तब बेशक कुछ आनंद मिलेगा। (एक नकाबपोश की तरफ बताकर) मेरा पुराना खैरख्वाह हरदीन यही है जो इतने दिनों तक मेरे दुःख-सुख का साथी बना रहा और अंत में मेरे साथ ही कैद से छूटा।

भरतसिंह की कथा समाप्त होने के बाद दरबार बर्खास्त किया गया और महाराज ने हुक्म दिया कि ”कल के दरबार में दलीपशाह अपना किस्सा बयान करेंगे।”

1देखिए चंद्रकान्ता संतति, बीसवां भाग, चौथा बयान।

बयान – 11

दूसरे दिन पुनः उसी ढंग का दरबार लगा और सब कोई अपने-अपने ठिकाने पर बैठ गये।

इशारा पाकर दलीपशाह उठ खड़ा हुआ और उसने अपने चेहरे से नकाब हटाकर दारोगा, जैपाल, बेगम और नागर वगैरह की तरफ देखकर कहा –

दलीप – आप लोगों की खुशकिस्मती का जमाना तो बीत गया अब वह जमाना आ गया है कि आप लोग अपने किए का फल भोगें और देखें कि आपने जिन लोगों को जहन्नुम में पहुंचाने का बीड़ा उठाया था आज ईश्वर की कृपा से वे ही लोग आपको हंसते-खेलते दिखाई दे रहे हैं। खैर मुझे इन बातों से कोई मतलब नहीं, इसका निपटारा तो महाराज की आज्ञा से होगा, मुझे अपना किस्सा बयान करने का हुक्म हुआ है सो बयान करता हूं। (और लोगों की तरफ देखकर) मेरे किस्से से भूतनाथ का भी बहुत बड़ा संबंध है मगर इस खयाल से कि महाराज ने भूतनाथ का कसूर माफ करके उसे अपना ऐयार बना लिया है मैं अपने किस्से में उन बातों का जिक्र छोड़ता जाऊंगा जिनसे भूतनाथ की बदनामी होती है, इसके अतिरिक्त भूतनाथ प्रतिज्ञानुसार महाराज के आगे पेश करने के लिए स्वयं अपनी जीवनी लिख रहा है जिससे महाराज को पूरा-पूरा हाल मालूम हो जायगा अस्तु मुझे कुछ कहने की जरूरत भी नहीं है।

मैं मिर्जापुर के रहने वाले दीनदयालसिंह ऐयार का लड़का हूं। मेरे पिता महाराज धौलपुर के यहां रहते थे और वहां उनकी बहुत इज्जत और कदर थी। उन्होंने मुझे ऐयारी सिखाने में किसी तरह की त्रुटि नहीं की। जहां तक हो सका दिल लगाकर मुझे ऐयारी सिखाई और मैं भी इस फन में खूब होशियार हो गया, परंतु पिता के मरने के बाद मैंने किसी रियासत में नौकरी नहीं की। मुझे अपने पिता की जगह मिलती थी और महाराज मुझे बहुत चाहते थे, मगर मैंने पिता के मरने के साथ ही रियासत छोड़ दी और अपने जन्म-स्थान मिर्जापुर में चला आया क्योंकि मेरे पिता मेरे लिए बहुत दौलत छोड़ गये थे और मुझे खाने-पीने की कुछ परवाह न थी। पिता के देहांत के साल-भर पहले ही मेरी मां मर चुकी थी अतएव केवल मैं और मेरी स्त्री दो ही आदमी अपने घर के मालिक थे।

जमानिया की रियासत से मुझे किसी तरह का संबंध नहीं था परंतु इसलिए कि मैं एक नामी ऐयार का लड़का और खुद भी ऐयार था तथा बहुत से ऐयारों से गहरी जान-पहचान रखता था मुझे चारों तरफ की खबरें बराबर मिला करती थीं, इसी तरह जमानिया में जो कुछ चालबाजियां हुआ करती थीं वह भी मुझसे छिपी हुई न थीं। भूतनाथ की स्त्री और मेरी स्त्री आपस में मौसेरी बहिनें होती हैं और भूतनाथ का जमानिया से बहुत घना संबंध हो गया था इसलिए जमानिया का हाल जानने के लिए मैं उद्योग भी किया करता था मगर उसमें किसी तरह का दखल नहीं देता था। (दारोगा की तरफ इशारा करके) इस हरामखोर दारोगा ने रियासत पर अपना दबाव डालने की नीयत से विचित्र ढोंग रच लिया था। शादी नहीं की थी और बाबाजी तथा ब्रह्मचारी के नाम से अपने को प्रसिद्ध कर रखा था बल्कि मौके-मौके पर लोगों को कहता था कि मैं तो साधू आदमी हूं मुझे रुपये-पैसे की जरूरत ही क्या है, मैं तो रियासत की भलाई और परोपकार में अपना समय बिताना चाहता हूं, इत्यादि। परंतु वास्तव में यह परले सिरे का ऐयाश, बदमाश और लालची था जिसके विषय में कुछ विशेष कहना मैं पसंद नहीं करता।

मेरे पिता और इंद्रदेव के पिता दोनों दिली दोस्त और ऐयारी में एक ही गुरु के शिष्य थे अतएव मुझमें और इंद्रदेव में भी उसी प्रकार की दोस्ती और मुहब्बत थी इसलिए मैं प्रायः इंद्रदेव से मिलने के लिए उनके घर जाया करता और कभी-कभी वे मेरे घर आया करते थे। जरूरत पड़ने पर इंद्रदेव की इच्छानुसार मैं उनका कुछ काम भी कर दिया करता और उन्हीं के यहां कभी-कभी इस कम्बख्त दारोगा से भी मुलाकात हो जाया करती थी, बल्कि यों कहना चाहिए कि इंद्रदेव ही के सबब से दारोगा, जैपाल, राजा गोपालसिंह और भरतसिंह तथा जमानिया के और भी कई नामी आदमियों से मेरी मुलाकात और साहब-सलामत हो गई थी।

