उस बूढ़े आदमी के कमरे में | आनंद हर्षुल
उस बूढ़े आदमी के कमरे में | आनंद हर्षुल

उस बूढ़े आदमी के कमरे में | आनंद हर्षुल – Us Budhe Aadami ke Kamare Mein

उस बूढ़े आदमी के कमरे में | आनंद हर्षुल

छब्बीस सीढ़ियाँ थीं – उन तक पहुँचने के लिए। पहली सीढ़ी पर ही यह पता चल जाता था कि वे अपने कमरे में हैं या नहीं। उनके खाँसने की आवाज सीढ़ी तक लुढ़कते हुए आती थी और सड़क पर बिखर जाती थी। सीढ़ियों पर ही उस आवाज को पकड़ा जा सकता था। वे घर पर ही थे। वे अक्सर होते थे। बाहर उन्हें अब खींचता नहीं था। वे बाहर से भीतर आए थे और सारे खिड़की और दरवाजे बंद कर चुके थे। इसके बावजूद कि भीतर लगातार हवा की कमी से घुटन बढ़ती जा रही थी और दीवारों के रंग उड़ने लगे थे। उनका ताँबिया चेहरा अब अपनी चमक खो चुका था और उठते-बैठते घुटने बजते थे – कट् की आवाज में, जहाँ से यह भ्रम पैदा होता था कि टाँगें काठ की हो गई हैं।

मैं उन सीढ़ियों पर था, जिनकी ईंटें, पैरों के नीचे वर्षों से आती रही थीं और आधे से अधिक घिस चुकी थीं। मैं एक-एक सीढ़ी पर पूरी तरह सावधान था। मुझे लगा कि एक दिन ये सीढ़ियाँ इतनी घिस जाएँगी कि इन पर फिसलते हुए नीचे उतरा जा सकेगा और इन पर चढ़ना एक मुश्किल खेल होगा। मैं जब दरवाजे पर पहुँचा तो भीतर उनकी हरकत थी। वह एक तरह की धीमी सरसराहट थी – जैसे कोई चीज किसी दूसरी चीज से रगड़ खा रही हो, मैंने सोचा मुझे वापस हो जाना चाहिए। शायद वे बहुत ही निजी क्षणों में हों, पर उन्होंने मेरी साँसों की आवाज पकड़ ली थी। उनके कान बहुत तेज थे जो सूई का गिरना भी पकड़ लेते थे। जिनके करीब बहुत कम आवाजें होती हैं, वे उन सारी आवाजों को पकड़ लेते हैं – जो उनके आस-पास गिरती हैं। वे उन्हें सहेजकर रखते हैं, जैसे बच्चे रंगीन पत्थरों को।

‘कौन?’ उन्होंने कहा। आवाज में बूढ़ी कँपकँपाहट थी। वे अँधेरे कुएँ के तल पर खड़े थे।

‘मैं,’ वे मेरी आवाज पहचानते थे।

दरवाजा खुला। भीतर के अँधेरे से लिपटे वे खड़े थे। उनका आधा चेहरा अँधेरे में गुम था और आधा बाहर बिखरी शाम में नीला था। उन्होंने सोचा होगा मैं उन्हें नहीं अँधेरे को देख रहा हूँ। उन्होंने कहा, पता नहीं, आज बिजली कैसे गुम है, मैं चिमनी ही ढूँढ़ रहा था, वह भी नहीं दीख रही है। उनका चेहरा उस पिता के चेहरे की तरह परेशान था, जिसका लाड़ला लापता हो। मुझे लगा कि वे जब कमरे के भीतर थे तो अँधेरे को भूले हुए थे – वे उसे नहीं देख पा रहे थे, वे चिमनी ढूँढ़ रहे होंगे ऐसा मुझे नहीं लगा। वे अँधेरे से लिपटे उजाला खोज रहे होंगे – मुझे लगा।

तुम्हारे पास माचिस है? उन्होंने पूछा। वे जानते थे, मैं सिगरेट पीता था, जबकि मैंने उनके सामने कभी नहीं पी थी।

