जंगल के झरने की धार
चाहा भर लूँ बाँह पसार

घने दरख़्तों की सिसकार
और नदी की एक नकार

बूँद नदी सागर संसार
पानी तेरे रूप हज़ार

वा कर आफ़ाक़ी आगोश
देख तो लूँ क्या है उस पार

दहलीज़ों-दहलीज़ों तक
चलना थकना कितनी बार

दूर उफुक़ से फिर उभरी
कोमल काजल सी तलवार

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जंगल में क्यूँ याद आए
अपने आँगन के असरार