रद्दोबदल | मनोज रूपड़ा
रद्दोबदल | मनोज रूपड़ा

रद्दोबदल | मनोज रूपड़ा – Raddobadal

रद्दोबदल | मनोज रूपड़ा

जिस मुल्क के बारे में यह दास्ताँ कही जा रही है उस मुल्क में पिछले कुछ अर्से से अजीबोगरीब तब्दीलियाँ जारी थीं। हालाँकि उस आशुफ्तगी के बीच कोई साफ दिखाई देनेवाला कुदरती या सियासी संकट कहीं नजर नहीं आ रहा था। मुल्क का टेंपरेचर ठीकठाक था। इंतेहापसंद, फरियादी और हुकूमत आपस में तालमेल बना कर चैन की नींद सो रहे थे। जमीन के नीचे चट्टानें और पहाड़, समंदर और बेकाबू हो जानेवाली नदियाँ, अंधड़ पैदा करनेवाली हवाएँ और ज्वालामुखी के क्रेटर बिल्कुल खामोश और बेहरकत थे। सरहदों के आसपास भी कोई गैरमुनासिब हलचल नहीं थी और तीनों फौजों के आला अफसरान हस्बेमामूल कारगुजारियों में लगे थे। लेकिन इस खामोशी खैरियत और इत्मीनान की ऊपरी परतों के नीचे एक अनजानी-सी बदशगुनी चक्कर काट रही थी और चारों तरफ कुछ ऐसी बदसरिश्त कारगुजारियाँ चल रही थीं, जो पहले कभी देखने में नहीं आई थीं। इन हैरतनाक कारगुजारियों से ऊँचे और निचले तबके को कोई खास फर्क महसूस नहीं हुआ लेकिन बीचवाले बेहद परेशान हो उठे क्योंकि ये ऐसी कारगुजारियाँ थीं, जिसका कोई आभासी चेहरा न था। वे चुपचाप चल रही थीं बिना किसी शोर-शराबे के, बिना किसी को तकलीफ दिए सब कुछ इतनी शराफत और नफासत से चल रहा था जितनी शराफत और नफासत इंसानियत के पूरे इतिहास में सिर्फ एक दफा उन नाजियों के चेहरों पर तब दिखाई दी थी जब वे लाखों यहूदियों को उनके घरों से निकाल कर पूरी इज्जत के साथ गैस चेंबरों में ले गए थे।

उस मुल्क का मिडिल क्लास हालाँकि यह नहीं जानता था कि नाजी कौन थे और उन यहूदियों के साथ क्या हुआ था, लेकिन उनके दिलों में भी कमोबेश उसी अफसुर्दगी और बेजारी का आलम था, जो साठ-पैंसठ साल पहले उन यहूदियों ने महसूस किया था, जो आखिर तक यह नहीं जान पाए थे कि इतनी बड़ी तादाद में और इतनी पुरजोर तैयारियों के साथ उन्हें कहाँ ले जाया जा रहा था? ठीक उसी तरह उस मुल्क के मिडिल क्लास को भी नहीं बताया जा रहा था, सिर्फ इकरारनामों और चेक बुकों पर उनके दस्तखत लिए जा रहे थे। यह दस्तखत मुहिम किसके इशारे पर चल रही थी, यह कोई नहीं जानता था। न दस्तखत लेनेवाले को कुछ पता था न देनेवाले को। वे सब बाहरी तौर पर तो बेफिक्र थे लेकिन भीतर से हरेक को यह लग रहा था कि कुछ होनेवाला है। कुछ ऐसा नाजायज, नापदीद और गैरमरगूब, जो पहले कभी नहीं हुआ। किसी को मालूम नहीं था कि उन करारनामों में क्या लिखा था। अगर कोई आनाकानी करता या यह जानने की जुर्रत करता कि बताओ करारनामे में क्या लिखा है तो उसे अलग से एक कागज पढ़ने दिया जाता, जिसे पढ़ते ही नुक्ताचीनी करनेवाले का चेहरा उतर जाता और कुछ देर बाद वह भी करारनामों और चेकबुकों पर दस्तखत करने लगता।

जब निचले तबके के मुलाजिमों से दस्तखत लेने का काम खत्म हो गया तब उनसे ऊँचे ओहदों पर काम करनेवालों ने चैन की साँस ली कि चलो सब कुछ ठीकठाक निपट गया लेकिन यह खुशफहमी ज्यादा दिनों तक कायम न रही। कुछ ही दिनों बाद उन दस्तखत लेनेवाले मुलाजिमों को उनके बड़े अफसरों ने तलब किया और उनके सामने भी कुछ वैसे ही इकरारनामे रख दिए गए। फिर बड़े अफसरों की बारी आई और फिर उनसे बड़े अफसरों की। जैसे जैसे ये कार्रवाई आगे बढ़ती गई वैसे वैसे कागजों की तादाद कम होती गई। आखिर में हर महकमे के सबसे बड़े अफसर को सीधे मंत्रालय से एक कागज मिला जिसमें कुछ भी नहीं लिखा था और जिस पर दस्तखत करने के अलावा उनके पास कोई चारा न था।

सरकारी अफसरों और मुलाजिमों से इकरारे-वफा कबूल करवाने के बाद यही कार्रवाई छोटे छोटे व्यापारियों और प्राइवेट कंपनियों के उन मुलाजिमों पर भी दोहराई गई जिनकी औसत आय जमाने के चलन के मुताबिक ठीकठाक थी और इस तरह पूरे मिडिल क्लास को एक दायरे में घेर लिया गया। उस अनदिखते दायरे से बाहर भी कई तबके के लोग थे – मसलन मोची, बढ़ई, मोटर गाड़ियों की मरम्मत करनेवाले मेकेनिक, रिक्शा-ठेला खींचनेवाले और चाय-पान की गुमटी चलानेवाले और हलवाई और कस्साब, सब्जीफरोश और चना-चबैना और भेलपुरी बेचनेवाले फुटपाथिए वगैरह…।

और इस तरह पूरा मुल्क दो दायरों में तकसीम हो गया। एक तरफ वे लोग थे जिन्हें किसी रहस्यमय करारनामे ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था और दूसरी तरफ वे लोग जिन्हें इस तरह की किसी कार्रवाई की भनक तक नहीं थी।

ये कार्रवाई किसके हुक्म पर चलाई गई थी यह कोई नहीं जानता था – न दस्तखत लेनेवाले को कुछ पता था न देने वाले को। यूँ देखा जाए तो बाहरी तौर पर तो सब मुतमुइन थे मगर भीतर से हरेक को यह लग रहा था कि कुछ होने वाला है। कुछ ऐसा हैबतनाक और दिलफरेब, जो पहले कभी नहीं हुआ। शहरों और महानगरों के रोजमर्रे में हालाँकि कोई खास बदलाव नहीं आया था लेकिन बंदरगाहों में मालवाहक जहाजों की आवक इतनी ज्यादा बढ़ गई थी कि ढुलाई के काम में दस गुना ज्यादा ताकतवाले और पहले से कई गुना ज्यादा तादाद में हेवीलिफ्टर लगाने पड़ गए। लेकिन दिन-रात की उठापटक के बावजूद कई जहाज हफ्तों से खाली होने के इंतजार में खड़े थे। रेलवे ने बहुत-सी सवारी गाड़ियाँ रद्द कर दी थीं। उसकी जगह मालगाड़ियों की आवाजाही बढ़ गई थी। इसके अलावा सड़कों पर भी यात्री वाहनों की आवाजाही को सीमित कर दिया गया था, उसकी जगह बड़े बड़े कार्गो को ढोनेवाले ट्रकों की तादाद बढ़ती जा रही थी।

ये ऐसे नजारे थे जो किसी भी मुल्क में केवल तब दिखाई देते हैं, जब वहाँ के हालात करवट बदलनेवाले हों। लेकिन ऐसे मौकों पर अमूमन सेना और पुलिस की गश्त बहुत तेज हो जाती है जबकि उस मुल्क में इस मौके पर सेना और पुलिस के कामकाज बिल्कुल ठप पड़े थे। दूसरे महकमों में तो फिर भी थोड़ी बहुत गहमागहमी थी लेकिन सेना और पुलिस रहस्यमय हस्ताक्षरों की उस गुप्त प्रक्रिया से गुजरने के बाद बिल्कुल सुस्त पड़ गई थी। छावनियों और पुलिस थानों में बिल्कुल मरघट जैसा सन्नाटा छाया हुआ था। उससे ज्यादा सुस्ती मास मीडिया और कम्यूनिकेशन के हलकों में थी। और तो और, सबसे ज्यादा भड़कीले और सबसे ज्यादा तेज न्यूज चैनलों के न्यूज रीडर भी कैमरे के सामने अक्सर जम्हाई लेते नजर आते थे। अखबारों की बोसीदगी का तो ये आलम था कि उन्हें मजबूरी में कहानी और कविता छापने की नौबत आ गई थी। इन दोनों माध्यमों को जिंदा रहने के लिए जिन गैरफितरी, गैरमुमकिन और गैरमामूली हादसों की जरूरत थी उन हादसों का उस वक्त बेहद अभाव था, क्योंकि किसी अनहोनी के खौफ ने पूरी जमहूरी जिंदगी को बिल्कुल सर्द कर दिया था। तसव्वुराती खौफ हकीकी खौफ से हमेशा बड़ा होता है – खास तौर से जब वह किसी एक आदमी का न हो कर पूरी जम्हूरियत का हो, तब अवाम के भीतरी तापमान का पता लगाना बेहद मुश्किल होता है।

लेकिन इतना सब होते भी निचले तबके की जिंदगी में कोई फर्क नहीं आया था। वही झुग्गियाँ वही गलियाँ वही शोर-शराबा और धूल-धक्कड़ के बीच लोगों की कशाकश। चाय-पान और शराब की दुकानों और फिल्मी धुनों की छिछोर के इर्दगिर्द भिनभिनाती दिलचस्पियाँ ज्यों की त्यों जारी थीं।

ठीक उसी तरह शाद-आबाद बँगलों में मुलायम और गदबदी नफासत हाथ में डाइटिंग चार्ट लिए कमर पर सोना बेल्ट धारण किए खिदमदगारों के लिए रोज नए हुकुम जारी कर रही थी। वहाँ दुनिया के तमाम निखट्टुओं से काम करवाने की योजना बनती थी और हर तरह के व्यसनों और सनकों के मजे लूटे जा रहे थे।

फर्क अगर आया था तो सिर्फ मध्यवर्गीय फ्लैटों में। उनकी नियमित दिनचर्या हालाँकि कहीं से भी बदली हुई नजर नहीं आ रही थी लेकिन किसी भी फ्लैट से किसी के बोलने की आवाज नहीं आती थी। लोगों का आपस में संवाद बिल्कुल बंद हो गया था। वे सब एक दूसरे की तरफ ऐसे देखते थे जैसे जंग में हारे हुए सिपाही एक दूसरे को देखते हैं। बखेड़ेबाजी, लगाई-बुझाई, ताँकझाँक, इशारेबाजी, मिलना-जुलना, हँसी-मजाक करना, व्यंजनों, किताबों और दाल-चावल-आटे और सीडी और खिलौनों का आदान-प्रदान बिल्कुल बंद हो गया। अलग-अलग जबानों और तहजीबों की उस पंचमेल खिचड़ी को पता नहीं कौन-सा बिल्ला चट कर गया था।

देखते ही देखते नगरों और महानगरों के फ्लैटों को एकरसता. ऊब और खौफ ने चारों तरफ से घेर लिया। कभी किसी के मन में कोई मानवीय हिलोर उठती भी थी तो अगले ही पल किसी भयानक चीज को देख कर वह सकपका जाता। फ्लैटों में रहने वाले कई लोगों के साथ ऐसा हुआ था मगर कभी किसी ने किसी और को नहीं बताया कि उसने क्या देखा था। क्योंकि हर किसी को यह डर था कि उसकी बातों पर कोई विश्वास नहीं करेगा और उसे पागल समझा जाएगा।

