कहो सदाशिव कैसे हो
कितने बदल गए कुछ दिन में
तनिक न पहले जैसे हो

खेत और खलिहान बताओ
कुछ दिल के अरमान बताओ
ऊँची उठती दीवारों के
कितने कच्चे कान बताओ
चुरा रहे मुँह अपने से भी
समझ न आता ऐसे हो

झुर्री-झुर्री गाल हो गए
जैसे बीता साल हो गए
भरी तिजोरी सरपंचों की
तुम कैसे कंगाल हो गए
चुप रहने में अब भी लेकिन
तुम वैसे के वैसे हो

See also  न दैन्यं... | अनुराधा सिंह

माँ तो झुलसी फसल हो गई
कैसी अपनी नसल हो गई
फूल गए मुँह दरवाजों के
देहरी से भी टसल हो गई
धँसी आँख-सा आँगन दिखता
तुम अब खोटे पैसे हो

भूले गाँव गली के किस्से
याद रहे बस अपने हिस्से
धुआँ भर गया उस खिड़की से
हवा चली आती थी जिससे
अब भविष्य की भी सोचो क्या
थके हुए निश्चय-से हो

See also  प्रेम के लिए फाँसी | अनामिका

घर-आँगन चौपाल सो ग
मीठे जल के कुएँ खो गए
टूटे खपरैलों से मिलकर
बादल भी बिन बात रो गए
तुमने युद्ध लड़े हैं केवल
हार गए अपने से हो

चिड़िया जैसी खुशी उड़ गई
जब अकाल की फाँस गड़ गई
आते-आते पगडंडी पर
उम्मीदों की नहर मुड़ गई
अब तो तुम अपनी खातिर भी
टूट गए सपने-से हो

See also  आवाज | प्रेमशंकर शुक्ला

सुख का ऐसा उठा फेन था
घर का सूरज लालटेन था
लोकगीत घुट गए गले में
अपना स्वर ही तानसेन था
अब दहशत की व्यथा-कथा हो
मन में उगते भय-से हो