न दैन्यं... | अनुराधा सिंह
न दैन्यं... | अनुराधा सिंह

न दैन्यं… | अनुराधा सिंह

न दैन्यं… | अनुराधा सिंह

दीन हूँ, पलायन से नहीं आपत्ति मुझे
ऐसे ही बचाया मैंने धरती पर अपना अस्तित्व
जंगल से पलायन किया जब देखे हिंस्र पशु
नगरों से भागी जब देखे और गर्हित पशु
अपने आप से भागी जब नहीं दे पाई
असंभव प्रश्नों के उत्तर
घृणा से भागती न तो क्या करती
बात यह थी कि मैं प्रेम से भी भाग निकली

सड़कें देख
शंका हुई आखेट हूँ सभ्यता का
झाड़ियों में जा छिपी
बर्बरता के आख्यान सुनाई दिए
मैदान में आ रुकी
औरतों के फटे नुचे कपड़े बिखरे थे
निर्वस्त्र औरतें पास के ढाबे में पनाह लेने चली गई थीं
मैं मैदान में तने पुरुषों
ढाबे में बिलखती औरतों से भाग खड़ी हुई

एक घर था जिसमें दुनिया के सारे डर मौजूद थे
फिर भी नहीं भागी मैं वहाँ से कभी
यह अविकारी दैन्य था
निर्विकल्प पलायन
न दैन्यं न पलायनम कहने की
सुविधा नहीं दी परमात्मा ने मुझे।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *