आज फिर अलार्म सुबह 5.15 पर बज उठा।

वह यंत्रवत उठा और अपने ब्लैकबेरी फोन पर अलार्म को डिसमिस कर दिया। उसका सुबह का शेड्यूल हमेशा एकसा ही रहता है। अलार्म बंद करना; बिस्तर से निकलना; बिस्तर को सीधा करना और रजाई को ठीक से बिछाना; फिर एक अँगड़ाई लेना; अपना पायजामा उठा कर पहनना और पहनते-पहनते ही बाथरूम की तरफ चल देना। आँखें भी बेडरूम से बाथरूम तक आते-आते ठीक से खुल पातीं हैं।

बाथरूम जाते-जाते एक पल के लिए रुक जाता है। अपना लैपटॉप ऑन करता है। कुछ आवाजें आनी शुरू होती हैं। थोड़ी देर में लैपटॉप चलना शुरू कर देता है। विंडोज-7 अपने शुरू होने की सूचना भी बहुत मधुर सुरों में देता है। इस बीच वह अपने अँग्रेजी टूथ ब्रश पर भारत से मँगवाया आयुर्वेदिक पेस्ट लगाता है और दाँत साफ कर लेता है। दाँत साफ करने के बाद जीभी से अपनी जबान जरूर साफ करता है।

उसे हिमालय टूथपेस्ट का स्वाद बहुत पसंद है। हिमालय कंपनी के नाम से उसकी बचपन की यादें जुड़ी हैं। किशनगंज के वैद्य जी उसे अपनी दवाओं के साथ-साथ लिव-52 नाम की दवा दिया करते थे। इस टूथपेस्ट से उसकी पहचान भोपाल के एक होटल में हुई। पेस्ट की एक छोटी सी ट्यूब रखी थी उस होटल के टॉयलट में। उसे अपने पिता की कही बात याद आ गई, “भला सुबह-सुबह हम अपने मुँह में फ्लोराइड या फिर अन्य कैमिकल क्यों डालें। जब आयुर्वेद हमारे लिए जड़ी बूटियाँ इस्तेमाल करता है, हम क्यों अँग्रेजी दवाइयों और वस्तुओं का प्रयोग करते हैं?”

वैसे आयुर्वेदिक टूथपेस्ट तो लंदन में भी मिलते हैं। डाबर, नीम, और स्वामी नारायण मंदिर वाले सभी आयुर्वेदिक दवाएँ और रोजमर्रा के इस्तेमाल के आयुर्वेदिक उत्पाद बनाते हैं। मगर भारत से अपनी पसंद की वस्तु दोस्तों से मँगवाने का सुख ही अलग है। उसके बचपन की यादों में बोरोलीन, सुआलीन, निक्सोडर्म, अफगान स्नो, सिंथॉल साबुन, अमूल मक्खन, और रूह अफजाह शर्बत आज भी घर बसाए बैठे हैं।

एक उहापोह भी होती है कि पहले नहा ले या फिर चाय बना ले। फिर वापिस लिविंग रूम में आता है और कंप्यूटर पर अपना जी-मेल अकाउंट खोलता है। एक सरसरी निगाह से देखता है कि कहाँ-कहाँ से ई-मेल आए हैं। अगर कोई महत्वपूर्ण ई-मेल दिखाई देता है तो ठीक, वर्ना वापिस टॉयलट की तरफ चल देता है। वैसे कभी-कभी लैपटॉप उठा कर टॉयलट में भी ले जाता है। और टॉयलट सीट पर अपने आपको समझाता है कि आज बाबा रामदेव की बात मान ही लेगा। कपाल भाती और अनुलोम विलोम कर ही लेगा। कबसे अपने आपको तैयार करता आ रहा है कि उसे यह क्रिया निरंतर रूप से करनी चाहिए।

