माँ का अप्रासंगिक होना

जाती हुई धूप संध्या की
सेंक रही है माँ
अपना अप्रासंगिक होना
देख रही है माँ

भरा हुआ घर है
नाती पोतों से, बच्चों से
अनबोला बहुओं के बोले
बंद खिड़कियों से
दिन भर पकी उम्र के घुटने
टेक रही है माँ

फूली सरसों नहीं रही
अब खेतों में मन के
पिता नहीं हैं अब नस नस
क्या कंगन सी खनके
रस्ता थकी हुई यादों का
छेंक रही है माँ

See also  छात्रावास में कविता-पाठ | ऋतुराज

बुझी बुझी आँखों ने
पर्वत से दिन काटे हैं
कपड़े नहीं अलगनी पर
फैले सन्नाटे हैं
इधर उधर उड़ती सी नजरें
फेंक रही है माँ

Leave a Reply

%d bloggers like this: