आजकल आधी-आधी रात के बाद 
सन्नाटे को सघन बनाती 
आती है दबेपाँव 
और चुपचाप 
सिरहाने बैठ जाती है कविता 
उड़ा ले जाती है मेरी नींद 
और मानस में 
ग्रहण करने लग जाती है 
कई-कई रूप

मेरी गली के नवागत 
नन्हें सोनू की शक्ल में 
आती है कविता 
मचलती रहती है 
पास आने के लिए 
और आकर तुरंत 
दूर भाग जाती है 
अपने आने की एक रेखा छोड़कर

सूरज की किरनें बनकर 
वह बाँटना चाहती है ऊर्जा 
खेतों में लगी 
फसल की बालियों में 
भरना चाहती है संगीत और लय 
नाच जानी चाहती है 
बनकर दूध

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नन्हें शिशु की पलकों में 
बोना चाहती है 
दुनिया को बदलने के 
असीम सपनों के बीज, 
बन जाना चाहती है 
उसके लिए 
दूध से लबालब छलकती 
माँ की छातियाँ

मेरी कविता 
आज भी बनना चाहती है पोस्टर 
उगना चाहती है दीवारों पर 
मानव मुक्ति की इबारत बनकर 
पैदा करना चाहती है घृणा 
उसके खिलाफ 
जिसने पूरी दुनिया को 
कर लिया है कैद 
और बो दिया है नफरत का बीज

मेरी कविता 
आँधी बनकर दौड़ना चाहती है 
बिहार के उन गाँवों में 
जहाँ के मजदूर-किसान 
रच रहे हैं नया इतिहास 
जहाँ के क्षितिज पर 
फैल रही है एक नई लाली 
उग रहा है एक नन्हा सूरज 
मेरी कविता 
उन योद्धाओं की आशा आकांक्षा के 
बन जाना चाहती है गीत 
बन जाना चाहती है 
उनके हाथों के हथियार 
गुरिल्ला दस्ते की बंदूकों की गोलियाँ 
करना चाहती है 
अब भी छलनी 
वर्ग-दुश्मनों की छातियाँ 
मेरी कविता 
चंदवा रूपसपुर से करती है यात्रा 
पहुँचना चाहती है 
अरवल, कंसारा, कैथी, पारसबीघा, 
नोनहीनगवाँ- 
और यहाँ की मिट्टी की खुशबू बनकर 
फैल जाना चाहती है 
पूरे मुल्क में ताजगी के साथ

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मेरी भोली-भाली कविता 
अभी भी छीनने को तैयार है 
दुश्मनों की राइफलें 
युद्धरत मुक्ति-सेना के कंधों पर 
इन राइफलों को करना चाहती है तब्दील 
फूलों से लदी 
डालियों के रूप में 
जिस पर चहक सकें चिड़िया 
जिसके परागकण 
पैदा करें 
श्रमिकों के लिए 
शहद का अक्षय भंडार

पोस्टरों पर फिर-फिर 
गोली दागने की 
फूल खिलाने और 
खुशबू छलकाने की भाषा 
बोलना चाहती है 
क्योंकि 
दुनिया को खूबसूरत और 
बेहतर बनाने के सपनों से 
लदी है मेरी कविता।

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