होता वही है जो रोजाना होता है। टायलट से निवृत्ति होते-होते और स्नान पूरा करते-करते समय अधिक लग जाता है। ऐसे में सबसे पहले बलि का बकरा बनते हैं कपाल भाती और अनुलोम-विलोम। लगता है कि जैसे दोनों प्राणायामों की रिहर्सल सी की हो उसने। न तो गर्दन और कंधों की एक्सरसाइज कर पाता है और न ही प्राणायाम। बस सैंडविच बनाता है, चाय बनाता है, एक डाइजेस्टिव बिस्कुट निकालता है और चाय पीने बैठ जाता है। उसके घर में चाय की पत्ती की जगह टी-बैग ही आते हैं।

उसने एक नया तरीका निकाल लिया है कि टी-बैग की चाय में बंबई की चाय की पत्ती वाला जायका आने लगे। वह कप में दो टी-बैग डाल कर उस में दूध डालता है और माइक्रोवेव अवन में चालीस सेकंड तक उबालता है। दूसरी तरफ इलेक्ट्रिक केतली में पानी उबलने के लिए रख देता है। चालीस सेकंड बाद कप बाहर निकाल कर दूध में टी-बैग हिलाता है और उसमें एक गोली स्पलैंडो (रासायनिक चीनी) की डालता है। उस पर केतली में से उबलता पानी डालता है। एक मिनट के बाद विशुद्ध भारतीय चाय तैयार हो जाती है।

वह परेशान है कि आजकल घर से दफ्तर पहुँचने में एक तरफ लगभग दो घंटे लग जाते हैं। यानि कि एक सप्ताह में बीस घंटे वह रेलगाड़ी में ही बिता देता है। जबकि पुराने दफ्तर में जाने के लिए करीब पैंतीस से चालीस मिनट ही लगते थे। यदि वह लिखना चाहता तो इन चालीस घंटों में से कम से कम पाँच घंटे तो साहित्य सृजन में लगा सकता था। अब उसे अपने मित्र दिवाकर का लेखकीय सन्नाटा समझ आने लगा था। न लिखने के कारण भी महसूस होने लगे थे। वह शनिवार को अवश्य ही सैंगी से बात करेगा।

सैंगी उसकी ब्याहता पत्नी नहीं है। बस दोनों साथ-साथ रहते हैं। दोनों जीवन में उस समय मिले जब उनके अपने-अपने जीवन साथी राह में ही छोड़ अलग राह पकड़ कर चल दिए। दोनों की राय विपरीत सेक्स के लिए खासी नकारात्मक हो गई थी। मगर फिर भी दोनों को एक दूसरे में ही अपना-अपना पूरक दिखाई दिया। हिंदी का बिगुल बजाने वाला वह अचानक ब्रिटेन की वेल्श लड़की के साथ एक ही छत के नीचे रहने लगा।

वैसे उसका नाम एलिजबेथ है। सब प्यार से उसे लिज कहते हैं। अब क्योंकि दोनों ने विवाह नहीं किया और पार्टनर बन कर एक ही छत के नीचे रहते हैं, इसलिए वह उसे संगिनी कहता है और फिर संगिनी प्यार से सैंगी बन गई। घर सैंगी का है मगर घर का खर्चा सारा वह स्वयं ही चलाता है। सैंगी बहुत कहती है कि मिलजुल कर हो जाएगा। मगर नहीं, वह नहीं माना तो नहीं ही माना।

सैंगी के साथ कभी-कभी छोटी-छोटी बातों पर बहस भी हो जाती है। शायद इसीलिए सैंगी ने वापिस अपना कॉलेगट टूथपेस्ट इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। घर में दो लोग हैं और दो तरह के टूथपेस्ट! वह हमेशा अपने पेस्ट को नीचे से दबाता है और नीचे से बिल्कुल फ्लैट करते हुए ऊपर की ओर बढ़ता है। जबकि सैंगी को कोई फर्क महसूस नहीं होता कि पेस्ट की ट्यूब कहाँ से दबाई जा रही है। वह समझाती भी है कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि ट्यूब कहाँ से दबा कर पेस्ट निकाली जा रही है। भला इसमें कल्चर और परवरिश और दूसरी बड़ी बड़ी बातें कहाँ से आ गईं। सैंगी हमेशा बहस से बचना पसंद करती है। अब तो वह स्वयं भी महसूस करने लगा है कि सैंगी से भला क्या बहस।