मसलन हस्ताक्षर अभियान के एक पखवाड़े बाद एक महानगर के दुर्गम रिहाइशी इलाके की जी. टाइप फ्लैट स्कीम की चौथी बिल्डिंग के तीसरे माले के बारहवें फ्लैट में रहनेवाले एक अधेड़ अखबारनवीस, जो एक बड़े सरमाएदार के अखबार में मुलाजिमत करता था, के अंदर अचानक शराब पीने की तलब उठी। उसने पंद्रह दिनों से जारी ऊब और मनहूसियत को झटक कर खुद से अलग किया और घर से बाहर निकल पड़ा अपने मनचाहे बार में। अपने फेवरेट ब्रांड की व्हिस्की पीने के बाद वह लड़खड़ाते हुए सड़क पर निकला और माहौल की बोसीदगी और लोगों की मुर्दादिली पर फिकरे कसते और फब्तियाँ उछालते हुए अपने घर की तरफ बढ़ा। फिर वह अपने दोस्त निदा फाजली की एक गजल गुनगुनाने लगा। ऊँची आवाज में गजल के एक धाँसू शेर को बार-बार दोहराते हुए जब वह अपार्टमेंट की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था तो अचानक कोई बाधा बन कर खड़ा हो गया।

उसने पहले चमचमाते जूतों को देखा फिर शानदार, भूरे शेड का पतलून और सफेद शर्ट और बेहतरीन ढंग से बाँधी गई टाई दिखाई दी। जब उसने उस चुस्त-दुरुस्त धड़ के ऊपर नजर दौड़ाई तो सकते में आ गया। वहाँ किसी मनुष्य के बजाय एक बिल्ले का चेहरा था। उस बिल्ले ने आँखों पर चपटी फ्रेम का चश्मा चढ़ा रखा था, जिसके काँच के पीछे से उसकी सुलगती हुई लाल आँखें दिखाई दे रही थीं, जो उस शराबी अखबारनवीस को बेहद तल्ख और खौफनाक ढंग से घूर रही थीं। कुछ देर उसे घूरने के बाद बिल्ले ने अपने बाएँ हाथ को उपर उठाया जिसमें एक फाइल थी। फाइल खोलने के बाद बिल्ले ने दाएँ पंजे के नाखूनों से कुछ पन्ने पलटे और एक बार फिर ऐनक के ऊपर से उसकी नंगी आँखों ने अखबारनवीस को देखा, – ‘आपका नाम धीरेंद्र अस्थाना है?’

वह अखबारनवीस इस मालिकाना आवाज से एकदम चौंक गया।

‘जी।’ उसने थोड़ा सँभलते हुए कहा।

‘आपने इकरारनामे पर दस्तखत क्यों नहीं किया?’

इस सवाल का कोई जवाब देने के बजाय वह चुपचाप खड़ा रहा। बिल्ला कुछ देर जवाब का इंतजार करता रहा फिर उसने कुछ इस अंदाज से अपने शर्ट की ऊपरी जेब की तरफ हाथ बढ़ाया जैसे कोई पुलिस इंसपेक्टर अपनी कमरपेटी से रिवाल्वर निकाल रहा हो। उसने जेब से पेन निकाला और उसके रोंएदार पंजे के घातक और नुकीले नाखूनों ने वह पेन उस निहत्थे अखबारनवीस के हाथ में थमा दी और फाइल उसके सामने खोल दी।

‘जिस कंसर्न के तुम मुलाजिम हो उस कंसर्न के मालिक के दस्तखत भी हम ले चुके हैं।’ बिल्ले ने बड़े मगरूर अंदाज में उस लिखावट की तरफ इशारा किया, जिसे देखते ही अखबारनवीस के चेहरे से ठंडा पसीना फूट निकला। लेकिन अगले ही पल उसके खौफ पर शराब की खुमारी तारी हो गई और उसके दिल से एक बड़ी लहर उठी।

‘मेरे मालिक को शायद किसी सहारे की जरूरत होगी लेकिन मुझे नहीं है।’

उसके इस जवाब को सुन कर बिल्ले ने एक लंबी साँस ली और पेन अपनी जेब में वापस डाल दी। कुछ देर तक दोनों एक दूसरे को देखते रहे। अखबारनवीस को यह मुगालता था कि बिल्ला उसका रास्ता छोड़ देगा। लेकिन बिल्ले ने अचानक झपट कर उसका दायाँ हाथ पकड़ लिया फिर पूरी ताकत से हाथ मरोड़ कर उसका अँगूठा सामने किया और अँगूठे के गुदाज हिस्से में अपना नुकीला नाखुन चुभो दिया। अँगूठे पर तुरंत खून की गाढ़ी बूँद उभर आई और तब बिल्ले ने बहुत दृढ़ता और सफाई के साथ फाइल के एक कागज पर अखबारनवीस के लहूलुहान अँगूठे की छाप ले ली।

उसी दिन महानगर के दूसरे सिरे पर एक और अपार्टमेंट में एक और हौलनाक हादसा हुआ। उस अपार्टमेंट में एक शायर रहता था। वह शायर कुरबत और अजीयत का फनकार था। हादसेवाले दिन वह सुबह से ही बहुत उदास था क्योंकि एक दिन पहले उससे एक बेहद खूबसूरत लड़की मिलने आई थी जो उसकी महबूबा की बेटी थी। पाकिस्तान से वह उसे यह बताने आई थी कि वह अपनी माँ के जज्बात की कितनी कद्र करती है और वह उनसे भी उतनी ही मुहब्बत करती है जितनी एक बेटी को अपने बाप से होती है।

उसके जाने के बाद शायर घंटों अँधेरे में सुबकता रहा फिर उसने तसव्वुर में अपनी बेटी के गाल सहलाए, उसके बालों पर हाथ फेरा और उसके छोटे-से सिर को अपनी छाती में भींच लिया।

दूसरे दिन सुबह जब वह अपने इन मुकद्दस और गमगीन जज्बात को नज्म में ढाल रहा था तब उसे अपने कागज पर एक साया दिखाई दिया। शायर के दिल में उस वक्त मुहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं था इसलिए उस गारतगर साये की तरफ उसका ध्यान नहीं गया। लेकिन कुछ ही देर में साये का कालापन इतना गहरा गया कि कागज पर अँधेरा छा गया। तब शायर ने सर उठाया और सामने उसे एक मांसविहीन चेहरा दिखाई दिया, जिसकी आँखें अंदर की तरफ धँसी हुई थीं, जिसके जिस्म पर कफन जैसा लबादा था, मानो कोई मुर्दा कब्र फाड़ कर बाहर निकल आया हो। इस डरावने साये को देख कर शायर चीखने ही वाला था कि उसने अपनी तर्जनी की सूखी हड्डी होंठों पर रख कर उसे चुप रहने का इशारा किया। लेकिन शायर अपने थरथराते लबों को काबू में नहीं रख पाया…

‘तुम कौन हो…?’

‘शी ई ई ई…’

शैतान ने एक बार फिर अपनी उँगली होंठों पर रख उसे डपटती हुई आँखों से देखा। मगर खौफ की जियादगी से शायर का जिस्म लरजने लगा, ‘तुम क्या चाहते हो?’

जवाब में शैतान ने अपनी उँगली होंठों से हटाई, फिर अपना बदबूदार मुँह शायर के दाएँ कान तक ले आया, ‘शायरी का खात्मा।’ वह धीरे से फुसफुसाया और उसके हडीले पंजों ने उस कागज को उठा कर फाड़ना शुरू कर दिया, जिस पर नज्म लिखी जा रही थी। यह देख कर शायर इतनी जोर से चीख उठा, मानो उसकी बेटी की अस्मत पर किसी ने हमला किया हो।

उस दिन के बाद से शायर को किसी ने नार्मल कंडीशन में नहीं देखा। वह घर से बाहर निकलता और सामने पड़नेवाले किसी भी शख्स को पकड़ लेता, ‘तुम जानते हो क्या होनेवाला है?’

उसके इस औचक सवाल और गैरमामूली हावभाव को देख कोई भी आदमी हड़बड़ा जाता था मगर इससे पहले कि वह कुछ सोच पाए शायर खुद ही बोल पड़ता, ‘तहजीब का खात्मा।’

उसके इस बयान को सुन कर किसी को हैरानी नहीं होती थी। सब ऐसे सिर हिलाते थे जैसे उसकी बात पर हामी भर रहे हों। लोग उसके जहनी हालात के कारण हमदर्दी के लिहाज से हामी भरते थे, या सचमुच शायर की बात का यकीन कर रहे थे यह बता पाना बहुत मुश्किल है।

बहुत ज्यादा न सही, मगर उस खब्ती शायर की बातों पर यकीन करने लायक कुछ वजहें तो थीं। जिस तरह के अचंभों से रोज ब रोज सामना हो रहा था वे पहले कभी देखने सुनने में नहीं आए थे।

सबसे ज्यादा बुरा प्राइवेट स्कूल में पढ़ानेवाली एक लड़की के साथ हुआ। वह बहुत मेहनती और जुझारू थी। अपने बूढ़े माँ-बाप, दो बहनों, अपनी बेवा भाभी और उसके छोटे- छोटे बच्चों की परवरिश का भार उसने अपने कंधों पर उठा रखा था। स्कूल में पढ़ाने के अलावा वह घर-घर जाकर ट्यूशन भी पढ़ाती थी। घरेलू जिम्मेदारी का एहसास उसे इतना ज्यादा था कि उसने अपनी तमाम निजी जरूरतों और अरमानों को दरकिनार कर दिया था। उसे आज तक किसी ने लिपिस्टिक, नेल पालिश, ब्रा, केयरफ्री या विस्पर खरीदते नहीं देखा था। वह इतनी ज्यादा कंजूस थी कि उसकी चप्पल की मरम्मत करनेवाला मोची भी उसे देख कर मुँह फेर लेता था। वह बाजार से गुजरते समय सस्ती और कामचलाऊ चीजों पर नजर रखती थी और फुटपाथियों और पंसारियों की हरेक चालबाजी से वाकिफ थी। घटनावाले दिन जब वह अपने स्कूल से बाहर निकली तब उसके पर्स में महीने भर की पगार (सात सौ रुपए) थी।

सड़क पर चलते समय वह रोज की तरह उस दिन भी सचेत और अडिग थी पर पता नहीं कब उसकी नजर बिग बाजार के चमचमाते दरवाजे की तरफ अनायास उठ गई। वह उस रास्ते से रोज गुजरती थी पर उसने कभी उस शानदार इमारत की तरफ देखा नहीं था। इतने बड़े और इतने भड़कीले बाजार को देख कर वह हैरान हो गई। मगर उस चकाचौंध से भी ज्यादा तअज्जुब उसे एक बहुत बड़े कैरी बैग को देख कर हुआ। इतना बड़ा कैरी बैग उसने पहले कभी नहीं देखा था। कुछ देर बिना पलक झपके उस कैरी बैग को देखती रही। उसके पैर हालाँकि खब्तुलहवासी में इधर-उधर बहक रहे थे मगर निगाहें बिग बाजार के दरवाजे के पास खड़े उस कैरी बैग पर थीं। अचानक उसके पैर ठिठक गए। उसे लगा जैसे कैरी बैग उसे देख कर मुस्करा रहा है। और अगले ही पल वह खौफ से लरज उठी, जब उसने देखा कि कैरी बैग ने उसकी तरफ देख कर आँख मारी और एक फोहश इशारे से उसे बाजार में आने के लिए उकसा रहा है।

