आउटसाइडर | राकेश बिहारी
आउटसाइडर | राकेश बिहारी

आउटसाइडर | राकेश बिहारी – Outsider

आउटसाइडर | राकेश बिहारी

‘उसे आज भी मना किया या नहीं?’ घर लौटते ही रोज की तरह विशाल ने पहला सवाल यही किया था –

यामिनी कुछ कहती इसके पहले उसे वह दिन याद हो आया जब विशाल ने पहली बार ऐसी बात की थी – ‘आजकल सृजन कुछ ज्यादा ही आने-जाने लगा है – मेरी गैरमौजूदगी में उसका इस तरह आना मुझे पसंद नहीं है -‘ तब तो यामिनी को इस बात पर यकीन ही नहीं हो रहा था कि विशाल सृजन के लिए ऐसा भी कह सकता है – लेकिन कभी प्यार से तो कभी दुलार से, कभी समझाने के लहजे में तो कभी गुस्से में जब बार -बार ऐसी ही बातों की पुनरावृत्ति होने लगी, तो यामिनी को भी वस्तुस्थिति की गंभीरता का पता चला – हद तो उस दिन हो गई जब विशाल ने कहा – ‘यदि तुम उसे यहाँ आने से नहीं मना कर सकती तो फिर तुम भी लौट जाओ उसी के पास -‘

विशाल ने यह सब इतनी आसानी से नहीं कहा था – एक गहरी यातना थी इन स्वरों के पीछे – यामिनी ने कभी विशाल के आगे सृजन को तरजीह दी थी – फिर भी उसने अपनी दोस्ती पर उसका असर नहीं होने दिया – यह तो वक्त ने ऐसी करवट बदली कि यामिनी आज उसकी थी और तन्मय उन दोनों का बेटा – यामिनी और तन्मय के साथ काफी खुश था वह कि सृजन की आवाजाही ने उसके भीतर एक भय पनपा दिया – यामिनी को एक बच्चा चाहिए था, वह तो उसे मिल गया – अब वह सृजन के पास लौट जाए तो…? कानूनन तो अब भी वह सृजन की ही पत्नी है – ऐसे में वह सृजन के पास चली भी जाए तो वह उसका क्या बिगाड़ लेगा? कहीं यह सब उन दोनों की सोची -समझी चाल तो नहीं – बिना तलाक दिए इतनी आसानी से सृजन ने यामिनी को आखिर उसे कैसे सौंप दिया – भय और आशंका का यह भाव विशाल के अंदर रोज अपने पैर और फैलाता गया –

इधर जब भी वह शाम को घर लौटता वह देखता सृजन वहाँ पहले से ही मौजूद है – तन्मय, यामिनी और सृजन को इतना घुला-मिला देख वह खुद को बाहरी आदमी जैसा महसूस करने लगता – मन ही मन वह खुद को उनसे इतना दूर कर लेता कि उसे लगता मानो वह उनकी गृहस्थी में घुसपैठिए की तरह जबर्दस्ती घुस आया हो – यामिनी का उसकी पसंद की कोल्ड कॉफी बनाना और फिर उससे हँसना-बोलना या फिर तन्मय के लिए सृजन का खिलौना और चॉकलेट्स लाना सब उसका मुँह चिढ़ाते – वह चाहकर भी सृजन से पहले दफ्तर नहीं छोड़ सकता – सृजन का तो अपना व्यवसाय है, जब चाहे घर चल दे – लेकिन उसकी तो नौकरी ठहरी – चलते-चलते भी कोई अर्जेंट मीटिंग या बॉस का बुलावा या फिर कोई जरूरी रिपोर्ट उसका पीछा नहीं छोड़ती है – ऐसे में यामिनी और तन्मय के साथ एक खुशगवार शाम न बिता पाने की टीस उसके मन में बनी रहती है – और उस पर से सृजन की मौजूदगी घाव पर नमक का काम करती है –

