कहानीकार | पल्लवी प्रसाद
कहानीकार | पल्लवी प्रसाद

कहानीकार | पल्लवी प्रसाद – Kahanikar

कहानीकार | पल्लवी प्रसाद

हवा में खुनक है जैसी हर सुबह हुआ करती है। माईक से स्वर उठा – “रोल नं. १२, रॉबिन ठक्कर… फेल!” प्रार्थना सभा में अपनी क्लास की पंक्ति में खड़े रॉबिन ने सिर उठा कर देखा फिर वह चलता हुआ सभा के सामने पहुँचा और ‘एफ’ ग्रेड के स्थान पर जा खड़ा हुआ। अब वह समस्त विद्यालय से मुखातिब है या यूँ कहिए कि विद्यालय उससे मुखातिब है। वह जहाँ खड़ा है वहाँ से पंक्तिबद्ध छात्र-मुंडों का विशाल समूह उसे दिखाई दे रहा है। पूरी की पूरी स्कूल वहाँ हाजिर है। वे उसे असहज बना रहे हैं। स्कूल का एक विशिष्ट नियम है कि परीक्षाफल के दिन हर क्लास के हर बच्चे की हासिल ग्रेड माईक पर घोषित की जाती। प्रार्थना के बाद बच्चे सभा के सामने खड़े होते, अपनी नुमाइश में हिस्सा लेते फिर अपनी जगह पर लौट जाते और दूसरी क्लास की बारी आती। इस तरह स्कूल के हर क्लास का रिजल्ट दुर्लभ तौर पर उम्दा हुआ करता। रॉबिन की बाईं ओर उसकी क्लास के बेहतर से बेहतरीन ग्रेड के बच्चे खड़े हैं। फेल ग्रेड में हर बार की तरह वह अकेला खड़ा अटपटा महसूस कर रहा है। एक बड़े क्लास की पंक्ति से उसका कोई पुराना सहपाठी चिल्लाया, “हे रॉबिन!” उस लड़के ने हवा में ‘थंबस् अप’ का इशारा लहराया।

लड़के हँसे, क्लास टीचर हरकत में आई। रॉबिन चौंका – फिर लड़कों को देख कर मुस्कुराया – फिर घबराया – उसकी मुस्कान लुप्त हो गई। वह इसी तरह चौंक-चौंक कर मुस्कुराता है मानो तय नहीं कर पा रहा हो कि मुस्कुराना चाहिए या नहीं – मानो जलने की कोशिश में बुझ-बुझ जाती कोई ट्यूबलाइट! उसके पीछे स्टेज पर प्रिंसिपल समेत स्कूल की सारी नन-सिस्टर्स व शिक्षकगण मौजूद हैं। आज का दिन विशेष है। सार्वजनिक अपमान के डर से आज अधिकाधिक बच्चे पास हो जाएँगे। वही अपमान रॉबिन जैसे इक्के दुक्के बच्चों को जीवन-पटल से सदा के लिए फेड कर देगा कभी न उभर पाने के लिए। आज के बाद रॉबिन अपने पुराने साथियों के साथ उठ-बैठ नहीं पाएगा। वे उस से कन्नी काटेंगे। उसके नए साथी उस से उम्र में छोटे होंगे और वे उसका मजाक बनाएँगे। क्लास में शिक्षक उसका निरादर करेंगे। वह अकेला रहेगा। उसे आदत जो है, इधर कुछ वर्षों से वह कोई भी कक्षा एक बार में पास नहीं कर पाता। और उसी कक्षा में दूसरी बार फेल भी नहीं होता चूँकि एक ही क्लास में दो बार फेल होने से वह स्कूल से निकाल दिया जाएगा। उसे नहीं पता कि दूसरी बार वह कैसे प्रोमोट कर दिया जाता है जबकि पहली बार में वह पास नहीं हो पाता? सभा से आँखें चुराने के बहाने रॉबिन अपने जूतों को देखने लगा। वे उसे धुसरित लगे तो अपनी एड़ियाँ उठा कर उसने बारी-बारी से उन्हें पैंट की मोहरियों पर साफ कर लिया। इस दौरान ए ग्रेड वाले बच्चों को मेरिट पदक पहनाए जा रहे हैं, तालियों की गड़गड़ाहट है, वह बगलें झाँकने लगा। उसने आसमान की ओर देखा। वहाँ स्कूल की बेदाग इमारत के कंगूरे के ऊपर सलीब पर काँटों में लिपटे, कीलों से ठुँके ईसा मसीह टँगे थे। ईसा का मुँह एक तरफ लुढ़का हुआ था। क्या वह सिर से पैर तक उजले आबे-काबे में ढकी पाकीजा संन्यासिनों के गुनाह मुआफ करवा रहे थे? क्या वे परम पिता से प्रार्थना कर रहे थे? – “हे प्रभु, इन्हें क्षमा करना, ये नहीं जानती ये क्या कर रही हैं।” …साफ नीले आसमान में ठीक ईसा के सिर के ऊपर से एक झुंड कौवे काँव-काँव करते उड़ चले, जूठन की तलाश में। …रॉबिन उन्हें चाव से देखता रहा। उसे पक्षियों से प्यार है।

“रोबीन… एई रोबीन… कहाँ रह गया तू…?” कमरे के दरवाजे से भीतर झाँकते हुए बूढ़ी नवसारी मासी ने पुकारा। रॉबिन अपने बिस्तर पर बैठा अपने पाजामे में लग गए खोंच को सुई-धागे से सिल रहा था। यह छोटे-मोटे काम वह खुद कर लिया करता है। आखिर इन्हें करेगा भी कौन? इस उम्र में नवसारी मासी को बारीक चीजें सूझती भी हैं क्या भला? रॉबिन ने बिना सिर उठाए ही कहा, “हूँ।” – “यह कैसे फट गया?” मासी ने पूछा लेकिन उन्हें कोई उत्तर न मिला। वे झल्लाईं, “अब चाल ने दिकरा… कढ़ी खिचड़ी ठंडे हो जाएँगे! तेरे पप्पा अकेले बैठे जीम रहे हैं…।” वे बड़बड़ाती हुई लौट गईं। जब तक रॉबिन खाने के लिए रसोईघर में पहुँचता उसके पप्पा आधा भोजन कर चुके थे। उन्होंने उसे खामोश लेकिन बिंधती नजरों से देखा, रॉबिन ने अपनी नजरें चुरा लीं। न पप्पा ने उसके देर से आने का कारण पूछा न ही मासी ने उसके फटे पाजामे का जिक्र किया। रॉबिन ने राहत महसूस की। वह नहीं चाहता था कि किसी प्रकार की तफ्तीश हो और इन लोगों को पता चले कि उसका पाजामा कब्रिस्तान में उगी बेर की झाड़ियों में फँस कर फटा है। वह नहीं जानता कब्रिस्तान का नाम सुन कर यह लोग क्या करें? पप्पा तो उसे बिल्कुल ही समझ नहीं आते। नवसारी मासी को उम्र ने मुलायमियत नहीं, तजुर्बे ने कठोरता अता की है। वे रॉबिन का राज जान जाएँ तो घर सिर पर उठा लेंगीं और जरूर ही उसके लिए कोई नायाब सजा मुकर्रर की जाएगी। उनकी पहली आपत्ति यह होगी कि वह मुसलमानों का स्थान है और बाद की आपत्ति यह होगी कि वह मुर्दों की जगह है। मुसलमानों से मासी बहुत चिढ़ती है, उन्हें गंदा मानती है – वे नहाते नहीं और मांस खाते हैं, ऐसा उनका कहना है। मासी से रॉबिन को डर लगता है हालाँकि वह रोज नहाती है और कभी जीव-हत्या नहीं करती।

