रचना प्रक्रिया | ज्ञानरंजन
रचना प्रक्रिया | ज्ञानरंजन

रचना प्रक्रिया | ज्ञानरंजन – Rachana Prakriya

रचना प्रक्रिया | ज्ञानरंजन

उन दिनों अपनी हालत काफी खस्ता हो चुकी थी। उधर शहर भी तेजी से बुढ़ौती की तरफ ढल रहा था। उसकी रोशनियाँ पीली पड़ चुकी थीं और उम्मीद नहीं थी कि अब वह कोई नया मोड़ ले सकेगा। मुझे खास अपने से ही ताल्लुक रहा करता था, इसलिए मेरी चिंता भी निजी थी। लेकिन बाद में मुझे पता चला कि शहर ने किसी को भी नहीं छोड़ा है और सभी नागरिकों के साथ उसका व्यवहार तकरीबन एक जैसा है।

मैं प्रायः सोचा करता, काश मेरा भाग्योदय हो जाए और मुझे ऐसे शहर की शरण मिले, जिसका क्षेत्रफल बड़ा हो और जहाँ जनसंख्या उफन रही हो। हम अगर बहुत बड़ी हस्ती नहीं हैं तो किसी दूसरी चीज के मुकाबिले जनसंख्या ही हमारा बेहतर बचाव कर सकती है। हमारे शहर में इस प्रकार की संभावना नहीं बची थी। मैंने बहुत दिन तक, पुरानी इमारतों के सौंदर्य, तारकोल की सड़कों, बहुत-से हिस्सों की आरण्यक-जैसी शांति, पेड़-पौधों की बहुतायत तथा खाने-पीने की अच्छी दुकानों पर गर्व किया। देखते-देखते इमारतें टूटती गईं, अहातों में सियार बस गए, तारकोल की चमचमाती सड़कें गढ़ों से भर गईं और वृक्षों में पत्तियाँ कम हो गईं, ठूँठ निकलने लगे। मैंने पाया, अब मैं अपने गर्व को चलाये रखने में असमर्थ हो गया हूँ।

अगर आप असलियत जानना चाहेंगे तो मैं कहूँगा कि इस शहर से छुट्टी पा लेने की मेरी तमन्ना के पीछे बड़े और मोटे सामाजिक कारणों की जगह व्यक्तिगत कारण ज्यादा हैं। मैं उन्हीं के संबंध में कुछ बताना चाहता हूँ। मैं समझता हूँ कि गुप्त चीजों को जान लेने की तलब सभी लोगों में होती है। मैं खुद ही चीजों को खोलकर देखने के पक्ष में हूँ, भले बाद में मन खट्टा हो जाए और पछतावा होने लगे।

आप अगर कभी प्रेमी या प्रेमिका रहे हों तो आपने अवश्य रसीले लोगों के इस प्रश्न को बार-बार भोगा होगा, ‘अच्छा बताइए, आपका कैसे स्टार्ट हुआ?’

‘आपका कैसे स्टार्ट हुआ,’ इस स्वाभाविक प्रश्न से अगर हम बिदकें नहीं तो इसका उत्तर दिलचस्प अफसाना बन सकता है। इसे हम कम-से-कम, पाठशाला में किसी खास व्यंजन का निर्माण कैसे होता है, सरीखी साधारण बात न समझें। यद्यपि मेरे सोचने का तरीका स्वस्थ नहीं है और मैं कम जला-भुना व्यक्ति नहीं हूँ, फिर भी मैं चाहता हूँ कि प्रेम की तुलना कम-से-कम तुच्छ चीजों से न की जाए।

छरअसल हमारे शहर की जलवायु तीक्ष्ण है। ऐसी जगहों में प्रेम बहुतायत से होता है। हमारे यहाँ पड़ोसी प्रेम का भी रिवाज है। पहले प्रेम के पीछे कुरबानी भी बहुत होती थी पर अब ऐसा नहीं के बराबर है, क्योंकि एक प्रेम चला जाता है तो दूसरा तुरंत उपस्थित हो जाता है। मेरा उदाहरण ही लें। मेरे जिंदा रहने की एकमात्र वजह यही है। यहाँ मैं बहुत लंबे समय तक जोशे-मोहब्बत की गिरफ्त में रहा। मेरा खूब बंबू हुआ। धकाधक, कई गच्चे मैंने खाए, तब जाकर कहीं पक्का हो पाया हूँ। पक्का हो चुका हूँ, ऐसी मेरी अपनी धारणा है क्योंकि अभी मैं सुस्ता रहा हूँ। यह मेरा परीक्षाकाल नहीं है। मेरी वास्तविक इच्छा यह है कि अभी मैं थोड़ा खेलूँ-कूदूँ और फिर भिड़ंत करूँ, पर मैं अपने शहर से काफी डरा हुआ हूँ। यह सर्वमान्य सच्चाई हे कि बड़े शहरों में भीड़ पागल तथा व्यस्त होती है, वहाँ खेलने-कूदने, लुकाछिपी की गुंजाइश रहती है। हमारे जमाने के सभी पीड़ितों ओर विद्वानों का यह कहना है कि बड़े नगरों में प्रेम-कलापों के बीच कोई काजी नहीं होता।

बड़े शहरों में जब भी जाएँ, जन-स्थानों पर आप देखेंगे, लड़के के साथ लड़की या दो लड़कों के बीच मुस्कराती हुई एक लड़की या दो लड़कियों के साथ एक फर्राट लड़का। इस प्रकार के दृश्य प्यारे लगते हैं, उनसे जन-स्थानों की रंगीनी भी बढ़ती है। नर-मादा, दोनों को सुविधा हो जाती है और गुप्त किस्म का कोई हौवा रातों में स्वप्न बनकर उन्हें हैरान नहीं करता। ऐसी जगहों में अगर कोई लड़की किसी को अपनी सतीत्व सौंपना चाहे या सौंप दे तो दूसर अलसेठ नहीं देते कयोंकि जनसंख्या ज्यादा होती है। जनसंख्यावाली बात मामूली नहीं है, इसीलिए मैंने उसे दुहराया है।

