मैजेस्टिक मूँछें | अनुराग शर्मा
मैजेस्टिक मूँछें | अनुराग शर्मा

मैजेस्टिक मूँछें | अनुराग शर्मा – Majestick Muche

मैजेस्टिक मूँछें | अनुराग शर्मा

नागोबा डुलाय लागला…

बिल्कुल वही है। खाल के ऊपर रेंगता है। वही है। मैं भी तो वही हूँ। बैठा भी वहीं हूँ आज तक। तुम जबसे गई, निपट अकेला हूँ। वही शनिवार, वही तीसरा पहर, वही अड्डा, वही बेंच। वही आवाजें : तिकीट, तिकीट, तिकीट… जवळे, शिर्वळ, सांगळी, खंडाळा…। वही नारे : पानी घाळा, दारू सोडा, जय महाराष्ट्र…। हजारों मील चला हूँ। फिर भी वहीं बैठा हूँ। यह कैसी उलटबाँसी है? सनक गया हूँ क्या? मैं ही इक बौराना?

“पुढे सरका शर्मा जी” ममता इसी बेंच पर मुझसे चिपककर बैठ गई है। मैं सकुचाता हूँ तो शरारत से कोहनी मारकर कहती है, “शर्मा जी मुझसे इतना शर्माते क्यों हैं?”

अभी जाकर बस में बैठी है। मुझे अपलक देखकर मुस्कुरा रही है। बस चल पड़ी है। अब चेहरा नहीं दिखता। हाथ हिला रही है। वीजे की बस आ गई है। उतरा है। बिना इधर-उधर देखे चला आ रहा है। केवल एक दिन रुककर कल चला जाएगा। ममता परसों वापस आ जाएगी। इन्होंने एक-दूसरे को कभी देखा नहीं। पर जानते हैं। सुनते हैं मेरी बातें। चुप करूँ तो बारबार पूछते हैं। सप्ताह भर शरारत, सप्ताहांत भर टोकाटाकी। ट्वेंटी फोर सेवन, अराउंड द क्लॉक। लगातार, दिन रात।

“मूँछें कटा लो, बूर्ज्वा, जमींदार, महंत…” हमेशा किसी न किसी बात पर टोकता है वीजे।

पर न जाने कहाँ से तुम बीच में आ जाती हो। मंत्रमुग्ध सी कहती हो, “हमेशा ऐसी ही रखना। मैजिस्टिक लगते हो तुम।”

“सफेद हो जाएगी तब तो कटा लूँ?”

“नहीं, तब तो और भी सुंदर लगोगे। कटाना मत और रँगना भी मत” तुम्हारी अँग्रेजी भी तुम्हारे रूप जैसी निर्दोष है।

“जेहि विधि राखे राम…” दादाजी मगन होकर मंदिर में भजन गा रहे हैं।

“मूँछें छोड़, अपनी बता…” मैं वीजे के कंधे पर धौल जमाता हूँ।

“मूँछें महानता नहीं हैं, महानता का क्षुद्र भाव है यह…”

“काका से सुलह हुई क्या?”

“बात मत करो बुड्ढे की। जवान लड़के के बाप को शादी की सूझी है।”

“होता है, होता है, अभी तूने दुनिया देखी कहाँ है।”

“नहीं कटाओगे? अरे, मॉडर्न दिखो। भैया ही रहोगे हमेशा?”

