राजनीति के साइड इफेक्ट्स | अशोक कुमार
राजनीति के साइड इफेक्ट्स | अशोक कुमार

राजनीति के साइड इफेक्ट्स | अशोक कुमार – Rajniti Ke Side Effects

राजनीति के साइड इफेक्ट्स | अशोक कुमार

– “आए दिन वो हमें मारें पीटें, सड़क पर सवारी बसों पर पत्थर फेकें और हम चुप खड़े देखते रहैं …ये जो हो रहा है न… इस सब उसी का नतीजा है…”

– “तो क्या करते…? मार पीट शुरू कर देते…? दंगा करते…? अरे नाली में पत्थर फेंकोगे तो कीचड़ तो अपने ऊपर ही उड़ेगा न…!”

– “कीचड़ है तो पहले वो कीचड़ साफ करो करसन भाई…। बहुत हो गया!”

अहमदाबाद के लॉ गार्डन के सामने वाली गली में प्रादेशिक राजनीतिक पार्टी के जिला अध्यक्ष शंकर भाई पटेल के घर पर मीटिंग चल रही थी। शहर के बड़े छोटे सारे नेता मौजूद थे।

– ‘अच्छा नाली-वाली साफ करते रहना, मुझे तो ये बताओ कि इस बार रथ यात्रा निकलेगी या नहीं?”

– “पिछले पचास सालों से ऐसा कोई साल नहीं गया जब अहमदाबाद में रथ यात्रा न निकली हो… इस साल भी निकलेगी।”

– “हिम्मत है?” एक ने सर आगे कर के हाथ झुलाते हुए आँखें नचा कर बोलने वाले से पूछा।

– “शांति रखो…” शंकर भाई जो अब तक सब की बात सुन रहे थे अब अपनी पालथी का पाँव बदल कर गला साफ करते हुए बोले, “मैं मुख्यमंत्री से बात करूँगा, रथ यात्रा निकलने की सिफारिश करूँगा… पक्का बंदोबस्त माँगूँगा।”

– “शंकर भाई, रथ यात्रा निकलनी ही चाहिए…”

– “जो भी हो उनकी हिम्मत देखो कितनी बढ़ गई है ‘रथ यात्रा नहीं निकलने देंगे’ …ये सब सरकार की दोगला नीतियों के कारण हुआ है”

तमाम गाली-गलौच हुए, भड़ास निकाली गई, चाय पर चाय चली और रात के ग्यारह बजे जब मीटिंग समाप्त हुई तब सब के दिल में ये था कि अगर रथ यात्रा न निकल पाए तो अच्छा है क्योंकि उस सूरत में सत्ता पक्ष दोबारा चुन कर नहीं आएगा और प्रादेशिक पार्टी को सरकार बनाने का पूरा चांस मिलेगा।

लेकिन ये बात तो सत्ता पक्ष भी जनता था, उसके नेता गण शहर के जिन गुंडों ने रथ यात्रा न निकलने देने की धमकी दी थी उनके साथ खाते-पीते थे सो उन्होंने उन्हें समझा लिया। दिखावे के लिए तगड़ा पुलिस बंदोबस्त किया गया और रथ यात्रा के लिए हरी झंडी दे दी गई।

रथ यात्रा के दिन अहमदाबाद समारोह-मूड में था। सार्वजनिक छुट्टी थी और लोग धमकी-वमकी सब भूल कर भगवान जगन्नाथ के दर्शन और अर्चन में लग गए थे। सारे गिले शिकवे भुला दिए गए।

– “आपने कहा, हमने मान लिया… रथ यात्रा निकलने दी… अब हमारा क्या?” धमकी देने वाले ग्रुप के लीडर ने सत्ता पक्ष के अपने दोस्त नेता से गिलास मेज पर रखते हुए पूछा।

– “तुम्हें टिकट देने का वादा किया है… हम देंगे,” नेता जी ने अपने गिलास में थोड़ी विस्की और डालते हुए आहिस्ता से कहा, “इलेक्शन आने दो…!”

– “इलेक्शन तो समझो आ ही गया… नाम तो अनाउंस कर दो…!”