अब देखिए हमारे यहाँ क्या हुआ करता है। हमार यहाँ, प्रेमी-प्रेमिका अथवा प्रेम अगर गुप्त न रहा सका, जाहिर हो गए, तो पीछे-पच्चीस लग लेंगे। आपका प्रेम कितना सच्चा क्यों न हो, ये पच्चीस लोग अपने प्रयत्न के प्रति कभी निराश नहीं होते। इस शहर की एक पक्की प्रेमिका, बेचारी क्या करे, इन्हीं अनवरत प्रयत्नशील महात्माओं की कारण एक के बाद एक चार बार स्वामित्व बदलने को मजबूर हुई ओर इसमें उसे मजा भी आने लगा। इन दिनों वह अपने सबसे सज्जन ओर सुसंस्कृत प्रेमी के विरुद्ध हो गई है।

मैं असली नुक्ते पर जल्दी आता हूँ। मैं आपको सीधे बता दूँ कि मुझे बदा नहीं था। इसलिए बहुत बड़े शहर की बात को छोड़िए, मुझे दस लाख की आबादी भी नहीं मिली। हमारे शहर की आबादी बीस वर्ष में पच्चीस हजार बढ़ी है।

वे मेरे अभी तक के सबसे बुरे दिन थे। मेरी आत्मकथा में कोई सुरखाब नहीं लग रहा था। अट्ठाइस वर्ष की उम्र पार कर जाने के बाद भी अगर आप समाज को एक कहानी न दे सके, तो समाज आपको पिद्दी ही समझेगा। उन दिनों मैं बिलकुल खाली था और भयंकर रूप से सोया करता था। मेरे डर जाने को समय आ गया था।

जिन दिनों मैं प्रेमविरत और अकेला रहा, मेरे अंदर प्रायः ‘बीवेयर बीवेयर’ की आवाज आती रही। ऐसे सपने आते जिनमे मुझे पुनः प्रेम करने की प्रेरणा दी जाती और वर्तमान शून्य से सावधान रहने को कहा जाता। नींद खुल जाती और सोचता, इस बार ऐसा प्रेम करूँगा जिसमें निश्चित विजय प्राप्त हो और योग गड़बड़ाए नहीं। जीवन एक संग्रहालय है, उसके अलग-अलग विभाग हैं, हर विभाग भरा-पूरा होना चाहिए। कुछ लोग बेवकूफ होते हैं, उन्हें इस संग्रहालय को पूर्ण देखने की परवाह नहीं होती और अकड़ते रहते हैं। उन्हें इस तत्वज्ञान का पता नहीं होता कि आदमी को इस अकड़ का पता बुढ़ापे में चलता है।

दुर्भाग्य से अभी तक मेरे सभी प्रेम-संबंध मामूली या चालू किस्म के रहे, इसलिए उच्चकोटि के प्रेम की जो प्यास होती है वह पूरी नहीं हुई। भरपेट भोजन का जो सुख होता है, उससे मैं वंचित रहा हूँ। दरअसल जब मैंने अपना अध्ययन किया तो मुझे पता चला, मेरे व्यक्तित्व की मुख्य लपक प्यार है। इस मुख्य लपक को समाप्त नहीं किया जा सकता। मैंने कई बार बुझाने का प्रयत्न करके देख लिया। मैं जानता हूँ कि बड़े शहरों में विशिष्ट लोग प्रेम-विरोधी हो गए हैं। उन लोगों का जीवन भले ही सफलता की चोटियाँ चूम रहा हो, पर वे लोग स्त्रियों से घृणा करने लगे हैं और अपनी प्रेमिकाओं पर थूक देते हैं। मुझे पता है मैं समय के साथ नहीं हूँ और अभी भी नालियों में थूकता हूँ क्योंकि मैं स्त्री को उसका स्थान देने के पक्ष में हूँ। मुझे अच्छा नहीं लगता कि स्त्री को नफरत मिले। इसके बाद भी अगर आप नफरत के लिए अपने को मजबूर पाते हैं, तो स्त्री का पूरा इंतजाम करने के बाद, दार्शनिक स्तर पर आप उससे नफरत करते रहिए।

जब से लोगों ने प्यार का मखौल उड़ाना शुरू कर दिया है, मैं काफी परेशानी का अनुभव करता हूँ। यह परेशानी उस गुप्त रोग की तरह है, जिसे आप किसी को बता नहीं सकते। स्वभाव के अनुसार मुझे गर्म ओर सक्रिय प्रेम चाहिए। युवा अवस्था के पूर्वार्ध में मेरा कुछ ऐसी लड़कियों से पाला पड़ा, जिन्होंने मेरे ऊपर ठंडा पानी डाल दिया। लेकिन यह नहीं कि मैंने किनारा कर लिया हो। यह तो मैं अपने मुँह से ही कहूँगा कि घटिया प्रेमी नहीं हूँ कि लड़कियों का गच्चा खाकर उन्हें गालियाँ देने लगूँ, विद्रोही हो जाऊँ या अपने अंदर कला-सेवा का भाव जाग्रत कर लूँ और किसी विश्रामघाट पहुँचकर आराम करने लगूँ। मैं भले ही सुस्त, उदार और निद्रित रहा करूँ, लेकिन अंदर से मैं प्रेम के लिए बेहतर और निपुण हो रहा था। अब मैं किसी को भी वाकओव्हर नहीं देनेवाला। लेकिन फिलहाल मैं खाली था और अपने बिस्तर पर पड़े-पड़े भाग्य की प्रतीक्षा किया करता था। मुझे विश्वास था कि एक दिन अवश्य आएगा जब मैं बिस्तरे से कूछ पड़ूँगा और बदन स्फूर्ति से भर जाएगा।

