दिन दहाड़े
फैलती ही जा रही कैसी सियाही
एक बादल क्या फटा
अब शेष है केवल तबाही।
गाँव, घर, बस्ती, शहर
वीरान
पुरवासी नदारद
ज्वार पानी का
मिटाता जा रहा
हर एक सरहद
चौकसी शमशान की
करता हुआ बूढ़ा सिपाही।
याद की बुनियाद
कितनी और गहरी
हो गई है
एक मानुस गंध थी
वह किस लहर में
खो गई है
बचे खाली फ्रेम
बिखरे आलपिन टूटी सुराही।
है सभी कुछ सामने
पर कुछ नजर
आता नहीं है
लग रहा, जैसे
किसी का, किसी से
नाता नहीं है
था कभी अपना
मगर है आज छूने की मनाही।
मिट गए सब चिह्न
हर पहचान
धूमिल गुमशुदा है
सिर्फ आकृति
है अचीन्ही
एक चेहरा लापता है
हैं सभी साक्षी
मगर अब कौन दे आकर गवाही।