– “नाम अनाउंस कर दूँ तो हमारे नाम का क्या…? और फिर तुम्हारा जीतना भी मुश्किल है…”

– “वो तुम हम पर छोड़ दो”

– “क्या मतलब ?”

– “अरे हिंदुस्तान है मेरे भाई …फसाद करवा दो, दस पंद्रह को मरवा दो… कुछ नाराज होंगे कुछ खुश होंगे …खुश किसे करना है हम जानते हैं… जो खुश हुए वो हमें वोट दे देंगे… बस, हम जीत गए!”

– “ठीक है, तुम अपनी तैयारी रखो, मैं पार्टी हाई-कमान से बात करता हूँ!”

इन्हीं दिनों नेहरू नगर सर्किल के इस तरफ पांजरापोल स्थित सहजानंद कॉलेज का एनुअल फंक्शन चल रहा था। सारा माहौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था और गूँज रही थी सारे स्टूडेंट्स के ‘प्रिया …प्रिया…’ की चीयर करने की आवाजें। एनुअल डे में सब जानते थे अगर कोई जान डाल सकता था तो वो थी प्रिया! इसी साल ग्यारहवीं में उसने दाखिला लिया था लेकिन क्या मजाल कि कॉलेज का कोई तो हो जो उसे जानता न हो! उसकी पर्सनालिटी ही ऐसी थी। नाक-नक्शा, चाल-ढाल, ताब-तेवर, पहना वा-ओढ़ावा सब कुछ। लड़के उस पर जान छिड़कते थे। ‘एक बार इंट्रोडक्शन’ की भीख माँगते रहते थे। क्या पता शायद मंदिरों में इस बात के लिए प्रसाद भी चढ़ाते हों! लड़कों की जात…! …नेहल पटेल तो खुद सुबह सुबह ही आकर कॉलेज के गेट पर खड़ा हो जाता था, इस इंतजार मैं कि कब प्रिया आए और कब वो उसे आते हुए देखे! और जिस दिन प्रिया स्कर्ट पहन कर आती थी उस दिन तो नेहल की नजर उसकी पिंडलियों से हटती ही नहीं थी।

वो उसे तब तक देखता रहता था जब तक कि वो बिल्डिंग के अंदर चली न जाए। नेहल ने सोचा था कि शायद इस बात से प्रिया का दिल पसीजेगा और वो उससे बात-चीत का सिलसिला शुरू कर देगी। उसने कई बार कोशिश भी की कि प्रिया से बात-चीत का सिलसिला बन सके। पहले वो सर हिला कर मुस्कुराया। फिर एक दो बार उसने प्रिया के लिए हेल्लो में हाथ भी हिलाया। एक बार तो प्रिया की साइकिल के ठीक सामने आ कर उसने “हेल्लो! गुड मॉर्निंग!” भी की लेकिन प्रिया ने न उसकी तरफ कोई तवज्जो दी न कोई जवाब दिया। नेहल की इज्जत मिट्टी होते देख उसके दोस्त उसके मुँह पर बेसाख्ता हँस दिए। नेहल खिसिया गया लेकिन तसल्ली सिर्फ नेहल को ये थी कि प्रिया किसी से ज्यादा बात नहीं करती थी। मालूम तो प्रिया को था कि नेहल उसके पीछे दीवाना है लेकिन प्रिया तो पहले से ही कवन के पीछे दीवनी थी! पिछले तीन सालों से- आठवें दर्जे से! लेकिन नेहल ने भी हिंदी फिल्में देख रखी थीं और वो समझता था कि लड़की अपना इरादा कभी भी बदल सकती है। उसके पिता एक प्रादेशिक राजनीतिक पार्टी के जिला प्रेसिडेंट थे और उस रुतबे और पैसे के बड़प्पन के बूते नेहल का भरोसा इस ओर और पुख्ता हो गया था। “लड़की पर्स देखती है बेटे! पोजीशन देखती है!” नेहल अक्सर अपने दोस्तों से कहा करता था और दोस्त तो उसके तमाम थे और हमेशा उसे चरों तरफ से घेरे रहते थे। इस तरह सहजानंद कॉलेज में कवन और प्रिया का चर्चा तो गर्म था ही, इस सिलसिले में नेहल का नाम भी मशहूर था।

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– “ये कवन साला है कौन… पता तो कर!” नेहल ने कहा नहीं कि उसके दोस्तों की फौज लग गई मिशन पर। खबर मिली ‘कोई नहीं बॉस…। मामूली छोकरो छे! …रामदेव नगर माँ रहे छे!’

