परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)
परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)

परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी) – Pariksha-Guru Prakaran-7 : Savdhani hoshiyari

परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)

सब भूतनको तत्‍व लख कर्म योग पहिचान ।।

मनुजनके यत्‍नहि लखहिं सो पंडित गुणवान ।। 

बिदुर प्रजागरे

“यहां तो आप अपनें कहनें पर खुद ही पक्‍के न रहें, आपनें केलीप्‍स और डिओन का दृष्‍टांत देकर यह बात साबित की थी कि किसी की जाहिरी बातों सै उस्‍की परीक्षा नहीं हो सक्ती परन्‍तु अन्‍त मैं आप नें उसी के कामों सै उस्‍को पहचान्‍नें की राय बतलाई” बाबू बैजनाथ नें कहा.

“मैंनें केलीप्‍सके दृष्‍टांत मैं पिछले कामों सै पहली बातों का भेद खोल कर उस्‍का निज स्‍वभाव बता दिया था इसी तरह समय पाकर हर आदमी के कामों सै मन की बृत्तियों पर निगाह करकै उस्‍की भलाई बुराई पहचान्‍नें की राह बतलाई तो इस्‍सै पहली बातों सै क्‍या बिरोध हुआ ?” लाला ब्रजकिशोर पूछनें लगे.

“अच्‍छा ! जब आप के निकट मनुष्‍य की परीक्षा बहुत दिनों मैं उस्‍के कामों सै हो सक्ती है तो पहले कैसा बरताव रक्‍खैं ? क्या उस्‍की परीक्षा न हो जब तक उस्‍को अपनें पास न आनें दें ?” लाला मदनमोहन नें पूछा.

“नहीं, केवल संदेह सै किसी को बुरा समझना, अथवा किसी का अपमान करना सर्वथा अनुचित है परन्तु किसी की झूंटी बातों मैं आकर ठगा जाना भी मूर्खता सै खाली नहीं.” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “महाभारत मैं कहा है “मन न भरे पतियाहु जिन पतियायेहु अति नाही।। भेदी सों भय होत ही जर उखरे छिन माहिं ।।”  इस्‍कारण जब तक मनुष्‍य की परीक्षा न हो साधारण बातों मैं उस्‍के जाहिरी बरताव पर दृष्टि रखनी चाहिये परन्तु जोखों के काम मैं उस्‍सै सावधान रहना चाहिये. उस्‍का दोष प्रगट होनें पर उस्‍को छोड़नें मैं संकोच न हो इस लिये अपना भेदी बना कर, उस्‍का अहसान उठाकर, अथवा किसी तरह की लिखावट और जबान सै उस्‍के बसवर्ती होकर अपनी स्‍वतन्त्रता न खोवै यद्यपि किसी, किसी के बिचार मैं छल, बल की प्रतिज्ञाओं का निबाहना आवश्‍यक नहीं है परन्तु प्रतिज्ञा भंग करनें की अपेक्षा पहले बिचार कर प्रतिज्ञा करना हर भांत अच्‍छा है”

“ऐसी सावधानी तो केवल आप लोगों ही सै हो सक्ती है जो दिन रात इन्‍हीं बातों के चारा बिचार मैं लगे रहैं” लाला मदनमोहन नें हँसकर कहा.

