किनारे से दूर... | राकेश बिहारी
किनारे से दूर... | राकेश बिहारी

किनारे से दूर… | राकेश बिहारी – Kinare Se Dur

किनारे से दूर… | राकेश बिहारी

धूप की सुनहरी रोशनी खुले आसमान की नीली आभा से मिल कर रजतवर्णी होने का आभास दे रही थी – वह बार-बार सामने के दृश्य को कैमरे में उतारने की कोशिश कर रहा था लेकिन सूरज की तेज किरणें हर बार उसे नजरें नीची करने को मजबूर कर रही थीं…

सतीश डॉ. गुप्ता के साथ नाव वालों से तोल-मोल करने में लगा था और लगभग दो किलोमीटर पीछे छूट गए धुआँधार की खूबसूरती समर की आँखों में अब भी ताजा सी थी – बड़े-बड़े शिलाखंडों से टकराती नर्मदा की तेज जलधारा और उस टकराहट से निकलते महीन फव्वारों के बड़े-बड़े टुकड़े, जैसे अभी-अभी धुनी हुई रूई के फाहे वातवरण में तैर रहे हों… दूर से धुआँ-धुआँ का सा अहसास देते हुए – उसने सोचा शायद इसीलिए इसे धुआँधार कहते हैं… वही नर्मदा लेकिन थोड़ी ही दूर पर उसका यह दूसरा रूप, जैसे जिंदगी के दो अलग-अलग शेड्स – धुआँधार में लहरों की भीषण गर्जना तो भेड़ाघाट में ऊँची-ऊची संगमरमरी दीवारों के बीच शांति का यह तरल फैलाव… दोनों ही समान रूप से आकर्षक और खूबसूरत – लेकिन चंद रुपए की खातिर एक बड़ी ऊँचाई से नर्मदा में छलाँग लगानेवाले बच्चे वहाँ भी थे और यहाँ भी… वहाँ समर के लाख मना करने के बावजूद अपने आगे-पीछे करते एक लड़के को छवि ने 40 रु. का नोट पकड़ा ही दिया था – ‘ये लो, ऊपर से कूदने के लिए नहीं, नहीं कूदने के लिए…’ वह लड़का तो रुपए ले कर दूसरी तरफ चला गया था लेकिन उसके जैसे कई और लड़के छवि के आगे-पीछे लग गए थे… पेट की आग को नर्मदा की धार में कूदकर बुझाने के इस विचित्र तरीके से उलझता और तेज चमकते सूरज से आँख-मिचौली करता समर नर्मदा की खूबसूरती का यह कॉन्ट्रास्ट अपने कैमरे में उतार ही रहा था कि सतीश और डॉ. गुप्ता उस तक आ गए थे – ‘हम इस बड़ीवाली शेयरिंग बोट में चलेंगे -‘

समर ने सोचा बड़ी बोट यानी और सवारियों का इंतजार – लेकिन घाट की ओर बढ़ते सैलानियों के एक और दल ने जैसे उसकी आशंका को परे धकेला था और उसने तुरंत ही पास खड़ी छवि की उँगली थाम अपने कदम नाव की तरफ बढ़ा लिए थे – अपनी मनपसंद जगह पर बैठते हुए उसने तेजी से चारों तरफ का मुआयना किया… यह सबसे अच्छी जगह है फोटो उतारने के लिए और तेजी से उसके कैमरे का फ्लैश चमक पड़ा था – ऊपर चंदोवे की तरह टँगा नीला आकाश, नीचे हरी घास की तरह फैली नर्मदा और बीच में संगमरमर की ऊँचे-ऊँचे पहाड़…

नाव में बैठे अधिकतर लोग युगल थे, लेकिन अलग-अलग वय के – जब तक आखिरी जोड़ा नाव में दाखिल हुआ नाव लगभग भर चुकी थी और उन्हें अलग-अलग बैठना पड़ा – दोनों नाविकों ने अपनी जगह ले ली थी – नर्मदा की शांत सतह को चप्पुओं ने जैसे ही हौले से हिलाया नाव ने किनारा छोड़ दिया – हरी घास की तरह दिख रही नर्मदा अब काले-नीले संगमरमर की छाया से मिल कर और गहरी और कच-कच हो गई थी – समर के कैमरे से चमकते फ्लैश ने महसूस किया कि अब नाव खे रहे नाविक के चेहरे पर भी नर्मदा का वही गाढ़ा रंग चमकने लगा था मानो उसने अपने चेहरे का वह कच्चा और नैसर्गिक साँवलापन घाट पर ही छोड़ दिया हो –