वह तुरंत भागने लगी। इतनी तेजी से कि आसपास से गुजरते राहगीर हड़बड़ा गए। थोड़ी देर बाद उसने पलट कर पीछे देखा और दोगुनी तेजी से भागने लगी। बस स्टाप तक जाने के लिए जब उसने जेब्रा क्रास पर पैर रखा तब उसे यह देखने का भी होश नहीं था कि ट्रेफिक सिग्नल क्या संकेत दे रहा है। उस वक्त वाहनों के लिए यातायात खुला था। वह बीच सड़क पर मोटर गाड़ियों से घिर गई। बदकिस्मती से उसी समय उसके चप्पल की पट्टी भी टूट गई। उसने झुक कर चप्पलें हाथ में उठा लीं और नंगे पाँव सड़क पर दौड़ती चली गई। सड़क पार करते ही उसने फिर पलट कर देखा और इस बार उसकी हिम्मत जवाब दे गई। कैरी बैग ने अभी तक उसका पीछा नहीं छोड़ा था। लड़की ने कस कर अपना पर्स भींच लिया और बचाव के लिए जोर-जोर से चिल्लाने लगी मगर उसकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया क्योंकि किसी को उसकी आवाज सुनाई नहीं दे रही थी। लड़की पसीने से तरबतर हो गई और इससे पहले कि वह गश खा कर गिर पड़ती, कैरी बैग ने अपना मुँह खोला और लड़की को अपने भीतर जज्ब कर लिया।

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उसके बाद तो हैरतअंगेज वारदातों का सिलसिला ही शुरू हो गया। पहले छोटी- छोटी और व्यक्तिगत वारदातें हो रही थीं लेकिन देखते ही देखते बड़ी और सामूहिक घटनाएँ घटने लगीं। एक दिन लोगों ने देखा कि मार्केट की सभी खुदरा चीजों की दुकानों को सील कर दिया गया था। सील किए गए तालों पर दो अक्षर अंकित थे – आर.आर.। लोग इन अक्षरों के फुल फार्म को जानने के लिए एक दूसरे का मुँह देखते रहे। आखिर जब किसी को कुछ समझ में नहीं आया तो वे सब अपनी-अपनी दुकानों के गुमाश्ता लाइसेंस ले कर म्यूनिसिपल कार्पोरेशन की इमारत की तरफ जाने लगे। लेकिन वहाँ जाकर उन्हें और भी बड़ा धक्का लगा। इस मामले से संबंधित विभाग के आफिस पर भी ‘आर.आर.’ का ताला लगा हुआ था। अब दुकानदारों का बेसब्र होना लाजिमी था। वे सब चीखते-चिल्लाते और गालियाँ बकते हुए अदालत की तरफ बढ़े, जहाँ पहले से ही एक और अचंभा उनका इंतजार कर रहा था। उन सबकी आँखें फटी की फटी रह गईं जब उन्होंने देखा कि अदालत के तमाम दस्तावेज और पुराने सभी मामले कोर्ट के अहाते में लावारिस पड़े थे और खाली किए गए न्यायालय को ‘आर.आर.’ के गोदाम में बदल लिया गया था। अब सबकी बोलती बंद हो गई, और वे बुरी तरह से बिखर गए, फिर एक सामूहिक चेतना ने न जाने कैसे सबको इकट्ठा किया और दुखी दुकानदारों का वह खामोश कारवाँ विधान सभा भवन की तरफ बढ़ने लगा। रास्ते में उन्होंने देखा कि अभिलेखागार तथा हाई कमीशन की इमारतों के दरवाजे भी खुले पड़े थे मगर वहाँ ‘आर.आर.’ के एजेंटों के सिवाय कोई नहीं था। उन एजेंटों ने अपनी बाँह पर ‘आर.आर.’ के बैजवाली ठीक वैसी ही पट्टी बाँध रखी थी जैसी एक जमाने में जर्मनी में ‘एस.एस.’ के जवान बाँधा करते थे।

उधर विधान सभा भवन का भी वही हाल था। वहाँ नेताओं के बैठने की जगह पर मानिटर लगे थे और मुख्य मंत्री की जगह पर एक सुपर कंप्यूटर काबिज हो चुका था।

दूसरे दिन शहरों में खुदरा चीजों की किल्लत के कारण हाहाकार मच गया। लोगों के जत्थे सड़कों पर उतर आए। आगजनी और पथराव के कई बड़े उस्ताद अपने बरसों के रियाज के दम पर भीड़ की अगुआई कर रहे थे मगर किसी की समझ में ये नहीं आ रहा था कि आग लगाएँ तो कहाँ और पत्थर चलाएँ तो किस पर?

शहरों में जब अफरातफरी मची हुई थी उसी समय गाँवों में भी दहला देनेवाली तब्दीलियाँ जारी थीं। एक ही रात में सभी गाँवों के ग्राम पंचायत भवन ऐसे गायब हो गए जैसे उनका कोई वजूद ही न रहा हो। फिर कोऑपरेटिव सोसायटी की बारी आई फिर बैलगाड़ियाँ गायब हो गईं। फिर हल भी गायब हो गए और अंत में जैसा कि सबको अंदेशा था, खेतों की बारी आई। खेत गायब तो नहीं हुए लेकिन खेतों को विभाजित करनेवाली मेड़ें गायब हो गईं। अब कोई दावे से नहीं कह सकता था कि कौन-सा खेत किसका है। क्योंकि गाँव के सब पटवारी रातोंरात न जाने कहाँ फरार हो गए थे और उनके साथ ही बरसों पुराना लेखाजोखा भी गायब था।

इतनी बड़ी तब्दीली के बावजूद किसानों में कोई रोष नहीं था क्योंकि दिक्कत तो यहाँ भी वही थी कि अपना गमोगुबार निकालें तो किस पर और गुस्सा जाहिर करें तो किस पर? उस दिन मुल्क के सभी काश्तकार या तो सिर पर हाथ दिए बैठे थे या डंडे की मूठ पर ठुड्डी टिकाए अपने सामने फैली बेनाप खेतिहर जमीन को देख रहे थे।

लेकिन एक गाँव में एक बूढ़ा, जो बेहद खब्ती था और किसी की बातों में नहीं आता था, बहुत बवाल मचा रहा था। उसने हवा में लाठी भाँजनी शुरू कर दी और चिल्ला- चिल्ला कर उस खलनायक को ललकारने लगा जिसने उनके टुकड़ों में बँटे खेतों को हमवार कर दिया था। बहुत धूल-गुबार उड़ाने और कुहराम मचाने के बावजूद जब कोई सामने नहीं आया तो उसने अपने साथी कालू को आवाज दी।

कालू, जो भीड़भाड़ के बीच लहराती लाठी को दुम दबाए देख रहा था, धीरे से किंकियाते हुए आगे बढ़ा। उसने अपनी दुम टाँगों के बीच से बाहर निकाली और मालिक के पास जा खड़ा हुआ।

‘चल मेरे साथ।’ बूढ़े ने कहा, ‘सिवाय बजरंगबली के कोई हमें बता नहीं सकता कि असली माजरा क्या है।’

उस गाँव में यह बात प्रचलित थी कि वह बूढ़ा ब्रह्मचारी बजरंगबली का पक्का भक्त था। समय-समय पर उसके शरीर में बजरंगबली सवार हो जाते थे और वह प्रलय की तरह गाँव पर आनेवाली आफतों पर टूट पड़ता था।

बूढ़े ने गाँव की तरफ जानेवाली सड़क का रुख लिया। दाएँ हाथ में धोती की लाँग और बाएँ हाथ में लाठी पकड़े वह धूल उड़ाता हुआ आगे बढ़ा और उसके साथ कालू भी। गाँव के सब किसान उस सड़क की तरफ देख रहे थे। जब धूल के गुबार में हनुमान भक्त की चोटी और कालू की दुम गायब हो गई तब वे एक बार फिर पलट कर अपने सामने फैली जुती हुई जमीन को देखने लगे। जुताई की लकीरों को देखते हुए उनकी नजरें वहाँ तक पहुँच जातीं जहाँ जमीन और आसमान एक हो गए थे। दूर पश्चिमी सीमांत से उनकी नजरें वापस अपने गाँव तक आतीं और फिर लकीरों पर सरकाती हुई पूर्वी सीमांत तक चली जातीं।

उधर वह खब्ती बूढ़ा हाँफते हुए बेसँभाल तेजी से हनुमान टेकड़ी की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था। उसने ऊपर जा कर हनुमान जी का घंटा इतनी जोर से बजाया कि आसपास के पेड़ों पर ऊँघते बंदर हकबका उठे।

घंटी बजाने के बाद हनुमान भक्त ने सीधे बजरंगबली के पाँव पर अपना सिर रख दिया। उसने मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ किया। फिर उठ कर दोनों आँखें मूँद कर और हाथ जोड़ कर हनुमान जी का आह्वान किया। उसके चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो वह अपने जीवन भर की तपस्या, आराधना और उपासना का हिसाब बराबर करने आया हो। कुछ देर बार जब उसे लगा कि बजरंगबली उसकी बात सुन लेंगे तब उसने पहला सवाल किया – ‘हे प्रभु हे सर्वज्ञाता हे जगत के त्राता! यह सब क्या हो रहा है? हमें कुछ समझ नहीं आ रहा है। कृपया बताइए कि हमारा गाँव रातोंरात कैसे बदल गया?’

बदले में उसे तुरंत जवाब मिला – ‘हे भक्त! आजकल जो कुछ भी हो रहा है वह मेरी समझ से बाहर है लेकिन तुम यह मत समझो कि बदलाव सिर्फ तुम्हारे गाँव में आया है। मैं अभी-अभी पूरे विश्व का हवाई सर्वेक्षण कर आया हूँ और मैंने देखा कि पूरे विश्व को बदला जा रहा है। और ये कारनामा किसी एक प्रेत का नहीं हो सकता। लगता है कुछ बड़ी ताकतें मिल कर इस दुनिया को बदल रही हैं।’

‘प्रभु, क्या ये ताकतें आपसे भी ज्यादा बलवान हैं?’

‘हाँ, मैं उनके सामने कुछ भी नहीं हूँ।’

‘मैं तो आज तक यही समझता था कि आप ही सबसे ज्यादा बलवान हैं लेकिन अभी-अभी आपने जो कहा उसे सुन कर यह लग रहा है कि मैं चूतिया था जो जीवन भर आपकी भक्ति में डूबा रहा। अगर यही सच था तो मुझे जीवन भर क्यों भरमाया?’

‘ताकि तुम देख न पाओ कि तुम्हारे ईश्वर के पीछे कौन-सा परमेश्वर है।’

यह आवाज बजरंगबली की नहीं किसी और की थी। इस अनजानी आवाज को सुनते ही तुरंत हनुमान भक्त की आँखें खुल गईं और खुलते ही आश्चर्य से फट भी गईं, उसने देखा कि सामने बजरंगबली की गदा पर कुहनी टिकाए, सफेद धोती और कुर्ता पहने एक बिल्ला खड़ा था। वह इस अंदाज से अपनी मूँछों पर ताव दे रहा था मानो वह गाँव का कोई जमींदार हो।

आदमी के भेस में उस बिल्ले को देखते ही कालू चौकन्ना हो गया। वह जोर-जोर से भौंकने लगा। उसकी इस आक्रामक मुद्रा को देख पेड़ पर बैठे बंदर भी हरकत में आ गए। वे एक के बाद एक पेड़ से कूद-कूद कर बिल्ले के चारों तरफ जमा हो गए। इतने सारे बहादुर साथियों का समर्थन पा कर उस बूढ़े आदमी में भी हिम्मत आ गई। उसने अपनी लाठी उठाई और बिल्ले के सामने सीना तान कर खड़ा हो गया – ‘तुम कौन हो और यहाँ क्या करने आए हो?’

