ठेकेदार | चित्रा मुद्गल
ठेकेदार | चित्रा मुद्गल

ठेकेदार | चित्रा मुद्गल – Thekedar

ठेकेदार | चित्रा मुद्गल

कच्ची-पक्की रोटियाँ पेट में पँसेरी के बाँट-सी भारी हो रहीं।

कोई उपाय नहीं था।

सिंकती तो कैसे सिंकती?

बातियों वाले स्टोव की बातियाँ धुआँ छोड़ रही थीं।

मिट्टी के तेल सा गंधाता दमघोंटू धुआँ। मुर्झाती आँच तवे की पीठ से चिपक उसे गर्माती तो कैसे।

रामेसुर कक्का ने उसकी मुश्किल भाँप कर टोका था, ‘लोई भारी कर लो चकले पर। मिट्टी का तेल खतम हो रहा है स्टोव की टंकी में।’

फिर अपनी परेशानी बयान की थी उन्होंने।

इस समय मिट्टी के तेल का इंतजाम होने से रहा जो भी इंतजाम हो सकेगा, संझा बेरिया घर लौटते में ही हो सकेगा। कबाड़ी की दुकान से बोतल खरीदनी होगी। उसी बोतल में नुक्कड़ के जैन स्टोर से मिट्टी का तेल भरवाना होगा। उसके आने के ठीक एक रोज पहले तड़के घर का दरवाजा खुला पाकर ससुरी बिलरिया घर में घुस आई और मिट्टी के तेल की अधभरी बोतल लुढ़का गई। चिंदी से फर्श पर फैले तेल को निचोड़ने की बड़ी कोशिश की उन्होंने, उनसे ज्यादा फर्श भूखी-प्यासी थी, सो चुल्लू भर तेल नहीं बढ़घरा। उनके अकेले की खातिर लीटर भर की बोतल हफ्ता भर चल जाती है। अब खर्च दोगुना हो जाएगा। खाना भी तो दुगना बनेगा। अनाज-पानी दुगना लगेगा, सो अलग।

चिंता की कोई बात नहीं। उन्होंने स्वयं अपने को आश्वस्त किया था। उसे ढाँढ़स दिया था, कौन बूझे। बहरहाल उन्होंने उसकी मजबूरी स्वीकारी थी। उनके भरोसे जब वह दिल्ली शहर आ ही गया है तो एक से दो भले, धंधे पर से लौटने में घर काटने नहीं दौड़ेगा। कोई तो होगा घर में एक-दूजे की बाट जोहने वाला। ‘लरिका मेहरिया बिना कोठरी जेल लगती है, छेदी।’

दिल्ली आए हुए और मयूर विहार फेज-1 से सटे इस चिल्ला गाँव के गजेंद्र सिंह गूजर के ठियाँ एक कमरा किराए पर लेकर रहने वाले जवार के घुमंतू रामेसुर नाई के घर पहुँचे हुए उसे अभी हफ्ता पूरा नहीं हुआ।

पहले दो रोज रामेसुर कक्का उर्फ रामेसुर नाई ने सुबह साँझ खुद ही खाना बनाकर हुलस-हुलस कर खिलाया था उसे। समझाया भी था।

चूल्हा फूँकना और बातियों वाले स्टोव पर खाना बनाना-अलहदा बात है। जितनी फुर्ती से वह स्टोव जलाना सीख लेगा, उतनी जल्दी वह दिल्ली शहर की आबोहवा में खुद को खपा लेगा।

आराम से रहे छेदी। सही ठिकाने डेरा डाला है उसने, गाँव-जवार का अपनापा मामूली बात नहीं। शहर में दुर्लभ है यह अपनापा। इधर उन्हें भी कोठरी का बढ़ा हुआ किराया अखर रहा है। दूर घर ले लें तो जमे-जमाए हजामत के ग्राहकों से नाता टूट जाएगा। अब चिंता कटी। साथ रहेंगे तो खर्च-पानी बाँट लेंगे। मिल-बाँटकर पहले भी औरों के साथ गुजर हो सकती थी। नहीं हुई तो इसी सोच-विचार के चलते कि बड़के बेटवा को दिल्ली लाना है। दिल्ली में पढ़ाना है। दुनिया भर से लोग बाल-बच्चों को दिल्ली पढ़ने भेजते हैं। एक नए-अनोखे का उनका बड़का है कि प्रत्येक कक्षा में नींव मजबूत करने पर तुला हुआ है। महतारी ऊपर से उसे दुधमुँहा बनाए हुए है।

रामेसुर कक्का ने अगली रात सुझाया था उसे।

बूड़ा खाई नदी-सी मुसीबतें गले तक चढ़ी हुई हैं। कामकाज इस इलाके में लगभग नदारद ही समझो।

पड़पड़गंज से लेकर अशोक नगर तक बस्तियाँ एक-दूसरे पर बिछ चुकी हैं। यमुना पुस्ता को सरकार छूने से रही। खेती-बारी की जमीन ठहरी।

रोजी का डौल आसानी से है कहीं तो केवल इंदिरापुरम के आसपास।

टेंट में जमापूँजी होती थोड़ी बहुत तो निश्चित ही तनिक भी डाँवाडोल हुए उसे वहीं ठौर-ठिकाना खोज लेने के लिए कहते।

साहबों की कालोनियाँ बहुत हैं मगर साहबों की कालोनी के साहब लोग फुटपाथों पर किराए का ठेला नहीं लगाने देते। उनकी ऊँची रिहाइश का शो मारा जाता है। उनकी कालोनियों का शो बनाए रखना म्यूनिसपैलिटी भी अपना धर्म समझती है। चौका-बासन की चाकरी मेहरारुओं को खूब मिल जाती है। वह ठहरा तगड़ी कद-काठी वाला। फिलाटों में कौन घुसने देगा उसे।

“बिना नकदी के एक काम हो सकता है?”