जब भूतनाथ के हाथ से बेचारा दयाराम मारा गया तब से मुझमें और भूतनाथ में एक प्रकार की खिंचाखिंची हो गई थी और वह खिंचाखिंची दिनों-दिन बढ़ती ही गई, यहां तक कि कुछ दिनों बाद हम दोनों की साहब-सलामत भी छूट गई।

एक दिन मैं इंद्रदेव के यहां बैठा हुआ भूतनाथ के विषय में बातचीत कर रहा था क्योंकि उन दिनों यह खबर बड़ी तेजी के साथ मशहूर हो रही थी कि ‘गदाधरसिंह (भूतनाथ) मर गया।’ परंतु उस समय इंद्रदेव इस समय बात पर जोर दे रहे थे कि भूतनाथ मरा नहीं, कहीं छिपकर बैठ गया है, कभी-न-कभी यकायक प्रकट हो जायगा। इसी समय दारोगा के आने की इत्तिला मिली जो बड़े शान-शौकत के साथ इंद्रदेव से मिलने के लिए आया था। इंद्रदेव बाहर निकलकर बड़ी खातिर के साथ इसे घर के अंदर ले गये और अपने आदमियों को हुक्म दे गये कि दारोगा के साथ जो आदमी आये हैं उनके खाने-पीने और रहने का उचित प्रबंध किया जाय।

दारोगा को साथ लिए हुए इंद्रदेव उसी कमरे में आए जिसमें मैं पहले ही से बैठा हुआ था, क्योंकि इंद्रदेव की तरह मैं दारोगा को लेने के लिए मकान के बाहर नहीं गया था और न दारोगा के आ पहुंचने पर मैंने उठकर इसकी इज्जत ही बढ़ाई, हां साहब-सलामत जरूर हुई। यह बात दारोगा को बहुत ही बुरी मालूम हुई मगर इंद्रदेव को नहीं क्योंकि इंद्रदेव गुरुभाई का सिर्फ नाता निबाहते थे, दिल से दारोगा की खातिर नहीं करते थे।

इंद्रदेव और दारोगा में देर तक तरह-तरह की बातें होती रहीं, जिसमें मौके-मौके पर दारोगा अपनी होशियारी और बुद्धिमानी की तस्वीर खैंचता रहा। जब ऐयारी की कहानी छिड़ी तो वह यकायक मेरी तरफ पलट पड़ा और बोला, ‘आप इतने बड़े ऐयार के लड़के होकर घर में बेकार क्यों बैठे हैं और नहीं तो मेरी ही रियासत में काम कीजिए, यहां आपको बहुत आराम मिलेगा, देखिए बिहारीसिंह और हरनामसिंह कैसी इजजत और खुशी के साथ रहते हैं आप तो उनसे बहुत ज्यादे इज्जत के लायक हैं।’

मैं – मैं बेकार तो बैठा रहता हूं मगर अभी तक अपने को महाराज धौलपुर का नौकर समझता हूं क्योंकि रियासत का काम छोड़ देने पर भी वहां से मुझे खाने को बराबर मिल रहा है।

दारोगा – (मुंह बनाकर) अजी मिलता भी होगा तो क्या, एक छोटी-सी रकम से आपका क्या काम चल सकता है आखिर अपने पल्ले की जमा तो खर्च करते होंगे।

मैं – यह भी तो महाराज ही का दिया हुआ है!

दारोगा – नहीं, वह आपके बाप का दिया हुआ है। खैर मेरा मतलब यह है कि वहां से अगर कुछ मिलता है तो उसे भी आप रखिए और मेरी रियासत से भी फायदा उठाइए।

मैं – ऐसा करना बेईमानी और नमकहरामी कहा जायगा और यह मुझसे न हो सकेगा।

दारोगा – (हंसकर) वाह-वाह! ऐयार लोग दिन-रात ईमानदारी की हंडिया ही तो चढ़ाए रहते हैं!!

मैं – (तेजी के साथ) बेशक! अगर ऐसा न हो तो वह ऐयार नहीं रियासत का कोई ओहदेदार कहा जायगा!

दारोगा – (तमककर) ठीक है! गदाधरसिंह आप ही का नातेदार तो है, जरा उसकी तस्वीर तो खैंचिए!

मैं – गदाधरसिंह किसी रियासत का ऐयार नहीं है और न मैं उसे ऐयार समझता हूं, इतना होने पर भी आप यह नहीं साबित कर सकते कि उसने अपने मालिक के साथ किसी तरह की बेईमानी की।

दारोगा – (और भी तमक के) बस-बस-बस, रहने दीजिए, हमारे यहां भी बिहारीसिंह और हरनामसिंह ऐयार ही तो हैं।

मैं – इसी से तो मैं आपकी रियासत में जाना बेइज्जती समझता हूं।

दारोगा – (भौं सिकोड़कर) तो इसका यह मतलब कि हम लोग बेईमान और नमकहराम हैं!!

मैं – (मुस्कराकर) इस बात को तो आप ही सोचिए।

दारोगा – देखिए, जुबान सम्हालकर बात कीजिए, नहीं तो समझ रखिए कि मैं मामूली आदमी नहीं हूं!!

मैं – (क्रोध से) यह तो मैं खुद कहता हूं कि आप मामूली आदमी नहीं हैं क्योंकि आदमी में शर्म होती है और वह जानता है कि ईश्वर भी कोई चीज है।

दारोगा – (क्रोध भरी आंखें दिखाकर) फिर वही बात!!

मैं – हां वही बात! गोपालसिंह के पिता वाली बात! गुप्त कमेटी वाली बात! गदाधरसिंह की दोस्ती वाली बात! लक्ष्मीदेवी की शादी वाली बात और जो कि आपके गुरुभाई साहब को नहीं मालूम है वह बात!!

दारोगा – (दांत पीसकर और कुछ देर मेरी तरफ देखकर) खैर अब इन बहुत-सी बात का जवाब लात ही से दिया जायगा।

मैं – बेशक, और साथ ही इसके यह भी समझ रखिए कि जवाब देने वाले भी एक-दो नहीं हैं, लातों की गिनती भी आप न सम्हाल सकेंगे। दारोगा साहब, जरा होश में आइए और सोच-विचारकर बातें कीजिए। अपने को आप ईश्वर न समझिए बल्कि यह समझकर बातें कीजिए कि आप आदमी हैं और रियासत धौलपुर के किसी ऐयार से बातें कर रहे हैं।

दारोगा – (इंद्रदेव की तरफ गुरेरकर) क्या आप चुपचाप बैठे तमाशा देखेंगे और अपने मकान में मुझे बेइज्जत करावेंगे?

इंद्रदेव – आप तो खुद ही अपनी अनोखी मिलनसारी से अपने को बेइज्जत करा रहे हैं, इनसे बात बढ़ाने की आपको जरूरत ही क्या थी? मैं आप दोनों के बीच में नहीं बोल सकता क्योंकि दलीपशाह को भी अपना भाई समझता और इज्जत की निगाह से देखता हूं।

दारोगा – तो फिर जैसे बने हम इनसे निपट लें?

इंद्रदेव – हां-हां!

दारोगा – पीछे उलाहना न देना क्योंकि आप इन्हें अपना भाई समझते हैं!

इंद्रदेव – मैं कभी उलाहना न दूंगा।

दारोगा – अच्छा तो अब मैं जाता हूं, फिर कभी मिलूंगा तो बातें करूंगा।

इंद्रदेव ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया, हां जब दारोगा साहब बिदा हुए तो उन्हें दरवाजे तक पहुंचा आये। जब लौटकर कमरे में मेरे पास आये तो मुस्कराते हुए बोले, ‘आज तो तुमने इसकी खूब खबर ली। ‘जो बात तुम्हारे गुरुभाई साहब को नहीं मालूम है वही बात’ इन शब्दों ने तो उसका कलेजा छेद दिया होगा। मगर तुमसे बेतरह रंज होकर गया है, इस बात का खूब खयाल रखना।’

मैं – आप इस बात की चिंता न कीजिए, देखिए मैं इन्हें कैसा छकाता हूं। मगर वाह रे आपका कलेजा! इतना कुछ हो जाने पर भी आपने अपनी जुबान से कुछ न कहा बल्कि पुराने बर्ताव में बल तक न पड़ने दिया।

इंद्रदेव – मैंने तो अपना मामला ईश्वर के हवाले कर दिया है।

मैं – खैर ईश्वर भी इंसाफ करेगा। अच्छा तो अब मुझे भी बिदा कीजिए क्योंकि अब इसके मुकाबले का बंदोबस्त शीघ्र करना पड़ेगा।

इंद्रदेव – यह तो मैं कहूंगा कि आप बेफिक्र न रहिए।

थोड़ी देर तक और बातचीत करने के बाद मैं इंद्रदेव से बिदा होकर अपने घर आया और उसी समय दारोगा के मुकाबले का ध्यान मेरे दिमाग में चक्कर काटने लगा।

घर पहुंचकर मैंने सब हाल अपनी स्त्री से बयान किया और ताकीद की कि हरदम होशियार रहा करना। उन दिनों मेरे यहां कई शागिर्द भी रहा करते थे। जिन्हें मैं ऐयारी सिखाता था। उनसे भी यह सब हाल कहा और होशियार रहने की ताकीद की। उन शागिर्दों में गिरिजाकुमार नाम का एक लड़का बड़ा ही तेज और चंचल था, लोगों को धोखे में डाल देना तो उसके लिए एक मामूली बात थी। बातचीत के समय वह अपना चेहरा ऐसा बना लेता था कि अच्छे-अच्छे उसकी बातों में फंसकर बेवकूफ बन जाते थे। यह गुण उसे ईश्वर का दिया हुआ था जो बहुत कम ऐयारों में पाया जाता है। अस्तु गिरिजाकुमार ने मुझसे कहा कि ‘गुरुजी यदि दारोगा वाला मामला आप मेरे सुपुर्द कर दीजिए तो मैं बहुत ही प्रसन्न होऊं और उसे ऐसा छकाऊं कि वह भी याद करे! जमानिया में मुझे कोई पहचानता भी नहीं है, अतएव मैं अपना काम बड़े मजे में निकाल लूंगा।’

मैंने उसे समझाया और कहा कि ‘कुछ दिन सब्र करो, जल्दी क्यों करते हो, फिर जैसा मौका होगा किया जायेगा’ मगर उसने न माना। हाथ जोड़ के, खुशामद करके, गिड़गिड़ा के, जिस तरह हो सका उसने आज्ञा ले ही ली और उसी दिन सब सामान दुरुस्त करके मेरे यहां से चला गया।

अब मैं थोड़ा-सा हाल गिरिजाकुमार का बयान करूंगा कि इसने दारोगा के साथ क्या किया।

आप लोगों को यह बात सुनकर ताज्जुब होगा कि मनोरमा असल में दारोगा साहब की रंडी है, इन्हीं की बदौलत मायारानी के दरबार में उसकी इज्जत बढ़ी और इन्हीं की बदौलत उसने मायारानी को अपने फंदे में फंसाकर बेहिसाब दौलत पैदा की। पहले-पहल गिरिजाकुमार ने मनोरमा के मकान ही पर दारोगा साहब से मुलाकात भी की थी।

दारोगा साहब मनोरमा से प्रेम रखते थे सही, मगर इसमें कोई शक नहीं कि इस प्रेम और ऐयाशी को इन्होंने बहुत अच्छे ढंग से छिपाया और बहुत आदमियों को मालूम न होने दिया तथा लोगों की निगाहों में साधू और ब्रह्मचारी ही बने रहे। स्वयं तो जमानिया में रहते थे मगर मनोरमा के लिए इन्होंने काशी में एक मकान भी बनवा दिया था, दसवें-बारहवें दिन अथवा जब कभी समय मिलता तेज घोड़े पर या रथ पर सवार होकर काशी चले जाते और दस-बारह घंटे मनोरमा के मेहमान रहकर लौट जाते।

एक दिन दारोगा साहब आधी रात के समय मनोरमा के खास कमरे में बैठे हुए उसके साथ शराब पी रहे थे और साथ ही साथ हंसी-दिल्लगी का आनंद भी लूट रहे थे। उस समय इन दोनों में इस तरह की बातें हो रही थीं –

दारोगा – जो कुछ मेरे पास है सब तुम्हारा है, रुपये-पैसे के बारे में तुम्हें कभी तकलीफ न होने दूंगा! तुम बेशक अमीराना ठाठ के साथ रहो और खुशी से जिंदगी बिताओ। गोपालसिंह अगर तिलिस्म का राजा है तो क्या हुआ, मैं भी तिलिस्म का दारोगा हूं, उसमें दो-चार स्थान ऐसे हैं कि जिनकी खबर राजा साहब को भी नहीं मगर मैं वहां बखूबी जा सकता हूं और वहां की दौलत को खास अपनी मिल्कियत समझता हूं। इसके अतिरिक्त मायारानी से भी मैंने तुम्हारी मुलाकात करा दी है और वह भी हर तरह से तुम्हारी खातिर करती ही है, फिर तुम्हें परवाह किस बात की है?

मनोरमा – बेशक मुझे किसी बात की परवाह नहीं है और आपकी बदौलत मैं बहुत खुश रहती हूं, मगर मैं यह नहीं चाहती हूं कि मायारानी के पास खुल्लमखुल्ला मेरी आमदरफ्त हो जाय, अभी गोपालसिंह के डर से बहुत लुक-छिपकर और नखरे-तिल्ले के साथ जाना पड़ता है।

दारोगा – फिर यह तो जरा मुश्किल बात है।

मनोरमा – मुश्किल क्या है लक्ष्मीदेवी की जगह दूसरी औरत को राजरानी बना देना क्या साधारण काम था सो तो आपने सहज ही में कर दिखाया और इस एक सहज काम के लिए कहते हैं कि मुश्किल है!

दारोगा – (मुस्कराकर) सो तो ठीक है, गोपालसिंह को सहज में बैकुंठ पहुंचा सकता हूं मगर यह काम मेरे किये न हो सकेगा, उसके ऊपर मेरा हाथ न उठेगा।

मनोरमा – (तिनककर) अब इतनी रहमदिली से तो काम न चलेगा! उनके मौजूद रहने से बहुत बड़ा हर्ज हो रहा है, अगर वह न रहे तो बेशक आप खुद जमानिया और तिलिस्म का राज्य कर सकते हैं, मायारानी तो अपने को आपका ताबेदार समझती हैं।

दारोगा – बेशक ऐसा ही है मगर…।

मनोरमा – और इसमें आपको कुछ करना भी न पड़ेगा, सब काम मायारानी ठीक कर लेंगी।

दारोगा – (चौंककर) क्या मायारानी का भी ऐसा इरादा है।

मनोरमा – जी हां, वह इस काम के लिए तैयार हैं मगर आपसे डरती हैं आप आज्ञा दें तो सब-कुछ ठीक हो जाय।

दारोगा – तो तुम उसी की तरफ से इस बात की कोशिश कर रही हो?

मनोरमा – बेशक, मगर साथ ही इसमें आपका और अपना भी फायदा समझती हूं तब ऐसा कहती हूं (दारोगा के गले में हाथ डालकर) बस आप आज्ञा दे दीजिए।

दारोगा – (मुस्कराकर) खैर तुम्हारी खातिर मुझको मंजूर है, मगर एक काम करना कि मायारानी से औ मुझसे इस बारे में बातचीत न करना जिससे मौका पड़े तो मैं यह कहने लायक रह जाऊं कि मुझे इसकी कुछ भी खबर नहीं। तुम मायारानी को दिलजमई करा दो कि दारोगा साहब इस बारे में कुछ भी न बोलेंगे तुम जो कुछ चाहो कर गुजरो, मगर साथ ही इसके इस बात का खयाल रखो कि सर्वसाधारण को किसी तरह का शक न होने पावे और लोग यही समझें कि गोपालसिंह अपनी मौत मरा है। मैं भी जहां तक हो सकेगा छिपाने की कोशिश करूंगा।

मनोरमा – (खुश होकर) बस अब मुझे विश्वास हो गया कि तुम मुझसे प्रेम रखते हो।

इसके बाद दोनों में बहुत ही धीरे-धीरे कुछ बातें होने लगीं जिन्हें गिरजाकुमार सुन न सका। गिरजाकुमार चोरों की तरह उस मकान में घुस गया था और छिपकर ये बातें सुन रहा था। जब मनोरमा ने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया तब वह कमंद लगाकर मकान के पीछे की तरफ उतर गया और धीरे-धीरे मनोरमा के अस्तबल में जा पहुंचा। अबकी दफे दारोगा यहां रथ पर सवार होगर आया था, वह रथ अस्तबल में था, घोड़े बंधे हुए थे और सारथी रथ के अंदर सो रहा था। इससे कुछ दूर पर मनोरमा के और सब साईस तथा घसियारे वगैरह पड़े खुर्राटे ले रहे थे।

बहुत होशियारी से गिरजाकुमार ने दारोगा के सारथी को बेहोशी की दवा सुंघाकर बेहोश किया और उठा के बाग के एक कोने में घनी झाड़ी के अंदर छिपाकर रख आया, उसके कपड़े आप पहन लिये और चुपचाप रथ के अंदर घुसकर सो रहा।

जब रात घंटा भर के लगभग बाकी रह गई तब दारोगा साहब जमानिया जाने के लिए बिदा हुए और एक लौंडी ने अस्तबल में आकर रथ जोतने की आज्ञा सुनाई। नये सारथी अर्थात् गिरिजाकुमार ने रथ जोतकर तैयार किया और फाटक पर लाकर दारोगा साहब का इंतजार करने लगा। शराब के नशे में चूर झूमते हुए एक लौंडी का हाथ थामे हुए दारोगा साहब भी आ पहुंचे। उनके रथ पर सवार होते ही रथ तेजी के साथ रवाना हुआ। सुबह की ठंडी हवा ने दारोगा साहब के दिमाग में खुनकी पैदा कर दी और वे रथ के अंदर लेटकर बेखबर सो गये। गिरिजाकुमार ने जिधर चाहा घोड़ों का मुंह फेर दिया और दारोगा साहब को लेकर रवाना हो गया। इस तौर पर उसे सूरत बदलने की भी जरूरत न पड़ी।

नहीं कह सकते कि मनोरमा के बाग में उस दारोगा का असली सारथी जब होश में आया होगा तो वहां कैसी खलबली मची होगी मगर गिरिजाकुमार को इस बात की कुछ भी परवाह न थी, उसने रथ को रोहतासगढ़ की सड़क पर रवाना किया और चलते-चलते बटुए में से मसाला निकालकर अपनी सूरत साधारण ढंग पर बदल ली जिससे होश आने पर दारोगा उसकी असली सूरत से जानकार न हो सके, उसके बाद उसने दवा सुंघाकर दारोगा को और भी बेहोश कर दिया।

जब रथ एक घने जंगल में पहुंचा और सुबह की सफेदी भी निकल आई तब गिरिजाकुमार रथ को सड़क पर से हटाकर जंगल में ले आया जहां सड़क पर चलने वाले मुसाफिरों की निगाह न पड़े। घोड़ों को खोल लंबी बागडोर के सहारे एक पेड़ के साथ बांध दिया और दारोगा को पीठ पर लादकर वहां से थोड़ी दूर पर एक घनी झाड़ी के अंदर ले गया जिसके पास ही एक पानी का झरना भी बह रहा था। घोड़े की रास से दारोगा साहब को एक पेड़ के साथ बांध दिया और बेहोशी दूर करने की दवा सुंघाने के बाद थोड़ा पानी भी चेहरे पर डाला जिससे शराब का नशा ठंडा हो जाय, और तब हाथ में कोड़ा लेकर सामने खड़ा हो गया।

दारोगा साहब जब होश में आये तो बड़ी परेशानी के साथ चारों तरफ निगाह दौड़ाने लगे। अपने को मजबूर और एक अनजान आदमी को हाथ में कोड़ा लिए सामने खड़ा देख कांप उठे और बोले, ‘भाई, तुम कौन हो और मुझे इस तरह क्यों सता रखा है मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?

गिरिजा – क्या करूं लाचार हूं, मालिक का हुक्म ही ऐसा है!

दारोगा – तुम्हारा मालिक कौन है, और उसने ऐसी आज्ञा तुम्हें क्यों दी?

गिरिजा – मैं मनोरमाजी का नौकर हूं और उन्होंने अपना काम ठीक करने के लिए मुझे ऐसी आज्ञा दी है।

दारोगा – (ताज्जुब से) तुम मनोरमा के नौकर हो! नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, मैं उनके सब नौकरों को अच्छी तरह पहचानता हूं।

गिरिजा – मगर आप मुझे नहीं पहचानते क्योंकि मैं गुप्त रीति पर उनका काम किया करता हूं और उनके मकान पर बराबर नहीं रहता।

दारोगा – शायद ऐसा हो मगर विश्वास नहीं होता, खैर लाचार हूं, खैर यह बताओ कि उन्होंने किस काम के लिए ऐसा करने को कहा है?

गिरिजा – आपको विश्वास हो चाहे न हो इसके लिए मैं लाचार हूं, हां, उनके हुक्म की तामील किए बिना नहीं रह सकता। उन्होंने मुझे यह कहा है कि ‘दारोगा साहब मायारानी के लिए इस बात की इजाजत दे गये हैं कि वह जिस तरह हो सके राजा गोपालसिंह को मार डाले, हम इस मामले में कुछ भी दखल न देंगे, मगर यह बात नशे में कह गये हैं, कहीं ऐसा न हो कि भूल जायं, अस्तु जिस तरह हो सके तुम इस बात की एक चीठी उनसे लिखाकर मेरे पास ले आओ जिससे उन्हें अपना वायदा अच्छी तरह याद रहे।’ अब आप कृपा कर इस मजमून की एक चीठी लिख दीजिये कि मैं गोपालसिंह को मार डालने के लिए मायारानी को इजाजत देता हूं।

दारोगा – (ताज्जुब का चेहरा बनाकर) न मालूम तुम क्या कह रहे हो! मैंने मनोरमा से ऐसा कोई वादा नहीं किया!!