बिस्तर पर पड़े-पड़े मैं सोचता, अब प्रेमियों का संसार में कोई स्थान नहीं रहा। आमतौर निहायत मामूली किस्म के लोग ही प्रेम में ज्यादा सफल होते हैं। हमारी भाषा में, धीरे-धीरे प्रेमियों को ‘झाँपट’ कहने का रिवाज चल निकला है। इसके बावजूद, मुझे प्रेम करने में रत्ती-भर भी शर्म नहीं लगती। मुझे स्त्री के बीच जितना आनंद आता है, उतना किसी चीज से हीं आता। उस समय मैं बहुत प्रफुल्ल रहता हूँ और मेरी प्रतिभा पैनी हो जाती है। शुरू में काफी महत्वाकांक्षी था, लेकिन बाद में स्त्रियों के लिए मैंने सभी कामों से मुँह फेर लिया। मैं समझता हूँ, स्त्रियों में प्राप्त आनंद-मसाला कभी समाप्त नहीं होगा। इसीलिए मुझे उन घृणा करते लोगों पर दया आती है, जो स्त्रियों की योनि को पीकदान, स्तन को कटहल तथा नितंब को ‘कमोड पॉट’ कहते हैं। सच पूछिए तो बात यह है कि सोचने-समझने के बाद स्त्रियों के अलावा मेरे पास कोई दूसरा चारा नहीं था, क्योंकि मैं अपने शहर को छोड़ नहीं पाया और मेरा शहर हमेशा के लिए मुझको लग गया। कहा जा सकता है, उस तरह, जैसे किसी को चुड़ैल लग जाया करती है।

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बिस्तर पर पड़े-पड़े कभी यह हालत हो जाती कि मैं सोचने लगता, शायद भजन के दिन आ गए हैं। मैं उम्र ओर देह, किसी से बूढ़ा नहीं हुआ था लेकिन भाग्य-कपाट के बंद रहने की वजह से खिसियाया रहता था। घर की यह हालत थी कि वहाँ नेवले, चूहे, कुत्ते, बिल्ली, विलास-वस्तुएँ, खाना-पीना सब कुछ था। बस, जवानी नहीं महसूस होती थी। इन्हीं बेरोजगारी ओर निद्रा के एक रोज सरीखे मनहूस दिन मुझे कुछ हल्ला सुनाई पड़ा। पता चला, हमारे शहर में अपने पिता के तबादले के साथ-साथ एक आकर्षक लड़की आई है। धीरे-धीरे उसका काफी हल्ला हो गया। वह बड़े शहर से आई थी। अफसर की बेटी, शहर में अपनी निर्भीकता यानी मूर्खता प्रकट कर रही थी। जैसे, एक दिन वह अपने बाप के अर्दली को बुलेट पर बैठाकर शहर का चक्कर लगाती रही। बहुत-से लोग क्रुद्ध हुए और बुदबुदाए। लोगों ने सोचा, उसे पटक दें या खुद ही गिर पड़ें, उसकी जवानी घायल हो जाए और उन्हें मजा आए। लेकन न वह बुलेट से गिरी और न उसके कपड़े फटे।

उसके आगमन से मुझे खुशी हुई और मेरी सुस्ती भाग गई। अपना चादर मैंने धोबी को धोने के लिए दे दिया और सोचा, अगर मिल सके तो मैं उसे थोड़ा समझा दूँ। पूरे शहर में मैंने उसे अपने योग्य समझा। कड़वे तेल की मालिश करके, नहाकर, जंगी की दुकान से एक जंगी पान खाकर मैं घूमने निकला। रास्ते में दुबला शरीर कभी पुराने दादाओं की तरह अक्खड़ और लंठ हो जाता। जनता के साथ ऐसा ही व्यवहार होना चाहिए, जबकि लड़की का स्मरण करते ही मैं लचकीला, सौजन्यपूर्ण और सभ्य होने लगता।

वह दवा की दुकान पर बहुत आती थी। वह काफी दवाइयाँ खरीदती थी। वहीं मेरी उससे मुलाकात हुई। मैं हमेशा वहीं बैठने लगा। वहाँ पंखा भी था। मुझे उससे मिलकर पगलाहटपूर्ण खुशी होती। मैंने किसी तरह संतुलन बनाए रखा। मुझे विश्वास है, मुझसे मिलकर उसने कुछ समय में ही समझ लिया होगा कि सारे शहर में यही एक ठीक मैदान है। मैंने भी अपने गुजरे दिनों को विदा किया और अपने को उस तरह से ठीक करने लगा, जैसे पुरानी चीज को लीप-पोतकर चौचक किया जाता है।

लोग यह सोच सकते हैं, मैं उसकी तारीफ में बह गया हूँ और इस प्रकार अपने को ऊँचा सिद्ध करने में लगा हूँ। पर ऐसी बात नहीं है। शहर में सभी जानते थे कि मेरा-उसका ताल्लुक हो गया है। शहर के लड़के दो गुट में बँट गए थे। एक दोस्त पार्टी और एक दुश्मन पार्टी। दुश्मन पार्टी खुलेआम काम नहीं करती थी, पर उस पार्टी के लोग यह बिलकुल नहीं चाहते थे कि मैं इस लड़की को हथिया लूँ। ये लोग सिवाय इसके और कुछ सोच नहीं सकते थे कि मैं उस लड़की का रसपान कर रहा हूँ या करना चाहता हूँ। उन्हें क्या पता था कि मेरे अंदर वास्तविक प्रेमभाव है और मैं उन लोगों-जैसा छोटा आदमी नहीं हूँ।

दुश्मन पार्टी के कुछ चाँई लड़कों ने एक पर्चा छापकर शहर में बाँट दिया, जिसमें लिखा था, हम लोग प्रेम कर रहे हैं। उसे पर्चा देखकर कुछ नहीं हुआ। मेरी इज्जत शहर में थोड़ी-बहुत जरूर गिरी और मैं डर भी गया। वह मेरे पास आई, मुझे हँसते हुए पर्चा थमाया और आँख मारकर बोली, ‘हाऊ फनी!’

