तकिया | चित्रा मुद्गल
तकिया | चित्रा मुद्गल

तकिया | चित्रा मुद्गल – Takiya

तकिया | चित्रा मुद्गल

घर में मारग्रेट का एकाध छूट गया सामान या अनावश्यक मानकर छोड़ दिया गया सामान, उसे यानी शिप्रा मिश्रा को चर्च को लौटाना जरूरी लगा। चौबीस दिन की शेष तनख्वाह पहुँचाना भी।

अक्टूबर की चटख धूप में चिलचिलाहट है। बस से उतरकर सड़क पर आते ही उसने महसूस किया। घर की ओर बढ़ते हुए उमस से चिपचिपा रही टाँगों के बीच साड़ी की फसफसाती प्लीट्स उलझाव पैदा कर रही हैं। चाल भी उसकी कुछ अधिक तेज हो रही थी – उसकी स्वाभाविक गति का उल्लंघन करती-सी। कई बार लगा कि इतनी जल्दी न करे। अटपटा के कहीं गिर-गिरा न जाए। गनीमत समझो कि अब तक गिरी नहीं। दरअसल घर पहुँचने की जल्दी है उसे। विनोद से तय हुआ है, जब तक वह चर्च से न लौट आए, वह मोनू के पास बना रहे। दफ्तर में देरी से पहुँचने की सूचना विनोद ने अपने सहकर्मी निरंजन को मोबाइल पर दे दी है। बॉस का मोबाइल नंबर भी उसके पास है लेकिन मोनू की अस्वस्थता से उचाट उसका मन बॉस से किसी प्रकार की जिरहबाजी के लिए तैयार नहीं था। हफ्ते-भर की छुट्टी विनोद ने बॉस से माँगी थी, साग-सब्जी लाने के बहाने घर से अचानक लापता होने वाली बच्ची की आया मारग्रेट के विषय में बताकर। पति-पत्नी दोनों ही नौकरी करते हैं। नई आया का तत्काल जुगाड़ करना उनके लिए बेहद जरूरी है। बॉस कटाक्ष से मुस्कराए थे। नई आया का जुगाड़ उसकी पत्नी नहीं कर सकती, या अपनी पसंद की आया रखना उसके लिए जरूरी है?

मुश्किल तो स्वयं उसे भी हुई अपने दफ्तर वालों को समझाने में। समझ में उनके फिर भी नहीं आया। उसने स्पष्ट कह दिया छुट्टी उसकी बकाया हों, न हों, छुट्टी वह लेगी ही। नौ महीने के अपने दुधमुँहे बच्चे को वह घर की दीवारों के भरोसे तो छोड़कर आ नहीं सकती। तनख्वाह उन्हें काटना हो, बेशक काट लें। मामूली गाज नहीं गिरी है उन पर। जमी-जमाई व्यवस्था अचानक चरमरा गई है। कभी सपने में भी नहीं सोचा था उसने-अपनी सोसाइटी के जगताप हरी की मारुति वैन चलाने वाले नेपाली ड्राइवर के साथ मारग्रेट भाग जाएगी। रात उसने घबराकर चर्च को मात्र इत्तिला-भर दी थी कि पाँच घंटे हो गए हैं, मारग्रेट घर नहीं लौटी है। विनोद उसे आस-पास ढूँढ़ने गए हैं। कहीं वह चर्च तो नहीं पहुँची? उनके मना करने पर उसने पुलिस में रिपोर्ट लिखाने के बारे में उनसे सलाह माँगी। मदर अन्ना ने उसे पुलिस कार्रवाई से रोक दिया। घुमा-फिराकर वे बार-बार उससे यही पूछती रहीं कि उन लोगों ने मारग्रेट के साथ कोई बुरा सलूक तो नहीं किया।

धूप का चश्मा पर्स में है, निकालकर पहन क्यों नहीं लेती!

जचकी के समय गाँव से विनोद की अम्मा आ गई थीं मदद को। चालीस दिन सँभाल-सहेज दिया उन्होंने। सुबह-साँझ मोनू की तेल मालिश से लेकर लँगोटी धोने-फैलाने तक। मोनू की मालिश करते हुए सहसा अम्मा का ध्यान गया – मोनू की नुन्नू ठीक से नहीं खुलती। पोलियो सिरप पिलाने पर मोनू को होली फैमिली अस्पताल ले गई तो उसने डॉक्टर से अपनी चिंता बाँटी। जाँच कर डॉक्टर ने सलाह दी – नुन्नू का ऑपरेशन करना होगा, तत्काल। बच्चा अभी छोटा है। आगे अधिक हिलेगा – डुलेगा तो परेशानी होगी। घर लौट अम्मा को बताया तो वह एकदम से भड़क गईं। तुम लोगों को बता क्या दिया कि तुमने तिल को ताड़ बना दिया। मालिश के समय नुन्नू में तेल टपका मैं रोज फूँक दे रही हूँ। पंद्रह-बीस रोज में फर्क नजर आने लगेगा। डॉक्टरों का क्या है। जेबकतरों से भी गए-बीते हो रहे हैं आजकल। फोन कर कह दो उन्हें, ऑपरेशन के लिए मेरी सास मनाकर रही हैं। बीस रोज बाद डॉक्टर ने नुन्नू में आए फर्क को देखा तो एकबारगी चकित हो उठे।

दोनों का बहुत मन था, अम्मा उनके पास रुक जाएँ। अम्मा न मानीं। खटिया लगी उनकी सास को सेवा की जरूरत है। ‘दुलहिन नौकरी छोड़ क्यों नहीं देतीं? अपनी पढ़ाई-लिखाई का उपयोग बाद में भी तो कर सकती हो।’ अम्मा ने ठेना मारा था। उन्हें जवाब नहीं दे पाई। सात हजार घर का किराया देना होता है। घर केवल उनके बेटे की कमाई से नहीं चल सकता। शहर में रहना है तो इन्हीं स्थितियों में बच्चा पैदा करना होगा और उसे पालना-पोसना भी – नौकरों या क्रेच के भरोसे। दादी के पुचकारते ही फिक्क से हँस पड़ने वाला पोता भी अपनी दादी को शहर से नहीं बाँध पाया। साल-डेढ़ साल ही दादी साथ रह जाएँ तो बहुत कुछ सँभल सकता है। यह भी नहीं कि घर पर रहकर आय का कोई अन्य विकल्प उसने सोचा नहीं। पेट से होते ही पूछताछ भी की। कानूनन हाथ बँधे पाए। किराये के मकान में रहकर न आप घर में क्रेच खोल सकते हैं, न ट्यूशन की कक्षाएँ चला सकते हैं। सोसाइटी आपत्ति उठा सकती है। अपना घर फिलहाल सपना है। डरावना सपना! कर्ज लेकर मकान बनवाने की योजना के तहत मोनू का जनमना तीन वर्षों से स्थगित होता रहा था। एक रोज अड़ गई वह। ऐसे नहीं जी सकती। मकान का डौल नहीं बैठ रहा तो वह माँ बनने से क्यों वंचित रहे?

सलाह हुई। अम्मा के गाँव लौटने से पहले आया का प्रबंध हो जाना चाहिए। अपने रहते अम्मा उसे बता-समझा देंगी। उनकी सीख से वह मँज-सँवर जाएगी।

गेट के चौकीदारों से लेकर अड़ोस-पड़ोस ने उनके आग्रह पर खासी मुस्तैदी दिखाई। बूढ़ी-जवान समेत छह-सात बाइयों को अम्मा ने देखा-परखा। न उन्हें कोई जँची, न उसे और विनोद को जमी। दफ्तर में उससे वरिष्ठ शालिनी मजूमदार ने फोन पर सुझाया, तनख्वाह दोगुनी अवश्य होगी, मगर फलाँ चर्च के अनाथाश्रम से उसे इतने छोटे बच्चे को सँभालने के लिए अच्छी और विश्वसनीय आया मिल सकती है। चर्च के साथ अनुबंध होगा। शर्तों का सख्ती से पालन करना होगा। चार छुट्टियाँ देनी होंगी। ज्यों-ज्यों अम्मा के गाँव जाने की तारीख में से एक-एक दिन घटता, उसकी साँस डूबने लगती। उसकी जचकी की छुट्टियाँ भी खत्म होने को थीं। जाने की तारीख अम्मा किसी हाल में आगे बढ़ाने को राजी नहीं थीं।

उसकी ऊभ-चूभ होती मनःस्थिति को संबल दिया चर्च ने। अम्मा को गाड़ी में बैठाने से तीन रोज पहले जीसस ने उसकी प्रार्थना सुन ली और मारग्रेट चर्च से घर आ गई। आते ही उसने अम्मा द्वारा गाँव से माँग-जाँचकर लाए बच्चों के पुराने कपड़ों में सजे, सिर पर झालरों वाला उन्हीं के हाथ का सिला कनटोप पहने, गुलाबी रुई के लोंदे से मऊ-मऊ मोनू को रीझकर गोद में उठा लिया और लगी तड़ातड़ चूमने, “ओऽ माय गोलू-मोलू बाबा, सो स्वीट – “