– “ठिकाने लगा दूँ क्या?” एक ने पूछा।

– “अरे नई यार… मुझे प्रिया से मतलब…छोकरे का क्या करना है…” नेहल ने इत्मीनान से कहा।

आते भले ही अक्सर अलग अलग हों लेकिन कॉलेज के बाद ज्यादातर कवन और प्रिया अपनी अपनी साइकिलों पर साथ साथ वापस जाते थे। प्रिया जोधपुर में रहती थी और कवन जरा आगे रामदेव नगर में। दोनों के घर एक दूसरे से ज्यादा दूर नहीं थे। कॉलेज से वापसी में पहले प्रिया का घर पड़ता था फिर कवन का। पहले पहले कभी कभी और फिर बाद में तकरीबन रोजाना ही इन दोनों की साइकिलों के पीछे नेहल भी धीरे धीरे अपनी कार चलाते हुए आने लगा। गाड़ी में जोर जोर से फिल्मी गाने बजाते हुए। तीन चार दोस्त तो खैर उसके साथ हमेशा ही रहते थे सो वे भी गाड़ी में ही होते थे। ये वो जमाना था जब अहमदाबाद इतना डेवलप्ड शहर नहीं था और लोग एक दुसरे को ज्यादा अच्छी तरह जानते थे, तो नेता जी के सुपुत्र होने के नाते नेहल को लोग सलाम भी करते थे और उससे कुछ कहने की हिम्मत भी नहीं करते थे। हाँ, दबी दबी जबान से नेहल की बदमाश सोहबत और लड़कियों – खास तौर पर प्रिया – के पीछे डोलने के चर्चे जरूर होते रहते थे।

– “नेता जी नो छोकरो छे! …एस आई होएगा न…!” लेकिन नेहल के पिता शंकर भाई पटेल के सामने क्या मजाल कोई नेहल के बारे में कुछ उल्टा सीधा कह तो दे! सब जानते थे नेहल के दोस्त उसकी वो दशा करेंगे कि सात जन्मों तक याद रखेगा।

पार्टी के जिला इलेक्शन में ये तीसरी बार था कि शंकर भाई पटेल आम सहमति से निर्विरोध चुनाव जीते थे।

– “हवे तो साहिब नु प्रदेश अध्यक्ष बनवाणु छे (अब तो साहिब को प्रदेश अध्यक्ष बनवाना है) …सारा प्रदेश तो इनके साथ है।” सभी साथी कहते थे।

– “आप तो एक काम करो,” कोई सलाह देता था,” आप तो बन जाओ प्रदेश अध्यक्ष और फिर बन जाओ राज्य के मुख्यमंत्री… और लड़के को बना दो जिला अध्यक्ष… बाद में मुख्यमंत्री पद वो सँभाल लेगा!”

वैसे भी नेहल का करियर निश्चित हो चुका था – पॉलिटिक्स! उसके रंग-ढंग, लाग -लक्षण, संगी-साथी सभी कुछ तो वैसा ही था। और अब तो नेहल कॉलेज स्टूडेंट यूनियन का प्रेसिडेंट हो गया था। तो पॉलिटिक्स की शुरुआत तो हो चुकी थी!

प्रेसिडेंट और प्रेसिडेंट के साथी एनुअल डे के लिए जल्दी आ कर कैंटीन में बैठे गप्प मार रहे थे।

– “अच्छा तू एक बात बता…” नेहल के मुँह लगे दोस्त हितेश ने पूछा, “पॉलिटिक्स का मतलब क्या है?”

