हिजड़े | कृष्णमोहन झा

हिजड़े | कृष्णमोहन झा

हिजड़े | कृष्णमोहन झा हिजड़े | कृष्णमोहन झा 1 . वे रेगिस्तान की बाँबियों से निकलकर आते हैं? या बाँस के फूलने से पैदा होते हैं? वे हमारी नृशंसताओं की कार्यशाला में जन्म लेते हैं? या अवांछित प्रजनन की राख में पलते हैं? वे किसी गुमनाम नक्षत्र से निष्कासित भटके हुए अनाथ प्राणी हैं? या मानवता के परिसर से बाहर घटित कोई … Read more

सारी चीजें नहीं | कृष्णमोहन झा

सारी चीजें नहीं | कृष्णमोहन झा

सारी चीजें नहीं | कृष्णमोहन झा सारी चीजें नहीं | कृष्णमोहन झा समय के बीतने से सारी चीजें नहीं जा गिरतीं बीते हुए कल के जल में आँख के रंग की तरह कुछ चीजें साथ-साथ चलती हैं मेरे ललाट पर अब भी बाकी हैं स्लेट से पोछे ‘विद्या’ का पुण्य और खड़िया चुराने की सलवटें अब भी मेरी आँखों में डबडबा रहे हैं नौटंकी … Read more

सारंगी | कृष्णमोहन झा

सारंगी | कृष्णमोहन झा

सारंगी | कृष्णमोहन झा सारंगी | कृष्णमोहन झा उस आदमी ने किया होगा इसका आविष्कार जो शायद जन्म से ही बधिर हो और जो अपनी आवाज खोजने बरसों जंगल-जंगल भटकता रहा हो या उस आदमी ने जिसने राजाज्ञा का उल्लंघन करने के बदले कटा दी हो अपनी जीभ और जिसकी देह मरोड़ती हुई पीड़ा की ऐंठन मुँह तक आकर निराकार ही निकल … Read more

वे तीन | कृष्णमोहन झा

वे तीन | कृष्णमोहन झा

वे तीन | कृष्णमोहन झा वे तीन | कृष्णमोहन झा ढेर सारे शब्द हैं उसके पास एवं घटना अथवा दुर्घटना को जीवंत तथा प्रामाणिक बनाने के लिए उसके पास उतनी ही चित्रात्मक और मुहावरेदार भाषा है जितनी यह दुर्लभ समझ कि सिर्फ वह जानता है कि हकीकत क्या है दूसरे के पास खून में लिथड़ा हुआ चेहरा और एक अटूट थरथराहट के सिवा कहने के … Read more

यात्रा-वृत्तांत | कृष्णमोहन झा

यात्रा-वृत्तांत | कृष्णमोहन झा

यात्रा-वृत्तांत | कृष्णमोहन झा यात्रा-वृत्तांत | कृष्णमोहन झा आते हुए… छूटते… जाते हुए सारे दृश्य और सभी ध्वनियाँ परस्पर गुँथकर किसी कोलाज की तरह खिड़की पर जम गए हैं और डब्बे में झूलती पिछली रात के सपने में हवा में हहराते गाछ के नीचे उस गर्भवती के लाल-टेस बच्चे को लेकर अब भी चल रहा हूँ मैं जिसकी ऊँघती देह एक नाव बनकर … Read more

मिट्टी का बर्तन | कृष्णमोहन झा

मिट्टी का बर्तन | कृष्णमोहन झा

मिट्टी का बर्तन | कृष्णमोहन झा मिट्टी का बर्तन | कृष्णमोहन झा मैं नहीं कहूँगा कि फिर लौटकर आऊँगा क्योंकि मैं कहीं नहीं जाऊँगा कोहरे के उस पार शायद ही भाषा का कोई जीवन हो इसलिए मेरे उच्चरित शब्द यहीं कार्तिक की भोर में धान के पत्तों से टपकेंगे ठोप-ठोप मेरी कामनाएँ मेरे विगत अश्रु और पसीने के साथ दुख की इन्हीं घाटियों से … Read more

महानगर में चाँद | कृष्णमोहन झा

महानगर में चाँद | कृष्णमोहन झा

महानगर में चाँद | कृष्णमोहन झा महानगर में चाँद | कृष्णमोहन झा महानगर में अपने चाँद को देखकर मुझे उस पर रोना आता है और शायद उसे भी अच्छा नहीं लगता इस हाल में मुझे पाकर लगता है पिछले जनम की बात है यह जब कातिक की साँझ या बैसाख की रात में चाँद और मैं आँगन से दालान और दलान से … Read more

मैं समय की एक लंबी आह | कृष्णमोहन झा

मैं समय की एक लंबी आह | कृष्णमोहन झा

मैं समय की एक लंबी आह | कृष्णमोहन झा मैं समय की एक लंबी आह | कृष्णमोहन झा 1 . मेरे देह-जल में इस तरह उधियाता हुआ नहीं नक्षत्रों की अलगनी पर दूर ही टँगा रहता आकाश तब कैसे कर पाता विश्वास कि दहकता सूर्य नदियों के आदिम आचरणों का संकलन है दरअसल देखकर जिसे झीलों का चेहरा चमक उठता है और भोर तक फैली हुई … Read more

बाढ़ के बाद | कृष्णमोहन झा

बाढ़ के बाद | कृष्णमोहन झा

बाढ़ के बाद | कृष्णमोहन झा बाढ़ के बाद | कृष्णमोहन झा आधी रात को जबकि पूरा गाँव नींद की बाढ़ में डूब जाता है कुएँ से निकलती हैं कुछ स्त्रियाँ और करने लगती हैं विलाप डबरे से निकलते हैं थोड़े बच्चे और भगदड़ मचाने लगते हैं पेड़ों से कुछ लोग नीचे उतर आते हैं और उपछने लगते हैं पानी सुना … Read more

पर्यटन | कृष्णमोहन झा

पर्यटन | कृष्णमोहन झा

पर्यटन | कृष्णमोहन झा पर्यटन | कृष्णमोहन झा इतनी तेज रफ्तार से चल रही यह दुनिया इतनी जल्दी-जल्दी अपने रंग बदल रही यह दुनिया कि सुबह जगने के बाद पिछली रात का सोना भी लगता है समय की पटरी से उतर जाना रोज दिनारंभ से पहले न किसी से कुछ कहना न किसी की सुनना एक कप चाय के सहारे घंटा-आधा घंटा मेरा … Read more