शुरू-शुरू में उससे जल्दी घर आने की जिद करनेवाला तन्मय, अकेलेपन और बोरियत की जिक्र करनेवाली यामिनी अब उससे इस बावत कोई शिकायत भी नहीं करते – पहले जितनी उलझन उसे इन शिकायतों से होती थी उससे कहीं ज्यादा दुख अब उसे इस बदली हुई स्थिति से होता है – उसे लगता है जैसे यामिनी और तन्मय उसकी दुनिया से दूर चले जा रहे हैं और उसमें उन्हें रोकने की ताकत बची ही नहीं है – ऐसे में अक्सर उसे पिछले दिन याद आते है – तो क्या तब सृजन ने भी ऐसा ही महसूस किया होगा – तब तो उसने बहुत ही आसानी से कह दिया था – ‘यामिनी सोचो अगर परिस्थिति ठीक विपरीत होती, उस दित तुम माँ बनने की क्षमता खो बैठती तो क्या सृजन चुपचाप तुम्हें यूँ ही झेलता रहता -‘ और उसकी इस बात ने तो जैसे चिंगारी का काम किया था – वह जानता था कि जो आग वह लगा रहा है वह बहुत भयंकर परिणाम लाएगी – लेकिन वह जान-बूझकर यह सब करता रहा – तो क्या वह बदला ले रहा था – नहीं दोस्त था वह – दोस्त की हैसियत से ही वह यामिनी के घाव पर मरहम लगाने चला था, और वह भी तब जब सृजन यामिनी की हालत से बेखबर अपने ही दुखों की खोल में कछुए की तरह सिमटा जा रहा है – आखिर वह कैसे सह लेता यह सब चुपचाप – उसके लिए तो हमेशा से यामिनी की खुशी महत्वपूर्ण रही है – वे दिन उसे अब भी नहीं भूल हैं जब यामिनी की एक हँसी से उसके मन में हजार फूल खिलते थे और उन्हीं दिनों सृजन उनके जीवन में किसी धूमकेतु की तरह उग आया था, अपने अद्भुत प्रकाश से यामिनी को चमत्कृत करता हुआ – पूरी मित्रमंडली सृजन की दीवानी हो रही थी पर यामिनी का वह दीवानापन उसके लिए असह्य था – वह खुद को समझाता कि यदि वह यामिनी का मित्र हो सकता है तो फिर कोई और क्यों नहीं – पर दिमाग का यह बोल दिल को सुनाई नहीं देता था – उसने तमाम ईर्ष्या-जलन को मन के किसी अँधेरे कोने में दबाकर सृजन की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था, दो से तीन सही – यही एक तरीका था तब यामिनी के साथ खुश रहने का – उसकी कोशिश तब कामयाब भी रही थी – उसे तो पता भी नहीं चला कि नाटक करते-करते कब वह सृजन को सचमुच प्यार करने लगा – उनकी तिकड़ी पूरे कॉलेज में त्रिगुट के नाम से मशहूर हो चली थी – इसी बीच उसने सृजन और यामिनी की निकटता को प्रेम संबंधों में बदलते, अँखुआते और पनपते देखा – वह कर भी क्या सकता था सिवाय उनके प्रेम का गवाह बनने के – यामिनी ने उसके और अपने बेनाम रिश्ते को दोस्ती का नाम दे दिया था, हाँ प्रेम का अपरिभाशित रिश्ता अब उसका सृजन से था – वह लाचार था – दोस्ती से प्रेम और फिर विवाह तक के सफर को वह अपने फर्ज के चौखटे से बेबस निहारता रहा – यामिनी की खुशी की खातिर उसे यह भी मंजूर था – तब से अब तक अपने लिए आनेवाले हर रिश्ते में वह यामिनी सा स्वभाव, उसकी कोमलता, उसकी दृढ़ता, उसका व्यक्तित्व और न जाने बहुत कुछ की तलाश में वह कई रिश्ते खारिज कर चुका था – परछाइयाँ आईने और जल में उगती हैं, असल जिंदगी में नहीं – वही यामिनी आज अकेली थी, पूरी टूटी हुई और दुखी भी – वह अपने कंधे कैसे आगे नहीं करता – सृजन चाहे जो भी समझे – वह बदला नहीं था, यह यार था सिर्फ प्यार –