“तू भी भैया ही है… माया का भैया, भैया जी। बड़ा आया भैया वाला।”

“आय ऐम घाटे, मैंनेजर ऑफ दिस ब्रांच, एचआर को कोई समझ भी है क्या? पहाड़ के झरनों से उठाकर आपको यहाँ सात तारों के बंजर घाट में भेज दिया। चार महीने में मेरे जैसे भुजंग हो जाएँगे।”

अंदर तक क्यों दिख जाता है मुझे? साफ दिख रहा है घाटे का डर। कहीं गाँव वालों को पता न लग जाए कि मैं यूपी से हूँ। नया अफसर एक भैया है? पंजाब हो या महाराष्ट्र, यूपी के सब भैये। ये सब तारण के अधिकारी? मेरा पहाड़ यूपी में ही हैं। पर, कब तक यूपी रहेगा? यूपी, उत्तराखंड, उत्तरांचल, कूर्मांचल? यहाँ आने से पहले मैं पहाड़ में रहा जरूर था मगर मुझे पहाड़ी कौन कहेगा? पहाड़ी लोग तो मुझे देखते ही मैदान वाला बता देंगे। मैदान, मतलब नीची जमीन, तराई, तलहटी, वादी। वादी… मतलब नर्क?

कौन हूँ मैं? भोटिया, रंग, नेवारी, गढवाली, कुमायूँनी, घाटी, पठान, मंगोल, कोई भी तो नहीं हूँ। पुरखे तो पहाड़ से ही थे। पर वे पहाड़ दूसरे थे – गर्वोन्नत, असीमित, अनंत। तुम्हारे शब्दों में कहूँ तो मैजेस्टिक! लोहित कुंड से कश्यप सागर तक, पुरखों के चिह्न आज भी मौजूद हैं। पुरखों के चिह्न? चिह्न तो सब परायी मिल्कियत हैं अब। बस, पुरखे अभी भी हमारे ही हैं। उनको कौन लेगा? संपत्ति की कीमत है, बनाने वाले का क्या? ब्रह्मपुत्र तुम्हारी हुई, परशुराम हमारे रहे। रेणुका तीर्थ तुम्हारा, रेणु माँ हमारी। खीर तुम्हारी, भवानी हमारी। च्यवनप्राश, अमीरीप्राश, राजभोगप्राश, कोई नाम रख लो, वह सब तुम्हारा, च्यवन बाबा हमारे। आजादी तुम्हारी, फाँसी हमारी। अब तो ज्योतिष व्यवसाय हो गया है। हर चैनल पर, अखबार में, ज्योतिष की दुकान तुम्हारी, आस बँधाने का दोष हमारा। मंदिर का धन, संचालन, नियंत्रण तुम्हारा, पूजा हमारी। दान पेटी तुम्हारी, निर्जला व्रत हमारा।

See also  खुली आँखों का दुःख

हर किसी को अपना अलग घर चाहिए। पाकिस्तान, बांग्लादेश, नागालैंड, गोरखालैंड, खालिस्तान, तमिलनाडु, तेलुगु देशम, तेलंगाना, विदर्भ, हरित प्रदेश। और, पुत्रोहम पृथिव्या? अपने ही घर में बेघर! लेकिन… क्षीरभवानी को भोग कौन लगाएगा? बमियान बुद्धा को भोग कौन लगाता है मूर्ख? भगवान नहीं, तो भोग भी नहीं। मतलब नास्तिक? नहीं! नास्तिक नहीं! दैत्य नास्तिक नहीं, धर्मद्रोही होते हैं। पहले धर्मात्मा को मारने में नास्तिकों का साथ देंगे। धर्मात्मा के मिटते ही निर्बल हुए नास्तिकों को भी मिटा देंगे। धर्मद्रोही फिर अपनी मूर्तियाँ लगाएँगे। मंदिर विवादित ढाँचे हो जाएँगे पर नियंत्रणवादी तानाशाहों की मूर्तियाँ अटल रहेंगी। संघे शक्ति कलयुगे। सेंट पीटर्सबर्ग एक झटके में लेनिनग्राद हो गया, वोल्गोग्राद, स्टालिनग्राद बना! क्या लेनिनग्राद फिर से कभी सेंट पीटर्सबर्ग हो सकता है? बर्लिन की दीवार अटूट है। सद्दाम मामू अमर रहें। दानव अजेय हैं।