दरअसल सैंगी शाम को काम करती है। जब वह काम से लौटता है तो सैंगी जा चुकी होती है। जब तक वह वापिस लौटती है वह गहरी नींद में होता है। इसलिए दोनों को बात करने का समय भी शनिवार और रविवार को ही मिलता है अन्यथा बस एक दूसरे की जरूरत पूरी करने के अतिरिक्त कोई और संपर्क नहीं। हाँ जबसे वह इस नए दफ्तर जाने लगा है उसके जीवन में बहुत से परिवर्तन आने लगे हैं।

अब उसे सुबह सात बज कर तीस मिनट की गाड़ी लेनी पड़ती है। इसी से सारा जीवन बदल सा गया है। उसका दफ्तर न्यू क्रॉस गेट में है। रहता है हैच-एंड में। घर से स्टेशन करीब पंद्रह मिनट की पैदल दूरी पर है। इसलिए सात बज कर दस मिनट तक चल देता है। हैच-एंड से ओवरग्राउंड की यानि कि अपनी ही कंपनी की रेलगाड़ी लेता है। तीस मिनट में यानि कि आठ बजे क्वीन्स पार्क स्टेशन पहुँचता है। वहाँ आठ पाँच के करीब बेकर-लू अंडरग्राउंड लाइन से बेकर स्ट्रीट स्टेशन पहुँचता है। एक बार फिर वहाँ से जुबली लाइन की गाड़ी में बैठता है और लंदन ब्रिज होते हुए कनाडा वाटर स्टेशन पर उतरता है। वहाँ से अपनी ही कंपनी की ईस्ट लंदन लाइन की गाड़ी में सवार हो कर पहुँचता है न्यू क्रॉस गेट। फिर वहाँ करीब पंद्रह मिनट पैदल। यानि कि घर से दफतर पहुँचने में उसे पूरे दो घंटे लग जाते हैं। और फिर शाम को यही प्रक्रिया उल्टी दोहराता है।

लिखने और पढ़ने का समय अब उसे नहीं मिलता है। यह ठीक है कि उसके लेखक दिमाग को बहुत से नए किरदार दिखाई देते हैं। उनके क्रियाकलाप देखता है। देखता है कि कैसे यहाँ का गोरा आदमी खाली सीट पर लपक कर बैठने का प्रयास नहीं करता। प्रवासी चाहे किसी भी देश का क्यों न हो, उसकी आँखों में सीट का लालच साफ दिखाई देता है। वह देखता है कि यहाँ के गोरे आदमी और औरत बहुत तेज चलते हैं। शायद गांधी जी ने भी अपनी चाल इसी देश में रह कर तेज की होगी।

वह स्वयं न तो तेज चलता है और न ही धीमा। बस मध्यम मार्ग मानने वाला है। बुद्ध की बहुत सी सीखों को अपने जीवन में अपना चुका है। सैंगी को पता ही नहीं कि वह कभी ऊँचे सुर में बात भी कर सकता है। न जोर से हँसता है न ऊँचा बोलता है। सैंगी की वैसे तो अधिकतर बातें मान लेता है, किंतु उसकी एक बात का खास ख्याल रखता है कि अपना काले रंग का बैग, जिसे सैंगी बैक-पैक कहती है, वह अपनी पीठ पर दोनों कंधों पर बराबर लटकाता है। सैंगी को लगता है कि ऐसा न करने से इनसान का कंधा एक ओर को झुक जाता है।

वैसे तो वह कविता भी लिख लेता है, मगर उसे संतुष्टि का अहसास कहानी लिख कर ही मिलता है। कवियों का मजाक उड़ाते हुए वह हमेशा कहता है, “कविता लिखने के लिए प्रतिभा की आवश्यकता होती है। जबकि कहानी केवल प्रतिभा से नहीं लिखी जा सकती। उसके लिए प्रतिभा के साथ-साथ मेहनत, प्रतिबद्धता एवं एकाग्रता की भी जरूरत होती है।”

