नीलकंठी ब्रज भाग 17 | इंदिरा गोस्वामी
नीलकंठी ब्रज भाग 17 | इंदिरा गोस्वामी

नीलकंठी ब्रज भाग 17 | इंदिरा गोस्वामी – Neelakanthee Braj Part xvii

नीलकंठी ब्रज भाग 17 | इंदिरा गोस्वामी

अनुपमा की दशा भी गिरती जा रही थी। रायचौधुरी को लें, तो वे बहुत ही दुखी थे। उनकी सारी जमा पूँजी खर्च हो गयी, किन्तु अपने को भूलने वाले इस व्यक्ति को इसका ध्यान शायद ही रहा हो। उनकी पत्नी थीं, जो यह सब देख चुकी थीं। किन्तु जब से वह बीमार पड़ीं इनका हिसाब रखा ही नहीं गया।

वे अब पहले के समान अपने मरीजों की मदद करने को तैयार नहीं थे। एक दिन जब वे अपने अस्पताल में बैठे थे, किसी ने उन्हें बताया कि अयोध्या गली के पीछे वाली गली में एक व्यक्ति अपनी अन्तिम साँस ले रहा है, वह गले में एक चमेली की माला के अतिरिक्त पूर्ण रूप से नग्न है। पर डॉक्टर ने कोई उत्सुकता नहीं दिखायी। यदि ऐसा पहले होता, तो वे उस मरीज के पास दौड़े चले जाते और उसे अपने अस्पताल में अपनी देखभाल में ले आते।

फिर भी किसी दूसरे ने बताया कि वह रोगी वनखंडी के भगवान महादेवजी के मन्दिर के फाटक पर पड़ा हुआ है। रोगी की देखभाल करने वाला कोई नहीं है। कई दिनों से पानी की एक बूँद भी उसे नहीं दी गयी है। सबसे बुरी बात यह कि जिस पेड़ के नीचे वह आदमी पड़ा हुआ है, उसी पर एक कुरूप गिद्ध अपने अभिसार के लिए पंख तोडक़र जम गया है। यह मात्र दुख और डरावनी ही नहीं, बल्कि शर्म की बात है। सम्पूर्ण मानवता के लिए शर्म की बात है। रायचौधुरी जानते थे कि ऐसा ही है, तो भी उन्होंने कुछ नहीं किया।

राधेश्यामी ने, जो अनुपमा की सेवा में नियत थी, सौदामिनी का अपनी माँ के प्रति उपेक्षा के लिए विरोध किया। उसने कहा, ‘तुम अपनी माँ के पास क्यों नहीं जाती? तुम उनके लिए स्नेहभरी विकलता क्यों नहीं दिखाती? वह निश्चित रूप से कुछ और दिन उन्हें जिलाये रख सकता है। यह तुम्हारी शक्ति में है कि जीवन की कुछ मोहलत उन्हें तुम दो। तुम्हें बस इतना ही करना है कि जैसा वह चाहती हैं वैसा तुम उनके साथ रहकर व्यवहार करो। सचमुच यह बहुत अच्छा काम करना होगा। मेरी बात को तुम समझ रही हो न?’

जब वह कह रही थी, उस बूढ़ी औरत का चेहरा घृणा के कारण विकृत हो गया जो उसने सौदामिनी के प्रति व्यक्त किया, और सौदामिनी थी कि बिना एक शब्द कहे सुन रही थी। यद्यपि उसकी कड़ी फटकार को झेलना असम्भव-सा प्रतीत होने लगा, किन्तु उसने अपने पर काबू रखा और कुछ नहीं कहा।

उस औरत ने जोर दिया, ‘कुछ दिन और… फिर पृथ्वी पर कोई शक्ति नहीं है जो तुम्हारी माँ को पकड़ कर रख सके। फिर जहाँ चाहो जाओ। फिर शादी करो ईसाई से, मुसलमान से, सिख से, पंजाबी से, जिसे तुम चुनो। पर अभी उसे थोड़ी राहत दो। उसे शान्ति से मरने दो।’

डॉक्टर रायचौधुरी, लगता था, बुरी तरह दुखी थे। पिछले कई दिनों से वे घिसटती-सी चाल के साथ चल रहे थे। आँखें चारों ओर की वस्तुओं पर नहीं, बल्कि अपने पैरों के पंजों पर टिका रखी थीं। हमेशा से ही कम बोलने वाले, वे अब किसी को सामने से देखने में भी हिचकिचाते दिखाई दे रहे थे।

सौदामिनी को लगा, वह स्थिति और अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकती है। समय पंख वाले तीर-सा उड़ा जा रहा था। यह वही समय था, जब उसके पति का जिगरी दोस्त ब्रज में आ रहा था। उन्हें मिले बिना कई दिन गुजर गये। सम्भवत: वह आया और निराश लौट गया। उसे देखे बिना। अब वह और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी। उन्हें मिलना ही पड़ेगा। समय गुजरता जा रहा है। ठीक पंखदार तीर के समान उसकी गति बढ़ती ही जा रही थी।

सबेरे से ही आकाश स्याह था। अब उसने एक भूरे घोसले-सा रंग धारण कर लिया था। दोपहर को भारी वर्षा हुई, यद्यपि असामयिक थी। मोरनी, जो अपने बच्चे के साथ छत पर खेल रही थी शरण के लिए, उसी के कमरे में छुप गयी थी। मादा पक्षी के थोड़े गीले पंख, थोड़े पीले पंख दिखाई दे रहे थे। वह छोटा बच्चा भूरा-सा बत्तख के बच्चे-सा दिखाई दे रहा था।

वर्षा और पीले पड़े आकाश ने सौदामिनी के दिमाग के भयंकर एकान्त को और अधिक बढ़ा दिया। उसने दो हजार राधेश्यामियों में से प्रत्येक से पूछते पाया कि उस जैसी स्थिति का उन्होंने कभी अनुभव किया है?