“करेंगे न!”

“करोगे तो कहें?”

“कहा न, करेंगे। बइैठ को खाने तो आए नहीं यहाँ।”

“शुरुआत में अमेठी से आए के हमको भी करना पड़ा था मजबूरी में।”

“मजबूरी न होती तो हम काहे देहरी छोड़ते!”

अम्मा लपककर आ खड़ी हुई थी आँखों के सामने।

“चुपचुप, मजबूरी न भकुर देना लाल पेट में पचाए रहना।”

“सुने थे – तुम भी किसी के यहाँ काम से लगे हुए थे, छेदी।”

दिल धड़का। इतनी जोर से कि छाती के ऊपर ‘धक्’, ‘धक्’ होने लगी। बात बनानी होगी।

“जिऊ ऊब गया रहा वहाँ। खूँटे की भैंसिया हो रहे थे। छूट थी हुँआ तो बस, गड़ही में नहाने भर की।”

“परदेस का लालच मुंबई ढकेल रहा था। अम्मा बोलीय जाना है तो फिर दिल्ली न चले जाओ। जवार के रामेसुर नाई है हुँआ।”

प्रसन्न हुआ। झूठ बोलते हुए जुबान रत्तीभर नहीं लटपटाई।

अगले पल ही स्वयं को ललकारा उसने, ‘पूरा झूठ कहाँ बोला? फिर उसके झूठ से किसी और का नुकसान होने से रहा।’

रामेसुर कक्का उठके कमरे की दीवार से टिकी फोल्डिंग खटिया उठाने लगे तो वह भी उठकर खटिया बिछवाने में उनकी मदद करने लगा।

कक्का काम बता क्यों नहीं रहे?

खटिया चौड़ी थी। जबसे आया है, न उन्होंने उसे साथ सो रहने का आग्रह किया, न उसने कोई उत्सुकता जताई कि नीचे सोना उसके लिए कष्टदायक होगा। गाँव में नाई ऐसी हिम्मत नहीं कर सकते। साथ लाया खेस बिछा लिया था फर्श पर और उनसे ओढ़ने को चादर माँग ली थी। चादर शायद एक ही थी उनके भर के लिए, सो उन्होंने अपना घिसा तहमद आगे बढ़ा दिया था। तहमद में उसकी देह क्या अटती, सो उसने तहमद बिछाकर खेस ओढ़ लिया था। होली जले महीना होने को आया है मगर रात जाने पूस का दामन क्यों पकड़े बैठी हुई है। गाँठ लिया है मन में मजूरी मिलते ही एक-दो कंबल खरीद लेगा अपने लिए।

कक्का खर्राटे भरने लगे। इसके पहले उसने उन्हें टोहने की कोशिश की।

“काम बताया नहीं आपने, काक्का?”

फोल्डिंग खटिया पर रामेसुर कक्का उसकी करवट हुए।

“हम झिझक गए – “

“देखो छेदी – जवार में कुछ उल्टा-पुल्टा न पो देना हमारे खिलाफ’।”

“हम पर विश्वास नहीं का! काम तो बताओ। कोई जबरई थोड़े ही है।”

“ढोलक बजा लेते हो?”

विस्मित हुआ “माने?”

“माने, गवनई में मेंहरिया ढोलक बजाती है ना।”

“हाँअ, बजाती है।”

“तुमने बजाई है कभी?”

“फाग में एकाध दफे बजाया है।”

“सिखा दिया जाए, तब बजा लोगे न।”

अजीब सिरफिरे हैं रामेसुर कक्का! भाँड़ है वह? ढोल-मँजीरे से उसे मतलब? जानते नहीं। ठकुरन की औलादें नाचती नहीं, नचवाती हैं।

असमय उसके बप्पा स्वर्ग सिधार गए। खेत-खलिहान पितआउत बाबा हड़प गए। बेबस है। चाकरी करनी पड़ गई गौरीगंज वाले नेताजी के ठिया।

अम्मा फिर आ खड़ी हुई आँखों के सामने, “चुप, चुप, लाला – “

“किस सोच में पड़ गए छेदी?”

समय की नजाकत ने घेरेबंदी की।

“सीख काहे नहीं लेंगे।”

फोल्डिंग खटिया हिली। कक्का ने पाँव नीचे हिलगा लिए।

उनके उठकर बैठते ही वह भी बिछे तहमद से उठ लिया।

पक्की फर्श जगह-जगह से उधड़ी हुई है। पीठ में भसके खपरेलों-सी चुभती है। तहमद में बिछावन का दम है नहीं। करवट भरते ही बटुर जाता है।

रामेसुर कक्का का स्वर सहसा खुसफुसाहट में बदल गया।

बात उस तक तो पहुँचे मगर दीवार न सुन पाए।

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कक्का बताने लगे।

यह इलाका छोटा नहीं है, पास में पड़पड़गंज है। पड़पड़गंज के दाहिने चले जाएँगे तो आगे रेलवे लाइन के किनारों से सटी गझिन बस्ती है मंडावली।