अम्मा गद्गद हो आश्वस्त हुई। गदराई मारग्रेट के साँवले गाल पर छप गई काजल की दीठ को उन्होंने आँचल बढ़ाकर पोंछा, “मोनुआ के माथे पर बिना नागा काजल की दीठ लगाना न भूलना, छोरी! अरेरेरेऽ! बच्चे को ऐसे पकड़ते हैं, सिर के नीचे बाँहें दे।” अम्मा का प्रशिक्षण शुरू। उसकी धुकपुकी ने राहत पाई।

मारग्रेट के उछाह से यही लगा – ससुराल से बेटी जैसे अपने नैहर लौटी हो। सालोंसाल बाद। अचरज तब कम नहीं हुआ, जब निर्धारित छुट्टी पर भी उसने चर्च जाना आवश्यक नहीं समझा।

दूध उसे होता नहीं था। मोनू को ऊपर का पिलाना पड़ता था। हरीरा पिला और सोंठेइला के लड्डू खिला अम्मा उसकी छातियों में दूध उतरने की राह देखती रहीं, पर दूध न उतरा। अम्मा का चेहरा उतर गया। जब तक अम्मा रहीं, अपने पोते को अपने पास सुलाती रहीं। अम्मा के सामने मारग्रेट भी मोनू को एक रात अपने पास सुलाने को ललकी। उसे लगा, अम्मा मारग्रेट का अनुनय कभी स्वीकार नहीं करेंगी, मगर अम्मा ने उसे और विनोद को विस्मय में ढकेलते हुए मारग्रेट को अनुमति दे दी। अम्मा के जाने के अगले रोज मारग्रेट ने उसकी गोद में सो गए मोनू को ले जाकर अपने तख्त पर सुला दिया। विनोद उससे घंटे-भर तर्क-वितर्क करते रहे। अम्मा अपने पास मोनू को सुलाती थीं या नहीं? किसलिए? ताकि उनके रहते वह कुछ दिनों और आराम कर ले। चालीस दिन का आराम कोई आराम नहीं हुआ। सुस्ताना-भर हुआ। मालिश वाली उसने ऊपर से छुड़ा दी है। कमरदर्द का रोना वह रोती ही रही है। रात-भर उठ-उठकर मोनू को देखना होगा तो वह अपने दफ्तर में लगे प्रतीक्षा कर रहे फाइलों के अंबार से कैसे निपटेगी? तुम्हारे काम की जिम्मेदारी उठा रहे मि. अखिलेश वर्मा ने तुम्हारे हिस्से का कोई काम निपटाया होगा, तुम्हें विश्वास है?

”जो भी हो, अम्मा की बात और थी। दादी के पास सोता था मोनू अपनी।”

विनोद ने झुँझलाहट दबाई, ”रात मारग्रेट मोनू का ठीक से खयाल न रखती तो क्या हम चैन की नींद सो पाते? क्या हमें सोने देते हमारे नन्हे बरखुरदार।”

दोनों हाथों की उँगलियाँ एक-दूसरे में उलझाए वह द्वंद्व से उबरने-छिटकने को कोई चौखट तलाश रही थी।

”जानता हूँ, रात कई बार तुम उठकर मोनू को देखने गई थीं।”

”दो हजार रुपये तनख्वाह, ऊपर से रहना-खाना, दवा-दारू, मामूली रकम नहीं दे रहीं तुम मारग्रेट को। अरे, उसका कुछ तो फायदा उठाओ? नहीं उठाना चाहती तो दिन-भर के लिए कोई नई आया ढूँढ़ लें। शाम को घर में दाखिल होते ही उसकी छुट्टी हो जाएगी। सात-आठ सौ में काम निपट जाएगा। पैसे पेड़ पर नहीं उगते मैडम!”

उसके भीगे उच्छ्वास ने विनोद को सतर्क किया, ”गाँव में सम्मिलित परिवारों में कौन से बच्चे माँ की गोद में पलते हैं? सौर से निकलते ही अम्मा चूल्हे-चौके में लग गई थीं। जानती हो, मुझे किसने पाला? तायाजी ने। बड़े दिनों तक मैं अम्मा को बघेली वाली दुलहिन कहकर ही पुकारता रहा।”

सब कुछ सुव्यवस्थित चलने लगा।

कान उसके फिर भी नहीं सोते थे। मोनू की हल्की-सी चीं-चाँ सुनाई पड़ते ही वह चादर फेंक, झपटती हुई मारग्रेट के कमरे में जा पहुँचती। जीरो पॉवर की रोशनी में वह देखती, मोनू के मुँह में दूध की बोतल दिए मारग्रेट उसकी ओर करवट भरे उसकी पीठ थपका रही है।

नियम बना लिया था उसने-सुबह दफ्तर निकलने से पहले मोनू की मालिश कर, उसे नहला-धुलाकर काजल टीका करके ही निकलती। रात मालिश करके ही सुलाती। नुन्नू में तेल टपकाना न भूलती, न सुलाते हुए लोरी गाना, “नन्ही परी सोने चली हवा धीरे आना – “

विनोद चुटकी लेते, ”दूसरी लोरी खोजो या परी पैदा करो, शिप्रा।”

मारग्रेट के जाने की रात से ही अचानक मोनू की तबीयत बिगड़ गई। रात आँखों में ही कटी, मोनू को गोद में उठाए। सुबह डॉक्टर के पास दौड़ी। बताया उन्हें, गोदी में चिपका रहता है लेकिन बिस्तर पर लिटाते ही चीखें मारकर रोने लगता है। जैसे दर्द घुमड़-घुमड़कर नन्ही जान को चैन न लेने दे रहा हो। मोनू की तकलीफ उससे बर्दाश्त नहीं हो पा रही थी। हाथ-पाँव थर्राते, जैसे ही मोनू चीखें मारना शुरू करता, उसकी दहलन धारोधार आँखों में पिघलने लगती है। मासूम बोल सकता नहीं। आँखों की भाषा से दर्शा सकता नहीं। कष्ट समझ में आए तो कैसे? अम्मा के बताए घरेलू नुस्खे वह रात भर आजमाती रही – भुनी हींग घोल, घुट्टी पिलाई। अजवाइन की पोटली गरमाकर पीठ-छाती की सिंकाई की। पहेली अबूझ बनी रही। ‘कुछ करें, डॉक्टर साहब!’ वह लगभग गिड़गिड़ाई थी।

उस डॉक्टर के पास भागना व्यर्थ गया। बच्चे का पेट उन्हें चढ़ा हुआ नहीं लगा। फिर भी उन्होंने कॉलिक एड्रड्रॉप्स लिख दी है, उसके संशय पर कि कहीं मोनू के कान में दर्द तो नहीं? डॉक्टर ने नाक में ‘नैजीबियोन ड्रॉप’ टपकाने के लिए कहा। नाक में डाली गई दवा कान में असर करेगी।

घबराकर उसने मोनू को होली फैमिली अस्पताल ले जाने का निश्चय किया। मोनू वहीं पैदा हुआ था। वहाँ नए आए प्रसिद्ध बालरोग विशेषज्ञ डॉक्टर सी.पी. मेहता अमेरिका से डिग्रियाँ लेकर आए थे। उनका समय बड़ी मुश्किल से मिला।

स्वस्थ दिखते मोनू का हाल सुनकर डॉक्टर मेहता चिंतित हो आए। अनेक परीक्षण लिख दिए उन्होंने। दो घंटे के भीतर सारी रिपोर्ट्स भी अपने पास मँगवा लीं। नतीजा शून्य। एक ही बात समझ में आई उन्हें – बच्चा अपनी आया मारग्रेट को मिस कर रहा है बुरी तरह। मारग्रेट के पास दिन-रात रहते-रहते उसकी उसे आदत हो गई है। मारग्रेट को गए ज्यादा दिन नहीं हुए। आदत छूटते-छूटते छूटेगी। बिस्तर पर लिटाते ही मोनू की नींद उचट जाना, सहसा चिहुँककर चीखें भरने लगनाय स्वयं उन्हें विस्मित किए हुए थे।

”गोदी में सोए बच्चे को आप झटके से तो बिस्तर पर नहीं सुलातीं, मिसेज मिश्रा?”

”न, नहीं तो – ” वह माँ होकर इतनी क्रूर कैसे हो सकती है।

उसके मना करने के उपरांत विचारमग्न डॉक्टर मेहता ने उसे यह कहकर चौंका दिया कि वे उसके घर आना चाहते हैं। उस बिस्तर को गौर से देखना चाहते हैं, जहाँ वह मोनू को अपने साथ सुलाती हैं।

”मारग्रेट के पास बच्चा जिस बिस्तर पर सोता था, उस जगह उसे दोबारा सुलाकर देखा आपने?”

