मैं दुख बोती हूँ 
आँसू उगाती हूँ 
चलती जाती हूँ एक वीरान सड़क पर अकेले 
कहाँ मिलते हैं कबीर के साधो 
कौन आगाह करता है हिरना को 
किस छोर से आती हैं दुआएँ ललद्यद की 
ये किस काबे की तरफ बहा चला जा रहा है 
दुनिया का रेला 
अब तो लहू की वैतरणी है 
मांस और पीब की सड़न से भरी 
बड़े आका हैं, खुदा से भी बड़े 
बाँटते रहते हैं धरती, समंदर, आसमान और आदमी को 
जब तक चाहे खेलते हैं 
फिर तोड़ मरोड़ के फेंक देते हैं ये खिलौने 
मैं एक सुनहरी सुबह की तलाश में 
एक संदली शाम को खोजती 
चली जा रही हूँ जाने किस बहिश्त की आस में 
मैं कहती हूँ और रोती हूँ 
और फिर फिर दुख ही बोती हूँ

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