जवाब में बिल्ले के चेहरे पर एक विनम्र मुस्कराहट उभर आई। उसके चमकीले और नुकीले दाँत देख कर बूढ़ा चौंक गया। वह उसे कोई बहुरूपिया समझ रहा था लेकिन यह तो सचमुच बिल्ला था। उसने अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाल कर तंबाकू और चूने की डिबिया निकाली और बड़े इत्मीनान से खैनी मलने लगा। उसकी इस निडरता और बेपरवाही की देख कुत्ता हैरान रह गया। उसके पूर्वजों के समूचे इतिहास में आज तक कभी किसी ने इतने मगरूर और इतने बदसलूक और इतने कमजर्फ बिलौटे को नहीं देखा था। उसे तुरंत समझ में आ गया कि ये एक बड़े इम्तहान की घड़ी है और उसे इस अहमतरीन और फैसलाकुन लमहे में कुछ कर दिखाना होगा क्योंकि यह सिर्फ उसकी अकेले की नहीं उसके पूरे खानदान की इज्जत का सवाल है। कालू ने अपने बुजुर्गों के शानदार कारनामों और उनकी जाँनिसारी को याद किया और अगले ही पल वह भौंकने के बजाय बहुत हौलनाक तरीके से गुर्राने लगा। उसने दो-तीन कदम आगे बढ़ाए और उसका जिस्म झपट पड़नेवाले अंदाज में आ गया।

उसकी गुर्राहट सुन कर बिल्ला पीछे मुड़ा। उसने चुटकी भर तंबाकू जबड़े के नीचे दबाई और कुत्ते पर एक तिरछी नजर डाली और उसे देखने में पता नहीं क्या था कि कुत्ते का अकड़ा हुआ जिस्म ढीला पड़ गया। फिर बिल्ले ने उसकी तरफ अपनी उँगली उठाई और सबने देखा कि उसकी उँगली का नाखून अपने आप बढ़ने लगा, इतनी तेजी से कि पल भर में उसकी नोक कुत्ते की आँखों के बीच पहुँच गई। बिल्ले के इस चमत्कारी कारनामे से कुत्ता सहम गया। वह दो तीन कदम पीछे हटा फिर दुम दबा कर ऐसे भागा मानो मौत उसके पीछे पड़ी हो।

इस चमत्कार से वीर हनुमान के भक्त का दिमाग चकरा गया। उसके हाथ से लाठी छूट गई और वह बिल्ले के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। बंदर भी एक के बाद एक पेड़ पर चढ़ने लगे। लेकिन उनमें से एक बंदर, जो अपनी बाजी, बदमाशी और बदअंजाम कारनामों के लिए बदनाम था, अपनी जगह पर अड़ा रहा। जब बिल्ले ने उसकी तरफ देखा तो वह खौंखियाते हुए आगे बढ़ा और बिना किसी अंजाम की परवाह किए एक लंबी छलाँग लगाई और इससे पहले कि बिल्ला कुछ समझ पाए, उसके चेहरे पर एक तमाचा मार दिया। इस तमाचे से बिल्ले का सुनहरी फ्रेम वाला चश्मा दूर जा गिरा लेकिन अपमान और तिलमिला देनेवाले इस हमले से बिल्ला जरा भी परेशान नहीं हुआ। उसने अपने कुर्ते की जेबों में हाथ डाला और कुछ सोचते हुए इधर से उधर चहलकदमी करने लगा। फिर वह रुका, पीछे पलट कर उस गुस्ताख बंदर की तरफ देखा और बड़े करिश्माई अंदाज से उसने अपने दोनों पंजे कुर्ते की जेब से बाहर निकाल कर उपर उठा दिए। और अगले ही पल पूरी बंदर बिरादरी सकते में आ गई। बिल्ले के एक पंजे में पृथ्वी थी और दूसरे पंजे में बम। वह बागी बंदर की तरफ देख कर धीरे से मुस्कराया फिर उसने पृथ्वी के ऊपर बम रख दिया और किसी नट की तरह एक हाथ कमर पर रख कर कूल्हे मटका मटका कर नाचने लगा।

हनुमान भक्त ने पहले ही अपनी आँखें बंद कर रखी थीं इसलिए उसे बंदर की कार्रवाई और बिल्ले की प्रतिक्रिया के बारे में कुछ पता नहीं था। लेकिन पेड़ पर बैठे बंदरों की आँखें फटी की फटी रह गई थीं और जिस बंदर ने बिल्ले को तमाचा मारा था वह भी मुँह पर हाथ रखे सोच में पड़ गया था। कुछ देर तक वह बिल्ले को हैरानकुन नजरों से देखता रहा फिर धीमी गति से चलते हुए टेकड़ी से नीचे उतर आया। उसकी इस पराजय से दूसरे बंदर भी शर्मसार थे। वे भी धीरे-धीरे पेड़ से उतरे और उस टेकड़ी को हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए।

उधर शहरों में अजीबोगरीब तब्दीलियों का दौर अब भी जारी था। एक दिन सुबह- सुबह जब लोग अपने बिस्तरों में दुबके थे देश के सभी सेलफोन धारकों के फोन एक साथ बज उठे। लोगों ने नींद से उठ कर जम्हाई लेते हुए अपना-अपना हैंडसेट हाथ में लिया और देखा उसमें एक एस.एम.एस. था जिसमें यह लिखा था – पिछला सब कुछ भूल जाओ। कल क्या होगा मत सोचो। पीछे मुड़ कर देखना मना है और आगे की सोचना एक दंडनीय अपराध है।

उस एस.एम.एस. को पढ़ते ही लोगों की याददाश्त खो गई – उनके तजस्सुओ- तसव्वुर का सफाया हो गया और सबके सब एक साथ माजी-फरामोश हो गए। उसी दिन लोगों ने देखा कि शहर के सभी चौराहों और सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग्स काले रंग से पुते हुए थे। बेशकीमत तिजारती सामानों के रंग-बिरंगे इश्तहारों के बजाय हरेक होर्डिंग में सफेद हर्फों से एक ही इबारत लिखी हुई थी – तुम्हें किसी चीज की जरूरत हो न हो, चीजों को तुम्हारी जरूरत है।

उसी दिन टेलीविजन के सारे चैनल भी एक साथ गायब हो गए और उसकी जगह स्क्रीन पर केवल एक ही लाइन बार बार दोहराई जा रही थी – अब ऐसा कुछ भी दिखाई और सुनाई नहीं देगा जो पहले दिखता और सुनने में आता था।

और यह बात बहुत हद तक सच थी क्योंकि शहरों में अब पहले जैसी चहलपहल कहीं दिखाई नहीं देती थी। लोगों की गर्मजोशी और आमादापन खामोशी की पोशीदा सतहों के नीचे दब गया था। इस स्लो मोशन में कहीं कोई हड़बड़ी या खलबली नहीं थी। पूरा समाज आनेवाले समय को ज्यों का त्यों अख्तियार कर लेने की दिमागी हालत में आ गया था। कोई नहीं जानता था कि आगे क्या होगा लेकिन सबको पता था कि जो होगा उसे कोई टाल नहीं सकता।

आए दिन होनेवाली तब्दीलियों में जब थोड़ा विराम लगा तब लोगों ने राहत की साँस ली और वे इंतजार करने लगे कि अब बदले हुए हालात में उन्हें कौन सी भूमिका निभानी होगी। लेकिन वे नहीं जानते थे कि एक और बड़ी लहर आनेवाली है। कि अब तक की सारी तब्दीलियाँ तो केवल बानगी थीं – बड़ी और मुकम्मल तबदीली अभी आनी बाकी है।

एक दिन अचानक आर.आर. की तरफ से आदेश आया कि फ्लैटों के सारे लोग बाहर आ जाएँ। उन्हें कुछ दिनों के लिए घर से बाहर किसी अलग जगह पर ले जाया जाएगा। लोगों ने यह पूछने की बजाय कि उन्हें क्यों और कहाँ ले जाया जाएगा, अपनी फौरी जरूरतों के हिसाब से सुविधाएँ बाँधना शुरू कर दिया। लेकिन तभी दूसरा आदेश आया कि उन्हें कुछ भी साथ ले चलने की जरूरत नहीं है। कंपनियों ने सारे इंतजामात पूरे कर लिए हैं। पत्नियों ने विवश निगाहों से अपने पतियों और बच्चों को देखा, खास तौर से गाँव से शहरों में ब्याही गई औरतें, जो बिना गठरी-थैले के बाहर जाने की अभ्यस्त नहीं थीं, बहुत परेशान हो उठीं लेकिन किसी को कुछ सोचने समझने का वक्त नहीं दिया गया। तीसरा आदेश यह था कि जो फ्लैट छोड़ने में आनाकानी या देर करेंगे उनके फ्लैटों को सील कर दिया जाएगा। और इतना सुनते ही निहत्थे मध्यमवर्गियों के जत्थे सड़कों पर निकल आए और वे सब उन बसों में जा बैठे जो उन्हें ले जाने के लिए पहले से तैयार खड़ी थीं।

एक के बाद एक फ्लैटवासियों से भरी बसें शहर की सीमा से बाहर जाने लगीं। वे सब बिल्कुल चुपचाप बैठे थे। यूरोप के उन यहूदियों की तरह, जिन्हें आधी सदी पहले ट्रेनों में भर कर उन अज्ञात ठिकानों की तरफ ले जाया गया था जहाँ से वे कभी वापस नहीं लौटे।

लेकिन इतिहास गवाह है कि हर बड़े सियासी और समाजी जलजले में कुछ सनकी, कुछ खब्ती और कुछ सिरफिरे होते हैं, जो रेले में शामिल नहीं हो पाते। इसलिए नहीं कि वे शामिल नहीं होना चाहते, बल्कि इसलिए कि उनके अंदर एक ऐसी चट्टानी सिफत होती है जो किसी साँचे में नहीं ढलती।

फ्लैट नं. 14 का वह शायर भी उनमें से एक था। वह पहला आदमी था जिसने सवाल उठाया था – ‘क्यों?’ फ्लैट की सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए उसने कंपनी के एक नुमाइंदे से पूछा, मुझे अपने घर से निकाल कर कुत्ते की तरह क्यों पिंजरे में बंद किया जाएगा?”

‘मोहतरिम जनाब निदा फाजली साहब!’ उस जहीन और सुकुमार नुमाइंदे ने कहा – ‘यह कंपनी का फरमान है। आप बिल्डिंग से बाहर आइए और बस में बैठ जाइए।’

‘कंपनी से कह दीजिए कि मैं कोई जानवर नहीं, एक आदमी हूँ।’

‘मोहतरिम! आप तो जानते ही हैं कंपनी किसी का कहा नहीं सुनती। वह सिर्फ फरमान जारी करती है, जिस पर हमें अमल करना होता है।’

‘मैं किसी फरमान को मानने के लिए मजबूर नहीं हूँ और बसों में मुर्गों, खरगोशों की तरह ठूँस दिए जाने के बजाय मैं अपने घर की आहुति देने को तैयार हूँ।’

उसकी इन अहमकाना बातों से फ्लैटवासियों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि शायर पहले से ही वीतराग किस्म का प्राणी था, जिसके लिए घर-बार और कैरियर का वैसे भी कोई मतलब नहीं होता।

उस दिन सबके चले जाने के बाद शायर शहर की वीरान सड़कों पर अकेला भटकता रहा और जब वह भूख और थकान से बेहाल हो गया तो एक पार्क की बेंच पर जा बैठा। वह टकटकी लगा कर उस स्मारक की तरफ देखने लगा जिसे मुल्क की आजादी की याद में बनाया गया था, जिस पर आजादी के दीवानों के बुत आज भी सीना ताने खड़े थे। नई तब्दीलियों से अनजान उन इतिहास पुरुषों के चेहरों पर आज भी वही आबोताब था और मूँछों पर ताव देने का अंदाज वही साठ साल पुराना।