उठती हुई वह कुर्सी पर पुनः टिक गई।

”देखा।” डॉक्टर साहब का आशय भाँप उसने जवाब दिया।

”वहाँ?”

”वहाँ लिटाते ही ठीक उसी तरह से रोने लगा।”

”मच्छर – ”

”बिल्कुल नहीं हैं। वैसे भी सुलाते ही मैं इसकी छतरीवाली मच्छरदानी से इसे ढक देती हूँ। हर हफ्ते फ्लिट करती रहती हूँ घर में। कीड़े-मकोड़े नहीं हैं मेरे घर में।”

”ओ.के.।” डॉक्टर ने अपने होंठ सिकोड़ उसकी आँखों में देखा, ”कल दोपहर हॉस्पिटल से निकलते हुए मैं आपके घर आना चाहूँगा। तीन-साढ़े तीन के बीच। पता लिखवाएँ।”

आगे डॉक्टर मेहता से कुछ और पूछने की हिम्मत नहीं हुई उसकी।

सोसाइटी के गेट में दाखिल होते ही उसने उड़ती नजर कलाई घड़ी पर डाली। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मोनू के रुदन को टोहा। चीखें ढूँढ़े नहीं मिलीं। निश्चय ही विनोद मोनू को गोद में लिए टहल रहे होंगे। राहत कम नहीं कि वह अनुमानित समय के भीतर चर्च का काम निपटाकर लौट आई है। घर में घुसते ही वह मोनू को अपने जिम्मे ले विनोद को तुरंत दफ्तर रवाना कर देगी। डॉक्टर मेहता तीन-साढ़े तीन के बीच घर आएँगे। खत्म हुई कॉफी खरीद लाई है, संग भुने हुए काजू का पैकेट। शायद डॉक्टर मेहता को कॉफी पसंद हो।

काली कॉफी के दो-चार घूँट भरकर डॉक्टर मेहता ने मारग्रेट का कमरा देखा। तख्त पर बिछा हुआ गद्दा पुराना है। हाथ फिराते ही जगह-जगह बटुरी हुई रुई को अनुभव किया जा सकता है।

”मारग्रेट के पास सोए हुए कभी इसे इस कदर रोते देखा?” गोदी में सोए मोनू की ओर डॉ. मेहता ने इशारा किया।

”कभी नहीं।”

”चलिए, आपका कमरा देखें।”

डॉक्टर मेहता उसके पीछे हो लिए। घर अच्छा है – साफ-सुथरा, हवादार, उजास-भरा। सज्जा साधारण होकर भी सुरुचिपूर्ण है।

अपने कमरे में ले जाकर उसने डॉक्टर मेहता को अपना पलंग दिखाया। बाईं तरफ पति विनोद सोते हैं, उनकी बगल में वह। उसकी बगल में मोनू। पलंग दाहिनी ओर दीवार से सटा हुआ है। उधर से बच्चे के गिरने का डर नहीं, इसीलिए उस ओर सुलाती है मोनू को।

”मारग्रेट को किन चीजों का शौक था?” डॉक्टर मेहता ने मोनू को सोने की जगह यानी बिस्तर के ऊपर उसके छोटे से बिस्तर को सरकाकर हथेली फिरा, नीचे के गद्दे को उसी प्रकार टोहा जैसे मारग्रेट के गद्दे को टोहा था। गद्दा मुलायम है।

”मारग्रेट को मांस-मछली खाने का बहुत शौक था। रेडियो सुनने का भी। उसका दिल लगाए रखने के लिए मैंने उसे अपना छोटा-सा ट्रांजिस्टर दे दिया था। जगने से लेकर सोने तक वह एफ.एम. लगाकर गाने सुनती रहती थी। विनोद स्वयं मांस-मछली खाते हैं। अपने और मारग्रेट के लिए बाहर से बँधवा लाते थे।”

”ट्रांजिस्टर है?”

”जी, छोड़ गई है।”

”ले आएँ और, इधर-बच्चे के सोने की जगह पर लगा दें।”

”यह बताएँ किस स्वर में गाने सुनना पसंद करती थी मारग्रेट?”

