मुन्ने के बाबूजी
मुन्ने के बाबूजी

मुन्ने के बाबूजी तुमको,
याद नहीं क्या घर की आती?

प्राणनाथ मैं आज तुम्हारी,
निठुराई पहचान गई हूँ
हालचाल लिखती हूँ क्योंकि,
लिखना-पढ़ना जान गई हूँ
बहुत दिनों के बाद आपको,
रो-रोकर लिखती हूँ पाती।

जो बकरी तुम ले आए थे,
उसके बच्चे बड़े हो गए
रामसजीवन जी के लड़के,
खुद पैरों पर खड़े हो गए
अम्माजी का स्वास्थ्य नरम है,
खाँसी बाबूजी को आती।

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मुन्ना अब स्कूल जा रहा,
खूब हुआ है मोटा-तगड़ा
ड्रेस हो गईं सारी छोटी,
इसी बात का करता झगड़ा
एबीसीडी सीख गया है,
गिनती पूरे सौ तक आती।

रोज सुबह मुन्ने को लेकर,
रोज बड़े मंदिर जाती हूँ
सारी राह तुम्हारे किस्से,
सुना सुनाकर बहलाती हूँ
अब किस्सों से नहीं बहलता,
उसे तुम्हारी याद सताती।

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अबकी फसल आम की अच्छी,
ढेरों सारे फल आए हैं,
दूधनाथ के दोनों लड़के,
कलकत्ता से कल आए हैं
सबकुछ कितना बदल गया है,
काश, अगर तुमको लिख पाती

याद करो वह छत की बातें,
जिस दम आधी रात हुई थी
तीन महीने में ही वापस,
घर आने की बात हुई थी
बीत गए हैं तीन साल, पर,
खोज-खबर ना चिट्ठी पाती।

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वक्त नहीं काटे से कटता,
निष्ठुर मन क्यों हुआ तुम्हारा?
मेरे इस एकाकीपन का,
मुन्ना ही है एक सहारा
उँगली पर दिन गिनते-गिनते,
मेरी तो आँखें भर आतीं।

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