और अन्ना सो रही थी... | राकेश बिहारी
और अन्ना सो रही थी... | राकेश बिहारी

और अन्ना सो रही थी… | राकेश बिहारी – Aur Anna So Rahi Thi

और अन्ना सो रही थी… | राकेश बिहारी

पहली बार हम कब मिले थे यह मुझे ठीक-ठीक याद नहीं। लेकिन दफ्तर के नॉनएक़्जिक्यूटिव टॉयलेट में, जिसे हम हृाइट हाउस कहते थे, कभी अपनी जिप खोलते – बंद करते या फिर बेसिन के आगे हाथ धोते एक दूसरे को शीशे में देख हम अक्सर मुस्करा देते थे। साढ़े पाँच बजे की छुट्टी के बाद सेक्यूरिटी गार्ड से सबसे पहले अपना बैग चेक करवानेवाले भी हम दोनों ही होते थे। साढ़े पाँच बजते ही हमारा इस तरह दफ्तर से निकल जाना कई लोगों के लिए कौतूहल का विषय था। गो कि प्रीप्रेस इंडिया लिमिटेड की इस एक्सपोर्ट यूनिट में ओवर टाइम एक आम बात थी लेकिन साढ़े पाँच के बाद हम दोनों में से किसी का रुकना दूसरों के लिए एक आश्चर्यजनक खबर होती थी। प्रीप्रेस इंडिया की यह एक ऐसी ही असाधारण शाम थी। दो घंटे की ओवर टाइम के बाद देर शाम जानेवाली बस में हम दोनों साथ-साथ बैठे थे।

‘आठ बजे की बस में आप… काम ज्यादा आ गया क्या?’

‘अरे आप एम.आई.एस. (मैनेजमेंट इंफार्मेशन सर्विसेज) वाले जो न करवाएँ। पहले तो हमारी प्रोडक्शन रिपोर्ट बनाते हैं और फिर हमसे देर तक रुकने का कारण पूछते हैं।’ प्रोडक्शन वालों की यह आम शिकायत थी। मैनेजमेंट रिपोर्टिंग को वे जासूसी से कम नहीं समझते थे।

‘अरे, रिपोर्ट बनाना तो हमारी ड्यूटी है, ठीक वैसे ही जैसे आपके लिए कॉपी एडीटिंग या प्रूफ रीडिंग। अब तनख्वाह लेते है तो काम करना पड़ेगा न? उससे आपके रुकने का क्या संबंध?’

‘आज सारे कॉपी एडीटर्स की मीटिंग हुई थी। तलवार कह रहा था कि प्रोडक्शन काफी कम हो गई है। इसके लिए उसने सबको हड़काया भी। उसने यह भी बताया कि यूरोप से दस हजार पांडुलिपियाँ और आ रही हैं। लगता है पूरे महीने रुकना पड़ेगा।’

‘नई पांडुलिपियोंवाली बात तो ठीक है लेकिन कम प्रोडक्शन के नाम पर हड़काना तो तलवार की रणनीति का एक हिस्सा है। पता नहीं उसे एप्रिसिएट करना क्यों नहीं आता। मेरी तो पहली नौकरी है, आपने तो पहले भी कई नौकरियाँ की हैं। क्या हर जगह बॉस ऐसे ही होते हैं?’

‘मैंने तो ऐसा ही पाया है। शायद ही कोई बॉस अपने सबॉर्डिनेट की तारीफ करता हो… लेकिन आप आज कैसे रुक गए?’

‘दरअसल मिसेज कौल के जिम्मे एक नया प्रोजेक्ट आया है। मि. तलवार की खास होने के कारण वह प्रोजेक्ट लीडर तो बन गई हैं लेकिन उसे कुछ आता-जाता तो है नहीं। सिर्फ अँग्रेजी में गिटिर-पिटिर कर लेने भर से तो रिपोर्टिंग आती नहीं। मि. तलवार ने कहा है कि एक महीना उसके प्रोजेक्ट की रिपोर्टिंग भी मैं ही देख दूँ। अब बॉस ने कहा है तो रुकना ही पड़ेगा।’

दफ्तर की बारीक राजनीति और बॉस की रंगीन मिजाजी की चर्चा के बहाने शुरू हुई हमारी जान-पहचान, न जाने कब और कैसे अंतरंगता में बदल गई। दस घंटे की थका देनेवाली ड्यूटी के बाद सवा घंटे की हमारी बस यात्रा कैसे कट जाती हमें पता ही नहीं चलता। इसी क्रम में हमने यह जाना कि हमारी रुचियाँ, हमारी सोच और हमारे सपने काफी मिलते थे। दफ्तर में मैजेजर तो मिनरल वाटर पीते हैं लेकिन हमें सप्लाईवाला घटिया नमकीन पानी क्यों मिलता है या फिर हमारे टेलीफोन कॉल्स हमें क्यों नहीं बताए जाते और कंपनी के बड़े अधिकारियों को तो चाय मुफ्त में मिलती है लेकिन उसके लिए हमारे पैसे क्यों कटते हैं, जैसी छोटी-बड़ी जिज्ञासाएँ और उनके प्रति एक स्वाभाविक आक्रोश हम दोनों के मन में समान रूप से कुलबुलाते थे। ऐसे ही किसी दिन घर लौटते वक्त उसने बताया था कि उसकी एक बिटिया भी है… करीब तीन साल की और उसकी पत्नी जूनियर इंजीनियर है भारत विद्युत बोर्ड में।

‘उसकी ड्यूटी शिफ्टों में होती है। कभी-कभी तो पूरे महीने नाइट शिफ्ट होती है… आब मैं शाम को समय से नहीं पहुँचूँ तो भला अन्ना को कौन देखेगा…?’

‘और फिर आदमी को अपने लिए भी तो थोड़ा वक्त चाहिए। वर्ना कंपनी वालों की चले तो वे हमें भी कंप्यूटर ही बना डालें…।’

‘अरे हाँ, मैं तो भूल ही गया था, वो पिंक सिटी का क्या ममला है? आज सारी महिलाएँ कांफ्रेंस रूम में क्यों इकटठी थीं?’ ह्वाइट हाउस की तर्ज पर लेडिज टॉयलेट हमारे बीच पिंक सिटी के नाम से जाना जाता था।

‘टॉयलेट का री-कंस्ट्रक्षन हो रहा है इसलिए महिलाओं की खास जरूरत आदि को जानने के लिए मि. तलवार ने उनकी मीटिंग बुलाई थी।’

‘यदि बात इतनी सी है तो यह काम पर्सनलवाली मोनिका भी कर सकती थी। इसमें मि. तलवार की क्या जरूरत? मुझे तो यह महिलाओं के साथ चाय पीने का एक बहाना और किसी नए शिकार की तलाश लग रही है। आप देख लेना बहुत जल्दी मिसेज कौल के दिन लदनेवाले है।’

मुझे पता नहीं था कि पीटर की यह बात इतनी जल्दी सच साबित हो जाएगी। अगले ही दिन मंथली प्रोडक्शन मीटिंग में मि. तलवार ने मिसेज कौल की जम कर खिंचाई की।

‘मिसेज कौल, अब पानी सर से ऊपर बह रहा है। आपके रहते प्रूफ की इतनी अशुद्धियाँ जा रही हैं। आपको कस्टमर्स के फीड बैक का भी ख्याल नहीं। ईदर यू कंट्रोल योर गाइज ऑर कम आउट ऑफ द डिपार्टमेंट।’

‘सर, आई विल डू, माई बेस्ट। आगे से मैं खुद ही फाइनल फाइल देखूँगी।’ मि. कौल पेंसिल से दोनों स्तनों के बीच खुजला रही थीं।

और अगले ही महीने अधेड़ मिसेज कौल की जगह दफ्तर में नई-नई आई यंग अलका को की-बोर्ड पब्लिशर्स का प्रोजेक्ट लीडर बना दिया गया। अलका मिसेज कौल की तरह नहीं थी। न किसी से बोलना-चालना न कुछ। लंच भी अकेली ही करती थी वह। और बोल्ड इतनी की पूछो मत। मुझे मोनिका ने बताया था कि उस दिन पिंक सिटीवाली मीटिंग में जब सब चुपचाप बिस्किट कुतर रही थीं उसने ही बेधड़क कहा था – ‘सर, हमारे टॉयलेट मे सेनेटरी नैपकिन जरूर होने चाहिए… ‘ह्विस्पर’ या ‘केयर फ्री’ कोई भी कई बार हमें असुविधा होती है।’

इसके विपरीत मिसेज कौल तलवार की चहेती होते हुए भी सबसे बात करती थी। उस दिन वह पिंक सिटी से निकलकर सीधे पीटर की डेस्क तक आ गई थी।

‘मैडम इस सूट में तो आप बहुत अच्छी दिख रही हैं।’

‘सो नाइस ऑफ यू… लेकिन तुम्हें तो ठीक से तारीफ करना भी नहीं आता। मैं इस सूट में अच्छी नहीं लग रही यह सूट मुझ पर अच्छा लग रहा है।’ दोनों खुलकर हँस पड़े, कि तभी मि. तलवार वहाँ आ गए थे। तलवार ने कुछ कहा तो नहीं लेकिन उनके चेहरे से साफ जाहिर था कि मिसेज कौल का यूँ हँसना उन्हें कहीं गहरे खटका था। शायद यही कारण रहा हो कि उसकी जगह मि. तलवार ने अलका को प्रोजेक्ट लीडरी पकड़ा दी थी।

‘आज हम लंच बाहर करेंगे। कुछ जरूरी बातें करनी है।’ मैं पीटर की टेबल पर डेली प्रोडक्शन रजिस्टर लेने गया था।

हमने अपना-अपना लंच बॉक्स लिया और बाहर निकल गए। एक्सपोर्ट डेवलपमेंट ऑथारिटी – इ.डी.ए. के लॉन में हमारे सिवा कोई और नहीं था।

‘हाँ तो पीटर, ऐसी क्या जरूरत आ गई कि आपने मुझे बाहर बुलाया?’ लंच बॉक्स खोलते हुए मैं उससे मुखातिब हुआ।

‘आज बरुआ ने मुझे बुलाया था और एक लेटर दिया।’ बरुआ कंपनी का पर्सनल मैनेजर है।

‘तो क्या आपको भी इंक्रीमेंट लेटर मिल गया?’

‘इंक्रीमेंट नहीं वार्निंग।’

‘क्या बात करते हैं आप भी, आप जैसे कॉपी एडीटर को भला वार्निंग कौन दे सकता है…?’

‘जब बरुआ ने मुझे बुलाया तो मुझे भी लगा था कि अबकी अच्छा इंक्रीमेंट मिलेगा। लेकिन उसने तो सारा खेल ही पलट दिया।’

‘मि. पीटर जैसा कि आपको पता है कि यह एनुअल एसेसमेंट का महीना है। मैं जानता हूँ कि आप एक काबिल कॉपी एडीटर हैं, लेकिन प्रमोशन और इंक्रीमेंट के लिए इतना काफी नहीं है। मैनजमेंट हैज सम सीरियस ऑब्जर्बेशन्स अगेन्सट यू।’

‘लेकिन सर पूरे साल मैंने अच्छा काम किया है।’

‘आपके सुपरवाइजर हरप्रीत की रिपोर्ट है कि आप कभी साढ़े पाँच बजे के बाद रुकना ही नहीं चाहते।’

‘सर मेरी नजर में काम के घंटे से ज्यादा काम की मात्रा और गुणवत्ता महत्वपूर्ण है। दूसरे कॉपी एडीटर्स दस ग्यारह घंटे में जितना काम करते हैं उससे ज्यादा काम तो मैं आठ घंटे में कर जाता हूँ, फिर भला देर तक रुकने की क्या जरूरत? मैं काम करता दिखने की बजाय काम करने में विश्वास रखता हूँ।’

‘आपके खिलाफ जो शिकायतें हैं वे मनगढ़ंत नहीं हैं। मैनजमेंट आपको अपना परफॉर्मेंस सुधारने के लिए दो महीने का समय देती है। आई होप यू विल टेक इट विद ए हेल्दी स्पीरिट।’ और फिर बरुआ ने कामचोरी और अनुशासनहीनता के झूठे आरोपोंवाला वह मनहूस खत मेरे हवाले कर दिया। मुझे तो लगता है यह सब मुझे निकालने की चाल है।

‘मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि कंपनी के सबसे इफीसीएंट कॉपी एडीटर को वे भला क्यों निकालेंगे?’

‘बात इतनी सीधी नहीं है। मैं उनके आगे-पीछे नहीं करता। बॉस की चमचई मुझसे नहीं होती। बॉस को दिखाने भर के लिए मैं देर शाम तक नहीं रुक सकता और फिर उन्हें किसी ने यह भी बता दिया है कि पिछली कंपनी में हुई हड़ताल का नेतृत्व मैंने ही किया था।’

‘पिछली कंपनी की हड़ताल से इनका क्या वास्ता? यहाँ तो आप कोई यूनियन नहीं चला रहे।’

‘यूनियन नहीं चला रहे तो क्या हुआ! उन्हें डर तो है ही कि कहीं उनकी नीतियों के खिलाफ मैं यहाँ भी मोर्चा न खोल दूँ। यह सब तो दूर की बात है। फिलहाल तो मुझे यह बतलाइए कि इस स्थिति का सामना कैसे किया जाय?’