मैं कमरे के भीतर था – चौकोर अंधकार में। वे मेरे पीछे थे। तीली के जलते ही अँधेरे का वह चौकोर टुकड़ा, कमरे में बदल गया। तीली की रोशनी तक, उन्होंने चिमनी ढूँढ़ ली थी, जिसे उन्होंने अपने हाथों से तैयार किया था। दवा की शीशी और कपड़े की बाती से। आरामकुर्सी और हिरण की खाल मुझे सबसे पहले दीख पड़े। मैं जब भी आता हूँ, चीजों को ठीक उन्हीं जगहों पर पाता हूँ, जहाँ वे पहले से होती हैं। आरामकुर्सी की पॉलिश और ज्यादा उखड़ चुकी थी और हिरण की खाल के सारे बाल झड़ चुके थे। ऐसा भी समय था, जब मैंने इस हिरण की खाल को देखकर सोचा था कि वह अपने खुबसूरत सुनहरे चक्रों सहित आरामकुर्सी से उठेगा और हिरण होकर कुलाँचें भरता हुआ जंगल की ओर भाग जाएगा। अब आरामकुर्सी पर एक मरी हुई खाल पड़ी थी, जिसके छोरों से कहीं-कहीं हिरण झलक रहा था। उन्होंने चिमनी लिखने की टेबल पर रख दी थी। जिसके ठीक ऊपर कालिख का गोल काला घेरा था। चिमनी हमेशा वे वहीं रखते थे। वह एक बेहतर जगह थी – वहाँ से पूरे कमरे में रोशनी होती थी।

‘इसमें दो घंटे की रोशनी है,’ उन्होंने कहा। चिमनी की लौ में उनका चेहरा लौट आया था। झुर्रियाँ चमक रही थीं – पसीने में डूबकर। उनके चेहरे पर थकी हुई आँखें थीं – जो मुझे टटोल रहीं थीं। एक राहगीर थोड़ी देर सुस्ताने के लिए पेड़ ढूँढ़ रहा था। उन्हें मेरे चेहरे पर कोई पेड़ मिला या नहीं, मैं नहीं कह सकता।

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वे लिखने की टेबल पर, जब चिमनी रखते हुए झुके थे और उनकी पीठ अँधेरे में चमक रहीं थी – जिसमें रीढ़ धनुष की तरह थी, मैं तभी खटिए में बैठ गया था। मुझे बैठने के बाद लगा कि उनसे पहले नहीं बैठना था। वे आकर करीब बैठ गए और मुस्कुराने लगे। वह कुछ बोलने के लिए शब्द खोजती मुस्कुराहट थी। जिसका इससे अधिक कुछ अर्थ नहीं होता – न आगे न पीछे। वह सिर्फ मुस्कुराहट होती है।

‘आपको कहीं बाहर तो नहीं जाना है?’ मैंने कहा। वे फिर मुस्कुराए। उनकी मुस्कान में उनके पुराने दिन थे – जो बीत चुके थे।

अब शहर वह नहीं था जो बीस साल पहले था और वे उसी शहर में जीना चाहते थे। आदमी हमेशा अपने प्रसन्न दिनों की ओर वापस लौटना चाहता है और वे कुछ गलत नहीं चाहते थे। वे इसलिए कमरे से बाहर नहीं जाते थे कि बाहर नया शहर पकड़ लेगा और वे अजनबी हो जाएँगे। पत्नी के मरने के बाद जैसे वह अपने घर में अकेले हो गए थे। लड़के का चेहरा बदल गया था और लड़के की पत्नी के चेहरे को वे पहचान नहीं पाते थे।

कभी यह पूरा घर उनका था और उनके जूतों की आवाज पर काँपता था। पूरी तरह उन तक पहुँचने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता था। न उनकी पत्नी और न उनका लड़का। वे घर को सिर पर उठा लेते, यदि उन्हें अपनी पत्नी की किसी हरकत पर लगता कि यह उनकी अवहेलना है। उनकी पत्नी, घर के किसी अँधेरे कोने में जाकर रोती और लड़का सहमा हुआ माँ की गोद में दुबका रहता। अब वे इस अकेले कमरे में सिमट आए हैं, जो उन दिनों रद्दी सामान रखने के काम आता था। वे उस रद्दी सामान की तरह थे जो ऊपर फेंक दिया गया था। पर वे इसे स्वीकार नहीं करते थे। वे कहते कि मैं एक पुराना टूटा हुआ सोफा हूँ जो बैठक से खुद उड़कर इस कमरे में इसलिए आकर फिंक गया हूँ कि कोई मुझ पर बैठने की कोशिश में गिर न जाए।

उनके पास एक सूट भी था – बहुत सहेजकर रखा हुआ, जिसे वह उस दिन पहनते, जिस दिन उन्हें पेंशन लेने ट्रेजरी जाना होता था। पेंशन के दिन, वे आसमान में सूरज के उठने से पहले उठ जाते थे। वे उस दिन खूब घस-घसकर नहाते और आठ बजे तक सारे कामों से फारिग होकर, सूट डाल लेते। उनके पास आदमकद आईना नहीं था और छोटे-से आईने में पूरा सूट नहीं आ पाता था। वे बहुत देर तक आईने को ऊपर नीचे करते रहते और उनकी देह के साथ उनका सूट भी कई हिस्सों में बँटकर उस आईने में आता था। उनका सूट बमुश्किल सूट लगता। उसमें इतनी तहें पड़ गई थीं कि वे उस मुड़े-तुड़े रंगीन कागज-सा लगता था, जिसका रंग उड़ गया हो। जूता उनके पास नहीं था और वे सूट के साथ चप्पल पहन लेते थे। वे जब बाहर निकलते थे तो उनके हाथों में उनके पुरखों की छड़ी होती जिसकी मूठ पर शेर बैठा होता, वे उसे जब अपने हाथों में झुलाते तो शेर मूठ से उड़कर उनके चेहरे पर आ बैठता था।

वे इस तरह जीवित थे कि लोगों को उनका होना, न होना महसूस ही नहीं होता था। वे जब कभी अपनी छत पर दीखते तो लोगों को उस आदमी का होना दीखता जिसे वे अक्सर भूल जाते हैं। वे अपनी छत से बहुत कम नीचे आते थे। उनकी खिड़की से आसमान साफ-साफ दीखता था और दूसरे घरों की छतें भी, जिनके काले हो गए खपरैलों पर चिड़ियाएँ बैठी रहतीं, वे चिड़ियों को गिनते थे और आसमान में सूरज के बीतने का इंतजार करते थे।

बूढ़ा पागल है – लोग ऐसा मानने लगे थे और उनसे मिलते और बात करते हुए डरते भी थे। उनका लड़का और बहू सोचते थे कि यदि वे पूरी तरह पागल नहीं हुए हैं तो हो जाएँगे। उनका लड़का मकान के निचले हिस्से में रहता था और वे ऊपर छत पर बने एक कमरे में। छत पर जाने के लिए बाहर से सीढ़ियाँ बनवा दी गई थीं। जिस दिन सीढ़ियाँ बनीं, नीचे के हिस्से पर बसने वाले लोग छत को भूल गए और वे उसी दिन से छत से नीचे थूकने लगे। कई बार वे ऐसे समय थूकते, जब उनका लड़का बाहर जाने को निकलता होता। थूक पिच्च से उनके लड़के के सिर पर गिरता और वह उन्हें घूरता खड़ा हो जाता। उन्हें गाली बकने की या कुछ कहने की हिम्मत वह अब भी नहीं कर पाता था। वे भी अपने लड़के को घूरने लगते। उनका लड़का बहुत देर तक, उनसे आँखें नहीं मिला पाता था। वह सिर झुकाकर वापस घर के भीतर चला जाता। वे हलके से मुस्कुराते और एक बार फिर थूककर अपने कमरे में चल देते।

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नीचे से एक औरत की चिड़चिड़ाहट ऊपर उठ रही थी। उसे साफ-साफ सुना जा सकता था। वह शायद अपने बच्चों पर झल्ला रही थी। उनके चेहरे को देखकर मुझे लगा कि वे उस आवाज में शामिल हो रहे हैं, वे बच्चों की तरफ थे। उनकी झुर्रियाँ तनने लगीं और चेहरा लाल हो गया था। मुझे लगा कि वे इसी तरह छत के नीचे बसने वाले अपनों से जुड़ते होंगे। उनकी बहु हमेशा चीखती-चिल्लाती रहती और उनके लड़के के पास जवाब में छोटे-छोटे वाक्य होते – झल्लाहट से भरे हुए। बच्चे जब खिलखिलाते, उन्हें अच्छा लगता। बच्चों को ऊपर आने की मनाही थी, जबकि वे बच्चों से मिलना चाहते थे। वे अक्सर बच्चों को देखने की कोशिश करते और चूक जाते। बच्चों का कमरा उनके कमरे के ठीक नीचे था। उन्होंने एक बार अपने फर्श पर छेद करने की कोशिश की तो नीचे हड़कंप मच गया था। बच्चों के दिमाग में यह बैठा दिया गया था कि बूढ़ा पागल है और चेहरे नोच लेता है।

‘तुम उससे मिले थे।’ वे अपने लड़के का नाम नहीं लेते थे।

‘हाँ, वह नहीं है। मैं इधर से गुजर रहा था, मैंने सोचा कि उससे मिलता जाऊँ।’ मैं बहुत चाहकर भी यह नहीं कह पाया कि उनसे मिलने आया हूँ।

