कूड़ा | धीरज श्रीवास्तव
कूड़ा | धीरज श्रीवास्तव

कूड़ा | धीरज श्रीवास्तव

कूड़ा | धीरज श्रीवास्तव

चिलचिलाती धूप, अंगारों-सी जमीं
देखो बुहार रही है कूड़ा।

हवाओं के थपेड़ों में,
जूझता उसका आँचल
गर्द भरे चेहरे, काली होती चमड़ी
देखो बटोर रही है कूड़ा।

रोते चिल्लाते हैं उसके बच्चे
गर्द भरे चेहरों से माँगते हैं, खाना-खाना
एक हाथ से बच्चों को सँभालती
दूसरे से ढो रही है कूड़ा।

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वक्ष खुला, आँचल खुला,
खुला सिर का जूड़ा
नही हैं ध्यान किसी और का
देखो बुहार रही है कूड़ा।

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