उत्पाती इलाका है मंडावली।

चौरासी के दंगों में हुए खून-खराबे को अंजाम देने में सबसे अव्वल। वहीं रहती हैं पुष्पा बुआ। उस इलाके के हिजड़ों की मंडली की सरदार।

देश को आजादी दिलाने वाली पुरानी राजनीतिक पार्टी के एक जबर नेता की बहुत करीबी।

उनके जिंदा रहते पुष्पा बुआ की इलाके पर जबरदस्त पकड़ थी।

परसों अचानक पुष्पा बुआ से उनकी भेंट हो गई। चिल्ला गाँव से लगे साँई बाबा के मंदिर की सीढ़ियों के नीचे। दल-बल के साथ।

उन्हें देखते ही पुष्पा बुआ की बाँछें खिल गईं। हुलसकर तालियाँ बजाते हुए उलाहना दिया उन्होंने। ‘आए हाय कमीने हज्जाम के। तैने तो मरे सुध लेनी ही छोड़ दी। पहले तो छठे-छमासे दाढ़ी-मूँछ मूँड़ने के बहाने झाँक जाया करता था, हो गया अब ईद का चाँद। दिन भूल गया अपने तू?”

साफ झूठ जड़ा उन्होंने। महीने भरके लिए गाँव गए हुए थे बुआ। चारा काटते गड़ाँसा मेहरारू के अँगूठे पर पड़ गया था।

ताली पीट पुष्पा बुआ ने उनके मखौरे पर धौल जमाई, ‘हाय, हाय तो तू गया था लुगाई के पेटीकोट का नाड़ा बाँधने। बाँध आया?’

पुष्पा बुआ की चुटकी ने उन्हें अपनी मेहरारू के पास पहुँचा दिया। फुरहरी सी व्याप गई शरीर में। जाने कब बनाबंत बनेगा गाँव जाने का।

बुआ कैसे आईं इस ओर?

बुआ ने अपनी लाचारी की गिरह खोली।

”आए हैं अर्जी लगवाने। विधायकजी के दाहिने हाथ बलविंदर सिंहजी के पास। सो लगा आए।”

बेरोजगार जवान-जहीलों का भत्ता देने की सोच रही सरकार। विधवाओं और बूढ़ा, बुढ़वों को पेंशन दे ही रही है, तो भला हमारी बिरादरी किसके आसरे जिए? ढली उमर हम भटकने से रहे। ऊपर से राह चलते हाथ पसारो तो मुँह पर आँखन से थूकते हैं लोग। हाय, हाय, हमारी कौन भूल, कहीं का न रख, गलती विधाता ने की है, सरकार सुधारे। पेंशन हमें भी चाहिए, गुजर-बसर के लिए।

”ना सुनी, तो जंतर-मंतर पर धरना देंगे। बाबा रामदेव से बात करने जा रहे हैं हरिद्वार।”

“चलो छोड़ो हमारी कहानी। तू बता अपनी खैरियत ऐह, तेरा उस्तुरा चल रहा है न! न चल रहा हो तो कौन सरम। आ जाना हमारे ठिकाने। वो हुसैन ढोलकिया था न, जिसकी थाप पर तुम भी ठुमुकियाँ भरने लगते थे, गाजियाबाद से टिरक के नीचे आ गया। कच्ची ले गई उसे अपने पल्लू में बाँध। करमजला पूरी बोतल उतार लेता था। अक्ल काढीकरा, कभी समझाए, समझा नहीं।”

बुआ की आँखें भरभरा आईं।

बताते हुए रामेसुर कक्का ने कुछ पल की चुप्पी ओढ़ी। हुसैन की दर्दनाक मौत के जिक्र से मन भारी हो आया होगा।

फिर मुँह खोला।

“सुनो छेदी। गलत न समझना कि तुम हम पर भारी पड़ रहे हो, इसलिए सलाह दे रहे हैं, खाली बैइठने से अच्छा है, पुष्पा बुआ के पास ढोलकिया का काम धर लो। तीन-चार हजार नकदी जुड़ जाएगा, तब काम छोड़ देना। पाँव रिक्शा चला लेना। चलाने को अब भी चला सकते हो मगर फिर वही बात। ठेकेदार के पास से बिना डिपासन के रिक्शा मिलने से रहा। उड़ा रखा है हिजड़ों के बारे में आएँ-बाएँ। पुष्पा बुआ उसूलों वाली है। नाजायज कामों से दूर। विचार कर लो। वही होगा जो तुम चाहोगे।”

कक्का फोल्डिंग खटिया पर पसर गए।

मजबूरी में किसी मनई का गू खाना पड़ जाए तो वह दूसरे को कैसे सीख दे सकता है कि तुम पर भी मजबूरी की तलवार-सी टँगी हुई है, छूटते ही तुम भी गू खा लो!