‘अब देखो साइड में नीले कलर का मार्बल – हल्का नीला, लाइट ब्लू – यहाँ से बोट वालों की कॉमेन्ट्री शुरू…’ नाव खे रहे नाविक की आवाज में एक नमकीन सी खनक थी जो किसी कैमरे की पकड़ से भले ही दूर हो लेकिन उसने अपने पहले ही वाक्य से नाव में बैठे यात्रिओं के भीतर उत्सुकता और खुशी का एक मिला-जुला संसार रचना शुरू कर दिया था –

नाव में सबसे आखिर में सवार हुए जोड़े का पुरुष जिसका रंग काले और नीले संगमरमर के बीच का था ने दूर बैठी धुआँधार में उठ रहे रूई के फाहे जैसे रंगवाली अपनी बीवी की आँखों में देखते हुए नाविक की तरफ एक सवाल उछाल दिया – ‘सिर्फ मार्बल के रंग ही बताते रहोगे या कुछ यहाँ की कहानियाँ भी सुनाओगे…?’

‘साहब बिना मार्बल के रंगों के यहाँ की सारी कहानियाँ फीकी है – आप धीरज तो रखो…’ अब तक चुप बैठे दूसरे नाविक ने जवाब दिया था –

पहलेवाले नाविक ने अपनी बात फिर शुरू कर दी थी – ‘वो देखो गोल्डेन कलर का मार्बल, यहीं की फिल्म थी जलजला – कलाकार थे धर्मेंद्र, डैनी और शत्रुघ्न सिन्हा… और वो रहा जंपिंग प्वाइंट -‘ जलजला फिल्म का नाम आते ही डॉ. गुप्ता की निगाहें भाभी जी की ओर मुड़ी थी जैसे वे उन्हें बीते दिनों की कोई बात याद करा रही हों… संगमरमर का रंग रूई के फाहे जैसे रंगवाली महिला की आँखों में भी चमका था – नाविक ने कुछ देर की चुप्पी के बाद अपनी बात पूरी की थी – ‘जंपिंग प्वाइंट से हीरो- हीरोइन नहीं कूदते उनके पुतले गिराए जाते हैं…’ दूसरे नाविक की आवाज थी – ‘यदि वो जंप लगाएँगे तो दुबारा फिल्मों में नजर नहीं आएँगे -‘ दोनों नाविकों की सधी हुई जुगलबंदी के बीच नाव में एक जोरदार ठहाका गूँजा था और तभी नदी में एक अतिरिक्त हलचल सी हुई थी – कोई शिशु मगरमच्छ शायद धूप की तलाश में पानी से पत्थर की तरफ बढ़ रहा था जिसे सबसे पहले समर की तीन वर्षीया बिटिया ने देखा था और लगभग किलकते हुए वह चिल्लाई थी – ‘ममा, वो देखो – क्रोकोडाइल…’ शिशु मगरमच्छ के साथ ही जैसे नाव में बैठे सारे लोग अपने-अपने हिस्से की धूप तलाशने लगे थे मानो वह अचानक कहीं गुम हो गई हो – उनकी इस हरकत पर ऊपर टँगा धूप का चंदोवा मुस्करा उठा था… छवि ने धूप की वह मुस्कराहट देख ली थी और उसके माथे पर चिंता की एक लकीर खिंच गई थी – ‘पता नहीं उसकी गैरहाजिरी में कामवाली बाई पौधों को पानी देने आती भी है या नहीं? कहीं पौधे पानी बिना धूप में झुलस न जाएँ – कौन जाने वह तो रोज ही आती हो लेकिन बगलवाली भाभी उसे हमारे घर की चाभी ही न देती हों किसी न किसी बहाने…

…नाविक की आवाज लगातार गूँज रही थी – वह हर कदम संगमरमर के एक नए रंग की बात कर रहा था – पता नही वह उसकी बातों का जादू था या कि संगमरमर के रंग का, नाव में सवार यात्रियों की आँखें उसकी बातों का लगातार अनुवाद करती जा रही थी, बिना किसी देरी के –

