हिजड़े | कृष्णमोहन झा
हिजड़े | कृष्णमोहन झा

हिजड़े | कृष्णमोहन झा

हिजड़े | कृष्णमोहन झा

1 . 
वे रेगिस्तान की बाँबियों से निकलकर आते हैं? 
या बाँस के फूलने से पैदा होते हैं? 
वे हमारी नृशंसताओं की कार्यशाला में जन्म लेते हैं? 
या अवांछित प्रजनन की राख में पलते हैं? 
वे किसी गुमनाम नक्षत्र से निष्कासित भटके हुए अनाथ प्राणी हैं? 
या मानवता के परिसर से बाहर घटित कोई अज्ञात अनुभव?

कितना मुश्किल है कहना कि वे कहाँ से आते हैं !

खुद जिन्होंने पैदा किया उन्हें 
ठीक से तो वे भी नहीं जानते उनके बारे में

ज्यादा से ज्यादा 
कुछ उत्तप्त क्षणों की स्मृतियाँ हैं उनके पास 
जिनकी लताएँ फैली हुई हैं 
उनकी असंख्य रातों में

लेकिन अब 
जबकि एक अप्रत्याशित विस्फोट की तरह 
वे क्षण बिखरे हुए हैं उनके सामने 
जानकर यह हतप्रभ और अवाक हैं वे 
कि उनके प्रेम का परिणाम इतना भयानक हो सकता है!

लेकिन यह कौन कह सकता है 
कि सचमुच उनके वे क्षण थे 
प्रणति और प्रेम के?

कहीं उनके पिताओं ने 
पराजय और ग्लानि के किसी खास क्षण में तो नहीं किया था

उनकी माँओं का संसर्ग? 
उनकी माँओं की ठिठुरती आत्मा ने 
कपड़े की तरह अपने जिस्म को उतारकर कहीं 
अपने-अपने अनचाहे मर्दों को तो नहीं कर दिया था सुपुर्द?

उनके जन्म से भी पहले कहीं 
गर्भ में ही किसी ने तो नहीं कर लिया उनके जीवन का आखेट? 
2 . 
वासना की एक विराट गंगा बहती है इस धरती पर 
जिसकी शीतलता से तिरस्कृत वे 
अपने रेत में खड़े-खड़े 
सूखे ताड़-वृक्ष की तरह अनवरत झरझराते रहते हैं

संतूर के स्वर जैसा ही 
उनकी चारो ओर 
अनुराग की एक भीनी वर्षा होती है निरंतर 
जिसमें भीगने की कोशिश में 
वे और कातर और निरीह होते जाते हैं…

अंतरंगता के सारे शब्द 
और सभी दृश्य 
बार-बार उन्हें एक ही निष्कर्ष पर लाते हैं 
कि जो कुछ उनकी समझ में नहीं आता 
ये दुनिया शायद उसी को कहती है प्यार…

लेकिन यह प्यार है क्या?

क्या वह बर्फ की तरह ठंडा होता है? 
या होता है आग की तरह गरम? 
क्या वह समंदर की तरह गहरा होता है? 
या होता है आकाश की तरह अनंत? 
क्या वह कोई विस्फोट है 
जिसके बेआवाज धमाके में आदमी थरथराता है? 
क्या प्यार कोई स्फोट है 
जिसे कोई-कोई ही सुन पाता है? 
इस तरह का हरेक प्रश्न 
एक भारी पत्थर है उनकी गर्दन से बँधा हुआ

इस तरह का हरेक क्षण ऐसी भीषण दुर्घटना है 
कि उनकी गालियों और तालियों से भी उड़ते हैं खून के छींटे…

और यह जो गाते-बजाते ऊधम मचाते 
हर चौक-चौराहे पर 
उठा देते हैं वे अपने कपड़े ऊपर 
दरअसल वह उनकी अभद्रता नहीं 
उस ईश्वर से प्रतिशोध लेने का उनका अपना एक तरीका है 
जिसने उन्हें बनाया है 
या फिर नहीं बनाया।

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