शिंदे आता है, विशालकाय। अरे आप तो ममता मैडम जैसे नाजुक हैं। मुंबई में एक शर्मा दोस्त था मेरा, मुझे लगा वैसे ही होंगे, लंबे तगड़े। वह कहता नहीं पर उसकी निराशा सुनाई दे रही है कि यह कल का मुळगा यूपी से आ गया अफसरशाही चलाने। हमेशा से यही होता है। श्रीमंत ने कन्नौज से कोटपाल बुलाया था। तब तो हम कुछ नहीं कर पाए थे लेकिन अब बदला ले रहे हैं। हड़ताल कराते हैं। नाटक भी लिखते हैं उसके खिलाफ। बेकार नहीं हैं नाटक। यह नाटक कल इतिहास बदल देंगे। लोग नाटक को इतिहास और इतिहास को कल्पना कहेंगे। वे कहेंगे कि कोटपाल जालिम था। मंदिर कभी नहीं था। राम भी नहीं थे। अयोध्या नहीं थी। बुद्ध भी नहीं थे। बमियान भी नहीं था। है कोई सबूत तुम्हारे पास? खुदाई करो, दिखाओ कुछ। बमियान के मलबे से भगवान बुद्ध का कंकाल निकालकर अदालत के सामने पेश किया जाए। दूर के इतिहासकारों ने सिद्ध कर दिया है कि बमियान में बुद्ध कभी नहीं थे, अगर कभी थे भी तो उन्हें वैदिक हिंसा से उड़ाया गया था – 5000 साल पहले। तालेबान सर्व-धर्म संभाव सिखाता है। उम्मत बनाता है, वसुधैव कुटुंबकम सिखाता है। जिहादी धर्मांधों की बारूदी सुरंगें चीनी कम्युनिस्ट धर्महंताओं से खरीदी जाती हैं। नया इतिहास लिखेंगे। कलम से नहीं, बारूद से, पैसे से इतिहास लिखेंगे। लिखने को पैसा कहाँ से आएगा? अपहरण करेंगे, जो मिलेगा उसका, स्त्रियों का, बच्चों का, कर्मचरियों का, पूँजीपतियों का। पूँजी का विरोध? पूँजी के अपहरण से? वाह बेटा वाह! भविष्य देख नहीं सकते, वर्तमान छू नहीं सकते, इतिहास जरूर लिखेंगे, ये मौकापरस्त कीड़े।

इतिहास का कीड़ा पास आ गया है। सरदारजी बोल रहे हैं, “पुच्छमित्तर छुंग”। ब्लैकबोर्ड पर लिख रहे हैं, “पुष्यमित्र शुंग”। बोलने का इतिहास अलग, लिखने का अलग, भोगने का अलग। घर की ईमानदारी अलग, दफ्तर की अलग। मंदिर का धर्म दूसरा, दुकान का तीसरा? फिर चौथा, पाँचवाँ…? पाँव पर किसी के रेंगने का वह चिपचिपा, लिजलिजा अहसास। पानी घाळा नारू टाळा। घर-घर में नारू का प्रकोप है। नारू का कीड़ा, खाल में घुसकर शरीर भर में घूमता रहता है। कैसा लगता होगा? पानी उबालेंगे तो नारू नहीं आएगा। पर जो आ गया, वह नहीं जाएगा। पर यह नारू नहीं है। अजगर है क्या? नहीं, यह नाग है। अजगर जैसे कसता नहीं, डसता है। नारू के जैसे खाल के अंदर छिपता नहीं, दबंगई से ऊपर रेंगता है।

भोले-भाले, सरल लोग हैं। कभी भी कहीं भी खाने लगते हैं। कभी भी कहीं भी दाँत माँजने लगते हैं। अभी-अभी रुकी बस में बैठी बहिनी कोयले के चूरे से दाँत साफ कर खिड़की से बाहर थूक रही है। थूंको नका। थूंको नका।