इस लड़की में, आप विश्वास नहीं करेंगे, कदम-कदम पर झटका था। वह जलवा करती थी और उसने अकेले अपने बूते शहर की भीड़ को हलकान कर दिया और थोड़े समय में ही लगता था, परास्त भी कर दिया है। पता नहीं उसने यह सब कैसे किया। जबकि मैंने आपको बताया था, इस शहर के लड़के इतनी हरामी चीज हैं कि दूसरे की प्रेमिकाओं को गड़बड़ा देना उनके बाएँ हाथ का खेल है। मैं समझता हूँ कि उसके लिए यह बहुत आसान बात रही होगी। यद्यपि बहुत-सी बातें इस शहर में उसके लिए अकल्पनीय थीं, फिर भी यहाँ के लोगों से चिढ़ने की बजाय वह उनका मजा लेती रही।

मैंने सोचा, मेरे लिए यह संपर्क एक बहुत ही बाँके संयोग की तरह है। मैंने यह भी सोचा, इस संयोग की विफलता बहुत सांघातिक होगी। यह ठीक है कि इसी तरीके से मैं पहले भी, दूसरे मामलों के वक्त सोच चुका हूँ, लेकिन इस बार मैंने भाँप लिया कि अगर हुआ तो यह अंतिम ही होगा। इसके बाद ‘वन्स मोर’ नहीं हो सकता।

उसका मकान मेरे मकान से काफी दूर ठंडी सड़क पर था। वहाँ बड़े जिला अफसरों की कोठियाँ थीं और सिंचाई मोहकमे का रेस्ट हाउस भी। ऊँची तबीयतवालों के अलावा बहुत कम लोग उधर सैर को जाया करते थे। मेरे लिए, पूर्व जीवन की तुलना में यह संपर्क तरक्की का द्योतक था। भाग्य पूरी तरह से नष्ट-भ्रष्ट हो चुका होता, तो मैं अपने बिस्तरे पर ही पड़ा-पड़ा मर जाता। यह स्मरणीय है कि इस लड़की को मैंने किसी बहन, पूर्व प्रेमिका, परिवार या मित्र के ‘थ्रू’ नहीं जाना। यह एक स्वाभाविक मिलन था। मैं उसके जनक-जानकी को भी नहीं जानता था। मुझे केवल उसके टेलीफोन नंबर का पता था। इस मामले में बड़े शहर के मामलों-जैसा पुट जरूर था। मैं तो समझता था, बड़े दुर्भाग्यपूर्ण राशिचक्र को लेकर पैदा हुआ हूँ। उम्मीद नहीं थी, जीवन में ऐसी महिला भी आ सकेगी, जिसका मानसिक क्षितिज विस्तृत हो ओर जो वास्तविक नगरनिवासिनी हो। इसके पहले, मेरी प्रेमिकाएँ या तो सहपाठी थीं या मोहल्लेवालियाँ या दूरी की रिश्तेदार। ये सारे प्रेम ‘इंडोर गेम’ की तरह थे और इनमें बड़ा घसड़-पसड़ होता रहता था। इनमें फायदा इतना ही होता था कि कभी कढ़े हुए रूमाल मिल जाते और कभी खाने को गाजर का हलवा या कलाकंद। लेकिन आप या कोई भी कब तक इस हालत को रख सकता है।

प्रेम के बिना मनुष्य अधूरा है। मैं हमेशा प्रेममार्गीय तरीके से जीवन का निर्माण करने में विश्वास करता रहा। मुझे यह पता नहीं उम्र के किस मोड़ पर मेरे अंदर यह विश्वास घर कर गया कि बिना प्रेमरस के रंग चोखा नहीं हो सकता। इस शहरातू लड़की के संयोग के पूर्व भी मैं हमेशा पवित्र, सात्विक भावना से प्रेम का प्रयत्न करता। याद आ जाने पर कभी-कभी शर्म, निराशा और जलन का अनुभव होता है। मेरी एक सहपाठिनी प्रेमिका, प्राकृतिक स्थानों पर, नियत समय में अक्सर प्रेम करने नहीं पहुँचती थी। बाद में न आने के कारण वह बताती थी, उन्हें कोई भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। जैसे जीजा जी आ गए थे, दहीबड़ा खाने चले गए, पतंग उड़ाने लगे, या महमूद की फिल्म देखने गए थे, आदि-आदि। लेकिन अफसोस, चूँकि मैं उन युवकों में से हूँ जो तलाश करने में लगे रहते हैं। और धैर्यवान होते हैं, इसलिए मैं हर अवस्था को सब्र से बर्दाश्त करता रहा। अब सोचता हूँ, अगर सब्र न करता तो आज उसका मीठा फल मुझे कैसे मिलता। यद्यपि मुझे अपने अतीत का बहुत खेद है। उसने मेरे प्रारंभिक युवा वर्षों का मट्ठा कर दिया। इसके बावजूद अब मैं प्रसन्न हूँ कि चलो, दिन तो फिरे।

वह सुंदर लगती थी। सामान्यतः इतनी सुंदर लड़की से लोग आसानी से हिम्मत नहीं करते। लगता है, मैं झूठ बोल रहा हूँ, पर मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ। वह अपने ‘अंगों’ को खूबसूरती से छुपाती थी और खूबसूरती से ही दिखाना भी जानती थी। मैंने कभी उसे उँगली डालकर नाक साफ करते हुए नहीं देखा और जाँघों के बीच साड़ी खोंसते। मैं समझता हूँ कि उसे कब्ज भी नहीं रहता था। उसने दवा की दुकान से तमाम दवाइयाँ खरीदीं, कभी जुलाब की मीठी टिकियाँ नहीं खरीदीं। आप बड़ी-बड़ी ख्यात और तोप सुंदरियों को कब्ज की गिरफ्त में फँसा हुआ पा सकते हैं अगर आपके पास कोई लड़की या महिला है ओर आपको पता चल जाए, वह दारुण कब्ज का शिकार हे तो आपको सांत्वना हो सकती है? कभी नहीं हो सकती। इसीलिए प्रेम के लिए सुंदर से अधिक स्वस्थ लड़की का उपलब्ध होना जीवन में अधिक महत्वपूर्ण है।