वह भी लड़िका-बच्चा वाले कक्का सुझा रहे हैं।

भगवान न करे कल को उनका बड़का पढ़ाई-लिखाई को अँगूठा दिखा बुरी सोहबत में कुछ दाएँ-बाएँ कर बैठे और जेहल की हवा खाने के डर से घर से भाग अनजाने सहर में किसी के आसरे जा टिके, वहीं कोई उसे ऐसी गिरी सलाह दे तो क्या उसे मान लेनी चाहिए।

कक्का सो चुके हैं। खर्राटे गवाही दे रहे हैं। उसकी नींद उड़ चुकी है। कक्का को नींद से झकझोरकर उठाया नहीं जा सकता, वरना उन्हें जगाकर कह देता, मजबूरी है। तभी वह अपनी जाति-बिरादरी का दंभ छोड़ ईंटगारे का तस्ला ढो लेगा। रेहड़ी लगा लेगा। चौकीदारी कर लेगा। पाँव रिक्शा खींच रिक्शा वाला कहला लेगा। कुछ भी, कैसा भी, दो कौड़ी का काम कर लेगा लेकिन यह नहीं हो पाएगा कि किसी हिजड़े की शरण में जा गिरे। उनके पास आकर ठहरा है तो गाँवों में नाई को नाई ठाकुर कहकर पुकारा जाता है। पुष्पा बुआ इतनी ही दूध की धोई हैं तो कोई पूछे कक्का से कि उन्हें काहे हुड़क मची उनसे जुदा हो अपना काम करने की। बकसिया उठाकर गली-गली घूमने की।

सुबह उसने चाय का गिलास कक्का को पकड़ाते ही कह दिया उनसे।

आसरा दिया है उसे तो उस पर एक किरपा और कर दें। कहीं से उसे ब्याज पर पंद्रह सौ रुपिया उधार दिलवा दें।

दो रोज पहले कक्का ने ही बताया था उसे, “पंद्रह सौ रुपिया डिपासन के भरकर ठेकेदार से रिक्शा किराए पर लिया जा सकता है। तसवीरों वाला आईकारड भी बनवाना पड़ेगा। दो फोटो चाहिए होंगी। बीस रुपिए में तीन बन जाएँगी उसकी।”

चाय सुड़कते हुए कक्का गले से सूखे ही बने रहे। ‘हूँअ’ भरका क्या मतलब निकाले वह?

बात उसने फिर से दोहराई।

कक्का के बकसिया उठाते ही चौथी बार दोहराई।

अबकी असर हुआ उन पर। मुँह खुला उनका।

“कुछ कहेंगे छेदी तो तुम फिर बैठे-बिठाए नाखुश हो जाओगे। कहते नहीं हो मुतला सच छिपाए, छिपता थोड़े ही है।”

“नाखुश काहे होंगे?” रटा-रटाया-सा दोहराया उसने।

“समझो, चिल्ले में कोई तुमको जानता नहीं। ब्याज पर रकम किस भरोसे देगा? हमारे भरोसे। तो जान लो। लेन-देन का व्यवहार चिल्ले में हमने कभी किया नहीं। सो खरी बात। ब्याज पर रकम पाने के लिए तुम्हें पुष्पा बुआ के ठियाँ मंडावली चलना होगा।” पक्का नहीं कह सकते। मुतला हो सकता है। हमारे भरोसे तुम्हें उधारी देने को राजी हो जाए। जा रहे हैं बगल में ही निर्माण विहार। लकवा मारे गुप्ता बाबू की दाढ़ी-मूँछ बनाने। निर्माण के गेट पर चौकीदार तिवारी से पूछ लेंगे उसकी एजेंसी का अता-पता। चलकर तुम्हारा नाम लिखवा आएँगे। बताता है तिवारी बाईस सौ तन्खाह है महीने की। आदमी एजेंसी वालों को सही चाहिए। गाँव-घर का अता-पता ले जाँच-पड़ताल होने के बाद ही रखते हैं।”

“डर काहे का। डरें बारदाती।”

अम्मा आँखों के सामने आ खड़ी हुई।

“तुम तो कक्का, रिक्शे का जुगाड़ कर दो बस। रिक्शा ही चलाएँगे। रात-विरात की डियूटी करनी पड़ती है चौकीदारी में।”

“ठीक है। लौटती बेर ठेकेदार के ठिकाने होते हुए आएँगे। फिर चलेंगे मंडावली।”

“हाँअ – पकड़ो दुई रुपिया पव्वा भर आलू अउर खाए भर की रोटी सेंक के धर लेना। घर आके चलेंगे मंडावली।”

कहकर कक्का निकल लिए।

नींद ने रात दुश्मनी निभाई। सो फोल्डिंग खटिया खोल के आराम से सोएगा तीन-चार घंटा। साँझ से पहले खाना बनाकर रख लेगा। खटिया उड़नखटोला है। कमाई हाथ में आते ही फोल्डिंग खटिया भी खरीदेगा। अम्मा के लिए एक ठों गाँव भी ले जाएगा।

गाँव! जाने कब जाएगा!

पच्चीस गज में बने दो तल्ले के छोटे से घर के आगे बने चबूतरे पर आरामकुर्सी पर बैठे, खिजाब से बाल लाल किए अउर चेहरे पर इमरती सी केशरी मिठास रचाए जिसने ताली देते हुए रामेसुर कक्का का लहककर स्वागत किया, कक्का ने लपककर उसी के पाँव छू लिए। उसे भी उनका पाँव छूने का इशारा किया उन्होंने। झिझका। हिजड़े के? समझ गया। रामेसुर कक्का की यही पुष्पा बुआ हैं।

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उसके पाँव छूते ही पुष्पा बुआ ने आँखें मटका रामेसुर कक्का को झाड़ा, “तू अब ढोलकिया लेकर आया है? अब जरूरत नहीं। ये अपना घासीराम जेल से लौट आया है। चौरासी में बंद हुआ, अब जाके छूटा है तिहाड़ से। हुसैन का कमाल देखा है हज्जामिए तूने, घासीराम की थाप पड़ते ही ढोलक नाचती है ढोलक।”