वर्षा के थमने के बाद भी आकाश बादलों से ढँक गया था। क्या उसे एक और प्रयत्न करना चाहिए?-उसने अपने आपसे पूछा। बहुतों ने पहले भी परिणाम पाये हैं। उसे प्रेरित करने उसके सामने कुछ और उदाहरण थे। शक्तिशाली निर्णयों के आधार पर बड़ी-बड़ी कठिनाइयों पर विजय पाने वाले कुछ उदाहरण हैं। ये कहानियाँ सोने के फ्रेम में मढऩे योग्य हैं। कई आत्मत्याग की कहानियाँ भी हैं, जो ब्रज के लोगों के लिए शाश्वत कथाएँ बन कर आ गयी हैं।

मोर का वह छोटा बच्चा चहका। उसी क्षण वह मोरनी भीगी-सी दिखाई दे रही थी।

साधारणत: ऐसा विश्वास किया जाता है कि समय और ईमानदारी से किया गया प्रयत्न अनेक परिवर्तन ला सकता है। एक व्यक्ति की अहमियत अक्सर उसकी दशा बदल देती है। एक बात जब कभी चिन्तन-मनन में भिन्न प्रकाश में दृष्टिगोचर होती है। क्या वह पापी है?- सौदामिनी अचरज करने लगी। क्या तुम उसे पाप कहतीं हो जिसने इन चिन्ताओं को बेकार दृष्टिकोण मानकर झाड़ दिया? कभी भी पाप का कुतर्कपूर्ण प्रश्न और ईश्वरीय अनुकम्पा उसके दिमाग को कष्ट नहीं पहुँचा सके। वह पतित औरतों में समझी जाती थी। जीवन में सब कुछ खोने के बाद भी वह सब कुछ नष्ट कर देने वाले प्यार में अपने आपको समर्पित कर देना चाहती थी। उसका प्यार संघर्ष का जीता-जागता उदाहरण था। महान आत्मबोध का प्रतीक था और यह प्रेम जीवन और मृत्यु के साथ उलझ गया था। क्या उसके सिवा किसी अन्य ने ब्रज की इस पवित्र भूमि पर रहते हुए अपने स्वर्गीय पति की प्रतिमूर्ति को अपने ही दिमाग में काला करने की कोशिश की? एक बार वह एक प्रौढ़ राधेश्यामी से मिली थी, जिसने गोपेश्वर की पत्थर की मूर्ति पर दूध उँड़ेलने और बेल के वृक्ष के चारों ओर घूमने का अपना दैनिक नियम पूरा किया था। वह अन्य कई अवसरों पर भी उसे मिली थी भजनाश्रम में, भिक्षागृह पर और यमुना में स्नान करते समय। एक दिन उसने विश्वास के साथ उससे पूछा, ‘ऐसा आसानी से देखा जा सकता है कि तुम्हारे दिमाग में तुम्हारे पति की याद पूर्णत: मिट नहीं पायी। पर स्पष्टत: बताओ तुमने कभी यह प्रयत्न नहीं किया उसे इतने सालों के बाद भी भुलाने का?’

वह औरत अपने सामने इस प्रकार का प्रश्न और वह भी सौदामिनी के द्वारा पूछे जाने से विस्मित-सा अनुभव करने लगी।

‘जब कभी वह याद धीमी पड़ने का डर हुआ, मैंने फिर से उसे ताजी नयी बना दी।’

‘फिर तुम्हारी इच्छाओं का क्या…’

उस औरत ने सीधे सौदामिनी के चेहरे को देखा और उसकी आँखें नम हो गयीं। सौदामिनी ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लिये और कहा, ‘सच बताओ, क्या तुम उस पुराने प्यार को विस्मृति के गर्त से खोदकर बाहर निकालने-सा अनुभव करती हो?’

टकटकी लगाये आश्चर्य में डूबकर उस औरत ने सौदामिनी की ओर देखा और दूसरे ही क्षण सौदामिनी के कन्धों पर, असहायता से नदी के किनारे की मुलायम मिट्टी में सरकती-सी, लुढक़ गयी।

सौदामिनी भी बहुत अधिक दुख का अनुभव कर रही थी। उसकी आँखें आँसुओं से भर आयीं। पर उसने अपनी भावनाओं को दबा लिया और उस औरत से पूछा, ‘उस अधिक खालीपन से अपने को बचाने के लिए तुम क्या करोगी?’ इस पर उस औरत ने उत्तर दिया, ‘बड़े निष्कपट भाव से, कुछ दिन तक चमेली के फूलों से भरे बगीचे में मैं घूमती रही। यह काफी लम्बे समय के पहले की बात है जैसा कि तुम जानती हो। तब मेरे बालों के गुच्छे लम्बे और चमकीले थे। चमेली के बगीचे में खुद की परीक्षा के लिए घूमती रही। अपने आपके साथ आमना-सामना करते हुए खड़ा होना काफी कठिन और क्रूर है। फिर भी मैं बगीचे में घूमा करती थी। मोरनियों को रसभरी खिलाने में आनन्द पाती थी। एक बार एक विद्यार्थी ने मुझे मुट्ठी भर रसभरी देने की दृढ़ता दिखायी। मेरे माथे पर आये लम्बे बालों को अपनी अँगुलियों से झटकते हुए उसने लम्बे समय तक मेरे पैरों को घूरा। किन्तु मैंने उसे हतोत्साहित किया। क्योंकि मैं अपने आपका परीक्षण कराना चाहती थी। अत: बगीचे में एक सिरे से दूसरे और दूसरे से पहले तक घूमती रही। फिर एक बार एक दूसरे विद्यार्थी ने भी कुछ रसभरी मुझे पेश कीं और पहले के समान मेरे पैरों पर ध्यान केन्द्रित किया और मेरे बालों के गुच्छों पर भी। फिर भी उसी तरह मैं बगीचे में घूमती रही। तब से काफी लम्बा समय बीत गया और मेरे सुन्दर पैर भी अब दरकने लगे और खुरदरे हो गये। भजनाश्रम में मेरा नाम है और धाक भी। मेरी दोस्त, मेरा विश्वास करो।’ कहते हुए वह सौदामिनी के करीब आ गयी और कानों में फुसफुसायी, ‘प्रार्थना के समय जब मैं इस थैली में माला जपती हूँ, मैं चमेली की पंखुड़ियों की नरमी महसूस करती हूँ। बचपन में वे ‘अच्छी लड़की है’ कहकर मेरी प्रशंसा करते थे। अब भी वे मुझे सम्मान देते हैं, किन्तु यहाँ देखो। यह मेरी जपमाला की थैली है। तो भी जब मैं माला जपते अपना इसमें हाथ डालती हूँ लगता है, मैं चमेली के फूलों की नरमी का आनन्द उठाती हूँ।’

सौदामिनी और अधिक प्रश्न उस औरत पर थोपना नहीं चाहती थी। वह बढ़ गयी। वह काफी डरी-सी हुई थी।

वहाँ की गर्जना के बावजूद सौदामिनी ऊपर के अपने कमरे में अपनी माँ को बुरी तरह खाँसते हुए सुन सकती थी। उसने उसे काफी पीड़ा पहुँचायी।

क्या उसे अपनी माँ के पास जाना चाहिए और बेटी के प्यार एवं वफादारी से उसके सिर पर अपना हाथ रखना चाहिए? यह महिला उसकी माँ है? अपनी प्रिय पुत्री के आराम के लिए उसने जीवन भर ऐसे त्याग किये हैं और अब अपने अन्तिम क्षणों में है। क्या यही प्रतिफल है?

फिर तभी सौदामिनी ने किसी को दरवाजे पर दस्तक देते सुना। वह उठी और दरवाजा खोल दिया, और अपने पिता को अपने कमरे के सामने खड़ा पाकर वह आश्चर्य से भर गयी। वे तुरन्त उसके कमरे में आये और उसका आकलन करना शुरू किया। उन्होंने कहा, ‘तुम्हारा कमरा, पूरी तरह लम्बे समय से यूँ ही पड़ा है। मैं मुश्किल से ही तुम्हारे आराम की देखभाल कर पाया हूँ। दीवार के ये छेद स्पष्टत: क्या तुमने देखा नहीं?’

कम शब्द बोलने वाला वह व्यक्ति, उसके पिता अचानक बहुत अधिक भावुक हो गये। बेटी आश्चर्यचकित हो गयी। ‘एक मोटा पर्दा यहाँ एकान्त के लिए आवश्यक है…’ पिता ने कहा, ‘इस जगह के लोग अपने ही कुएँ से पानी भरते हैं।’ फिर वे खिड़की से, जहाँ वे कुछ समय से खड़े थे हटे और एक बेंच को अपनी ओर खींचा और बेटी के बाजू में बैठ गये।

सौदामिनी की परख रखने वाली आँखों से यह बात बच नहीं पायी कि बहुत कम समय में ही उसके पिता बहुत कमजोर हो गये हैं। उनकी पीठ धनुष-सी झुक गयी है। उनका मुरझाया-सा चेहरा और झुर्रीदार त्वचा दिखाई दे रहे थे। सौदामिनी ने अपने आपको कई दिनों से अपने पिता की देखभाल न करने के लिए दोषी माना।

उसे अब अधिक देर तक अपने पिता को देखना बर्दाश्त नहीं हुआ। उसकी आँखें नम हो गयीं।

‘मैंने तुम्हारी सलाह के बिना एक चीज की,’ उसके पिता ने कहा।

सौदामिनी को लगा कि यह विश्वास करना कि जो कुछ उसने सुना वह सच है मुश्किल है।

‘तुम सचमुच आश्चर्यचकित होगी। क्या तुम देखती नहीं हो कि समय पंख वाले तीर के समान कैसे भाग रहा है। क्या तुमने उनकी गिनती की, जो बहुत कम समय में दृश्य से गायब हो गये? किसे मालूम कि हमारे लिए भी अन्तिम घड़ी ज्यादा दूर न हो! और जब यह समय आता है चोरी से…अच्छा, अब हम इन चीजों को यहीं छोड़ें।’ पिता कुछ समय के लिए मौन रह गये।

अच्छा यह व्यक्ति उसके पिता हैं। सौदामिनी अपने विचारों में पीड़ा से भर गयी। उसके महान पिता, जिनकी सहिष्णुता, बुद्धिमत्ता और आत्मविश्वास उदाहरण के योग्य थे। ऐसा आदमी, जिसने उल्लेखनीय जीवन जिया, अपनी इमानदारी और पवित्रता के साथ। फिर उन्होंने कहा, ‘मेरे इस हाथ की ओर देखो। कुछ समय से मुझे लगता है कि वह सुन्न और असंवेदनशील हो गया है। मुझे भय है कि बहुत जल्द ही मुझे उस गाय के समान, जो चलने और अपना पोषण करने में असमर्थ हो जाती है, असहाय जीवन जीना पड़ेगा।’

सौदामिनी ने अपना सिर उठाया। उसने अपने पिता की आँखों की कोरों के नीचे एक काला धब्बा देखा। उसे चन्द्रभानु राकेश के उसी प्रकार के धब्बे का भी इसके पहले से ध्यान था। यह विफलता से जन्य निशान मोहभंग, दुखद वियोग का संकेत है।

फिर पिता ने बोलना शुरू किया, ‘मैंने तुम्हारे उस दोस्त को पत्र लिख दिया है, इस खास समय पर उसका यहाँ आना जरूरी है।’

फिर वे सौदामिनी के करीब सरके और अपनी खुरदुरी हथेली से उसके बालों को बड़ी मृदुता से सहलाना शुरू किया। वे चालू रहे,’ अब वास्तविकता से सामना करने का समय है। क्या तुम नहीं सोचती, समय ने यहाँ जरूरी रूप से बुलाया है। वह स्वयं आ गया है। अत: उठो और तैयार हो जाओ।’

क्या वह सचमुच में अपने माता-पिता के प्रति अकृतज्ञ रही थी? क्या उसने कोई ऐसा काम किया जो उसके माता-पिता नापसन्द करते थे? वह अपने बचपन के बीते हुए दिनों को याद करने लगी। उसने हमेशा अन्य को पीड़ा पहुँचाने और क्रूरता भरे इरादों से अपना बचाव किया। उसकी माँ ने उसे एक बार बताया कि वह उनकी आँखों का तारा है। मालूम है उन्होंने क्या कहा था?