गिरिजा – तो शायद मनोरमाजी ने मुझसे झूठ कहा होगा, मैं इस बात को नहीं जानता, हां उन्होंने जो आज्ञा दी है सो आपसे कह रहा हूं।

इतना सुनकर दारोगा कुछ सोच में पड़ गया। मालूम होता था कि उसे गिरिजाकुमार की बातों पर विश्वास हो रहा है मगर फिर भी बात को टाला चाहता है।

दारोगा – मगर ताज्जुब है कि मनोरमा ने मेरे साथ ऐसा बुरा बर्ताव क्यों किया और उसे जो कुछ कहना था वह स्वयं मुझसे क्यों नहीं कहा?

गिरिजा – मैं इस बात का जवाब क्योंकर दे सकता हूं?

दारोगा – अगर मैं तुम्हारे कहने के मुताबिक चीठी लिखकर न दूं तो?

गिरिजा – तब इस कोड़े से आपकी खबर ली जायगी और जिस तरह से हो सकेगा आपसे चीठी लिखाई जायगी। आप खुद समझ सकते हैं कि यहां आपका कोई मददगार नहीं पहुंच सकता।

दारोगा – क्या तुमको या मनोरमा को इस बात का कुछ भी खयाल नहीं है कि चीठी लिखकर भी छूट जाने के बाद मैं क्या कर सकता हूं!!

गिरिजा – अब ये सब बातें तो आप उन्हीं से पूछियेगा, मुझे जवाब देने की कोई जरूरत नहीं, मैं सिर्फ उनके हुक्म की तामील करना जानता हूं। बताइए आप जल्दी चीठी लिख देते हैं या नहीं, मैं ज्यादे देर तक इंतजार नहीं कर सकता!

दारोगा – (झुंझलाकर और यह समझकर कि यह मुझ पर हाथ न उठावेगा केवल धमकाता है) अबे, मैं चीठी किस बात की लिख दूं! व्यर्थ की बकबक लगा रखी है!!

इतना सुनते ही गिरिजाकुमार ने कोड़े जमाने शुरू किए, पांच ही सात कोड़े खाकर दारोगा बिलबिला उठा और हाथ जोड़कर बोला, ‘बस-बस माफ करो, जो कुछ कहो मैं लिख देने को तैयार हूं!’

गिरिजाकुमार ने झट कलम-दवात और कागज अपने बटुए में से निकालकर दारोगा के सामने रख दिया और उसके हाथ की रस्सी ढीली कर दी। दारोगा ने उसकी इच्छानुसार चीठी लिख दी। चीठी अपने कब्जे में कर लेने के बाद उसने दारोगा की तलाशी ली, कमर में खंजर और कुछ अशर्फियां निकलीं वह भी ले लेने के बाद दारोगा के हाथ-पैर खोल दिये और बता दिया कि फलानी जगह आपके रथ और घोड़े हैं। जाइए कस-कसाकर अपने घर का रास्ता लीजिए।

इतना कहकर गिरिजाकुमार चला गया और फिर दारोगा को मालूम न हुआ कि वह कहां गया और क्या हुआ।

बयान – 12

इतना किस्सा कहकर दलीपशाह ने कुछ दम लिया और फिर इस तरह कहना शुरू किया –

गिरिजाकुमार ने अपना काम करके दारोगा का पीछा छोड़ नहीं दिया बल्कि उसे यह जानने का शौक पैदा हुआ कि देखें अब दारोगा साहब क्या करते हैं, जमानिया की तरफ विदा होते हैं या पुनः मनोरमा के घर जाते हें, या अगर मनोरमा के घर जाते हैं तो देखना चाहिए कि किस ढंग की बातें होती हैं और कैसी रंगत निकलती है।

यद्यपि दारोगा का चित्त दुविधा में पड़ा हुआ था परंतु उसे इस बात का कुछ-कुछ विश्वास जरूर हो गया था कि मेरे साथ ऐसा खोटा बर्ताव मनोरमा ही ने किया है, दूसरे किसी को क्या मालूम कि मुझसे-उससे किस समय क्या बातें हुईं। मगर साथ ही इसके वह इस बात को भी जरूर सोचता था कि मनोरमा ने ऐसा क्यों किया मैं तो कभी उसकी बात से किसी तरह इनकार नहीं करता था। जो कुछ उसने कहा उस बात की इजाजत तुरंत दे दी, अगर वह चीठी लिख देने के लिए कहती तो चीठी भी लिख देता, फिर उसने ऐसा क्यों किया …इत्यादि।

खैर जो कुछ हो दारोगा साहब अपने हाथ से रथ जोतकर सवार हुए और मनोरमा के पास न जाकर सीधे जमानिया की तरफ रवाना हो गये। यह देखकर गिरिजाकुमार ने उस समय उनका पीछा छोड़ दिया और मेरे पास चला आया। जो कुछ मामला हुआ था खुलासा बयान करने के बाद दारोगा साहब की लिखी हुई चीठी दी और फिर मुझसे बिदा होकर जमानिया की तरफ चला गया।

मुझे यह जानकर हौल-सा पैदा हो गया कि बेचारे गोपालसिंह की जान मुफ्त में जाया चाहती है। मैं सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए जिससे गोपालसिंह की जान बचे। एक दिन और एक रात तो इसी सोच में पड़ा रह गया और अंत में यह निश्चय किया कि इंद्रदेव से मिलकर यह सब हाल कहना चाहिए। दूसरा दिन मुझे घर का इंतजाम करने में लग गया क्योंकि दारोगा की दुश्मनी के खयाल से मुझे घर की हिफाजत का पूरा-पूरा इंतजाम करके ही तब बाहर जाना जरूरी था, अस्तु मैंने अपनी स्त्री और बच्चे को गुप्त रीति से अपने ससुराल अर्थात् स्त्री के मां-बाप के घर पहुंचा दिया और उन लोगों को जो कुछ समझाना था सो भी समझा दिया। इसके बाद घर का इंतजाम करके इंद्रदेव की तरफ रवाना हुआ।

जब इंद्रदेव के मकान पर पहुंचा तो देखा कि वे सफर की तैयारी कर रहे हैं। पूछने पर जवाब मिला कि गोपालसिंह बीमार हो गये हैं, उन्हें देखने के लिए जाते हैं। सुनने के साथ ही मेरा दिल धड़क उठा और मेरे मुंह से ये शब्द निकल पड़े – ‘हाय अफसोस! कम्बख्त दुश्मन लोग अपना काम कर गए!!’

