पतिव्रता | अनामिका
पतिव्रता | अनामिका

पतिव्रता | अनामिका

पतिव्रता | अनामिका

जैसे कि अंग्रेजी राज में सूरज नहीं डूबा था,

इनके घर में भी लगातार

दकदक करती थी

एक चिलचिलाहट।

स्वामी जहाँ नहीं भी होते थे

होते थे उनके वहाँ पंजे,

मुहर, तौलिए, डंडे,

स्टैंप-पेपर, चप्पल-जूते,

हिचकियाँ-डकारें-खर्राटे

और त्यौरियाँ-धमकियाँ-गालियाँ खचाखच।

घर में घुसते ही

जोर से दहाड़ते थे मालिक और एक ही डाँट पर

एकदम पट्ट

लेट जाती थीं वे

दम साधकर,

जैसे कि भालू के आते ही

लेट गया था

रूसी लोककथा का आदमी

सोचता हुआ कि मर लेते हैं कुछ देर,

मरे हुए को भालू और नहीं मारेगा।

एक दिन किसी ने कहा –

See also  रेलगाड़ियाँ | निकोलाइ असेयेव

‘कह गए हैं जूलियस सीजर

कि बहादुर मरता है केवल एक बार,

कायर ही करते हैं,

बार-बार मरने का कारबार।

जब तुमने ऐसी कुछ गलती नहीं की,

फिर तुम यों मरी हुई बनकर क्यों लेटी?’

तबसे उन्हें आने लगी शरम-सी

रोज-रोज मरने में…

एक बार शरमातीं, लेकिन फिर कुछ सोचकर

मर ही जातीं,

मरती हुई सोचतीं

‘चिड़िया ही होना था तो शुतुर्मुर्ग क्यों हुई मैं,

सूँघनी ही थी तो कोई लाड़ली नाक मुझे सूँघती –

यह क्या कि सूँघा तो साँप।’

और कुछ दिन बीते तो किसी ने उनको पढ़ाई

…गांधी जी की जीवनी,

सत्याग्रह का कुछ ऐसा प्रभाव हुआ,

See also  अँधेरा | राकेश रेणु

बेवजह पिटने के प्रतिकार में वे

लंबे-लंबे अनशन रखने लगीं।

चार-पाँच-सात शाम खटतीं वे निराहार

कि कोई आकर मना ले,

फिर एक रात

गिन्न-गिन्न नाचता माथा

पकड़े-पकड़े जा पहुँचतीं वे चौके तक

और धीरे-धीरे खुद काढ़कर

खातीं बासी रोटियाँ –

थोड़ा-सा लेकर उधार नमक आँखों का।

तो, सखियो, ऐसा था कलियुग में जीवन

पतिव्रता का…

आगे कथा

सती के ही मुख से

सती की व्यथा –

‘नहीं जानती कि ये क्या हो गया है,

गुस्सा नहीं आता।

मन मुलायम रहता है

जैसे कि बरसात के बाद

मिट्टी मुलायम हो जाती है कच्चे-रस्ते की!

काम बहुत रहता है इनको।

ठीक नहीं रहती तबीयत भी।

See also  हमेशा जवान है हमारा प्यार

अब छाती में इतना जोर कहाँ

चिल्लाएँ, झिड़कें या पीटें ही बेचारे!

धीरे-धीरे मैं भी हो ही गई पालतू।

बीमार से रगड़ा क्या, झगड़ा क्या,

मैंने साध ली क्षमा।

मीठे लगते हैं खर्राटे भी इनके।

धीमे-धीमे ही कुछ गाते हैं

अपने खर्राटों में ये।

कान लगाकर सुनती रहती हूँ

शायद मुझे दी हो सपनों में आवाज।

कोई गुपचुप बात मेरे लिए दबा रखी हो

इतने बरसों से अपने मन में

कोई ऐसी बात

जो रोज इतने दिन

ये कान सुनने को तरसे…

कोई ऐसी बात जिससे बदल जाए

जीवन का नक्शा,

रेती पर झम-झम-झमक-झम कुछ बरसे…!’

Leave a comment

Leave a Reply