अपनी माँ की आँखों के तारे के रूप में ही सौदामिनी ने बचपन और युवावस्था के लम्बे वर्ष बिताये थे। सुब्रतो, उसके पति, जिनका अब निधन हो चुका है, से मिलने के पहले उसके कई प्रेमी थे। किन्तु उसने किसी के सामने अपने बर्फ-से गोरे वक्षस्थल को अपने ब्लाउज के बटन खोलकर नहीं दिखाया था।

तब यदि वह सद्गुणी है, तो क्यों कर ऐसा हुआ। क्योंकि वह अपनी माँ की आँखों का तारा थी। नहीं, निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। वह पेसोपेश में पड़ गयी।

आकाश बादलों से घिर आया था। मोरनी अपने बच्चों के साथ बाहर उड़ गयी। सौदामिनी अत्यधिक एकान्तता में स्तब्ध बैठी थी।

समय उड़ा जा रहा था और तेज उड़ा जा रहा था-सौदामिनी ने अपने आपको याद दिलाया।

ठंड आ गयी। शामें काफी ठंडी हो गयीं। राधेश्यामियों ने सूजे पैरों के साथ रायचौधुरी के अस्पताल में जमा होना शुरू कर दिया।

सौदामिनी कड़ुवाहट से भरी थी कि बातें वैसी नहीं होतीं जैसी उन्हें होनी चाहिए। उसके प्रेमी के आ पहुँचने का समय था। प्रत्येक नाव, जो मथुरा से आती थी और केसीघाट में रुकती थी, सौदामिनी उन्हें पास से देख रही थी। नाव की लाइटों की चमक और चप्पू की धम-धम की आवाज उसे अपेक्षा से अधिक आतुर बना रही थी। अपनी उत्तेजना के लिए वह स्वयं अपने आपको दोष दे रही थी। उसे विश्वास हो गया कि उसकी कोमल भावनाएँ बहुत पहले सूख गयी हैं। अब उसने महसूस किया कि उसका यह विचार गलत है।

उसका ईसाई प्रेमी, जिसने उसे जीवन के नये मोड़ देने का पक्का विश्वास दिलाया था, लगता है उसके पिता के पत्र की प्रतीक्षा कर रहा था। उसी दिन जब विदेशी ईसाई यात्री समूह को किसी व्यस्त मन्दिर में प्रवेश की अनुमति से इनकार करने पर एक संक्षिप्त शोरगुल की घटना घटी, उसी दिन केसीघाट पर एक नाव आ खड़ी हुई। यह मथुरा के अकू्रर घाट से रवाना हुई थी। सौदामिनी का ईसाई प्रेमी उसी नाव से आ पहुँचा।

वह कृष्ण पक्ष का आखिरी दिन था। रात काफी गहरी और भारी थी। फिर भी काफी रात तक वह डॉक्टर अपने मरीजों को, जिनमें से अधिकांश सूजे पाँव झेल रहे थे, देख रहा था। फिर उन्होंने अपने हाथ-पैर धोये और कुएँ से पानी खींचा, ड्यूटी पर नियुक्त चौकीदार को प्रांगण की चाभी सौंपी, फिर सेवा निवृत्त हुए। सौदामिनी उनसे काफी पहले निवृत्त हो चुकी थी और अन्य दिनों से बिल्कुल अलग गहरी नींद में जल्दी से सो गयी।

फिर अचानक दरवाजे पर दस्तक पड़ी। वह चौंककर जाग उठी। उसका पहला विचार था कि और अधिक मरीज अस्पताल में आ रहे हैं-सूजे पाँवों के साथ राधेश्यामियाँ। वे डॉक्टर को आधी रात को भी कैसे तंग करती हैं। फिर भी उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि दर्द इतना है कि बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। और तो और, वे औरतें आपस में पशुशाला में पड़े हुए सड़े आलू के लिए रात बीतते ही लड़ पड़ती हैं और गीली ठंडी सुबह अपनी-अपनी माँदों में दुबक जाती हैं। कितना भद्दा-सा दृश्य!

सौदामिनी ने दरवाजा खोला और अपने पिता को हाथ में लैम्प लिये नंगे पाँव बरामदे में खड़े पाकर वह आश्चर्यचकित रह गयी। पिता एक शब्द बोलें, इससे पहले उसने कहा, ‘मुझे मालूम है कि राधेश्यामियों के लिए तुम्हें यह कमरा चाहिए। अच्छी बात है। मैं अभी इसे खाली किये देती हूँ। मुझे अपने बिस्तर को ऊपर ले जाने दो।

पिता ने लैम्प की चाभी (बत्ती) घुमायी ताकि वह अच्छी तरह जल सके।

‘नहीं, तुम गलत समझ रही हो। मैं तुम्हारा कमरा नहीं चाहता। कोई और बात है। तुम्हारा दोस्त आ चुका है। इस समय वह घाट के पास वैष्णव पट्टी पर प्रतीक्षा कर रहा है। यह अजीब समय है। पर कोई चारा नहीं। अनुपमा सो रही है। वह सबेरे ही उठेगी। अब तैयार हो जाओ। अपने को अच्छी तरह ओढ़नी से सुरक्षित कर लो, क्योंकि बाहर काफी सर्दी है।’

किन्तु वह हिचकिचायी, ‘मुझे मालूम है कि मुझे उससे मिलना है, किन्तु…।’

‘अपने सिर को पल्लू से अच्छी तरह ढँक लो और मेरे पीछे चलो।’ पिता ने कहा।

जैसे ही उसने अपने आपको अच्छी तरह ढाँका, उसने अपने आपसे ही फुसफुसाकर कहा, ‘तुमने मुझे अच्छी तरह समझा है। यह वह तरीका है जब कोई व्यक्ति अपने आपको परख सकता है।’