– “तू पॉलिटिक्स का मतलब नहीं जानता…? हा हा हा हा…”

– “तू बता न यार…”

– “पॉलिटिक्स का मतलब है सत्ता हासिल करना… और पॉलिटिशियन का परपज है कुर्सी हासिल करना… हर कीमत पर!”

– “और अगर न मिल पाए तो?”

– ” न मिल पाए क्या मतलब…? सीधे चलो टेढ़े चलो कुछ भी करो… हासिल करो…”

– “तेरे घर पे जो ये सारे दादा लोग, मवाली, नेता, सरकारी अफसर चक्कर लगाते हैं वो थोड़े ही सत्ता हासिल करने आते हैं…”

– “वो लोग सत्ता तक पहुँचाने में मदद करते हैं… हम उन पर और वो हम पर निर्भर हैं… गाय को चारा खिलाता है न…! किसलिए…? इसलिए के वो दूध दे जो हम पिएँ…! …उसका भी भला हमारा भी भला…”

– “नेहल भाई… तुम कुछ भी कर लो… कितने भी इम्पोर्टेन्ट हो जाओ… प्रिया तुमसे नई पटने की…!” कैंटीन में बैठे एक साथी ने कहा।

– “क्यों बे?” नेहल ने अपनी चाय का प्याला मेज पर पटकते हुए पूछा।

– “क्योंकि उसे मालूम है कि तुम लड़कियों के पीछे भागते हो… और लड़कियों को चाहिए कि लौंडे बस उनके ही हो कर रहें!”

– “मिल तो जाए… हाय…! मैं उसी का हो कर रह जाऊँगा…!”

– “तो गुरु एक बार यही बात उससे जाकर के बोल दे न… प्यार कर ले नई तो जोगी बन जाऊँगा! …हा हा हा हा…”

सब हँस पड़े। नेहल ने खिसियाई नजर से इधर उधर देखा, फिर उठ खडा हुआ। बोला, “ठीक है बेटे! …आज प्रोग्राम है न… डांस करेगी न… डांस के बाद देख…!” नेहल सर्र से कैंटीन के बाहर निकल गया। पीछे से एक ने आवाज लगाते हुए कहा, “पटेल की इज्जत रख लेना भाई…!”

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एनुअल फंक्शन में पिछले दो दिनों से खेल-कूद प्रतिस्पर्धाएँ होती रहीं। आज तीसरे दिन दोपहर तक डिबेट और ड्रामा कंपटीशन हुए। शाम के कार्यक्रम में विजेताओं को इनाम दिए जाने थे और अवार्ड्स के बाद था कल्चरल प्रोग्राम जिसमें कुछ विद्यार्थी गाना गाने वाले थे, दो एक स्टैंड-अप कॉमेडी करने वाले थे। एक नुक्कड़ ड्रामा ग्रुप सरखेज से भी बुलाया गया था – ये लोग शहर के नौजवान लड़के लड़कियों को लेकर खुले मंच पर नुक्कड़ नाटकों के जरिये सामाजिक समस्याओं की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाले नाटकों के क्षेत्र में बड़ा नाम कमा चुके थे। उसके बाद था एक ओडिसी नृत्य। जो कि कई लड़कियाँ/लड़के मिल कर करने वाले थे और फिर प्रोग्राम के अंत में था प्रिया का डांस। अंत में इसलिए ताकि तब तक कोई उठ के जाए नहीं। और प्रिया के लिए तो पूरा कॉलेज रुकेगा! प्रोग्राम खुली फील्ड के एक तरफ स्टेज बना कर किया जा रहा था। जब प्रिया का नाम अनाउंस हुआ तो विद्यार्थियों में जैसे तूफान आ गया। फिर जब पर्दा हटा और प्रिया स्पॉट लाइट के साथ स्टेज पर दाखिल हुई तो तालियों की गड़गड़ाहट कुछ यूँ हुई कि साउंड स्पीकर की आवाज भी उसके आगे मद्धम पड़ गई। नाच शुरू हुआ – पहले धीरे धीरे और फिर आहिस्ता आहिस्ता जोर पकड़ता गया।