मैं ऐसा सावधान नहीं हूँ परन्तु हर काम के लिये सावधानी की बहुत जरुरत है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मैं अभी मन की बृत्तियों का हाल कहक़र अच्‍छे बुरे मनुष्‍यों की पहचान बता चुका हूँ परन्तु उन मैं सै धर्म्मप्रबृत्ति की प्रबलता रखनें वाले अच्छे आदमी भी सावधानी बिना किसी काम के नहीं हैं क्‍योंकि वे बुरी बातों को अच्‍छा समझ कर धोखा खा जाते हैं आपनें सुना होगा कि हीरा और कोयला दोनों मैं कार्बोन है और उन्‍के बन्नें की रसायनिक क्रिया भी एक सी है और दोनों मैं कार्बोन रहता है केवल इतना अन्तर है हीरे मैं निरा कार्बोन जमा रहता है और कोयले मैं उस्‍की कोई खास सूरत नहीं होती जो कार्बोन जमा हुआ, दृढ़ रहनें सै बहुत कठोर, स्‍वच्‍छ, स्‍वेत और चमकदार होकर हीरा कहलाता है वही कार्बोन परमाणुओं के फैल फुट और उलट पुलट होनें के कारण काला, झिर्झिरा, बोदा और एक सूरत मैं र‍हकर कोयला कहलाता है ! येही भेद अच्‍छे मनुष्‍यों मैं और अच्‍छी प्रकृतिवाले सावधान मनुष्यों मैं है कोयला बहुतसी जहरीली और दुर्गंधित हवाओं को सोख लेता है अपनें पास की चीजों को गलनें सड़नें की हानि सै बचाता है. और अमोनिया इत्‍यादि के द्वारा वनस्‍पति को फ़ायदा पहुँचाता है इसी तरह अच्‍छे आदमी दुष्‍कर्मों सै बचते हैं परन्तु सावधानी का योग मिले बिना हीरा की तरह कीमती नहीं हो सक्ते”

“मुझे तो यह बातें मन: कल्पित मालूम होती हैं क्‍योंकि संसार के बरताव सै इन्‍की कुछ बिध नहीं मिल्‍ती संसार मैं धनवान् कुपढ़, दरिद्री, पंडित, पापी सुखी, धर्मात्‍मा दुखी, असावधान अधिकारी, सावधान आज्ञाकारी, भी देखनें में आते हैं” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा.

“इस्‍के कई कारण हैं” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मैं पहले कह चुका हूँ कि ईश्‍वर के नियमानुसार मनुष्‍य जिस विषय मैं भूल करता है बहुधा उस्‍को उसी विषय मैं दंड मिलता है. जो बिद्वान दरिद्री मालूम होतें हैं वह अपनी विद्या मैं निपुण हैं परन्तु सांसारिक व्‍यवहार नहीं जान्‍ते अथवा जान बूझ कर उस्‍के अनुसार नही बरतते. इसी तरह जो कुपढ़ धनवान दिखाई देते हैं वह विद्या नहीं पढ़े परन्तु द्रव्‍योपार्जन करनें और उस्‍के रक्षा करनें की रीति जान्‍ते हैं. बहुदा धनवान रोगी होते हैं और गरीब नैरोग्‍य रहते हैं इस्‍का यह कारण है कि धनवान द्रव्‍योपार्जन करनें की रीति जान्‍ते हैं परन्तु शरीर की रक्षा उचित रीति सै नहीं करते और गरीबों की शरीर रक्षा उचित रीति सै बन् जाती है परन्तु वे धनवान होनें की रीति नहीं जान्‍ते. इसी तरह जहां जिस बात की कसर होती है वहां उसी चीज की कमी दिखाई देती है. परन्तु कहीं, कहीं प्रकृति के विपरीत पापी सुखी, धर्मात्‍मा दुखी, असावधान अधिकारी, सावधान आज्ञाकारी दिखाई देते हैं. इस्‍के दो कारण हैं. एक यह है कि संसार की बर्तमान दशा के साथ मनुष्‍य का बड़ा दृढ़ सम्बन्ध रहता है इस लिये क़भी, क़भी औरों के हेतु उस्‍का विपरीत भाव हो जाता है जैसे मा बाप कें विरसे सै द्रव्‍य, अधिकार या ऋण रोगादि मिल्‍ते हैं, अथवा किसी और की धरी हुई दौलत किसी और के हाथ लगजानें सै उस्‍का मालिक बन बैठता है, अथवा किसी अमीर की उदारता सै कोई नालायक धनवान बन जाता है, अथवा किसी पास पड़ौसी की गफ़लत सै अपना सामान जल जाता है, अथवा किसी दयालु बिद्वान के हितकारी उपदेशों सै कुपढ़ मनुष्‍य विद्या का लाभ ले सक्ते हैं, अथवा किसी बलवान लुटेरे की लूट मार सै कोई गृहस्‍थ बेसबव धन और तन्दुरस्‍ती खो बैठता है और ये सब बात लोगों के हक़ मैं अनायास होती रहती हैं इसलिये इनको सब लोग प्रारब्‍ध फल मान्‍ते हैं परन्तु ऐसे प्रारब्‍धी लोगों मैं जिस्को कोई वस्‍तु अनायास मिल गई पर उस्‍के स्थिर रखनें के लिये उस्‍के लायक कोई बृत्ति अथवा सब बृत्तियों की सहायता स्‍वरूप सावधानी ईश्‍वर नें नहीं दी तो वह उसचीज़ को अन्त मैं अपनी स्‍वाभाविक बृत्तियों की प्रबलता सै वह वस्तु अधिक हुई तो उस्मैं उन बृत्तियों का नुक्सान गुप्‍त रहक़र समय पर ऐसे प्रगट होता है जैसे बचपन की बेमालूम चोट बड़ी अवस्‍था मैं शरीर को निर्बल पाकर अचानक कसक उठे, या शतरंज मैं किसी चाल की भूल का असर दसबीस चाल पीछै मालूम हो. पर ईश्‍वर की कृपा सै किसी को कोई बस्‍तु मिलती है तो उस्‍के साथ ही उस्‍के लायक बुद्धि भी मिल जाती है या ईश्‍वर की कृपा सैकिसी कायम मुकाम (प्रतिनिधि) वगैरे की सहायता पाकर उस्‍के ठीक, ठीक‍ काम चलनें का बानक बन जाता है जिस्‍सै वह नियम निभे जाते हैं परन्तु ईश्‍वर के नियम मनुष्‍य सै किसी तरह नहीं टूट सक्ते.”