घासीराम की ओर उसने दबी आँख से देखा।

बुआ की आरामकुर्सी से सटा बैठा। तपे तांबई चेहरे पर खूँखारियत अँजी आँखें उसके अबोले भी बहुत कुछ बोल रही थीं।

चिलकी झुरझुरी को परे ढकेल वह प्रसन्न हुआ। पुष्पा बुआ को ढोलकिया मिल गया।

कक्का बुआ के गोड़ों से सट लिए, वह उनकी बगल में।

उल्टी रामायण बाँचनी शुरू कर दी कक्का ने।

“छेदी को बुआ के पास उनकी सेवा-टहल की खातिर ही लेकर आए थे। घासीराम आ ही गया है जेहल से तो अब उसका क्या काम! बस उनकी परेशानी बढ़ गई। कितने दिन बैठाकर खिलाएँगे छेदी को? विचार आया है। उसे साइकिल-रिक्शा न दिलवा दें किराये पर चलाने के लिए। रिक्शा मिलने में कौन सी मुश्किल। मुश्किल एक ही है। डिपासन का पंद्रह सौ रुपिया। न छेदी के पास कानी कोड़ी है, न उनके पास कोई डौल। गाँव से लौटे हैं कुछ रोज पहले। मेहरारू को सौंप आए हैं जमा पूँजी। एह ही उपाय नजर आ रहा है। पुष्पा बुआ मदद कर दें तो समस्या का हल निकल आएगा। उन्हीं का आसरा है। हाथ जोड़ दिया कक्का ने। देखा-देखी उसने भी।”

“आय हाय, पैसे की ही तो मारामारी है।” बुआ ने ताली पीटी।

“हम तो आपके भरोसे हैं बुआ।” कक्का गिलगिलाए। ‘उबार लो।’ सूद समेत मूल ईमानदारी से लौटाएगा छेदी, हम जिम्मा लेते हैं।

“हज्जामिए, नेताजी क्या गए, हमारी बरकत छिन गई। कमाई ठंडी पड़ी हुई है। बच्चा गिरवाते ज्यादा हैं लोग, पैदा कम करते हैं। गए नहीं थे उस दिन पेंशन की अर्जी देने! तुम आए हो ठियाँ हमारी बात रखने की खातिर तो हमें भी तुम्हारे लिए सोचना ही होगा। लौंडा गया हुआ है लेकिन जरूरत अब रही नहीं।”

देखो, रामेसुर, सौ पर पचास रुपिया महीना सूद देना होगा। पंद्रह सौ रुपिया के होंगे साढ़े सात सौ रुपिया महीना सूद के। नागा हुआ तो सूद भी मूल से जुड़ जाएगा। फिर बढ़े मूल पर उसी हिसाब से सूद देना होगा। मंजूर तो बोलो, हाँअऽऽ कान खोल लो अपने। धोखा देने की जुर्रत महँगी पड़ेगी।”

पुष्पा बुआ ने घासीराम के सिर पर हाथ रखा तो घासीराम की आँखें उस पर आ अटकीं।

साँप की आँखों में उसकी छवि कैद हो गई।

कक्का ने पुष्पा बुआ के गोड़ों को श्रद्धा से छुआ। “कभी भरोसा टूटा है जो आगे तोड़ेंगे बुआ। रोजाना की कमाई डेढ़ दो सौ से कम न होगी। रिक्शा का किराया निकाल मूल और सूद की बाकायदा गुल्लक बनवा देंगे छेदी की। एकदम निश्चिंत रहें बुआ। आपका ही बच्चा है।”

रामेसुर कक्का ने उठते ही तीन बार बुआ के पाँव छुए तो उसने भी आज्ञाकारी बालक की भाँति उनका अनुसरण किया।

साइकिल-रिक्शे के पहिए तनिक भारी चल रहे हैं।

ग्रीस माँग रहे।

पहली कमाई से बिना भूले एक डिबिया ग्रीस खरीदकर लाकर रख देगा घर में।

अब जरूरत पड़ती ही रहेगी। भारी पैडल मन-मन भर के हो उठते हैं – खींचते दम फूलता है।

गोड़ ऊपर से चिलकते हैं। अम्मा पास हैं नहीं कि कड़घवा तेल तताकर पिंडलियों में मल दें।

“जय-जय-जय हनुमान गोंसाई, कृपा करो गुरु देव की नाई।”

पैडल मारते हुए वह लगातार हनुमान चालीसा का जाप करता रहा।

पहला दिन है। अम्मा होतीं तो गुड़ की भेली का टुकड़ा मुँह में धर देतीं। “ठहर रे, मुँह मीठा किए बिना कैसे जाएगा।”

आज है सोम, कल है मंगल।

कौन ठिकाने मिलेंगे हनुमानजी? किसी से पूछ-पाछ माथा नवा आएगा। परसाद भी चढ़ा देगा। फिकर कैसी? कल तो हाथ छूँछे रहेंगे नहीं।

बहुत कुछ बदल जाएगा।

सुबह पीतल के लंबोतरे गिलास में चाय सुड़कते हुए उसे तनिक खिन्नता हुई थी।

गाँव में लोग बदल रहे हैं मगर रामेसुर कक्का वहीं के वहीं ठहरे हुए हैं। गाँव की बात ओर है। दिल्ली शहर में रहकर गिलास में चाय?