अपने उरूज पे जाकर संगीत और डांस स्टेप्स जब एक हो गए तो आनंद की अनुभूति में सब दीवाने हो गए! सबने वो तालियाँ पीटीं, सीटियाँ बजाईं और प्रिया के नाम की पुकार की कि बगल के घरों की भी शांति भंग हो गई। लोग अपनी अपनी छतों और बालकनियों पर निकल आए। नेहल दीवाना हो गया। पसंद तो वो प्रिया को शुरू से ही करता था लेकिन आज तो प्रिया का मुरीद हो गया। दीवानगी की हदों को पार करता हुआ वो स्टेज के पीछे दौड़ गया। स्टूडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट होने के नाते रोक तो उसे कोई सकता नहीं था। जिस क्लासरूम को मेक अप रूम बनाया गया था वो उसके दरवाजे को धाड़ से खोलते हुए घुस गया। प्रिया स्टेज से बस वापस आई आई थी, उसने मुड़ कर दरवाजे की तरफ देखा। नेहल प्रिया की तरफ लपक कर उसका हाथ पकड़ने ही वाला था के पीछे से किसी ने पुकारा, “नेहल!” …सायरा मैडम थीं। मैडम सोशल साइंस की टीचर थीं और आज के कल्चरल प्रोग्राम की इंचार्ज। नेहल को मैडम के आने की उम्मीद नहीं थी। वो स्तब्ध रह गया।

– “व्हाट आर यु डूइंग इन गर्ल्स रूम?”

– “कुछ नई मैडम …कुछ नई …कुछ नई…” और नेहल चुपचाप कमरे से बाहर हो गया। उस कमरे में मौजूद सारी लड़कियाँ बेतरह हँस पड़ीं। उस रात नेहल पर उसके दोस्त भी दिल खोल कर हँसे…

– “हमने कहा था प्रिया तेरी किस्मत में नई है बेटा…” एक ने चिढ़ाया।

– “अच्छा हुआ,” दूसरे ने करीब आकर धीरे से नेहल के कान में बुजुर्गाना अंदाज में कहा, “मैडम आ गईं… नई तो तू ने तो प्रिया का हाथ पकड़ ही लिया था न…!” नेहल ने हाँ में सर हिलाया। लड़का बहुत संजीदगी से बोला, “और तब प्रिया ने तुझे जोर से थप्पड़ मार दिया होता… तो…!?” फिर वो लड़का और तमाम मौजूद साथी-सभी-बड़ी जोर से ठहाका मार कर हँस दिए। नेहल बुरी तरह खिसिया गया। बोला, “देखता हूँ साली जाएगी कहाँ… अब तो मैं उसको लेकर ही रहूँगा! …साली…!”

– “तू एक काम कर…” एक ने कहा।

– “क्या?”

– “तू उसे भगा के ले जा…” सब फिर हँस पड़े। लड़का बोलता रहा, “बस, फिर जब वापस आएगा तो लौंडिया किसी काम की नहीं रहेगी और तेरी चाँदी ही चाँदी…” सब ने हाँ में हाँ मिलाई।

– “इसका नाम एम.एल.ए. के लिए अनाउंस कर दूँ…? ये तो शहर का गुंडा है… लोग इसके नाम से डरते हैं… ऐसा करने से पार्टी का नाम खराब नहीं होगा?” पार्टी हाई कमान ने नेता जी से पूछा।

– “नाम को मारिए गोली… ये सोचिए कि एक तो ये जीत जाएगा दुसरे चार एम.एल.ए. और लाने की गारंटी देता है… वे लोग निर्दलीय आएँगे फिर हम उन्हें अपनी पार्टी में शामिल कर लेंगे…। पब्लिक अगर उनके चरित्र पर उँगली उठाएगी तो हम इन्क्वायरी बैठा देंगे… किसी पूर्व जज को उसका इंचार्ज बना देंगे… जब तक उसकी रिपोर्ट आएगी पाँच साल पूरे हो जाएँगे लोग सब कुछ भूल जाएँगे।”

– “पाँच एम.एल.ए. …पक्की बात ?”