“मनुष्‍य क्‍या मैं तो जान्‍ता हूँ ईश्‍वरसे भी नहीं टूट सक्‍ते” बाबू बैजनाथनें कहा.

“ऐसा बिचारना अनुचित है ईश्‍वर को सब सामर्थ्‍य है देखो प्रकृतिका यह नियम सब जगह एकसा देखा जाता है कि गर्म होनें से हरेक चीज फैलती है और ठंडी होनें सै सिमट जाती है यही नियम २१२ डिक्री तक जल के लिये भी है परन्तु जब जल बहुत ठंडा होकर ३२ डिक्री पर बर्फ बन्‍ने लगता है तो वह ठंड सै सिमटनें केबदले फैलता जाता और हल्‍का होनें के कारण पानी के ऊपर तैरता रहता है इसमैं जल जंतुओंकी प्राणरक्षा के लिये यह साधारण नियम बदल दिया गया ऐसी बातों सै उस्‍की अपरिमित शक्ति का पूरा प्रमाण मिलता है उसनें मनुष्‍य के मानसिक भावादि सै संसार के बहुतसे कामोंका गुप्त सम्बन्ध इस तरह मिला रक्‍खा है कि जिस्के आभास मात्र सै अपना चित्त चकित होजाता है. यद्यपि ईश्‍वर के ऐसे बहुतसे कामोंकी पूरी थाह मनुष्‍य की तुच्‍छ बुद्धि को नहीं मिली तथापि उसनें मनुष्य को बुद्धि दी है. इस लिये यथाशक्ति उस्‍के नियमों का बिचार करना, उन्‍के अनुसार बरतना और बिपरीत भावका कारण ढूंढना उस्‍को उचित है, सो मैं अपनी तुच्‍छ बुद्धि के अनुसार एक कारण पहले कह चुकाहूँ. दूसरा यह मालूम होता है कि जैसे तारों की छांह चंद्रमा की चांदनी मैं और चंद्रमाकी चांदनी सूर्य्य की धूपमैं मिलकर अपनें आप उस्‍का तेज बढ़ानें लगती है इसी तरह बहुत उन्‍नति मैं साधारण उन्नति अपनें आप मिल जाती है. जबतक दो मनुष्‍यों का अथवा दो देशों का बल बराबर रहता है कोई किसी को नहीं हरा सक्ता, परन्तु जब एक उन्‍नतिशाली होता है, आकर्षणशक्ति के नियमानुसार दूसरे की समृद्धि अपनें आप उसकी तरफ़को खिचनें लगती है देखिये जबतक हिन्दुस्थान मैं और देशों सै बड़कर मनुष्‍य के लिये वस्‍त्र और सब तरह के सुख की सामग्री तैयार होती थी, रक्षाके उपाय ठीक, ठीक बनरहे थे, हिन्दुस्थान का वैभव प्रतिदिन बढ़ता जाता था परन्तु जबसै हिन्दुस्थान का एका टूटा और और देशोंमैं उन्‍नति हुई बाफ और बिजली आदि कलोंके द्वारा हिन्दुस्थान की अपेक्षा थोड़े खर्च थोड़ी महनत, और थोड़े समय मैं सब काम होनें लगा हिन्दुस्थान की घटती के दिन आगए; जब तक हिन्दुस्थान इन बातों मैं और देशों की बराबर उन्‍नति न करेगा यह घाटा क़भी पूरा न होगा. हिन्दुस्थान की भूमि मैं ईश्‍वर की कृपा सै उन्‍नति करनें के लायक सब सामान बहुतायतसे मौजूद हैं केवल नदियों के पानी ही सै बहुत तरह की कलैं चल सक्ती हैं परन्तु हाथ हिलाये बिना अपनें आप ग्रास मुख मैं नहीं जाता नई, नई युक्तियों का उपयोग किये बिना काम नहीं चलता. पर इन बातों सै मेरा यह मतलब हरगिज नहीं है कि पुरानी, पुरानी सब बातैं बुरी और नई, नई सब बातें एकदम अच्‍छी समझ ली जायं. मैंनें यह दृष्‍टांत केवल इस बिचार सै दिया है कि अधिकार और व्‍यापारादि के कामों मैं कोई, कोई युक्ति किसी समय कामकी होती है वह भी कालान्‍तर मैं पुरानी रीति भांत पलटजानें पर अथवा किसी और तरह की सूधी राह से निकल आनें पर अपनें आप निरर्थक हो जाती है और संसार के सब कामों का सम्बन्ध परस्‍पर ऐसा मिला रहता है कि एक की उन्‍नति अवनति का असर दूसरों पर तत्‍काल हो जाता है इस कारण एक सावधानी बिना मनकी बृत्तियों के ठीक होनें पर भी जमानें के पीछै रह जानें सै क़भी, क़भी अपनें आप अवनति हो जाती है और इन्हीं कारणों सै कहीं, कहीं प्रकृति के विपरीत भाव दिखाई देता है.”