रॉबिन स्कूल बस में सामने की सीट की पीठ के डंडे को दोनों मुट्ठियों में कस कर बैठा है। बस हिचकोले खाती हुई अपनी रफ्तार से चली जा रही है। बीच-बीच में वह निर्धारित स्टॉप पर रुक कर बच्चों को उठाती जाती है। रॉबिन सातवीं कक्षा में है लेकिन उसकी उम्र सोलह साल है। उसके चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ है जिससे वह दुविधा व लज्जा भी महसूस किया करता है। उससे उम्र में कहीं ज्यादा छोटे बच्चे स्कूल सायकल पर आया-जाया करते हैं। किंतु रॉबिन को इसकी अनुमति प्राप्त नहीं। उसके पिता जीवन में खतरे उठाने के पक्ष में नहीं हैं, कहते हैं, “जो बचा है यही सँभल जाए…।” यह भी एक किस्सा है जो फिर कहीं आगे बयान होगा। फिलहाल रॉबिन की आँखों में इंतजार की चमक है। उसके गाल दबी खुशी से खिल रहे हैं। बस की खिड़की से फरफराती हवा उसकी आँखों को मूँदे दे रही है, हवा की ठंडक उसके चेहरे पर उग आए ताजे पके कील में जरूर टीस पैदा करती होगी लेकिन रॉबिन इससे बेपरवाह है। बस एक और मोड़ और उसका प्यारा कब्रिस्तान उसकी आँखों के सामने होगा। उसकी बस रोज इसी रास्ते से गुजरती है। कब्रिस्तान तो सदा से ही इस रास्ते में पड़ता रहा है लेकिन इधर कुछ महीनों से रॉबिन उसके प्रति सचेत हुआ है। इस साल वहाँ पक्षी आए हैं – ऐसे वैसे पक्षी नहीं, गिद्ध! …कई सारे! वे कब्रिस्तान में उग आए जूने जंगली पेड़ों की शाखाओं की फुनगियों पर हर सुबह बैठते हैं – खुदा की इबादत में धूप सेंकते हुए। रॉबिन आगे बढ़ चली स्कूल बस से मुड़-मुड़ कर पीछे छूटते कब्रिस्तान को देख रहा है, वह गिद्धों का घर-ठिकाना ढ़ूढ़ेगा, उनके अंडे… उनके चूजों के साथ खेलेगा। उसने कभी गिद्ध का बच्चा नहीं देखा, तसवीर में भी नहीं।

‘मनसुख पान दुकान’ इस इलाके की आखिरी रौनक है। इस से आगे दूर तक सन्नाटा पड़ता है। मनसुखभाई ने ग्राहक को निबटा कर अपने हाथ में लगे कत्थे-चूने को गीले कपड़े से पोंछते हुए कहा, “बावलो छे!” और वे अपने काले दाँतों को दिखा कर हँस दिए। जवाब में उड़े लाल रंग की छोटी सायकल पर दूर जाते रॉबिन ने भी पलट कर उन्हें अपने सुफेद दाँत दिखा दिए, वह निमग्न पैडिल मारता चला गया। दरअसल रॉबिन को देख मनसुखभाई से जब्त न हुआ और वे उसे पुकार कर पूछ बैठे थे, “क्यों रे रोबीन? आजकल तू रोज उस बाजू क्या करने जाता है? वाँ तो कुछ भी नई?” रॉबिन ने उत्साह से चिल्ला कर जवाब दिया था, “मेरे नए दोस्त आए हैं मनसुखभाई – पक्षीss…!” पल भर को मनसुखभाई चकराए लेकिन रॉबिन का आशय समझते ही उनका वात्सल्य हँसी बन, छलक उठा।

वे उसके परिवार को बरसों से जानते हैं। कभी-कभी रॉबिन के पीठ पीछे वे ठंडी उसाँस छोड़ते हुए बुदबुदा उठते, ” बेचारो!” – ढलती दोपहर में रॉबिन ने अपनी पुरानी सायकल कब्रिस्तान के ढह चले हाते के सहारे टिका दी। कब्रिस्तान के फाटक पर बड़ा सा जंग लगा ताला न जाने कितने ही वर्षों से लटक रहा है। अब यहाँ मुर्दे नहीं लाए जाते, यहाँ की पुरानी कब्रें जंगली झाड़ियों में दफन हो चली हैं। सुनने में आता है इस जमीन के दुबारा इस्तेमाल के खातिर कोई मुआमला भी कोर्ट में मुल्तवी है शायद? फिलहाल रॉबिन टूटी दीवार के रास्ते भीतर के जंगल में घुस गया। वह पहले भी आ कर यह जगह देख गया है। उसे मालूम है यहाँ आने के लिए क्या चाहिए। वह उस चीज को घर से चुरा लाया है – एक हँसिया। रॉबिन चुराए हुए औजार से दाएँ बाएँ वार करते हुए आगे बढ़ रहा है। कँटीली झाड़ियों की सूखी टहनियाँ टक-टक करतीं गिर रही हैं, वह पैर से उन्हें किनारे ठेलता हुआ अपना रास्ता बना रहा है। रॉबिन की मामूली बाँहें इस मशक्कत से दर्द करने लगीं। जिस झटके से वह वार करता है उसी तोल का झटका उसकी बाँहें खाती हैं। रॉबिन ने न्यूटन का दिया तीसरा नियम नहीं पढ़ा – क्रिया व प्रतिक्रिया, एक साथ, एक ही मात्रा में, विपरीत दिशाओं में घटित होती हैं। रॉबिन साँस लेने के लिए थमा, उसने आस्तीन से अपने माथे पर छलक आया ढेर सारा पसीना पोंछा। धूप से चुँधियाई आँखों को हर पेड़ पर फेर कर देखा, गिद्ध कहीं दिखाई न दिए। भला कहाँ गायब हो गए हैं? रोज सुबह तो इन्हीं फुनगियों पर बैठे होते हैं। …खरगोश? …काला खरगोश! नहीं-नहीं… लंबे लंबे कानों वाला चित्तकबरा खरहा। रॉबिन और खरहा दोनों एक दूसरे को ठमक कर देखने लगे – क्या ही अप्रत्याशित मुलाकात! रॉबिन हौले से आगे बढ़ा तो खरहे ने दूर छलाँग लगाई और कुलाँचें भरता झाड़ियों में ओझल हो गया। रॉबिन ने उत्साहित होकर यथासंभव उसका पीछा किया चूँकि उसे उन झाड़ियों से जूझना भी पड़ रहा था।