‘वो रहा गुलाबी कलर, पिंक मार्बल… यहीं पर बैठी थी रेखा – साड़ी का कलर था कच्चा, मार्बल था पक्का… इसे देखो, कितना लग रहा है अच्छा -‘ दूसरे नाविक ने जुगलबंदी आगे बढ़ाई थी…’ साड़ी मुंबई की थी न इसीलिए कलर चला गया… जबलपुर की होती तो साड़ी फट जाती कलर नहीं जाता…’ नाव एक बार फिर ठहाकों से गूँज उठा था… और इस ठहाके के सहारे गुलाबी संगमरमर के रंग की एक नाजुक सी डोर समर के सामनेवाले युगल की आँखों में तैर गई थी – जींस और टी शर्ट पहनने के बावजूद उस लड़की के हाथों में अटका चूड़ा उनके नवविवाहित होने की चुगली कर रहा था – मार्बल और उस नवविवाहिता के हाथों के चूड़े की आभा टकराई थी हौले से, और इस टकराहट से उपजी चमक को नाविक ने जैसे आगे बढ़ कर लपक लिया था… ‘वो देखो पीछे, अमर -प्रेम होटल… 1190 रु. है ठहरने का टोटल… और फ्री में मिलती है बोतल…’ क्षण भर की रहस्यमयी चुप्पी के बाद उसने आगे कहा था…’ बोतल बिसलरी की…’ दूसरे नाविक ने बिना किसी रुकावट के बात आगे बढ़ाई थी – ‘जिसकी नई-नई शादी होती है, बस इसे ही बुक कर लेता है… और दूसरी बार धर्मशाला खोजता है…’ जोरदार ठहाकों के बीच डॉ. गुप्ता ने सोचा भला हो बॉस का कि उसने परचेज कमिटी में उसे नामिनेट कर दिया और वह पत्नी के साथ समदड़िया होटल के ए.सी. सूट में ठहरा है, वर्ना वह भी कहीं कोई धर्मशाला या ज्यादा से ज्यादा कोई किफायती लॉज खोज रहा होता… डॉ. गुप्ता जिंदगी में किफायत के तरफदार हैं – उनका बचपन अभावों में बीता है – पर पत्नी और बेटे हैं कि… कल की शाम ही उनकी पत्नी पहले की ली हुई एक साड़ी बदलने के नाम पर बाजार गई थीं और साथ में दो नई साड़ियाँ लेती आईं – इसी बात पर दोनों में तनातनी बनी रही थी देर तक…

नाविकों की इस रस भरी तुकबंदी के बीच वह नवविवाहित जोड़ा भी थोड़ा शरमा गया था – उन्हें लगा जैसे नाव में गूँज रहे ठहाके संगमरमरी दीवारों से टकरा-टकरा कर उन तक ही लौट आ रहे हैं… लेकिन उन्होंने अपनी हया के होठों पर एक सम्मिलित सी हँसी रख दी थी, अनायास –

सूरज की तेज रोशनी और चप्पुओं के लगातार चलने से नाविक के बाँहों की मछलियों का नमक पिघलने लगा था… उसके गाल, नाक और ठुड्डी से एक अनाम सी तरलता चुहचुहा उठी थी – समर के कैमरे ने देखा, नाविक की शुष्क मुम्यिों पर दरार जैसी खिंची लकीरें और चितकबरे मार्बल की दीवारों पर बने आड़े-तिरछे निशान लगभग एक जैसे दिख रहे थे – सफेद संगमरमर पर पड़े पानी के सूखे हुए दागों ने उसे एक तांबई रंगत दे दी थी – संगमरमर के पहाड़ की वह तांबई आभा उस वक्त दूसरे नाविक के चेहरे पर चमकी थी जब उसने पहले नाविक के हाथों से चप्पू अपने हाथों में थाम लिया था – दूसरा नाविक अब पहले नाविक की जगह पर बैठा मुख्य गायक था और पहला संगतकार – दोनों ने अपनी भूमिकायें आपस में बदल ली थी –