‘पहली बात तो यह कि हमें उनके आरोपों का एक माकूल जवाब देना चाहिए। आपकी एफीशिएन्सी, प्रोडक्शन, क्वालिटी आदि से संबंधित आँकड़े मैं आपको अपनी फाइल से दे दूँगा। और फिर दो महीने के बाद वे कुछ कहें इसके पूर्व ही आप अपनी प्रोग्रेस रिपोर्ट उन्हें खुद देंगे। फिलहाल इतना ही। हम उनकी यह चाल कामयाब नहीं होने देंगे। वे डाल-डाल तो हम पात-पात।’

‘और हाँ, एक बात और… हम दोनों अब से दफ्तर में बातें नहीं करेंगे। हमारी बातचीत बाहर ही होगी।’ पीटर अपने चलते मुझे परेशानी में नहीं डालना चाहता था।

शाम को देर तक रुककर मैंने पिछले छह महीने की फाइल निकाली और रेडबेल सेक्शन के सारे कॉपी एडीटर्स के औसत प्रोडक्शन का तुलनात्मक अध्ययन किया। काम की गुणवत्ता, संपादित पांडुलिपियों की संख्या, एफीशिएन्सी के प्रतिशत आदि हर मामले में पीटर का औसत डिपार्टमेंट के औसत से अच्छा था। मैंने पूरी रिपोर्ट मि. तलवार की पसंद के फौंट और साइज में ही बनाई थी। लौटते वक्त वह प्रिंट आउट मैंने उसे बस में दे दिया। अगले ही दिन पीटर ने जवाब दे दिया। मि. तलवार की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।

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ठीक दो महीने बाद एक वैसी ही परफॉर्मेंस रिपोर्ट मैंने और बनाई और उसका ग्राफिकल प्रेजेंटेशन भी। मैनजमेंट की तरफ से कोई चिट्ठी आती उसके पहले ही पीटर ने अपनी तरफ से एक पत्र लिखा।

‘डियर मि. तलवार,

पूरी निष्ठा और ईमानदारी से मैंने पिछले दो महीनों को चुनौती के रूप में लिया है। इस अवधि में किए गए मेरे कामों की सूची इस पत्र के साथ संलग्न है। मुझे उम्मीद है मैंनेजमेंट मेरे काम की समीक्षा कर मेरा उचित मार्गदर्शन करेगी ताकि मैं अपना परफॉर्मेंस और बेहतर कर सकूँ।’ पीटर ने इस पत्र की एक प्राप्ति बरुआ को भी दी।

संध्या पाँच बजे मि. तलवार ने मुझे अपने कमरे में बुलाया। मैंने देखा पीटर की दोनों रिपोर्टें उनके आगे पड़ी थीं। मुझे देखते ही जैसे वे फट पड़े – ‘मि. सुधीर ये देखो रिपोर्टिंग… काश कभी आपने भी इतनी अच्छी रिपोर्ट बनाई होती। यदि एक कॉपी एडीटर इतनी अच्छी रिपोर्ट बना सकता है तो आपको तो इससे भी बेहतर करना चाहिए।’ मैंने देखा बार चार्ट और पाई चार्ट से सजी वह रिपोर्ट जैसे बोल रही थी। मैंने सोचा हर बार तो मैं ऐसी ही रिपोर्ट बनाता हूँ। लेकिन चुप रहा। ‘ले जाइए इसे और सीखिए कि रिपोर्टिंग कैसे होती है। और हाँ, इन आँकड़ों की सत्यता पर आपकी रिपोर्ट कल शाम तक मुझे मिल जानी चाहिए।’ मुझे नहीं पता था कि मेरी ही रिपोर्ट मुझे बॉस की गाली सुनवाएगी। ऊपर से मुँह लटकाए और मन-ही-मन खुश होता मैं मि. तलवार की केबिन से बाहर आ गया।

रिपोर्ट की सत्यता को भला क्या जाँचना था, उसे बनाया तो मैंने ही था। वैसे भी सच तो सच है उसे मैं कहूँ या कोई और। लेकिन मि. तलवार इससे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें पीटर के खिलाफ कुछ चाहिए था। उन्होंने पीटर की दूसरी गतिविधियों, स्वभाव आदि की जानकारी करने केलिए मि. चोपड़ा को अलग से नियुक्त कर दिया।

‘सर, मैंने एक-एक कॉपी एडीटर से उसके बारे में पूछ लिया है। सब उसे अच्छा आदमी बताते हैं। और मुझे भी उसमें कोई बुराई नहीं दिखती। समय से आना और सिर्फ अपने काम से मतलब रखना। ही सीम्स टू बी ए नाइस गाई।’

‘मि. चोपड़ा ऊपर से तो वह मुझे भी अच्छा आदमी लगता है। बट आइ नो, ही वाज ए ट्रेड यूनियन लीडर इन हिज लास्ट कंपनी। उसने वहाँ हड़ताल भी करवाई थी और आप कह रहे हैं ही सीम्स टू बी ए नाइस गाई। मुझे तो आपकी इफीशिएन्सी पर ही संदेह हो रहा है।

दरवाजे के बाहर जब मैंने मि. चोपड़ा और मि. तलवार की यह बात सुनी तो उल्टे पाँव अपनी सीट तक लौट आया।

अभी हूटर बजने में दो घंटे बाकी थे। कंप्यूटर पर कई-कई फाइलें खोलकर मैं रिपोर्ट बनाने का स्वाँग करता रहा। मेरा मन कहीं और था। पिछली कंपनी में ट्रेड यूनियन लीडर होना क्या इतना बड़ा डिसक्वालिफिकेशन है कि उसके आगे आपके अच्छे कामों का कोई मोल नहीं… मेरे पास इतने काम थे कि मैं रुककर देर शाम उन्हें निबटा सकता था लेकिन साढ़े पाँच बजे मैंने अपना बैग उठा लिया।

मि. चोपड़ा और तलवार की बात मैं पीटर को बताता इसके पहले ही उसने कहा – ‘आज तलवार मेरी सीट तक आया था। इसके पहले मैंने उसको इतना विचलित कभी नहीं देखा।’

‘पीटर, तुम्हारा लकी नंबर क्या है?’

‘सर, मुझे मालूम नहीं।’

‘इज इट फाइव?’

‘सर मैं न्यूमरॉलजी में विश्वास नहीं करता।’

‘तुम्हारी दोनों रिपोर्टें पाँच तारीख की बनी हुई थीं।’ और वह तेजी से वापस चला गया।

‘मुझे तो लगता है चाहकर भी आपको नहीं निकाल पाने की छटपटाहट ने उसे काफी अपसेट कर दिया है और अब वह अपनी असफलता को आपका भाग्य समझ रहा है।’ मैंने पीटर को मि. चोपड़ावाली बात भी बताई।

नौकरी तो बच गई लेकिन इंक्रीमेंट बस पाँच सौ रुपये। वहीं दूसरे कॉपी एडीटर्स की तनख्वाह में डेढ़ से दो हजार रुपये तक का इजाफा हुआ था। तलवार की चहेती अलका की सैलरी न सिर्फ दोगुनी हो गई थी बल्कि उसे दो-दो प्रमोशन एक साथ मिले थे। देखते ही देखते वह कइयों की सीनियर हो गई थी। ट्रेनी ऑफीसर से सीधे डिप्टी मैनेजर हो जाने की यह घटना पूरी कंपनी में चर्चा का विषय थी। काम तो अभी वह ट्रेनी का भी ठीक से नहीं कर पा रही थी, यह प्रमोशन उसकी सुंदरता के बदले था या फिर रोज देर शाम तक रुकने या यूँ कहें कि अक्सर मि. तलवार के साथ ही जाने का इनाम था। शायद दोनों का मिला-जुला असर था यह। हमें यह बात पची नहीं… हमने इसे थूक की तरह गटक लिया।

