सारा शहर डूबा है | धीरज श्रीवास्तव

सारा शहर डूबा है | धीरज श्रीवास्तव

सारा शहर डूबा है | धीरज श्रीवास्तव सारा शहर डूबा है | धीरज श्रीवास्तव चारों तरफ हरहराती बाढ़ की विभीषिकाबाढ़ का चक्रवात दृश्यकमर तक खड़ा बाढ़ मेंअपने सामानों कोपीठ पर लादे ढो रहा हूँ। गली-नाले, नुक्कड़, पेड़-पौधेसारे घर-भवन पानी का रेगिस्तानछतों पर चढ़े चिल्लाते लोगमदद को पुकारते हैं। मैं शून्य-मूक-सा बनादेखता-सुनता हूँहर तरफ जल ही … Read more

‘मैं’ की तलाश | धीरज श्रीवास्तव

'मैं' की तलाश | धीरज श्रीवास्तव

‘मैं’ की तलाश | धीरज श्रीवास्तव ‘मैं’ की तलाश | धीरज श्रीवास्तव मन के झरोखों सेमैं, ‘मैं’ को खोजता हूँखुद को खोजता हूँअध्ययन / चिंतन / विचारमनन/करता हूँपर हताश हो जाता हूँखुद को खोजता-खोजतारो पड़ता हूँ। चेहरा मकड़ी का जाला बन जाता हैतब न जाने क्योंअँधेरा / वेदना / करुणा / दुख / सहानुभूतिअपने साथी … Read more

पत्थरों के अवशेष | धीरज श्रीवास्तव

पत्थरों के अवशेष | धीरज श्रीवास्तव

पत्थरों के अवशेष | धीरज श्रीवास्तव पत्थरों के अवशेष | धीरज श्रीवास्तव खंडहरों का प्राचीन अवशेषकाँपते-टूटते, जीर्णपत्थरों के अस्तित्व ! याद दिलातेआने वालीनई सभ्याताओं कोअपनी अर्वाचीन सभ्यता का। काँपती-हिलती दीवारेंटूटे-फूटे, आँगन-चौबारेखड़े हैं सादियों सेमहलों के ये अवशेष। पत्थरों के अवशेष !स्मृति करातेपरिचय देतेअपने सामाजिकराजनीतिकधार्मिकरिवाजों के।देख उनकी सभ्यताविस्मित है आज का मानव।

घोंसला | धीरज श्रीवास्तव

घोंसला | धीरज श्रीवास्तव

घोंसला | धीरज श्रीवास्तव घोंसला | धीरज श्रीवास्तव दूर-दूर उड़ते आसमानों मेंये पक्षियों के झुंडमंजिल की तलाश मेंफिरते हैं मारे-मारे। तिनका-तिनका जोड़करघोंसला बनाते हैंरात होती, दिखाई न देताबेचैन हो, खोजते-फिरतेअपना आशियाना, इधर-उधर। बच्चे जब चिल्ला उठते हैंचोंचों से दाना खिलाते हैंखुद भूखे रहकर बच्चों का पेट भरते हैंमात-पिता का अनोखा अपनापन।बड़े हो बच्चे, माँ-बाप भूलउड़ … Read more

गाँव पर एक भोला भाला निबंध | धीरज श्रीवास्तव

गाँव पर एक भोला भाला निबंध | धीरज श्रीवास्तव

गाँव पर एक भोला भाला निबंध | धीरज श्रीवास्तव गाँव पर एक भोला भाला निबंध | धीरज श्रीवास्तव सूनी डगर, धूल भरे रास्तेदूर-दूर तक जाती हुई पगडंडियाँमेड़ों में बहता पानी,हल उठाए किसानआजाद घूमते पशु-पक्षीलहलहाते धानों की बालियाँसोंधी मिट्टी की खुशबूमेरे मन को बार-बार छू जाती है। वो अमराइयों की छाँववो ताल-तलैयावो घास-फूसों के छप्परवो घूँघट … Read more

कूड़ा | धीरज श्रीवास्तव

कूड़ा | धीरज श्रीवास्तव

कूड़ा | धीरज श्रीवास्तव कूड़ा | धीरज श्रीवास्तव चिलचिलाती धूप, अंगारों-सी जमींदेखो बुहार रही है कूड़ा। हवाओं के थपेड़ों में,जूझता उसका आँचलगर्द भरे चेहरे, काली होती चमड़ीदेखो बटोर रही है कूड़ा। रोते चिल्लाते हैं उसके बच्चेगर्द भरे चेहरों से माँगते हैं, खाना-खानाएक हाथ से बच्चों को सँभालतीदूसरे से ढो रही है कूड़ा। वक्ष खुला, आँचल … Read more