“इस्‍सै तो यह बात निकली की हिन्दुस्थान मैं इस्‍समय कोई सावधान नहीं है” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा.

“नहीं यह बात हरगिज नहीं है, परन्तु सावधानी का फल प्रसंग के अनुसार अलग, अलग होता है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “तुम अच्‍छी तरह बिचार कर देखोगे तो मालूम हो जायगा कि हरेक समाजका मुखिया कोई निरा विद्वान अथवा धनवान नहीं होता, बल्कि बहुधा सावधान मनुष्‍य होता है और जो खुशी बड़े राजाओंको अपनें बराबर वालों मैं प्रतिष्‍ठा लाभ सै होती है वही एक गरीब सै गरीब लकड़हारे को भी अपनें बराबर वालोंमैं इज्‍जत मिलनें सै होती है और उन्‍नति का प्रसंग हो तो वह धीरै, धीरै उन्‍नति भी करता जाता है परन्तु इन दोनों की उन्‍नतिका फल बराबर नहीं होता क्‍योंकि दोनोंको उन्‍नति करनें के साधन एकसे नहीं मिलते. मनुष्‍य जिन कामोंमैं सदैव लगा रहता है अथवा जिन बातों का बारबार अनुभव करता है बहुधा उन्‍हीं कामोंमैं उस्‍की बुद्धि दौड़ती है और किसी सावधान मनुष्‍यकी बुद्धि किसी अनूठे काममैं दौड़ी भी तो उसै काममैं लानें के लिये बहुत करकै मौका नहीं मिलता. देशकी उन्‍नति अवनतिका आधार वहां के निवासियों की प्रकृति पर है. सब देशोंमैं सावधान और असावधान मनुष्‍य र‍हते हैं परन्तु जिस देशके बहुत मनुष्‍य सावधान और उद्योगी होते हैं उस्‍की उन्‍नति होती जाती है और जिस देशमैं असावधान और कमकस विशेष होते हैं उस्‍की अवनति होती जाती है. हिन्दुस्थान मैं इस समय और देशों की अपेक्षा सच्‍चे सावधान बहुत कम हैं और जो हैं वे द्रव्‍य की असंगति सै, अथवा द्रव्यवानों की अज्ञानता सै, अथवा उपयोगी पदार्थों की अप्राप्तिसै, अथवा नई, नई युक्तियों के अनुभव करनें की कठिनाइयोंसै, निरर्थक से हो रहे हैं और उन्‍की सावधानता बनके फूलोंकी तरह कुछ उपयोग किये बिना बृथा नष्ट हो जाती है परन्तु हिन्दुस्थान मैं इस समय कोई सावधान न हो यह बात हर‍गिज नहीं है”

