नीलकंठी ब्रज भाग 2 | इंदिरा गोस्वामी
नीलकंठी ब्रज भाग 2 | इंदिरा गोस्वामी

नीलकंठी ब्रज भाग 2 | इंदिरा गोस्वामी – Neelakanthee Braj Part ii

नीलकंठी ब्रज भाग 2 | इंदिरा गोस्वामी

सभी ताँगे चौरास्ते पर खड़े हुए और यहाँ से दो भागों में विभक्त हो गये। अनेक ताँगों को चरण बिहारी ने अपनी वाकपटुता के बूते बिहारीजी के मन्दिर का रुख करा दिया था।

डॉ. रायचौधुरी का ताँगा गोपीनाथ बाजार की ओर जाने वाले मार्ग पर बढ़ चला। सड़क के दोनों तरफ प्राय: टूटे-फूटे ऐसे मकान थे, जिनकी दशा देखभाल और रखरखाव के अभाव में पुराने भोजपत्र-जैसी हो गयी थी। छोटी-छोटी रहस्यमय गलियों की शुरुआत तो दिखाई दे रही थी, परन्तु कहाँ जाकर ये गुम हो गयी हैं, इसका पता नहीं चल रहा था।

दशरथ-अखाड़े के मग्न मन्दिर के पास आकर ताँगा रुक गया। मन्दिर के सभी कमरे अतिथियों के लिए खोल दिए गये थे। डॉ. रायचौधुरी ने अन्दर की तरफ का एक अलग कमरा सौदामिनी के लिए खुलवा दिया। परन्तु भीतर घुसने के साथ ही सौदामिनी ने महसूस किया कि उसका दम घुटने लगा है। अन्दर रोशनी आने का कोई जरिया नहीं था। उसे लगा, मानो वह किसी तहखाने में पहुँच गयी है। सौदामिनी ने क्षुब्ध हो चारों ओर देखा। उसे लकड़ी की छोटी-सी एक खिड़की दिखाई दी। खीझी हुई सौदामिनी ने ताकत लगा खिड़की खोल दी। झीना-सा प्रकाश कोठरी के अन्दर भर गया। खिड़की से लगा नीम का एक वृक्ष था। औरतों की आवाज सुनकर उसने झाँक कर देखा, थोड़े-से फासले पर कुछ वृद्धाएँ घुटनों पर सिर रखे एक लाश के सामने बैठी हुई थीं। परन्तु उनमें से कोई भी औरत रो नहीं रही थी। वे मजबूर-सी बैठी थीं। मरी हुई बुढ़िया के करीब ही उसके फटे-पुराने कपड़े, घड़ा और उपले रखे हुए थे।

एकाएक यमदूत के समान दैत्याकार एक दलाल आ खड़ा हुआ। वह दलाल वृन्दावनवासी नहीं था। वृद्धाएँ सहम कर एक-दूसरे से सट गयीं।

पंडे का दलाल मृत वृद्धा का सामान तितर-बितर कर देखने लगा, उसने लात मारकर घड़ा तोड़ दिया और उपले उठाकर फेंक दिये। डर कर वृद्धाएँ परे सरक गयीं।

दलाल ने मृत वृद्धा के अस्थि-पंजर को टटोला, क्या पता उसकी कमर या बाँह के किसी हिस्से में बँधा हुआ सोने या चाँदी का ताबीज मिल जाए। कुछ मिला। दलाल ने कमर के नीचे से कुछ खींच लिया। झटके के कारण वृद्धा का शरीर अधनंगा होकर एक ओर पलट गया। मनुष्यता और जीवन को हेय सिद्ध करने वाले इस अद्भुत अविश्वसनीय नंगे शरीर को देख सौदामिनी के नथुने फडक़ उठे।

दलाल ने उजाले में आकर उस चीज को जाँचा और मुँह बिचका कर उसे जोर से दूर फेंक दिया।

‘अवश्य तुम लोगों में किसी के पास बुढ़िया कुछ रख गयी होगी, क्योंकि वह भजन आश्रम की राधेश्यामी थी।’

सारी वृद्धाएँ एक-दूसरे का मुँह देखने लगीं। एक ने हिम्मत बटोरकर काँपती आवाज में कहा, ‘बुढ़िया तुम्हारे बासन माँजती थी और आटा पीस देती थी।’

