आभार | पंकज चतुर्वेदी
आभार | पंकज चतुर्वेदी

आभार | पंकज चतुर्वेदी

एक प्रदेश की राजधानी में मिले वह 
राष्ट्रीय परिसंवाद में 
एक विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर 
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक

नींद से जगाकर पहली ख़बर 
उन्होंने मुझे यही दी – 
‘मैं विभागाध्यक्ष नहीं बन पाया’

मैं समझ नहीं सका 
इस बात का 
मेरी ज़िंदगी से 
क्या संबंध है

तभी वहाँ आए मेरे मित्र 
मैंने उनसे परिचय कराया – 
ये गिरिराज किराडू हैं 
युवा कवि 
‘प्रतिलिपि’ के संपादक

बाद में उन्होंने पूछा – 
‘किराडू क्या तमिलनाडु का है ?’

मैंने कहा : नहीं 
पर आपको ऐसा क्यों लगा ?

वह बोले : किराडू 
चेराबंडू राजू से 
मिलता-जुलता नाम है

वैसे जो नाम वह ले रहे थे 
सही रूप में चेरबंडा राजु है 
क्रांतिकारी तेलुगु कवि का

फिर उन्होंने किसी प्रसंग में कहा : 
स्त्रियाँ पुरुषों को 
एक उम्र के बाद 
दया का पात्र 
समझने लगती हैं

परिसंवाद के आख़िरी दिन 
उन्हें बोलना था 
‘आलोचना के सौंदर्य-विमर्श’ पर 
मगर उससे पहले उनकी ट्रेन थी 
इसलिए आयोजकों ने चाहा 
कि वह ‘आलोचना के समाज-विमर्श’ पर 
कुछ कहें

यों एक सत्र का शीर्षक 
‘आलोचना का धर्म-विमर्श’ भी था

उन्होंने मुझसे कहा : 
इस सत्र में बोलने को कहा जाता 
तो ज़्यादा ठीक रहता

फिर कारण बताया : 
हिंदी की सर्वश्रेष्ठ आलोचना 
धर्म ही पर न लिखी गई है

बहरहाल उन्होंने अपने सत्र 
‘आलोचना का समाज-विमर्श’ में 
जो कुछ कहा 
उसका सारांश यह है : 
पहले भी दो बार बुलाया था यहाँ 
व्यवस्था अच्छी है 
आभारी हूँ 
इस बार भी 
आभार

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