फिर दोनों बाहर आ गये। आकाश बादलों से ढँका था। असामयिक शीत की रिमझिम फिर से शुरू होने को थी।

उन्होंने कुछ राधेश्यामियों को रास्ते के किनारे बैठी हुई, अपने सिरों को स्कार्फ से ढँके हुए देखा। वे शहनाई के मधुर सुरों को सुन रही थीं, जो रंगनाथ स्वामी के मन्दिर से तैरते आ रहे थे। लालटेन की रोशनी में उन्होंने दो छायादार आकृतियों को उनके रास्ते को काटते देखा, पर कोई भी यह जानने को उत्सुक नहीं था कि वे कौन हैं। उन्होंने अपने सिर तक नहीं उठाये। वे सब आध्यात्मिक आनन्द, जो मृदु और तैरते सुरों ने प्रेषित किया, में खो गये।

सौदामिनी और उसके पिता किनारे पर पहुँचे और किनारे पर लंगर लगी नाव को ढूँढ़ निकाला। वह हवा में झूम रही थी। नाव की लाइट हल्के-से चमक रही थी। कभी-कभी लगता था कि वह बुझ गयी।

पिता वहाँ खड़े हो गये और बेटी को आगे बढऩे को कहा। हवा तेज बह रही थी। ब्रज में रेत उछालते और उस स्थान में देखना मुश्किल बताते हुए सौदामिनी चलती गयी। फिर उसने पीछे देखा और सुदूर हल्के से झुकी हुई अपने पिता की आकृति को, जो अपने हाथ में लालटेन ली हुई थी, पहचान सकी। अचानक उसने किसी मुलायम एवं गद्देदार वस्तु, जो उसके पैरों के नीचे आ पड़ी थी, पर कदम रख दिया। वह किसी औरत का रंगीन दुपट्टा था जो अपने पति के जीवित रहते मर गयी थी। उसने कपड़े की गाँठ से अपने पैर को अलग किया और दूर फेंक दिया। उसका उपयोग उसके पति के द्वारा उसके अन्तिम संस्कारों के समय किया गया होगा। वह कितनी भाग्यशाली होगी, चाहे जो हो, सौदामिनी ने सोचा और किनारे पर लंगर लगी नाव की ओर फिर से बढ़ चली। उसने फिर पीछे देखा, किन्तु उसके पिता की वह धुँधली आकृति अब दिखाई नहीं दे रही थी। वह नाव के पास आ गयी और वहाँ वह था-उसका प्रेमी, वह रेत पर चहलकदमी कर रहा था।

वह आगे आया और उसकी ओर हाथ बढ़ाया। उसने उसे अपने हाथ में लिया, फिर उसके पीछे उस बोट की शरण में चली गयी। यह एक बड़ी इकाई थी, जिस पर सुरक्षात्मक छज्जा भी था। जैसे ही उसके भीतरी भाग में दोनों चढ़े, वह हिल उठी।

आखिरकार इस प्रकार अन्त हुआ। ठीक ऐसा ही हुआ, जैसा वह बातों को आकार देना चाहती थी। वह पूर्णत: अपने विश्वास में सही थी कि उसने अपने जीवन का अर्थ उस व्यक्ति में खोज लिया है, जो उसके पास बैठा है और उसके नथुनों की साँस उसके शरीर को गर्म कर रही है। क्यों, और कोई औरत है, जिसके लिए ब्रज की पवित्र मिट्टी महत्त्वहीन साबित हुई!

सौदामिनी अपने दिमाग का पीछा करने वाले चिन्तापूर्ण विचारों के कारण पीड़ित एवं उदास थी। ठंडी हवादार रात में भी उसके माथे पर स्वेदकण चमकने लगे। उसने अपनी उँगली से उन्हें पोंछ लिया।

अब उसने अपने पास बैठे उस आदमी पर खोजपूर्ण दृष्टि डाली और कहा, ‘इस पवित्र मिट्टी पर तुम ही मेरे एक मात्र सहारा हो। मेरी सारी पुरानी यादें अब धुँधली हो गयी हैं। मैं इन दिनों अपने मृत पति को अपने शत्रु के रूप में देखती हूँ। मैंने उसमें दोषों की कल्पना करना शुरू कर दिया है। वैसे मेरे लिए वह निर्दोष है। जैसा कि तुम जानते हो, किन्तु अब मैं भी कितनी अजीब चरित्र हूँ।…यह उचित नहीं है। यह बहुत अधिक अनुचित है। यह उस आदमी के प्रति, जो मर गया ,है क्रूरता है और मुश्किल से ही न्यायपूर्ण है। परन्तु मेरी विकट स्थिति देखो। आह, दुर्भाग्य, उसके प्रति कठोर और अनुचित होकर, जैसे कभी मैंने उसे प्यार और आदर दिया है, सान्त्वना पाने की कोशिश कर रही हूँ।’

हवा पहले से अधिक तेज बहने लगी थी। वह और अधिक तेज हो गयी। वह रेत के बड़े गुबार उठाने लगी और ऐसी संरचनाएँ बनायीं, जिससे हर कहीं गहरे कटोरेनुमा गड्ढे दिखाई देने लगे। चारों ओर असमंजस की स्थिति थी। अभी तक शहनाई का जो सुर तेज स्पष्ट तैरता आ रहा था, अब सुनाई नहीं दे रहा था।

‘मुझे कसकर पकड़ लो, अपने आगोश में और जकड़ लो। तुम क्यों रो रहे हो? वे कहते हैं कि तुम ईसाई हो, हाँ, ईसाई हो तुम, पर इससे क्या अन्तर पड़ता है मुझे या किसी और को। तुम्हारे शरीर की मेरे हृदय पर पड़ने वाली गर्मी वही है, जो मेरे मृत पति की हुआ करती थी। जरा भी अन्तर नहीं है।’

उसके शान्त संयम और शान्त सम्मान ने उसे छोड़ दिया और उसने आवेश में आकर रोना शुरू कर दिया। उसने उससे कहा, ‘मुझे चूमो। मुझे पहले के समान उसी हार्दिकता से चूमो। मुझे जल्दी से चूमो, क्योंकि मैंने अपने मृत पति से इसका स्वाद लिया था। यह वही पुराना स्पर्श है।’

ऐसा कहते हुए सौदामिनी नदी के तल में रेत के बड़े टीले के धँसने के समान अपने प्रेमी की छाती पर पसर गयी।

फिर उसने उससे कहा, ‘इस समय मैं तुम्हारे संयम की ठंडक रख नहीं सकती। बिल्कुल नहीं। पर स्पष्टता से मुझे बताने दो कि मैं बड़ी उत्सुकता से इस क्षण के लिए देख रही थी। कितने तहेदिल से मैं प्रतीक्षा करती थी। इसकी प्रशंसा केवल अब कर सकती हूँ।’

हवा और तेज बह रही थी। नाव डोलने लगी। आकाश में बिजली कौंध रही थी। अब नाव में बैठा रहना सुरक्षित नहीं था।

‘चलो, किनारे के उस एकान्त बरसाती में चला जाए। यहाँ तो तूफान आ रहा है।’

दोनों नाव से बाहर आ गये और किनारे पर घाट के पास की झोपड़ी की ओर दौड़ पड़े। तुरन्त ही रेत का तूफान शुरू हो गया। नदी ने संकट का रूप धारण कर लिया, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था।

नदी राक्षसी रूप धारण कर चुकी थी।

धूल और रेत का बड़ा गुबार बनने लगा और प्रेमियों के क्रियाकलापों में विघ्न डालते हुए बड़े खम्भे-सा बढऩे लगा। फिर भी दोनों दौड़ते रहे। वर्षा और तूफान की ओर ध्यान दिये बिना अपने लक्ष्य पर पहुँचने तक वे दौड़ते रहे।

तब तक अर्धरात्रि का समय गुजर चुका था। तूफान अभी भी बढ़ रहा था।

एक बार फिर सौदामिनी के दिमाग में दुराग्रही शंकाओं ने प्रहार किया। सब बातों के परे वह क्या चाहती थी? क्या यही सब अधिकारों एवं विचारों की उपेक्षा कर उसने पाया है? अपने प्रेमी से उसने कहा, ‘तुमने भी उस भयंकर एकान्त को अनुभव किया होगा। तुम भी बूढ़े होते जा रहे हो, क्योंकि अँधेरे में भी तुम्हारे सिर पर सफेद लकीरों को मैंने देखा है।’ किन्तु उसने एक भी शब्द नहीं कहा। केवल अपना सिर उसने घुटनों पर टिका लिया।

‘नहीं प्रिय, कोई कारण नहीं है। हम आज अपने हृदय के बाहर आ जाएँ। सब दिनों का आज यह वह क्षण है, जो मायने रखता है। अन्य कुछ नहीं। बाकी सब सोच-विचार बेकार है। इसका सबसे अधिक फायदा उठाओ। यह हमारे जीवन की महानता का क्षण है। इस क्षण को शाश्वत हो जाने दो। पास से मुझे चूमो या आलिंगन में मुझे जकड़ लो। ठीक पागल प्रेमी-सा। बाकी सबका महत्त्व मेरे लिए खो चुका है। यह वही दिन है, जिसकी प्रतीक्षा मैं कर रही थी।

‘तुम रो रहे हो, प्रिय! यह मुझे दुखी बना देता है।’ लड़की ने कहा, फिर कुछ देर रुककर उसने कहना चालू रखा, ‘इस दिन के लिए मैं देख रही थी, क्योंकि मैंने सोचा कि जीवन में मेरे लिए यह नया अध्याय खोलेगा और नयी दिशा का विचार देगा। मैंने सोचा मेरे सारे भय और हिचक पर यह पूर्ण विराम लगा देगा। आओ, मेरे प्रिय, मेरे पास आओ! बाहर के तूफान-सा ही मेरे दिमाग में भी तूफान उठ खड़ा हुआ है। मैं निराश हो चुकी हूँ। मैं भूखे भेड़िये के समान आतुर हूँ। मेरी इस गर्मी के पीछे है शरीर और दिमाग का उत्ताप। एक ईसाई और एक हिन्दू, जो हर्षोन्मादी आलिंगन में बद्ध हैं, इसका रहस्यपूर्ण उत्ताप। वह उत्ताप, जिसमें मैं अपने जीवन और अस्तित्व का अर्थ पाती हूँ।

‘मैं चाहती हूँ कि दूसरे भी हमारे उष्ण हृदयों की लक्ष्यपूर्ण धडक़नों को सुनें।’

तभी उस झोपड़ी की टूटी दीवार में दरार आ गयी और वह गिर पड़ी।

‘वे, जो धर्म के कारण तुम्हें जाति के बाहर समझते हैं कसाइयों से अधिक अच्छे नहीं हैं। मैं उन्हें कसाई ही कहूँगी।’ सौदामिनी विद्रोह के साथ कहने लगी।

फिर अपने घुटनों के बीच अपने सिर को रख वह सिसकने लगी, जैसे कोई छोटी लड़की हो।

तूफान बढ़ने लगा। पीपा के पुल के खम्भों से तैयार ठूँठों के टकराने की आवाज सुनी जा सकती थी। सौदामिनी ने अनुभव किया कि उसने किसी असहाय आत्मा के पास के भँवर में खो जाते समय की तेज चीख सुनी है। नदी के उस स्थान के बारे में कहा जाता था, प्रत्येक वर्ष कुछ राधेश्यामियाँ वहाँ जलसमाधि पाती हैं। आज पानी के तालाब ने, लगता है, पागलपन की उत्तेजना में एकाएक डरावना व्यक्तित्व धारण कर लिया है।

टूटी दीवार के पास किसी चीज के लुढक़ने की आवाज सुनाई दी। सौदामिनी अपनी जगह से उठ खड़ी हुई। फिर उसे पता चला कि वह लुढक़ने वाली वस्तु कुछ और नहीं, बल्कि लालटेन है, जिसे उसके पिता अपने साथ लाये थे। इसका मतलब है कि अभी भी उसके पिता घाट की सीढ़ियों पर बैठे हुए हैं। अत: अपेक्षा से उसने बाहर झाँक कर देखा। पर वह बढ़ते तूफान एवं अँधेरी रात के कारण किसी आकृति की छाया तक का पता नहीं लगा सकी।

हवा ने कमरे में खुली खिड़की के माध्यम से कुछ सूती ऊन के गुच्छों को उड़ा दिया। वे एक राधेश्यामी के कम्बल से फाड़े गये थे। कुछ दिन पहले किसी चोर ने उस कम्बल को फाड़ डाला और उसके अन्तिम संस्कार के लिए रखे पैसे चुरा लिये।

पूरे समय वह प्रेमी चुपचाप मासूम बच्चा-सा अपने प्रिया की अधीरता-भरी चुहल देख रहा था। वह अब उसके पास आयी और घुटने के पास घुटनों के बल बैठ गयी। फिर उसने कहा, ‘चलो उस लकड़ी के तख्ते को जमीन पर बिछा दें और उस पर बैठ जाएँ। ब्रज के कुछ युवा गुंडों ने माधव-नारायण के पंडों की बेईमानी उजागर करने के लिए यह बोर्ड बनाया था। हम कुछ देर यहाँ आराम कर सकते हैं। तूफान के थमने तक। ओह, क्या भयंकर तूफान है, बाहर सब कुछ गुड़-मुड़ है। देखो, लहरें कैसे उठ रही हैं। क्या वे यहाँ तक पहुँच जाएँगी और हमें डुबो देंगी? बहुत दिनों पहले तुम्हें मालूम है, मैंने ठीक ऐसा ही दृश्य सपने में देखा था। क्या लहरों के सिरे कसाइयों के सिरों-से दिखाई नहीं दे रहे हैं! कितने अजीब दिखाई देते हैं वे!-वे लहरें, और कितनी डरावनी।’ फिर कुछ देर रुककर उसने ग्लानि से कहा, ‘मेरी माँ अब और अधिक नहीं जी पाएँगी। और यह मैं हूँ, जिसे उनके असामयिक मृत्यु के लिए दोषी माना जा सकता है। जैसे ही मैं अपनी माँ के बारे में सोचती हूँ, मैं पीड़ा से भर जाती हूँ, क्योंकि हिलोरों वाली लहरें लगता है, मुझ पर आक्रमण करने को हैं। घोड़े के टापू जैसी उनकी आवाजें मुझ पर चढ़ाई करने को बाहर आयी हैं, मैं ऐसा अनुभव करती हूँ। मेरे पास आओ, मेरी आत्मा, मेरे और अधिक पास आओ। मुझे चूमो और मेरे अन्तरतम की गर्मी को महसूस करो। मुझे इसकी आवश्यकता है, अत्यधिक आवश्यकता है। मेरे लिए यह ओछापन नहीं है। यह वह है, जिससे मैं अपना परीक्षण करती हूँ। शायद तुम मेरी विचारधाराओं की प्रशंसा नहीं कर सकते। किन्तु मेरे पास आओ। मेरे प्रिय, हम यहाँ बैठें, इस तख्त पर, एक दूसरे के बिल्कुल करीब।’

अत: वे उस तख्त पर जाकर बैठ गये, जो माधवनारायण के मन्दिर के अनैतिक कार्यों का गवाह था। उस क्षण वे दोनों वहाँ बैठे हुए दो पवित्र पुष्पों से दिखाई दे रहे थे।

तूफान सुबह के पहले घंटों में बिना खत्म हुए बढ़ता जा रहा था। जब सौदामिनी झोपड़ी से बाहर आयी कुछ देर के लिए लगा, वह थम गया। पर वह थमा नहीं था। अब लगने लगा मानो पहले जैसा ही भीषण तूफान था। नदी का स्तर बढ़ता जा रहा था। तेजी से। पानी किनारों को करीब-करीब छू रहा था। वह उसकी ओर बढ़ी। वहाँ और आकाश की गर्जना के बीच उसने अपने अस्तित्व को, दर्द और अकेलेपन के मृदु सुर का पीछा करते हुए अनुभव किया। अनाम दुख ने उसकी आत्मा को दयार्द्र कर दिया। ‘क्या मैंने यह सब इस प्रकार घटे, ऐसा चाहा था?’ उसने अपने आपसे बारबार पूछा-‘क्या ठीक ऐसा ही मैंने चाहा था?’

एक बार और लगा, उसने बिल्कुल अलग तरीके से उन भीषण टापों को सुना। वह चिन्तातुर अनिश्चित-सी घायल, बिना शस्त्र के सिपाही-सी प्रतीक्षा करने लगी। लेकिन किसकी प्रतीक्षा, यह निश्चित नहीं था।

समय गुजरता गया। क्या उसे वापस लौटना चाहिए। किसके पास लौटे, अपने मृत पति की, हठी यादगारों की दर्दभरी शरण में।