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शायर ने इस पुरानी अडिग अस्मिता और नई फिसलन के बीचोबीच अपनी कलम की नोक रखी और अपनी नई अजन्मी नज्म का पहला हर्फ अभी लिखने ही वाला था कि उसे अपनी डायरी पर फिर से एक परछाईं दिखाई दी। लेकिन इस बार शायर ने न तो सिर उठाया न परछाईं के खौफ को अपने भीतर उतरने दिया। दिमाग के पूरे तवाजुन के साथ उसने एक सतर लिखी फिर दूसरी, फिर तीसरी और तब तक लिखता रहा जब तक उसकी कलम एक फैसलाकुन नुक्ते तक न पहुँच गई। और तब ‘किसकी मजाल है यहाँ, हमसे नजर मिला सके।’ वाले अंदाज में उसने सिर उठाया। लेकिन इस बार उसके सामने किसी खौफनाक बला के बजाय वह अखबारनवीस खड़ा था, जिसने एक रात नशे में नई तब्दीलियों और रोज-रोज होने वाले हेरफेर को सनसनाती हुई गालियाँ बकी थीं, जिसके एवज में दूसरे ही दिन उसे नौकरी से बेदखल कर दिया गया था।

‘अरे! धीरेंद्र! तुम यहाँ कैसे पहुँच गए?’ शायर ने आश्चर्य से पूछा।

‘मैं भी तुम्हारी तरह एक इंसान हूँ।’ अखबारनवीस ने, जो आज भी चढ़ाए हुए था, लड़खड़ाते हुए अपने कदम आगे बढ़ाए और शायर के पास बेंच पर बैठ गया और बिना किसी तकल्लुफ के सिलसिलेवार बयान देने लगा – ‘जब कंपनी के कारिंदों ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी, मैं अपने बेडरूम की खिड़की से पिछवाड़े की तरफ कूद गया। फिर जब सब चले गए तो मैं अहाते की दीवार फाँद कर बाहर निकला और सड़क पर आ गया। रास्ते भर मुझे यही भ्रम होता रहा कि या तो मैं नींद में चल रहा हूं या बहत ज्यादा नशे में हूँ क्योंकि शहर युद्ध में ध्वस्त कर दिए गए रिहाइशी इलाकों से भी ज्यादा वीरान पड़ा था। इतनी वीरानगी और खामोशी तो बम से उजाड़े जाने के बाद हिरोशिमा और नागासाकी में भी नहीं थी।’

शायर ने हामी भरते हुए सिर हिलाया मगर उसका ध्यान उसकी बातों में कम उस थैले की तरफ ज्यादा था जिसे वह शराबी अपने साथ लाया था। वह पूरी तैयारी के साथ घर से निकला था। ओढ़ने-बिछाने से लेकर खाने-पीने तक का सारा साजो-सामान उसके सफरी थैले में मौजूद था। कुछ देर शहर के हालातों की तफसील देने के बाद अखबारनवीस ने एक बोतल और काँच का गिलास बाहर निकाला – ‘अगर आपको एतराज न हो तो एक पेग ले लूँ।’

‘अकेले-अकेले शराब पीना मयनोशी की तौहीन है। एक जाम जब किसी दूसरे जाम से टकराता है तब शराब में नशा आता है।’ शायर की इस दलील को शराबी ने सर आँखों पर लिया। अगले ही पल दूसरा जाम भी तैयार हो गया। शहर में इतना सन्नाटा था कि जाम टकराने की आवाज काफी देर तक गूँजती रही। शराब हलक में उतार देने के बाद दोनों भुनी हुई मूँगफल्ली खाने लगे। मौसम खुशगवार हो गया और जाम के दूसरे दौर के बाद दोनों में हिम्मत आ गई।

‘अब इस शहर में हम दोनों के अलावा कोई नहीं है। हम जो चाहें कर सकते हैं। कोई हमें रोकने-टोकनेवाला नहीं है, चाहे हम कुछ भी क्यों न करें।’

‘हाँ…’ शायर ने अखबारनवीस की बात की थोड़ी खिंचाई करते हुए कहा, ‘हम सब कुछ कर सकते हैं, पर सवाल यह है कि किया क्या जाए? क्योंकि कुछ भी करने से पहले हमें यह साबित करना पड़ेगा कि हम इंसान हैं।’

‘किसके सामने साबित करना है बताओ मुझे… अभी मैं बता देता हूँ कि मैं कौन हूँ।’ फ्लैट नं. बारह का वह कुख्यात शराबी अपने थैले से सब्जी काटने का चाकू निकाल कर खड़ा हो गया। उसके बिफरे हुए लहजे और लाल आँखों में एक भयानक तल्खी उभर आई। उसने पहले अपनी कमीज उतार कर फेंकी फिर पतलून भी उतार दिया – ‘आओ मेरे सामने…’ वह जोर से चिल्लाया, ‘दुनिया को बदलनेवालो! दम है तो मुझे बदल कर दिखाओ… लाओ कहाँ है तुम्हारा इकरारनामा? अब मेरा ये तुम्हारे कागजों पर साइन करेगा।’ उसने चाकूवाला हाथ उपर उठा दिया और लंबे-लंबे डग भरते हुए आगे बढ़ा। उसके लंबे, छरहरे और नंगे शरीर में गजब की फुर्ती और आक्रामकता थी। शायर मुँह फाड़े उसे देखता रह गया। वह चिल्ला-चिल्ला कर किसी अनजान दुश्मन को ललकार रहा था। उसके अंदर किसी भी खतरे से निपट लेने का आदिम साहस था। पार्क का पूरा चक्कर लगाने के बाद वह वापस उसी पत्थर की बेंच पर लौट आया। शायर ने खड़े हो कर तहे दिल से उसका खैरमकदम किया और तीसरा जाम उसकी तरफ बढ़ा दिया – ‘मैं तुम्हारे इस आमादापन और पेशकदमी की कद्र करता हूँ। इससे ज्यादा मुनासिब और कुछ हो ही नहीं सकता। सबसे ज्यादा अहम बात यह है कि मेरा और तुम्हारा वजूद बना रहे। हम दोनों तुम और मैं के रूप में बने रहने चाहिए। चाहे नई दुनिया वाले हमें वहशी ही क्यों न करार दें। फराज साहब की एक बात याद आ रही है – मेरी वहशत कब हुई उरयानी ‘फराज’, कल बदन पर पैरहन था, अब रुदाए जख्म है।’ दुनिया का बेहतरीन से बेहतरीन सिस्टम जाए भाड़ में। लानत है ऐसी रद्दोबदल पर जो हमसे हमारा वजूद छीन ले।

शराबी ने दो घूँट हलक में उतारा और बुरा-सा मुँह बना कर शायर की तरफ देखा फिर अपनी नशीली और दहकते शोलों जैसी आँखें उसकी आँखों से भिड़ा दीं – ‘निदा! तुम शायर हो और इसीलिए कायर हो। तुम्हें सिर्फ अपने वजूद को बचा लेने की फिक्र है लेकिन मैं उस कमीने को खोज रहा हूं जिसने हम सबको बेवजूद करने की साजिश की है।’

‘मैं तुम्हारे जज्बात और तुम्हारे इरादों की एक बार फिर तारीफ करता हूँ। कोई और वक्त होता तो मैं हौसला अफजाई करता मगर यह वक्त जोश दिखाने का नहीं है। समझदारी इसी में है कि हम चीजों को जरा बारीक नजरिये से देखें। हमें यह सोचना चाहिए कि अब हमें क्या कीमत चुकानी पड़ेगी और बदले में हमें क्या मिलगा। धीरेंद्र! तुम अब भी गुजरे जमाने की रूमानी बगावत के शिकार हो और इस बात को नजरअंदाज कर रहे हो कि नई पोलिटिक्स जिस तरह बिना शोरशराबे और बिना खूनखराबे के चुपचाप अपने मुकाम की तरफ बढ़ रही है, उसमें न कोई शहीद होगा न किसी को इंकलाबी बनने का मौका मिलेगा।’

‘तुम जो कुछ भी कह रहे हो उसमें सिवाय समझदारी के और कुछ भी नहीं है।’

‘समझदारी होनी ही चाहिए। आखिर यह वजूद का मामला है। जितने जहीन तरीके से जीते-जागते इंसानों को टाइप में बदला जा रहा है उसे देखते हुए लगता है कि आनेवाले दिनों में हम अपने अपने नामों से नहीं कोड नंबर से पहचाने जाएँगे। हमें न सिर्फ हमारी तारीख से बल्कि आनेवाले कल से भी अलग कर दिया जाएगा और एक ऐसी जिंदगी बख्शी जाएगी जिसे जीना मरने से भी बदतर होगा।’

‘तुम जो कुछ बोले जा रहे हो, वह मेरी समझ से बाहर है। लगता है यह कोई फलसफा है और मैं तुम्हें आगाह करता हूँ कि इससे दूर ही रहना चाहता हूँ क्योंकि मैं समझदार आदमी नहीं हूँ और ज्यादा दूर की नहीं सोचता। मेरा फिलहाल सिर्फ एक ही मकसद है, उस कमीने को कहीं से भी खोज निकालना… वह कहीं नजर आ जाए तो मैं एक ही वार में उसकी दुम…’

और अचानक उस बदहवास शराबी की बोलती बंद हो गई। शायर की पीठ पीछे पत्थर की उस बेंच पर जहाँ कुछ देर पहले हौसले और फैसले के जाम उठाये गए थे, अब एक बिल्ला बैठा था। उसने इस बार काला टी शर्ट और नीला जींस पहन रखा था। आँखों पर गहरा काला चश्मा चढ़ाए वह बड़े इत्मीनान और सुकूनियत से सिगरेट फूँक रहा था। उसके इस आग भड़काऊ अंदाज से उस शराबी का खून खौल गया। उसने शायर को एक तरफ हटाया और चीखती हुई आवाज में गालियाँ बकते हुए बिल्ले को ललकारा। बदले में बिल्ले ने ढेर सारा धुआँ उसके चेहरे पर उगल दिया और तब शराबी ने बिना समय गँवाए बिल्ले पर धावा बोल दिया। वह बिना रुके बिल्ले के पेट और छाती पर चाकू घोंपता रहा। इतनी तेजी से कि गिनती लगाना भी मुश्किल था। लेकिन यह हमला जानलेवा तो दूर बाल बाँका करने लायक भी साबित नहीं हुआ। बिल्ले के चेहरे पर अब भी वही शातिराना मुस्कराहट थी। उसने गुस्से और बेबसी से हाँफते हुए हमलावर के हाथ से चाकू छुड़ाया और एक हाथ पकड़ कर खींचते हुए उसे उस स्मारक की तरफ ले जाने लगा, जहाँ मुल्क के महान इंकलाबियों के बुत खड़े थे।

बाएँ हाथ से मूँछ ऐंठते एक अधनंगे पहलवान, जिसने कमर पेटी में एक पिस्तौल भी बाँध रखी थी, के सामने खड़े हो कर बिल्ले ने चाकू उपर ऊठाया और बड़ी सफाई से उस इंकलाबी की मूँछें मूँड़ दीं, जिस पर ताव देते हुए वह सत्तर साल पहले अंग्रेजों को डराया करता था।

इस हौलनाक कारनामे के बाद बिल्ला एक कमजोर बूढ़े आदमी के बुत की तरफ बढ़ा जिसके सिर पर बाल नहीं थे। जिसने शरीर पर कपड़े के नाम पर सिर्फ एक धोती लपेट रखी थी और आँखों पर गोल फ्रेमवाला चश्मा पहन रखा था। उस बूढ़े के चेहरे पर ऐसे भाव तराशे गए थे जैसे उसमें मुहब्बत और भाई-चारे का पैगाम लिखा हो। दूसरे बुतों के बरक्स वह बुत ज्यादा बड़ा था और उसे थोड़ी ऊँची जगह दी गई थी क्योंकि वह मुल्क के वालिद का बुत था।

मगर उस बिल्ले ने बुत से जुड़े अवाम के जज्बात का एक ही बार में सफाया कर दिया। इससे पहले कि शायर और शराबी कुछ समझ पाते, मुल्क के वालिद का सर कलम कर दिया गया और उसकी मुंडी पीतल के खाली लोटे की तरह उछलती हुई दूर जा गिरी।

इतना कर चुकने के बाद भी बिल्ले को तसल्ली नहीं हुई। वह अपने मोटे लथलथे पेट और गुस्ताख नितंबों को हिलाते हुए मुंडी के पीछे दौड़ा और एक मँजे हुए फुटबाल प्लेयर की तरह उससे खेलने लगा। कुछ देर तक खेलने के बाद उसने मुंडी को दोनों कानों से पकड़ कर उठाया। मुल्क के वालिद के चेहरे पर अब भी वही सब्रो-सुकून, उतनी ही मुहब्बत और उतनी ही भलमनसाहत थी, जिसे देख कर बिल्ला खीज उठा। उसने मुंडी को हवा में छोड़ा और एक जोरदार किक मार कर उसे गुरुत्वाकर्षण और मायनाखेजी से परे बादलों के ऊपर बेइंतहा खालीपन में उछाल दिया।

आइए अब हम उस तरफ भी एक नजर डाल लें जहाँ फ्लैटवासियों को ले जाया गया था। शहर के सीमावर्ती इलाकों में शहर से आई बसों की लंबी कतारें थीं। उन बसों को विभिन्न कैंपों में खाली किया जा रहा था। उन कैंपों के बैरक प्लाई के बने थे और पाँच मंजिला शायिकाओं की अनेक कतारें थीं। प्रत्येक कैंप में दस ब्लाक और प्रत्येक कतार में पाँच सौ शयिकाएँ। यानी कुल मिला कर उन ब्लाकों का डिजाइन बिल्कुल उन दड़बों जैसा था, जिसे इतिहास में मनुष्यों के लिए इससे पहले इतने बड़े पैमाने पर केवल एक बार जर्मनी के बिरकेनाऊ नामक स्थान पर बनाया गया था।

किसी पूर्वनिर्धारित योजना के मुताबिक विभिन्न कंपनियों ने मिल कर दस-दस हजार वर्गमील के भूखंडों पर ये कैंप बनाए थे जिनमें खाने-पीने, पहनने ओढ़ने, नहाने-धोने और सोने-बिछाने तथा फारिग होने के बेहतरीन इंतजामात मौजूद थे।

जैसे ही कोई सवारी कैंप के रैंप पर पहुँचती, रोल काल में खड़े कंपनी के चुस्त-दुरुस्त नुमाइंदे उनका स्वागत करते, फिर उनसे एक कतार में खड़े होने का आग्रह किया जाता। मर्दों के लिए अलग और औरतों के लिए अलग लाइन बनाई गई थी। बच्चों को पहले ही छाँट कर अलग कर दिया गया था। लाइन में खड़े हरेक मर्द और औरत को एक केबिन से गुजर कर उस तरफ जाना होता था। केबिन तक पहुँचने से पहले किसी को यह मालूम नहीं होता था कि उनके साथ क्या होनेवाला है। दो या तीन मिनट के वक्फे के बाद जब वे दूसरी तरफ खुलनेवाले दरवाजे से बाहर निकलते तब उनके जिस्म पर कोई कपड़ा नहीं होता था। बाहर आते ही वे खुद को बेलिबास जिस्मों के जमघट से घिरा पाते। कोई और मौका होता तो उनमें से कोई भी औरत या मर्द ऐसी हालत में खुद को शर्मसार होने या गुस्से से बिफर पड़ने से न रोक पाता लेकिन केबिन में पता नहीं ऐसा कौन-सा ट्रीटमेंट दिया जाता था कि वे बाहर आते ही उन तमाम एहसासों, जज्बात और अदाओं से महरूम हो जाते जो किसी भी इंसान की बुनियादी पहचान होती हैं। वे कुछ इस तरह से एक दूसरे को देखते जैसे पहले से ही एक दूसरे को नंगा देखने के आदी हों। अपने और दूसरे के जिस्मानी बेढंगेपन घुँघराले बालों से घिरे बेतरह लटकते जननांगों, लथलथे या मुर्झाए और सिकुड़े हुए स्तनों या नितंबों को देख कर उन्हें न हँसी आ रही थी न शर्म। दरअसल वे सब किसी दूसरे के जिस्म की नुमायाँ तफसीलें जानने के बजाय सिर्फ एक दूसरे की परेशानी को देख रहे थे जिन पर कन्ज्यूमर नंबर गोद दिए गए थे।

जब फ्लैटवासियों को क्रमसंख्या में बाँटने और बेलिबास करने का काम खत्म हो गया तो योजना के दूसरे चरण की शुरुआत हुई। सबसे पहले हरेक ब्लाक के ब्लाक एल्डर ने अपने अपने ब्लाक को संबोधित किया…

‘मैं इस ब्लाक का एल्डर हूँ। मैं सलाह देता हूँ कि कोई परेशानी खड़ी न करो, कंपनियों ने तुम्हें बदलने का निर्णय लिया है। अब तक सब जिस ढंग से जिंदगी गुजार रहे थे वह बहुत गलत था क्योंकि तुममें से हरेक को मनमानी करने की छूट थी। इसलिए सबके विचार अलग थे, सबकी आदतें अलग थीं और सबका खाने-पीने, पहनने- ओढ़ने और रहने-सहने का तरीका अलग था। तुम्हारे धर्मों, जातियों और रीति-रिवाजों में भी इतनी विभिन्नताएँ हैं कि किसी एक सूत्र में उन्हें पिरोना मुश्किल था। इस अलगाव और विभिन्नताओं के कारण वो ग्राउंड नहीं बन पा रहा था, जो हम बनाना चाहते थे इसलिए आर.आर. यानी रिटेल रिवोल्यूशन नामक कंपनी ने तुम्हें और तुम्हारे घरों को बदलने के लिए एक पैकेज तैयार किया है। हम तुम्हारे उस अंश तक पहुँचना चाहते हैं जो कभी संतुष्ट नहीं होता। हम उसे पूरी तरह और हमेशा के लिए शांत करना चाहते हैं।’

‘यदि आप पूछने का बुरा न मानें।’ ब्लाक नं. 113 के एक नौजवान ने, जो जाहिरा तौर पर थोड़ा जहीन और केबिन के ट्रीटमेंट से थोड़ा कम मुतासिर था, सवाल उठाया, ‘मैं जानना चाहता हूँ कि आपने नाजियों जैसा लहजा कहाँ सीखा और हमें नंगा क्यों किया गया?’

‘यदि तुमने अधिग्रहण का इतिहास अमेरिकी संदर्भों में पढ़ा होता तो तुम्हें पूछने की जरूरत न पड़ती। यदि तुम दिमाग के हल्के न होते तो तुम्हें पता होता कि हमारे मंसूबे नाजियों से कितने अलग हैं। फिलहाल सिर्फ इतना ही जान लेना काफी है कि हमने लोगों को खत्म करने के लिए नहीं उन्हें बदलने के लिए जमा किया है। कपड़ों को उतारे बगैर किसी को कैसे विसंक्रमित किया जा सकता है?’

उस ब्लाक एल्डर की बात जैसे ही खत्म हुई सबसे पहले कॉस्मेटिक कंपनी के एजेंटों ने लोगों को अलग-अलग दलों में विभाजित किया। प्रत्येक दल में सौ लोग थे। कंपनी के एजेंट उन्हें सम्मानपूर्वक उस सेलून में ले जाते जिसमें एक बार में सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था की गई थी। फिर तरह-तरह के उपकरणों से उनकी हजामत की गई। बॉडी मसाज और फेस मसाज किया गया जिसमें उस कंपनी के क्रीम लोशन और हेयर कलर्स के नुमायाँ शेड्स के इस्तेमाल का पाठ पढ़ाया गया।

हजामत और मालिश से फारिग होते ही बाथ मेनर्स कंपनी के एजेंट उन्हें एक ऐसे स्नानघर में ले गए जहाँ एक बार में एक हजार आदमी के नहाने का इंतजाम था। यहाँ कास्मेटिक और सेनेटरी वेयर्स का काम एक साथ चल रहा था। उन्हें हमाम के नए तौर- तरीके सिखाये गए। चमड़ी को चमकाने और बालों की हिफाजत में आनेवाली क्रीम, लोशन और कंडीशनर की जरूरत के बारे में समझाया गया और तरह-तरह की फुहारों के लिए इजाद किए गए नए शावर्स से परिचित करवाया गया।

जैसे ही वे इस महास्नान से निपट कर बाहर निकलते, तौलिए और नेपकिन बनानेवाली कंपनी के एजेंट उन्हें अपने उत्पाद की विशेषता समझाते हुए पोंछने लगते फिर अंडर गारमेंट बनानेवाली कंपनी उन्हें अंडरवियर पहना देती। अंडरवियर पहनने के बाद रेडिमेड गारमेंट्स बनानेवाली कुछ कंपनियों के गोदामों में उन्हें ले जाया जाता जहाँ एक बंफर स्टाक लोगों के इंतजार में पड़ा था। यहाँ उन्हें अपनी पसंद की पोशाकें चुनने की पूरी छूट थी और चूँकि सारी चीजें मुफ्त में मिल रही थीं इसलिए लोगों ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपने जिस्मों पर कपड़ों का भार बढ़ने दिया।

कपड़ों के बाद जूतों की बारी आई, फिर चश्मे, जैकेट, ओवरकोट, हैट, टोपियाँ, एयर बैग, सूटकेस, बेल्ट, गले की चेन, अँगूठियाँ, चश्मे, कैमरे, घड़ियाँ, सेलफोन के हैंडसेट, पेन, बटुवे और ऐशो-आराम के तमाम सामान से उन्हें नवाजा गया। ये सभी चीजें ब्रांडेड थीं।

जब वे नए सामानों और पोशाकों से लदेफदे बाहर निकले तो उन्होंने देखा, उनके सामने उनकी पुरानी उतरन, याने केबिन में उतरवा लिए गए कपड़ों, जूतों चप्पलों, पाजामों, कुर्तों, घड़ियों, टोपियों, पेन और बटुवों का ढेर लगा था। जिस पर केरोसिन का छिड़काव किया जा रहा था। फिर कुछ ही देर बाद कंपनी के आदेश पर उन स्वदेशी कपड़ों और दीगर देशी चीजों के ढेर में आग लगा दी गई।

ठीक ऐसी ही लपटें उन ब्लाकों से भी उठ रही थीं जहाँ औरतों को ले जाया गया था। अब वे सभी औरतें हाई हील के सेंडिल, चमड़े के जूते, ट्राउजर, टी शर्ट, स्कर्ट, मिडी, पेंट या ओवरकोट या जाकेट पहने हुए थीं। उनके रवायती लिबास जिसमें तरह-तरह की साड़ियाँ, सलवार, बुर्के, कशीदाकारी से सजे दोशाले, जड़ाऊ कंगन, नक्काशीदार चूड़ियाँ, मंगलसूत्र, उनके पेटीकोट, उनकी अँगिया और यहाँ तक कि माथे की बिंदिया भी आग के हवाले कर दी गई।

नजारे का मुजाहिरा करवाने के बाद सबको भोजनालय की तरफ ले जाया गया जहाँ फास्ट फूड कंपनियों ने अपने स्टाल सजा रखे थे। वहाँ खाने-पीने की बेशुमार चीजों का अंबार था। उस ख्वाबीदा खाने पर लोग भूखे गुलामों की तरह टूट पड़े। उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जो यह सोचता कि जो चीजें उन्हें खिलाई जा रही हैं वे क्या हैं, जैसे जानवर अपनी नाँद में पड़े चारे के बारे में कुछ नहीं सोचता।

खाने-पीने से फारिग होते ही उन्हें उन दड़बों में ले जाया गया जहाँ फोम के गद्दे तकिए और बेडशीट तथा पिलो कवर बनानेवाली कंपनी ने उनके लिए बेहद आरामदेह बिस्तर बिछा रखे थे। कुछ देर डकारने के बाद पूरा मध्यम वर्ग सो गया बिना यह सोचे कि जिन करारनामों पर उसने दस्तखत किए हैं और उनके नाम से जो चेक जारी किए गए है उनका क्या नतीजा होगा।