एक सुंदरी मेरे पास आकर कुछ पूछती है। थोड़ी मराठी समझने लगा हूँ पर वह मराठी नहीं बोलती है। फिर भी उसकी माँग समझ आती है। हाथ बढ़ाता हूँ, वह बोतल ले लेती है। मुँह से छुए बिना, साँस रोककर पूरी बोतल पी जाती है। तृप्त हुई। अमृत अधरों से होकर गर्दन भिगोता हृदय तक आता है। मैं सामान्य क्यों नहीं हूँ? अंदर तक क्यों दिखता है मुझे? उसकी नजर बचाकर वीजे मुझे आँख मारता है। अचानक गर्मी का अहसास होता है। लेकिन बोतल अब खाली है। कमाल है, पूरे बस अड्डे पर पानी का इंतजाम बिल्कुल नहीं है। लोग प्यासे हैं, बेचैन हैं। उनकी प्यास के लिए प्रशासन नहीं मनु जिम्मेदार हैं। यहाँ कैसे हो, पानी तो गंगा, यमुना कावेरी, कहीं भी नहीं है। उसके लिए चाणक्य जिम्मेदार है। उसी ने भरा की जड़ में मट्ठा डाला था। पानी को भूल जाओ, मनु को गाली दो, चाणक्य का पुतला जलाओ। उफ्फ, सुई जैसा कुछ चुभा अचानक।

See also  पिता का नाच | आशुतोष

शिंदे बता रहा है, “पोटनीसाँचे वड़गाँव आज भी दूर-दूर तक मशहूर है। बहुत खुशहाली थी यहाँ। गांधीवध के बाद खड़े खेत जला डाले। गांधीद्रोही, देशद्रोही कहकर उजाड़ दिया ब्राह्मणों के घरों को, तोड़ दिया खलिहानों को।”

ब्राह्मण खत्म हुए। जो बचे वे पुणे, मुंबई, दिल्ली, लंडन चले गए। पोटनीस अब कभी भी वापस नहीं आएँगे। उनके बनाए ताल, बाँध, सब मिटा दिए गए। 1948 में पहली बार सूखा पड़ा था यहाँ। तब से अब तक सब बर्बाद हो गया है। बस्ती के बाहर उजड़े मंदिर की दशा आज भी वही दास्ताँ बयान करती है। गाँव के नाम से पोटनीसाँचे हटाने का आंदोलन चल रहा है। नया नाम शायद ज्योतिबा फुले ग्राम होगा। मंदिर का जलकुंड सूख चुका है। लोग प्यासे हैं। मंदिर की जगह नेताजी की मूर्ति लगेगी। पुरखों के चिह्न?

पंडितों के दरवाजों पर कोयले से निशान लगाए जा रहे हैं। “धर, कल यह घर खाली चाहिए।” 1989 में पहली बार काली बर्फ गिरी थी। बकवास है, बर्फ कभी काली नहीं होती। पंडित कभी कश्मीर में नहीं रहते थे। पंडित नेहरू को गौस अली गाजी का रिश्तेदार बता दो। बाकी काम अपने आप हो जाएगा। वादी… मतलब नर्क। भूखे नंगे शरीर गैस चैंबर में लाए जा रहे हैं। क्या हिटलर कभी हारेगा? यहूदियों को उनका इसराइल वापस मिलेगा? क्या वे शांति से रह पाएँगे? इस्राइल बन भी गया तो क्या यहूदियों से भी अधिक सताए गए रोम और डोम लोगों को अपना घर मिलेगा? क्या रोम यूरोप में और डोम मध्य-पूर्व में अनंत काल तक भटकेंगे? त्रिशंकु को चैन कब मिलेगा?