मैं उसकी काफी तारीफ कर सकता हूँ। मैं उस पर काफी गर्व करने लगा था। उसे मैं अपनी चीज समझता था। वह मोटी, ताजी, हृष्ट-पुष्ट नहीं थी। वह चौबीस वर्ष और बहत्तर पौंड की थी। मैंने उसके वजन का साप्ताहिक हिसाब रखा। हमेशा बहत्तर पौंड। वह बहुत खुश हुई। मेरी इस जिम्मेदारीपूर्ण क्रिया से उसे छोटी-सी जगह में अस्तित्व का बोध हुआ होगा। हमारे यहाँ जिधर देखो, मुसटंड और गबद्द शरीरवाली लड़कियाँ मिलेंगी। उनकी बाँहें देखिए, उनमें बल्ले छुपे मिलेंगे। इनके साथ आप कोई मामूली शारीरिक पेंच भी करिए, लगेगा जैसे बलात्कार की शक्ति लग रही है।

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एक बार की बात है। मकान मालिक की लड़की, शाम को खाना पकाने के बाद मेरे कमरे में आई और मेरे सुस्ताते हुए पाँव पर उसने अपना पूरा शरीर औंधा डाल दिया। उन दिनों भोजन मैं होटल में करता था। वह रसोई में पकाते हुए शायद भावुक हो गई थी। मैं आपसे क्या बताऊँ, दो-चार पल में ही मेरे पाँवों में झुनझुनी बढ़ गई और फेफड़े बेचैनी से भर गए। शरीर स्वाभाविक लय की प्रतीक्षा में धुत होने लगा। मुझे उससे तेज पेशाब का बहाना करना पड़ा, जब उसकी मेहरबानी हुई।

इस लड़की की देह वजनप्रमुख नहीं, हड्डीप्रमुख थी। गाल की हड्डी, कॉलर की हड्डी और कोहनी की हड्डी, सब सुंदर मनभावन हड्डियाँ। कमर के नीचे की हड्डी, मैंने नहीं देखी पर मेरा विश्वास है कि वह भी देखने पर शोभायुक्त लगेगी। बड़े शहर की लड़की चिंतन-मनन करनेवाली होती है और देह में सौंदर्य दिमाग के मार्फत आता है।

मैंने गंभीरता से विचार किया, यह लड़की आसान नहीं है। मुझे सावधान रहना चाहिए, कहीं पवित्रता का दौरा न पड़ जाए, कहीं घटनाओं की हू-ब-हू पुनरावृति न होने लगे। कुछ दिन तो हम लोगों के संबंध बड़े नाजुक और लजीले रहे। ‘क्रासवर्ड पजल’ हल करने, कॉफी पीने, हवाखोरी ओर रमी वगैरह मामूली चीजों के बीच हमारा संपर्क भटकता रहा। इसके बाद ऐसा लगा, वह मुझे सूँघ रही है और संभवतः ठीक से आजमाना चाहती है। आखिरकार वह एक औरत थी और स्वाभाविक रूप से मेरी असलियत तथा औकात से परिचित होना चाहती रही होगी। मुझे इसका दुख नहीं है। व्यक्तित्व की यह आपसी कशमकश होना बहुत जरूरी है। बस मुझे रत्ती-भर यह भय था, कहीं परिणाम में घपला न हो जाए। अन्यथा, इस लड़की से अपनी तबीयत बड़ी खुश थी।

शुरुआत में दिक्कतें आईं। इस प्रकार के मौकों पर मैं दो-तीन गायब हो जाता। यह मेरा तरीका है। धीर-धीरे सब ठीक हो गया और मुझे लड़की अभ्यास का मैदान लगने लगी। प्रयोगशाला एक गंभीर शब्द है, अन्यथा उसे प्रयोगशाला ही कहता। हमें एक-दूसरे में संभावना नजर आने लगी। एक दिलचस्प और जानदार खेल की उम्मीद थी, जो काफी समय भी ले सकता था। लेकिन दुर्भाग्य से, अंत में आपको पता चल जाएगा कि यह मजेदार खेल अपने ‘ड्रा’ के अंत कारण ‘मजेदारी’ से छिन गया। यह एक ‘हाय अंत’ था, क्योंकि वह न केवल बराबरी पर छूटा, वरन उसने हम दोनों में से किसी को भी आगे खेलने के लिए सर्वथा अयोग्य कर दिया। देखिए, प्रेम करने और निकम्मे हो जाने की यह कलियुगी स्थिति कितनी आश्चर्यजनक है।

शहर में लोगों को सिवाय इसके कि हम लोग मिलते-जुलते, घूमते-फिरते हैं, और कुछ पता नहीं था। गहरे नामालूम तरीके से हर जगह हम एक-दूसरे का मान तोड़ने में भिड़े हुए थे। मैं चाहता था, वह पहले समर्पण करे। मेरा जी ठंडा हो और फिर मैं राजा शेर की तरह जंगल छोड़ दूँ। मुमकिन है, वह भी यही चाहती रही हो। हमारी मुख्य समस्या एक-दूसरे पर विजय प्राप्त कर लेने थी। प्रेम में मुख्यावस्था का प्रारंभ तभी हो सकता था। कायदे के आदमी इसके लिए जिन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, वे सब हम भी करते रहे। बस, इतना ध्यान जरूर था कि ज्यादा आँच न हो। हम दोनों को इस तरीके में कोई आपत्ति नहीं थी। हम हाथ मिलाकर खिलाड़ी हो गए। मैं जानता हूँ, इसे झट से, लोग प्राचीनता कह देंगे लेकिन आधुनिकता और प्राचीनता के फसाद से परे इसमें कितनी जिंदादिली थी, इसको मैं तर्क के साथ नहीं समझा सकता। सब नहीं महसूस कर सकते कि इस तरह के नर-मादा संबंधों में कितना उल्लास होता है। उन मुद्दों की बात छोड़िए, प्रमिकाएँ जिनके ऊपर फंदों की तरह लटकी होती हैं और जो इसका शोक शोभापूर्ण नखरों की तरह जीवन-भर मनाते रहते हैं।