– “पक्की बात!”

इलेक्शन आ गए थे। बस करीब दो महीने बचे होंगे के सरखेज-राजकोट हाईवे पर एक ४५ यात्रियों से भरी बस को भून डाला गया। मुख्यमंत्री ने भर्त्सना की, दिल्ली के गृह मंत्री ने व्यथा व्यक्त की, प्रदेश की कानून व्यवस्था पर उँगली उठाई गई, टी.वी. डिबेट चल पड़ीं, जो बेकार बैठे नेता थे उनको तसवीरों में आने का मौका मिला। शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया। लोगों में गुस्सा बढ़ गया। स्कूल कॉलेज बंद हो गए। राज नेताओं की मीटिंगों का दौर बढ़ गया।

– “शंकर भाई ये सब राजकरण है… इन लोगों की मिलीभगत है…”

– “वो तो है …हम भी समझते हैं…। लेकिन बोल तो नहीं सकते न… क्या प्रूफ है…!”

– “तो अब हमारा क्या प्लान होना चाहिए?”

– ” वो लोग सत्तार भाई को टिकेट दे रहे हैं न! …आप लोग जाकर सत्तार से मिलो और उनसे कहो की आप उनके टिकेट पर लड़ो लेकिन जब जीत जाओ तो हमारी पार्टी में ज्वाइन कर लो… वो तो आपको एम.एल.ए. बना रहे हैं…। हम आपको मंत्री पद देंगे…! देखो क्या कहता है…!”

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– “तो ये काम तो नेहल भाई अच्छी तरह कर सकते हैं।”

– “क्या मतलब ?”

– “सत्तार का लड़का और नेहल दोस्त हैं…” कहते कहते करसन भाई रुक गए। कहना तो चाहते थे की अक्सर उन्होंने नेहल और सत्तार के लड़के सरफराज को गाड़ी में एक साथ बैठे पेग चढ़ाते देखा है… लेकिन उन्होंने बात दोस्त हैं तक ही रोक दी।

– “नेहल…! …ओ डिकरा नेहल…” शंकर भाई ने लड़के को आवाज लगाई।

नेहल ने बात पहुँचा दी। पाँच दिन बाद जब कर्फ्यू शाम को दो दो घंटों के लिए रिलैक्स किया गया तब दोनों दोस्त मिले। नेहल ने जाकर सत्तार भाई के पाँव छुए, हाथ मिलाया, आशीर्वाद लिया। ये वो जमाना था जब मारुती वालों ने अपनी नई गाड़ी एस्टीम निकाली थी और अहमदाबाद का सैटेलाइट का इलाका डेवेलप्ड नहीं हुआ था। शाम गहरा चली थी, अँधेरे में दोनों नौजवान दोस्त एस्टीम में बैठे स्मिरनॉफ की बोतल खाली कर रहे थे और धीरे धीरे ड्राइव करते हुए जोधपुर सर्किल की तरफ चल रहे थे कि अचानक नेहल ने दाएँ देखा और ब्रेक लगा दिए। प्रिया अपने पिता के साथ फल वाले के ठेले पर खड़ी थी।

– “क्या हुआ?” सरफराज चौंक गया

– “वो देख, उधर… वो लड़की… वो बुड्ढे के साथ…”

– “तो…? तेरा दिल अयेला है क्या उसपे…”

– “दिल… साली पकड़ में ही नहीं आती।”

– “किडनैप कर दें…? आजकल तो वैसे भी दंगे के दिन हैं किसी के साथ कुछ भी हो सकता है…। हा हा हा हा…”

– “रखेंगे कहाँ?

– “गोदाम हैं, पोल हैं, मकान हैं, फ्लैट्स हैं,…कहीं भी रख देंगे…”

– “पकड़े गए तो?”

– “कौन पकड़ेगा अपुन को यार…! कहाँ… रहती कहाँ है ये?