‘वह जंगल में रहता है, उसकी भेड़ियों से दोस्ती हैं।’ उन्होंने कहा।

‘मैं भी उसका दोस्त हूँ।’ मैं मुस्कुराया ।

‘तुम भेड़िए नहीं हो! तुम क्लर्क हो और क्लर्क भेड़िया नहीं हो सकता। ज्यादा से ज्यादा बिल्ला हो सकता है।’ वे कहते हुए मुस्कुराए।

बिल्ला, भेड़िये से डरता है, यह मुझे मालूम था। उनका लड़का और मैं स्कूल में साथ पढ़े थे। फिर वह अफसर हो गया और मैं म्युनिस्पेलिटी में बाबू। उन्होंने हम दोनों को पढ़ाया था। उनका लड़का पढ़ने में मुझसे बेहतर था और मैं अक्सर उनके द्वारा पीटा जाता था।

‘और एक मास्टर…’ मैं सीधे उनके ऊपर आ रहा था।

‘मिडिल स्कूल का एक मास्टर… बिल्ला भी नहीं हो सकता।’ उन्होंने इस तरह कहा जैसे वे बिल्ला हो सकते तो उन्हें अच्छा लगता। उन्होंने किसी का चेहरा कभी नहीं नोचा था। वे उन लोगों में से थे, जिनके पास नाखून नहीं होते, सिर्फ अँगुलियाँ होती हैं।

उन्हें खाँसी का दौरा पड़ गया था। वे दोहरे हो गए। गले की नसें तन गईं और चेहरा लाल हो गया। वे मुझ पर गिरते-गिरते बचे।

आपकी तबीयत आज ज्यादा खराब है। मेरा हाथ उनकी पीठ पर था उन्होंने उसे हलके से हटा दिया। इस तरह कि मुझे बुरा न लगे।

‘यह मेरी आवाज है।’ उन्होंने फूलती साँसों को समेटते हुए कहा।

‘यह खाँसी।’ मैं बन रहा था, जबकि मैं खुद भी ऐसा ही मानता था।

‘हाँ, तुमने सुनी होगी, जब तुम सीढ़ियाँ पर थे।’

‘हाँ, वहाँ वह थी। मैंने उसी से जाना कि आप हैं।’

‘जिंदा है?’ उन्होंने कहा।

‘नहीं… जिंदा नहीं… आपका घर पर होना।’ मैं घबरा रहा था।

‘आप दवा तो समय पर लेते हैं न? मैंने अपने को सँभालने की कोशिश की।

‘हाँ, पर एक उम्र के बाद, दवाएँ असर करना बंद कर देती हैं।’ उन्होंने कहा और अपने हथेलियों को देखने लगे।

मेरे पास कहने को कुछ नहीं था। मैं ऊब रहा था और बाहर जाना चाहता था। बाहर अँधेरा गहरा हो गया था। चिमनी की मरती हुई रोशनी में उनका कमरा छोटा पड़ता जा रहा था। अब उसमें मुश्किल से आधे घंटे का तेल बचा था। मैं सोच रहा था, तेल आधे घंटे में खत्म हो जाएगा तो बाद में अँधेरे में वे रहेंगे। मेरी जेब में रेजगारी थी और थोड़ी दया। वे कोयले की अँगीठी की ओर देख रहे थे जब मैंने यह कहा कि लाइए बाटल दीजिए, मैं तेल ले आता हूँ। यह रोशनी तो कभी भी खत्म हो जाएगी। उन्होंने चौंककर मुझे देखा, फिर चिमनी की ओर, और चुप रहे। मैं घबरा गया – चुप्पी से मुझे हमेशा डर लगता है। उस समय तो और भी अधिक जब सामने वाले की चुप्पी को जवाब होना चाहिए।

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वे खड़े हो गए थे, और अपने हाथों को कमर पर रखकर, पीठ सीधी करने लगे थे। उनके सिर के ऊपर छत पर छिपकली रेंग रही थी। वे उसे देख नहीं पा रहे थे। मैं जहाँ बैठा था, वहाँ से वह साफ-साफ दिख रही थी। मैं डरा कि वह उनके सिर पर न टपक जाए, पर ऐसा हुआ नहीं। वह बाँस की कड़ियों से होती हुई, खपरैलों में गुम हो गई। वे मुझे नहीं देख रहे थे, वे बाहर देख रहे थे, जहाँ अँधेरा सीढ़ियों के नीचे सड़क पर उतर रहा था।