खरहा हाथ न आना था सो न आया लेकिन वह गिद्धों का ठिकाना बता गया। रॉबिन ने खुद को कब्रिस्तान के दूसरे छोर पर खड़ा पाया। यहाँ की दीवार बिल्कुल ही उजड़ गई है। सामने कब्रें नहीं हैं और जमीन नीचे को ढलती जाती है। ढलान के पार काले बदबूदार नाले का पानी रुका खड़ा है, शहर का कूड़ा दूर तलक फैला है और वहीं गिद्धों का झुंड अपने दुर्गन्ध भरे खुराक में आश्वस्त सुस्ता रहा है। ‘यह पेड़ों पर बैठे कहीं ज्यादा सुंदर लगते हैं’, रॉबिन ने सोचा। वह चुपचाप ढलान के ऊपर खड़ा हो कर गिद्धों की गतिविधियाँ निहारता रहा। नाले की कूड़े पटी धारा से दूर किसी जमाने का रंग व जंग से लाल हुआ जर्जर-टूटा रेल डिब्बा उलटा पड़ा था। वे दिखाई नहीं पड़ रही हैं लेकिन सिंगल लाइन की जोड़ा पटरियाँ वहीं कहीं ऊँची घास में दुबकी सो रही हैं। यह शहर पहले रजवाड़ा था – यह राजा की रेल है। सुनते हैं पटरियाँ उखाड़ने का खर्च उनके उपयोग से ज्यादा पड़ता है। शायद तभी छोटी लाइन के साथ पड़ने वाली जमीन बियाँबा हो चली है।

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“श्श-श्शच्…!” किसी ने पीछे से रॉबिन को पुकारने के लिए आवाज निकाली। किसी अजनबी का ध्यान खींचने के लिए ‘ओ हैलो’ बोलना आयातित भाव है। हमारा मूल भाव है उपरोक्त ढंग से जुबाँ-तालू-साँस की मदद से सिसकारी मारना। सायकल वाले की सायकल की घंटी खराब हो जाए तो चिंता की कोई बात नहीं – वह सड़क पर अपने से आगे चल रहे लोगों को सिसकारी मारता हुआ सावधान किए देता है। सो रॉबिन ने पलट कर पीछे देखा। कुछ दूरी पर दीवार की ढेर पर टेक लिए एक बूढ़ा खड़ा था। ढलती हुई धूप में उस के चेहरे की झुर्रियों में कौतुक चमक रहा था। रॉबिन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित देख बूढ़े ने उस से पूछा, “कौन है तू? यहाँ क्या कर रहा है?” रॉबिन ने झट से अपना नाम बताया, “मैं रॉबिन ठक्कर।” आगे का उत्तर उसे तुरंत न सूझा, वह गड़बड़ा गया। बूढ़े ने अपना सवाल दुहराया तो झिझकते हुए वह कह गया कि वह गिद्धों की खोज में आया था और एक खरहा का पीछा करते हुए यहाँ पहुँच गया।

बूढ़ा मुस्कुराया। रॉबिन ने सोचा फाटक पर तो ताला जड़ा है, क्या यह बूढ़ा उसकी तरह टूटी दीवार से घुस आया है? इस अवस्था में यहाँ इस तरह आने की इसे क्या गरज पड़ी? हो सकता है दूसरी ओर कोई और रास्ता पड़ता हो। रॉबिन ने धीरे से पूछा, “तुम कौन?” बूढ़ा बोला, “मैं महमूद इस्माईल बंदूकवाला …यहाँ का केयरटेकर हूँ।” रॉबिन ने उसे अचरज से देखा और कहा, “यदि यह तुम्हारा काम है तो तुम अपना काम ठीक से नहीं करते? कब्रिस्तान जंगल हो गया है।” इस्माईल ने अपनी भूल सुधारी, “मेरा मतलब था कभी मैं यहाँ का केयकरटेकर हुआ करता था। बरसों बीत गए मुझे नौकरी छोड़े हुए। भला इतने बूढ़े आदमी को क्या लोग नौकरी पर रखा करते हैं?” फिर महमूद ने एक ठंडी साँस खींचते हुए कहा, “…कभी-कभी तंग आ जाता हूँ तो इधर टहलने निकल पड़ता हूँ।” बूढ़ा उदास हो गया। यह देख रॉबिन भी उदास हो गया। बहुत देर बाद बूढ़े ने ही चुप्पी तोड़ी, कहा – “तुम्हें गिद्धों के बारे में मैं बहुत कुछ बता सकता हूँ।” – “अच्छा?” रॉबिन उत्साहित हो उठा। – “हाँ… हम उनके घोंसले ढूँढ़ सकते हैं और चूजे देख सकते हैं। …लेकिन इसके लिए तुम कल आना। देखो अँधेरा घिरने लगा है, तुम्हें घर लौटना चाहिए।” रॉबिन हड़बड़ा कर उठा और महमूद से अगले दिन मिलने का वादा कर के कटी हुई झाड़ियों वाले रास्ते से उलटे पैर घर लौट गया।

महमूद और रॉबिन की दोस्ती परवान चढ़ने लगी – एक जुल-जुल बूढ़ा और दूसरा नीम जवान! उस खंडहर कब्रिस्तान के जंगल में नए रास्ते बन गए। गिद्धों, खरहों, गिलहरी, पक्षियों, नेवलों आदी के संसार की निजता में जरूर खलल पहुँची होगी लेकिन मामूली ही। रॉबिन ने जाना के गिद्धों की बोली नहीं होती चूँकि उनके कंठ में स्वर पेटी नहीं होती इसलिए वे फुत्कारने सी आवाज भर निकाल पाते हैं – कि वे यहाँ इसलिए आए हैं कि इस निर्जन में अपने घोंसले बना सकें, कहीं झाड़-झाड़ियों, चट्टान पर अथवा कोटरों में… “यह अमूमन दो ही बच्चे देंगे। यह इनसानों की तरह घोर पारिवारिक हैं। लेकिन इनसानों से अलग, यह सच्चे आशिक होते हैं। यह ताउम्र अपना जोड़ा नहीं बदलते।” महमूद ने बताया। पक्षी तथा वनस्पति के किस्से व जानकारी बयान करते हुए महमूद अक्सर कोई कहानी सुनाने लगता।

कहानी सुनने में रॉबिन का मन बड़ा लगा करता। कहानी सुनाते-सुनाते महमूद रुक जाता और शिद्दत से रॉबिन का चेहरा पढ़ता – वहाँ वह मानो अपनी कहानी की निशानियाँ ढूँढ़ा करता। वह अचानक से पूछ बैठता, “ठीक तो लग रही है न?” रॉबिन का धैर्य छूट जाता और वह आजिज आ कर कहता, “आगे सुनाओ न!” महमूद फिर मस्त हो कर कहानी सुनाने लगता। एक दिन की बात है, तब तक गिद्ध किसी अनजान देश को उड़ गए थे। हमेशा कि तरह जब रॉबिन कब्रिस्तान पहुँचा तब उसके स्वागत में महमूद पहले से ही वहाँ मौजूद था। महमूद के बूढ़े नस उभरे हाथों के बीच एक बड़े सफेद रूमाल में ढेर सारे बेर बँधे थे – छोटे, पीले से ललछौंहे होते हुए बेर, स्वाद में मीठे-तुर्रे से। रॉबिन को देख महमूद हँसा और उसने साफ सपाट पत्थर पर झट रूमाल खोल कर बेर बिछा दिए। वे पहला तोहफा थे। जब दोनों के दरम्यान से लगभग आधे बेर चट् हो गए तब बूढ़ा महमूद बोला, “तुम्हें मेरा एक काम करना होगा।” रॉबिन का चलता हुआ मुँह रुक गया, “क्यों?” यह सुनते ही महमूद की जोर से हँसी छूटी। उसके बूढ़े कंधे दलकने लगे और हँसी से उसकी शक्ल मुड़े-तुड़े कागज जैसी दिखने लगी। वह कुछ देर तक टूटे दाँतों के बीच से “ठी-ठी…फी-फी…” की आवाज निकाल कर हँसता रहा।