जब वह लंदन यूस्टन में काम करता था तो उसे काम पर पहुँचने में कुल मिला कर पैंतीस मिनट ही लगते थे। शाम को घर में अकेला होता था। कंप्यूटर पर उँगलियाँ थिरकने लगतीं। मगर आजकल उसका पूरा शरीर इतना थका रहता है कि उँगलियाँ की-बोर्ड पर थिरकना जैसे भूल गई हैं। वह घर वापिस आता है निढाल सा बिस्तर पर गिर जाता है। उसके भीतर का लेखक जैसे लिखना भूल गया है।

साल भर से सन्नाटा उसके लेखन पर छाया हुआ है। उसके भीतर की तड़प उसे कचोटती रहती है कि आखिरकार लिख क्यों नहीं पा रहा। उसके दिल में अब भी विषय जन्म लेते हैं। वह आज भी आम आदमी के दर्द को भीतर तक महसूस करता है। मगर फिर उन विचारों को पन्नों पर व्यक्त क्यों नहीं कर पाता? उसके दिमाग में कहानियाँ जन्म लेती हैं, मगर शब्द कागज पर उतरने से इनकार कर देते हैं। शब्दों ने जैसे विद्रोह कर दिया है। यह हुआ कैसे? शब्द अचानक उसका साथ छोड़कर किसके साथ चले गए?

वह दफ्तर में भी काम में मन नहीं लगा पाता। वहाँ कहानी के बारे में सोचता है और घर आकर दफ्तर के काम के बारे में। एक लड़कपन सा शामिल हो गया है उसके व्यक्तित्व में। एक शरारती बच्चे की तरह जो खेलते समय स्कूल के होमवर्क के बारे में सोचता है और स्कूल में हर वक्त खेल और शरारत उसके दिमाग में छाए रहते हैं। वह पिछले वर्ष भर के जीवन को एक दिन में जीकर खत्म कर देना चाहता है। उसका बस चले तो इस पूरे वर्ष को अपने जीवन की स्लेट से मिटा दे। मगर जीवन में ऐसा कैसे हो सकता है।

उसने स्वयं ही अपनी एक कहानी में लिखा भी था, “हमारा जीवन पहले से रिकॉर्ड किया गया एक वीडियो है यानि कि प्री-रिकॉर्डिड वीडियो कैसेट और वी.सी.आर. में केवल प्ले का बटन है यानि कि इस में हम केवल वीडियो कैसेट चला कर देख सकते हैं। वहाँ न तो फास्ट फॉर्वर्ड का बटन है और न ही रिवाइंड का। यानि कि आप न तो वीडियो कैसेट को आगे बढ़ा सकते हैं और न ही पीछे ले जा सकते हैं। जो शूटिंग आप करके आए हैं, आप वही देख सकते हैं। जो स्क्रिप्ट लिखा गया और जिसकी शूटिंग आपने पहले से की है; जिन चरित्रों के साथ जब-जब शूटिंग की है, आपके जीवन में वे लोग, वे हादसे, वे पल उसी हिसाब से आते जाएँगे।”

वह सोच रहा है कि इस सन्नाटे की शूटिंग क्यों की गई? आखिर वह कब तक लिखने के लिए संघर्ष करेगा। वह दिवाकर की तरह अनुवाद भी तो नहीं करता। उसका एक वर्ष का सन्नाटा दिवाकर के कई वर्षों के बराबर है। दिवाकर कम से कम अनुवाद तो निरंतर करता रहा है। फिर भी सोचता है कि वह सृजनात्मक लेखन क्यों नहीं कर रहा। साल भर से तो मुक्ता भी नहीं लिख पाई है। वह शायद सोच कर खुश हो रहा है कि चलो उस जैसे और भी कई हैं।

