नीलकंठी ब्रज भाग 1 | इंदिरा गोस्वामी
नीलकंठी ब्रज भाग 1 | इंदिरा गोस्वामी

नीलकंठी ब्रज भाग 1 | इंदिरा गोस्वामी – Neelakanthee Braj Part i

नीलकंठी ब्रज भाग 1 | इंदिरा गोस्वामी

मथुरा छावनी स्टेशन पर ज्यादा यात्रीगण नहीं उतरे। शायद जंक्शन पर उतरते। इसके बावजूद साधु-संन्यासियों की भीड़-भाड़ और सामान के भार से लदे-फदे सैलानियों के कोलाहल से मथुरा छावनी के माहौल में चहल-पहल मच गयी। पंडे यात्रियों की गन्ध पाकर मँडराने लगे।

डॉक्टर रायचौधुरी भी सपरिवार मथुरा छावनी पर ही उतर पड़े। जिन्दगी के आखिरी दिनों में ब्रजवास करने की बहुत पुरानी साध थी। उनकी पत्नी अनुपमा देवी भी यही चाहती थीं। उन लोगों की इच्छा थी कि उम्र का चौथापन शान्तिपूर्वक व्यतीत हो। बची हुई आयु में उन्हें कोई भीषण आघात न सहना पड़े। उनकी इकलौती बेटी सौदामिनी असमय ही विधवा हो गयी थी। पर इतने से ही खैरियत नहीं हुई। कच्ची उम्र में विधवा होने के बाद भी एक ईसाई नौजवान से मेलजोल बढ़ा बैठी। कट्टर सनातनी धर्मभीरु रायचौधुरी-परिवार के लिए यह एक अकल्पनीय आघात था।

युवावस्था में अनुपमा देवी एक बार क्षयरोग की शिकार क्या हुईं, तब से उनकी सेहत लगातार गिरती चली गयी। फिर इस हादसे के बाद तो वह और भी टूट गयीं। वृन्दावन में डॉक्टर रायचौधुरी के दादा का एक चिकित्सालय था। बचे हुए जीवन के दिनों को काटने के लिए इस ढहते हुए चिकित्सालय का जीर्णोद्धार करने की उनकी इच्छा भी थी। इसके अलावा रायचौधुरी खानदान के सभी लोगों के मन में कहीं यह विश्वास भी था कि शायद ब्रजवास के प्रभाव से उनकी बेटी का मन बदल जाएगा और वह हकीकत का मुकाबला कर सकेगी।

तभी उनका पुराना पंडा गौतम आता दिखाई दिया। नमस्कार के उपरान्त उसने कहा, ‘बाहर ताँगा खड़ा है, आप लोग जाकर बैठिए। मैं सामान की व्यवस्था करता हूँ।’ सामान ताँगे पर चढ़ा दिया गया। सौदामिनी ने गौर किया, घोड़ा मजबूत है। सामान और सवारी दोनों के बोझ से जरा भी नहीं बिदका। सौदामिनी को चारों तरफ ताँगे ही ताँगे दिखाई दिये। यह झूलन का समय है। ताँगे और घोड़े को इस ढंग से सजाया गया है कि देखने से ही आँखें जुड़ा जाती हैं। घोड़े के गले में तुलसी और कौडिय़ों की माला और सिर पर मोरपंखी कलगी लगी हुई है।

गौतम पंडा ताँगे के पीछे-पीछे साइकिल पर चलने लगा। मुख्य सड़क पर बढ़े जा रहे दूसरे ताँगों के हुजूम में रायचौधुरी का ताँगा भी शामिल हो गया। मथुरा छोड़ वृन्दावन की तरफ बढ़ते घोड़े की टापों की ध्वनि एक संगीत रच रही थी। पीछे आ रहे ताँगे की बगल से साइकिल पर आते हुए एक आदमी का ऊँचा स्वर सौदामिनी को सुनाई पड़ा, ‘हजार बरस पहले एक लाख घुड़सवारों की सेना ले महमूद गजनवी आया था यहाँ। घोड़ों की टापों से उड़ी हुई धूल से उस दिन भी मथुरा ढँक गयी थी। दो दिन तक चलती रही थी विनाश-लीला। मार्ग के दोनों तरफ के जंगल को देखिए।’

सौदामिनी ने भी दोनों तरफ देखा। धूल-धूसरित कँटीली झाड़ियों और बबूल के झाड़ों से भरा हुआ जंगल। बबूल के काँटे मछली के काँटे के समान एकदम तने हुए थे। बैंगनी रंग के खिले हुए फूल ऐसे लग रहे थे जैसे उन्हें ऊपर से खोंस दिया हो। बीच में एक-दो मोर भी पंख फैलाये दिखे।

फिर से एक और स्वर सुनाई पड़ा, ‘जरा और अन्दर की ओर देखिए-कुन्द नीम और बबूल के झुंडों के बीचोबीच आपको एक और रहस्यमय जंगल दिखाई देगा। किसी समय संन्यासियों और भक्तों के खून से रक्तरंजित हो अपवित्र हो गया है मन्दिर का प्रांगण। पर यह सब उस समय की बात है, जब हिरण और चीतों के झुंड के झुंड भरी दोपहर में इस जंगल में घूमा करते थे। महमूद गजनवी के कोड़े से मार खाए ब्रजमंडल के भक्तों ने एक दिन इसी जंगल में शरण ली थी।’

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यह व्यक्ति बात करने का ढंग जानता था। उसके बात करने के अन्दाज ने सभी को अपनी तरफ सम्मोहित-सा कर लिया था। सौदामिनी को भी। किन्तु इसी दौरान पीछे आ रहे ताँगे के घोड़े ने फुर्ती दिखाते हुए सौदामिनी के ताँगे को पीछे छोड़ दिया।

इस समय झूलन, राधा-अष्टमी आदि त्योहारों की भीड़-भाड़ थी। सड़क पर अजीब-सा संन्यासियों का एक झुंड दिखाई पड़ा। उनके चेहरे और शरीर पर राधा बाग के सफेद गोपीचन्दन की चित्रकारी थी। चेहरे पर उदासी का जरा भी नामोनिशान नहीं था। जंगल के दोनों बाजू बबूल की शाखा-प्रशाखाओं से मकड़ी के जाले की तरह लिपट टूटे हुए भवनों के खँडहर दिखाई दिए।

फिर से वही कंठ-स्वर सौदामिनी को सुनाई पड़ा, ‘दस सौ अठारह ईस्वी की विनाश लीला का वर्णन मुख से नहीं किया जा सकता। बीस दिनों तक चलता रहा था यह विध्वंस। अभी भी अगर यहाँ खुदाई की जाए तो भग्न-मूर्तियों के अंग-प्रत्यंग मिल जाएँगे।

ताँगे अब पंक्तिबद्ध हो धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो पंडा के उच्च कंठ की मधुर मदिरा को पीकर इस सुन्दर सड़क पर आगे बढ़ रहे हों। यह एक भक्त का सहायक था। बातों की लंतरानियों के बल पर ही जनता-जनार्दन को वशीभूत करने में निपुण था। ब्रजवासी उसे चरण बिहारी कहकर बुलाते थे।

‘सुनिए, यह सुनकर कि गजनी का महमूद मथुरा लूटने आ रहा है। बुलन्द शहर के राजा ने क्या किया, सुनिए।’

चरण बिहारी यहाँ थोड़ी देर के लिए रुक गया, क्योंकि ताँगे में बैठी एक औरत ने उसकी ओर पान बढ़ा दिये थे।

‘लम्पट हरदत्त राज्य की सारी देव-प्रतिमाओं को यमुना के जल में डुबोकर बड़ी धूम-धाम सहित एक करोड़ रुपये के साथ तीस हाथी ले महमूद की शरण में पहुँच गया। दूसरी तरफ महावन के ओजस्वी राजा ने युद्ध किया और हार जाने पर अपनी रानी को…।’

ताँगे रुक गये। घोड़े पानी पिएँगे। किसी दानी भक्त ने रास्ते के किनारे घोड़ों के लिए पक्की हौजें बनवा रखी थीं। अंजीर के वृक्षों की छाँव में हौजों का साफ पानी ठंडा बना रहता है।

ताँगे कतार को तोडक़र यहाँ इकट्ठे हो गये। अच्छा मौका पाकर चरण बिहारी हर एक ताँगे के पास जा पहुँचा। प्रत्येक ताँगे में एक-एक पंडा बैठा हुआ था। वे सब भन्ना उठे, ‘तुमने यजमान हथिया लिया है, अब यहाँ क्यों मँडरा रहे हो?’

मुँह में बीड़ी खोंसे हुए एक पंडा सबका ध्यान खींचते हुए बोला, ‘जितने लोग ब्रज में रंगजी के बारे में जानते हैं, उससे कहीं अधिक तुम्हारे क्षीर-लालच के बारे में जानते हैं।’

अपनी लंतरानियों से सवारियों का मन मोहने वाले के बारे में सीधा कटाक्ष सुनकर दूसरे पंडों को मजा आ गया। थोड़ी देर तक हँसी-दिल्लगी चली, बाद में गाली-गलौज की नौबत आ गयी। हाथा-पाई हो जाना तो यहाँ बहुत ही सहज है, गनीमत है यहाँ तक नौबत नहीं आयी।

ताँगेवाला घोड़े को तैयार कर चिल्लाया, ‘समय नहीं है। झूलन, रंगनाथ का मेला, राधा-अष्टमी की धूम-धाम है। अब और समय नहीं है।’

भक्तों की अनगिनत भीड़…रुपया और अठन्नी-चवन्नी फेंकने से धूल उड़ रही है। एक-एक क्षण नवयौवना के मोहक दुपट्टे-सा झिलमिला उठता है।

घोड़े जोत दिये गये। पानी पिये घोड़ों के नथुने फड़क रहे थे। कन्धे हिलाकर वे हिनहिना उठे। इस समय वे और अधिक चुस्त लग रहे थे। इस बार उन्नतकंठी चरण बिहारी ने साइकिल पर सवार होने से पहले उच्च स्वर से सभी को सुनाते हुए कहा, ‘किसी भी तरह की असुविधा होने पर आप लोग मेरे पास आएँ। मेरा नाम चरण बिहारी गौतम है। आप जहाँ भी रहना चाहें-महेश्वरी कुंडा, भूतगली, रेतिया बाजार।’

ताँगे में बैठे हुए पंडे इस पर बौखला उठे। चुस्त घोड़ों ने जैसे लोहे की सड़क पर कदम रख दिये हों। उनके टापों की गूँज और मोरों की पुकार को छोड़कर वैसे शान्ति छायी हुई थी।

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एकाएक सौदामिनी की नजर पड़ी। इस बार चरण बिहारी ठीक उसके पीछे साइकिल चलाता आ रहा था। सौदामिनी को देखते ही उसने सोचा, यही उसकी श्रेष्ठ श्रोता हो सकती है। वैसे भी इस चन्द्रमुखी के पीछे-पीछे चलना अधिक आनन्ददायी होगा। चरण बिहारी की नजरें टटोलने लगीं, सौदामिनी के सिर पर सिन्दूर है या नहीं। गले में मंगलसूत्र? नहीं। और भी एक निशानी- पैरों में बिछुवे? नहीं। सफेद साड़ी जरूर नहीं पहना है। वैसे भी आजकल कच्चे वयस की विधवाएँ सफेद साड़ी नहीं पहनती हैं।

उसे एक बहुत पुरानी बात का स्मरण हो आया। काफी पहले कोमिल्ला राजशास्त्री और पूर्वी दिनाजपुर से कम ऐसी ही उम्र की विधवाओं का एक दल आया था। वे बहुत दिनों की भूखी थीं। उनके बीच कई चरित्रहीन भी थीं।

उस समय चरण बिहारी बाँका नौजवान हुआ करता था। वह लम्पटों के साथ घूमा करता था। जिस तरह कसाई जानवर को काटने से पहले उसे टटोलकर देखता है, वैसे ही उस लम्पट-मंडली के लोग उन बेबस लाचार युवतियों के कपड़े फाड़कर उनके अंग-प्रत्यंग की जाँच-पड़ताल करते थे। उनके शरीर की बनावट में कहीं कोई कमी नहीं थी। उन कम उम्र विधवाओं की मुख्य समस्या थी दो जून की रोटी।

भगवान कृष्ण के लीला-स्थल वंशीवट के नीचे ब्रजबिहारी ने उन पन्द्रह वर्षीया कम-उम्र युवतियों के खुले हुए स्तन देखे थे-पानी से भीगी हुई फिसलन वाली मिट्टी की तरह पसीने से सराबोर अनावृत वक्ष। वैसी ही लम्पट मंडली काशी-द्वारका आदि तीर्थ स्थानों पर भी इसी तरह चीते के समान घात लगाये घूमा करती थी।

छि:-छि:?

ताँगे में बैठी हुई एक बुढ़िया की फटे चीथड़े में सहेजी हुई रोटियाँ छिटककर सड़क पर जा गिरीं। वह उलाहने के स्वर में चीख उठी-छि:-छि:?

चरण बिहारी फिर से अपने विचारों की टूटी हुई कड़ी को पुन: जोड़क़र सोच रहा था कि उन बालाओं को माँ बनने का सुख कभी नसीब नहीं हुआ। यदि मिला होता, तो उनकी खुली छातियों पर पानी के दानों की तरह शिशु के होठों की अस्पष्ट छाप अवश्य होती।

घोड़ों की टापों और पहियों की घरघराहट को छोड़ चारों ओर नीरवता थी। इस शान्ति के शुभ अवसर का फायदा उठाते हुए चरण बिहारी पंडा बोल पड़ा, ‘इसके बाद सुनिए-‘ ताँगे में बैठी सवारियों का आग्रह और तरोताजा मुखाकृति को भाँप चरण बिहारी ने बोलना शुरू किया, ‘फिर आया सिकन्दर लोदी। यह साढ़े चार सौ बरस पुरानी बात है। इस लोदी ने मथुरा के सारे मन्दिरों को तुड़वाकर उन स्थानों पर कसाई की दुकानें खुलवा दीं तथा टूटी हुई मूर्तियों के टुकड़ों को बटखरे बनाकर मांस तौलने का फरमान जारी कर दिया।’

यह सुनकर सभी मुसाफिर भौंचक्के, ठगे-से रह गये। तभी उसने सामने देखा। ताँगे के हिचकोले खाती सौदामिनी के शरीर से एकाएक हटे हुए वस्त्रों के कारण चरण बिहारी गौतम देख सका कि कहाँ कितना माँस है। पर सौदामिनी के नेत्रों को देखकर वह अवाक रह गया।

लबालब भरे हुए पोखर-से डबडबाये नेत्र। कहीं उसकी बात सुनकर तो नहीं… सिकन्दर लोदी की बटखरे वाली बात सुनकर? नहीं…नामुमकिन।

दर्द। हृदय में छिपे दर्द की छाया का प्रतिबिम्ब तरुणी के चेहरे को और भी मनमोहक बना देता है। परन्तु ठीक इसी समय चरण बिहारी के मन में एक अचरज भरा कांड घटित हुआ। सौदामिनी के चेहरे पर व्याप्त दु:ख की छाया ने मानो मूर्तरूप धारण कर लिया। चरण बिहारी ने भली-भाँति जाँच के बाद महसूस किया कि यह जीवन्त मूर्तरूप किसी और का नहीं, उसकी बेटी का है। उसे लगा, ऐसे ही उसकी बेटी अनेक बार उसकी विचारों की कडिय़ों को छिन्न-भिन्न कर उसकी आँखों के सामने आ खड़ी होती है। वह बेटी, जो मुरलीधर कृष्ण को पहनाने के लिए चमेली की माला गूँथा करती है।

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ताँगे लीलाबाग पहुँच गये। लीलाबाग का जंगल कँटीले बबूल की झाडिय़ों से पटा पड़ा है। इन्हीं झाडिय़ों के कारण वातावरण में एक प्रकार की रूक्षता छायी रहती है।

सौदामिनी के ताँगे की बगल से साइकिल चलाते हुए गौतम पंडा कहने लगा, ‘लीलाबाग के झूलन की शोभायात्रा अभी तक नहीं निकली है।’ उस उत्सव के निशान अभी भी विद्यमान हैं।

यात्रियों ने जगह-जगह जली हुई आतिशबाजी के टुकड़े तथा प्रसाद के दोने फैले पड़े देखे। श्री माँ आनन्दमयी के आश्रम पहुँचने पर वृन्दावन का दूसरा ही रूप देखने को मिला।

गौतम पंडा ने बताया, ‘इस बार बरसाना और हाथरस के व्यापारियों ने आना शुरू किया है। इन दोनों जंगलों पर सूखा पड़ा है। अभी एकाध गाड़ी ही यहाँ आयी है।’

रास्ते पर दो-एक भैंसागाड़ियाँ दिखाई दीं। ये गाड़ियाँ सौराष्ट्र की ऊँटगाड़ियों से मिलती-जुलती थीं। लदे हुए सामान के भार से भैंसों की गरदन जमीन की ओर झुकी जा रही थीं और नथुनों से फिचकुर झर रहा था।

ताँगे चुंगी नाका के पास पहुँचे। चुंगी नाके का गेट बन्द था। गेट के पास सिपाहियों का हुजूम दिखा। झूलनोत्सव के कारण बाहर से आने वाले माल पर चुंगी टैक्स लगाया जा रहा था। एक तगड़ा सिपाही लाठी से भीड़ को ठेलता हुआ रायचौधुरी के ताँगे के पास जा पहुँचा। ताँगे के चारों तरफ चक्कर काटकर सिपाही ने कडक़कर कहा, ‘नमक है, जुर्माना देना पड़ेगा।’

गौतम ने रायचौधुरी के करीब जाकर फुसफुसाकर कहा, ‘दस रुपये निकालिए, सिपाही का मुँह बन्द करने के लिए दस रुपये ही बहुत हैं।’

गौतम पंडा ने सही कहा था। दस का नोट सिपाही ने जेब के हवाले किया और गेट खुल गया। रायचौधुरी का ताँगा आगे बढ़ चला।

रंगनाथजी के मन्दिर का कलश दिखाई पड़ा। देखते ही सौदामिनी की आँखें सजल हो आयीं। उसके स्वर्गीय धर्मभीरु पति को यह मन्दिर बहुत ही पसन्द था। अपने पढ़ाई के दिनों में कई बार वे यहाँ आये थे। झूलन के कारण रंगनाथ में मेला-सा लगा हुआ था। यह मेला कई अजीब व्यापारियों का संगम था। सौदामिनी को सिंहद्वार पर एक दवा बेचने वाले की अजीब-सी दुकान दिखलाई पड़ी। बाघ का तेल, घड़ियाल की खाल, भाँति-भाँति की मछलियों के काँटे आदि सामग्री ने काफी जगह घेर रखी थी। पुराने-से लाउडस्पीकर पर वह धाराप्रवाह अपनी सामग्री का प्रचार कर रहा था। रंग-बिरंगे कपड़ों से सजा हुआ एक छोटा-सा चिड़ियाघर भी था। मेले में गाँव से आये हुए लोगों के लिए वह भी आकर्षण का केन्द्र बना हुआ था। मुख्य द्वार पर प्रेतों के समान दो कतारों में बैठे हुए भिखारी दिखाई पड़े। यह उत्सव का समय है। करोड़पति सेठ ब्रज दर्शन के लिए आएँगे। धोती, साड़ी, कम्बल आदि बाँटेंगे। अत: ब्रज में रहने वाली इन प्रेतात्माओं के लिए इससे बड़ा आकर्षण भला और क्या हो सकता है। अन्धकार से भरी हुई निर्जन गलियों में रहने वाले कोढ़ियों का भी समूह दिखाई दिया। ब्रजवासियों का कथन है कि लोगों की दया पाने के लिए ये कोढ़ी अपने अंग-प्रत्यंग को और भी अधिक वीभत्स बना लेते हैं।

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