सौदामिनी ने पीछे तूफानी रात में मौसम से पीडि़त आश्रय की ओर देखा। समय निराशाजनक ढंग से गुजर रहा था-ऐसा उसने महसूस किया। उसकी माँ की मृत्यु का समय तेजी से निकट आता जा रहा था। यह सब इस तरह क्यों हो गया? क्यों, ओह, क्यों, अन्य अधिकांश निस्सहाय आत्माओं ने उसी के सामने जीवन के सच्चे आश्रय को एकत्रित किया। बुद्धिमत्ता एवं सन्तुलन के शब्द। शब्द, जिन्हें सुनहरे फ्रेम में मढ़ा जा सके। यहाँ, इसी स्थान पर पिछले दिनों देवधरी बाबा ने, जीवन और जगत से सम्बन्धित अमूल्य परामर्श दिया था। वहाँ एकत्र राधेश्यामियाँ उससे अभिभूत थीं। वे आनन्द एवं अत्यधिक विवशता के आँसू बहाने लगी थीं। बाबा के पैरों की धूल सिर पर लगाकर उन्होंने कामना की थी, ‘मेरा जीवन और अंग, जहाँ मैं बैठी, झड़ जाएँ। मेरा मांस और मेरी हड्डियाँ अपने तत्त्वों में समा जाएँ, तो भी मैं डगमगा न सकूँ, जब तक कि आत्मबोध का सच्चा प्रकाश मुझमें उदित न हो।’ आत्मज्ञान, जो सच्चा है और दुर्लभ है, मुश्किल से ही पाया जाता है। कई युगों के आडम्बरहीन ध्यान के बाद ही।

‘अपने आवेशों और लौकिक बन्धनों पर नियन्त्रण पाओ।’ उपदेशक ने कहा। क्या भगवान अर्धनारीश्वर ने कभी अपने प्रिय का चेहरा देखा भी है?’

‘सत्य सोने के कण के नीचे दबा रहता है। उस कण को हटाओ। ओ सूर्य, ताकि हम वह सत्य, जो शाश्वत हो, देख सकें और जो सदा जीवित रहें।’

शब्द बुद्धिमत्ता एवं सच्चे न्याय की पवित्रता को प्रतिबिम्बित करते हैं। अमूल्य हैं, बहुत अधिक अमूल्य कि सोने के फ्रेम में जड़ा जा सके। कितने दुख की बात है कि वह उस उपदेश के एक भी शब्द से प्रेरित होने में असफल रही।

नदी की ऊँची लहरें सरकती जा रही थीं। ठंउी हवा हड्डिïयों को कँपा रही थी। एक नया दिन उगने को था।

अनुपमा, उसकी माँ, मर जाएगी, बहुत जल्दी मर जाएगी। सफलता की घोषणा करेगी और फिर वह स्वर्ग की याद करने लगी और तुरन्त ही उसकी आत्मा के सारे बन्द दरवाजे खुल गये एक क्षण के लिए पीछे से बाहर आया, जिसके आलोक में उसने उस भीषण आशंका का दर्शन किया। नहीं, अनुपमा को उस पर विजय नहीं पाने देना है। पर क्यों नहीं? उसे अपनी बात सिद्ध करने देना चाहिए।

फिर वह अपने हृदय के मित्र, अपने प्रेमी से कहने लगी, नरमी से, ‘मुझे क्षमा करो और लौट जाओ। क्षमा करो।’

ठीक उसी समय फिर भारी वर्षा शुरू हो गयी। लगा बादलों के बड़े-बड़े टुकड़ों ने टकराना शुरू किया। काफी जोरदार हवा चली। वह उसके दुबले-पतले शरीर के चिथड़ों में घुस गयी। पीपा पुल के दूसरी ओर किसी जगह पर बादल गरजे और बिजली गिरी, किन्तु इस स्पष्ट तैयारी का उपयोग क्या है! पर उन तत्त्वों को किसी छोटी कम उम्र की लड़की को, जो बुरी तरह हमले से घायल हो गयी हो, जीवन का स्वागत करने के लिए इतना क्रियाशील क्यों होना चाहिए?

वह आगे बढ़ी। उसे मालूम था कि यह एक सुनहरा अवसर है। वह जानती थी कि वह लौटकर नहीं आएगा।

लहरें नृत्य और गर्जना कर रही थीं और किनारे तक उठ रही थीं। वह और आगे बढऩे लगी। उसने चेतावनी की एक चीख पीपा पुल की एक ओर से आती सुनी। ‘हमारी पवित्र माता राधा के नाम पर मैं तुम पर आरोप लगाती हूँ। कदम आगे मत बढ़ाओ और आगे नहीं जाओ। नदी में बाढ़ आ गयी है।’

उसने पहचान लिया कि वह आवाज उस सँपेरे की थी। वह उस बुरे मौसम का फायदा उठा रहा था।

वह पवित्र शब्द, ‘राधा की जय’, लगता है, सारी धरती पर और आकाश में निश्चित आपदा के क्षण व्याप गया।

समय तेज भाग रहा था और समाप्त होता जा रहा था। आगे के सोच-विचार से क्या फायदा! मात्र सोच-विचार। किन्तु एक खास प्रश्न उसका पीछा कर परेशान कर रहा था। वह उन भीषण किनारों के सिरों तक पहुँची। किन्तु ऐसा क्यों था? इसे ऐसा ही होना चाहिए था। किन्तु क्यों?

फिर अन्तिम छलाँग। दिन निकला। वे खोज सकते थे। उस तूफान झेली नदी के किनारे पर उसका दुपट्टा एक रंगीन दुपट्टे के साथ गुँथा हुआ था, जो किसी ऐसी औरत का था, जो भाग्यशाली रही कि जिसने अपने पति के जीवित रहते ही अन्तिम साँस ली।

नदी के किनारे अफवाहें फैल गयीं। उन्होंने राधेश्यामियों की बड़ी संख्या शामिल कर ली। पहला झटका खत्म हुआ। उन्होंने विदा हो गयी आत्मा के बारे में जैसे चाहे वैसी कल्पनाएँ कीं। उनमें से उसके लिए कोई आदरणीय या प्रिय नहीं था। उनमें से एक भी सहानुभूतिपूर्ण नहीं था। उसका दुपट्टा, जो रेत में से खोद कर बाहर निकाला गया, उसे उन्होंने उसके अव्यक्त चरित्र को उकेरने में लगा दिया, जिसका वे अपने-अपने तरीके से अर्थ लगा सकते थे।

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नीलकंठी ब्रज भाग 17 – Neelakanthee Braj Part xvii

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  2. नीलकंठी ब्रज भाग 2
  3. नीलकंठी ब्रज भाग 3
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  5. नीलकंठी ब्रज भाग 5
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