ढब बदलने से बदलता है। सुनकर रामेसुर फुन्न हो गए – खरीदने को तो हम आधा दर्जन रंग-बिरंगे कप खरीदकर रख लें मगर टूट-फूट का खर्च कौन बरदाश्त करेगा। दिल्ली शहर में पइसा जोड़ने आए हैं छेदी, उड़ाने नहीं।

बटिया पर पानी के हल्के छींटे दे-देकर उस्तुरे को लगातार धार देते हुए रामेसुर कक्का ने उसे प्रवचन से नहला डाला था। घर के सयाने की तर्ज पर।

अम्मा ने ही तो उनका अता-पता लाकर थमाया था और उसे रातोंरात घर से रवाना कर दिया था, “सुन, अजुध्याजी से तुझे दिल्ली के लिए सीधी गाड़ी मिल जाएगी। फौरन निकरि ले। हाथ लग गया तो गौरीगंज वाले नेताजी तुझे जेहल करवाकर ही छोड़ेंगे।”

“सोऽऽ” कक्का। उमंग से भरे हुए थे, सौ बात की एक बात गाँठ बाँध लेओ छेदी। यहाँ तुम बस अपने काम से काम रखना। जयादा किसी से चूँ-चपड़ करना ठीक नहीं। इलाके से अभी कोई विशेष मुलाकात तुम्हारी हुई नहीं है। सो पते की सलाह है। फिलहाल मयूर विहार एक्स्टेंशन वाले मेट्रो स्टेशन से ही सवारियाँ ढोना तुम। दिक्क नहीं होओगे। भला, आसपास की सवारियाँ होंएगी तो दिक्कत कैसी? किराया भी बंधा हुआ मिलेगा। मोलभाव की झिकझिक नहीं। जहाँ का रास्ता न जाना पहचाना हुआ हो तो बेझिझक अटपटाने की बजाय सवारी से ही पूछ लेना भैया, सीधे हाथ को निकलना है या दाएँ-बाएँ मुड़ना है।

“विशेष बात एक अउर। सवारी लड़की हो तो कान को हाथ लगाना, सीटी न बजाना।

दिल्ली शहर की लड़कियाँ राम भजो, ततैया होती हैं ततैया। समझ में आया कुछ?”

चुटकी से उस्तरे की धार को छूकर रामेसुर कक्का ने धार की तेजी परखी, प्रवचन बदस्तूर जारी रखते हुए, आसाराम बापू को मुकाबले में उतार दिया जाए तो शर्तिया उन्हें पछाड़ कर ही दम लेंगे।

“हाअं तोऽऽऽ ठीक पाँच बजे तक रिक्शा मयभाड़े के ठेकेदार को लौटाना होगा।

न हो तो ऑटो रिक्शा चलाने वालों से टाइम पूछ लेना। उनकी कलाई में घड़ी बँधी रहती है। घड़ी सवारी के हाथ में भी रहती है। यों तो दस-पंद्रह मिनट इधर-उधर हो जाएँ तो कउनो हर्जा नहीं। सवारी को अधबीच थोड़े ही उतार देंगे।

सावधानी रखना भैये। रिक्शा खींचते-खाँचते विपदा सी टूटी कउनो मरम्मत आन पड़ी तो जबानी एग्रीमेंट के मुताबिक उसका खर्चा अपनी अंटी से देना होगा।

मरम्मत में कोताही हुई नहीं कि खर्च से दस गुना ढाँण भरना पड़ेगा। समझ में आ रहा है न!

एक और काम की बात। चक्कर मार लेने में कउनो हर्जा नहीं।

दुपहरिया में भूख लगे तो अपने चिल्लागाँव की इंटरी से जो सीधी सड़क मद्रासी मंदिर, वो क्या कहते हैं उसे गुरुवायुर टेंपल गई है न, वहाँ पूजापाठी दयालु तकरीबन रोजाना भिखारियों को हलवा-पूड़ी के पैकेट बाँटते रहते हैं। भिखारी हमने मद्रासी मंदिर के सामने कम ही फटकते देखे हैं। रिक्शे वालों की पाँत जरूर लगी दिखी। सो जैसे ही तुम्हें वहाँ दो-चार रिक्शेवाले खड़े दिखाई पड़ें, पट्ट से तुम भी रिक्शे समेत पाँत में लग लेना।

पचास रुपया सैकड़ा ब्याज पर तुमने डिपासन की रकम उठाई है पुष्पा बुआ से। हिजड़ों से वादाखिलाफी महँगी पड़ती है। सो शौक छोड़ चुकता होने तक पाई-पाई दाँत से पकड़ना।

समझ में आया कुछ।”

रामेसुर कक्का के धाराप्रवाह प्रवचन को मैले पायजामे की जेब में खनकाते हुए, मुँह पर रह-रह झिनकती हुई सकुचाहट को उसने परे धकेला और मयूर विहार एक्सटेंशन मैट्रो स्टेशन की मुख्य सीढ़ियों से हटकर, ग्लैक्सो सोसाइटी से सटे फुटपाथ से सटी खड़ी लंबी रिक्शे की पाँत में अपने रिक्शे समेत जा खड़ा हुआ।

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पुल पर से आती-जाती मैट्रो की रफ्तार की सधी सुरीली ‘सुरऽऽऽ फुरऽऽऽय की रेशमी सरसराहट उसके जी को गमका गई।

किवाम और 120 नंबर बाबा छाप के साथ देशी पत्ते की गमक सी। पुल पर चढ़कर अभी तक खंभों पर टिका प्लेटफार्म नहीं देख पाया है।

