गाँव पर एक भोला भाला निबंध | धीरज श्रीवास्तव
गाँव पर एक भोला भाला निबंध | धीरज श्रीवास्तव

गाँव पर एक भोला भाला निबंध | धीरज श्रीवास्तव

गाँव पर एक भोला भाला निबंध | धीरज श्रीवास्तव

सूनी डगर, धूल भरे रास्ते
दूर-दूर तक जाती हुई पगडंडियाँ
मेड़ों में बहता पानी,
हल उठाए किसान
आजाद घूमते पशु-पक्षी
लहलहाते धानों की बालियाँ
सोंधी मिट्टी की खुशबू
मेरे मन को बार-बार छू जाती है।

वो अमराइयों की छाँव
वो ताल-तलैया
वो घास-फूसों के छप्पर
वो घूँघट से निहारती स्त्रियाँ
जब-जब याद आते हैं
आँखें धूमिल हो जाती हैं।

संगी-साथियों का झुंड
जहाँ बीता था बचपन मेरा
आज बहुत याद आते हैं
छूट गया आज वो गाँव का बसेरा
शहर हो गया निवास मेरा
आज भी याद आता है गाँव प्यारा
जहाँ बीता था बचपन मेरा।

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