मैं काफी झूठ बोलता था। उसका काम थोड़े झूठ में ही चल जाता था। लेकिन यह बात हमें बहुत आसान और जरूरी लगती थी। शायद ही कभी हमें सच बोलने की आवश्यकता पड़ी हो। सच जब भी बोला गया, हम उसे पहचान गए और हँस पड़े। हमारी यह हँसी बिलकुल एक-सी होती थी।

उस लड़की से मेरी दोस्ती एक जनवरी को, ठीक वर्ष की शुरुआत के दिन हुई, जब हमने एक गुप्त आयोजन किया। वर्ष की शुरुआत और दोस्ती की शुरुआत एक सुखद संयोग था। गुप्त आयोजन का अर्थ भूख या अश्लीलता नहीं थी। हमने एक-दूसरे को दो-ढाई घंटे में एक बार भी चपेटा या छुआ नहीं। मुझे पता था, जल्दबाजी से वह भड़क सकती है और मेरी ‘कटिंग’ भी कर सकती है। फिर मेरे अंदर पिपासा भी लबलबा नहीं रही थी। मैंने उसे काफी दिन तक नहीं पकड़ा। छुआछाई तो हो जाती थी। जब एक रिक्शे पर बैठेंगे तो इतना तो होगा ही। फूहड़ लोग मुझे कहेंगे, नपुंसक। लेकिन प्रेम की चरित्रवादी कोटि है, दिनोंदिन जिसका खात्मा होता जा रहा है। अब तो भुक्खड़ पर भुक्खड़ निकले आ रहे हैं। तमाशा देखिए, स्त्री लड्डू में और पुरुष चाट में तब्दील हो गया। हम लोग सभ्य, शिक्षित और नफीस संस्कारवाले लोग थे।

जहाँ तक मेरी प्रेमिका का प्रश्न है, वह बड़े शहर की लड़की थी। बड़े शहर की लड़कियों के साथ एक खास बात यह होती है कि उनका सतीत्व अगर कोई चुरा ले या लूट ले जाए तो उन्हें परेशानी या अफसोस नहीं होता। वे ग्लानि से गलने नहीं लगतीं और पुलिस रिपार्ट करने का झंझट भी नहीं उठातीं। यह तो एक बात हुई, दूसरी बात यह है कि उनका सतीत्व हरण कर लेना आसान भी नहीं है। वे बड़ी चतुर होती हैं और अगर वे न चाहें तो अधिक-से-अधिक आप उनकी लँगोटी लेकर भाग सकते हैं या पंपिंग-वंपिंग। और इसकी उन्हें परवाह नहीं होती। बस में, सड़क की भीड़ में, घर के नौकर-चाकर और उन दोस्तों को, जिनसे आजिज आ जाती हैं, इतना सर्कस तो यूँ भी ‘अलाऊ’ कर देती हैं। छोटे शहर में यह नहीं हो सकता। इसके लिए भीड़ और जनसंख्या जरूरी है।

इसमें संदेह नहीं कि मौसम ने हमारी मदद की। जनवरी-फरवरी में एक तो तेज शीत पड़ती है और दूसरे दोपहर के बाद जल्दी अँधेरा हो जाता है। वह काफी सर्द शाम थी, जब मुझे उसके गरम कोट की जेब में बायाँ हाथ डालने का अवसर मिला। उस समय हम लोग रिक्शे पर सैर कर रहे थे। मैं रंग जमाने के लिए कुछ भी गरम नहीं पहने हुआ था, लेकिन उसने मेरे ठंडे हाथों को पकड़ लिया और कहा, ‘यह बहुत चिंताजनक है। खराब स्वास्थ्य की निशानी है। आप डॉक्टर को दिखाएँ और दवा लें।’ कहीं इसी वजह से यह मेरा कुंडा गोल न कर दे, मुझे भय हुआ। पर उस समय तो तबीयत रूमानी मोड़ से भर गई, जब उसने कहा, ‘आप एक पंजा तो कम-से-कम मेरे कोट में डाल ही लीजिए।’ मैं जानता था, यह लड़की विकल है और कुछ हो, ऐसा चाहती है पर मेरे स्वास्थ्य की आड़ लेकर चालाकी से मतलब निकाल रही है। मैंने भी सोच लिया, जेब में हाथ डालकर कुछ करूँगा नहीं, संयम रखूँगा।

एक दिन का हाल सुनिए। वह मेरा दिन था। मैं उसकी श्रेष्ठता स्वीकार कर चुका हूँ लेकिन उसके सामने अपने को मैं कभी उन्नीस नहीं होने देना चाहता था। मैं उसके निजी कमरे में बैठा था और हम चर्चा कर रहे थे। पता नहीं सरस्वती उस दिन कैसे कमाल कर रही थी। मेरी कई बातें लह गईं, सूचनाओं के बल पर मैं जानकार पाँड़े बना था।

‘तुम तो बहुत बड़े शहर से आई हो, तुम्हारा जन्म और शिक्षा भी वहीं हुई है, यह क्या बात है महानगरों में लोगों ने प्यार करना बंद कर दिया है।’ दरअसल मैं उसका पेट लेना चाहता था। उसका पेट पता नहीं लगता था – ‘इस तरह वे अपने को बचाते हुए बढ़ रहे हैं, निस्संदेह वे बुद्धिमान ओर समय को पहचाननेवाले लोग लगते हैं । क्यों ठीक है न?’ मैंने उससे पूछा।

‘अच्छा!’ उसने आँखें फाड़ दीं। ‘तब क्या किया करते हैं, शायद वे बड़े-बड़े काम कर रहे होंगे।’ मैं एक खुफिया की तरह सावधान था, मैंने उसकी बात पर गौर किया। उसमें मजाक और लुचपन की ध्वनि थी। उसने मुझे बता दिया, तुम्हारी बात की गंभीरता झूठी है। उसी ने फिर कहा, ‘क्या वे लोग कोई भी छोटा काम नहीं करते।’ वह नटनियों की तरह मुस्कराने लगी। मैं समझा ‘छोटा काम’ से उसका मतलब चुंबन, रति या आलिंगन वगैरह से होगा।