मि. तलवार के यूरोप दफ्तर सँभालने की बात जोरों पर थी और कंपनी की दूसरी यूनिट के मार्केटिंग मैनेजर डी.के. सिंह उनकी जगह लेने की योजना के साथ यहाँ भेज दिए गए थे। डी.के. ने तलवार के जमाने में उपेक्षित रहे लोगों की तनख्वाह बढ़ाकर अपनी टीम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने लोगों के बीच वह मि. तलवार को गाली देने से भी नहीं चूकता। वह दफ्तर की लड़कियों पर भी बरसता था… कई बार तो तलवार की चहेतियाँ उसकी डाँट से रो भी पड़ती थीं।

मि. तलवार का यूरोप जाना तय हो गया था। उस दिन उनके सम्मान में एक पार्टी रखी गई थी। डांस, ड्रिंक और फिर डिनर। मि. तलवार ने जाते-जाते अपने कमरे में डी.के. को ले जा कर एक फाइल सौंपी – ‘मि. सिंह यह पीटर की फाइल है। पीटर जॉसेफ – कॉपी एडीटर, रेडबेल अकाउंट। यू मस्ट गो थ्रू दिस फाइल वेरी सीरियसली। मैंने बहुत कोशिश की लेकिन… बिवेयर ऑफ हिम। उस दिन मैं इसी की बात कर रहा था।’

‘मैं इसे ठीक कर दूँगा सर, आई नो हाउ टू हैंडल दीज पीपल।’

मि. तलवार चले गए। अब प्रीपेस इंडिया में पूरी तरह डी.के. का राज था। लोगों में नए यूनिट हेड को ले कर कई आशाएँ थीं। अब कहीं डी.के. की आधुनिक प्रबंधन तकनीक से लोगों का कुछ भला हो। शायद अब लोगों को उनके इनकमिंग टेलीफोन कॉल्स का पता चले। जिस तरह से डी.के. ने कुछ लोगों की तनख्वाह बढ़ाई थी, उसे देख पीटर भी आशा से भरा हुआ था। कहीं चाय-पानी का इंतजाम भी बेहतर हो जाए। कॉर्पोरेट ऑफिस में शनिवार को भी छुट्टी रहती है और डी.के. तो वहीं से आया है, शायद वह यहाँ भी कुछ ऐसा ही कर दे। लेकिन ऐसा कुछ भी न हुआ। नए मियाँ तो तलवार के भी गुरू निकले। तलवार ने लोगों को लाख हड़काया हो, तनख्वाह कम बढ़ाई हो लेकिन वह किसी को माँ-बहन की गालियाँ नहीं देता था। लोगों को बेवजह डाँटना, आठ घंटे की बजाय दस-दस बारह-बारह घंटे काम लेना, बात-बात में नौकरी से हटाने की धमकी और पाँच मिनट के काम के लिए पच्चीस मिनट का इंटेलेक्चुअल लेक्चर तो जैसे उसके प्रबंध कौशल के जरूरी अंग थे। अब दफ्तर का माहौल ज्यादा आतंकित हो गया था। सब सहमे से रहते पता नहीं डी.के. किसके पीछे चुपचाप खड़ा हो। जाहिर है ह्वाइट हाउस और पिंक सिटी के बाद लंच टेबल ही एक ऐसी जगह थी जहाँ लोग खुद को कुछ आजाद महसूस करते थे। मैं, पीटर वाणी, रेखा और जयराज एक ही टेबल पर लंच करते थे।

‘आज बहुत सारी लड़कियाँ इंटरव्यू देने आई थीं। किस डिपार्टमेंट के लिए रिक्रूटमेंट चल रहा है?’ जयराज ने अपने लंच बॉक्स से पालक पनीर के साथ एक सवाल भी सबके आगे परोस दिया।

‘अरे तुम्हें नहीं मालूम, एक नया डिपार्टमेंट शुरू हो रहा है – सी.सी.डी. यानी कस्टमर केयर डिपार्टमेंट।’ यह वाणी थी।

‘तो क्या उसमें सिर्फ लड़कियाँ ही रहेंगी?’ मैने भी अपनी उत्सुकता दिखाई।

‘और नहीं तो क्या, फिरंगियों को आगरा और जयपुर घुमाने के लिए तो लड़कियाँ ही चाहिए न…!’ पीटर ने एक और सत्य से पर्दा हटाया।

‘पीटर तुम स्लोगन कांटेस्ट में क्यों नहीं भाग लेते?’ वाणी की टिफन से सांभर निकालते हुए रेखा ने बातचीत की दिशा बदली।

‘मैं समझा नहीं।’

‘अरे तुम्हें मालूम नहीं, …9000 के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए एक स्लोगन कांटेस्ट का आयोजन हो रहा है। तुम्हारी तो भाषा भी अच्छी है। तुम्हें इसमें जरूर हिस्सा लेना चाहिए।’

पीटर ने कुल बारह नारे लिखे। सब एक से बढ़कर एक। निर्णायकों ने कुल बीस नारों का चयन किया जिसमें पीटर के सभी बारह नारे शामिल थे। मेन गेट से ले कर हर डिपार्टमेंट में बड़े-बड़े अक्षरों में ये नारे चिपका दिए गए थे। पीटर का इस तरह लाइम लाइट में आना डी.के. को अच्छा नहीं लगा। उसने सोचा निर्णायक मंडल में उसे खुद होना चाहिए था।

तीन दिसंबर को कंपनी की एक्सपोर्ट यूनिट की दसवीं सालगिरह है। डी.के. ने सोचा क्यों न इसे सेलीब्रेट किया जाए। उसने विभागीय प्रभारियों की एक मीटिंग बुलाई।

‘आपको यह जानकर खुशी होगी कि इस यूनिट की दसवीं सालगिरह पर हम एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन कर रहे हैं। उसके पूर्व एक वर्कशॉप का आयोजन भी किया जाएगा, जिसका उद्घाटन हमारे ई.डी. मि. तनेजा करेंगे। उनके साथ कंपनी के जापानी सलाहकार प्रो. मिजोटा का आना भी तय है। आप सबको इस मौके पर अपने-अपने डिपार्टेट की गतिविधियों पर एक रिपोर्ट देनी है।’ हमेशा की तरह इधर-उधर की तमाम बातें करने के बाद आखिरी पाँच मिनट में डी.के. ने काम की बात की और बैठक समाप्त हो गई।

सबके सब ग्रुप लीडर अपनी तैयारी में लग गए थे। रेडबेल सेक्शन का लीडर आशुतोष बीमार चल रहा था और उसके शीघ्र आने की कोई उम्मीद नहीं थी। मजबूरी में यह जिम्मेवारी पीटर के कंधे पर आ गई। और उसने उसमें पूरी शक्ति लगा दी। डी.के. को अपनी प्रतिभा दिखाने का यह एक नायाब मौका था। वह इसमें कोई भी कमी करना नहीं चाहता था। विभागीय गतिविधियाँ, उपलब्धियाँ, काम में आनेवाली बाधाएँ और बेहतर बिजनेस लाने के लिए सुझाव। हर बिंदु पर उसने अलग-अलग नोट्स तैयार किए थे। सबने अपनी फाइल डी.के. के पास जमा कर दी।

डी.के. सारी फाइलें अपने साथ लेता गया। अधिकांश फाइलें तो उसने गाड़ी में ही पढ़ डाली थी, पीटर की भी। पीटर की फाइल देख कर उसने सोचा ऐसी रिपोर्ट तो उसे बनाकर ई.डी. को भेजनी चाहिए थी। पीटर की अच्छाई उसे एक बार फिर खटकी।

