चीनी | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
चीनी | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

चीनी हमें मिठास से अधिक
कड़वाहट के लिए आती है याद
गुलामी के दिनों में
चीनी ही है जिस ने हमारे कितने पूर्वजों को
अपनी जमीन से किया बेदखल

अक्सर लगता है मुहावरे की तर्ज पर
चीख-चीख कर बोलूँ :
चीनी और नीम चढ़ी

मारीशस, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका कहाँ-कहाँ नहीं गए
चीनी उगाने हमारे पूर्वज

गन्ने के खेतों को देखता हूँ
तब अक्सर मिठास कम होने लगती है मेरे भीतर
अपने पतियों-बेटों के इंतजार में खड़ी
उन औरतों की आँखों का खारापन
बड़े सवाल की तरह भर गया है
हमारे इतिहास में बहुत

See also  बनारस में पिंडदान | लीना मल्होत्रा राव

आज जब भारतवंशियों ने दुनिया में अपने लिए
गढ़ ही ली है सम्मानजनक जगह
पा लिया है धरती-आसमान का न्याय
देख-सुनकर तब खुशी और
गर्व हमें होता ही है खूब

लेकिन कविता पलटती है जब
दिन के पन्ने-दर-पन्ने
और हम देखते हैं –
जल जहाज से हाँक कर ले जाए गए जो पूर्वज
खेतों को गोड़ते-बोते या गन्ना काटते
कितना याद आए उन्हें अपने खेत-खलिहान
दिलासा दिया कैसे उन्होंने अपने मन को
गा कर अपने गाँव-जवार का कोई गीत

See also  अकेला आदमी

गैंती-फावड़ा चलाते उनका भी बहुत
भीतर से चला आया होगा बाहर
और मिट्टी से ही भेजा होगा उन्होंने
अपने घर-गाँव की माटी को संदेश

दिन भर की मेहनत के बाद
परदेस के खुले खेतों में आई होगी उन्हें जब नींद
अपनी जमीन में लौटने के उनके सपनों ने
भरी रात छुटा दिए होंगे उन्हें पसीने

See also  शतरंज के मोहरे

विस्थापन पर सोचते-विचारते आजकल
कविता से पूछता रहता हूँ मैं बार-बार
आखिर शक्कर की बात करते-करते
चक्कर क्यों खाने लगता है
मेरा दिमाग!

Leave a comment

Leave a Reply