दैत्य चीख पड़ा, ‘चुप रह! चुप रह। मैं मुर्दा ढोने वाले चार आदमियों को बुलाता हूँ। वे इसे घसीटकर यमुना में फेंक देंगे।’

वृद्धाएँ फिर से एक-दूसरे का मुँह देखने लगीं। एकाएक उन्हें मुर्दे की बू पाकर मँडराने वाले उन चारों आदमियों की याद हो आयी। वे राधाष्टमी अथवा रंगनाथ की रथ-यात्रा के मेले की रेल-पेल में मरी-कुचली बुढ़ियों के पास मँडराते रहते हैं। कौन जाने, कंजूस बुढ़िया का कोई सोना-मढ़ा दाँत ही मिल जाए। इसलिए वे ब्रज की अस्सी कोस परिक्रमा, नन्द-उत्सव आदि समारोहों के चक्कर काटते रहते हैं।

सौदामिनी ने खिड़की बन्द कर दी। साथ ही उसने इस पहले दिन ही कसम खायी कि दोबारा फिर कभी यह खिड़की नहीं खोलेगी। आवश्यकता के अनुसार वह दिन में ही दीया जला लेगी। मथुरा से यहाँ तक तो उसे बुरा नहीं लगा, परन्तु इस कमरे में आकर सब कुछ तहस-नहस हो गया। निखन्नी खाट पर बैठकर उसने दोनों हाथों से सिर दाब लिया। नहीं, इस प्रकार से बहुत समय तक नहीं बैठा जा सकता। अभी उसकी बीमार माँ जाकर जाले साफ करने वाली है। कितने दिन रहेगी यहाँ वह? मन-शुद्ध होने तक? वह क्यों आयी है यहाँ? सचमुच वह लांछित है? क्या वह…। क्या वह यहाँ थोड़ी देर बैठकर रो ले? संवेदनाशून्य कसाई जैसे दुष्टों को याद करने की बजाय यहाँ थोड़ी देर बैठकर क्यों न रो ले?

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दोपहर के भोजन के बाद उसने छत पर जाकर देखा, सूरज नीमों के झुंड के पीछे जा छिपा है। छत के इस हिस्से से रंगजी के मन्दिर का विशाल परिसर दिखाई पड़ रहा है। परिसर में भीड़ जुटने लगी है। आज मेला है। जमीन में गड़ी वह बल्ली स्पष्ट दिखाई पड़ रही है, जिसे पकड़कर मल्ल लोग अपनी शक्ति का परिचय देंगे। मचान पर चढ़े पुजारी ऊपर से बल्ली पर तेल-पानी डाल रहे हैं। बूढ़े सूरज की निस्तेज किरणों में बल्ली रात के चमकीले साँप-सी चमक रही है।

मचान के पास ही सजा-धजा हाथी खड़ा है। कोलाहल तीव्र हो रहा है। तभी रंगनाथ के बुर्ज से तोप दागने की आवाज सुनाई पड़ी।

उसी समय सौदामिनी को नीचे से माँ की पुकार सुनाई दी, ‘आओ बेटी, नीचे आओ। चलो हम लोग भी मेला देखने चलें।’ अनुपमा इससे पहले अनेक बार ब्रज-यात्रा कर चुकी थीं, अत: वह यहाँ के गली-कूचों से अच्छी तरह से परिचित थीं। दोनों नंगे पैरों चल पड़ीं। बाजार में अंगूरों के ढेर आईनों-से चमक रहे थे। तुलसी की माला, गोपीचन्दन और माखनमाटी की दुकानें आज निराली सज-धज के साथ उत्सव के लिए तैयार थीं। परन्तु यशोदा दुलाल, वंशीधर और सूर्यवंशी राजाओं की चमचमाती अष्टधातु की मूर्तियों वाली दुकानें बाजी मार ले गयीं। इन दुकानों के सामने ग्राहक कम और दर्शक अधिक थे।

भीड़ को ठेलकर सिंहद्वार में प्रवेश कर पाने का साहस ये लोग नहीं कर पा रही थीं। सौदामिनी का हाथ थामकर अनुपमा ने मन्दिर की दीवार पर चढ़ने की कोशिश की। बाहर बरामदे में भी बहुत भीड़ थी।

बुर्ज से तीसरी बार तोप दागे जाने की आवाज सुनाई पड़ी। ध्वनि सुनते ही लोग प्रसन्नता के आवेश में शोरशराबा करने लगे। नग्न मल्लों ने बल्ली पर चढ़ने की कठिन प्रतियोगिता शुरू की। तेल चुपड़ी बल्ली बहुत चिकनी थी। मचान पर खड़े पुजारी ऊपर से घड़े पर घड़े पानी उड़ेलने लगे। ऊपर चढ़ने वाले प्रतियोगी फिसल-फिसलकर नीचे आने लगे। उन्हें रपटता देख कर जनता ठहाके लगाने लगी।

‘ग्रामीण वाद्य मंडली’ के सदस्य वीररस से भरी हुई धुन बजा रहे थे। धुन सुनकर मल्लों के हृदय में एक अभिनव रस का संचार होता था। अपनी वीरता को प्रकट करने का भला इससे अच्छा मौका फिर और कहाँ मिलता। किन्तु एक हद तक चढ़ने के बाद वे फिसलकर नीचे आ जाते। फिर चढ़ते, फिर गिरते। फिर चढ़ते, फिर गिरते। दर्शकों के ठहाके बढ़ते जाते। लगता मानो महाप्रभु रंगनाथ स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान हो आनन्द का रसास्वादन कर रहे हों। जैसे आज ये मनुष्य रूप धर कर खेल देख रहे हों।

‘चढ़ गया। चढ़ गया,’ का कोलाहल हुआ और गर्जना करते समुद्र के समान अशान्त जन समूह एक पल के लिए शान्त हो गया। एक खिलाड़ी तेल-पानी की बौछार की परवाह किये बिना ऊपर तक चढ़ गया। उसने एक हाथ से मचान को छुआ। दर्शकों के कान-फाड़ शोरगुल, हाथी की चिंग्घाड़, अट्टहास और चीख-चिल्लाहट से क्षण-भर में एक अद्भुत माहौल निर्मित हो उठा। सिंहद्वार पर पुलिस और सेवा समिति के कार्यकर्ताओं की लाठियाँ नदी के प्रवाह में बहते हुए नरकुल-समूह-सी लग रही थीं।

रंगजी का उपहार और आशीष…यह सब नहीं देखा जा सकता। किसी ने जैसे अनुपमा और सौदामिनी के कानों के पास आकर कहा, ‘भागो-भागो, भीड़ का रेला इधर ही आ रहा है- भागो।’

सौदामिनी ने अपने इस नये जीवन को स्वीकारने का प्रयास किया। स्वभाव से वह जिज्ञासा-प्रिय तरुणी थी। राधेश्यामी महिलाओं का जीवन, अर्वाचीन-प्राचीन मन्दिर, प्राचीन मन्दिरों के खँडहर, बिल्वमंगल-कुंज, शृंगार-वट, साक्षी गोपाल-कुछ भी तो नहीं छूटा था देखने से। वह उन ध्वंसावशेषों के करीब भी गयी, जिन्हें बबूल की कँटीली झाडिय़ों ने मकडज़ाल की तरह जकड़ रखा था। इन स्थानों पर अतीत के घुँघरुओं की झंकार सुनने के कौतूहल से वह कई दिनों तक अभिभूत रही। ब्रज के इन टूटे-फूटे स्तूपों और मन्दिरों के पास अपनी एक मर्मस्पर्शी भाषा है। जयपुर के राजभवन की पुरानी पाषाण-प्रतिमाओं में अब काई लग चुकी है। इसके बावजूद इनमें अब तक वही मर्मस्पर्शी संगीत की ध्वनि गूँजती-सी प्रतीत होती है। गोविन्दजी के प्राचीन मन्दिर की भित्तियों पर उत्कीर्ण दुर्लभ गोपी-चित्रों की हंस-धवल ग्रीवाओं के अग्र भाग को औरंगजेब द्वारा मिटवा दिये जाने के उपरान्त भी अब तक लाल-प्रस्तर के इस मग्न मन्दिर के भीतर बैठकर कान लगाकर सुनने पर एक हृदयस्पर्शी ध्वनि सुनाई पड़ती है।

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इस बीच कई दिन बीत गये। डॉक्टर रायचौधुरी ने चिकित्सालय के काम की शुरुआत कर दी थी। अक्सर वे बाहर ही रहते थे। कुछ दिनों तक सौदामिनी दोपहर में अखाड़े के चारों तरफ घूमती रही। अखाड़े के ठीक सामने हाड़ाबाड़ी के तरफ की गली में रहस्यमय संसार था। इसी के पास कुंजबिहारी मोहन का मन्दिर था।