“मेरे जान तो आजकल हिन्दुस्थान मैं बराबर उन्‍नति होती जाती है, जगह, जगह पढ़नें लिखनें की चर्चा सुनाई देती है, और लोग अपना हक़ पहचान्नें लगे हैं” बाबू बैजनाथनें कहा.

“इन सब बातों मैं बहुत सी स्‍वार्थपरता और बहुत सी अज्ञानता मिली हुई है परन्तु हकीकत मैं देशोन्‍नति बहुत थोड़ी है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “जो लोग पढ़ते हैं वे अपनें बाप दादोंका रोजगार छोड़कर केवल नौकरींके लिये पढ़ते हैं और जो देशोन्‍नतिके हेतु चर्चा करते हैं उनका लक्ष अच्‍छा नहीं है वे थोथी बातों पर बहुत हल्‍ला मचाते हैं परन्तु विद्याकी उन्‍नति, कलोंके प्रचार, पृथ्‍वीके पैदावार बढ़ानें की नई, नई युक्ति और लाभदायक व्‍यापारादि आवश्‍यक बातों पर जैसा चाहिये ध्‍यान नहीं देते जिस्‍सै अपनें यहांका घाटा पूरा हो. मैं पहले कह चुका हूँ कि जिन मनुष्‍यों की जो बृत्तियाँ प्रबल होती हैं वह उनको खींच खांचकर उसी तरफ़ ले जाती हैं सो देख लीजिए कि हिन्दुस्थान मैं इतनें दिन सै देशोन्‍नति चर्चा हो रही है परन्तु अबतक कुछ उन्‍नति नहीं हुई और फ्रांसवालों को जर्मनीवालों सै हारे अभी पूरे दस बर्ष नहीं हुए जिस्‍मैं फ्रांसवालों नें सच्ची सावधानी के कारण ऐसी उन्‍नति करली कि वे आज सब सुधरी हुई बलायतों सै आगै दिखाई देते हैं”

“अच्‍छा ! आपके निकट सावधानी की पहचान क्‍या है ?” लाला मदनमोहन नैं पूछा.

“सुनिये” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “जिस तरह पांच, सात गोलियें बराबर बराबर चुन्दी जायं और उन्‍मैं सै सिरे की एक गोली को हाथ सै धक्‍का देदिया जाय तो हाथ का बल, पृथ्वी की आकर्षणशक्ति, हवा आदि सब कार्य कारणों के ठीक, ठीक जान्‍नेसै आपस्‍मैं टकरा कर अन्त की गोली कितनी दूर लुढ़कैगी इस्‍का अन्दाज़ हो सक्ता है इसी तरह मनुष्यों की प्रकृति और पदार्थों की जुदी, जुदी शक्ति का परस्‍पर सम्बन्ध बिचार कर दूर और पास की हरेक बात का ठीक परिणाम समझ लेना पूरी सावधानी है परन्तु इन बातों को जान्‍नें के लिये अभी बहुत से साधनों की कसर है और किसी समय यह सब साधन पा कर एक मनुष्‍य बहुत दूर, दूर की बातों का परिणाम निकाल सकै यह बात असम्‍भव मालूम होती है तथापि अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार जो मनुष्‍य इस राह पर चलै वह अपनें समाज मैं साधारण रीति सै सावधान समझा जाता है. एक मोमबत्ती एक तरफ़ सै जल्‍ती हो और दूसरी दोनों तरफ़ जलती हो तो उस्‍के बर्तमान प्रकाश पर न भूलना परिणाम पर दृष्टि करना सावधानी का साधारण काम है और इसी सै सावधानता पहचानी जाती है.”