फिर अपने घुटने पर हाथ मारते हुए बोला, “काम के लिए ‘क्यों’ पूछता है छोरा? तू मेरा बिडू है। बिडू लोग में व्यवहार चलता है। खरी बात बोली न?” – रॉबिन ने बिना एक पल रुके सिर हिला दिया, “खरी बात। क्या करना होगा मुझे?” बूढ़े को रॉबिन का यह प्रश्न वाजिब जँचा। महमूद ने पूछा मानो उसे उत्तर पहले ही पता हो, “तुझे मेरी कहानियाँ पसंद है न?” – “बहुत!” – “तू मेरी कहानियाँ लिखा कर।” रॉबिन ने बेवकूफों की तरह आँखें झपकाईं। महमूद थप् थप् की आवाज निकालते हुए अपनी छाती पीटते हुए बोला – “कितनी ही कहानियाँ दबी हैं यहाँ!” रॉबिन ने अचरज से देखा कैसे बूढ़े की ढीली छाती जोर से बज उठी। “लिखना-पढ़ना मेरे बस का नहीं।” यह कहते हुए रॉबिन की आँखों में चुपचाप सूनापन उतर आया मानो तमाम निरादर उसके मन में एकबारगी घुमड़ गया। महमूद ने उसे महीन नजरों से देखा। दिल के चाक होने का तजुर्बा क्या उसे ही न होता? उसने प्यार से रॉबिन के कंधे को छू कर कहा, “अभी तुझे दुनिया का क्या पता है दिकरा? तू देखना! मैं, महमूद इस्माईल बंदूकवाला तुझे इसी बावड़ (बबूल) के नीचे बिठा कर दुनिया और उसकी दुनियादारी से वाबस्ता कराऊँगा।” महमूद ने आतुरता से पूछा, “किताब कॉपी का इंतजाम तो तू कर लेगा न… कागज कलम?” – “हाँ, इसमें कोई दिक्कत नहीं आएगी। कितनी ही पुरानी अधूरी कॉपियाँ कोरी पड़ी हैं मेरी अलमारी में। वे मुझ से खर्च ही नहीं होतीं और स्कूल वाले बार-बार नई कॉपी लाने को कहते हैं।” – “बस, मैं जैसे-जैसे बोलूँ वैसे ही तू कॉपी भरा करना। और घर से कलम में फुल शाई (स्याही) भर कर लाना। जा अब घर जा! बाकी कल की बात!” महमूद ने हँस कर अपनी हथेली फैलाई, रॉबिन ने ताली दी और घर की राह पर पलटा। महमूद चिंता में डूबा उसे कुछ दूर जाते देखता रहा फिर अचानक कुछ सोच कर उसने रॉबिन को पीछे से पुकारा, “एल्या… सुन!” रॉबिन ने ठिठक कर आवाज दी, “क्या है?” – “मैं मुफ्त में तुझसे काम न लूँगा, बदले में तुझे नाम दूँगा… उन कहानियों पर तेरा नाम होगा!”

हिम्मत भाई ठक्कर – यह रॉबिन के पिता हैं। इन्हें अपने कामों से फुर्सत कम मिला करती है। यदि फुर्सत मिल जाए तो वे घबड़ा कर कोई नया काम ढूँढ़ लेते हैं। वे अधेड़ उम्र के गोरे, दुबले-पतले आदमी हैं। दीर्घ चिंता ने उन्हें सूखा छुहारा बना दिया है। उनके लंबे सँकरे सिर पर चंद भूरे-रुपहले बाल यूँ बेतरतीब उगे हैं मानो किसी अन्य लोक से बेदखली पा कर यहाँ बसे हों। उनकी निस्तेज काया में यदि कुछ जीवंत है तो वे हैं उनकी तृष्णा पगी दो आँखें, तेजी से यहाँ-वहाँ संदेह से हिलती-देखती उनकी दो पुतलियाँ। वे दूर से ही फिक्रमंद इनसान जान पड़ते हैं। वे सदा ही बगल में हिसाब की बही अथवा टैक्स पावती (रसीद) का रजिस्टर दबाए कभी किरायेदारों के घर, कभी नगरपालिका अथवा कचहरी के चक्कर लगाते दिखाई पड़ेंगे। न कुछ हुआ तो किसी प्लंबर, इलेक्ट्रिशियन, लादी (टाईल) वाले, पेंट वरना मोटर मरम्मत कारीगर की दुकान पर वे दिख जाएँगे। उनका काम ही ऐसा है। वे गरीब नहीं संभ्रांत माने जाएँगे किंतु भाग्य की दरिद्रता का क्या कहा-किया जाए? वे अभागे हैं। वे तीन भाइयों में सबसे छोटे हैं। रॉबिन के जन्म के बाद ही सब भाइयों ने आपस में मशविरा कर के तय किया कि हिम्मत को उनके कपड़ों के चढ़ते हुए संयुक्त व्यापार से बाहर हो जाना चाहिए और घर लौट कर पुश्तैनी जमीन जायदाद, मकान-मिल्कियत की देख रेख करनी चाहिए। उनके बुजुर्ग पिता ने भी सहमति दी और पुश्तैनी जायदाद सबकी सहमति से हिम्मत के नाम कर दी। हिम्मत हमेशा के लिए इस शहर में बस गए। सभी भाइयों की बेटियों की शादी का खर्च संयुक्त धंधे ने वहन किया है। हिम्मत की बेटी, रॉबिन से सत्रह साल बड़ी उसकी बहन फोरम की शादी का भार भी। इसके बाद हिम्मत का पारिवारिक धंधे में अब कोई हिस्सा नहीं।

हालाँकि बीते वर्षों में जरूरत पड़ने पर उनके भाई उन्हें निभाते आए हैं। फिर गाँव तलाजा की जमीन पर प्याज व लहसुन की पैदावार होती है सो अलग। ऐसे में उनके परिवार की गुजर-बसर हो जाती है। हाँ, हिम्मत भाई के दिन दौड़-धूप में कटा करते हैं – कभी किराये की उगाही, कभी बेदखली नोटिस, कभी मरम्मत, कभी खेत की बुआई-जुताई-कटाई-ढोआई… मातहतों की उन्हें कमी नहीं। – हिम्मत भाई को आज दोपहर के भोजन के लिए घर लौटने में देर हो गई है। उनके घर में घुसते ही उन्हें रॉबिन कॉपी कलम लिए अपनी सायकल बाहर निकालते दिख पड़ा। उसे देख वे चौंके। यह उनकी आदत है, वे जब भी रॉबिन को सामने पाते हैं तो यूँ चौंकते हैं मानो कोई भूला हुआ दिख गया हो। उन्होंने उसे टोका नहीं। नवसारी मासी से उन्हें खबर मिलती रहती है। वे जानते हैं कि आजकल रॉबिन किसी दोस्त के संग पढ़ने जाया करता है – इस बात से उनके मन में कोई उम्मीद नहीं जगी है। जाता है तो जाया करे। उन्होंने अपने काले चमड़े की चप्पलें घर से बाहर उतारीं। बैठक के झूले पर बैठते ही नवसारी मासी ने उन्हें छास का गिलास थमाया। उन्होंने रस्मी सवाल पूछा, “कहाँ गया रॉबिन?” – “दोस्तार के वाँ।” उत्तर दे कर मासी रसोई में हिम्मत भाई का खाना परोसने चली गई। वह नवसारी की है और न जाने कब और कैसे उसे लोग उसके शहर नवसारी के नाम से ही पुकारने लगे। वह सबकी मासी है।

“फोरमबेन का इधर फोन आया?” मासी के इस प्रश्न पर हिम्मतभाई ने खाना खाते हुए हाँ में सिर हिलाया। दो घूँट पानी पी कर बोले, “वे लोग मजे में है। फोरम बताती थी उपेंद्र कुँवर (दामाद के लिए संबोधन) कहते हैं रॉबिन को उन लोगों के पास अमेरिका भेज दूँ। वे उसका पासपोर्ट बनवाने कह रहे हैं…।”

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परिवार रॉबिन के जीवन-निवारण की कल्पना में खोया था और रॉबिन किसी अलग ही दुनिया में विचर रहा था। मौसम बदल रहे थे। बेर के बाद आम फलते फिर बारिश में राईमुनिया के फूलों की कचूर महक हवा में तिर जाती जिसे कोई बहुत संवेदनशील शख्स ही पकड़ पाता… जंगली झाड़ियों के बीच कोई अज्ञात सूखी-ऐंठी टहनी हरिया उठी और उसने गोल-गोल हरे पत्तों के दोने में मोगरे के फूल दिए। रॉबिन का मन बौरा उठा और वह कीचड़ में पुरानी कब्रों पर ठोकरें खाता कँटीली झाड़ियों में ताकता-झाँकता उस मोगरे को ढूँढ़ने लगा। बूढ़े महमूद ने हँसते हुए उसका साथ दिया और कहा – “लगता है कोई रसिक अपने महबूब की कब्र पर फूल चढ़ाने की जगह पौधा रोप गया था”। खुशबू के जरिये फूल तक पहुँचने में कितनी देर लगती? जल्द ही उन्होंने वह ‘महबूब की कब्र’ ढ़ूँढ़ निकाली।

कसे हुए ऊदे गमकते फूलों को देख रॉबिन को अनायास अपनी क्लास में पढ़ने वाली दक्षिण भारतीय लड़की बीना की याद हो आई जो शायद हर सुबह अपने बाल धोया करती और स्कूल के समय तक उनका सूख पाना संभव न हो पाता। वह दाईं-बाईं दो पतली लटों को जोड़ कर गुँथ लिया करती जिनके बीच उसके गीले केश खुले रहते – न आजाद न बँधे ही। बीना की कल्पना ने रॉबिन की हालत भी गीले केश जैसी कर दी – न आजाद न बँधा ही। वह जानता है बीना को फूल पसंद हैं। वह अक्सर लाल या सफेद गुलाब अपने गीले बालों में लगाती है। जो वह सुई-धागे से इन मोगरों का गजरा बना कर उसे देगा तो क्या वह उसे अपने बालों में टाँक लेगी? उसके झूलते हुए बालों में इन्हें सूँघना कितना ही भला लगेगा? …गहरे साँवले रंग वाली बीना की बिजली हँसी! रॉबिन को हरारत महसूस होने लगी। ठीक उसी वक्त महमूद चहलकदमी करते हुए बोल रहा था – “…घटाटोप अँधेरा छा गया। दोपहर से हो रही न थमने वाली बारिश ने शाम तलक सड़कों पर फिसलन ला दी है – धोखा… उसके फिराक में था! चाहे कदमों तले अथवा सड़क के मुहाने पर वह उछल कर उसे अपना शिकार बना लेगा। लान्स नायक अभिमन्यु ने अपने चेहरे को ढाँपने के लिए हाथ में पकड़ा हुआ काला छाता आड़ा कर लिया। एक भीगता हुआ सायकल सवार तेजी से पार हुआ। अभिमन्यु के बरसाती बूट पानी में कच्-मच् करते आगे बढ़े। न्यूज पेपर हॉकर अपनी दुकान समेट रहा है, अब किसी ग्राहक के आने की उसे उम्मीद नहीं, घर पर गरम टिक्कड़ और बिस्तर उसका इंतजार कर रहे हैं। अभिमन्यु पास की इमारत से यूँ दुबक गया मानो बरसात से बचना चाह रहा हो। लेकिन नहीं! दरअसल वह न्यूज पेपर हॉकर के चले जाने का इंतजार कर रहा है। वह आदमी उसी दुकान के बगल के दरवाजे से गायब हुआ है।

जरूर उसने अँधेरे जीने से चढ़ कर ऊपर की मंजिल में कहीं पनाह ढूँढ़ी है। वह बचने न पाएगा। अभिमन्यु ने अपने ओवरकोट की जेब में छुपी पिस्तौल टटोली। हाँ… हाँ दुकानदार दुकान पर ताला लगा कर आगे बढ़ा। उसने मुड़ कर घबराई नजरों से आस पास देखा और उसके कदम तेज हो गए। बस उसी पल…” महमूद ने अचानक रुक कर पूछा, “लिखा? …क्या लिखा? ” रॉबिन ने लिखा हुआ उसे पढ़ कर सुना दिया। महमूद बोला, “अच्छा, जरा सोचने दे!” और वह चुप हो गया। रॉबिन का जी उचाट लग रहा है, न जाने क्यों? उसे जीने पर चढ़े कातिल की जगह कोई स्त्री आकृति प्रतीत हो रही है। महमूद लिख नहीं पाता, इस उम्र में उसे अक्षर सूझते नहीं और उसके हाथ भी काँपते हैं। लेकिन जो कहो, बुड्ढा कहानियाँ कमाल की सोचता है! रॉबिन को बस मजा आ जाता है। रॉबिन लिखता जाता और महमूद रहस्य और रोमांच की परतें खोलता जाता। यदि रॉबिन लिखना छोड़ कहानी यूँ ही सुनाने को कहे तो महमूद कहानी वहीं रोक देता, टस से मस नहीं होता। वह कहता, “बिडू व्यवहार की बात है। कहानी सुनाने की मजूरी (मजदूरी) तेरा लिखना लेता हूँ। तेरे लिखने की मजूरी तुझे नाम देता हूँ।” रॉबिन हार जाता। सच है कि महमूद व्यवहार में पक्का है। महमूद के बताए पते के नाम कहानी का लिफाफा तैयार करते हुए जब कभी रॉबिन कह उठता, “महमूद तुम्हारी कहानी पर मेरा नाम भेजते हो, यह बात गलत है। हम झूठ बोल रहे हैं।” तब महमूद बच्चों की तरह किलकारी मार कर हँस पड़ता, “तूने किसी कहानीकार का नाम बंदूकवाला सुना है भला …महमूद इस्माईल बंदूकवाला! …ठाँय…ठाँय!” और वह इस कदर हो-हो कर हँसता कि पास की गिलहरी चौंक कर पेड़ पर चढ़ जाती। रॉबिन के ज्यादा दिक करने पर वह कभी दार्शनिक हो उठता और उसे समझाता, “मेरे को देख! न मेरे पास पिंजर बचा है न प्राण। बस इधर… (वह अपनी बूढ़ी छाती पीटता और वह जोर से बजती) …हाँ बिल्कुल इधर ही उम्र से लंबी कहानियाँ हैं… तू इन्हें ले ले?” अब इस प्रकार की अजीब बातों का रॉबिन को क्या जवाब सूझता?