दोराहे… नहीं, एक दोरुखे पर आ कर नाविक ने चप्पुओं को ढीला छोड़ दिया था – ‘हाँ तो साहब इसे कहते हैं भूल-भूलैया – आप बताओ अब जाना है किस साइड…? रास्ता बतानेवाले को मिलेगा बंपर प्राइज -‘

‘लेफ्ट’

‘नहीं – नहीं राइट -‘

‘नहीं लेफ्ट -‘ कई आवाजें एक ही साथ सही रास्ते का कयास लगाने लगी थीं – अलग-अलग बैठे दंपत्ति के पुरुष ने जोर दे कर कहा था – ‘राइट – मैंने तो लखनऊ की भूल-भुलैया में भी रास्ता खोज लिया था, यह क्या है -? मैं फिर कहता हूँ राइट -‘ तभी नाविकों की तुकबंदी ने एक बार फिर मजाकिया रुख लिया था – ‘जो बोलता है सही, उसको उतार देते हैं यहीं, बाकी जाना नहीं कहीं – नाविक के दूसरी तरफ बैठी महिला अभी पानी की गहराई पूछना ही चाहती थी थी कि दूसरा नाविक बोल उठा – ‘यहाँ पानी की गहराई है साढ़े तीन सौ फीट डीप -‘

नीले-काले संगमरमर के बीचवाले रंग के भाई साहब की आवाज आई थी – ‘झूठ पर झूठ बोले जा रहा है…’

समर को लगा कहीं ऐसी बातों से नाविक नाराज न हो जाए – लेकिन नाविक के चेहरे पर नाराजगी की बजाय वही हाजिरजवाबी चमकी थी – ‘जिसे विश्वास नहीं उतर कर देख सकता है – आने की गारंटी चार दिनों के बाद – यहाँ जानेवाला जाता है सिंगल और आता है डबल होकर…’

रुई के फाहे जैसे रंगवाली भाभी जी अपने पति की तरफ देख कर मुस्कराई थीं मानो कह रही हों – ‘देखा, तुम से ज्यादा सयाना है यह…’ पति की आँखें भी चिढ़ और शरारत के मिलेजुले भाव के साथ चमकी थीं – ‘तो रह जा इसी के साथ, रोज नाव की सैर कराएगा…’ पत्नी की आँखों ने जैसे उसे मुँह चिढ़ाया था – ‘सोच लो… बाद में मत कहना कि…’

नाविक अपनी रौ में था… ‘सामने देखो गुलाब का फूल – नेचुरल टैंपल, देखो उसका सैंपल – बिल्कुल ओरिजनल मंदिर लगता है – इसी के सामने राजकपूर ने एक फिल्म निकाली था – ‘आवारा’… दम भर जो उधर मुँह फेरे ओ चंदा, मैं उनसे प्यार कर लूँगी – बातें हजार कर लूँगी…’

दूसरे नाविक ने जुगलबंदी जारी रखी थी ‘फिल्म हो गया पचास साल पुराना – राज कपूर और नर्गिस ने गाया था गाना – अब दोनों ऊपर हो गए रवाना -‘ तभी उस नाविक के सामने बैठी महिला ने नर्मदा का अँजुरी भर जल सामने की ओर उछाला था – शायद उस नाव में वह खुद को कुछ देर और नर्गिस ही समझती रहती यदि नाविक की बातों ने अचानक उसकी अल्हड़ कल्पना पर ब्रेक न लगा दिया होता –

‘मैडम पानी में ज्यादा हाथ नहीं डालना…’

‘क्यों…?’

‘हाथ गीला हो जाएगा -‘

नाविक के इस शरारती संवाद ने एक बार फिर नाव के साथ-साथ पूरी नर्मदा को हँसी से भिंगो दिया था और उस महिला ने एक शर्मीली खिलखिलाहट के साथ कहा था… धत् –