पहले वह ऐसा कदापि नहीं था। दूसरे के कष्ट और कमजोरी से कभी भी उसके दिल को तसल्ली नहीं मिलती। वह हमेशा दूसरे के कष्टों को अपना कष्ट समझता। शायद इन दोनों से प्रतिस्पर्धा की भावना रही होगी। इसीलिए उनके न लिख पाने से उसके अहम को संतुष्टि मिल रही है। वह परेशान इसलिए भी है क्योंकि अब भारत में उसे मुख्यधारा का लेखक माना जाने लगा है। उसकी कहानियों की चर्चा शुरू हो गई है। वहाँ की पत्रिकाओं, समाचार पत्रों एवं इंटरनेट पर हर जगह उसके साहित्य पर बातचीत हो रही है। उसे लगने लगा है कि अगर वह एक वर्ष तक नहीं लिखेगा तो साहित्य जगत का कितना नुकसान हो जाएगा।

वह अपने लेखन को बहुत गंभीरता से लेने लगा है और नौकरी उसे खलने लगी है। कहने को तो रेलवे में मैंनेजर है। लेकिन यह भला क्या काम हुआ। अगर उसकी पगार ठीक ठाक न होती तो कब का नौकरी छोड़ चुका होता। वह सोचता है कि हिंदी का लेखक केवल लिख कर क्यों नहीं खा सकता? क्यों उसे घर चलाने के लिए दूसरा काम करना पड़ता है। मगर दूसरा काम तो वह भारत में भी करता था। यहाँ लंदन में इस नौकरी से पहले भी करता था। यह अचानक नौकरी से क्यों परेशान हो रहा है? सोचता है अगर भारत वाली नौकरी में होता तो इस वर्ष अठावन का हो जाता और नौकरी से रिटायर हो जाता।

रिटायर होने की बात उसने दो दिन पहले अपनी संगिनी से भी की थी। सैंगी ने पूरे ध्यान से उसकी बात सुनी, “तुम सच में इतनी घुटन से जी रहे हो? फिर तुमने मुझे कुछ बताया क्यों नहीं? तुम खुद ही सोचो कि अगर तुम भारत में होते तो इस साल रिटायर हो ही जाते। तो तुम यहाँ भी रिटायरमेंट ले लो। मैं नौकरी कर ही रही हूँ, तुम भी कोई पार्ट-टाइम नौकरी कर लो। हम दोनों को एक-दूसरे के लिए वक्त भी मिल जाएगा और तुम लिख भी सकोगे।”

सैंगी हर बात का विश्लेषण इतनी आसानी से कैसे कर लेती है? मैं क्यों सैंगी की तरह समझदार नहीं हो सकता? क्यों मैं बस ईगो का मारा हूँ? वैसे इस नौकरी का एक फायदा भी है। रिटायरमेंट की उम्र 65 साल है। यहाँ तो कोई किसी को सरनेम से नहीं बुलाता। मिस्टर वगैरह तो लगाने का सवाल ही नहीं होता। वह तो अपने मैंनेजिंग डाइरेक्टर तक को पहले नाम से बुलाता है – स्टीव कहता है। शायद इसीलिए मनुष्य यहाँ जल्दी बूढ़ा नहीं होता। वह एक सेवानिवृत्त या रिटायर्ड इनसान नहीं कहलाना चाहता।

मगर उसके लेखन का क्या होगा? क्या सैंगी की बात मान लेनी चाहिए? पिछले कुछ दिनों से वह इस बात को लेकर परेशान है। हर रात तय करता है कि अगले ही दिन यह नौकरी छोड़ देगा। कल रात भी उसने यही तय किया था कि अब उसे नहीं करनी यह नौकरी, नहीं व्यर्थ करने अपने चार घंटे रोजाना – हैचएंड से न्यूक्रॉस गेट। कल रात उसने अपना स्वैच्छिक अवकाश लेने का पत्र भी बना लिया था।

मगर आज सुबह फिर 5.15 पर उसका अलार्म बजा और वही दिनचर्या एक बार फिर शुरू हो गई। वह सात तीस की गाड़ी लेने के लिए एक बार फिर स्टेशन के प्लैटफॉर्म पर खड़ा है।

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