”हमारे कमरे में गाने के बोल स्पष्ट सुनाई नहीं पड़ते थे।”

”ट्रांजिस्टर ऑन कर दें। स्वर उतना ही रखिए, जितना मारग्रेट रखती थी।”

मोनू को गोदी में लिए हुए झुककर उसने ट्रांजिस्टर ऑन कर दिया। गाना बजने लगा। लताजी ‘परख’ फिल्म का गाना गा रही थीं – ‘ओऽऽऽ सजना – ‘

”बिस्तर पर बच्चे को लिटा दें।”

वह हिचकिचाई।

”गोदी से उतारकर बिस्तर पर लिटाते ही, डॉक्टर साहब, वह चीखें भरकर रोने लगेगा।”

”यही में देखना चाहता हूँ।”

मन ही मन मारग्रेट को कोसते हुए उसने मोनू को आहिस्ता से उसकी जगह पर लिटा दिया। वही हुआ, जिसकी आशंका थी। नींद से उचट मोनू हाथ-पैर कँपाते हुए चीख-चीखकर रोने लगा। लताजी के सुरीले स्वर का उस पर कोई असर नहीं हुआ। विचलित हो वह मोनू को उठाने के लिए लपकी। डॉक्टर मेहता ने उसे बरज दिया। वे स्वयं बिस्तर से टिक गए।

झुककर उन्होंने रोते हुए बच्चे को करवट देकर थपकाया। थपकाते हुए दूसरा हाथ लंबा कर सिरहाने लगे पति-पत्नी के तकियों को करीब खींच लिया। एक तकिया उन्होंने बच्चे की छाती से चिपका दिया। उसकी नन्ही बाँह को तकिये के ऊपर टिका दिया। दूसरा तकिया उन्होंने उसकी पीठ से सटा दिया।

तकरीबन पाँचेक मिनट वह बच्चे के रोने की परवाह किए बिना उसे थपकाते रहे। अचरज, एकाएक बच्चा गहरी नींद में सो गया।

वह अवाक्!

डॉक्टर मेहता बच्चे के ऊपर से हाथ हटा उसकी ओर मुड़े, ”बच्चे को कुछ नहीं हुआ मिसेज मिश्रा। उसे केवल माँ की छाती की गरमाहट चाहिए। काम में उलझी आया मारग्रेट ने उसे तकिये की गरमाहट सौंपी। बिना तकिये के बच्चा भला कैसे सो सकता है?”

उसकी डबडबाई आँखों में डॉक्टर मेहता का चेहरा धुँधलाने लगा। उसे लगा, अगर उसने पलंग की पाटी का सहारा नहीं लिया तो वह अगले ही पल चकराकर जमीन पर गिर जाएगी।

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तकिया – Takiya

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चित्रा मुदगाली के बारे में जानें

चित्रा मुद्गल (फोटो- @sahityaakademi)
चित्रा मुद्गल (फोटो- @sahityaakademi)

चित्रा मुद्गल एक भारतीय लेखिका हैं और आधुनिक हिंदी साहित्य की प्रमुख साहित्यिक हस्तियों में से एक हैं। वह अपने उपन्यास अवान के लिए प्रतिष्ठित व्यास सम्मान प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला हैं। 2019 में उन्हें उनके उपन्यास पोस्ट बॉक्स नंबर 203, नालासोपारा के लिए भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार, साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया।

पूरा नामचित्रा मुद्गल
जन्म10 सितम्बर, 1943
जन्म भूमिचेन्नई, तमिलनाडु
कर्म भूमिभारत
कर्म-क्षेत्रकथा साहित्य
शिक्षाहिंदी साहित्य में एमए
मुख्य रचनाएँ‘आवां’, ‘गिलिगडु’, ‘एक ज़मीन अपनी’, ‘जीवक’, ‘मणिमेख’, ‘दूर के ढोल’, ‘माधवी कन्नगी’ आदि।
भाषाहिन्दी
पुरस्कार-उपाधिसाहित्य अकादमी पुरस्कार
‘उदयराज सिंह स्मृति पुरस्कार’ (2010)
‘व्यास सम्मान’ (2003)
प्रसिद्धिलेखिका
नागरिकताभारतीय
अन्य जानकारीचित्रा मुद्गल का उपन्यास ‘आवां’ आठ भाषाओं में अनुदित हो चुका है तथा यह देश के 6 प्रतिष्ठित सम्मानों से अलंकृत है।
अद्यतन‎12:31, 11 सितम्बर 2021 (IST)
इन्हें भी देखेंकवि सूची, साहित्यकार सूची
चित्रा मुद्गल

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