‘अब देखो मार्बल, प्योर ह्वाइट – एक ही साइड… दूध की सफेदी निरमा से आए – रंगीन मार्बल खिल-खिल जाए – निरमा यहाँ देख लो, सर्फ एक्सेल आगे दिखाता हूँ – एरियल नहीं दिखाऊँगा -‘ नाविक के बगल में बैठे पुरुष के नाक और भौंहों पर एक खास किस्म का बल पड़ा था… जैसे उसने उसकी बनियान से आती सोडे की महक पहचान ली हो और कहना चाहता हो – पहले खुद के कपड़े तो निरमा से धुल ले फिर सर्फ एक्सेल और एरियल की बातें करना… मिसेज गुप्ता की चिंता कुछ और थी – उन्होंने खुद के और डॉ. गुप्ता के कपड़े धोकर यूँ ही होटल के कमरे के बाथरूम में रख छोड़े थे… आज शायद ही सूख पाएँ – ऐसे में कल सुबह नहाने के समय गीले तौलिए के कारण उनकी और डॉ. गुप्ता के बीच फिर बकझक न हो जाए…

‘ये देखो ऊँचावाला पहाड़ – इसे प्यार से देखना – इसका नाम है सुसाइड प्वाइंट… कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ कभी पढ़ाई तो कभी प्यार-मोहब्बत में जब हो जाते हैं फेल, यहीं आ कर होते हैं पास… फिर चार-पाँच दिनों में मिल जाती है लाश… जगह है खास…’ उसकी आवाज में अभी एक तंज जैसा था – समर सोचने लगा था उन पढ़नेवाले या कि हिम्मत हार जानेवाले उन लड़के-लड़कियों के बारे में… जुगलबंदी जारी थी…’ कॉलेजवाले यहीं पर आते हैं… बाकी जो बीवी से परेशान हैं वो बॉर्डर पार धुआँधार जाते हैं…’ क्षण भर की चुप्पी के बाद नाविक ने नाव में एक और सवाल उछाला था – ‘है कोई क्या…?’

नाव में सवार कई लोगों ने अपनी-अपनी पत्नी की तरफ चुप निगाहों से देखा था – क्षण भर को नाव में जैसे एक अनजान सी चुप्पी पसर गई थी – यात्रियों की चुप प्रतिक्रियाओं को देखते-समझते पर इस से पूरी तरह बेपरवाह नाविकों ने अपनी कॉमेन्ट्री जारी रखी थी – ‘कैमरा है तो चमका लो उसकी लाइट – नहीं तो बैठे रहो एकदम टाईट… यही है सर्फ एक्सेल की ब्राइट…’ सफेद संगमरमर को कैद करने की छटपटाहट में कई कैमरों की लाइट एक साथ चमचमा उठी थी –

नाविकों के सामनेवाले कोने से एक मर्दाना आवाज आई थी – ‘यहाँ संगमरमर की कटाई भी होती है क्या?’ पहली बार नाविक के स्वर मे नमकीन खनक की जगह एक भय मिश्रित उदासी थी – ‘नहीं साहब, यहाँ मार्बल काटना मना है – यहाँ से चार किलोमीटर दूर तक ही पत्थर काटे जाते हैं -‘ नाविक की आँखों के नीचे का साँवलापन अचानक गहरा हो गया था – दूसरे नाविक ने कहा था – ‘यदि यहाँ भी मार्बल काटे जाने लगे तो इस जगह को देखने कौन आएगा?’ उनके चेहरे की तांबई आभा पर जैसे झांवे का रंग चढ़ गया था – समर के कैमरे ने महसूस किया कि उन नाविकों के चेहरे के बदलते रंग से नर्मदा का रंग कुछ और गाढ़ा हो गया था – तभी दूसरे नाविक ने दूर इशारा किया – ‘वो देखो, शंकर भगवान की पिंडी… सफेद संगमरमर का शिवलिंग – साढ़े तीन सौ साल पहले इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने इसकी स्थापना की थी – प्रेम से बोलो भोले नाथ की… -‘ पूरे नाव ने उसका साथ दिया था – ‘जय…’ दोनों नाविकों की आँखें क्षण भर को किसी अनाम श्रद्धा से मुँद गई थीं…उनकी मुँदी आँखें जैसे थोड़ी देर पहले उनके मन में उग आए भय को दूर करने के लिए प्रार्थना कर रही थीं –

गुप्ता भाभी ने पूछा था ‘यहाँ रात में भी बोटिंग होती है क्या?’