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उधर पार्क में वह शराबी, जो उलटियों की बदबू से घिरा बदला लेने की कसम खाता हुआ बेहोश हो गया था, एक बार फिर होश में आया और उसने देखा कि वह शायर, जिसने दिन में उसके साथ जाम टकराए थे और पूरे होशोहवास में जमीनी सच्चाइयों से सबक लेने की बात कह रहा था, इस वक्त एक सिर-कटे बुत से बातें करने में मशगूल था। उसके चेहरे से साफ जाहिर था कि उसने अब जमीनी दुनिया से नाताकती कर ली है और किसी भी तरह की सच्चाई अब उसे वापस जमीन पर नहीं ला सकती। काल के घुमाव ने उसके दिमाग को इतना घुमा दिया था कि उसके लिए अब दुनियावी और रूहानी के बीच का फर्क सिफर हो गया था, क्योंकि वह एक बुत को और वह भी सिरकटे बुत को अपनी नज्म सुना रहा था, जिसमें इंसानी नस्ल के बिखरते शिराजे की बात कही गई थी और उस कुसूरवार छुरे की तरफ इशारा किया गया था, जो तारीख की लहूलुहान लाश के बीच इस समय भी उतने ही आबोताब से चमक रहा है।

जब वह नज्म पढ़ी जा रही थी ऐन उसी वक्त शहर की बेइंसां सड़कों और बेमकीं मकानों में कुछ हैरतअंगेज कारगुजारियाँ चल रही थीं। हजारों ट्रकें घरेलू सामान लादे इधर से उधर दौड़ रही थीं, जैसे दुश्मन देश के किसी शहर में सेना ने अभी-अभी चढ़ाई की हो। इस नजारे को देख कर शराबी होश में आ गया। उसके अंदर का अखबारनवीस जाग उठा। जब वह शहर के उस हिस्से से गुजरा जहाँ शहर का सबसे पुराना और बड़ा खुदरा बाजार था तो वहाँ उसे दुकानों के बजाय मलबों के ढेर दिखाई दिए और एक साथ कई डिस्चार्ज लोडर उस मलबे को हटाने में लगे हुए थे। फिर उसने देखा कि शहर के तमाम फ्लैटों को खाली किया जा रहा था – इतनी बेरहमी और बेहिफाजत से जैसे उन सामानों को दुबारा किसी इस्तेमाल में लाने की जरूरत न हो। बेदखल किए गए असबाब की जगह नई चीजें फ्लैटों में पहुँचायी जा रही थीं। वे सभी चीजें भी ब्रांडेड थीं। फर्नीचर, टेलीविजन सेट, फ्रीज, एयर कंडिशनर, वाशिंग मशीन, एक्वागार्ड, गीजर, माइक्रोवेव ओवन, वाश बेसिन, क्राकरी, कूकर, फ्राइंगपेन टोस्टर, रोस्टर, जूस मेकर, और यहाँ तक खाने पीने की तमाम चीजें और फल और तरकारियाँ भी ब्रांडेड थीं।

एक जमाना था जब यह कहा जाता था कि अपने मुल्क से कोई कितने भी फैसलाकुन तरीके से क्यों न भागे, हाथों में कुछ सामान उसे ले ही जाना पड़ता था और एक ये जमाना है कि पूरा मुल्क पुराने सामानों से महरूम किया जा रहा है और नई चीजें, जिनमें से ज्यादातार गैरजरूरी हैं. बिना चाहे, घरों में घुसी चली आ रही हैं और कोई उन्हें रोकनेवाला नहीं है।

लेकिन हमारा वह नेकनाम और नेकदिल अदना किरदार, फ्लैट नं. चौदह का बाशिंदा वह शायर जब घूम-फिर कर घर पहुँचा तो उसका पूरा घर खाली था। इतना खाली और सुनसान कि उसमें धूल और कचरे का भी नामोनिशान नहीं था। लेकिन शायर ने हिम्मत नहीं हारी, वह उस जगह पर जा कर खड़ा हो गया जहाँ पहले किताबों की अलमारी और लिखने की मेज हुआ करती थी। उसने उस खाली जगह से मुखातिब हो कर कहा – ‘यह दुनिया चाहे कितनी भी क्यों न बदल जाए मैं दुनिया को टूटे आईनों के टुकड़ों में बने अक्सों की शक्ल में पेश करने के लिए मजबूर हूँ। बेशक कुछ टुकड़े लाजिमी तौर पर गायब हो जाएँगे और मुझे उन गायब हो चुके अक्सों के तसव्वुर को जिंदा रखना होगा क्योंकि मेरा यह फर्ज है कि मैं इस बदली हुई दुनिया पर अपना ख्वाब लादता रहूँ और इस गड़बड़ाए हुए करिश्मे को अपने ख्वाबों, खयालों से नई तर्ज दूँ और बहुत बेमानी उम्मीद के साथ एक पुरानी कहावत को दोहराता रहूँ कि ढहना तमाम तानाशाहियों की फितरत में है जैसे बढ़ना एक नामुराद बेल की और खिलना एक नामालूम फूल की फितरत में है।’

लिहाजा वह दिन पूरी तरह से शायर के तसव्वुर की गिरफ्त में था। उसकी जहनी और जज्बाती कशाकश की जद से बाहर हालाँकि बहुत-सी दूसरी तब्दीलियाँ जारी थीं लेकिन शायर के तसव्वुर में कुछ और ही बनता ढहता रहा।

कैंप के ब्लाकों में दस दिनी ट्रेनिंग के बाद बदले हुए समाज को आखिरी फरमान सुनाया जा रहा था और नए युग के गुलाम सिर झुकाए चुपचाप सब सुन रहे थे। उन्हें बताया गया कि आज से उनके नए जीवन की शुरुआत हो रही है। अब उन्हें किसी चीज के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि तमाम छोटी-छोटी हुकूमतें खत्म हो गई हैं और खिलाफत की हिमाकत करनेवाला कोई नहीं है। किसी भी तरह के मुकाबले और जंग की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। सारी लड़ाइयाँ खत्म हो गई हैं और दुनिया इतनी मालामाल हो गई है कि अब माल खपाने के लिए इंसानों की कमी महसूस हो रही है और हम चाहे कुछ भी कर लें पर रातोंरात इंसानों की तादाद नहीं बढ़ा सकते इसलिए यह तय किया गया है कि हर इंसान अपनी जरूरत से तीन गुना ज्यादा चीजों का इस्तेमाल करे। नई दुनिया को ऐसे इंसानों की जरूरत नहीं है जो चीजों के इस्तेमाल में कोताही और कंजूसी बरतते हैं। इसलिए आप सब यह ध्यान रखें कि जो कोई चीजों को बरतने में नाकाबिल होगा उसे हर चीज से महरूम कर दिया जाएगा।

(और यह बात बिल्कुल सच थी। सिर्फ शायर का ही नहीं उस अखबारनवीस का घर भी बिल्कुल खाली पड़ा था। उनसे उनकी हर चीज छीन ली गई थी और बदले में कुछ भी नहीं दिया गया था और जब वे अपने-अपने खाली घरों से बाहर आए तो आर.आर. (रिटेल रिवोल्यूशन) के अधिकारियों ने उनके बदन से उनके कपड़े भी उतरवा लिए। और अब वे दोनों शहर की सड़कों पर नंगे घूम रहे थे।)

आखिरी फरमान खत्म होते ही लोगों को कैंप छोड़ कर घर चले जाने का आदेश दिया गया और अलग-अलग कैंपों से निकल कर लाखों फ्लैटवासियों का कारवाँ सड़क पर उतर आया। वे सब अपने-अपने सामानों से लदी ट्रालियाँ धकेलते हुए शहर की तरफ बढ़ रहे थे।

रास्ते में कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था। सिर्फ ट्रालियों के चक्कों की चूँ चूँ और खड़ खड़ के अलावा दूसरी कोई आवाज न थी। बेजुबान कर दिए गए लाखों लोगों के इस कारवाँ को देख कर यूँ लगता था मानो कोई कौम अपने मुल्क और अपनी जमीन को छोड़ कर कहीं और पलायन कर रही हो। उस कारवाँ के अलावा रास्ते में किसी और तरह की आमदरफ्त नहीं थी और तमाम फुटपाथी रोजगार फना हो गए थे। मूँगफल्ली, तिल गुड़ की पपड़ी, गन्ने का रस, नींबू शर्बत, तरबूज, कुल्फी, चाय-पानी, चाट-पकौड़ी, भजिए, समोसे, लस्सी और जलेबी बेचनेवाले और साइकिलों और दुपहिया वाहनों के पंक्चर बनानेवाले, रिपेयरिंग और रिवाइंडिंग करनेवाले मेकेनिक, धोबी, दर्जी, मोची, बढ़ई, कुम्हार, बँसोड़, कसेर, ठठेरे, लुहार, मछेरे और सब्जीफरोश, ये सब के सब हाथ में हाथ बाँधे खड़े थे और उस गुजरते हुए काफिले को हसरत भरी निगाहों से देख रहे थे। वे सब इस रेले में शामिल होना चाहते थे लेकिन किसी को समझ नहीं आ रहा था कैसे? और पहल करे तो कौन?

आखिर एक मोची हिचकिचाते हुए आगे बढ़ा। उसने आर.आर. के एक एजेंट की बाँह को हलके से छुआ – ‘हुजूर! अगर आप नाराज न हों तो मैं एक गुजारिश करना चाहता हूँ।’

‘हाथ अलग हटा।’ एजेंट ने उसे झिड़क दिया, ‘तू कौन है और यहाँ क्या करने आया है?’

‘हुजूर, मैं पुराने जूतों में तलवे लगाता हूँ और उसकी मरम्मत करता हूँ। सदियों से हमारा यही पेशा है। आपकी कंपनी के जूते चाहे वे कितने भी मजबूत क्यों न हों, एक न एक दिन उन्हें मेरी जरूरत पड़ेगी। मैं चाहता हूँ कि एक मोची की हैसियत से आप मुझे भी इस बदली हुई दुनिया में आने का मौका दीजिए।’

‘नहीं…’ आर.आर. के एजेंट ने उसे और भी दूर ठेल दिया, ‘अब यूज एंड थ्रो का जमाना आ गया है। जूतों की या किसी भी चीज की मरमम्त करना कानूनी जुर्म है।’

उसकी डाँट-फटकार सुनते ही सब लोग तितर-बितर हो गए। जाते-जाते मूँगफल्ली बेचनेवाले ने बहुत दबी हुई जबान से पूछने की हिम्मत की – ‘हुजूर! क्या मूँगफल्ली बेचना भी कोई जुर्म है?’