एक दिन कुंजबिहारी मोहन की छत लाँघकर जैसे ही सौदामिनी सीढ़ियाँ उतरकर रहस्यमय संसार की ओर बढऩे को हुई, मन्दिर के किसी निम्बार्क मतावलम्बी साधु ने टोक दिया, ‘चूँकि तुम यहाँ के लिए अजनबी हो, इसलिए तुम्हारा उस तरफ न जाना ही बेहतर होगा।’

‘छज्जे पर खाट डालकर पड़े रहने तथा खास अवसरों पर पखावज बजाने वाले उस साधु की बात सुन सौदामिनी का कुतूहल बढ़ गया। साधू को प्रणाम कर बोली, ‘ब्रजधाम का कण-कण मेरे लिए कौतुक की चीज है।’

गन्दी और पुरानी सीढ़ियोंसे सौदामिनी नीचे उतर गयी। काई लगी लकड़ी से अधढँका अनुपयोगी कुँआ दिखलाई पड़ा। टूटी-फूटी कोठरियाँ दिखलाई पड़ीं। कई राधेश्यामी विधवाएँ इन कोठरियों में रहती थीं। उनकी कंकाल जैसी देहों पर मैली-कुचैली धोतियाँ लिपटी हुई थीं। इसके बाद भी उनके माथे पर गोपी चन्दन और भस्म की रेखाएँ दमक रही थीं।

सौदामिनी को देखकर वे कोठरियों से निकल आयीं। घोर आश्चर्य के साथ उन मरघिल्ली वृद्धाओं ने उसे चारों तरफ से घेर लिया।

‘अम्माँ, आप लोग यहाँ किस तरह से जिन्दा हैं।’

वे एक-दूसरे का मुँह देखने लगीं। कोटरों में धँसी अजीब-सी चमक वाली एक ने कहा, ‘आवश्यक होने पर काँचमन्दिर तथा रंगजी के फाटक के बाहर बैठकर हम लोग भीख माँगती हैं। कभी प्रसाद की उम्मीद में मन्दिर की सीढ़ियोंपर बैठे-बैठे रात गुजार देती हैं।’

‘आप लोग तो राधेश्यामी हैं। भजन-आश्रम में बैठने से दो जून की रोटी तो मिल जाती होगी।’

उनमें से एक खोखली हँसी हँस पड़ी। दूसरी लय मिलाकर बोलने लगी, ‘सेठ बाड़ी का भजनाश्रम, गोपीनाथ-बाजार का भजनाश्रम, बड़ाबाग का भजनाश्रम, घुड़साल का भजनाश्रम।

‘और सुनो, राधेश्यामियों के भाग का पैसा खा-खाकर मिनीम बाबू मुनीम की तोंद इतनी बढ़ गयी है कि अब तो उठा नहीं जाता। तुम एकदम नयी हो, कुछ नहीं जानतीं। यह पेटू बाबू हमारे सरकंडे के समान हाथ-पाँव देखकर ही समझ जाता है कि कब कौन-सी बुढ़िया भवसागर पार होने वाली है। उसे सब मालूम है कि किसके पास कितना जमा-जथा है।’

एक बार फिर वे प्रेतात्माएँ हँस पड़ीं। उनकी हँसी इस तरह कर्कश थी, मानो अस्थियों का खड़ताल बज उठा हो।

‘एक दिन इस पेटू की नजर ज्यों ही मेरे पैरों पर पड़ी, मैं जैसे-तैसे भागकर ही बची। वर्ना तो लात मार कर निकाल देता। मेरे पैर देखोगी?’

उसने अपने टखने पर से जैसे ही फटा हुआ कपड़ा हटाया, सौदामिनी सिहरकर पीछे हट गयी।

सभी औरतें श्वेत-कुष्ठ से ग्रस्त थीं।

‘माँजी, जब हम बाँकेबिहारी की गली, शाहजी के मन्दिर के द्वार और मदनमोहन के मन्दिर की सीढ़ियोंपर बैठ भीख माँगती हैं, तब एकदम तुम्हारे समान लोगों के दर्शन हो जाते हैं।’

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ऐसा कहकर एक बुढ़िया सौदामिनी के हाथों को सहलाने लगी। सौदामिनी की देह में झुरझुरी दौड़ गयी। रोंगटे खड़े हो गये। लगा जैसे इस प्रेतात्मा को सुख की अनुभूति हो रही है।