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मि. तनेजा ऐनुअल डे समारोह में बोल रहे थे – ‘आपकी यूनिट ने आज दस वर्ष पूरे किए हैं। इन दस वर्षों में हमने काफी तरक्की की है। कंपनी के फायदे का एक बड़ा हिस्सा आज आपकी यूनिट से मिल रहा है। मैं इसके लिए आप लोगों को बधाई देता हूँ। अब कुछ बातें आपके विभागीय रिपोर्ट पर। यूँ तो आप सबने अच्छा किया है लेकिन मि. पीटर की रिपोर्ट सबसे अच्छी और अलग है। मैं इससे काफी प्रभावित हूँ। मैं चाहता हूँ कि कॉर्पोरेट ऑफिस में होनेवाली मंथली मीटिंग में मि. डी.के. सिंह मि. पीटर को जरूर साथ लाएँ।’

डी.के. के पैरों तले से जैसे जमीन खिसक गई। वह पसीने से तर-ब-तर हो गया। उसने रजाई दूर फेंक दी। वह काफी घबराया हुआ था। उसने संतोष की ठंडी साँस ली। वह सपने देख रहा था। उसने घड़ी पर नजर दौड़ाई। सुबह के पाँच बज रहे थे। एक नई आशंका ने उसे घरे लिया… लोग कहते हैं सुबह का सपना सच होता है। डी.के. जल्दी ही दफ्तर चला गया।

जब पीटर दफ्तर आया तो उसकी सीट पर उसकी रिपोर्ट पहले से पड़ी थी और साथ में डी.के. की प्रतिक्रिया – ‘आप अपना ध्यान कॉपी एडीटिंग तक ही सीमित रखें। कंपनी का बिजनेस कैसे बढ़ेगा यह सोचने के लिए कंपनी में मैनेजरों की कमी नहीं है।’

सुबह का सपना सारे दिन डी.के. का पीछा करता रहा। वह आते-जाते पीटर को गौर से देखता। अरे यह क्या, इसने मोबाइल कब ले लिया। डी.के. की नजर पीटर की बेल्ट से लटके उसकी मोबाइल पर अटक गई थी। पता नहीं उसे क्या सूझा अगले ही पल उसने रेडबेल सेक्शन की मीटिंग बुलाई।

पीटर ने घड़ी पर नजर दौड़ाई… सवा पाँच… उसने सोचा मीरा का नाइट शिफ्ट है, अन्ना अकेली होगी।

‘अरे घड़ी क्या देखते हो, आज की बस तो अब गई ही समझो। डी.के. की मीटिंग भला डेढ़ घंटे से कम चली है कभी?’ यह डिपार्टमेंट की प्रूफ रीडर सुरेखा थी।

‘मीटिंग में कोई काम की बात हो तो समझ में भी आता है। लेकिन वह तो तीन मिनट के काम के लिए तीस मिनट का भाषण झाड़ेगा। निर्वाण, विपश्यना, सेल्फ मोटिवेशन जैसे शब्दों से नीचे की तो बात ही नहीं करता है, और फिर बात-बात में एक कहानी अलग।’

‘टाइम मैनेजमेंट तो उसका फेवरिट टॉपिक है, भले ही इसके चक्कर में वह पाँच लोगों के दो-दो घंटे क्यूँ न बर्बाद कर दे।’ ऐन छुट्टी के वक्त की इस मीटिंग से शील भी चिढ़ा हुआ था।

प्रोडक्शन से शुरू होकर डी.के. की बात कब और कैसे मोबाइल फोन की उपयोगिता पर आ टिकी, पता ही नहीं चला।

‘आजकल तो मोबाइल कंपनियाँ लोगों को बेतहाशा बेवकूफ बना रही हैं। पाँच सौ रुपये में हैंडसेट और लोग हैं कि अंधी दौड़ में शामिल हैं। जब महीने के अंत में बिल आएगा तो पता चलेगा। तनख्वाह पाँच हजार और हाथ में मोबाइल। पीपुल डोंट नो कॉस्ट मैनेजमेंट।’

साढ़ें पाँच की बस निकल गई होगी। सब मन-ही-मन कुड़बुड़ा रहे थे। डी.के. का प्रवचन अनवरत जारी था।

‘हो सकता है आप लोगों को यह लग रहा हो कि मैं ईर्ष्यावश ऐसा बोल रहा हूँ। लेकिन नहीं… मेरे मोबाइल का बिल तो कंपनी देती है वरना अपने पैसे तो मैं कभी मोबाइल नहीं रखता। हाउ डू यू थिंक ऑन दिस इश्यू।’ डी.के. की कुटिल निगाहें पीटर पर आ अटकी थीं।

‘सर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम एक लोकतांत्रिक देश में रहते है… और जब लोगों को उनके टेलीफोन कॉल्स के बारे में दफ्तर में नहीं बताया जाए तो कई बार महँगा होते हुए भी मोबाइल हमारी मजबूरी बन जाती है।’ पीटर के इस जवाब से सब जहाँ भीतर-ही-भीतर खुश हुए थे वहीं डी.के. अंदर तक भुन गया था। मीटिंग दो घंटे तक चलती रही। कॉस्ट कंट्रोल पर भाषण करनेवाला डी.के. काश यह सोच पाता कि उसने दो घंटे में बेवजह कंपनी के दस मैन आवर बर्बाद कर दिए थे।

प्रिंटिंग और पब्लिशिंग की नवीनतम तकनीक से लैस होने का दावा करनेवाली प्रीपेस इंडिया लि. के मखमली सूचना पट्ट पर अगली सुबह मोटे अक्षरों में एक सूचना टँगी थी – ‘पर्सनल मोबाइल फोंस आर नॉट अलाउड इन साइड द कंपनी।’

आज तो लंच टेबल पर मोबाइल प्रकरण ही छाया रहता यदि नई मीटिंग की खबर न आई होती।

‘सुना है अगले सोमवार को कोई मीटिंग हो रही है।’ जयराज ने हमेशा की तरह बातचीत का सिरा अपने हाथ में थाम लिया।

‘हाँ प्रो. मिजोटा की सलाह मानते हुए अब हमारी यूनिट भी ‘काइजेन’ पर काम करने जा रही है। अब इसके तहत हर महीने एक काइजेन मीटिंग बुलाई जाएगी।’ प्रोडक्शनवाले मित्रों के बीच मैंनेजमेंट की जानकारी रखनेवाला अकेला मैं ही था।

‘यह काइजेन कौन-सी बला है?’ सुरेखा ने जैसे सबकी जिज्ञासा को एक ही साथ बाहर कर दिया था।