सुना है, सवारियों का रेला मैट्रो में चढ़ता-उतरता है तो परियों के मुँह सा तैरता हुआ।

सवारियों की सुविधाओं के लिए फीडर बसें चलाई गई हैं।

शायद यही सोचकर। दूरदराज की कालोनियों की सवारियों को मैट्रो तक पहुँचने में अड़चन न हो।

अड़चन फिर भी है। फीडर बसों की दिशाएँ तय हैं।

उन दिशाओं से दूर, बहुत दूर भीतर बसी कालोनियों की सवारियों की मुश्किलें फीडर बसें हल नहीं कर पा रहीं।

ऐसे में रिक्शेवालों को मैट्रो स्टेशन के सौंदर्यीकरण को भुलाकर वहाँ खड़े हो सवारियों को लाने-ले जाने की सुविधा-सहूलियत दे दी गई है। विकास के साथ आमजन को जोड़कर न चलने की तोहमत से भी तो दिनोंदिन अमीर हो रही सरकार का बचना जरूरी है न!

पाँत छोटी नहीं हो रही, उसका नंबर आगे बढ़ रहा है। जैसे-जैसे सवारियाँ मैट्रो की सीढ़ियाँ उतर रिक्शा पकड़ने बढ़ती हैं, उसका भी नंबर जल्द ही आएगा। प्रसन्न मन तानें लेने लगा।

“तू हमरी अटरिया रात काहे न आई गोरिया – तू हमरी अटरिया – “

दिल्ली वाली छोकरियों को देख सीटी नहीं बजा सकता तो क्या गाँव की गोरियों को भी याद न करे।

किवाम और 120 नंबर बाबा छाप के साथ देशी पत्ते की गमक फिर फुरफुराई।

ठेकेदार को रिक्शा सुपुर्द करते ही एक-दो बीड़ा खा लेगा घर की बगल में पान का ठेला लगाने वाले चौरसिया से।

ना, ना, ना। किवाम की गमक को रामेसुर कक्का से कैसे छिपाएगा।

तभी उसके निकट सहसा खाकी वर्दी का डंडा खटका।

“अबे ओऽऽऽ मुँह बाए अगल-बगल किसे ढूँढ़ रहा? नया-नया दावत खाने आया है क्या दिल्ली शहर में।”

डंडा उसी के लिए खटका है। साँप सूँघ गया उसे।

“आया तो आया मगर किसी से पूँछे-जाँचे लाट साहब की औलाद सीधे क्यू में आकर धँस लिया।”

“कि कि क्यू? उसके होंठ में शब्द फड़फड़ाया।”

“लाइन, लाइन नहीं समझता तू?” उसने गर्दन घुमाकर रिक्शे की पाँत की ओर देखा।

“भुच्च जैसा खड़ा आँखें क्या पटपटा रहा। तेरी बिरादरी में से किसी ने बताया नहीं तुझे। ‘क्यू’ में खड़े होने का कुछ लगता है?”

नहीं बताया तुझे तो मैं बताए देता हूँ। जो सब देते हैं, वही तुझे भी देना होगा। यही कोई मामूली सा – “

हिम्मत बटोरकर पूछा उसने, “माने साहब!”

“माने वसूली।”

“हमसे?”

“अब तेरे घर तो नहीं जाएँगे हम वसूलने।”

खाकी वर्दी की उँगलियों में डंडा चकरी की भाँति घूमने लगा।

“रिक्शा कहाँ से लाया तू, ठेकेदार के पास से न! दिनभर रिक्शा चलाने का किराया-भाड़ा देगा न तू उसे?”

” – – – “

“बोलता क्यूँ नहीं – देगा कि नहीं देगा?”

“द द, दूँगा।”

देगा न! तो जिस सड़क पर तू रिक्शा दौड़ाएगा, वह तुझे खैरात में चाहिए? बाप की है?

“सस्साहब – ” अपनी हकलाहट को उसने बटोरने की कोशिश की, “सड़क तो सरकार की है साहब।”

“सड़क सरकार की है तो हम कौन हैं बे!”

“सरकारी आदमी।”

“सरकारी आदमी न! तो समझ ले अक्ल के घूरे, हमें सरकार ने सड़क का इस्तेमाल करने वालों से टैक्स वसूली की जिम्मेवारी सौंपी है। जो सब देते हैं, तुझे भी देना होगा, वरना मैट्रो स्टेशन के सामने कल से तेरा रिक्शा खड़ा हुआ नजर नहीं आएगा। सोच ले।

मैट्रो तो छोड़, आसपास के इलाके में भी तू कहीं पैडल मारता हुआ दिख गया न, सीधे उठाकर हवालात में ठूँस दूँगा। चार्ज बाद में तय होगा।”

हवालात – हवालात के डर से ही तो भागकर आया है यहाँ!

ठंडे पसीने से भीग आए पायजामे ने उसे भ्रमित किया, पेशाब तो नहीं छूट गया कहीं उसका।

सहमी नजर से उसने लंबी पाँत में खड़े, कुछ सवारी लेकर चल दिए, कुछ नए आ जुड़े बिरादरी वालों की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखा। खाकी वर्दी की अनीति के विरोध में कोई कुछ बोल क्यों नहीं रहा?