“आपनें अपनी सावधानता जतानें के लिये इतना परिश्रम करके सावधानी का वर्णन किया इस लिये मैं आपका बहुत उपकार मान्ता हूँ” लाला मदनमोहन नें हंस कर कहा.

“वाजबी बात कहनें पर मुझको आप सै ये तो उम्‍मेद ही थी.” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया, और लाला मदनमोहन सै रुख़सत होकर अपनें मकान को रवानें हुए.

परीक्षा-गुरु – Pariksha Guru

परीक्षा गुरू हिन्दी का प्रथम उपन्यास था जिसकी रचना भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने 25 नवम्बर,1882 को की थी। 

परीक्षा गुरु पहला आधुनिक हिंदी उपन्यास था। इसने संपन्न परिवारों के युवकों को बुरी संगति के खतरनाक प्रभाव और इसके परिणामस्वरूप ढीली नैतिकता के प्रति आगाह किया। परीक्षा गुरु नए उभरते मध्यम वर्ग की आंतरिक और बाहरी दुनिया को दर्शाता है। पात्र अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए औपनिवेशिक समाज के अनुकूल होने की कठिनाई में फंस जाते हैं। हालांकि यह जाहिर तौर पर विशुद्ध रूप से ‘पढ़ने के आनंद’ के लिए लिखा गया था। औपनिवेशिक आधुनिकता की दुनिया भयावह और अप्रतिरोध्य दोनों लगती है।

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परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी) – Pariksha-Guru Prakaran-7 : Savdhani hoshiyari

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परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)

Further Reading:

  1. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१ सौदागरकी दुकान
  2. परीक्षा-गुरु प्रकरण- २ अकालमैं अधिकमास
  3. परीक्षा-गुरु प्रकरण- ३ संगतिका फल
  4. परीक्षा-गुरु प्रकरण-४ मित्रमिलाप
  5. परीक्षा-गुरु प्रकरण-५ विषयासक्‍त
  6. परीक्षा-गुरु प्रकरण-६ भले बुरे की पहचान
  7. परीक्षा-गुरु प्रकरण – ७ सावधानी (होशयारी)
  8. परीक्षा-गुरु प्रकरण-८ सबमैं हां
  9. परीक्षा-गुरु प्रकरण-९ सभासद
  10. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१० प्रबन्‍ध (इन्‍तज़ाम)
  11. परीक्षा-गुरु प्रकरण-११ सज्जनता
  12. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१२ सुख दु:ख
  13. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१३ बिगाड़का मूल- बि वाद
  14. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१४ पत्रव्यवहा
  15. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१५ प्रिय अथवा पिय् ?
  16. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१६ सुरा (शराब)
  17. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१७ स्‍वतन्‍त्रता और स्‍वेच्‍छाचार.
  18. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१८ क्षमा
  19. परीक्षा-गुरु प्रकरण-१९ स्‍वतन्त्रता
  20. परीक्षा-गुरु प्रकरण – २० कृतज्ञता
  21. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२१ पति ब्रता
  22. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२२ संशय
  23. परीक्षा-गुरु प्रकरण-२३ प्रामाणिकता
  24. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२४ (हाथसै पै दा करनें वाले) (और पोतड़ों के अमीर)
  25. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२५ साहसी पुरुष
  26. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२६ दिवाला
  27. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२७ लोक चर्चा (अफ़वाह).
  28. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२८ फूट का काला मुंह
  29. परीक्षा-गुरु प्रकरण -२९ बात चीत.
  30. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३० नै राश्‍य (नाउम्‍मेदी).
  31. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३१ चालाक की चूक
  32. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३२ अदालत
  33. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३३ मित्रपरीक्षा
  34. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३४ हीनप्रभा (बदरोबी)
  35. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३५ स्तुति निन्‍दा का भेद
  36. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३६ धोके की टट्टी
  37. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३७ बिपत्तमैं धैर्य
  38. परीक्षा-गुरु प्रकरण-३८ सच्‍ची प्रीति
  39. परीक्षा-गुरु प्रकरण -३९ प्रेत भय
  40. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४० सुधारनें की रीति
  41. परीक्षा-गुरु प्रकरण ४१ सुखकी परमावधि


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