‘दरअसल यह एक जापानी कार्यपद्धति है, जिसका मतलब है निरंतर प्रगति। इस फोरम में हर विभाग का एक प्रतिनिधि होता है। इसकी मीटिंग में हरेक प्रतिनिधि को अपने विभाग की समस्या बतानी होती है। फिर उसके बाद निदान के उपायों पर सामूहिक चर्चा होती है। और इस तरह पूरे महीने का एजेंडा तय होता है। और फिर अगली मीटिंग में पिछले एजेंडा की समीक्षा और नई कार्य योजना…। और हाँ – हर विभाग का प्रतिनिधि केंद्रीय मीटिंग में जाने के पहले अपने विभाग के कर्मचारियों की एक ऐसी ही मीटिंग बुलाता है। इस तरह समस्या समाधान की इस प्रक्रिया में कंपनी के एक-एक आदमी की भागीदारी हो जाती है।’ पीटर ने सोचा यदि एक-एक व्यक्ति की सुनियोजित भागीदारी से पूँजी का निर्माण हो सकता है तो उसका विकेंद्रीकरण क्यों नहीं। वह अपने कामरेड मित्रों को जरूर ‘काइजेन’ के बारे में बताएगा।

‘यह तो सत्ता में सबकी भागीदारी का समाजवादी फार्मूला जैसा लगता है…’ यह वाणी थी।

पीटर ने व्यंग्य से कहा, ‘हाँ, पूँजीवादी समाजवाद’।

डी.के. बिजनेस टूर पर था और मि. तनेजा अपनी कंपनी की एक्सपोर्ट यूनिट में होनेवाली पहली काइजेन मीटिंग की अध्यक्षता कर रहे थे। कॉर्पोरेट ऑफिस सहित कंपनी की दूसरी यूनिटों ने एक साल पहले ही प्रो. मिजोटा के सुझाव पर अमल कर लिया था। और उसके अपेक्षित परिणाम भी मिलने लगे थे लेकिन एक्सपोर्ट यूनिट की इस बैठक का यह स्वरूप मि, तनेजा के लिए अनपेक्षित था।

‘सर, वी नीड ए कंपलीट इन्फ्रास्ट्रक्चरल चेंज इन दिस यूनिट।’ मिसेज कौल इ.डी. के आगे अपनी वक्तृत्व कला के प्रदर्शन का यह नायाब मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहती थीं।

‘सर, जब तक कर्मचारियों को पीने का स्वच्छ पानी और समय पर चाय जैसी छोटी चीजें भी नहीं दी जाएँगी हम सेल्फ मोटिवेशन वगैरह की बात कैसे सोच सकते हैं?’ पीटर को पहली बार इस कंपनी में अपनी समाजवादी चेतना को स्वर देने का मौका मिला था।

‘सर इंक्रीमेंट और प्रमोशन की भी पारदर्शी पद्धति होनी चाहिए। सिर्फ ओवरटाइम के लिए रुकना इसकी अकेली कसौटी नहीं हो सकती है।’ मुझे अचानक ही पीटर का केस याद आ गया था।

‘सर इस इंडस्ट्री की दूसरी कंपनियों की तुलना में लोगों को हम बहुत कम तनख्वाह देते है। हमारे हाई इंपलाई टर्न ओवर रेशियो की यह एक बड़ी वजह है। मैं सोचती हूँ हमें इस पर भी ध्यान देना चाहिए।’ पर्सनलवाली मोनिका के इस कथन ने सबको सुकून पहुँचाया था।

यूनिट हेड की अनुपस्थिति ने जैसे पूरी कंपनी को अपनी समस्याओं पर खुलकर बोलने का मौका दिया था। डोमेस्टिक प्रिंटिंग यूनिट की यूनियन को बखूबी हैंडल करनेवाली मि. तनेजा किसी अदृश्य आशंका से घिर गए थे। उनकी परेशानी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता था कि ‘नो स्मोकिंग’ की तख्ती को मुँह चिढ़ाते वे लगातार सिगरेट फूँक रहे थे। पूरा कमरा सिगरेट के धुएँ और शोर-शराबे से भर गया था।

बिजनेस टूर से लौटन के बाद जब डी.के. अपनी रिपोर्ट देने गया तो मि. तनेजा ने सख्त शब्दों में अपनी चिंता जताई, ‘मैंने पिछले दिनों तुम्हारी यूनिट की जो हालत देखी है उसमें मुझे किसी गंभीर खतरे की आहट दिखती है। विद्रोह की जो चिंगारी वहाँ धुआँ रही है वह कभी भी भड़क सकती है। तुम आज से ही अपनी यूनिट में सबके लिए मिनरल वाटर की व्यवस्था का आदेश दे दो।’

‘लेकिन सर, इस तरह तो वे रोज एक नई माँग ले कर हमारे सिर पर आ बैठेंगे।’ डी.के. खुद को मैनेजमेंट का सच्चा प्रतिनिधि साबित करना चाहता था।

तुम अभी भी कच्चे खिलाड़ी की तरह बात कर रहे हो। पानी पर कुछ हजार खर्च करके कंपनी का कितना बड़ा फायदा हो सकता है, तुम्हें इसका तनिक भी अंदाजा नहीं है। फिलहाल जो आग तुम्हारे यहाँ लगी है, उस पर कुछ तो पानी डालना ही होगा।’

‘ओ के सर।’

‘आगे से यह भी ध्यान रखो कि ‘काइजेन’ प्रोडक्शन और बिजनेस संबंधित मुद्दों पर चर्चा के लिए है, इंप्लाइज वेलफेयर पर भाषण करने के लिए नहीं।’

स्लोगन कांटेस्ट के बाद तो डी.के. …9000 को भूल ही गया था। लेकिन इ.डी. की चिट्ठी ने उसे फिर से हरकत में ला दिया। कमिटी में हर विभाग के प्रभारी का होना जरूरी था। रेडबेल का लीडर आशुतोष नौकरी छोड़ चुका था। ग्रुप लीडर न होते हुए भी पीटर अपने विभाग में सबसे वरिष्ठ था। क्वालिटी एश्यूरेंस वालों ने उसे भी कमिटी में शामिल कर लिया। इंटरनल ऑडिट का काम तेजी से चल रहा था। इसी बीच एक्सटर्नल आडिट के मद्देनजर हर विभाग का प्रजेंटेशन होना था। विभागीय रिपोर्ट और स्लोगन कांटेस्ट दोनों बातें डी.के. की स्मृति का स्थायी हिस्सा बन चुकी थीं। डॉ. शारदा और डॉ. वेंकट के अलावा निर्णायक मंडल का एक सदस्य वह खुद भी बन गया। ऑन द स्पॉट मार्किंग और रिजल्ट का प्रावधान था। पीटर ने कमाल का प्रजेंटेशन दिया। उसकी पूरी प्रजेंटेशन के दौरान डी.के. का चेहरा लाल से लालतर होता गया। तालियों की गड़गड़ाहट से तिलमिलाया डी.के. बीच में ही उठकर बाहर निकल गया। उसने सोचा ‘ही स्पीक्स रीयली वेल। उसके भीतर लीडरशिप क्वालिटी भी है।’ उसे लगा वह काफी असुरक्षित हो गया है। उसे मि. तनेजा की बात भी याद हो आई –

‘शुक्र है कि अभी इस आग को हवा देनेवाला कोई नहीं उभरा है तुम्हारी यूनिट में। तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले दस वर्षों में मि. तलवार ने यहाँ कोई यूनियन नहीं बनने दी। यह तलवार की सबसे बड़ी उपलब्धि है और तुम्हारे लिए सबसे बड़ी चुनौती।’