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मैं खामोश हो गया। कहीं लेने के देने न पड़ जाएँ। स्क्वॉष जग में रखा था, मैं उसे गिलास में भरकर पीने लगा। यह छोटी-सी व्यस्तता थी। लेकिन वह मुझे शायद हृदय से अपना चुकी थी। उसने मेरी बेइज्जती नहीं की। वह मेरे काफी निकट आकर बोली, ‘देखिए जनाब, मेरी सारी फ्रेंड्स प्रेम कर रही हैं और वे सब मेरे ही शहर में रहती हैं। लोग बिना प्रेम के जिंदा कैसे रह सकते हैं, यह मेरी समझ में नहीं आता। बायबिल में कहा है, लव इज गॉड एंड गॉड इज लव।’

मैं सोफे पर अधलेटा हो गया। वह उठी और आहट लेकर वापस आई। ‘यहाँ आने के पहले मैंने एक लड़के से शुरू-भर किया था। वह तुमसे अधिक युवा था लेकिन पापा ने कहा – बेबी, अभी तुम छोटी हो, दो-एक वर्ष और इंतजार करो। पर अब मैं इंतजार नहीं कर सकती। मैं इंतजार नहीं सकती पापा, मैं इंतजार नहीं कर सकती,’ कहते उसने मेज पर जोर-जोर से मुक्के मारे ओर अपने शरीर को नख से शिख तक झकझोर दिया।

धीरे-धीरे वह लाइन पर आ रही थी। घपला यह था कि मेरी तबीयत लाइन पर आ जाने की होने लगी। मैं अपने को काफी समझाता, उसके साथ सब कुछ करो लेकिन बड़े चक्कर में मत आना। कभी तबीयत उसके गोरे रंग पर जाती, कभी उसका शहरीपन लुभाने लगता। हमारे घर अभी तक एक भी गोरी बहू नहीं आई थी। मेरे भतीजे-भतीजियाँ काले-कलूटे घूमा करते। फिर इस बात का भी यकीन नहीं था कि भाग्य हमेशा ही चोखा बना रहेगा। सोचता, ऐसी लड़की को पाने का कितना सुख है जिस पर अनगिनत लोग फिदा हों। दिमाग मुझे समझाता – सीधे-साधे इसे लड़का-लड़की का मामला रहने हो, ज्यादा आगे न बढ़ो, नहीं तो सारी शेखी घुस जाएगी। लेकिन दिमाग का एक दूसरा हिस्सा या दिल, जो भी हो, तपाक से बोलता – हट बदमाश, मेरा ही खोंचा मार रहा है!’

मामले को रुख गड़बड़ाने लगा था। मुझे शक हुआ, ऐसा न हो, ‘लाइन ऑफ एक्शन’ बिलकुल ही बदल गए, हम लोग एक-दूसरे पर भड़भड़ाकर गिर पड़ें और कहें, ‘क्या हर्ज है, बल्कि अच्छा ही है।’ मैं चाहता था कि अगर कलई खुलनी ही हैं तो दोनों की एक ही साथ खुले ताकि कोई भी किसी को नाजायज तौर पर दबोच न सके।

इस बीच क्या हुआ, दुश्मन पार्टी ने हमारी बाबत एक और पर्चा छापकर शहर में बाँट दिया। इस पर्चे पर शीर्षक दिया गया था, ‘अपनी बहू-बेटियों की इज्जत खतरे में!’ उसमें विस्तार से यह ब्योरा दिया गया था कि हम लोग पिछले दिनों कब, कहाँ और कितनी देर अकेले साथ-साथ रहे। इस बात को बड़े गंदे तरीके से लिखा गया था। उसमें ‘च’ अक्षर से शुरू होनेवाले कुछ अश्लील शब्दों का भी प्रयोग हुआ था। अंत में मोटे टाइप में छपा था, ‘मोहल्ले में गंदी हरकत बंद हो!’

मैंने ईश्वर को मनाया, मेरी प्रेमिका के हाथ में, किसी तरह भी हो, यह पर्चा न पड़े। वह पर्चा बहुत गंदा था लेकिन मैं क्या कर सकता था। मैं शहर का राजा नहीं था। हम लोगों ने अभी तक वैसा कुछ नहीं किया था, जैसा पर्चे में लिखा था। इतना ही हुआ कि एक दिन वह मेरी जाँघ पर आकर बैठ गई थी। वह बहुत हल्की और तप्त रुई की तरह गर्म थी। हम लोग चरित्रवान और धैर्यवान प्रेमी-प्रेमिका थे। काश, यह विश्वासियों का जमाना होता और लोग यह मानते कि बहुत कुछ नष्ट हो जाने के बाद भी कहीं-न-कहीं कुछ बचा हुआ हैं। दुर्भाग्य से अब कोई भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि लड़के-लड़कियों के बीच लूट-खसोट ही नहीं बची है, प्रेम भी बचा है।

पर्चा देखकर उस दिन मुझे बहुत गुस्सा रहा। मैंने शराब पी और लाल आँखों में गुस्सा भरे मैं बाजार से निकला। दो बार निकला। मैं चुप था और लोगों को घूर रहा था। मेरा कुछ असर अवश्य पड़ता लेकिन सड़क पर जब मैं पहला चक्कर लगा रहा था, आकाशमार्ग से एक हवाई जहाज गुजरा। बाजार के लोग काम-धाम छोड़कर ऊपर देखने लगे। साले जहाज के गुजर जाने के बाद भी आकाश देखते रहे। थोड़ी देर बाद मैंने दूसरा चक्कर लगाया। लेकिन मेरा दुर्भाग्य प्रबल था। तब तक बाजार में सौदा-सामान लेने एक मशहूर रंडी आ चुकी थी। लोग उधर मुखातिब थे। अंततः मैं एक गुस्सैल संवाद बड़बड़ाते हुए लौट आया – ‘देहातियों, तुम लोगों की ऐसी की तैसी! मैं उसी को बीवी बनाऊँगा जिसका हगना-मूतना तुम लोगों ने बंद कर रखा है। घबड़ाओ मत सालो, इसी बाजार से बैंड बाजा निकलेगा और उसी छापाखाने से निमंत्रण-पत्र छपेगा, जहाँ तुम लोगों ने पर्चे छपवाए हैं।’