कमनीय लड़की चली गई है। कन्नड़ बोल रही थी। लेकिन, कन्नड़ तो मुझे अच्छी तरह आती है। ठीक तो है, तभी तो समझ सका उसकी बात। प्यास को किसी भाषा की जरूरत नहीं होती। दोष जल-प्रबंधन का नहीं है। दोष जाति का है, क्षेत्र का है। दोष भाषा का है। तुम तो अँग्रेजी और तमिळ बोलती थीं। हिंदी का एक शब्द भी नहीं जानती थी। सीखी भी नहीं। हमारा संवाद फिर भी था। कैसे? संस्कृत वाक? तमिळ संगम? मौन रागम्? मुझसे क्यों डरती थी तुम? हम तुम्हारी भाषा, संस्कृति क्यों मिटाएँगे? हमारी तो स्वयम् की भाषा, संस्कृत, संस्कृति सब मिट गई। अपने ही देश में बेगाने हो गए। हाशिये पर भेजकर धीरे-धीरे शांत कर दिए गए। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः! यह कोई मामूली सुई नहीं, तीक्ष्ण तीर है। पाँव पर रेंगते नाग ने मुझे डस लिया है शायद। फुफकार तो सुनाई नहीं दी। काल की लाठी बेआवाज होती है। क्या यह नाग मेरा काल है?

यम के दूत बडे मरदूतैं, यम से पड़ा झमेला… उड़ जाएगा… हँस अकेला।

वीजे को कुमार गंधर्व पसंद नहीं हैं। वह मेरे कमरे में खड़ा नाक भौं सिकोड़ रहा है। उसके मूँछ नहीं है।

“हँस अकेला… ये क्या रोंदू गाने सुनते रहते हो?” वीजे हमेशा टोकता रहता है।

“हवा-हवा, खालेद, पॉप? पाकिस्तान, अरब, अमेरिका? क्या चाहिए?”

“आजकल गजल का चलन है” वह कैसेटों के ढेर में छिप सा गया है।

“ये लो गुलाम अली, जगजीत सिंह… सब तो हैं।”

शिंदे चाय लेने अंदर चला गया है। दीवार पर भीमराव अंबेडकर की बड़ी सी तस्वीर है। मैं ध्यान से देखता हूँ। वाद-विवाद में हमेशा प्रथम आता था मैं। नर्सरी से कॉलेज तक। कभी भी लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ा। अंबेडकर पर प्रतियोगिता थी। भाषण प्रतियोगिता में दस हजार रुपये का इनाम? पहले कभी सुना नहीं था। पहली बार स्टेशन जाकर अंबेडकर पर एक किताब खरीदी थी। कितनी मेहनत करके भाषण की तैयारी की थी। जीवन का सबसे अच्छा भाषण उसी दिन दिया था। मुझे कोई इनाम नहीं मिला। जो जीते वे तो सांत्वना पुरस्कार के लायक भी नहीं थे। एक निर्णायक ने बाद में मुझे बाहर ले जाकर कहा, “एक शर्मा को इनाम देना तो उलटबाँसी हो जाता।” तुम्हें क्या मालूम उलटबाँसी क्या होती है? उलटबाँसी में विरोधाभास नहीं होता है। तुमने कबीर को केवल पढ़ा है। हम तो दिन रात कबीर को जीते हैं। पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ…।

See also  बेटी पराई नहीं होती, पापा | रोहिणी अग्रवाल

शिंदे अपने दोस्त शर्मा के बारे में बताते हुए तैश में आ गया है, “मुंबई में शर्मा क्यों नहीं होगा? गुजराती, बंगाली, अन्ना, बाबा सब है वहाँ, बस मराठा माणस नहीं है। है भी तो फक्त हम्माली (शारीरिक श्रम) करता है। घाटी (पहाड़ी/मराठी) शब्द तो एक गाली है मुंबई में।” देश में कहीं भी चले जाओ, स्थानीय आदमी अबला ही है। सदा का सताया हुआ, सहमा हुआ, शोषित, पद-दलित। घर का जोगी जोगड़ा, ठग बाहर का सिद्ध! सताया हुआ आदमी कोई भी अपराध कर सकता है। उसे सजा नहीं होती, उससे वार्ता होती है। उसके लिए पैकेज बनते हैं। पैकेज से समृद्धि आती है। यह विकास का मार्ग है। विकासमार्गी, प्रगतिशील, उन्नत वर्ग। इसीलिए आम आदमी को विद्रोह करने के लिए तैयार करते हैं ये नरभक्षी। उसे सुसाइड बॉमर बनाते हैं। भूसा तैयार है। जिस किसी के पास दियासलाई की एक तीली हो, आके जला दे। अरे, कोई है?

