पंछी
पंछी

मेरी इच्छाओं का पंछी 
उड़ चला है जाने किस कल्पवृक्ष की तलाश में 
कि पकड़ में ही नहीं आता

वह दिलफरेब यक्ष है कि देवता 
जिसकी मुट्ठी में कल्पवृक्ष

उड़ा चला जाता है अंतरिक्ष की ओर 
जाने कितनी कितनी आकाशगंगाओं के पार 
जहाँ कोई ध्वनि नहीं जाती 
कोई समय की सीमा नहीं

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ज़िंदगी होती जा रही है कम कम 
मेरे पास दूरी पाटने का कोई यंत्र नहीं

और वह इसे सिर्फ विडंबना कह कर मुस्कुराता है

साँसें, गति, चेतना, आवेग 
सृष्टि और दृष्टि 
चढ़ गए हैं विडंबना के उस जहाज पर

और जहाज अनंत समंदर में उतर गया है

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