नाम का नशा… वह रॉबिन पर रेंग कर चढ़ा। उसका नामालूम स्वाद मानों दाँतों तले दबे तृण की मिठास। जो हवा में राईमुनिया की महक पहचान ले, उसके लिए क्या नामालूम? महीने बीतते रहे। हर बारहवें महीने के बाद साल बदल जाया करता। किसी-किसी साल गिद्ध नहीं भी आते। रॉबिन स्कूल में एक बार फेल-दुबारा पास होता रहा जबकि उसके घर पर चिट्ठियाँ आने का सिलसिला बढ़ता ही चला गया। रॉबिन ठक्कर के नाम कैसी ही कैसी तारीफों भरी न जाने कहाँ ही कहाँ से चिट्ठियाँ आतीं। एक कहानी से दूसरी कहानी प्रकाशित होने तक चिट्ठियाँ जारी रहतीं तथा उसके बाद भी। पोस्टमैन उसे देख कर सलाम किया करता और उस रहस्यमयी छोकरे के बारे में मनसुख पनवाड़ी से खुसुर-पुसर बातें बनाता। हिम्मत भाई समझ न पाए इन चिट्ठियों के सिलसिले को। वे पहले अचंभित हुए फिर आतंकित… फिर लंबे समय तक दुखी रहने के बाद अब एक खामोश कोफ्तगी ने उन पर अपना स्थापत्य बना लिया है। वे किस पर और कैसे अपनी धमकियाँ फलीभूत करें, उनका बेटा घर पर बैठा रहता है और उसके नाम चिट्ठियाँ आती रहती हैं? रॉबिन के लिए हर बात की एक राह है – महमूद! वह हर पत्रिका की प्राप्त लेखकीय प्रति ध्यान से उसके पास ले जाता और उसे पढ़ने देता। महमूद की हर कहानी के साथ लेखक का नाम छपता – रॉबिन ठक्कर! अपनी कहानियाँ पढ़ कर महमूद नाच उठता! डाक से रॉबिन के पास पहुँचने वाली हरेक चिट्ठी पढ़ कर भी उसकी प्रतिक्रिया अद्भुत खुशी की होती। वह शाम ढलने तक उस चिट्ठी को बार-बार पढ़ता रहता और रॉबिन पास बैठा पेड़-पक्षियों पर कंकरी से निशाने साधता हुआ अन्यमनस्क बना रहता। यह समय अपवाद होता जब रॉबिन के नाम आई चिट्ठियों पर खुद रॉबिन का कोई अख्तियार न होता। वरना वह हर वक्त का लेखक बन चुका था। चलते वक्त महमूद बिना उसके माँगे ही वह पत्रिका या चिट्ठी रॉबिन को लौटा दिया करता। डूबती किरणों में महमूद के मुख पर अप्रतिम आभा होती – जैसे उसकी कहानियों का दर्ज होना ही कहानीकार का पारितोषिक हो।

“तू जानता भी है कि तू क्या कह रहा है? कितने दिनों से हम सब तुझे किसी ठीक ठिकाने लगाने के लिए मेहनत कर रहे हैं! क्या यह सब जुगाड़ करना मेरे अकेले के बस की बात थी? फोरम, उसका पति… तेरे काका लोग… किस-किस ने अपना जोर नहीं लगाया? चल माना मेरे भाई मेरे हिस्सेदार हुए लेकिन उपेंद्र कुँवर? जँवाई और उसके घर वालों ने हमारे लिए क्या नहीं किया! …और तू फालतू बातें कर रहा है?…” यह कहते-कहते हिम्मत भाई की साँसें तेज हो उठीं।

“तुम मुझे क्यों ठिकाने लगाना चाहते हो पप्पा? मैं अपने ठिकाने पर हूँ। मैं अमरीका नहीं जाऊँगा।” रॉबिन ने छोटी सी आवाज में कहा।

“तू किस लायक है जो तू यहाँ रहना चाहता है?”

“अपने घर में रहने के लिए क्या लायकात चाहिए पप्पा?”

“चाहिए लायकात!…” हिम्मत भाई ने अपनी आवाज ऊँची की। नवसारी मासी परदे के आड़ से झाँक कर गायब हो गईं। “…तू किसी गरीब-गुरबे के यहाँ जन्मा होता तो मेहनत-मजूरी कर लेता। जो किसी धन्नासेठ का बेटा होता तो पड़े-पड़े खाता लेकिन तू मेरा बेटा है। फिर तुझमें एक हुनर नहीं! अपने देस में तेरे जैसों के लिए इज्जत की कोई बसर नहीं। इसलिए कहता हूँ, विदेस चला जा।”

“तुम्हारी तरह मैं भी घर-खेत देखूँगा। फिर मैं लिखता हूँ…।”

हिम्मत भाई को देख कर लगता है वह रॉबिन को कच्चा चबा जाएँगे। वे दाँत पीसते हुए बोले, “तेरे लिखने की ऐसी-तैसी! तेरे जैसे लिखने वाले से गली में घूमने वाले मँगते भले। उन्हें भीख तो मिल जाती है। तू क्या उन चिट्ठियों को चाट कर अपनी और अपने परिवार की भूख मिटाएगा? …और कैसा परिवार, किसका परिवार? तेरे हाथ में अपनी बेटी देगा कौन? …घर-खेत देखने लायक है तू? तेरे मुँह से चूँ शब्द नहीं निकलता तू किराये कैसे वसूलेगा, मातहत से काम कैसे निकलवाएगा?…” हिम्मत भाई अब हाँफ रहे थे, क्रोध ने उन्हें बदसूरत बना दिया था। वे दंग थे उनका फिसड्डी बेटा उनकी मर्जी के खिलाफ अब तक अड़ा कैसे है?

“पप्पा, मैं काका के कारोबार में लग जा सकता हूँ …सूरत चला जाऊँगा…”

“मैंने तुझे शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ाया किंतु तू घिसटता ही रहा। अपनी उम्र देखी है? न तू हिसाब जानता है न आदमी की तरह किसी से बात ही कर पाता है। वहाँ जाकर अपने चचेरे भाइयों की मेज पर फटके मारेगा? या भाभियों के बच्चे खिलाएगा? …कुछ नहीं बचा है मेरे पास, कम से कम मुझे मेरी इज्जत बख्श दे।” फिर खुद को जज्ब करते हुए हिम्मत भाई ने बेटे को समझाने का पुनः प्रयास किया – “तू क्यों घबराता है रे? तू अपनी बड़ी बहन के घर रहेगा। तेरे जीजा ने पेट्रोल पंप पर तेरे लिए नौकरी का इंतजाम किया है।” हिम्मत भाई बेटे के पास सरक आए और मुलायमियत से बोले, “देख दिकरा, कोई काम छोटा नहीं होता। तीस साल पहले जब उनका परिवार अमरीका बसा था तब उपेंद्र कुँवर सड़क किनारे सब्जी का स्टॉल लगाते थे, आज वे ग्रॉसरी स्टोर के मालिक हैं। डॉलर कमाते हैं। ईश्वर तुझ पर रहम खाएगा, एक दिन तू भी डॉलर कमाएगा। अरे! तेरा वीसा लग गया यह बात जानते ही मुंबई-अहमदाबाद-सूरत के सेठ अपनी बेटी देने के लिए हमारे आगे-पीछे डोलने लगेंगे। अमरीका है, मजाक थोड़े है?”