कमरे में अँधेरा होते ही, उनका कमरा धीरे-धीरे काँपते हुए, सीढ़ियों से नीचे उतरने लगेगा और सड़क पर जाकर गिर जाएगा। उसके भीतर मैं और वे, उलट-पुलट गई चीजों के बीच से यह प्रार्थना करेंगे कि कोई मोटरगाड़ी हमारे ऊपर से न गुजरे।

तुम रोशनी तक ठहर सकते हो, मेरे लिए इसकी कोई अहमियत नहीं है, मुझे वैसे भी साफ दीखता नहीं है। वे अब भी बाहर देख रहे थे। मुझे लगा कि मैं चौराहे पर खड़ा हूँ। एक बूढ़े आदमी के स्टैचू के सामने। जिसके चेहरे पर पथरीली लहरदार लकीरों के सहारे उदासी ठहरी हुई है। अचानक बीच चौराहे पर स्टैचू मेरे सामने बोलने लगता है और मैं चौक जाता हूँ। मेरे आसपास भीड़ लग जाती है। मेरे कंधे भीड़ से टकराते हैं और पैर कुचल जाते हैं।

‘महँगाई बढ़ रही है।’ उन्होंने कहा। वे नहीं चाहते थे कि मैं चला जाऊँ। वे बात जारी रखना चाहते थे। उन्होंने एक नया सिरा खोज लिया था।

‘हाँ, मैं अपने कुरते की जेब सात तारीख को उलट देता हूँ, जिससे किसी को यह भ्रम न हो कि मेरे पास अब भी तनख्वाह के पैसे बचे हैं।’

‘मैं तो कुरता ही नहीं पहनता, पर अब मुझे वे पैसे पूरे नहीं पड़ते जो पहले पूरे पड़ जाते थे। वे अपनी पेंशन को कह रहे थे। मैं लिफाफे बनाने लगूँ, तो कैसा रहेगा?’ उनके चेहरे पर बच्चों-सी उत्सुकता थी।

‘लिफाफे!’ मैं आश्चर्यचकित था।

‘हाँ, जो किराना पैक करने के काम आते हैं।’ उन्होंने अपनी दाहिनी ओर अँगुली से इशारा किया, जहाँ पर कुछ किताबों के साथ रद्दी अखबारों का ढेर पड़ा था।

कुछ क्षणों के लिए मैं सोच में पड़ गया। मुझे लगा कि कही ये मुझसे मजाक तो नहीं कर रहे हैं। पर ऐसा नहीं था, वे गंभीर थे। वे सच में ऐसा कुछ करने की सोच रहे थे… पर उसमें तो आपकी पुस्तकें भी हैं… उन पुस्तकों को मैंने अपने स्कूल के दिनों में पढ़ा था। वे हमारे कोर्स में थीं।

‘अब उन्हें कौन पढ़ेगा, वे पुरानी हो चुकी है, जैसे मैं।’

‘आप लिफाफे बना लेते हैं?’ मैं पुस्तकों को लेकर बहस नहीं करना चाहता था।

‘मैंने बचपन में यह काम खूब किया है। मैं अपनी पढ़ाई का खर्च इसी से निकालता था।’ वे बहुत खुश थे। उनके चेहरे पर चहचहाती हुई चिड़ियाएँ थीं।

‘तुम चाय पीना चाहोगे। मैं पीना चाहता हूँ।’ मैं नहीं न कर दूँ, इसलिए उन्होंने अपना पीना छोड़ दिया था।

‘पर अँगीठी जलेगी कैसे, तेल तो है नहीं।’ मैंने कहा।

‘कुछ लिफाफे कम बनेंगे।’ वे मुस्कुराए और अँगीठी की ओर बढ़ गए। कमरा धुएँ से भरने लगा तो मैं कमरे से बाहर आ गया। वे भीतर अँगीठी से जूझते रहे। धुआँ उनके लिए खतरनाक हो सकता है। जब मैं यह सोच रहा था, उन्हें खाँसी का दौरा पड़ा। मैं भीतर गया तो वे दीवार पर लुढ़के हाँफ रहे थे। कमरा धुएँ से भरा, मुझे हाँफता हुआ-सा लगा।

‘मैं चाय नहीं पीना चाहता।’ मैंने कहा।

‘तुम डर गए हो।’ वे हाँफते हुए मुस्कुराए।

यह सच था – मैं बहुत डर गया था।

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