वह दूसरे दिन आई। मैंने देखा, आज उसके पास अर्दली है। उसके चेहरे पर परेशानी थी और उसका मुखड़ा थका हुआ लग रहा था। ऐसी परेशानी, जो किसी चीज को न समझ पाने के कारण होती है। लगता था, वह डरी हुई है। उसने वैनिटी बैग से पर्चा निकाला और ‘च’ अक्षर से शुरू होनेवाले शब्दों का मतलब पूछा। उसने शब्दों का उच्चारण किया। लगता था, वह मुझे अपने साथ कर लेना चाहती है। मुझे किसी किस्म की खुशी भी हुई लेकिन मैंने उसका गाल थपथपाया, ‘घबड़ाओ मत।’ मैं शरणागत के साथ क्रूरता नहीं कर सकता था, भले ही बाद में जिंदगी बवाल हो जाए। वफादार लड़की के साथ हरमजदगी करना तब ठीक होता, जब मुझे सामने अपना उज्जवल भविष्य दिखता होता।

यह घटना न होती तो तय था, मैं प्रेमकाल को बढ़ाने का जुगाड़ करता। वह पास में उदास-सी बैठी थी और अपना बैग खोल-बंद कर रही थी। मैंने अपने को उससे ज्यादा उदास कर लिया। काफी देर बोलाबाली नहीं हुई। ‘अरे आप तो मुझसे ज्यादा परेशान हो गए,’ कुछ देर बाद वह बोली, ‘आप सोच लीजिए, अब हमारे बुरे दिन चले गए। आई डैम केयर दीज माइनर थिंग्स। अब मैं आपके जीवन में आ चुकी हूँ। आपको क्या इसकी खुशी नहीं होती?’ सुनते ही अंदर कुछ विकृत आवाजों का जागरण हुआ। अरे, यह बात पुरानी और कई बारी की सुनी हुई लगती है। मारे घबराहट के मैंने उसे खींचकर अपने से चिपका लिया। चिपके हुए ही उसने कहा, ‘प्लीज, तुम मेरे पापा से प्रपोज करो। तुम्हारे पापा की तो बाबा कितनी प्रापर्टी है। मेरे पापू भला क्यों न मानेंगे।’

यह हमारे लिए एक जबरदस्त दिन था। कोई हर्ज नहीं अगर पर्चे में लिखी बातें हो जाएँ। सेंत में हम क्यों बदनाम हों। मैंने उससे कहा, वह अपने अर्दली को वापस कर दे। उसने अर्दली से लौट जाने को कहा। मैंने उससे हर चीज के लिए पूछा, पर वह कुछ भी खाने-पीने को तैयार नहीं हुई। मेज पर पर्चा पड़ा हुआ था, उसे उठाकर मैंने एक बार और पढ़ा। फिर उसकी तरफ देखा, उसकी आँखें अपूर्व और देखने काबिल थीं। उनमें किसी गुप्त यंत्रणा की पस्ती भरी हुई थी। वह बहुत प्यारी ओर पालतू लग रही थी। मुझे उसके शब्द याद आए, ‘मैं इंतजार नहीं कर सकती पापा, मैं इंतजार नहीं सकती।’ लेकिन इन शब्दों का अर्थ प्यार था या शरीर, मैं कह नहीं सकता था। मुझे पशोपेश था, मैं उस पर एकदम हमला कैसे कर देता। मुझे सहानुभूति हुई और मैंने टालना भी चाहा लेकिन मेरे शरीर का अनुशासन बिगड़ रहा था। फिर मैंने खुद को यह समझाया, तुम्हारे पवित्र व्यवहार से उसकी तबीयत हौदा हो सकती है। इससे बेहतर दूसरा मौका न मिलेगा, उसे काबू कर लो।

मैंने उसे पुचकारा। उसका सीना बुरी तरह फूल रहा था और वह अपने को हताश महसूस कर रही थी। उसने कुछ दाँव दिखाए, फिर ठीक हो गई। मेरी तबीयत धड़क रही थी, पर मन में जय बजरंगबली कहता हुआ मैं नाला कूद गया। मैं वाकई नाला कूद गया। उसने थोड़ी देर के लिए मुझे गंदा और घृणित समझा, बाद में उसकी आँखें मस्त हो गईं और उनमें से मेरे लिए टपटप ‘जादूगर’ शब्द टपकने लगा। मुझे विजय का सुख मिला, उसका रुआब टूटा। मैंने समझा, मेरी जिंदगी का यह सबसे जोरदार दिन है।

उसके बाद का कुछ न पूछिए। थोड़े ही समय में हमारी भाषा, हमारा व्यवहार और व्यक्तित्व सब कुछ लुल लगने लगा। पहले शहर में तमाम खुसर-पुसर के बावजूद मेरी गर्दन जिराफ की तरह ऊँची रहती थी। हमारे अंदर गुर्राहट भरी हुई थी। और अब लगता है, अंदर कोई दुश्मन छुपा बैठा है, जो गर्दन पर मंझा रगड़ रहा है। मैं नीचे पड़ा हूँ और ऊपर मेरे स्वभाव की मुख्य लपक प्यार का झंडा उड़ रहा है।

ताजी स्थिति यह है कि हम लोग एक-दूसरे को तन-मन से चाहने लगे हैं। अब हम लोग अकेले बिलकुल नहीं रह सकते। इधर दुश्मन पार्टी ने कुछ और पर्चे छाप दिए हैं।

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रचना प्रक्रिया – Rachana Prakriya

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