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डी.के. ने सोचा वह पीटर को कभी प्रोमोट नहीं करेगा। उसकी प्रतिभा को कुचल देगा वह। ‘देखता हूँ कैसे निकल पाता है वह मुझसे आगे। लेकिन वह यूनियनबाजी पर उतर आया तो… तब तो उसकी खुद की नौकरी खतरे में पड़ सकती है।’ इस आशंका भर से ही वह पसीने-पसीने हो गया।

उधर कांफ्रेंस हॉल में डॉ. शारदा पीटर के प्रेजेंटेशन को सर्वश्रेष्ठ घाशित कर रही थीं और इधर डी.के. अपने लैपटॉप पर पीटर का ट्रांसफर लेटर टाइप कर रहा था।

अगले दिन बीमार होने के कारण पीटर दफ्तर नहीं आया। रात को मोनिका ने उसे फोन किया – ‘डी.के. तुम्हें बैंगलोर भेज रहा है। आज शाम तुम्हारा ट्रांसफर लेटर उसने तुम्हारे पते पर कूरियर करवा दिया है।’

पीटर अचानक ही सामने आए ट्रांसफर की इस गुत्थी को नहीं समझ सका – ‘मैं तो कल दफ्तर आता ही फिर उसने ट्रांसफर आर्डर कूरियर से क्यों भेजा?’ – उसे उसमें किसी साजिश की बू आई। ‘बैंगलोर कब तक ज्वाइन करना है, बताओगी?’

‘अगले सोमवार तक।’

उसके तुरंत बाद पीटर ने मुझे फोन किया। मैं भी असहाय था। इस मामले में तो मेरी कोई रिपोर्ट भी उसकी मदद नहीं कर सकती थी। उसकी हालत मुझे चक्रव्यूह में फँसे अभिमन्यु सी लगी।

पीटर ने मि. मुरगन को फोन मिलाया। मि. मुरगन बैंगलोर यूनिट में कॉपी एडीटिंग के हेड थे। मि. मुरगन की बातों ने पीटर को और परेशान कर दिया था – ‘यहाँ तो कोई नया रिक्रूटमेंट नहीं हो रहा। सच तो यह है कि यहाँ काम बहुत कम रह गए हैं। हम सब नई नौकरी तलाश रहे हैं। पता नहीं कब रिट्रेंचमेंट आर्डर आ जाए।’

पीटर ने अपनी मेडिकल लीव अगले सोमवार तक बढ़ाने के लिए अर्जी मि. बरुआ को भेज दी। उसके कहे अनुसार उसकी पत्नी ने कूरियर लौटा दिया – ‘यहाँ कोई पीटर नहीं रहता।’ उसे मालूम था कि एक बार ट्रांसफर लेटर स्वीकार करने के बाद खेल उसके हाथ से निकल जाएगा।

मंगलवार की सुबह जब पीटर दफ्तर आया तो सेक्यूरिटी गार्ड ने उसे गेट पर ही टोका – ‘बरुआ साहब ने आपको यहीं रुकने को कहा है।’

‘मैं यहाँ क्यों रुकूँ? उन्हें कहना कि मैं अपनी सीट पर हूँ।’ और वह धड़धड़ाता हुआ अंदर दाखिल हो गया।

‘सर, आप अपनी सीट पर चले गए तो मेरी नौकरी चली जाएगी। प्लीज आप रिसेप्शन पर ही बैठ जाइए… मेरी खातिर।’ रामप्रीत कातर आवाज में उसके पीछे हो लिया था।

सेक्यूरिटी गार्ड की नौकरी की बात ने पीटर को रिसेप्शन पर ही रोक दिया। उसने वहीं से मि. बरुआ को फोन किया।

‘मि. पीटर आप आज ही बैंगलोर के लिए रवाना हो जाएँ।’

‘मैं बैंगलोर नहीं जाना चाहता। आप मुझे अपनी सीट पर बैठने से भी नहीं रोक सकते। मैं मि. डी.के. सिंह से बात करना चाहता हूँ।’

‘लेकिन वे आपसे नहीं मिलना चाहते हैं।’

‘तो फिर मैं अपनी सीट पर जा रहा हूँ। यदि वे जरूरी समझें तो मुझे बुलवा लें।’

‘नहीं आप वहीं बैठिए। मैं उनसे फिर पूछता हूँ।’

दस मिनट के बाद डी.के. ने उसे अपने कमरे में बुलाया – ‘पीटर, रेडबेल पब्लिशर्स का काम हम बैंगलोर शिफ्ट कर रहे हैं। अतः कंपनी चाहती है कि तुम बैंगलोर जाओ।’

‘लेकिन सर मैं वहाँ नहीं जा सकता। मेरी पत्नी दिल्ली में काम करती है। उसका जॉब ट्रांसफरेबल नहीं है। और फिर मेरी बेटी भी छोटी है।’

‘इट इज योर प्रॉब्लम। द कंपनी कांट वेयर यू ऐज ए कॉस्ट सेंटर।’

‘बट सर, आई कैन बी एकोमोडेटेड समह्वेयर एल्स। बुक्स सेक्शन में तो कॉपी एडीटर्स की बहाली भी हो रही है और मैं जर्नल्स से पहले तो बुक्स सेक्शन में ही था। मुझे वहाँ के तौर तरीके भी मालूम हैं।

‘लेकिन बैंगलोर वालों को रेडबेल का काम नहीं मालूम न। उन्हें ट्रेन कौन करेगा?’

‘सर यहाँ रेडबल सेक्शन में मैं अकेला ही तो काम नहीं करता?’

‘कंपनी तुम्हें ज्यादा काबिल समझती है।’

‘मेरी काबिलियत के इस प्रमाण-पत्र के लिए शुक्रिया। लेकिन ट्रेनिंग देने का काम तो पंद्रह दिनों में भी हो सकता है इसके लिए परमानेंट ट्रांसफर की क्या जरूरत है। मैं वादा करता हूँ कि पंद्रह दिनों में वहाँ डिपार्टमेंट एस्टैबलिश कर दूँगा।

‘पीटर प्लीज ट्राई टू अंडरस्टैंड मी।’

‘सर आप ऐसा क्यों नहीं कहते कि आपको मेरी जरूरत नहीं है।’

‘तुम ऐसा कैसे कह सकते हो?’

‘यदि ऐसा नहीं है तो मेरा ट्रांसफर लेटर कूरियर करने की क्या हड़बड़ी थी? मैं दफ्तर नहीं आता क्या? मुझे इतना मूर्ख मत समझिए। मुझे यह भी मालूम है कि बैंगलोर में नए कॉपी एडीटर्स की कोई जरूरत नहीं है। वहाँ तो वैसे ही सरप्लस एडीटर्स हैं।’

‘मि. पीटर याद रखिए कि आप एक कापी एडीटर हैं, जासूस नहीं।’

‘सर यह जासूसी नहीं है। यदि सामनेवाली की नीयत अच्छी नहीं हो तो आदमी को यह जानने का हक है कि पर्दे के पीछे क्या चल रहा है।’

‘प्लीज पीटर, मुझमें अपराध-बोध मत जगाओ।’ डी.के. ने पैंतरा बदला।

‘सॉरी सर, आखिरी दम दक मैं आपमें अपराध-बोध जगाता रहूँगा।’

पीटर की तल्खी ने डी.के. को हिलाकर रख दिया। अपने थोड़े से बालों को उसने जोर से भींच लिया। अगले ही पल वह अपनी सीट से उठ गया और कमरे में चहलकदमी करने लगा।

‘आपकी नीयत इतनी ही साफ है तो आप इस कदर विचलित क्यों हैं?’