विशाल ने तब यामिनी से कहा था – ‘हमारी शादी हो जाए तो इसमें बुरा क्या है – तुम फिर से माँ बन सकोगी, मेरा सपना पूरा हो जाएगा और फिर उसके दुख का कारण भी तो एक बच्चे का न होना ही है न? क्या हमारी संतान उसकी संतान नहीं होगी? यामिनी जब मेरे त्याग की बारी थी मैंने की, आज बारी उसकी है,’ लेकिन तब कहाँ समझ पाया था वह कि इतना आसान नहीं होगा यह सब – अतीत को किसी किताब के पन्ने की तरह बेलाग फाड़कर नहीं जी पाएगा वह – तन्मय पर सृजन का कोई भी अधिकार, यामिनी से उसकी साधारण-सी भी बात छलनी कर जाएँगे उसे – वो तो महज तर्क थे, भोथरे तर्क, एक विजेता के तर्क जो हारनेवाले को महज तसल्ली के लिए दिए जाते हैं –

कहाँ सहन कर पाता है वह तीनों को एक साथ हँसते-बोलते देखना – औपचारिकता भर बतियाकर सिमट जाता है वह अपने कमरे में, लगातार सिगरेट के कश लेता – यामिनी कमरा साफ करते वक्त देखती तो होगी ही सिगरेट के जले-अधजले टुकड़े – लेकिन क्यों नहीं टोकती है वह उसे इसके लिए कि क्यों पीने लगा है वह आजकल इतनी ज्यादा सिगरेट – एक बार भी तो सृजन नहीं पूछता है उससे कि क्यों सिमट जाता है वह अपने कमरे में, क्यों नहीं बैठता वह उनके साथ – उसकी आँखों में बसी उपेक्षा – नफरत कैसे पी पाता होगा वह, किस सहारे… सिर्फ यामिनी और तन्मय के सहारे?

हाँ, कहा था उसने यामिनी से कि यदि वह नहीं मना कर सकती है उसे यहाँ आने से तो लौट जाए वह भी उसी के पास – पर किस यातना से कहा था उसने यह सब कोई नहीं जानता – कटी-बँटी यामिनी नहीं चाहिए उसे, उसका तन्मय सिर्फ उसका है, क्या अधिकार बनता है उस पर सृजन का – आखिर क्या गलत कहा उसने – कभी सृजन ने भी तो कहा था यामिनी से – ‘विशाल बहुत ज्यादा आने लगा है इन दिनों – उसका इतना आना-जाना ठीक नहीं यामिनी -‘

कभी मैंने भी विशाल के लिए यही सोचा था कि वह नहीं आए मेरी गैरमौजूदगी में – पर आज उसकी आँखों में छपी यही इबारत मुझे जीवनहीन कर देती है – रोज-रोज डरता हूँ कि कह ही न दे वह मुझे… मत आया करो मेरे घर – हर एक दिन के बीतने पर चैन की साँस लेता हूँ मैं – आज बच गया मैं, एक दिन और जी लिया – मैं जानता हूँ तन्मय और यामिनी मेरे नहीं – छलावा है उनका प्यार – पर मेरी जिंदगी इसी छलावे के सहारे चल सकती है – विशाल की जिंदगी में जब यामिनी नहीं थी तब भी एक आस थी – कोई-न-कोई मिल ही जाती उसे – पर मुझे… जिसकी पत्नी ही उसकी पुंसत्वहीनता के कारण छोड़ गई हो, उसकी जिंदगी में दूसरी कौन आएगी –

वह नहीं चाहता कि हर शाम विशाल के घर जा पहुँचे – पर दफ्तर के बाद का खाली समय उसे काटने को दौड़ता है – घर के कोने-कोने से जुड़ी यामिनी की स्मृतियाँ परेशान करती हैं उसे – उसे लगता है यामिनी यहीं कहीं है – किचेन में खाना पका रही होगी – अभी उसे ड्रिंक लेता देख नाराज होगी, चिल्लाएगी – वह जानता है कि झूठ है यह सब – यामिनी चली गई है उसकी जिंदगी से अब – लेकिन उसका भरम और उसकी बेबसी उसका पीछा नहीं छोड़ते – वह खुद को समझाना चाहता है, देख यामिनी तेरी नहीं है, वह विशाल की है, विशाल के बच्चे की माँ है, तू उसका कुछ भी नहीं है – वह तेरे लिए जो भी करती है, सहानुभूतिवश करती है – लेकिन पता नहीं उसकी गैरत कहाँ चली गई है – जिस हिम्मत और कलेजे से उसने यामिनी को विशाल को सौंपा था उसी हिम्मत से उसे इधर का रुख भी नहीं करना चाहिए था लेकिन उसकी कमजोरी तो दिन-ब-दिन उस पर हावी होती जा रही है –