इस मुल्क ने जिस शख्स को जो काम था सौंपा, उस शख्स ने उस काम की माचिस जला के छोड़ दी।

चर्बी का चलता फिरता ढेर अपने झोले में से टॉर्च निकालकर गरीब मजदूरों को आशा की किरण दिखा रहा है। मजदूर सम्मोहित से बैठे हैं। मुझे स्पष्ट दिख रहा है कि झोले के अंदर बँधी हुई आशा छटपटाकर चिल्लाने की कोशिश कर रही है। जब तक मैं कुछ करूँ चर्बी के ढेर ने उसका गला दबा दिया है। मैं बेंच से उठना चाहता हूँ परंतु मेरा दर्द बढ़ता जा रहा है। क्या मेरा दर्द आशा के दर्द से, मजदूरों की मजबूरी से बड़ा है? मजदूरों को अभी भी आशा की किरण दिख रही है। मेरी चुभन और बढ़ गई है। मुझे लगा कि नाग अपना जहर मुझमें उड़ेलेगा मगर यह तो उलटा मेरा खून पीने लगा है। हवा तेज हो गई है। सुंदरी की फेंकी खाली बोतल उड़ी जा रही है। दर्द असहनीय हो गया है।

“गजलें तो अच्छी सुना करो, जैसे कि पंकज उदास…।”

“देखो वह है तो एक, उधर…”

“ये उसकी सबसे बेकार ऐलबम है… अरे कुछ नशा, शराब, मय…पीना, पिलाना…”

“पीजिए” शिंदे चाय लेकर आता है, मुझे चित्र देखता पाकर झेंपता हुआ कहता है, “अंबेडकर की तस्वीर मैंने नहीं लगाई है। वह तो मकानमालिक ने पहले से ही लगाकर रखी थी। …हम वो नहीं हैं जो आप समझ रहे हैं।”

मैं उठकर चलने का प्रयास करता हूँ मगर हिल भी नहीं पाता। बैंच और मैं एकाकार हो गए हैं। नहीं, यह असंभव है। नाग ने मुझे जकड़ रखा है। वह मजे से मेरा खून पी रहा है। खबरें आती जा रही हैं, उत्तराखंड अलग हो गया है। नंद ऋषि की दरगाह अब चरारे-शरीफ कहलाएगी। परशुरामपुरी का नया नाम कुल्हाड़ा पीर है। संपत्ति तुम्हारी हो गई तो क्या, पुरखे तो मेरे हैं। उनका नाम मत छीनो। वड़गाँव ले लो, दरगाह ले लो परंतु नंद ऋषि को मत मारो, धर और पोटनीस को बेघर मत करो।

लोग प्यासे हैं। अब प्लास्टिक की बोतल में पानी है, मगर गंदा, नाले का पानी। लेबल पर अभी भी अँग्रेजी में गैंजेस लिखा है। नाग मुझे छोड़ देता है। वह झूम रहा है। मानो नशे में हो। अब मैं ठीक हूँ। बेंच से उठ भी सकता हूँ शायद। मगर उठता नहीं। तुम जो पास नहीं हो। अलगाव जरूरी था क्या?

नाग मदमस्त होकर गा रहा है, “दिलाँची नागिन निगाली, नागोबा डोलाय लागला!”

तुम गुस्से में कहती हो, “डोंट इंपोज हिंदी ऑन अस।”

वीजे हँसकर कहता है, “मूँछें कटा लो।”

Download PDF (मैजेस्टिक मूँछें)

मैजेस्टिक मूँछें – Majestick Muche

Download PDF: Majestick Muche in Hindi PDF

Leave a comment

Leave a Reply