“पप्पा मैं भी कहता हूँ कि कोई काम छोटा नहीं। सब्जी का स्टॉल लगाना या पेट्रोल पंप पर काम तो मैं यहाँ भी कर सकता हूँ।” – इतना सुनते ही हिम्मत भाई भभक उठे। उनके मुँह से एक भारी-भरकम गाली छूटी, “हरामी!” रॉबिन सहम गया। वे तड़प कर चीखे, “हम सबको बर्बाद करके तेरा मन नहीं भरा अभागे, मेरी नाक कटवाएगा? …दफा हो जा यहाँ से!” – रॉबिन को काटो तो खून नहीं। उसका चेहरा ही नहीं, चेहरे पर के मुँहासे की सुर्खी भी जर्द पड़ गई। वह उनकी हिकारत का सामना ही तो नहीं कर पाया कभी। वह खामोश रह गया। परिजनों के वर्षों की तैयारी, पासपोर्ट-वीसा, टिकट, धन का जुगाड़ और अपने पिता व जीजा के सामने रॉबिन की मर्जी की क्या कीमत? उसे जाना ही होगा। …और महमूद? महमूद की कहानियाँ? कहानीकार लेखक रॉबिन ठक्कर की कहानियाँ! उनका क्या होगा? नहीं-नहीं वह महमूद का साथ कभी नहीं छोड़ सकता, उसकी कहानियाँ लिखना वह नहीं छोड़ सकता। महमूद के सिवा उसका है ही कौन? रह-रह कर पिता की चीख उसके कानों में गूँज उठती, ‘हम सबको बरबाद करके तेरा मन नहीं भरा अभागे… दफा हो जा यहाँ से!’ पिता के वास्ते उसे जाना ही पड़ेगा। रॉबिन पस्त हो गया।

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पुराने बावड़ के नीचे रोज की तरह रॉबिन बैठा रहा। आज उसका इंतजार कुछ लंबा हो चला है। दोपहर ढलने का समय हो रहा है लेकिन बावड़ की छाँव के घेरे से बाहर लू मद्धिम होने का नाम नहीं ले रही। किंतु छाँव के घेरे के अंदर की बात अलग है – तपती लू यहाँ घुसते ही अनायास ठंडी बयार बन जाती है। “जानता है क्यों? बावड़ की पत्तियों को देख, शाखाओं से जुड़ी असंख्य डंठियों पर कितनी ही छोटी-छोटी पत्तियाँ उगी हैं। जब गर्म हवा इन से टकराती है तो वह बारीकी से बिखरती है। हवा का यूँ टूटना उसे ठंडा बना देता है…” रॉबिन को महमूद की कही यह बात याद आ रही है। बस महमूद ही न जाने क्यों नहीं आया अभी तक? ऐसा पहले कभी न हुआ कि महमूद उसके आते ही वहाँ हाजिर न हुआ हो। आज न जाने बुड्ढा कहाँ रह गया? रॉबिन अवसाद में गर्क हुआ जा रहा है। उसने पहले भी महमूद से अपने पासपोर्ट-वीसा की तैयारी की बात कही थी, जवाब में वह कुछ विशेष न बोला करता। हमेशा की तरह ही मुस्कुराते हुए उसकी यह बातें भी सुनता। वे पहले की तरह मिल कर कहानियाँ लिखते रहे थे। परंतु अब उसकी दो महीने बाद की हवाई जहाज की टिकट भी आ गई है – यहाँ से मुंबई और मुंबई से अमरीका के लिए उड़ान भरने वाला है वह। वह जाना नहीं चाहता लेकिन फिर भी जा रहा है। …वह दर्द के बोझ तले मर रहा है और यह महमूद है कि आया ही नहीं? रॉबिन लौट गया।

रॉबिन कब्रिस्तान से रोज यूँ ही लौटता रहा। महमूद कभी न आया – यह गम सारे गमों पर भारी पड़ा। वे अभिन्न मित्र थे। रॉबिन ने उससे जुदाई की कल्पना कभी न की थी। महमूद बूढ़ा था लेकिन वह मरता भी तो जरूर रॉबिन को पहले खबर करता फिर आँखें मूँदता। महमूद से कुछ कहे बगैर यूँ विदेश चले जाना रॉबिन के लिए असह्य है। उनका अस्तित्व यूँ परस्पर व्याप्त रहा है कि एक के चले जाने से दूसरा अधूरा हो गया। रॉबिन की खुराक पहले से आधी भी न रही। महमूद ने उसे दगा दिया यह सोच कर वह घुलता… यूँ घुलता की रह-रह कर उबकाई करता, बार-बार लेटता कि नींद आ जाए तो उसका दर्द कम हो। इतना तन्हा वह पहले भी नहीं था जितना महमूद ने उसे कर दिया है। रॉबिन की हालत देख नवसारी मासी के माथे पर चिंता की शिकन घिरती परंतु वे हिम्मत भाई के डर से चुप लगाए रहतीं। पिता का मानना था कि घर से चले जाना बेटे के हित में है, यदि वह आज बीमार है तो कल ठीक भी हो जाएगा – दुनिया की दूसरी कोई रीत नहीं। रॉबिन के लिए नए कपड़े सिलवाए गए, जूते और चप्पल खरीदे गए, नई शेविंग किट, नया बैग आया तथा अन्यान्य आवश्यकता की वस्तुएँ भी आईं। महीना से ज्यादा बीत गया। रॉबिन को जीवन में पहली बार अपनी गरिमा का भान हुआ, दग्ध हृदय से उसने खुद को सँभाला। फिर भी उसका मन कई-कई बार भटकता। महमूद दूसरे समुदाय का था, उसका घर उसके लोगों का पता रॉबिन को न था। वह बाजार में बैठे, चलते, फिरते लोगों को रोक कर पूछा करता लेकिन उसे कोई भी ऐसा न मिला जो महमूद इस्माईल बंदूकवाला को जानता हो। बिना किसी सुराग के वह अपने लापता दोस्त को कैसे खोज पाएगा?

“…अल्लाह हू अकबर… अशहदोअन ला इलाहा इल्लिलाह… अश हदो अन्ना मुहम्मदुर रसूलिल्लाह… हैइया लस सला, हैइया लस सला… हैइया लल फला, हैइया लल फला…” – रात जैसा अँधेरा है। तकिए पर जहाँ रॉबिन ने सिर रखा है वहाँ उसके धँसने से बल पड़ गए हैं। अँधेरे में वह लेटा आँखें मूँदे अजान सुन रहा है। यह पाक पुकार बहुत दूर, शहर के पुराने इलाके से आ रही है। वह जब से पैदा हुआ होगा तब से ही अजान सुनता आया है। कोई सुबह खाली नहीं जाती। लेकिन आज इसे सुनते हुए उसे खास सा महसूस हो रहा है मानो मुअज्जिन उसे खुदा का संदेश सुना रहा हो? – चंद आखिरी रोज बचे हैं। शाम के झुटपुटे में रॉबिन शहर के उस पुराने इलाके में पहुँचा जहाँ मस्जिद है। उस वक्त मगरिब की नमाज पढ़ कर लोग छूटे थे। बाजार की सँकरी गलियों में बड़ी चहल-पहल और रौनक थी। उसे यह देख कर अचरज हुआ कि मस्जिद के ठीक बाहर जड़ाऊ चप्पल-जूतों की दुकानें सजी थीं और साथ ही कप-रकाबियों और खिलौनों के ठेलों पर झूल रहे लट्टू बारी-बारी से जल उठे थे। छोटे-छोटे होटलों से आती सालन और सिंकते कबाबों की गंध रॉबिन की साँसें भारी बना रही है। वह लोगों से पूछता हुआ भटक रहा है… कभी इत्र की महक तो कभी मोलभाव करती किसी काले बुर्के वाली की रंगीन चूड़ियों की चमक से वह चौंक जाता है। एक लाल दाढ़ी वाले रहमदिल मददगार सज्जन उसके संग एक लड़का भेज देते है। रॉबिन उस लड़के के साथ हो लेता है। वह लड़का उसे मस्जिद के पिछवाड़े बने एक पुराने घर में ले जाता है।