हिम्मत पाकर एक दूसरी बुढ़िया ने सौदामिनी की सोने की चूड़ियाँ देखने के बहाने हाथ पकड़ लिया।

एक दूसरी उसके मुँह के पास आकर बोली, ‘हमारे खाने के लिए कुछ दान-पुण्य कर जाओ। तुम लोग तो खाने के लिए जीवित हो। परन्तु हमें जीवित रहने के लिए खाने को दो।’

इसी दौरान कई और औरतें भी कोठरियों से बाहर निकलकर सौदामिनी की कोमल देह को छू-छूकर देखने लगीं। आखिर उनकी यह लालसा आक्रामक उत्तेजना में बदल गयी। सौदामिनी का जूड़ा खुल जाने से उसके बाल पीठ पर बिखर गये। ब्लाउज फट गया। यदि इस दरम्यान निम्बार्क सम्प्रदाय का साधु न आ पहुँचता, तो इन प्रेतात्माओं का झुंड जंगली कुत्तों का रूप धारण कर लेता।

पखावजी साधु चिल्ला उठा, ‘राक्षसियों, भागो, भागो यहाँ से, तुमने सोचा कि यहाँ कोई नहीं है। इस बार रंगजी के पहिये के नीचे सिर देकर मर क्यों नहीं जाती।

हड़काये गये कुत्ते की तरह काऊँ-काऊँ करती हुई वे अपनी सुरंग-जैसी कोठरियों में घुस गयीं।

साधु उससे बोला, ‘बिटिया, पहले ही मैंने तुम्हें मना किया था। वे इतनी पतित हो गयी हैं कि कुछ भी कर सकती हैं। चलो, तुम्हें पहुँचा दूँ। एक बात और सुनो। ये बहुत ही अभागिनें हैं। बेचारी, भूखा क्या पाप नहीं करता। सुना है, तुम लोग ब्रजवास के लिए आये हो। दुर्भाग्य की सतायी इन अभागिनों के कल्याण की कामना करना।’

गोपीनाथ बाजार की सड़क पर आकर सौदामिनी ने नाक और गरदन पर आयी पसीने की बूँदों को पोंछ लिया। अभी भजनाश्रम की छुट्टी नहीं हुई थी। औरतों के बीच खड़ी एक बुढ़िया खँजड़ी बजाकर गा रही थी। दरवाजे के करीब बैठा हुआ हिसाब-किताब रखने वाला पहरेदार यूँ तो गोमुखी में हाथ डाल माला जप रहा था, परन्तु तिरछी नजरों से राधेश्यामिनों पर भी नजर रखे हुए था कि वे ठीक से गा तो रही हैं। भूखे पेट भी उन्हें गाना होगा। गला बैठने को हो, तब भी गला फाडक़र चिल्लाना होगा। राधा-माधव के प्रेम अनुराग के गीत गाने ही होंगे। वियोग में आँसू बहाते हुए उन्हें उद्धव के निकट जाकर कृष्ण का सन्देश सुनाना ही होगा। निधु-वन, निकुंज वन और धीर-समीर घाट पर कृष्ण के सन्धान में व्यग्र होना ही पड़ेगा। सौदामिनी ने देखा, बीच-बीच में गाते समय उनकी नजर साग-भाजी की दुकानों की ओर चली जाती थी। दुकानदार सड़ी-कुम्हलायी सब्जियाँ छाँटकर एक तरफ रख देते हैं। इनकी एकमात्र खरीददार ये राधेश्यामी औरतें ही तो हैं।

सौदामिनी फिर अपनी उस अँधेरी कोठरी में घुस गयी। अपने अकेलेपन को दूर करने की कोशिश की, पर यह सब इतना सहज नहीं था। बीच-बीच में वह अपनी देह का भी परीक्षण करती रहती। सुन्दर, माँसल है उसकी देह। विगत सात वर्षों का मानसिक अत्याचार भी उसके शरीर पर कोई स्थायी निशान नहीं छोड़ सका। न-न अपने आपके साथ कोई समझौता नहीं हो सकता। क्या कभी किसी और की भी ऐसी मानसिक दशा हुई है!

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नीलकंठी ब्रज भाग 2 – Neelakanthee Braj Part ii

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  1. नीलकंठी ब्रज भाग 1
  2. नीलकंठी ब्रज भाग 2
  3. नीलकंठी ब्रज भाग 3
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  5. नीलकंठी ब्रज भाग 5
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