ऐसा भी नहीं है कि सृजन ने कोई कोशिश ही नहीं की हो कि वह चुपचाप उनकी जिंदगी से निकल जाए – दो बरस से ज्यादा गुजर गए थे – विशाल के बार-बार बुलाने के बावजूद वह उनके घर नहीं गया, सौ बहाने होते थे उसके पास – लेकिन उस दिन विशाल दफ्तर ही चला आया था और उसे खींचकर अपने घर लेता आया – वहाँ, जहाँ उसका सपना मूर्त्त रूप में उसकी राह देख रहा था – उसे एक हद तक सुकून हुआ कि तन्मय बिल्कुल यामिनी जैसा है, उसके चेहरे पर विशाल की कोई छाप नहीं थी – उसे लगा तन्मय कुछ-कुछ उसके जैसा है, उसने सामने के आईने में अपनी शक्ल देखी – अपनी बेवकूफी पर उसे गुस्सा आया – वह पागल हो गया है कि अपने चेहरे से तन्मय का चेहरा मिला रहा है, यह जानते हुए भी कि यामिनी ने उसे सिर्फ इसलिए छोड़ा था कि वह पिता नहीं बन सकता –

तन्मय को देख उसे उस रात की यामिनी याद हो आई थी – ‘जानती हो आजकल हर खूबसूरत बच्ची में मुझे अपनी बेटी का चेहरा नजर आता है – कल्पना में कई बार मुझे वह दौड़ती-भागती दिखती है और मैं उसके पीछे दौड़ता रहता हूँ -‘ सृजन ने अपना हाथ यामिनी के उभर आए पेट पर रख दिया था –

‘बेटी नहीं बेटा – वह भी बिल्कुल तुम्हारे जैसा -‘ यामिनी की माँग का सिंदूर उसके चेहरे पर पसर आया था –

‘नहीं, मुझे बेटी ही चाहिए -‘

‘मैंने कह दिया न बेटा तो बस बेटा -‘

‘क्या औरों की तरह तुम्हें भी बेटियाँ पराई और जी का जंजाल लगती हैं – तुम भी तो किसी की बेटी हो यामिनी – तुम नहीं होती तो… मैं तो चाहता हूँ कि हमारी बच्ची बिल्कुल तुम्हारे जैसी हो -‘

‘मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा – मैं तो अपनी पहली संतान इसलिए बेटा चाहती हूँ कि उसमें तुम्हारा बचपन देख सकूँ – मैं तो अपने बेटे के बहाने तुम्हारा वह रूप देखना चाहती हूँ जो नहीं देख सकी – मैंने बेटा नहीं चाहा है सृजन, तुम्हारा प्रतिरूप चाहा है -‘ कहते-कहते यामिनी ने शर्म से अपना सिर सृजन की छाती में छुपा लिया था –

सपनों के साये तले दिन पंख लगाकर उड़ते जा रहे थे –

‘लगता है दोनों पैर आगे की तरफ चला रहा है – अभी से इतनी शैतानी कर रहा है तो बाद…’ पीड़ा और आनंद के भाव एक ही साथ यामिनी के चेहरे पर छलक आते – नए-नए आकार लेते ये सपने यथार्थ बनते ही कि एक दिन कहर टूटा था – यामिनी को प्रसव वेदना शुरू हो गई थी – उस दिन कार में यामिनी को सँभालती उसकी माँ थी, और आगे की सीट पर उसके साथ उसका संबल बना विशाल – गाड़ी वह खुद चला रहा था कि अचानक दस-बारह वर्ष का एक लड़का दौड़ता हुआ सड़क पार करता दिखा – उसे बचाने के चक्कर में सृजन अपना संतुलन खो बैठा और पलक झपकते ही गाड़ी सड़क से लगभग पंद्रह फीट नीचे जा पहुँची – क्षण भर में जैसे सब कुछ बदल गया – माँ ने तो दुर्घटना स्थल पर ही दम तोड़ दिया – उसे जब होश आया डाक्टर ने उसे इतना ही कहा था – ‘सॉरी मि. सृजन, हम बच्चे को नहीं बचा सके – यामिनी अब खतरे से बाहर है – और आप… कहते-कहते डाक्टर की आवाज उसके कंठ में ही अटकी थी… पर उसने पुनः सूत्र थामा… अब आप कभी पिता नहीं बन सकते – फिलहाल यही हमारी उपलब्धि है कि आप दोनों सुरक्षित है – सृजन की जलती आँखों में न जाने कितने सपने कौंधे और बुझ गए थे –

समय के साथ शरीर के घाव भले भर गए हों लेकिन उनके मन का टभकना और बढ़ गया था – कंधे से लगी हिचकियाँ लेती यामिनी को चुप कराता अक्सर वह भी रो पड़ता और हर बार न जाने क्यों उसे यह लगता कि उन दोनों की रुलाई के बीच एक तीसरी आवाज भी शामिल है – एक कच्ची-दूधिया रुलाई की, उनके बच्चे की रुलाई की –

यामिनी सँभल नहीं पा रही थी कि वह उसे सँभाल नहीं पा रहा था – शायद इसलिए कि उसे लगता अपराधी वही है – उसी के चलते यामिनी की गोद भरते-भरते रह गई – उसी के कारण अब वह कभी माँ नहीं बन सकेगी – ऐसे में विशाल का आना उसे राहत ही देता था – अब थोड़ी देर को तो मुक्त हो सकता है वह – विशाल सँभाल लेगा उसे, थोड़ा खिला-पिला भी लेगा वह उसे शायद – उससे तो यामिनी खाती ही नहीं है कुछ आजकल – वह ऊब रहा था इस वातावरण से, वह भागना चाहता था इन सबसे, अपने अपराधबोध से – इस मुक्ति का तात्कालिक रास्ता विशाल से ही होकर जाता था –

भागते-भागते उसे यह पता ही नहीं चला कि कब विशाल और यामिनी इतने करीब आ गए, वह कब इतना आगे निकल आया था कि मुड़ते-मुड़ते भी देर हो गई – सृजन के भीतर का पुरुष तो कब का मर चुका था, एक बेचारा और लाचार इनसान करता भी तो क्या… अब उसके बस का कुछ भी नहीं था – उसकी रातों की नींद, दिन का चैन सब कपूर की मानिंद हवा हो गए थे – कभी उसे यामिनी पर बहुत-बहुत क्रोध आता तो कभी मन ही मन वह विशाल पर चीखता और कभी खुद की नियति पर कराह उठता था वह – वह चाहकर भी यामिनी को रोक नहीं सकता था। सो आगे बढ़कर उसे जाने दिया था उसने चुपचाप… उसने भूमिका बदली नहीं थी परिस्थितियों ने उसे जबरन नई भूमिका में धकेल दिया था और वह इस भूमिका में जाने को मजबूर था – उसने अदालती कारवाई की भी जरूरत नहीं समझी… जब दिल ही ना मिलते हों तो फिर कागज पर सही हो न हो क्या फर्क पड़ता है…

तन्मय से मिल कर हर रोज घर आने पर वह अपना चेहरा आईने में निहारता है – क्या सचमुच तन्मय उससे मिलता है कि खयाली पुलाव भर है यह उसका –

कभी वह सोचता है, क्या विशाल से भी यामिनी ने उसी तरह कहा होगा – मैं तुम्हारे जैसा बेटा चाहती हूँ, बिल्कुल तुम्हारे जैसा –

विशाल और यामिनी के प्रेम की निशानी है तन्मय इस सच को स्वीकारने में उसका कलेजा क्यों बैठ-सा जाता है? कितनी बार तो सोचता है वह कि अब नहीं मिलेगा वह तन्मय से लकिन हर बार खिंचा आता है वह उस तक इस दलील के साथ कि क्या छीन रहा है वह किसी का? सब कुछ तो लुटा दिया उसने, फिर क्या खुशी के दो पलों पर भी उसका हक नहीं…?

सृजन को तन्मय के साथ खुश देख कर यामिनी को भी अच्छा लगता था – उसे लगता उसने गलत निर्णय नहीं लिया था – तन्मय ने आखिर सबकी खुशियाँ लौटा दी थीं – हो सकता है कि ऐसा सोचकर वह अपने कई अपराधबोधों से मुक्ति चाहती हो – हाँ, एक अपराधबोध तो अब था ही उसके भीतर… तब भावना के बहाव में ऐसी बही जा रही थी कि कोई कूल-किनारा नजर नहीं आ रहा था… सिर्फ एक बच्चा, अपना बच्चा चाहिए था उसे – तब इसके लिए वह कुछ भी कर सकती थी, उसे उसका संपूर्ण परिवार चाहिए था – पर आज जब वह उन स्थितियों से बाहर आ चुकी है, अतीत पर नजर डालते ही खुद को कटघरे में खड़ी पाती है – क्या आज पूर्णता पा ली उसने? फिर यह ग्लानि किस बात की? विशाल सृजन की जगह कभी ले पाया क्या? कोई किसी की जगह कब भर पाता है – नियति तो वही है – सिर्फ खालीपन – संपूर्णता महज एक भ्रम है – और वह खुद अपने ही घरों में अजनबी की तरह… कभी सृजन ने कहा था ‘आजकल विशाल कुछ ज्यादा ही आने लगा है’ …आज विशाल भी कहता है – ‘उसे आज भी आने से मना किया या नहीं…’

…एक घर की तलाश में मटकती रही वह, समझती रही कि प्रेम से घर संपूर्ण बनता है – लेकिन अपने ही घर में वह एक ऐसा मेहमान बन कर रह गई, जो घरवाले की इच्छा पर अपना दिन बसर कर रहा हो – अब मेहमान को मेहमान निमंत्रित करने की छूट भला कैसे दी जा सकती है – सृजन के साथ जब जीवन शुरू किया तो लगा था एक सपना पूरा हुआ… शायद पूरा हो भी जाता लेकिन वक्त के काले साये घात लगाए बैठे थे कहीं, जो नोच कर ले गए थे उनके बच्चे को उसकी गर्भ से – सिर्फ बच्चा ही नहीं सृजन भी छिन गया था उससे ईर्ष्यालु, शक्की, अपने आप में लीन यह नया सृजन तो उसका था ही नहीं; कोई और ही आ पैठा था उसकी आत्मा में… विशाल के साथ भी जिंदगी चल ही रही थी, तन्मय के आ जाने से खुशियाँ भी थीं – पर सृजन के तन्मय से लगाव ने और उसके खुद के पाप-मुक्ति के इस भाव ने कि ‘सृजन अगर तन्मय से दो पल मिल कर खुश हो लेता है तो इसमें बुराई क्या है’ – ने फिर उसे उसकी हैसियत बता दी थी – दरअसल उसका कोई अपना घर था ही नहीं, जहाँ के छोटे-बड़े निर्णय उसके अपने होते – रोज रात विशाल का एक ही सवाल उसके अंतर्मन के चीथड़े कर डालता – फिर रात कब आई-गई उसे क्या मालूम – एक लाश-सी पड़ी रहती है वह उसकी बगल में – ‘खेल लो मुझसे – जो हृदय को नहीं पढ़ पाया, शरीर की भाषा क्या जानेगा?’ और सचमुच विशाल की तृप्ति में कहीं-कोई फर्क नहीं दिखा उसे – वह तब भी उतना ही तृप्त था जब वह शरीर और मन दोनों से उसके साथ थी और आज भी जब… उसे विश्वास ही नहीं होता था कि यह वही विशाल है जो जिंदगी के उस मोड़ पर उसकी हिम्मत और ताकत बन कर उभरा था जब वह लगभग विवेकशून्य थी – जब उसकी जिंदगी के सारे रंग बदरंग हो चले थे, विशाल ने उसे एक नई राह दिखाई थी, उसके मन के आकाश में एकबारगी फिर सपनों के संतरंगे धनुष टाँग दिए थे – क्या यह वही विशाल था?

कितने-कितने ताने, कितने-कितने इल्जाम सह रही थी तब वह…

‘इस निपूती का मुँह सुबह-सुबह क्या देख रही, तेरी कोख भी डाईन का घर बन जाएगी -‘ बगल की सुमित्रा चाची ने अपनी गर्भवती बहू को घर के अंदर लगभग धकेलते हुए कहा था – यामिनी अंदर तक निचुड़ गई थी…

और शरद पूनो की वह रात जब स्वच्छ धुले आकाश पर टँका चाँद खिड़की की सलाखों से जैसे घर में ही उतर आया था, वह अपने गम के साथ अकेली थी – सृजन हमेशा की तरह खुद को उलझाए अभी ऑफिस में ही अटका था – यामिनी की आँखों में नींद कहाँ – वह तो अभी भी करवटें बदल रही थी – कि तभी दूर किसी घर के ढोलक की थाप के बीच सोहर की धुन उठ पड़ी – ‘कभी तो मईया बोलेगा दीदी का लल्ला…’ उसे लगा जैसा उसका अपना ही बच्चा माँ-माँ कहकर उस तक दौड़ता हुआ आ रहा है पर तुरंत ही पहरुओं की आवाज ने उसकी तंद्रा तोड़ दी – उसका यह सपना अब कभी पूरा नहीं हो सकता – उसे लगा जैसे उसके शरीर की नस-नस खिंच रही है और उठ रहे है पीड़ा के अनंत हिलोर…

समाज और लोगों के तानों के बीच उठते इस असीम दर्द से जूझ सकती थी वह यदि सृजन हमेशा की तरह उसके साथ होता – उसके आँसू पोंछता, दिलासा देता, उसे सँभालता हुआ – पर सृजन तो भाग रहा था उससे लगातार और धकेल रहा था उसे विशाल के करीब जाने-अनजाने – यह सब उसकी समझ के बाहर था तब सृजन हमेशा इस ताक में रहता कि वह उसके सोने के बाद आए… उसकी उनींदी रातें सृजन की प्रतीक्षा में जागती रहतीं – वह चाहती थी, सृजन पहले की तरह हो जाए, भूल जाएगी वह बच्चे का दुख – बच्चा गोद भी तो लिया जा सकता है… बस सृजन…

हमेशा की तरह उस रात उसने सृजन को बेड स्विच ऑन-ऑफ करते हुए मुँह फेरकर सोने नहीं दिया – तमाम अकेली रातें उसके शर्म पर हावी होकर सृजन से जा लिपटी थीं – ‘सृजन मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती – मुझे तुम्हारा पहले जैसा प्यार चाहिए -‘ वह लिपट गई थी सृजन से किसी बेल की तरह – उसने बाँध लिया था सृजन को अपनी बाँहों में जैसे उफनती नदी में किसी ऊबते-डूबते को कोई सहारा मिल गया हो – वह चूस लेना चाहती थी उसके होठों से वह अमृत-रस जो उसके जीवन से रीत चला था – वह सौंप देना चाहती थी सृजन को अपना सारा वजूद, वजूद में छिपे गम – वह बताना चाहती थी कि एक-दूसरे के सहारे जी सकते हैं खुशी-खुशी वे अपना जीवन, कि अपनी खुशियों के लिए वो किसी तीसरे के वजूद के मोहताज नहीं है – उसे लगा शायद सृजन भी पिघल रहा है, गल रहा है उसके साथ – लेकिन उसने तो उससे यह झूठी तसल्ली भी छीन ली – झट से करवट बदल लिया था उसने अचानक – ‘मुझे सोने दो यामिनी, यह सब अच्छा नहीं लगता मुझे…’ यामिनी जैसे आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरी थी… अकेली… असहाय… उसने सोचा क्या पुंसत्वहीनता का घुन मन में भी लग जाता है? उसका गम दुहरा हो गया था – कहाँ जाएगी अब वह?