‘हाँ।’ कंपनी के एजेंट ने उसे घूर कर देखा, अब केवल ब्रांडेड चीजें ही बेची-खरीदी जाएँगी।’

‘क्या समोसे, पकोड़े और जलेबियों को भी नहीं बख्शा जाएगा?’ एक हलवाई ने आगे आ कर पूछा।

‘ऐसी तमाम चीजों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, जिसमें केलोरी और वसा की मात्रा ज्यादा है।’

हलवाई बड़ी हैरानी से एजेंट का मुँह देखता रह गया। हाल ही में बेरोजगार हुए लोगों की उस भीड़ में और भी कोई लोग अपने खानदानी पेशे के भविष्य के बारे में जानना चाहते थे लेकिन एजेंट के पास इतना वक्त कहाँ था कि वह हर किसी के सवाल का जवाब दे। लिहाजा वे सब हाथ में हाथ बाँधे खड़े रहे और उपभोक्ताओं का काफिला उनकी नजरों से दूर होता चला गया।

जब वे पैर घसीटते और ट्राली धकेलते हुए शहर की सीमा के पास पहुँचे तो उन्हें एक बहुत बड़ा पहाड़ दिखाई दिया। लोगों ने गौर से पहाड़ को देखा और सोच में पड़ गए कि शहर के पहलू में रातोंरात ये पहाड़ कहाँ से निकल आया। जब वे और नजदीक पहुँचे तब उन्हें समझ आया कि यह उनके पुराने घरेलू सामानों का ढेर है – वर्षों पुरानी गृहस्थी का अवशेष, जिसमें वे पालने भी थे जिनमें पल कर कई पीढ़ियाँ बड़ी हुई थीं। शीशम के वे पुराने पलँग थे, जो चार-चार पीढ़ियों का सहवास झेल चुके थे और आनेवाली पीढ़ी की जोर-आजमाइश को भी सहने की कूबत रखते थे। दीवान और लमटँगी कुर्सियाँ, मोहगनी की नक्काशीदार अलमारियाँ, बुजुर्गों की विरासत के नुमायाँ पिटारे, ट्रंक, ताँबे और पीतल के बर्तन, जस्ते के नाबदान और चिलमचियाँ, चीनी मिट्टी की तश्तरियाँ, प्याले, खाने पकाने के तरह-तरह के बर्तन, रोटी सेंकने के तवे, पाटे, बेलन, कलछुल, चिमटे, मिर्च-मसालों की छोटी-छोटी डिब्बियाँ, अचार-मुरब्बे के मर्तबान, मेहनत से सुखाई गई बड़ियाँ और पापड़, बच्चों के तमाम काठ के खिलौने, कपड़े-लत्ते, छत्ते और साज-श्रृंगार के सामान – यहाँ तक कि फर्श बुहारने की झाड़ू भी पुराने सामानों के उस ढेर में शामिल थी।

नई दुनिया के जाए लाखों लोग अपनी पुरानी दुनिया के अवशेष के सामने खड़े थे, उस पहाड़ के चारों तरफ घेरा बना कर, जिसकी चोटी पर एक बिल्ला अपने दोनों पंजे कमर पर टिकाए खड़ा था। उस अज्ञात बिल्ले को शहरवासियों ने सामूहिक रूप से पहली बार देखा था। उसने एक बहुत ही तरहदार और नई चलन का सूट पहन रखा था और सिर पर शानदार हैट भी।

कुछ देर बाद उस बिलोटे ने अपनी दोनों बाँहें पसार कर किसी गैबी ताकत को पुकारा। लगता था जैसे अभी-अभी आसमान फट पड़ेगा और कोई अवतार नई दुनिया की रहबरी के लिए आएगा। शहर के लोगों को इस तरह के किसी करिश्मे की कतई उम्मीद नहीं थी लेकिन कुछ ही पलों में पश्चिमी आसमान का रंग बदलने लगा और वह बिल्ला अभी-अभी प्रकट होनेवाली किसी दैवी शक्ति का स्वागत करने नीचे उतर आया। उसके सिर्फ एक ही इशारे से भीड़ का घेरा फट गया और लाखों लोगों के हुजूम में एक रास्ता खुद-ब-खुद बनता चला गया।

फिर मगरिबी उफक से रोशनी का एक दायरा आगे बढ़ा और जैसे कोई हवाई जहाज रनवे पर उतरता है, जगमगाती रोशनी उस राह पर उतर आई और तब लोगों ने देखा वह रोशनी एक जलती हुई मशाल से आ रही थी, जिसे श्रीमती लिबर्टी ने थाम रखा था और वह अकेली नहीं थीं, उनके साथ मगरिबी गोरों का एक दल भी था, जिनके हाव- भाव और चाल-चलन से साफ जाहिर था कि उनके पुरखों ने इतिहास में कोई अहम भूमिका निभाई है और अब वे भी एक नया इतिहास रचने जा रहे हैं।

और बिल्ले ने आगे बढ़ कर गर्मजोशी से उनका स्वागत किया और कहने लगा कि इस देश को अब बिल्कुल वैसा बना दिया गया है, जैसा आप चाहते थे और भरोसा दिलाया कि अब ऐसी कोई बात नहीं होगी जो आप जैसे जहीन ग्लोबलाइजरों के काम में खलल डाले और उम्मीद जताई कि उनके मंसूबों और कारकर्दगी से नए जमाने को आला दर्जे की इंसानी आजादी का स्वाद चखने का मौका मिलेगा।

‘तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो।’ एक संगीतमय आवाज उस ठहरी हुई हवा में उभरी। यह आवाज श्रीमती लिबर्टी की थी, ‘मैं देख रही हूँ कि यहाँ सचमुच बड़ी मेहनत और जतन से काम हुआ है। सिर्फ शहरों में ही नहीं गाँवों में भी यकसानियत नजर आ रही है। इसलिए मेरा यह फर्ज बनता है कि आजादी की मशाल और ऊँची उठाऊँ और उन सबका स्वागत करूँ जिन्होंने अपनी अस्मिता को त्याग दिया है।’ यह कहते हुए मिसेज लिबर्टी ने मशाल ऊँची उठाई और उसकी लौ भी खुद ब खुद इतनी ऊँची उठती चली गई कि सारा पूर्वी आकाश उस रोशनी से चमक उठा।

मिसेज लिबर्टी के पास खड़े सभी ग्लोबलाइजरों ने बड़ी जहानत से सिर हिलाया। फिर उनमें से एक ने कहा, ‘सिर्फ नई चीजों पर रोशनी डालना ही काफी नहीं है। हमें लगे हाथ पुराने कबाड़ को भी ठिकाने लगाना होगा।’

‘हाँ…’ श्रीमती लिबर्टी ने अपनी कोमल दृष्टि पुराने असबाब के ढेर पर उठाई, ‘सिर्फ चीजों को ही नहीं उन विचारों को भी खत्म कर देना चाहिए, जो बार-बार असली आजादी को आने से रोकते हैं।’

‘मादाम लिबर्टी! आप बिल्कुल ठीक फरमा रही हैं। हमने वो तैयारी भी पूरी कर ली है।’ बिल्ले ने निहायत रवायती दरबारी की तरह झुक कर अपनी बात कही और उस तरफ इशारा किया जहाँ मुजरिमों से भरी जालीदार खिड़कियोंवाली एक वैन खड़ी थी। बिल्ले ने आगे बढ़ कर वैन का पिछला दरवाजा खोला और तमाम मुजरिम बाहर आने लगे। सबसे पहले एजाज अहमद बाहर आए फिर अरुधंति राय, फिर मेधा पाटकर, फिर वरवर राव और गदर।

अब आप अंदाजा लगा लीजिए कि अमूमन ऐसे मौकों पर क्या होता है। पीछे पलट कर देखेंगे तो हजारों ऐसे मामले मिलेंगे कि रद्दोबदल के बाद नई हुकूमतें कैसे पुराने समाज के इनशापर्दाजों को काफिर करार देती हैं और उनके साथ किस तरह का बर्ताव होता है। लेकिन चूँकि नई दुनिया के नुमाइंदे बेहद जहीन और नफासतपसंद थे इसलिए उन्होंने फाँसी, गिलोटिन, जहरीली गैस या गोलियों का इस्तेमाल नहीं किया क्योंकि इस तरह के भदेस से उन्हें परहेज था। इसके बजाय उन्होंने वो तरीका अपनाया जिसे वे नोम चोम्स्की, एडवर्ड सईद, कार्ल सैगेल, ई.ओ. विल्सन, स्टीवन जे गॉल्ड, सूसन सौन्टेग, जान अपडाइक, हैनरी लुइ गेट्स, कैमिली पैगिलिया और अंबर्टो इको के ऊपर आजमा चुके थे। वे जेनेटिक इंजिनियरिंग, मेडिकल साईंस, केमिकल रिएक्शन और एंटी- ग्रेविटी के सिद्धांत के उस्ताद थे। बरसों पहले जिस कंपनी ने आश्वित्ज के लिए जाइक्लोन बी गैस बनाई थी उसी कंपनी की एक लैब ने एक प्रभावी रसायन इजाद किया था – एक ऐसा इंजेक्शन जिसके लगाए जाने के बाद कोई भी आदमी अपनी पकड़ से छुटकारा पा जाता है और इस गैरजुड़ाव को हमेशा कायम रखने के लिए नासा ने एक ऐसे बूस्टर पंप का इजाद किया था, जो किसी भी आदमी की पीठ पर बाँधा जा सकता था। इस पंप का एक ही काम था, गुरुत्वाकर्षण और जड़ों से उखड़े आदमी को उस ऊँचाई तक ले जाना जहाँ से उसकी वापसी मुमकिन नहीं होती।

जब उस मुल्क के इनशापर्दाजों को एंटी-ग्रेविटी के इंजेक्शन लगाए जा रहे थे और उनकी पीठ पर बूस्टर पंप बाँधे जा रहे थे तब पूरी जम्हूरियत चुपचाप सर झुकाए खड़ी थी। क्योंकि अवाम को भी पेप्सी, कोक या पेस्ट्री या बर्गर में कोई ऐसी दवा दी गई थी जो हर चीज को चुपचाप सह लेने की क्षमता बढ़ा देती है।

कतार में खड़े काफिर अब जाने की तैयारी में थे। अगर उनके मुँह पर टेप न चिपका होता तो वे जरूर अवाम से कुछ कहते। एजाज अहमद बहुत गहरी सोच में गुम थे। अरुधंति राय का गला रुँध गया था। मेधा पाटकर की आँखें नम थीं। वरवर राव और गदर ने एक दूसरे का हाथ मजबूती से थाम लिया था। जब उन सबके पैर जमीन से उखड़ गए और वे हवा में कठपुतलियों की तरह हिलने-डुलने लगे, तो सभी ग्लोबलाइजरों और आर.आर. के एजेंटों ने तालियाँ बजानी शुरू कर दीं। मिसेज लिबर्टी ने बहुत दिलकश अदा से हाथ लहरा कर सबको गुडबाय कहा, बदले में वरवर राव और गदर ने अपने बरसों पुराने रियाज को फिर आजमाया और पूरे उस्तादाना अंदाज से अपनी मुट्ठियाँ हवा में उछाल दीं। चूँकि यह उनका आखिरी लाल सलाम था इसलिए उनकी कलाई की नसें उभार और फुलाव के उस मकाम तक पहुँच गईं जहाँ उन नसों का फट जाना लगभग तय था। हुआ भी वही। और खून यथाशब्द उनकी नसों से फूट पड़ा। नीचे खड़े लोगों के चेहरों पर खून के छींटे पड़े जरूर मगर वे पलक झिपझिपाते खड़े रहे। कुछ छीटें शायर के चेहरे पर भी पड़े मगर वह किसी भी तरह के गम और गुस्से का इजहार नहीं कर सका क्योंकि उस वक्त वह जनाजे की नमाज पढ़ रहा था – खुद अपनी ईजाद की हुई नमाज – जो आसमान में उड़ती मय्यतों के लिए पढ़ी जा रही थी।

इस बीच बिल्ले ने पलट कर जनसमूह पर नजर डाली और सबको तालियाँ बजाने का इशारा किया। लोगों ने बिना देर किए तुरंत तालियाँ बजानी शुरू कर दीं। मगर वह लड़की, जिसे कैरी बैग ने अगवा कर लिया था, चुपचाप खड़ी थी। वह चाहती तो भी ताली नहीं बजा सकती थी क्योंकि उसके जिस्म से भी सारे कपड़े उतार लिए गए थे और वह दोनों हाथों से एक हाथगाड़ी को खींच रही थी, जिस पर कॉस्मेटिक्स से भरा वही कैरी बैग लदा हुआ था, जिसने उसे एक दिन सरे बाजार अगवा कर लिया था।

(यह कहानी वास्तविक घटनाओं पर आधारित है और इसका एक भी किरदार काल्पनिक नहीं है। सिवाय उस बिल्ले के जिसे रूसी उपन्यास ‘मास्टर और मार्गरीटा’ ‘ से लिफ्ट किया गया है। – लेखक)

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रद्दोबदल – Raddobadal

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