मेरी बात सुनकर इंद्रदेव चौंक पड़े और उन्होंने पूछा, ”आपने यह क्या कहा?’ दो-चार खिदमतगार वहां मौजूद थे उन्हें बिदा करके मैंने गिरिजाकुमार का सब हाल इंद्रदेव से बयान किया और दारोगा साहब की लिखी हुई वह चीठी उनके हाथ पर रख दी। उसे देखकर और सब हाल सुनकर इंद्रदेव बेचैन हो गए। आधे घंटे तक तो ऐसा मालूम होता था कि उन्हें तनोबदन की सुध नहीं है। इसके बाद उन्होंने अपने को सम्हाला और मुझसे कहा – ‘बेशक दुश्मन लोग अपना काम कर गए, मगर तुमने भी तो बहुत बड़ी भूल की थी कि दो दिन की देर कर दी और आज मेरे पास खबर करने के लिए आए! अभी दो ही घड़ी बीती हैं कि मुझे उनके बीमार होने की खबर मिली है, ईश्वर ही कुशल करें!’

इसके जवाब में चुप रह जाने के सिवाय मैं कुछ भी न बोल सका और अपनी भूल स्वीकार कर ली। कुछ और बातचीत होने के बाद इंद्रदेव ने मुझसे कहा, ‘खैर जो कुछ होना था हो गया, अब तुम भी मेरे साथ जमानिया चलो, वहां पहुंचने तक अगर ईश्वर ने कुशल रखी तो जिस तरह बन पड़ेगा उनकी जान बचावेंगे!!’

अस्तु हम दोनों आदमी तेज घोड़ों पर सवार होकर जमानिया की तरफ रवाना हो गये और साथियों को पीछे से आने की ताकीद कर गये।

जब हम लोग जमानिया के करीब पहुंचे और जमानिया सिर्फ दो कोस की दूरी पर रह गया तो सामने से कई देहाती आदमी रोते और चिल्लाते हुए आते दिखाई पड़े। हम लोगों ने घबराकर रोने का सबब पूछा तो उन्होंने हिचकियां लेकर कहा कि हमारे राजा गोपालसिंह हम लोगों को छोड़कर बैकुंठ चले गये।

सुनने के साथ हम लोगों का कलेजा धक हो गया। आगे बढ़ने की हिम्मत न पड़ी और सड़क के किनारे एक घने पेड़ के नीचे जाकर घोड़ों पर से उतर पड़े। दोनों घोड़ों को पेड़ के साथ बांध दिया और जीनपोश बिछाकर बैठ गये, आंखों से आंसू की धारा बहने लगी। घंटे भर तक हम दोनों में किसी तरह की बातचीत न हुई क्योंकि चित्त बड़ा ही दुःखी हो गया था। उस समय दिन अनुमान तीन घंटे के बाकी था, हम दोनों आदमी पेड़ के नीचे बैठे आंसू बहा रहे थे कि यकायक जमानिया से लौटता हुआ गिरिजाकुमार भी उसी जगह आ पहुंचा। उस समय उसकी सूरत बदली हुई थी इसलिए हम लोगों ने तो नहीं पहचाना परंतु वह हम लोगों को देखकर स्वयं पास चला आया और अपना गुप्त परिचय देकर बोला, ‘मैं गिरिजाकुमार हूं।’

इंद्रदेव – (आंसू पोंछकर) अच्छे मौके पर तुम आ पहुंचे! यह बताओ कि क्या वास्तव में राजा गोपालसिंह मर गये?

गिरिजा – जी हां, उनकी चिता मेरे सामने लगाई गई और देखते ही देखते उनकी लाश पंचतत्व में मिल गई, परंतु अभी तक मेरे दिल को विश्वास नहीं होता कि राजा साहब मर गये!

इंद्रदेव – (चौंककर) सो क्या यह कैसी बात?

गिरिजा – जी हां, हर तरह का रंग-ढंग देखकर मेरा दिल कबूल नहीं करता कि वे मर गये।

मैं – क्या तुम्हारी तरह वहां और भी किसी को इस बात का शक है।

गिरिजा – नहीं, ऐसा तो नहीं मालूम होता, बल्कि मैं तो समझता हूं कि खास दारोगा साहब को भी उनके मरने का विश्वास है मगर क्या किया जाय मुझे विश्वास नहीं होता, दिल बार-बार यही कहता है कि राजा साहब मरे नहीं।

इंद्रदेव – आखिर तुम क्या सोचते हो और इस बात का तुम्हारे पास क्या सबूत है तुमने कौन-सी ऐसी बात देखी जिससे तुम्हारे दिल को अभी तक उनके मरने का विश्वास नहीं होता?

गिरिजा – और बातों के अतिरिक्त दो बातें तो बहुत ही ज्यादे शक पैदा करती हैं। एक तो यह है कि कल दो घंटे रात रहते मैंने हरनामसिंह और बिहारीसिंह को एक कंगले की लाश उठाते हुए चोर दरवाजे की राह से महल के अंदर जाते हुए देखा, फिर बहुत टोह लेने पर भी उस लाश का कुछ पता न लगा और न वह लाश लौटाकर महल के बाहर ही निकाली गई, तो क्या वह महल ही में हजम हो गई उनके बाद केवल राजा साहब की लाश बाहर निकली।

इंद्रदेव – जरूर यह शक करने की जगह है।

गिरिजा – इसके अतिरिक्त राजा गोपालसिंह की लाश को बाहर निकालने और जलाने में हद दर्जे की फुर्ती और जल्दबाजी की गई, यहां तक कि रियासत के उमरा लोगों के भी इकट्ठा होने का इंतजार नहीं किया गया। एक साधारण आदमी के लिए भी इतनी जल्दी नहीं की जाती, वे तो राजा ही ठहरे! हां एक बात और भी सोचने के लायक है। चिता पर क्रिया नियम के विरुद्ध लाश का मुंह खोले बिना ही कर दी गई और इस बारे में बिहारीसिंह और हरनामसिंह तथा लौंडियों ने यह बहाना किया कि राजा साहब की सूरत देख मायारानी बहुत बेहाल हो जायंगी इसलिए मुर्दे का मुंह खोलने की कोई जरूरत नहीं। और लोगों ने इन बातों पर खयाल किया हो चाहे न किया हो मगर मेरे दिल पर तो इन बातों ने बहुत बड़ा असर किया और यही सबब है कि मुझे राजा साहब के मरने का विश्वास नहीं होता।

इंद्रदेव – (कुछ सोचकर) शक तो तुम्हारा बहुत ठीक है, अच्छा यह बताओ कि तुम इस समय कहां जा रहे थे?

गिरिजा – (मेरी तरफ इशारा करके) गुरुजी के पास यही सब हाल कहने के लिए जा रहा था।

मैं – इस समय मनोरमा कहां है सो बताओ?

गिरिजा – जमानिया में मायारानी के पास है।

मैं – तुम्हारे हाथ से छूटने के बाद दारोगा और मनोरमा में कैसी निपटी इसका कुछ हाल मालूम हुआ?

गिरिजा – जी हां, मालूम हुआ, उस बारे में बहुत बड़ी दिल्लगी हुई जो मैं निश्चिंती के साथ बयान करूंगा।

इंद्रदेव – अच्छा यह तो बताओ कि गोपालसिंह के बारे में तुम्हारी क्या राय है और अब हम लोगों को क्या करना चाहिए?

गिरिजा – इस बारे में मैं एक अदना और नादान आदमी आपको क्या राय दे सकता हूं। हां मुझे जो कुछ आज्ञा हो सो करने के लिए जरूर तैयार हूं।

इतनी बातें हो ही रही थीं कि सामने जमानिया की तरफ से दारोगा और जैपाल घोड़ों पर सवार आते हुए दिखाई पड़े जिन्हें देखते ही गिरिजाकुमार ने कहा, ‘देखिये, ये दोनों शैतान कहीं जा रहे हैं, इसमें भी कोई भेद जरूर है, यदि आज्ञा हो तो मैं इनके पीछे जाऊं।’

दारोगा और जैपाल को देखकर हम दोनों पेड़ की तरफ घूम गये जिससे वे पहचान न सकें। जब वे आगे निकल गए तब मैंने अपना घोड़ा गिरिजाकुमार को देकर कहा, ‘तुम जल्द सवार हो के इन दोनों का पीछा करो।’ और गिरिजाकुमार ने भी ऐसा ही किया।

(तेईसवां भाग समाप्त)

चंद्रकांता संतति – Chandrakanta Santati

चंद्रकांता संतति लोक विश्रुत साहित्यकार बाबू देवकीनंदन खत्री का विश्वप्रसिद्ध ऐय्यारी उपन्यास है।

बाबू देवकीनंदन खत्री जी ने पहले चन्द्रकान्ता लिखा फिर उसकी लोकप्रियता और सफलता को देख कर उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाया और ‘चन्द्रकान्ता संतति’ की रचना की। हिन्दी के प्रचार प्रसार में यह उपन्यास मील का पत्थर है। कहते हैं कि लाखों लोगों ने चन्द्रकान्ता संतति को पढ़ने के लिए ही हिन्दी सीखी। घटना प्रधान, तिलिस्म, जादूगरी, रहस्यलोक, एय्यारी की पृष्ठभूमि वाला हिन्दी का यह उपन्यास आज भी लोकप्रियता के शीर्ष पर है।

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चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग– Chandrakanta Santati Tyesva Bhag

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Further Reading:

  1. चंद्रकांता संतति पहला भाग
  2. चंद्रकांता संतति दूसरा भाग
  3. चंद्रकांता संतति तीसरा भाग
  4. चंद्रकांता संतति चौथा भाग
  5. चंद्रकांता संतति पाँचवाँ भाग
  6. चंद्रकांता संतति छठवां भाग
  7. चंद्रकांता संतति सातवाँ भाग
  8. चंद्रकांता संतति आठवाँ भाग
  9. चंद्रकांता संतति नौवां भाग
  10. चंद्रकांता संतति दसवां भाग
  11. चंद्रकांता संतति ग्यारहवां भाग
  12. चंद्रकांता संतति बारहवां भाग
  13. चंद्रकांता संतति तेरहवां भाग
  14. चंद्रकांता संतति चौदहवां भाग
  15. चंद्रकांता संतति पन्द्रहवां भाग
  16. चंद्रकांता संतति सोलहवां भाग
  17. चंद्रकांता संतति सत्रहवां भाग
  18. चंद्रकांता संतति अठारहवां भाग
  19. चंद्रकांता संतति उन्नीसवां भाग
  20. चंद्रकांता संतति बीसवां भाग
  21. चंद्रकांता संतति इक्कीसवां भाग
  22. चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग
  23. चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग
  24. चंद्रकांता संतति चौबीसवां भाग

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