हाथ जोड़ वह कमर तक झुक आया – ‘गरीब हैं साहब – ‘

“गरीब हैं, भिखारी तो नहीं है। भिखारी है तो जा, जाकर किसी मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ जा। बहानेबाज। निकाल वसूली के पाँच सौ रुपये।”

समझ गया। जिबह हुए बिना नहीं छूटने का।

कमीज के भीतर पहनी बंडी की अंदरूनी जेब में, छाती से चिपके आखिरी सहारा पचास का मुड़ा-तुड़ा मैला नोट निकालकर अँजुरी में धर, खाकी वर्दी के आगे कर दिया उसने।

“हुँह, पचास रुपट्टी! भिखारी समझ रखा है क्या हमको।” खाकी वर्दी को तीली लग गई। “ऊपर से नीचे तक बँटती है वसूली। महँगाई के नाम पर फर्लांग भर का सवारियों से वसूलते हो दस की जगह बीस। हमें दिखा रहे पचास का नोट?”

“आँखिन किरिया! झारा लई लो हमारा, जो है, सो यही है हमारे पास।”

भद्दी गाली देते हुए खाकी वर्दी ने किचकिचाकर डंडा फटकारा, “जा जाकर लौटा दे रिक्शा ठेकेदार को। कायदे-कानून को धत्ता बताकर सड़क पर छुट्टा साँड़ सा मजे में रिक्शा खींचेगा तू और हम हाथ पर हाथ धरे आँखें सेंकते रहेंगे?”

पाँव पकड़ लिए उसने खाकी वर्दी के।

गिड़गिड़ाया, ”रिक्शा नहीं लौटा सकते, साहब! सूद पर पइसा उठा के पंद्रह सौ रुपये डिपासन दिए हैं ठेकेदार को। किराया ऊपर से देना होगा। कमाएँगे नहीं तो देंगे कहाँ से माई-बाप।”

”ओ, हो, हो, हो – पंद्रह सौ रुपये डिपाजिट के दे आया ठेकेदार को, वसूली के पाँच सौ रुपये भारी पड़ रहे तुझे?”

बिरझा आया वह, ”काहे जबरई कर रहे साहब हमसे। सरकारो ठेकेदार है का जो हम गरीब-गुरआ से सड़क की वसूली माँग रही है। कल, कल तो पैदल चलने की वसूली माँगेगी साहब।”

खाकी वर्दी आपा खो बैठी, ”कमीने कहीं के, सरकार से जबानदराजी की हिमाकत।”

हुमक कर वर्दी ने एक डंडा उसकी बाईं टाँग पर मारा। दूसरा वार किया रिक्शे के हैंडिल पर। फिर रिक्शा पाँत से बाहर खींच सड़क के दाहिने ओर इतनी जोर से धकेला कि रिक्शा मैट्रो स्टेशन के पिलर नंबर पीएफ 4 से जा टकराया।

सड़क पर आती-जाती गाड़ियाँ एक पल के लिए ठिठकीं। फिर पूर्ववत मैट्रो के पुल के नीचे से आवाजाही में व्यस्त हो गईं।

टाँग की चोट की बिलबिलाहट के बावजूद वह मैट्रो के खंभे से जा टकराया, रिक्शे को बचाने लपका।

औंधे पड़े रिक्शे की साइकिल का डंडा बीच से टूट दो टुकड़ों में बँट गया था। पिछले दोनों पहिए पिचककर एक-दूसरे के गले लगे हुए थे।

घंटी, उखड़कर सड़क के बीचोंबीच आ लुढ़की थी।

वह भकभकाकर फूट पड़ा, ”एक ही देश में दो लोक के प्राणी रहते हैं का अम्मा…”

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ठेकेदार – Thekedar

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चित्रा मुदगाली के बारे में जानें

चित्रा मुद्गल (फोटो- @sahityaakademi)
चित्रा मुद्गल (फोटो- @sahityaakademi)

चित्रा मुद्गल एक भारतीय लेखिका हैं और आधुनिक हिंदी साहित्य की प्रमुख साहित्यिक हस्तियों में से एक हैं। वह अपने उपन्यास अवान के लिए प्रतिष्ठित व्यास सम्मान प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला हैं। 2019 में उन्हें उनके उपन्यास पोस्ट बॉक्स नंबर 203, नालासोपारा के लिए भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार, साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया।

पूरा नामचित्रा मुद्गल
जन्म10 सितम्बर, 1943
जन्म भूमिचेन्नई, तमिलनाडु
कर्म भूमिभारत
कर्म-क्षेत्रकथा साहित्य
शिक्षाहिंदी साहित्य में एमए
मुख्य रचनाएँ‘आवां’, ‘गिलिगडु’, ‘एक ज़मीन अपनी’, ‘जीवक’, ‘मणिमेख’, ‘दूर के ढोल’, ‘माधवी कन्नगी’ आदि।
भाषाहिन्दी
पुरस्कार-उपाधिसाहित्य अकादमी पुरस्कार
‘उदयराज सिंह स्मृति पुरस्कार’ (2010)
‘व्यास सम्मान’ (2003)
प्रसिद्धिलेखिका
नागरिकताभारतीय
अन्य जानकारीचित्रा मुद्गल का उपन्यास ‘आवां’ आठ भाषाओं में अनुदित हो चुका है तथा यह देश के 6 प्रतिष्ठित सम्मानों से अलंकृत है।
अद्यतन‎12:31, 11 सितम्बर 2021 (IST)
इन्हें भी देखेंकवि सूची, साहित्यकार सूची
चित्रा मुद्गल

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