‘हाँ, सिर्फ चाँदनी रात में…’

दूसरा नाविक फिर शुरू हो गया था…’ चाँदनी रात में फैमिली हो साथ में और कैमरा हाथ में…’ दूसरे नाविक ने तुक मिलाया था…’ यदि फैमिली नहीं हो तो पूरी बोतल हाथ में…’

चाँदनी रात की बात सुनते ही समर की बिटिया जो अब सतीश की गोद में बैठी थी ने पूछा था…’ अंकल, चाँदनी रात क्या होती है…?’

‘बेटा, चाँदनी रात मतलब, वह रात जिसमें आसमान में चाँद चमकता है -‘

‘रूम में…?’ समर की आवाज चौंकी थी –

‘वही चाँद न, जो रात को हमारे रूम में चमकता है -?’

‘हाँ बेटा…’ समर और छवि लगभग एक ही साथ बोल पड़े थे –

‘और तारे भी…’

‘हाँ…’ छवि ने समर की आँखों में देखा था मानो कह रही हो इस बार वह अपनी बिटिया को चाँदनी रात जरूर दिखाएँगे नहीं तो वह कमरे की छत पर चिपके चमचमाते चाँद-सितारों को ही चाँदनी रात समझती रहेगी…

बंदरकूदनी तक जा कर लौटते हुए नाविक ने कहा था…’ वो देखो, तीन चेहरे… इसी का नाम है ब्रह्मा, विष्णु, महेश…’ दूसरे ने तुकबंदी पूरी की थी… ‘पानी में डूबे गणेश… – यहीं शाहरुख खान ने अपनी फिल्म निकाली थी, अशोका… -‘

‘रात का नशा अभी आँखों से गया नहीं…’ दूसरे नाविक ने पूरी की पूरी कोशिश की थी कि गीत का नशा उसकी आवाज में भी हो – शाहरुख के फिल्म की बात सुनते ही एक बार फिर कई कैमरे एक ही साथ चमक पड़े थे…

बहुत देर से नाविकों को चुप देख रूई के फाहे के रंगवाली महिला ने कहा था… ‘भैया, चुप क्यों हो गए…? कुछ और तो बताओ…’

नाविक ने कहना शुरू किया था…’ वो देखो दो कलर के मार्बल – सफेद एंड ह्वाइट – मार रहा है लाइट – दोनों साइड -‘

कुछ और सुनाने की फरमाइश करनेवाली महिला ने तपाक से कहा था… ‘अच्छा बेवकूफ बनाते हो… सफेद और ह्वाइट एक ही तो हुआ न…’

‘मैडम, वो तो मैंने जान बूझ कर कहा… सारे प्वाइंट खतम हो गए – अब कुछ कल्पना भी तो कर लो… -‘ नाविक की कल्पनाशील वाक्पटुता से फैली हँसी अभी थमी भी न थी कि नाव किनारे पर आ लगी थी –

सवारियों के नाव से उतरते ही नाविकों ने दूसरी खेप के लिए पुकार लगानी शुरू कर दी थी…

ऊँचाई से कूदनेवाले बच्चे अब नए सैलानियों के आगे-पीछे घूम रहे थे…

डॉ. गुप्ता अपने हैंडीकैम से अब भी वीडियो बनाने में व्यस्त थे – कैमरे के जूम से उन्होंने देखा एक लड़के ने लगभग पचास फीट की ऊँचाई से नर्मदा में छलाँग लगा दी थी…

रजतवर्णी धूप धीरे-धीरे पीतवर्णी होने लगी थी… पीली रोशनी में चमकते मार्बल को देख डॉ. गुप्ता को अपने सात बेडरूमवाले बड़े से घर की याद हो आई जिसकी फर्श उन्होंने कभी बड़े शौक से मकराना मार्बल की बनवाई थी, बाथ टब भी मार्बल का ही… पर रोहित के अमेरिका चले जाने के बाद वह घर जैसे उन्हें काटने दौड़ता है…

धूप की सुनहरी रोशनी में चमकता सफेद संगमरमर जैसे अचानक ही उनके लिए काले या गाढ़े नीले रंग का हो गया था…

नाव फिर से किनारा छोड़ चुकी थी – नाविकों के चेहरे का कच्चा साँवलापन एक बार फिर नीले और काले मार्बल की परछाई के साथ मिल कर और गाढ़ा हो रहा था…

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किनारे से दूर… – Kinare Se Dur

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