तब विशाल ने ही सँभाला था उसे – और उसने भी बह जाने दिया था खुद को उसके साथ – नहीं, रोका नहीं था उसने खुद को बल्कि सहारे के लिए बढ़े हाथ को यूँ थाम लिया था जैसे वो हाथ नहीं पतवार हों – कूल-किनारा अब इन्हीं पतवारों के हाथ था –

पर उस वक्त भी उसकी बंद आँखों में सिर्फ सृजन का ही चेहरा था – जैसे वह उसी रात में जी रही हो और रात भोर के सपने में तब्दील हो गई हो – कौन कहता है, सृजन बदल गया है – उसका सृजन तो अब भी वैसा ही है – उसे बेइंतहा प्यार कहनेवाला –

पर सपने की जिंदगी बहुत छोटी होती है, सच की बहुत लंबी – आनेवाला हर दिन उसके सपने की वीभत्सता की परत-दर-परत उघाड़ रहा था – शायद उसने जान-बूझकर यह जाल बुना था, और कामयाब भी हो गई थी – उसे सिर्फ एक बच्चा चाहिए था और उसने पा लिया था – तभी तो उसने एक बार सृजन से यह कहा था कि वे दोनों कहीं दूर चले जाएँगे, विशाल को भी कुछ बताए बगैर, जहाँ कोई भी न जानता हो उनके बारे में – फिर वे तीनों एक भरी-पूरी जिंदगी जी सकेंगे – पर झूठ के आधार पर नई जिंदगी बुनना सृजन को मंजूर नहीं था – वह अपनी ही हार का प्रतिरूप एक बच्चा कैसे पलते-जन्मते और बढ़ते देख सकता था, अपने ही आगे, अपने ही घर में दूसरे की औलाद की कल्पना भर से वह और कसैला हो गया था तब – पर आज वही तन्मय उसकी खुशियों का सबब बना हुआ है – उसी तन्मय पर आज वह जान निछावर करता है – यामिनी को बेइंतहा हँसी आई – एक दर्द भरी हँसी – आज जब सृजन ने स्वीकार लिया है तन्मय को तो क्या अब उसे लौट जाना चाहिए उसके पास? उसने भी तब यही चाहा था – क्या सृजन स्वीकार लेगा उसे? यदि उसने स्वीकार भी लिया तो क्या तन्मय स्वीकार पाएगा उसे अपने पापा के रूप में? तो क्या वह अपने सुखों के लिए सृजन की खुशियों की बलि दे दे? लोगों की परवाह उसे नहीं है – बहुत कुछ सुनती रही है वह अपनी छोटी-सी जिंदगी में – लेकिन क्या यह यात्रा भी अंतिम होगी? सपनों का कोई घर जिसे वह अपना कह सके जब उसकी नसीब में ही नहीं फिर बार-बार यह उठा-पटक, जोड-तोड़ क्यों…? उसने तय किया आज वह सृजन को यहाँ आने से जरूर मना करेगी – उसने निर्णय तो कर लिया लेकिन वह उसे कहेगी कैसे – उसने मन ही मन कई बार अभ्यास किया कहीं मौके पर शब्द उसका साथ न दें तो –

शाम को दृढ़ निश्चय के साथ बरामदे तक आते-आते यामिनी के कदम ठिठक गए – वर्षों तक आँखों में पला सपना आज जैसे मूर्त्त हो चला था – सृजन अपनी आँखों पर तौलिया बांधे तन्मय को पकड़ने की कोशिश में था और तन्मय हँसता हुआ भाग रहा था, आँगन के इस छोर से उस छोर, …उस छोर से इस छोर – यामिनी ने ठिठके कदमों से सोचा उसे सृजन का यह सुख छीनने का कोई हक नहीं – देर तक उन्हें एकटक देखती यामिनी चुपचाप हौले कदम वापस लौट आई थी –

यामिनी ने रात को खाना लगाया – विशाल चुपचाप एकाध कौर पानी के साथ निगल रहा था – थाली उसने बीच में ही छोड़ दी, जैसे गले में कुछ आ अटका हो – ‘उसे आज भी मना किया या नहीं?’

यामिनी की गंभीर आवाज दीवारों से टकराकर अपनी प्रतिध्वनि छोड़ रही थी – ‘नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती विशाल कभी नहीं -‘

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