“लड़का बता रहा है आप किसी का नाम-पता पूछते हुए भटक रहे हैं? कौन हैं आप?” उस पुराने मकान के मालिक प्रतीत होने वाले अधेड़ मुसलमान ने रॉबिन से प्रश्न किया। रॉबिन ने बाद में जाना कि यह आदमी मौलवी है और अपने लोगों को नमाज पढ़वा कर घर लौटा है। उसने पहले अपना नाम बताया, “रॉबिन ठक्कर।” …फिर झिझकते हुए बोला, “मैं महमूदभाई इस्माईल बंदूकवाला को ढूँढ़ रहा हूँ।” मौलवी ने यह नाम बुदबुदा कर दुहराया, वह याद करने की विफल कोशिश कर रहा है…। “वह पहले जूने कब्रिस्तान की चौकीदारी किया करते थे।” यह कह कर रॉबिन ने उन्हें याद दिलाने में मदद करनी चाही। उसी कमरे के पिछले कोने में लगी खटिया पर पड़ा बूढ़ा जो अब तक चुपचाप लेटा उनकी बातें सुन रहा था कुछ बोलने की कोशिश में खाँस उठा। फिर अपनी खाँसी को काबू में कर, वह बोला, “ये महमूद पेंटर की बात तो नहीं कर रहा…?” बूढ़े ने जिस महमूद की बात की थी, वह उस महमूद को कुछ इस तरह याद करने लगा – कि कैसे जिस जमाने में बिरादरी के लोग स्कूल नहीं जाते थे उस जमाने में महमूद ने कॉलेज पास किया था। महमूद तेज था लेकिन फिल्म के चस्के ने उसे बरबाद कर दिया।

वह घर छोड़ कर मुंबई भाग गया – फिल्मों की कहानियाँ लिखने! किसी ने उसकी कहानी नहीं खरीदी लेकिन वह उम्मीद से बना रहा। अपना पेट पालने के लिए स्टूडियो में सिनेमा के पोस्टर पेंट करते-करते महमूद पेंटर बन गया लेकिन कहानीकार कभी न बन पाया! वह बूढ़ा हुआ तो उसकी आँखों को कम सूझता और काँपते हाथों में रंग डूबी तूलिका न सध पाती। वह महानगर में कैसे जिंदा रहता? आखिर उसे अपने वतन को लौट आना पड़ा। महमूद दिल का अच्छा लेकिन संगत का बुरा आदमी था, बड़े शहर से बड़ी बीमारी ले कर लौटा। उसने परिवार कभी किया नहीं सो बुरी आदतें लगनी ही थीं… रॉबिन ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा लेकिन उसने उनकी हाँ में हाँ मिलाई, “हाँ, महमूद ने बताया था वह पहले फिल्मों में था, वहाँ सिनेमा के पोस्टर बनाया करता था।” – कमरे में अनायास खामोशी छा गई। कुछ देर बाद खटिया पर पड़े मौलवी के बुजुर्ग पिता ने चुप्पी तोड़ी, “बावलो छे? जब महमूद मरा तब तू जन्मा भी न होगा! …बीमारी के दिनों में गुजारे के वास्ते मस्जिद ने कब्रिस्तान की चौकीदारी बख्श दी थी उसे। जूने कब्रिस्तान में आखिरी दफन होने वाला वही है, महमूद। अभी देखो बरसों-बरस से हमारी जमीन बंद पड़ी है। दावा लगा हुआ है। वक्फ वाले…” मौलवी का पिता विषय से भटक गया है। “चा लो।” अधेड़ मौलवी ने रॉबिन से कहा। लड़का चाय ले आया था। रॉबिन ने चाय नहीं ली। वह वहाँ एक पल भी न रुका।

महमूद झूठा, रॉबिन झूठा। कहानीकार? – फरेबी! कहानियाँ सच्चीं। …एक थाक पत्रिकाओं में यह कहानियाँ समाई हुई हैं। देश में इनके अनगिनत पाठक बिखरे हैं। रॉबिन एक-एक के शीर्षक को पढ़ता है, साथ जुड़ा अपना नाम देखता है और उन्हें अपने संग जाने वाले बैग में रखता जाता है। उसके पास एक झोला भर चिट्ठियाँ हैं, उन्हें भी वह बैग में रखता है। जब वह तीन साल का था तब उसकी बड़ी बहन ब्याह कर अमरीका बसी थी। तब से फोरमबेन कभी पाँच साल के अंतराल से पहले घर नहीं आई, कभी उससे ज्यादा साल भी लगे। अमरीका है… कोई मजाक थोड़े है? वह न जाने कब आ पाए? रॉबिन का मन सदा रेहड़ी की चाट खाने को लालायित होता लेकिन घर से इस बाबत सख्त पाबंदी थी। नवसारी मासी कहती, “तू बीमार पड़ जाएगा।” आज उसने पहली बार खूब जी भर कर रगड़ा-पाव खाया है, दो प्लेट! – तुलसी के चौरे के पार वाले कमरे में हमेशा अस्पतालनुमा शांति छाई रहती है।

रॉबिन वहाँ अक्सर आया-जाया करता है परंतु अनमने ही। आज यात्रा पर रवाना होने से पहले वह यहाँ अपनी माँ से मिलने आया है। वह लेटी हुई है, विकृत और निश्चल। कमरे की दिवार पर टँगी शादी की तसवीर में पप्पा के साथ खड़ी सुंदर स्त्री को देख वह आज फिर दंग हुआ। वहाँ, उसकी उम्र जितने लंबे वर्षों से पड़ी पक्षाघात की मरीज से वह तसवीर कतई मेल नहीं खाती – यह उसे जन्म देने का सिला है। बिस्तर के सिरहाने खड़ी नवसारी मासी अपनी आँखें पोंछ रही हैं, मम्मी की आँखों से अनवरत आँसू बह रहे हैं। कुछ कहने-न कह पाने के प्रयास से उनका मुँह और टेढ़ा हो चला है। रॉबिन का मन विरक्त है। मम्मी मानो फर्नीचर है। फर्क यह है कि उस से कोई नहीं कहता “यह तुम्हारा पलंग है” या “यह तुम्हारी मेज है” परंतु… सब कहते हैं “यह तुम्हारी माँ है”। बाहर पप्पा एयरपोर्ट जाने वाली टैक्सी में उसका सामान रखवा रहे हैं – जो बचा है…उसे सँभाल रहे हैं। मँझले काका कारोबार से छुट्टी ले कर आए हैं। वे मुंबई तक उसके साथ रहेंगे, वहाँ उसे रुखसत कर सूरत लौट जाएँगे।

“घ्मम्म्मम्म्म्म्sss…” साफ नीले आसमान की प्रखर धूप में एक कतरा चमकता सितारा उड़ा जा रहा है। हवाई जहाज को पता ही नहीं वह जमीन से ऐसा दिखता है?

इस तरह एक और कहानीकार दुनिया से लुप्त हुआ।

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कहानीकार – Kahanikar

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