‘मुझे सोचने दो। मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ। आई नो यू आर ए वेरी गुड कॉपी एडीटर एंड अ नाइस गाइ टू। वुड यू लाइक टू हैव ए कप ऑफ टी?’

‘आप जैसा चाहें।’

डी.के. ने खुद से दो प्याली चाय बनाई फिर से ऊर्जा बटोरी और एक नई चाल फेंकी – ‘पीटर ऐसा करो, तुम तीन महीने के लिए वहाँ चले जाओ, सिर्फ तीन महीने।’

‘ठीक है मैं चला जाऊँगा, लेकिन यह आपको लिखित देना होगा कि मैं सिर्फ तीन महीने के लिए बैंगलोर जा रहा हूँ। उसके बाद फिर यहीं आ जाऊँगा। यानी ट्रांसफर नहीं डेपुटेशन।’

‘फिर वही जिद। तुम यह क्यों नहीं समझते कि मेरे ऊपर भी कोई है।’

‘मैं कुछ और समझूँ या नहीं इतना जरूर समझता हूँ कि आपकी नीयत ठीक नहीं है।’

‘तुम नहीं जानते ऐसा करके तुम अपनी नौकरी से खेल रहे हो।’

‘मुझे इस नौकरी की परवाह नहीं है मि. सिंह। सात हजार की तनख्वाह मेरे लिए कुबेर का खजाना नहीं है। पिछले आठ साल में कई नौकरियाँ की और छोड़ी है मैंने। आप जैसे कई यूनिट हेड भी देखे हैं मैंने, आज तक कोई बेवकूफ नहीं बना पाया है मुझे। मैं ऐसी नौकरी को ठोकर मारता हूँ। यह लीजिए मेरा इस्तीफा और तीन महीने की पूर्व नोटिस।’ पहले से तैयार त्याग-पत्र पीटर ने डी.के. के आगे सरका दिया।

डी.के. के लिए यह अनपेक्षित था। उसके अहंकार का सामना अब तक किसी स्वाभिमानी से नहीं हुआ था।

‘यदि तुम बैंगलोर नहीं जाना चाहते तो आज ही क्यों नहीं नौकरी छोड़ देते?’

‘किसी को नौकरी से निकालना इतना भी आसान नहीं है मि. सिंह। बेहतर हो आप कंपनीज ऐक्ट और लेबर लॉज की किताबें भी पढ़ लें। मैं आज क्या अभी नौकरी छोड़ सकता हूँ। बशर्ते कि तीन महीने की तनख्वाह और इस साल का बोनस आप अभी भुगतान कर दें।’

‘वह तो ठीक है, लेकिन इसके बाद तुम करोगे क्या?’ अपने अधिकारों के प्रति पीटर की अतिरिक्त सतर्कता ने उसे परेशान कर दिया। उसे लगा पीटर का अब और रुकना उसके लिए नई मुसीबत खड़ी कर सकता है।

‘आपकी नौकरी छोड़ने के बाद मैं क्या करूँगा, कहाँ जाऊँगा इससे आपको कोई मतलब नहीं होना चाहिए।’

‘मुझसे बदला तो नहीं लोगे?’ डी.के. के अवचेतन में बसी यूनियन वालों से मार खाते पर्सनल मैनेजर की छवि अचानक हरकत में आ गई।

‘मैं आपको इस लायक नहीं समझता। लेकिन याद रखिए, आप जो कर रहे हैं वह उचित नहीं है।’

‘तुम मुझे गलत समझ रहे हो। यह टॉप मैनेजमेंट का फैसला है। तुम जब कभी बैंगलोर जाने को राजी हो जाओ, यहाँ आ जाना, प्रीप्रेस इंडिया तुम्हारा स्वागत करेगी।’

‘मैंने कभी अपने फैसले पर पश्चाताप नहीं किया है मि. सिंह।’

इस बीच मंथली एम.आई.एस. की फाइल ले कर मैं डी.के. के कमरे में आया। पीटर की इफीशिएन्सी सबसे ज्यादा थी। डी.के. ने रिपोर्ट को टेबुल पर पलटकर रख दिया और एकाउंट्स डिपार्टमेंट में फोन मिलाया – ‘मि. तिवारी, पीटर जॉसेफ के सारे ड्यूज का आज ही भुगतान कर दीजिए और नगद। उन्हें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।’

मुझे पीटर का इस तरह जाना अच्छा नहीं लग रहा था। इच्छा हुई डी.के. से कहूँ ‘सर पीटर सबसे अच्छा कॉपी एडीटर है उसे मत जाने दीजिए।’ लेकिन मैं चुप रहा। पीटर की पत्नी की तरह मेरी पत्नी सरकारी नौकरी नहीं करती थी।

शाम घर लौट कर भी मुझे चैन नहीं था। मुझे रह-रहकर पीटर की याद आ रही थी। मैंने सोचा मुझे पीटर से मिलना चाहिए। उसे सांत्वना देनी चाहिए कि उस जैसे योग्य व्यक्ति के लिए नौकरी की कमी नहीं है। इसी उधेड़बुन में नौ बज गए थे। क्या उसके यहाँ जाने का यह सही समय है? शायद हाँ… शायद नहीं… अभी उसे मेरी जरूरत है। मैंने गाड़ी में किक लगाई। मैं अब उसके घर के आगे खड़ा था। मेरा उहापोह फिर शुरू। दरवाजा बंद है। खिड़की खुली हुई… पीटर और मीरा रात के खाने के साथ समाचार देख रहे हैं। ‘उफ! हर आधे घंटे पर वही बासी खबरें’ पीटर की आवाज बाहर तक आ रही है। कि तभी न्यूज ऐंकर अतिरिक्त हरकत में आया – ‘अभी-अभी खबर मिली है कि सरकार ने भारत विद्युत निगम सहित चार सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश का फैसला लिया है। इस बारे में और जानकारी प्राप्त करने के लिए हम बात करते हैं अपने संवाददाता…’ पीटर का उठा हुआ कौर बीच में ही रुक गया। उसने मीरा की तरफ देखा, वह अचानक ही अपनी कंपनी के विनिवेश की इस खबर से स्तब्ध थी। पीटर की आँखों में जो दहशत काँपी थी वह अन्ना के लिए थी। मीरा की आँखों में जैसे यही भाव था। वह अन्ना के सिरहाने जो खड़ी हुई, उसने अच्छी तरह अन्ना को चादर से ढँका। अन्ना सो रही थी। पीटर भी उसकी बगल में आ खड़ा हुआ, उसने कुछ बुदबुदाते हुए अन्ना के सिर पर हाथ रखा, उसका माथा सहलाया। मीरा ने अन्ना को आगोश में ले लिया। अन्ना अब भी बेखबर सो रही थी।

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और अन्ना सो रही थी… – Aur Anna So Rahi Thi

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