वातावरण धीरे धीरे सामान्य होने लगा था। शांति को देखते हुए कर्फ्यू दो की जगह चार घंटे रिलैक्स किया जाने लगा – दो घंटे सुबह, दो घंटे शाम! सुबह शाम जब कर्फ्यू खुलता तो गाड़ी में दो लड़के आकर प्रिया के घर के सामने पार्क हो जाते। कभी मारुती जिप्सी में कभी जीप में कभी एंबेसडर में। अलग अलग गाड़ियाँ थीं और सूरत अंदर बैठों की दिखाई नहीं देती थीं इसलिए किसी को किसी प्रकार का शक होने का सवाल नहीं था… ऐसे तीन दिन गुजरे कि एक दिन शाम के समय सूरज बस ढला ढला था प्रिया घर से निकल कर सामने वाले फूटपाथ पे खड़े सब्जी वाले ठेले की तरफ चली। जिप्सी से लड़के निकले, आनन फानन में उन्होंने प्रिया के सर पर कपड़ा डाला, उसका मुँह दबाया और उसे उठा कर गाड़ी में डाल दिया। जब तक सब्जी वाला तक समझ पाता कि क्या हुआ गाड़ी फर्र हो गई। नंबर देखने की बात तो दूर। काम इतना एहतियात और शातिरी से किया गया था कि इसकी खबर किसी को भी नहीं लगी – नेहल के दोस्तों को भी नहीं।

पंद्रह मिनट के ड्राइव के बाद प्रिया को एक गोदाम में फेंक दिया गया। जब उसकी आँखों पर से पट्टी खोली गई तो उसने देखा के वो किसी कपड़ों के गोदाम में लाकर पटक दी गई है। वो शॉक से उबर भी नहीं पाई थी कि उसे पीठ से जकड़े हुए उसके सीनों को दबा दबा कर नेहल अपने आप को गर्म करने लगा। प्रिया ने नेहल को गालियाँ दीं, थप्पड़ मारे, उसके सामने रो रो कर भीख माँगी। उस समय एक मिनट के लिए नेहल को लगा भी कि शायद उसने कोई गलती कर दी है लेकिन अब प्रिया को वापस पहुँचाना और बड़ी गलती होती।

– “तू एक काम कर… पाजामा उतार दे… गीला हो गया है…”

पुलिस में प्रिया के खो जाने की रिपोर्ट लिखवाई गई थी लेकिन पुलिस अव्वल तो किसी गोदाम में बंद लड़की को ढूँढ़ती कैसे और दूसरे उसकी मजाल कि सत्तार भाई के गोदामों में घुस जाए! फिर ये समय तो कर्फ्यू का था वो अपनी तैनाती ड्यूटी करे या खोए लोगों को ढूँढ़ने जाए!

कवन को हालाँकि नेहल पर पूरी तरह शक था। लेकिन न वो कुछ सिद्ध कर सकता था न नेहल से दबाव के साथ कुछ पूछ सकता था… वो सिर्फ अपनी दोस्त के लिए आँसू बहा सकता था और प्रार्थना कर सकता था।

शहर में कर्फ्यू तीन दिन और चला फिर हटा लिया गया। नेहल का प्रिया के साथ पाजामा सिलसिला पाँच दिनों तक चला। चलता तो लंबा लेकिन छटे दिन अपने पिता शंकर भाई के साथ उसे एक जनसभा के लिए नाडियाड जाना पड़ा। पिता का उत्तराधिकारी था, कभी कभी मीटिंगों में जाना पड़ता था। दो दिन बाद वो लौट के आया तो उसने देखा – प्रिया नदारद!

– “क्या हुआ ?” नेहल ने पूछा।

– “पता नहीं कहाँ भाग गई साली…” सरफराज ने अनभिज्ञता जाहिर करते हुए कहा।

– “तुम्हारे यहाँ से भाग गई…?” नेहल ने तुम्हारे पर जोर दे कर कहा।

– ” अरे…! छोड़ न! …छुट्टी हुई… तेरी भी और मेरी भी…”

जो सरफराज ने नेहल को नहीं बताया वो ये कि उसने प्रिया को बंबई के एक दलाल के हाथों बेच दिया था!

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