लिख सको तो

सम्मेलन, महोत्सव, टीवी, अखबारसाहित्यिक मनोविलास की बातें‘कलमखोरों’ को लिखने दोअगर लिख सको तो…उन लंबी कतार में लगे लोगों की बातें लिखोजिनकी आवाज कोई नहीं सुन रहा सत्य के चेहरे पर कालिख पोत करझूठ की पूजा करतेउन लोगों के बारे में लिखोजो हर आदेश पर फौरनसिर झुका लेते हैं‘देशप्रेम’ को प्रायोजित करने वालों का चेहरा बेनकाब … Read more

मास्क वाले चेहरे

मैं अक्सर निकल जाता हूँ भीड़भाड़ गलियों सेरोशनी से जगमग दुकानें मुझे परेशान करती हैंमुझे परेशान करती है उन लोगों की बकबकजो बोलना नहीं जानते मै भीड़ नहीं बनना चाहता बाजार कीमैं ग्लैमर का चापलूस भी नहीं बनना चाहतामुझे पसंद नहीं विस्फोटक ठहाकेमै दूर रहता हूँ पहले से तय फैसलों से क्योंकि एक दिन गुजरा … Read more

तुम्हें पहली बार देखा तो

मैंने जबपहली बार तुम्हें देखासमूची मुस्कुराती हुई तुममेरे भीतर मिसरी के ढेले सा घुल गईमैं उसे रोक नहीं सकता थाअब मेरे भीतरबसंत की लय परहर वक्तएक गीत बजता रहता है –प्रेम मानव संबंधों की मनोहर चित्रशाला है

तुम रहती हो मेरे साथ

मैं जब भीजहाँ कहीं जाता हूँतुम रहती हो मेरे साथ जब मैंसड़कों पर होता हूँघर बाजार याकिसी भी काम में होता हूँतुम्हारी समीपता को महसूस करता हूँ हर बारवापस घर लौटकरकमरे के अपने एकांत मेंतुम्हारी कोमल यादों के सहारेगुलाब सा महकता हूँ

गाँव और शहर

तुम मेरे भीतरएक शहर तलाशती होअपनी परिकल्पनाओं का महानगरअपनी अभिरुचियों की खातिरशायदवह कभी तुम्हेंमिल भी जाएऔर तुम उसमें प्रवेश कर जाओमेरा हाथ पकड़ करलेकिनमैं तुम्हारे भीतरथोड़े से गाँव की तलाश में हूँइस उम्मीद से किकहीं वह दबा पड़ा हो तोउसे जगा दूँ

एक दिन

मैं तुम्हारे शब्दों की उँगली पकड़ करचला जा रहा था बच्चे की तरहइधर-उधर देखताहँसता, खिलखिलाताअचानक एक दिनपता चलातुम्हारे शब्दतुम्हारे थे ही नहींअब मेरे लिए निश्चिंत होना असंभव थाऔर बड़ों की तरहव्यवहार करना जरूरी