एक झरना
था कि फिर संतूर का स्वर
मौन की घाटी उतरता है

टूटता शीशा
सघन सी चुप्पियों का
धूप में चमके
हरापन पत्तियों का
फूल कोई
पंखुरी के श्वेत अक्षर
होंठ पर चुपचाप धरता है

शब्द के
निःशब्द होने की कथा सा
उगे सूरज
पर्व की प्रेरक प्रथा सा
याद का क्षण
गंध के कपड़े पहनकर
खुली अँजुरी से बिखरता है।

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बर्फ पर पदचिह्न
यात्राएँ समय की
मिली पगडंडी
किसी भूले विषय की
स्वप्न का मृग
कान पंजों से खुजाकर
नींद की चादर कुतरता है।